मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

कवि सम्‍मेलन की सफलता की खुशी, जिस्‍म में लगते इंजेक्‍शनों का दर्द और तरही मुशायरे का परिणाम

जाने कैसे हिम्‍मत करके ये पोस्‍ट लगाने आया हूं । आपको बताया था कि सीहोर में एक अखिल भारतीय कवि सम्‍मेलन का आयोजन किया जा रहा है  । आप सब की दुआओं से वो सम्‍मेलन शानदार रहा और ये भी कि सेना को समर्पित इस कवि सम्‍मेलन में सब ने खूब शानदार काव्‍य पाठ किया । विशेषकर विनीत चौहान तो अपने रंग के अपने ही कवि हैं । कड़कड़ाती ठंड में सुबह के चार बजे तक लगभग आठ से दस हजार श्रोता कवियों को सुनते रहे और सेना के जय जय कारे लगाते रहे ।

अपनी कहूं तो सूत्रधार होना और काम का बोझ होना दोनों ने ही 26 की रात को अंतत: बिस्‍तर पर डाल दिया । कुछ तनाव था और कुछ अचानक बढ़ गयी ठंड का परिणाम हुआ ये कि जबरदस्‍त बुखार ने चपेट लिया । ऐसा लग रहा था कि कवि सम्‍मेलन में ही नहीं जा पाऊंगा मगर फिर काफी इंजेक्‍शनों और दवाइयों के दम पर वहां गया और पूरे कवि सम्‍मेलन में रहा भी काव्‍य पाठ भी किया । मगर उस हिम्‍मत का परिणाम ये रहा कि उस दिन से ही बिस्‍तर पर हूं । आज कुछ ठीक लगा तो आपसे बात कर रहा हूं ।

तरही मुशायरा हो चुका है और परिणाम नीरज जी ने दे दिये हैं आज उनकी केवल घोषणा ही होनी है । नीरज जी के ही शब्‍दों में आज हम परिणाम घोषित करते हैं ।

नीरज गोस्‍वामी जी :

neerajgoswami

गुरुदेव आपने फंसा दिया...जब शेर उम्दा हों शायर कमाल के हों ऐसे में हासिल ग़ज़ल शेर निकलना कितना मुश्किल काम है आप तो जानते ही हैं....फ़िर भी जब जिम्मेदारी दी है तो निभानी ही पड़ेगी...मेरी नजर में इस मुशायरे का हासिल ग़ज़ल शेर है:
सिंहासन हिल उठ्ठेगा जब
लावा बन फूटेगी जनता

इस शेर में जनता की ताकत को बहुत खूबसूरत अंदाज में पेश किया है...ये सच है की हम जनता को लाचार मानते आए हैं जबकि ऐसा नहीं है...जब जब जनता के गुस्से के लावा फूटा है तब तब सत्ता धारियों के होश उड़ गए हैं...ईमर्जेंसी के बाद देश की सबसे ताक़तवर नेता स्व.इन्द्राजी का जनता ने जो हश्र किया वो आज भी याद किया जाता है...
मेरी ढेरों बधाईयाँ मेजर गौतम जी को.
इसका अर्थ ये नहीं की बाकि शायरों ने जो कहा है वो उन्नीस है...सभी अपनी जगह अव्वल हैं...इसलिए मेरे निर्णय को अन्यथा न लें...मुझे युवाओं के जो तेवर इस मुशायरे में नजर आए हैं वो बहुत हिम्मत बंधाने वाले हैं... बेमिसाल है...
नीरज

नीरज जी ने अपना काम बखूबी किया है । उनका आभार गौतम को बधाइयां ।

अगले मुशायरे के लिये मिसरा आज दिया जा रहा है ।

मुहब्‍बत करने वाले ख़ूबसूरत लोग होते हैं

काफिया : होते

रदीफ : हैं

अनुरोध वही है कि ग़ज़लों को कमेंट के रूप में नहीं लगायें । subeerin@gmail.com पर मेल करें ।

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

मुंबई के शहीदों और भारतीय सेना को समर्पित रहेगा आज का कवि सम्मेलन

हिंदू उत्सव समिति सीहोर द्वारा  27 दिसम्बर शनिवार को स्थानीय बस स्टैंड परिसर में  आयोजित होने वाले  अखिल भारतीय कवि सम्मेलन को एक माह पूर्व ठीक 27 नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए भारत के जांबाज सैनिकों तथा समूची भारतीय सेना को समर्पित किया गया है । इस कवि सम्मेलन में देश भर के शीर्ष कवि और कवियित्रियां काव्य पाठ करने के लिये पधार रहे हैं । हिंदू उत्सव समिति के मीडिया प्रभारी  प्रदीप समाधिया ने जानकारी देते हुए बताया कि मुंबई में आतंकवादियों के साथ वीरता के साथ लड़ते हुए शहीद हुए भरतीय सेना के जाबांज वीर शहीदों को समर्पित इस अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में क्षेत्रीय विधायक श्री रमेश सक्सेना उपस्थित रहेंगें । कवियों में श्री विनीत चौहान , श्री वेदव्रत वाजपेयी, हास्य कवि श्री अलबेला खत्री,  गीतकार श्री कुंवर जावेद, हास्य कवि श्री सांड नरंसिहपुरी, श्री रमेश शर्मा,  सुश्री अनु शर्मा सपन, मदन मोहन चौधरी समर,  श्री हजारीलाल हवालदार, कवि जलाल मयकश, मंच संचालक श्री संदीप शर्मा, शामिल हैं । सूत्रधार कवि  पंकज सुबीर  हैं ।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

तरही मुशायरे ने जितना इंतेजार करवाया उतना ही आनंद भी आया है । और आज प्रस्‍तुत हैं अंतिम तीन प्रस्‍तुतियां जिनमें शामिल हैं एक कवियित्री भी ।

तरही मुशायरे को लेकर जिस प्रकार लोग प्रतिक्षा कर रहे थे उसको देख कर मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ कि वास्‍तव में मैंने जो इंतेजार करवाया वो कुछ ज्‍याद ही हो गया है । खैर कहा जाता है ना कि देर आयद दुरुस्‍त आयद । और पिछले अंकों को लोगों ने हाथों हाथ लिया है ये अच्‍छी बात है । चलिये आज हम चलते हैं अपने समापन अंक की ओर जिसमें आज दो कवि और एक कवियित्री शामिल हैं । आज के अंक में जैसा कि मैंने पहले कहा था कि एक भारी भरकम कवि भी  शामिल हैं जो कि विशेष रूप से कनाडा से इंडिया इसी कार्यक्रम के लिये पधारे हैं । तो चलिये हम प्रारंभ करते हैं आज का ।

माड़साब : आज सबसे पहले आ रहे हैं तरुण गोयल । तरुण पहली बार हमारे तरही मुशायरे में आ रहे हैं इसलिये जोरदार  तालियां इनके लिये ।

तरुण गोयल -

गूंगी बहरी अंधी जनता,
लड़ती और झगड़ती जनता|

अंधियारों में खोई खोई,
गलियारों में उलझी जनता|

माया के आँचल से लिपटी,
लुटी हुई बेचैन सी जनता|

क्यूँ सर के ही बल दौडे है,
पागल और बेचारी जनता|

हर एक आहट पे  घबराती,
डरी हुई और सहमी  जनता|

क्यूँ न बदले रोज ये पासा,
वादों से न चलती जनता|

माड़साब : भई तरुण ने बहुत अच्‍छे शेर निकाले हैं । विशेषकर वो शेर जिसमें कहा है हर एक आहट पर घबराती डरी हुई और सहमी जनता बहुत अच्‍छा कहा है । तालियां तालियां तालियां । और तरुण के बाद आ रही हैं मुशायरे की दूसरी कवियित्री । पहले दौर में कंचन ने अपनी ग़ज़ल पढ़ी थी और आज पारुल आ रही हैं अपनी ग़ज़ल को लेकर पारुल एक अच्‍व्‍छी कवियित्री हैं और ग़ज़ल की कक्षाओं से कुछ दिनों पूर्व ही जुड़ी हैं । इन दिनों ग़ज़लें भी लिख रही हैं । तो तालियों के साथ स्‍वागत कीजिये पारुल का ।

पारुल :

गूंगी बहरी अन्धी जनता
भोली कभी सयानी जनता

शहर फूंक कर हाथ तापती
मन्द मन्द मुस्काती जनता

मुँह मे राम बगल में छूरी
नित चरि्तार्थ कराती जनता

नेकी कर दरिया मे डालो
ऐसा पाठ पढ़ाती जनता

उगते सूर्य को पीठ दिखाकर
तमस तमस चिल्लाती जनता

माड़साब : अच्‍छा प्रयास है पहला ही प्रयास । हालंकि बहर की कुछ समस्‍याएं कहीं कहीं दिखाई दे रहीं हैं मगर फिर भी चूंकि पहला प्रयास है इसलिये साधुवाद और ये भी कि करत करत अभ्‍यास के सब हो जाता है । और अब आ रहे हैं वो जिनका हम सब को इंतेजार है वो जो कि कनाडा से केवल हमारे तरही मूशायरे के लिये भारत पधारे हैं और जिनका हम सब को बेसब्री से इंतेजार है । चलिये तालियों के साथ स्‍वागत कीजिये उड़न तश्‍तरी उर्फ समीर लाल जी का ।

समीर लाल :

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ऊप्‍स मुशायरा प्रारंभ भी हो गया चलिये बस ये एक डिश और बाकी रह गई है होटल की इसको नहीं खाया तो होटल वाले भी बुरा मानेंगें और डिश को भी बुरा लगेगा कि आखिर मुझसे ही क्‍यों दूरी । बस आता हूं ।

लो मैं आ गया भरे पेट कविता पेलने का आनंद ही कुछ और है क्षमा करें मैं दूर से आया हूं इसलिये तीन ग़ज़लें पेलूंगा अगर आप बुरा न मानें तो । और बुरा मानें तो भी मुझे तो तीन पेलना है ।

तकलीफों को सहती जनता
उम्मीदों पर पलती जनता

दुश्मन की पहचान नहीं है
अपनों को ही छलती जनता.

खाते पीते महलों वाले
मछली उनकी तलती जनता.

सुनने वाला कोई नहीं है
गज़ल भला क्यूँ लिखती जनता.

गाँवों में अब काम नही है
शहरों में जा बसती जनता.

बाढ़ों में जब सपने बहते
अनुदानों को तकती जनता.

ग़ज़ल बदले काफिये के साथ

जख्मों को दिखलाती जनता
अपना हाल सुनाती जनता

झोली उनकी भरती जाती
कर्जा माफ कराती जनता

धोखा देते नेता सारे
चुनती उनको जाती जनता

रोते रोते आंसू सूखे
बेबस हो चिल्लाती जनता

( (मजाकिया (5))

नेताओं की पोल खुली जब
उनको धूल चटाती जनता

अपने वोटों की लालच दे
उनसे पैर छुलाती जनता

साईकिल से दफ्तर जाने
पंचर ठीक कराती जनता.

मोटर से इम्प्रेशन पड़ता
डीज़ल खूब भराती जनता.

( यूपी स्पेशल)
अपने घर में बिजली लाने
कटिया रोज फसाती जनता.

माड़साब : वाह वाह वाह । लगता है कि खा पीकर कोसने का आनंद ही कुछ और है । धोखा देते नेता सारे चुनती उनको जाती जनता । काफी अच्‍छे तेवर हैं समीर जी । तो श्रोताओं समीर जी के इस धांसू प्रदर्शन के साथ ही हम तरही का समापन करते हैं । अब श्री नीरज जी गोस्‍वामी के पाले में गेंद है कि कब वे इस तरही मुशायरे का हासिले मुशायरा शेर घोषित करते हैं । जै राम जी की ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

अंकित और वीनस की ही तरह से दो और प्रतिभावान युवा हैं और इन दोनों ने ही बहुत प्रभावित किया है गौतम और रविकांत ।

तरही मुशायरे के दो दौर हो चुके हैं और अजा तीसरे दौर में हम दो और युवाओं को लेने जा रहे हैं । ये दोनों हैं मेजर गौतम राजरिशी और रविकांत । दोनों ही ग़ज़ल को लेकर बहुत गंभीरता से काम  कर रहे हैं और अच्‍छे शेर कह रहे हैं । इन दिनों सीहोर में होने वाले कवि सम्‍मेलन की तैयारियों में भी व्‍यस्‍त हूं । आगामी 27 दिसंबर को होने वाले कवि सम्‍मेलन में श्री वेदव्रत वाजपेयी, श्री कुंवर जावेद, श्री रमेश शर्मा, श्री सांड नरसिंहपुरी, श्रीमती अनु शर्मा सपन, श्री अलबेला खत्री, श्री जलाल मयकश, श्री मदन मोहन चौधरी समर और श्री संदीप शर्मा पधार रहे हैं । आप सब भी आमंत्रित हैं आइये और कवि सम्‍मेलन का आनंद लीजिये । चलिये आज दो और युवा कवियों की बात करते हैं जो कि बहुत अच्‍छा काम कर रहे हैं । गौतम राजरिशी को एक बार फिर बधाई कि उनकी एक ग़ज़ल कादम्बिनी में प्रकाशित हुई है । आज तरही मुशायरे का तीसरा दिन है । और आज के दो कवियों के बाद अब हमारे पास तीन और कवि शेष हैं जिनमें एक कवियित्री भी हैं । साथ ही एक वरिष्‍ठ तमतमातम भी शेष हैं । तमतमातम इसलिये कि वे हैं ही ऐसे । उनके लिये केवल वरिष्‍ठ तम लिखने से काम चलने ही नहीं वाला है ।

माड़साब : आज के तरही मुशायरे के प्रारंभ में आ हरे हैं मेजर गौतम राजरिशी । मेजर सेना में हैं देहरादून में पदस्‍थ हैं । और सेना के रूखे माहौल में रह कर भी ग़ज़ल की खेती कर रहे हैं । बल्कि ये कहा जाये कि शानदार तरीके से कर रहे हैं । इनकी जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वो ये है कि इन्‍होंने बहर के बारे में मेरे द्वारा बताई गई प्रारंभिक जानकारी के आधार पर कई फिल्‍मी गानों की बहर निकाल के मुझे भेजी हैं । जैसा मैंने पहले बतायो कि कादम्‍िबिनी में इनकी एक ग़ज़लनुमा ग़ज़ल प्रकाशित हुई है । एक बात जो मुझे अच्‍छी लगी है कि सारे ही शायरों ने तीखे तेवरों के साथ ग़ज़लें लिखीं हैं और जो आज के दौर की सबसे बड़ी ज़रूरत है

मेजर गौतम राजरिशी :

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सब कुछ चुप रह सहती जनता
आखिर कब बोलेगी जनता
करतूतें गद्‍दी की देखे
अंधी बहरी गूंगी जनता

सिंहासन हिल उठ्‍ठेगा जब
लावा बन फूटेगी जनता
खादी पहनें,आ चल लूटें
अपनी भोली-भाली जनता

बंदूकों संग ईदी खाये
बम से खेले होली जनता
मंहगाई जब पीसे आटा
कैसे बेले रोटी जनता
परवत ऊँचे सेंसक्सों पर
चिथडे़ में है लिपटी जनता
नारों से क्या हासिल होगा
अपना हाकिम अपनी जनता
रिश्ते-नाते सारी भूली
गाँवों से आ शहरी जनता
स्यासत की शतरंजों पर है
फर्जी,प्यादा,किश्ती जनता

माड़साब : तालियां तालियां तालियां । भई गौतम ने बहुत खूब काम किया है । विशेषकर सिंहासन हिल उट्ठेगा जब लावा बन फूटेगी जनता तो अद्भुत है । गौतम ये शेर आप जानते ही नहीं है कि सरस्‍वती ने आपसे क्‍या लिखवा दिया है । ये तो उस तरह का शेर है जो नारा बन जायेगा । आप जानते हैं कि आज जो नारे मजदूर संघ लगाते हैं उनमें से अधिकांश सुकवि स्‍व शैलेन्‍द्र ने लिखे थे । आपका ये शेर भी वैसा ही है । आपने एक शेर में जो कमाल कर दिया है वो कायम रहने वाला है । और अब आ रहे हैं कुछ शर्मीले से रविकांत  शर्मीले इसलिये की इनका चित्र वैसा ही है । तालियों से स्‍वागत करें रविकांत का जो कहते हैं अपने बारे में कि एक मुसाफ़िर जो खुद अपनी तलाश में है। व्यवसाय- शोध-छात्र, आई आई टी कानपुर
संपर्क- laconicravi@gmail.com । इन्‍होंने पिछले चार सप्‍ताह से अपने ब्‍लाग पर कोई पोस्‍ट नहीं लगाई है इसलिये माड़साब इनसे नाराज हैं ।

रविकांत : इसबार लिखने में काफ़ी मशक्क्त करनी पड़ी। जो हो पाया वो सामने रखता हूँ-

Picture 029



मुश्किल में बेचारी जनता
सौ-सौ आँसू रोती जनता
जो आए इज्जत से खेले
कैसी किस्मतवाली जनता
दिल्ली दुल्हन सी सजती है
तरसे पाई पाई जनता
उनकी साजिश का ये आलम
आपस में लड़ मरती जनता
सौदा होता बिक जाती है
अंधी बहरी गूंगी जनता
झूठे वादों से क्या होगा
रोटी खोजे भूखी जनता
शोले बरसें सब जल जाए
रो-रो आहें भरती जनता
सहने की भी हद होती है
कब तक चुप बैठेगी जनता
क्यों नेताओं के हाथों की
केवल है कठपुतली जनता
तकदीरों के ठेकेदारों
अब भी चेतो कहती जनता
जुड़ता है कुछ इतिहासों में
अपने पर जब आती जनता
जिसका जूता उसका ही सर
बढ़िया खेल मदारी जनता

काँटे पर आटा रखते वो
मछली सी फंस जाती जनता

दो रूप्ये में किस्मत अपनी
तोतों से पढ़वाती जनता

माड़साब : वाह वाह वाह । क्‍या शेर निकाले हैं रविकांत ने विशेषकर जुड़ता है कुछ इतिहासों में अपने पर जब आती जनता में बहुत अच्‍छे तेवर हैं । आनंद आ गया इस शेर में । एक बात में प्रारंभ से ही कह रहा हूं कि शायर सीधे कुछ न कह कर जब गोपन रख कर कहता है तो अधिक आनंद आता है । जैसे रवि न किया जुड़ता है कुछ इतिहासों में । अब इसमें जो कुछ शब्‍द आया है वो ही आनंद दे रहा है । क्‍योंकि शायर ने केवल कुछ लिखा है । वाह भई वाह । हां एक बात और इस बार के तरही मुशायरे का हासिले मुशायरा शेर का चयन माड़साब नहीं कर रहे हैं बल्कि इस बार श्री नीरज गोस्‍वामी जी को ये जवाब दारी दी जा रही है कि वे ही हासिले मुशायरा शेर का चयन करें और अपनी विशेष टिप्‍पणी भी दें के क्‍यों चुना उन्‍होंने इस शेर को हासिले मुशायरा शेर । तो मिलते हैं अगले दौर में दो कवियों और एक कवियित्री के साथ । तब तक जै राम जी की ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

आज का दिन मैं चाहता हूं कि इस युवा पीढ़ी के नाम रहे जिसका प्रतिनिधित्‍व ये दोनों युवा शायर कर रहे हैं , वीनस और सफर ।

तरही मुशायरा बहुत दिनों से यूं रुका था जैसे कोई बात कहीं पर रुक जाये और फिर लाख कोशिशों के बाद भी हो न पा रही हो । ख़ैर कहते हैं न कि जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है । तो हम तरही मुशायरे से होकर गुज़र रहे हैं तीन शायरों का बेहतरीन प्रदर्शन कल देखा और आज  दो शायर आ रहे हैं । मैं अपनी कहूं तो चूंकि मैं रामधारी सिंह दिनकर जी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं इसलिये मैं ये मानता हूं कि जो कविता आज के दौर को चित्रित नहीं कर रही है वो कविता कहीं नहीं पहुंच पा रही है । इसीलिये मुझे तीखें तेवरों वाली ग़ज़लें भी पसंद आती हैं । जाने क्‍यों मुझे ऐसा लगता है कि ग़ज़ल को भी अब मुकाबले में उतरना ही होगा आम आदमी के पक्ष में व्‍यवस्‍था के खिलाफ़ । अब ग़ज़ल को भी उसी भाषा में बात करना होगा कि सिंहासन खाली करो के जनता आती है । हमारे पहले दौर के तीनों ही शायरों कंचन, अभिनव और संजय ने काफी तीखे तेवरों में जनता की बात की है । कवि यही तो होता है कि वो दोनों ही पक्षों को निशाने पर रखे और हमारे तीनों ही शायरों ने व्‍यवस्‍‍था के साथ्‍ा जनता को भी नहीं बख्‍शा । एक बार फिर तालियां । और चलते हैं दूसरे दौर के शायरों के साथ ।

माड़साब : सबसे पहले आ रहे हैं हमारे एक शायद सबसे कम उम्र के प्रतियोगी । अंकित सफर की एक विशेषता ये है कि उनकी तस्‍वीरें बहुत सुंदर आती हैं । और ग़ज़लें भी उत्‍साह में लिखते हैं । अंकित का पता ठिकाना ये है अंकित जोशी "सफ़र" १७७२/६, ट कालोनी, पंतनगर, उधम सिंह नगर उत्तराखंड-२६३१४५ मोबाइल:- ०९९२१९४१७८४

अंकित जोशी "सफ़र"

2

अच्छी हो या गन्दी जनता.
हम सब से ही  बनती जनता.

नेताओं को चुनती जनता.
अंधी बहरी गूंगी जनता.

बीच सड़क पे खून हुआ एक,
बोले कुछ न गूंगी जनता.

है ग़म फ़िर भी हँसता जोकर
ताली पीटे अंधी जनता.

छोटे से मुद्दे पे दंगा,
आग बनी चिंगारी जनता.

मुफ्त बटी वोटों की खातिर,
दारु, लाइट, साड़ी जनता.

अपनी ताकत ख़ुद ना जाने,
मूरख पागल कैसी जनता.

कल कुछ बम फटने के कारन,
दिखती है सहमी सी जनता.

तनहा जो करना है मुश्किल,
आसा है कर सकती जनता.

माड़साब : मैंने कहा था कि अंकित उत्‍सा‍ह में लिखतें हैं और अच्‍छी बात ये है कि इन्‍होंने मुशायरे के तेवर को बनाये रखा है । मतला अच्‍छा है और अपने पर भी सवाल उठाने का साहस किया गया है जो कवि का पहला गुण होता है । तालियां छोटे बच्‍चे के लिये और हम चलते हैं एक और कम उम्र के प्रतियोगी की तरफ आ रहे हैं वीनस केसरी । ये कुछ गुमे हुए से प्रतियोगी हैं । गुमे हुए से का मतलब है कि ये अक्‍सर खो जाते हैं और फिर अचानक प्रगट हो जाते हैं । सबसे अच्‍छी बात ये है कि इनके पास सवाल हैं जो हर जिंदा आदमी के पास होने चाहिये ।

वीनस केसरी :

venus

जब सोते से जागी जनता
फ़िर तूफां औ आंधी जनता
नेता जी मन ही मन सोंचे
कब किसकी महतारी जनता
गांधी जी के तीनों बन्दर
अंधी बाहरी गूंगी जनता
गणतंत्र  दिवस हर चौराहे
जन गण मन दुहराती जनता
नवमी पूजन ईद दशहरा
कब बम से भय खाती जनता

अब भारत में हक के खातिर
घिस घिस कर फट जाती जनता
लूली लंगडी टेढी बाकुल
अंधी बहरी गूंगी जनता
कोसी हो या यमुना देखो
सब में बहती जाती जनता
अंधी नगरी चौपट  राजा
क्या कर ले व्यापारी जनता
कहने को सब कुछ मिलता है
पर कब कुछ है पाती जनता
नेता जी की टोपी में है
अगड़म बगड़म ठूसी जनता
अब संसद के हर खंभे को
अपना दुःख बतलाती जनता
जब चारा भी नेता खालें
तब क्या खाए भूखी जनता
मुर्गा बकरा नेता खाते
ईंटा पत्थर खाती जनता
सरकारी काली पन्नों में
जीती औ मर जाती जनता

माड़साब : हूं अच्‍छे शेर निकाले हैं । कुछ शेर बहर से इधर उधर हो रहे हैं । लेकिन तरही मुशायरे का नियम है कि जो कुछ जैसा हो वैसा ही प्रस्‍तुत किया जायेगा । कुछ शेर अच्‍छे तेवरों में हैं । विशेषकर सरकारी काले पन्‍नों में जीती औ मर जाती जनता तो बहुत अच्‍छा निकाला है । हिंदुस्‍तान की आम जनता का मानो पूरा चित्र की खींच कर रख दिया है वीनस ने । तालियां तालियां और तालियां । आज केवल ये दो ही क्‍योंकि आज का दिन मैं चाहता हूं कि इस युवा पीढ़ी के नाम रहे जिसका प्रतिनिधित्‍व ये दोनों युवा शायर कर रहे हैं । वीनस और सफर । दोनों पर हमें आने वाले कल की उम्‍मीदें हैं । और दोनों ही अपने शेरों में हमें निराश नहीं कर रहे हैं । तो स्‍वागत करें हमारी आने वाले कल की कविता का । मन से पढ़ें इन दोनों को और खूद दाद दें । जै राम जी की ।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

बहुत दिनों से रुका हुआ था ये तरही मशायरा । ऐसा लग रहा है जैसे कि इसी के कारण बाकी का सब भी रुका है तो चलिये आज आयोजित करते हैं इसे ।

काफी पहले से हम एक तरही मुशायरे पर स्‍थगित से बैठे हैं । और दरअस्‍ल में कुछ कारण नहीं भी हो तो भी बस कभी कभी ऐसा ही कुछ होता है ना कि कुछ नहीं हो फिर भी कुछ नहीं होता । गौतम की उत्‍सुकता वाजिब है और होनी भी चाहिये क्‍योंकि ये तो वही बात होती है कि बच्‍चा हो तो गया है लेकिन पिता को उसका चेहरा नहीं देखने को मिल रहा है । बच्‍चे से याद आया हमारी कक्षा के होनहार छात्र अभिनव शुक्‍ला अब बच्‍चे नहीं रहे हैं । क्‍यों, क्‍योंकि वे अब पिता बन गये हैं । पिछले माह उनके यहां पर एक बेटे का आगमन हो गया है । पूरी ग़ज़ल की कक्षा की ओर से उनको बधाई, हम यही कामना करते है कि ये बच्‍चा अपने पिता से भी बड़ा कवि हो और अपने पिता की ही तरह से हिंदी की सेवा करे । बच्‍चे का नाम जैसा कि अभिनव ने बताया कि अथर्व रखा गया है । बहुत अच्‍छा नाम है इसी से पता लगता है कि किस प्रकार वे आज भी अपने देश की संस्‍कृति और सभ्‍यता से जुड़े हैं । पुन: बधाई और आज का ये तरही मुशायरा इसी खुशी में ।

चूंकि बात नये मेहमान की हो रही है इसलिये हम आज के मुशायरे का प्रारंभ भी एक नये मेहमान के साथ ही करेंगें । ये पहली बार हमारी कक्षा में आये हैं । और कक्षा में आने वाले दूसरे सेना के अधिकारी हैं । गौतम पहले से हैं और ये भी सेना में केप्‍टन हैं ।  कैप्‍टन संजय चतुर्वेदी जी भी सोच रहे होंगें कि कहां के तरही मुशायरे में फंसा जहां पर दो महा से अधिक हो गये हैं लेकिन अभी भी कुछ नहीं हो पा रहा है । खैर चलिये आज का प्रारंभ करते हैं कैप्‍टन के साथ

कैप्टन सँजय चतुर्वेदी पहली बार कक्षा में हाजिर हूँ इस आशा के साथ के देरी के बावज़ूद आप मुझे कक्षा में बैठने देँगे .शेष विस्तार से बातें करूंगा.प्रणाम .
छूती  रोज  बुलन्दी  जनता
फिर औन्धे मूँ गिरती जनता

गर्मी का मौसम है फिर भी
ताप रही  है बस्ती जनता

ना  मँडप ना  ही  बाराती
मल कर बैठी हल्दी जनता

खुश्बू  होने  की चाहत  में
रोज हवा में  घुलती जनता

अन्धी  नगरी  चौपट  राजा
चन्द टकों में बिकती जनता

कौन   बन्सरी  बजा रहा है
चूहों  जैसी  चल दी जनता

इक  दूजे  का  रस्ता  रोकें
चौडी  राहें   सँकरी  जनता

धन्वन्तरि  को  ढूँढ  रही  है
बहरी  गूँगी   अन्धी  जनता

खुद ही  बनती  खेल तमाशा
खुद पर ही फिर हँसती जनता

माड़साब : भई वाह इसको कहते हैं कि पहली ही पारी में शतक मार देना । बहुत अच्‍छा । संजय जी आपकी कहन में बात है आप गौतम से नेट पर हिंदी की ट्रेनिंग लें और नियमित रूप से जुड़ें । तालियां संजय जी के लिये । और अब संजय जी के बाद आ रहे हैं नये नये पिता बनने का सुख उठा रहे अभिनव । अभिनव ग़ज़ल की कक्षाओं के सबसे पुराने छात्र हैं । और तभी से नियमित कभी अनियमित रूप से आते रहे हैं । आज दूसरे नंबर  पर वे ही आ रहे हैं ।

अभिनव शुक्‍ला -

abhinav_shukla

लगती ठहरी ठहरी जनता
सागर जैसी गहरी जनता
जून, बर्फ का पानी, बच्चे
तपती एक दोपहरी जनता
गांधीजी के बन्दर जैसी
अंधी गूंगी बहरी जनता
ईंटा लेकर तवा मांजती
रामधुनी सी महरी जनता
दुनिया का खूं पीते साहब
साहब की मसहरी जनता
मज़हब, दौलत, भूख, गरीबी,
तेरी जनता मेरी जनता

माड़साब : अभिनव लगता है अथर्व का आगमन आपके लेखन में भी नया रंग भर गया है । भई खूब बहुत खूब । सारे शेर बात कर रहे हैं । ईंटा लेकर तवा मांजती रामधुनी सी महरी जनता में तो कमाल का काम किया है । हां एक बात यहां पर मैं स्‍पष्‍ट कर देना चाहता हूं कि उर्दू में एक काफिया का दोष होता है जिसमें काफिया से मात्रा को हटाने के बाद उसका स्‍वरूप देखा जाता है । उसे हिंदी में अमान्‍य किया जाता है । अत: वो दोष जो यहां पर भी काफी सारे शेरों में उर्दू के हिसाब से होरहा है उसे हम अभी नजरअंदाज कर रहे हैं हां मगर उस पर मुशायरे के सम अप में बात करेंगें । और अब आ रही हैं कंचन ।

कंचन -

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बैसाखी पर दौड़ी जाती,
अंधी, गूँगी, बहरी जनता।
खिलते लब पर भारी छाती,
मुस्कानो में सिहरी जनता।
मरने वाले मेरे ना थे,
शुकर मनाए, ठहरी जनता।
आज खड़े भाषण देते हो,
कल तुम भी थे हम सी जनता।
तुम पहले कपड़े तो बदलो,
बाहर बिखरे बिखरी जनता।
लेकिन देखो यू ना होवे,
तुम्हे बदल दे, बिफरी जनता।

माड़साब : भई वाह कंचन आपने एक शेर तुम पहले कपड़े तो बदला बाहर बिखरे बिखरी जनता में जो बारीक सा इशारा देश के पूर्व गृहमंत्री पर किया है वो लाजवाब है । यही तो कवि या शायर की विशेषता होती है कि वो कभी भी कुछ सीधे नहीं कहता वो तो कविता की भाषा में ही बात करता है । आपने अच्‍छे प्रयोग किये हैं । बधाई । चलिये आज के लिये इतना है आज हमने तीन शायरों को लिया है कल हम कुछ और को लेंगें ।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

हवा से फड़फड़ाते हुए हिंदुस्‍तान के नक्‍शे पर गाय ने गोबर कर दिया है

लगभग एक माह से आप सबसे दूर हूं । 8 नवंबर को पूज्‍यनीय दादीजी का स्‍वर्गलोक गमन हो गया । वैसे तो काफी समय से वे बीमार थीं किन्‍तु 8 नवंबर को अंतत: ईश्‍वर ने उनको बुला ही लिया । दादा-दादी के साथ बहुत कुछ चला जाता है । वो लाड़ वो दुलार वो सब कुछ चला जाता है । हुलस हुलस कर खिलाने का भाव दादी और नानी के पास ही होता है । दादी और नानी को अपना नाती या पोता हमेशा ही दूबरा लगता है । और हमेशा ही बहू को उलाहना कि कुछ खिलाती नहीं है बच्‍चे सींक समान हो रहे हैं । वो सब चला गया दादी के साथ ही । कई सारे मित्रों की संवेदनायें मिलीं सबको धन्‍यवाद । एक माह दूर रहा ब्‍लाग से नेट से और कम्‍प्‍यूटर से भी । एक अनोखी पुस्‍तक पढ़ी ''तुरपाई उधड़ते रिश्‍तों की''  श्री आलोक सेठी जी की ये पुस्‍तक पढ़ते समय कितनी बार रोया याद नहीं । माता और पिता के साथ बच्‍चों के संवेदनहीन रिश्‍तों पर लिखी किताब अपने आप में अनूठी है । ज़रूर ज़रूर पढ़ें ये किताब । ( इस किताब को पढ़वा कर कैसे मैंने एक मित्र का नजरिया बदला वो कहानी भी बताऊंगा )

मुंबई को दो दिन तक देखता रहा, मौन होकर देखता रहा ना तो अमिताभ बच्‍चन की तरह रिवाल्‍वर निकाली और ना आदरणीय लता जी की तरह रोया । किन्‍तु बस मौन होकर देखता रहा । मन में धूमिल की एक कविता गूंजती रही । गूंजती रही ऐसे मानो हर दिशा में बस वही कविता हो और कुछ भी न हो ।

बीस साल बाद ( धूमिल)

बीस साल बाद

मेरे चेहरे में

वे आंखें वापस लौट आईं हैं

जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है

हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गये हैं

और जहां हर चेतावनी

खतरे को टालने के बाद

एक हरी आंख बनकर रह गई है

बीस साल बाद

मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं

जानवर बनने के लिये कितने सब्र की ज़रूरत होती है ?

और बिना किसी उत्‍तर के चुपचाप

आगे बढ़ जाता हूं

क्‍योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूं है

कि खून में उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना

लगभग बेमानी है

दोपहर हो चुकी है

हर तरफ ताले लटक रहे हैं

दीवारों से चिपके गोली के छर्रों

और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में

एक दुर्घटना लिखी गई है

हवा से फड़फड़ाते हुए हिंदुस्‍तान के नक्‍शे पर

गाय ने गोबर कर दिया है

मगर यह वक्‍त घबराए हुए लोगों की शर्म

आंकने का नहीं है

और न यह पूछने का-

कि  संत और राजनीति में

देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्‍य कौन है ?

आह ! वापस लौटकर

छूटे हुए जूतों में पैर

डालने का वक्‍त यह नहीं है

बीस साल बाद और इस शरीर में

सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए

अपने आप से सवाल करता हूं -

क्‍या आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है

जिन्‍हें एक पहिया ढोता है

या इसका कोई खास मतलब होता है

और बिना किसी उत्‍तर के आगे बढ़ जाता हूं

चुपचाप ।

( कविता का एक शब्‍द बदला गया है )

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

केंकड़ों की कहानी ब्‍लाग जगत पर भी, चुनावों को मौसम और तरही मुशायरा होना तय

लग रहा होगा न कि मैं आजकल ग़ज़ल सिखाना छोड़ कर फालतू के काम में लगा हूं कुछ तो भी पोस्‍ट लगा रहा हूं । दरअसल में हो ये रहा है कि बिजली ऐसे आ रही है जैसे मेहबूबा आती हो । इधर  आती है उधर आते ही कहने लगती है कि जाऊं । हमारे यहां पर चुनावों का मौसम चल रहा है । कल हमारे प्रदेश के मुख्‍यमंत्री अपनी पत्‍नी के साथ 1 अपना नामांकन भरने हमारे शहर में पधारे । जब वे पत्रकारों से मुखातिब हुए तो एकबारगी तो इच्‍छा हुई थी कि पूछ ही डालें कि महोदय ये बिजली नाम की जो वस्‍तु हमारे प्रदेश में हुआ करती थी उसका क्‍या हुआ । पर फिर लगा कि किसी को भी उसकी पत्‍नी के सामने नहीं लताड़ना चाहिये उससे एक नुकसान तो ये होता है उसकी पत्‍नी भी ये काम करने लगती है और दूसरा ये कि पत्‍नी के सामने की लताड़ आदमी कभी नहीं भूलता कभी भी बदला निकाल लेता है । सो हमने भी कुछ टुच्‍चे से सवाल ही पूछ लिये मसलन आप जीत को लेकर क्‍या सोच रहे हैं , उमा भारती के बारे में आपका क्‍या खयाल है और प्रज्ञा भारती के मामले पर आप क्‍या सोचते हैं । टुच्‍चे सवाल थे सो टुच्‍चे ही उत्‍तर मिले वे भी हंसे हम भी हंसे, आदरणीय साधना भाभी मुस्‍कुराईं और वे रवाना हो गये । हम वापस लौटे तो देखा कि बिजली पूर्व की ही तरह गायब थी । हो सकता है कि हम एक दो दिन में गायब हो जायें, गायब से अर्थ ये कि चुनाव के काम में लग जायें । चुनाव के डाटा पर काम करने में हमें बहुत आनंद आता है कि उस चुनाव में उसको इतने प्रतिशत मत मिले थे और इसको इतने । वीडियों कैमरा खरीदने का मन था किन्‍तु कीमत सुन कर मन बेमन हो गया । सो बिना वीडियो कैमरे के ही काम चलायेंगें ।

तरही मुशायरे को लेकर अब एक बार फिर से सारी ग़जलें आ गईं हैं अंकित जोशी "सफ़र",गौतम वीनस और समीर जी ने भी ग़ज़लें भेज दी हैं ।सो अब अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो हम इसी सप्‍ताह तरही मुशायरा आयोजित करेंगें । बिजली कल हमारे शहर में कुछ इस प्रकार कटी थी प्रात: 6 से 2 कटौती 3 से 4 बिजली आई फिर 4 से 6 कटौती फिर 6 से 7 आई और फिर 7 से लेकर तब तक नहीं आई जब तक हम सो नहीं गये । इसीलिये कह रहा हूं कि यदि सब कुछ ठीक ठाक रहा तो ।

केंकडों की कहानी का इसलिये कहा कि कहीं पर किसी ब्‍लाग पर मैंने देखा कि आदरणीय राकेश खण्‍डेलवाल और श्री नीरज गोस्‍वामी को लेकर एक अशालीन टिप्‍पणी की गई थी । राकेश जी के फोन आने पर मैंने उन्‍हें बताया तो उन्‍होंने अपने स्‍वभाव के अनुसार सहजता से टाल दिया । किन्‍तु मुझे लगा कि अब केंकड़ों की कहानी यहां पर भी चालू हो गई है । हम सहजता के साथ सफलताओं को स्‍वीकार नहीं कर पा रहे हैं । पहले मैंने अपने ब्‍लाग पर माडरेशन नहीं लगाया था किन्‍तु एक दिन एक कमेंट आया जिसमें किसी अज्ञात ने बहुत ही भद्र ( अ ) भाषा में काफी कुछ लिखा था । उसके बाद मैंने अपने सारे ब्‍लाग पर माडरेशन लगा दिया । हम यहां पर मित्रता को बढ़ाने आये हैं कुं‍ठित लोगों की कुठाओं का निवारण करने के लिये नहीं । मेरी आदत है कि यदि किसी सीनीयर ब्‍लागर की किसी बात पर सलाह या सुझाव देना होता है तो मैं मेल करके ही करता हूं, जूनीयर ब्‍लागरों को कमेंट में इसलिये करता हूं कि वे गलती करने से बचें । फिर भी मेरा मानना है कि सभीको अपने ब्‍लाग पर माडरेशन लगाना ही चाहिये । ये  अधिकार सबके पास होना ही चाहिये क‍ि वे कमेंट को प्रकाशित करें या नहीं, आखिरको ब्‍लाग तो उन्‍हीं का है । खैर बात को विराम देते हैं । अगले बार मिलेंगें तरही मुशायरे में । जै राम जी की

शनिवार, 1 नवंबर 2008

केंकड़ों के श्‍ाहर की कहानी, लावण्‍य जी से जी टाक पर बातें और तरही मुशायरे की उलझन का सुलझना

पहले तो बात की जाये केंकड़ों के शहर के बारे में ही । दरअसल में ये मेरे अपने ही शहर सीहोर के बारे में है । मेरे शहर के बारे में एक कहानी है कि एक बार पानी के जहाज में कई सारे शहरों के अलग अलग प्राणियों को भर कर ले जाया जा रहा था । ये सारे प्राणी ड्रमों में रखे गये थे जिन पर सुरक्षा के लिहाज से ढक्‍कन लगे हुए थे । किन्‍तु आश्‍चर्य की बात ये थी कि एक ड्रम पर ढक्‍कन नहीं लगा था । और उस ड्रम  में केंकड़े भरे हुए थे । किसी ने ये देखा तो आश्‍चर्य हुआ कि क्‍या बात है सारे ड्रमों पर ढक्‍कन लगे हैं केवल इसी पर क्‍यों नहीं लगे हैं । उसने किसी से पूछा कि भई क्‍या बात है सारे ड्रम ढंके हुए हैं पर केवल एक पर ही ढक्‍कन नहीं लगा है, इस ड्रम में भरे हुए प्राणी निकल के भाग नहीं जायेंगें । इस पर उत्‍तर मिला कि नहीं इस ड्रम में केंकड़े भरे हैं जो कहीं नहीं भागेंगें । वो व्‍यक्ति फिर आश्‍चर्य में डूब गया कि क्‍यों नहीं भागेंगें । इस पर उत्‍तर मिला कि ये केंकड़े सीहोर के हैं और इसीलिये नहीं भागेंगें । उसने पूछा कि क्‍या सीहोर  के केंकड़े इतने अनुशासित होते हैं । फिर उत्‍तर मिला कि अनुशासन जैसी कोई बात नहीं हैं दरअसल में बात ये है कि ये केंकड़े सीहोर के हैं और इसीलिये ये भाग नहीं पायेंगें क्‍योंकि जैसे ही एक केंकड़ा ऊपर उठेगा चार उसकी टांग खींच कर गिरा लेंगें । और इसी चक्‍कर में कोई नहीं  उठ पायेगा । कहानी सुनाने के पीछे अपने शहर का परिचय देने की भावना अधिक है । अपने शहर के इस गुण के बारे में मुझे पहले जानकारी तब मिली जब मैंने सहारा समय के स्‍ट्रिंगर के रूप में काम करना प्रारंभ किया था । जैसे ही मैंने काम प्रारंभ किया पता चला कि नोएडा में सहारा के कार्यालय में मेरे खिलाफ सीहोर से करीब 200 फैक्‍स और इतने ही फोन काल पहुंच गये । मैं हैरत में कि मेरे इतने विरोधी इस श्‍ाहर में कहां से आ गये । पता ये चला के फैक्‍स करने वालों में कई ऐसे भी थे जो मुझे जानते तक नहीं थे पर चूंकि केंकड़े की कहानी वाली बात है सो विरोध करने के लिये विरोध कर रहे थे कि ये केंकड़ा कैसे ऊपर जा रहा है । खैर सहारा समय तो मैंने दो माह के अंदर ही छोड़ दिया पर ये सबक मिल गया कि यहां पर  कोई आपका क्‍यों विरोध करता है ये उसको भी पता नहीं होता । समीर लाल जी जब सीहोर आये थे तब आने से पहले उन्‍होंने भी इस केंकड़ा कथा का अनुभव किया था । वे अभी सीहोर पहुंचे भी नहीं थे कि उनके पास भाई लोगों ने नम्‍बर ढूंढ ढांढ के फोन कर दिये थे । आप पंकज को कैसे जानते हैं , पहले मिले हैं कि नहीं , जाने क्‍या क्‍या । समीर जी ने विदा होते समय जब किस्‍सा सुनाया तो खूब हंसी भी आई और रोना भी ।  वो तो गनीमत है कि राकेश खण्‍डेलवाल जी भारत में नहीं रहते नहीं तो अभी तक तो वे मेरे विरुद्ध गुमनाम पत्र, फैक्‍स, फोन, मोबाइल अटेंड कर कर के थक गये होते । फिर भी मैं अपने शहर को जानता हूं  उसके अनुसार ये तो तय है कि राकेश जी को भाई लोगों ने ईमेल तो जरूर किये होंगें । मेरे शहर का सिद्धांत है केवल विरोध के लिये विरोध करो । मेरे शहर में एक कवि सम्‍मेलन होता था जिसे नमक चौराहा सीहोर का कवि सम्‍मेलन  कहा जाता था । उसकी इतनी ख्‍याति थी कि यदि आप पिछली पीढ़ी के कवियों से पूछेंगें तो उनका एक ही जवाब होगा कि वो कवि सम्‍मेलन भारत के हर कवि के लिये काबा और काशी के समान होता था । बच्‍चन जी से लेकर भरत व्‍यास जी तक कोई ऐसा दिग्‍गज कवि नहीं है जो नहीं आया हो । नये कवि इस कवि सम्‍मेलन में काव्‍य पाठ के लिये बाकायदा आयोजकों को चंदा प्रदान करते थे । खैर उसका भी हश्र वहीं हुआ निर्भय हाथरसी नाम के कवि को भड़का कर सीहोर के ही कुछ लोगों ने आयोजकों के खिलाफ हाथरस में मुकदमा लगवा दिया और कवि सम्‍मेलन बंद हुआ । कहानी बहुत लम्‍बी है  और कई सारे किस्‍से हैं पर मेरे खयाल से आप इतने से समझ गये होंगें कि मैं कैसे शहर में रहता हूं । और ये पूरी कहानी सुनाने के पीछे कारण ये है कि आप सब लोगों से मिल रहा स्‍नेह मुझे इसलिये अनमोल लगता है कि ये स्‍नेह मुझे अपने शहर से कभी नहीं मिला, और मुझे क्‍या किसी को भी नहीं मिला है । इसीलिये डर लगता है कि नेह का ये खजाना कोई लूट न ले जाये ।

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किसी ने मुझे कहा था कि जीटाक पर लागिन रहा करो । मुझे समझ में नहीं आया कि क्‍या होगा उससे । पर दो तीन दिन से मैं लागिन रहता हूं । तो उसके फायदे पता चल रहे हैं । कल दीदी साहिब लावण्‍य जी  चैट कर रहा था तभी स्‍क्रीन पर उनके काल की जानकारी आई मैंने उस काल को एक्‍सेप्‍ट किया तो दीदी साहिब से बात होना प्रारंभ हो गई । इतनी साफ बातचीत हो रही थी कि विश्‍वास ही नहीं हो रहा था । और दीदी साहिब की आवाज इतनी मधुर है कि सुनते ही रहो । उनसे कई सारी जानकारियां मिलीं ।  धन्‍य हो गूगल भैया कि ।

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तरही मुशायरे के लिये कई सारी ग़ज़लें पुन: मिल गईं हैं सबको धन्‍यवाद कि उन्‍होनें माड़साब की ग़लती का निवारण कर दिया । अब मैं उस पर ही लगा हूं । जल्‍द ही मुशायरे का आयोजन होगा ।

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आप लोग सोच रहे होंगें कि मैं दो दिन से इतनी लम्‍बी लम्‍बी पोस्‍ट क्‍यों लगा रहा हूं । दरअसल रेगिस्‍तान से आये व्‍यक्ति को पानी मिल जाये तो वो पागलों की तरह पीता है । यही हाल मेरा है दो दिन से मेरे शहर में बिजली नहीं जा रही है । दुआ करें कि ऐसा हमेशा हो ।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

दंगें के मुहाने से लौटा एक शहर, तरही मुशायरे की उलझन और दीवाली के कुछ माड़साब के फोटो

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दीपावली के दूसरे दिन हमारे शहर में मिलने जुलने का दिन होता है । और एन उसी दिन हमारे शहर में दंगे का माहौल बन गया । पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण और अपने शहर को लेकर चिंता के कारण घटना स्‍थल पर पहुंचे तो ज्ञात हुआ कि दोनों पक्ष आमने सामने हैं पथराव चल रहा है और तलवार बाजी की भी एकाध घटना हो चुकी है जिसमें कुछ लोगों को चोट आ चुकी है । स्थिति बड़ी विकट थी घटना कस्‍बा नामक मोहल्‍ले में हो रही थी जो शहर से थोड़ा हटकर एक मोहल्‍ला है । या यूं कहें कि पुराना सीहोर है । इधर नये शहर में लोगों को पता ही नहीं था कि वहां कस्‍बे में क्‍या हो गया है । मगर रही सही कसर पुलिस ने पूरी कर दी । पुलिस ने सायरन बजाती हुई गाडि़यों को पूरे शहर में दौड़ा कर दहशत को माहौल पूरे शहर में बना दिया । बात की बात में शहर में भगदड़ मच गई शटर गिर गए और दीपावली मिलन के लिये बाजार में निकले हिन्‍दू मुस्लिम अपने अपने घरों में दुबक गए । उधर कस्‍बे में हालत बिगड़ रही थी तो इधर बाजार में अफवाहें गर्म थीं । कोई कह रहा था कि चार मर गये कोई कह रहा था कि पांच के हाथ काट दिये गये हैं । उधर समाचार चैनल उनकी तो क्‍या कहें उनको तो चाहिये ही था  कि दंगे हो जायें क्‍योंकि समचार तो उससे ही बनना था । तो उन्‍होंने भी अपनी बुद्धिमानी का पूरा परिचय देते हुए अतिरंजित टिकर ( नीचे चलने वाली पट्टी या स्‍‍क्रोल ) चला दियें । सीहोर में तनाव धारा 144 लगी ( अरे मूर्खों धारा 144 तो चुनावों की घोषणा के साथ पूरे प्रदेश में लग चुकी है ) । एनडीटीवी जैसे राष्‍ट्रीय चैनल ने भी आग में घी डालने वाले टिकर चलाये । अफवाहें फैलने लगीं और आप तो जानते ही हैं कि अफवाहें क्‍या करती हैं । बात की बात में दोनों पक्ष के बाकी श्‍ाहर में फैले लोग लामबंद होने लगे । एकबारगी तो मुझे भी लगा कि 22 सालों से कमा कर रखी गई सौहार्द्र की भावना का हुआ सत्‍यानाश । 22 साल इसलिये कि 1986 में हमारे शहर में एक भीषण दंगा हुआ था जिसके घाव भरने में वर्षों लग गये थे । अभी भी वे घाव टीस देते हैं । जब दोनों पक्ष आमने सामने थे तो एक छोटी सी चिनगारी पूरे शहर को आग में झोंक देने के लिये पर्याप्‍त थी । प्रशंसा करनी होगी एक वर्ग की ( नाम नहीं लूंगा कौन सा ) कि उसके बुजुर्गों ने समझाबुझाकर अपने लोगों को पीछे हटाया और घरों में भेज दिया । नये लड़कों को डांट कर डपट कर जैसे बन सका घर भेजा । 1 घंटे से जो तनाव था वो समाप्‍त हुआ और लोगों ने कुछ राहत की सांस ली । कुछ इसलिये क्‍योंकि एक वर्ग अभी भी डटा था । और जाने का नाम ही नहीं ले रहा था । मगर पुलिस के लिये राहत की बात इसलिये थी कि एक वर्ग जा चुका था और मैदान में केवल एक ही था । दूसरा वर्ग जाने का नाम ही नहीं ले रहा था । पुलिस ने लाठी चार्ज किया और बात की बात में दूसरे वर्ग को खदेड़ दिया । दंगें की आशंका में लरजते शहर ने चैन की सांस ली ।

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खैर तो बात तरही मुशायरे की उसको लेकर एक दिक्‍कत ये आ रही है कि माड़साब का सिस्‍टम एक बार फार्मेट हो गया है और माड़साब अपने मेल आउटलुक में देखते हैं आउटलुक में आने के बाद मेल एकाउंट से मेल हट जाता है । सो दिक्‍कत ये आ रही है कि कुछ लोगों पारुल, तरु न गोयल, कंचन, संजय चतुर्वेदी, वीनस, अभिनव की ग़ज़लें तो हैं पर बाकी के लोगों की ग़ज़लें नहीं मिल रही हैं । मैं चाहता हूं कि सब की गज़लें रहें सो जिन लोगों के नाम ऊपर की सूची में नहीं हैं वे लोग एक बार फिर ग़ज़लें भेज दें । ये गलती मेरी है कि मैं उन ग़ज़लों को समय पर बैकअप लेकर नहीं रख पाया । जैसे ही बाकी के लोगों की ग़ज़लें फिर से मिलती हैं उसी दिन तरही मुशायरे का आयोजन हो जायेगा ।

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बिजली की हालत तो वैसी ही है इसलिये अब कोशिश कर रहा हूं कि रात में कुछ काम तैयार कर के रख लूं और सुब्‍ह आकर केवल पोस्‍ट लगा दूं

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बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

आज बात करते हैं जुड़वां बहरों के बारे में और घोषित करते हैं दूसरे तरही मुशायरे की तारीख

mushaira

एम.पी.ई.बी. को हमारे शहर में म.प्र.विद्युत मंडल न कह कर मरा पड़ा विद्युत मंडल कहा जाता है । बिजली की स्थिति ये है कि कब आती है कब जाती है कुछ पता ही नहीं चलता है । ऐसे में क्‍या तो कम्‍प्‍यूटर चलायें और क्‍या ग़ज़ल की कक्षाये चलायें । खैर अब तो उम्‍मीद है कि कुछ समय के लिये बिजली आ गई है सो पहले ये काम ही कर लें कि ग़ज़ल की कक्षायें ही लगा लेते हैं ।

गाई जाने वाली बहरों को पहले तो केवल शायरातों ( महिलाओं) के लिये ही खास रखा जाता था किन्‍तु आजकल तो पुरुष भी अच्‍छा खासा नाजुक सा गा लेते हैं । सो अब गाई जाने वाली बहरों पर कई अच्‍छी ग़ज़लें लिखी जाने लगीं हैं । बहरे हजज एक ऐसी ही बहर है जिसमें कि कई सारी उप बहरें ऐसी हैं जो कि गाई जाने लायक बहरें हैं । बहरे हजज का सालिम रुक्‍न होता है 1222 मुफाईलुन । ये सालिम में भी गाई जाने वाली ही बहर होती है । मुसमन सालिम 1222-1222-1222-1222 पर तो खैर खूब गाया जाता है । काफी पुरानी धुन है इसकी और पहले के मुशायरों में शायरात इस धुन पर कुछ शेर ज़रूर पढ़तीं थीं । उसी धुन पर आज के कवि  कुमार विश्‍वास भी अपने सारे मुक्‍तक पढ़ते हैं । तो दरअस्‍ल में ये धुन तो बहुत पुरानी है जो लोग मुशायरों में जाते रहे हैं वो जानते होंगें कि हजज मुसमन सालिम को पढ़ने की धुन कितनी पुरानी है । समीर लाल जी की चिडि़या भी इसी धुन और बहर पर है । ( मेरी भी ये सबसे पसंदीदा बहर और धुन है मगर मैं इस पर ग़ज़ल ना लिखकर गीत लिखता हूं ) ।

हजज की एक और मुजाहिफ बहर है हजज मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ  यें भी खूब गाई जाने वाली बहर है । झूम कर पढ़ने वाले शायर अक्‍सर इसका उपयोग खूब करते हैं । नीरज गोस्‍वामी जी ने भी इस पर कुछ अच्‍छी ग़ज़लें कहीं हैं । इसका वज्‍न है 221-1221-1221-122 या मफऊलु-मुफाईलु-मुफाईलु-फऊलुन ।  अब ये जो बहर है ये खूब गाई जाती है । पर कई बार ये अपनी जुड़वां बहर के साथ मिल जाती है । और इस प्रकार से कि पता ही नहीं चलता कब बहर बदल जाती है । हम एक शेर इस बहर का लेते हैं और दूसरा दूसरी का लेते हैं । गाने में भी इसलिये पता नहीं चलता कि दोनों की गाने की धुन भी एक ही है । मगर ये जो बहर है दूसरी वाली ये हजज  न होकर मुजारे  है । मुजारे एक मुरक्‍कब बहर है जबकि हजज मुफरद बहर है । मुजारे की जो बहर है उसका भी नाम कुछ वैसा ही है जैसा कि हजज का है बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ । इसका वज्‍न है 221-2121-1221-212 या  मफऊलु-फाएलातु-मुफाईलु-फाएलुन । अब देखे तो पहला रुक्‍न तो दोनों में समान है पर दूसरा रुक्‍न जो कि हजज में 1221 था वो यहां पर 2121 हो गया है किन्‍तु मात्रायें उतनी ही हैं केवल पहली मात्रा दीर्घ हो गई है और दूसरी लघु । तीसरा रुक्‍न दोनों ही बहरों में समान है 1221 और चौथा रुक्‍न में एक बार फिर एक मात्रा का परिवर्तन है हजज में 122 है तो मुजारे में 212 है ।

हजज 221 1221 1221 122
मुजारे 221 2121 1221 212

उदाहरण : मेरे ही काम का है न दुनिया के काम का

उदाहरण :- इकबाल भी इकबाल से आगाह नहीं है

अब ये आपको पता करके बताना है कि कौन सा मिसरा कौन सी बहर का है ।

बहरे हजज और मुजारे में फर्क केवल दो ही रुक्‍नों में हो रहा है और वो भी मात्राओं के स्‍थान परिवर्तन का ही हो रहा है अत: पता ही नहीं चलता कि कुछ ग़लती हो गई । पर तकतीई करने पर पता चल जाता है ।

बहरे हजज की ये जो ऊपर दो उप बहरें बताई हैं ये गाने वाली बहरें हैं । हजज की गाने वाली एक और बहर है हजज मुसमन अशतर  जिसका वज्‍न है 212-1222-212-1222  या कि फाएलुन- मुफाईलुन-फाएलुन-मुफाईलनु ।  ये भी खूब गाई जाने वाली बहर है । इस पर भी खींच कर गाई जाने वाली धुन में कई शायर देर तक पढ़ते हैं ।

चलिये अब ये तो हो गई कक्षायें । अब बात करते हैं तरही मुशायरे की, माह अक्‍टूबर का तरही मुशायरा सोमवार 27 अकटूबर को आयोजित होने जा रहा है । ये दीपावली स्‍पेशल है अत: जिन लोगों ने जनता वाली ग़ज़ल भेज दी है वे दीवाली पर भी एक मिसरा और एक शेर या एक मुक्‍तक भेज दें । जिन लोगों ने अभी तक ग़ज़ल नहीं भेजी है वे तुरंत अपनी ग़ज़ल भेजें, या जो लोग पूर्व में भेज चुके हैं किन्‍तु कुछ और परिवर्तन करके नई ग़ज़ल भेजना चाहते हैं वे भी अपनी ग़ज़ल भेज दें । मिसरा 19 सितम्‍बर की कक्षा में दिया गया था । माडंसाब ने तय किया है कि हर माह एक ही तरही मुशायरा होगा । एक माह में दो करने में गुणवत्‍ता का अभाव नजर आ रहा था । माडंसाब का आग्रह है कि यद‍ि संभव हो तो अपनी ग़ज़ल के साथ अपना एक सुंदर सा चित्र कवि वाली वेशभूषा में भेज दें दीपावली का मुशायरा माड़साब धूमधाम से आयोजित करना चाहते हैं । और अपना परिचय अवश्‍य भेजें ताकि हर प्रस्‍तुति के साथ कम से कम कवि का परिचय भी दिया जा सके । परिचय में नाम व्‍यवसाय निवास स्‍थान दूरभाष नम्‍बर आदि में से जो जानकारी आप देना चाहते हैं दे दें ।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

कई लोगों ने जानना चाहा है कि ''अंधेरी रात का सूरज'' पुस्‍तक किस प्रकार प्राप्‍त हो सकती है, ये पोस्‍ट उन सब के लिये है ।

Andheri

कई सारे लोगों ने जानना चाहा है कि राकेश खण्‍डेलवाल जी की नई पुस्‍तक अंधेरी रात का सूरज प्राप्‍त करने के लिये क्‍या करना होगा । उसी की जानकारी प्रदान करने के लिये ये  पोस्‍ट लगा रहा हूं । सबसे पहले तो मैं इस पुस्‍तक के बारे में जानकारी देना चाहता हूं कि ये पुस्‍तक श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी के गीतों और मुक्‍तकों का संग्रह है । जिसे शिवना प्रकाशन सीहोर द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसमें उनके 200 गीत तथा लगभग 150 मुक्‍तक हैं । पुस्‍तक की पृष्‍ठ संख्‍या 312 है जो कि हार्डवाइंडिंग में डबल कवर में है । कवर पृष्‍ठ का डिजाइन देश के मशहूर चित्रकार श्री विजेंद्र विज ने किया है जो कि मेट फिनिंशिंग में है । गहरे हरे रंग के साथ श्री विजेंद्र विज जी ने अद्भुत रंग संयोजन किया है तथा उनकी ही एक पेंटिंग ''द लोनली वायजर'' को उन्‍होंने आवरण पर लगाया है । पुस्‍तक की भूमिका देश के शीर्ष ग़ज़लकार, गीतकार श्री कुंवर बेचैन जी ने लिखी है । श्री बेचैन ने भूमिका को बहुत ही अनूठे ढंग से लिखा है । इसके अलावा श्री समीर लाल जी, श्रीमती मधु माहेश्‍वरी जी, श्री आनंद कृष्‍ण जी और पंकज सुबीर की भी टिप्‍पणियां हैं । स्‍वयं श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी की भी अपनी बात है । पुस्‍तक के सर्वाधिकार लेखक के आधीन हैं । इस पुस्‍तक की कम्‍पोजिंग तथा डिजायनिंग श्री सनी गोस्‍वामी जी द्वारा की गई है । पुस्‍तक का प्रथम संस्‍करण 11 अक्‍टूबर 2008 को प्रकाशित होकर आया है ।

पुस्‍तक का मूल्‍य भारत में 350 रुपये तथा भारत के बाहर 25 $ है । इसके अलावा भारत में डाक व्‍यय ( पुस्‍तक कोरियर अथवा स्‍पीड पोस्‍ट से ही भेजी जायेगी) 50 रुपये है । पुस्‍तक प्राप्‍त करने के लिये कृपया 400 रुपये का राष्‍ट्रीकृत बैंक का डीडी अथवा एटपार चैक या मनीआर्डर पंकज सुबीर के नाम पर सीहोर में देय निम्‍न पते पर भेजें पंकज सुबीर, पी.सी.लैब, सम्राट कॉम्‍प्‍लैक्‍स बेसमण्‍ट, बस स्‍टैंड के सामने, सीहोर, मध्‍यप्रदेश, पिन 466001 दूरभाष 07562-405545 मोबाइल 09977855399, साथ मे अपना पूरा पता मोबाइल नम्‍बर आदि भी भेजें जिस पते पर कारियर किया जा सके ।

यदि आपके शहर में बैंक आफ बड़ोदा अथवा बैंक आफ इंडिया की शाखा है तो आप subeerin@gmail.com अथवा subeer@subeer.com पर एक मेल कर दें ताकि जवाब में आपको एकाउंट नम्‍बर भेजा जा सके जिसमें आप सीधे ही पैसा जमा करवा सकते हैं । अपने शहर में इन बैंकों की शाखा की जानकारी के लिये आप यहां http://www.bankofbaroda.com/branchlocator.asp तथा यहां http://www.bankofindia.com/branchnetwork_new.aspx पता कर सकते हैं ।

आपका भुगतान प्राप्‍त होते ही यहां से आपके पते पर पुस्‍तक भेज दी जायेगी ।

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

शिवना प्रकाशन की नई पुस्तक अंधेरी रात का सूरज का हुआ वैश्विक विमोचन - एक रिपोर्ट

सीहोर के शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित  वाशिंगटन के भारतीय मूल के कवि श्री राकेश खण्डेलवाल के काव्य संग्रह अंधेरी रात का सूरज का विमोचन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ तीन स्थानों पर किया गया इंटरनेट पर हिंद युगम द्वारा सीहोर में शिवना प्रकाशन के  कार्यक्रम में तथा अमेरिका के वर्जीनिया में वाशिंगटन हिंदी समिति के आयोजन में । सीहोर में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता स्थानीय कालेज में हिंदी की प्राध्यापक डॉ. श्रीमती पुष्पा दुबे ने की, आयोजन में अखिल भारतीय कवियित्री मोनिका हठीला मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहीं । विशेष अतिथि के रूप में नई दुनिया के ब्‍यूरो प्रमुख वरिष्ठ पत्रकार वसंत दासवानी तथा कृषि वैज्ञानिक श्री डॉ आर सी जैन  उपस्थित थे । आयोजन शिवना प्रकाशन के सम्राट काम्प्लैक्स स्थित कार्यालय पर आयोजित किया गया  जहां पर स्थानीय कवियों तथा साहित्यकारों के मध्य अंधेरी रात का सूरज का विमोचन किया गया  । कार्यक्रम का संचालन दैनिक जागरण के ब्‍यूरो प्रमुख युवा पत्रकार प्रदीप चौहान ने किया ।

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सर्वप्रथम अतिथियों ने ज्ञान की देवी मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण कर तथा पूजन अर्चन कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया । तत्पश्चात सीहोर के युवा कवि जोरावर सिंह ने मां सरस्वती की वंदना का सस्वर पाठ किया । शिवना प्रकाशन की ओर से श्री कृष्ण हरी पचौरी,  श्री शंकर प्रजापति, श्री अशोक सुन्दरानी, श्री सुभाष चौहन, श्री लक्ष्मीनारायण राय,  आदि ने अतिथियों का स्वागत पुष्प माला से किया । वरिष्ठ शायर डॉ. कैलाश गुरू स्वामी ने स्वागत भाषण देते हुए शिवना की ओर से सभी का स्वागत किया । शिवना की ओर से जानकारी देते हुए प्रकाशक पंकज सुबीर ने अंधेरी रात का सूरज के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि शिवना का ये चौथा संग्रह इस मायने में महत्वपूर्ण है कि ये सात समंदर पार जाने का शिवना का प्रयास है । 

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तत्पश्चात काव्य संग्रह का विमोचन सीहोर के प्रबुध्द जनों की उपस्थिति में किया गया ।  इस अवसर पर कवियित्री मोनिका हठीला ने श्री राकेश खण्डेलवाल के गीतों का सस्वर पाठ किया । अपने संबोधन में श्री वसंत दासवानी ने कहा कि शिवना ने ये जो प्रयास किया है ये गौरवपूर्ण उपलब्धि है सीहोर शहर के लिये । उन्होंने साहित्य और तकनीक का समन्वय करने की आवश्यकता पर जोर दिया ।    श्री आर सी जैन ने कहा कि सीहोर के कवियों के संग्रह सामने लाकर शिवना ने एक अच्छा काम किया है और अब विश्व साहित्य से जुड़ कर शिवना भी एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था बन चुकी है । कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं स्थानीय कालेज में हिंदी की विद्वान प्राध्यापक डॉ. श्रीमती पुष्पा दुबे ने अंधेरी रात का सूरज पर बोलते हुए संग्रह के गीतों को भारतीय परम्परा का वाहक निरूपित किया और कहा कि राकेश खण्डेलवाल जी ने आज के समय में हिंदीके गीतों पर जो कार्य किया है वह इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज हिंदी के छंदों की परम्परा के साधक कम नजर आते हैं । उन्होंने कहा कि श्री खण्डेलवाल के गीत वास्तव में अंधेरी रात का सूरज ही हैं क्योंकि वे क्लांत मानव मन को प्रकाश की ओर ले जाने का कार्य करते हैं । शिवना की ओर से राजस्‍थान पत्रिका के ब्‍यूरो प्रमुख पत्रकार श्री शैलेष तिवारी ने मंगल तिलक कर तथा शाल भेंट कर अध्यक्षता कर रहीं डॉ. पुष्पा दुबे तथा मुख्य अतिथि मोनिका हठीला को सम्मानित किया । आभार प्रदर्शन करते हुए वरिष्ठ कवि श्री हरिओम शर्मा दाऊ ने सभी पधारे हुए अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त किया । कार्यक्रम का गरिमामय संचालन युवा पत्रकार प्रदीप चौहान ने किया ।   इसके अलावा इस विमोचन को इंटरनेट पर हिंदी के प्रमुख जाल समूहों में से एक हिंद युग्म पर भी आयोजित किया गया जहां पर विश्व भर में फैले हिंदी के लाखों पाठकों ने हिंद युग्म की साइट पर जाकर विमोचन में भाग लिया  । कार्यक्रम में बड़ी संख्या में  स्थानीय साहित्यकार पत्रकार और कवि भी उपस्थित रहे ।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

आवाज़ पे अंधेरी रात का सुरज का पहला विमोचन हो रहा है आप भी उसमें शामिल होकर शुभकानायें दीजिये राकेश खण्‍डेलवाल जी को ज़रूर ज़रूर पहुंचे आवाज़ पर

हिंदी साहित्‍य जगत के इतिहास में ये अनूठा मौका आया है जब किसी पुस्‍तक का विमोचन एक साथ तीन स्‍थानों पर हो रहा है । उनमें से पहले स्‍थान पर अर्थात जाल पर विमोचन हो चुका है सजीव सारथी जी ने जो काम किया है उसके लिये एक ही बात कह सकता हूं कि मैं  स्‍वयं ही अभीभूत रह गया हूं देखकर । http://podcast.hindyugm.com/2008/10/andheri-raat-ka-sooraj-vimochan-online.html यहां पर आज का पहला विमोचन हो गया है बल्कि यूं कहें कि विमोचन आप सब को वहां जाकर करना है । आज तक मैंने कभी भी अनुरोध नहीं किया कि आप कहीं पर टिप्‍पणी दें किन्‍तु आज कह रहा हूं कि राकेश जी को शुभकामनायें देने और सजीव जी के अद्भुत कार्य को सराहने के लिये एक टिप्‍पणी अवश्‍य करें ताकि आगे के लिये हम सब को हौसला मिले । वहां पर संजय पटेल जी की अनूठी आवाज़ है मोनिका हठीला की आवाज़ है रमेश जी हैं और मेरी भी आवाज़ में एक दो गीत हैं । आइये इस विमोचन में शामिल होकर अपनी भावनायें पहुचायें राकेश जी तक और सहभागी बनें इस अनूठे आयोजन में ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

अपने हाथों से विमोचन करें अंधेरी रात का सूरज का आवाज पर जाकर

राकेश खण्‍डेलवाल जी की पुस्‍तक एक मामले में तो इतिहास रचने ही जा रही है कि इसका विमोचन तीन स्‍थानों पर एक साथ होने जा रहा है । वर्जीनिया के राजधानी मंदिर आडिटोरियम में भाई समीर लाल अनूप भार्गव जी और रजनी भार्गव जी की उपस्थिति में इसका विमोचन हो  रहा है । वहीं सीहोर में शिवना प्रकाशन द्वारा भी एक विमोचन का कार्यक्रम रखा गया है जो कि शाम साढ़े छ: पर है । इसके अलावा हिन्‍द युग्‍म द्वारा भी विमोचन का कार्यक्रम रखा गया है आवाज पर http://podcast.hindyugm.com यहां पर ये विमोचन दुनिया भर में फैले लाखों हिन्‍दी प्रेमी अपने हाथों से करेंगें । हिंद युग्‍म पर विमोचन की जवाबदारी श्री सजीव सारथी जी ने उठाई है । वे अपने प्रकार से कुछ अनूठा करके ये विमोचन करना चाह रहे हैं । यहीं पर कल श्री राकेश जी की कविताओं का पाठ अखिल भारतीय कवि सम्‍मेलनों का जाना पहचाना नाम भुज गुजरात की कवियित्री मोनिका हठीला करेंगीं । ये भी अपनी तरह से एक अनूठा प्रयोग करने का प्रयास है । मोनिका हठीला संयोगवश किसी कवि सम्‍मेलन से रायपुर से लौट रहीं थीं और अपने मायके में आईं हुईं हैं सो हमने उनके समय का उपयोग कर लिया है । कल विमोचन समारोह में भी वे रहेंगीं और उनके तथा हिंदी की मनीषी विद्वान डॉ पुष्‍पा दुबे के हाथों से पुस्‍तक का विमोचन होगा । इसके बाद मोनिका हठीला श्री राकेश खण्‍डेलवाल की कविताओं का सस्‍वर पाठ करेंगीं और कविताओं पर विस्‍तार से चर्चा करेंगीं डॉ पुष्‍पा दुबे । सजीव सारथी जी ने हिंद युग्‍म पर विमोचन की जो भूमिका रखी है उसके लिये आपको http://podcast.hindyugm.com यहां पर जाना होगा और अपने ही हाथों से पुस्‍तक का विमोचन करना है । तो इस प्रकार से अमेरिका में वाशिंगटन हिंदी समिति सीहोर में शिवना प्रकाशन और जाल पर हिंद युग्‍म इस प्रकार ये तीन संस्‍थायें मिल कर पूरे कार्यक्रम का अंजाम दे रहीं हैं । राकेश जी के जाल पर कई प्रशंसक हैं अत: कहा तो यही जा सकता है कि सबसे सार्थक प्रयोग सजीव जी का ही रहेगा क्‍योंकि वे लोग जो सीहोर नहीं आ पायेंगें या कि वर्जीनिया में नहीं पहुंच पायेंगें उनके लिये हिंद युग्‍म की पोडकास्‍ट साइट आवाज ही एक मात्र स्‍थान है जहां पर वे आसानी से जाकर  अपने ही हाथों से अंधेरी रात का सूरज का विमोचन कर पायोंगें । कल यूनीवार्ता ने इसको लेकर विशेष समाचार जारी किया था ।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

राकेश खण्‍डेलवाल जी के ये गीत आखिरकार अंधेरी रात का सूरज ही तो हैं

 

DSC00251 ''अंधेरी रात का सूरज'' ये नाम सुनने में कुछ अलग तरह की ध्वनि अवश्य देता है किन्तु ये कई कई अर्थों को समेटे हुए है । सूरज का वैसे तो सीधा संबंध दिवस से होता है पर यहां पर यदि रात और वो भी अंधेरी रात के संदर्भ में सूरज का उपयोग हो रहा है तो उसके पीछे भी एक गूढ़ अर्थ है। राकेश जी की कविताएँ हिन्दी गीत के स्वर्णिम काल की कविताएँ हैं, ऐसा लगता है मानो अतीत की धुंध में से कुछ आवाजें आ रहीं हैं, आवाजें जो सुनी हुई भी लगती हैं और परिचित भी लगती हैं, किन्तु अतीत की धुंध होने के कारण हम उनको चीन्ह नहीं पाते हैं । हमें लगता है कि अरे ! ये ध्वनियाँ तो पहले भी कहीं सुन चुके हैं, हम स्मृतियों के गलियारों में बैचेन होकर भटकने लगते हैं कि कहीं से तो कुछ सिरा मिले की ये आवाजें कहाँ से आ रहीं हैं । राकेश जी के गीत हमारी उंगली थाम कर ले जाते हैं हमें एक ऐसे स्वर्णिम संसार में जहाँ बच्चन जी हैं, नीरज जी हैं, सोम ठाकुर हैं, बालकवि बैरागी जी हैं और ऐसे ही कई दिग्गज गीतकार हैं । वे गीतकार जिन्होंने हिंदी कविता को और हिंदी के गीतों को जनमानस के अंदर इस तरह से पैठा दिया कि वे गीत, वे शब्द, वे विचार, वे भाव सब अमर हो गये । हम कसमसाते हैं और पूछते हैं अपने आप से कि क्या ये सब सचमुच ही अतीत हो गया ? क्या गीतों का स्वर्ण काल सचमुच बीत गया ? दोहराते हैं हम इन प्रश्नों को उस शून्य में, उस गहन अंधकार में, जहाँ से पुन: पुन: लौट कर आती है केवल हमारी ही आवाज, हमारा ही प्रश्न  और तब राकेश जी के गीत आते हैं, और कहते हैं हमसे, 'नहीं, गीत तो हिन्दी साहित्य का प्राण है वो कैसे समाप्त हो सकता है, कुछ बादलों के छा जाने का अर्थ ये नहीं होता कि उजाला सदैव के लिये समाप्त हो गया है ।'

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राकेश जी के गीत उस दौर के गीत नहीं है जब हिंदी साहित्य में गीतों के आकाश पर एक नहीं कई कई सूरज जगमगा रहे थे । राकेश जी के गीत उस दौर के गीत हैं जब गीतों के आकाश पर शून्य है, अंधकार है। और उस पर भी सबसे बड़ी बात ये है कि राकेश जी के गीत पूरी आभा लिये हुए हैं, वही आभा जो किसी भी बड़े गीतकार के गीतों में होती है । राकेश जी के गीत उस दौर के गीत हैं जब गीतों को समाप्त हुआ मान लिया जा रहा है। उस देश में जहां गीतों के साथ परम्परा जुड़ी हैं, जहाँ जीवन के हर पड़ाव पर गीत हैं, जन्मते समय, विवाह के समय और अंतिम विदा के समय भी । हम गीतों को अपने आप से अलग करने का सोच भी नहीं सकते, पर ऐसा हो तो रहा है । धीरे धीरे एक अंधकार हमारे साहित्य की सभी परम्पराओं को लील रहा है । वे परम्पराएँ जो दुनिया भर में श्रेष्ठ मानी गईं । हमारे छंद शास्त्र से अपना व्याकरण बनाने वाले आज हमें कविता सिखा रहे हैं, और हम सीखने के लिये कतार में लगे भी हुए हैं, अपने गौरवशाली अतीत को विस्मृत करते हुए । तब उस समय में राकेश जी के गीत आते हैं और उन गीतों को सुन कर हमें ज्ञात होता है कि ''तमसो मा ज्‍योतिर्गमय'' का अर्थ क्या होता है । ये गीत हिंदी गीतों के स्वर्णिम दिनों के गीत नहीं हैं, ये तो अंधकार में आए हैं, उस अंधकार में जब कहीं कोई सूरज नहीं, कोई चंद्रमा नहीं, कोई तारा भी नहीं । उस दौर में आए हुए ये गीत आखिरकार अंधेरी रात का सूरज ही तो हैं । और इसीलिये इस संग्रह का नाम अंधेरी रात का सूरज नहीं होता तो क्या होता । ये गीत लिखने के लिये नहीं लिखे गये हैं, ये तो आत्मा के गीत हैं, जिनको सुनने के लिये कान नहीं आत्मा ही चाहिये।

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राकेश जी के गीतों के बारे में लिखने के लिये मैं विनम्रता के साथ स्वीकार करता हूं कि मेरे शब्दकोश की निर्धनता साफ दिखाई देने लगती है । फिर भी ये एक प्रकाशक की हैसियत से मैं ये जरूर कहना चाहूंगा कि शिवना प्रकाशन की परम्परा रही है साहित्य की उन विधाओं का पोषण करना जिन पर संकट है । राकेश जी का साहित्य भी वही तो कर रहा है, साहित्य की उस विधा को बचाने की कोशिश जो लुप्त होने की कगार पर है । इस मायने में देखा जाये तो राकेश जी और शिवना का ये संगम वास्तव में गंगा और यमुना का ही संगम है । राकेश जी के काव्य संग्रह का प्रकाशन शिवना प्रकाशन के लिये भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव है । ये शिवना के सात समुंदर पार जाने का प्रयास है आशा है राकेश जी का ये संग्रह उनके गीतों की ही तरह पाठकों के मानस पटल पर अंकित हो जायेगा । राकेश जी को शुभकामनाएँ ।

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

आइये सप्‍ताह भर श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी की चर्चा करके 11 अक्‍टूबर को आने वाले ''अंधेरी रात का सूरज'' का स्‍वागत करें ।

राकेश खण्‍डेलवाल जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है । हिंदी गीतों की परंपरा को जीवित रखने का काम आज उनकी लेखनी पूरे मनोयोग से कर रही है । मेरे जैसे गीतों के दीवानों के लिये तो उनके गीत उपहार की तरह होते हैं । कल बहुत दिनों बाद अभिनव का फोन आया और राकेश जी के बारे में काफी चर्चा हुई  । चूंकि 11 अक्‍टूबर को राकेश जी के काव्‍य संग्रह ''अंधेरी रात का सूरज'' 

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का विमोचन होना है जो कि शिवना प्रकाशन सीहोर द्वारा प्रकाशित किया गया है । जैसा कि तय है कि राजधानी मंदिर वर्जीनिया में मुख्‍य कार्यक्रम होगा और सीहोर में भी एक कार्यक्रम उसी दिन होगा । राकेश जी के बारे में कुछ भी कहना हो तो शब्‍द कम पड़ने लगते हैं । मेरी ऐसी इच्‍छा है कि चूंकि इसी सप्‍ताह के आखीर में शनिवार को राकेश जी के काव्‍य संग्रह का विमोचन होना है अत: उनसे जुडे हम सब लोग अपने अपने ब्‍लाग पर राकेश जी के व्‍यक्तिव, कृतित्‍व के बारे में आलेख लगायें और अभिनव ने इसकी शुरूआत भी कर दी है http://ninaaad.blogspot.com/2008/10/blog-post_06.html आज यहां पर उनका आलेख राकेश जी पर लगा है । ये प्रारंभ है और मेरी इच्‍छा है कि हम सब अपने अपने ब्‍लाग पर राकेश जी चर्चा करें इसी प्रकार के लेख लगायें जिसमें संस्‍मरण हो सकते हैं उनकी कविताओं की चर्चा हो सकती है । और जो भी जैसा भी आप राकेश जी के बारे में लिख सकते हैं । वे लोग जो राकेश जी से परिचित नहीं हैं ( कौन होगा ) वे लोग राकेश जी के ब्‍लाग http://geetkalash.blogspot.com पर जाकर उनके काव्‍य से रूबरू हो सकते हैं । राकेश जी के बारे में अपनी पोस्‍ट एक दो दिन में मैं लगाऊंगा किन्‍तु एक बात तो आज कहना ही चाहता हूं कि अंधेरी रात का सूरज ने मुझे दो स्‍तरों पर परेशान किया है पहला तो ये कि मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि कौन सा गीत लूं और कौन सा छोड़ दूं । दूसरा ये कि मैं स्‍वयं भी कभी कभी ग़ज़ल छोड़कर गीतों में हाथ साफ कर लिया करता हूं । किन्‍तु जब संपादन के दौरान राकेश जी के गीत पढ़े तो एक ही बात लगी कि अब मैं क्‍या लिखूं सब कुछ तो राकेश जी ने लिख ही दिया है । राकेश जी के काव्‍य संग्रह का विमोचन 11 अक्‍टूबर को होने जो रहा है किसी भी लेखक के लिये उसकी पुस्‍तक के विमोचन का अवसर एक भावुक पल होता है आइये हम सब मिल कर इस 11 अक्‍टूबर को राकेश जी के लिये यादगार बना दें ।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

जब जब जोड़ लगाता हूं, अक्‍सर खुद घट जाता हूं

हिंदी की ताकत अब दिखाई तो देने लगी है । इस बार की कादम्‍ि‍बनी में श्री विष्‍णु नागर जी का आलेख कुछ ऐसी ही बात कर रहा है कि अब हिंदी कारपोरेट जगत की मजबूरी बनती जा रही है । और सबसे अच्‍छी बात तो ये है कि हिंदी में बोलने वालों की तादाद भी बढ़ रही है । खैर हिंदी तो जन जन की भाषा है । मगर हिंदी में ग़ज़ल कहने वाले एक लम्‍बे समय तक उपेक्षित ही रहे तब तक जब तक कि दुष्‍यंत परिदृष्‍य पर नहीं आ गये । हिंदी में गज़ल कहना ऐसा माना जाता था मानो कोई गुनाह किया जा रहा हो । आज भी हम में से कई सारे लोग फारसी और अरबी के टोले टोले शब्‍द अपनी ग़ज़लों में रखकर अपने का आलिम फाजिल साबित करने का प्रयास करते हैं । अभी कहीं पढ़ रहा था कि क्लिष्‍टता के चक्‍कर में ही संस्‍कृत खत्‍म हुई और हिंदी आ गई और अब क्लिष्‍टता के चक्‍कर में ही उर्दू खत्‍म हो रही है  । क्‍या ज़रूरत है फारसी के मोटे मोटे शब्‍द रखने की जिनके मायने किसी को पता ही नहीं हो । मेरा विरोध कई बार केवल इसी कारण होता है कि मैं ग़ज़ल को हिंदी में लिखे जाने की हिमायात करता हूं । मेरा मानना है कि जो ज़बान जनता बोले और समझे कविता उसी में होनी चाहिये । वाल्मिकी ने रामायण लिखी और तुलसी ने रामचरित मानस, मगर अपेक्षाकृत नई होने के बाद भी तुलसी की मानस ही जन जन तक पहुंची क्‍योंकि वो जनभाषा में लिखी गई है । दुष्‍यंत की जिद ये भी थी कि वो शहर  का वज्‍न 12 ही रखते थे उनका कहना था कि हिंदी में  शहर  को श हर  पढ़ा जाता है उर्दू में शह् र  पढ़ा जाता है इसलिये दोनों जगहों पर वजन अलग अलग है । दुष्‍यंत ने खुद लिखा है कि मैं चाहूं तो इस विवाद का हल  शहर  के स्‍थान पर नगर  का उपयोग करके कर सकता हूं मगर मैं नहीं करना चाहता । आज के शीर्षक में विज्ञान व्रत का मतला लगाया है विज्ञान व्रत भी दुष्‍यंत कर परंपरा के ग़ज़लकार हैं । कुल मिलाकर बात ये है कि अब जनता कि जो भाषा है उसीमें ही बात करनी होगी अगर नहीं करेंगें तो जनता आपकी कविताओं को गुनगुनायेगी ही नहीं और जो जनता ने नहीं गुनगुनाया तो आपकी कविता कहीं नहीं पहुंची ।  बशीर बद्र जैसे शायर खुद ही महफिलों में कहते हैं कि आने वाले समय के मीर और गालिब अब हिंदी से ही आयेंगें । हिंदी में कहना मतलब जनभाषा में कहना । आज के लोग माज़ी  जैसे अपेक्षाकृत सरल शब्‍द का अर्थ भी नहीं जानते तो आपको हिंदी का उपयोग तो करना ही होगा । मुशायरों तक में ये हालत है कि फारसी का कोई क्लिष्‍ट शब्‍द लिया तो उसका अर्थ पहले बताना होता है कि  इसका ये अर्थ ये होता है । पिछले दिनों को एक किस्‍सा है मैंने बताया था कि जनाब बेकल उत्‍साही जी के मुशायरे का संचालन मैंने किया था । बेकल उत्‍साही जी के बारे में तो आप जानते ही होंगे फिर भी ये जान लें कि ये भी हिंदी के हिमायती हैं । उस मुशायरे में ये हुआ के संचालन तो एक उर्दूदां को ही करना था मगर जो श्रोता थे वे हिंदी वाले अधिक थे सो एट द इलेवंथ आवर मुझसे कहा गया कि आपको संचालन करना है । अपने राम तो वैसे भी संचालन के दिवाने हैं । सो कर डाला और वो भी शुद्ध हिंदी में । लोगों ने पसंद भी किया यद्यपि शायरों में कुछ नो भौं सिकोड़ते रहे पर क्‍या करें जनता तो जनार्दन होती है । हिंदी भी वो नहीं जो संस्‍कृत निष्‍ठ हो और उर्दू भी वो नहीं हो जो अरबी फारसी निष्‍ठ हो । हिन्‍ुदस्‍तानी भाषा ये है कि आम आदमी संस्‍कृत के कुन्‍तलों, बोली के बालों और उर्दू की जुल्‍फों में सबसे आसानी से जुल्‍फों को समझता है तो आप जुल्‍फें ही लिखें । तो कुल मिलाकर बात ये कि हिन्‍दुस्‍तानी भाषा में ग़ज़लें कहें । हिन्‍दुस्‍तानी भाषा जिसमें हिंदी हो उर्दू हो और आवश्‍यकता पड़ने पर अरबी, फारसी और अंग्रेजी के आसान और आम फहम शब्‍दों को लिया जाये । आम अर्थात जिनका अर्थ आपको शेर पढ़ने के पहले बताना न पड़े के इसका अर्थ ये होता है ।  कविता अपने चरम पर श्रोता के अंदर रस प्रवाहन करने लगती है और जैसे ही कोई टोला शब्‍द आता है के रस भंग हो जाता है और उसके बाद वो श्रोता आपकी कविता से फिर नहीं जुड़ पाता । टोला शब्‍द अर्थात अरबी फारसी या संस्‍कृत का शब्‍द ।

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एक शुभ सूचना ये है कि वरिष्‍ठ कवि श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी का काव्‍य संग्रह '' अंधेरी रात का सूरज''  शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर आ गया है । 11 अक्‍टूबर को एक साथ उसका अमेरिका और भारत में सीहोर में विमोचन होने जा रहा है । संग्रह के बारे में विस्‍तृत जानकारी अगली पोस्‍ट में दी जायेगी । विमोचन के अवसर पर सभी आमंत्रित हैं शिवना प्रकाशन  द्वारा । अमेरिका में वाशिंगटन हिंदी समिति और सीहोर में शिवना द्वारा ये आयोजन किया जा रहा है  । राकेश जी के ये गीत और मुक्‍तक आने वाले समय की थाती हैं । अगली पोस्‍ट में विस्‍तार से चर्चा की जायेगी अंधेरी रात का सूरज की ।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

दीवारों से मिल कर रोना अच्‍छा लगता है हम भी पागल हो जायेंगें ऐसा लगता है

क़ैसर उल ज़ाफरी साहब की ये ग़ज़ल अब है । कुछ सालों पहले वे इंतकाल फरमा चुके हैं । मृत्‍यु से कुछ महीनों पहले ही वे सीहोर आये थे तब उन्‍हीं के मुंह से उनकी ये ग़ज़ल सुनने का सौभाग्‍य मिला था । हालंकि सच ये भी है कि वे ग़लती से एक कवि सम्‍मेलन में आ गये थे । ग़लती से इसलिये कि आज के कवि सम्‍मेलनों का जो हाल है वहां पर कैसर उल ज़ाफरी जैसे लोगों के लिये जगह ही कहां है वहां पर तो विदूषकों की ज़ुरूरत है । खैर जो भी हो मैं तो अपने आप को सौभाग्‍यशाली समझता हूं कि जिस ग़ज़ल को ( पंकज उदास ) सुनते सुनते मैं बड़ा हुआ उसको लिखने वाले शायर के मुंह से ही ये कलाम सुना । आज इसकी बात इसलिये कर रहा हूं कि ये ग़ज़ल भी खास है । अभी कुछ दिनों पहले गौतम ने एक सवाल उठाया था कि क्‍या 2222-2222-2222-2222 वज्‍न हो सकता है । तो ये ग़ज़ल पूरी तरह से वैसी तो नहीं है इसमें भी 2222-2222-2222-2 का वज्‍़न है । अर्थात मुफतएलातुन-मुफतएलातुन- मुफतएलातुन- फा  पूरी तरह से दीर्घ मात्राओं पर चलने वाली काफी बहरें हैं और उनको लेकर हम आगे बात तो करेंगें । पर आज इसका उदाहरण इसलिये दे रहा हूं कि हमने इस बार के तरही मुशायरे में जो बहर ली है वो भी पूरी तरह से दीर्घ की है । 22-22-22-22 फालुन-फालुन- फालुन- फालुन ।  और काफी लोगों को उसमें उलझन भी आ रही होगी कि कैसे काम किया जाये ।

चलिये अब चलते हैं कैसर उल ज़ाफरी साहब की ग़ज़ल पर । उसका एक शेर है दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है  

अब मेरी उलझन इसीमें हुई बात तब की है जब मैं भी आप ही की तरह से ग़ज़ल की व्‍याकरण सीखने का प्रयास कर रहा था । उलझन ये थी कि  शाम ढले में   और   ये दोनों जो लघु हैं ये तो अलग अलग शब्‍दों में आ रहे हैं इनको मिला कर के एक दीर्घ कैसे बना सकते हैं । बात कैसर उल जाफरी जैसे चलते फिरते ग़ज़ल के विश्‍वविद्यालय की थी तो ग़लती होने का तो प्रश्‍न उठता ही नहीं था । खैर काफी मशक्‍कत करने पर ज्ञात हुआ कि सभी दीर्घ वाले प्रकरण में मात्राओं की गणना से काम चलाया जाता है । यदि कोई लघु मात्रा स्‍वतंत्र है और उसके बाद एक और स्‍वतंत्र लघु आ रहा है तो उन दोनों को एक दीर्घ मान लिया जाता है भले ही वे दोनों अलग अलग शब्‍दों में आ रही हों । ये मेरे लिये एक नया ही ज्ञान था । कई बार होता है न कि बहुत जि़यादह पढ़ने से भी नयी खिड़कियां खुलने लगती हैं तो मेरे लिये भी यही हुआ ।  

शा म ढ ले इस 2222

तो अब मेरे खयाल से तरही की बहर को लेकर उलझन दूर हुई होगी । कि वहां पर कैसे काम करना है समीर लाल जी ने इस पर कुछ (?????) शेर निकाल के अपनी ब्‍लाग पर लगा भी दिये हैं । उनमें से ही एक शेर है ।

जो भी इनकी पीठ खुजाये
उसकी पीठ खुजाती जनता

अब इसमें देखा जाये तो हो ये रहा है कि पीठ खुजाये  में   और खु  ये दोनों अलग अलग शब्‍दों में आ रहे हैं फिर भी मिल कर एक दीर्घ हो रहे हैं । इसलिये बहर में माना जायेगा ।

नर नारी में भेद बता कर
लोगों को भिड़वाती जनता

इसमें भी भेद बता  में हो ये गया है कि   और   दोनों को एक ही दीर्घ माना जा रहा है । माड़साब अपनी जनता वाली ग़ज़ल को यहां पर लगा रहे हैं ताकि विद्यार्थियों को आसानी हो सके

गूंगी बहरी अन्‍धी जनता

कायर और निकम्‍मी जनता

सबके पीछे है चल देती

इसकी, उसकी, सबकी जनता

दस दस रुपये में ले लो जी

ठेला भर के सस्‍ती जनता

जीवन भर लटकी रहती है

चमगादड़ सी उल्‍टी जनता

सावन भादों अगहन फागुन

है नंगी की नंगी जनता

कौन बड़ा डाकू है सबसे

वोटों से है चुनती जनता

डेमोक्रेसी का मतलब है

जिसकी लाठी उसकी जनता

चलिये मिलते हैं अगली कक्षा में । कक्षा शब्‍द का उपयोग इसलिये कर रहा हूं कि ये कक्षा ही है । हम तरही मुशायरे के माध्‍यम से बहरों को और उनके बारे में जो रहस्‍य हैं उनको जानने का प्रयास करेंगें । मैं पहले ही कह चुका हूं कि जो लोग नये आऐ हैं वे पिछले पाठों को पढ़ लें ताकि उनको असहज नहीं लगे । तो ठीक है मिलते हैं । जैराम जी की ।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

क्‍यों बना ये शेर सरताज शेर और अभी भी क्‍या कमी है इस शेर में जिसको दूर करके इसको एक मुकम्‍मल शेर बनाया जा सकता है

मैंने प्रारंभ से ही कहा है कि गज़ल का अर्थ है वज्‍न और कहन का एक अद्भुत संतुलन । हालंकि होता ये है कि वज़न संभालते हैं तो कहन चली जाती है और कहन को थामो तो वज़न चला जाता है । पर ये बात केवल प्रारंभ में ही होती है । बाद में तो धीरे धीरे दोनों का संतुलन खुद ब खुद आने लगता है । उसके लिये एक सबसे ज़रूरी चीज़ ये है कि अपने लिखें से कभी भी संतुष्‍ट मत रहो ये सोचो कि कितना घटिया लिखा है हमने और इसमें तो अभी काफी सुधार की गुंजाइश है । ग़ज़ल को लिख कर दो दिन के लिये रख दो और दो दिन बात फिर पढ़ो, आपको खुद ही उसमें दोष नज़र आने लगते हैं । ताज़ा ग़ज़ल के दोष नहीं दिखते क्‍योंकि आपने हाल में ही तो उसको बनाया है । दो दिन बाद तीन दिन बाद उसको देखो और जहां आपको लगता है कि कमजोर है वहां दुरुस्‍त करों । होता क्‍या है कि हम सिंगल स्‍ट्रोक में ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं तो मात खा जाते हैं । ग़ज़ल तो रबड़ी होती है जिसको मद्धम आंच पर धीरे धीरे पकाना होता है ।

आज हम बात करते हैं कि गौतम के शेर में क्‍या है और क्‍या नहीं है और इसके अलावा ये भी कि कौन कौन से शेर दौड़ में थे सरताज बनने के लिये ।

गौतम का जो शेर है वो कुछ इस प्रकार है

भीड़ में यूं भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर

बढ़ न पायेगा कभी तू गुमशुदा हो जायेगा

शेर वजन में में भी है और काफी हद तक कहन में भी है । सामन्‍य तौर पर इसे एक अच्‍छा शेर कहा जायेगा किन्‍तु अगर गहन अध्‍ययन करें तो कुछ सुधारों की गुंजाइश दिखाई दे रही है ।  पहला तो ये कि उम्र भर  का उपयोग ठीक नहीं है । आपने उम्र का उपयोग कर लिया तो आपने समय सीमा तय करदी । उम्र भर कहने से ये अर्थ निकला कि अगले मिसरे में जो कहा जा रहा है वो उम्र भर के बाद की बात है । अब यदि मिसरे में कुछ और कहा जाता तो उम्र भर चल भी जाता मगर यहां बात हो रही है गुमशुदा होने की । जब उम्र ही ख़त्‍म हो गई तो क्‍या गुमशुदा होना । अगर आपको गुमशुदा होने की बात करनी है तो मिसरा उला में कुछ और कहना होगा । अब बात करें मिसरा सानी की अभी बिल्‍कुल भूल जायें कि यहां पर बढ़ने  से आशय कुछ और है , हम इसे आगे बढ़ने वाला ही बढ़ना मानते हैं तो हम दो विरोधाभासी बातें तो कर ही रहे हैं । और फिर ये भी कि बढ़ न पायेगा कभी तू गुमशुदा हो जायेगा केवल इस ही मिसरे को लें तो क्‍या जो लोग आगे नहीं बढ़ते वे गुमशुदा हो जाते हैं ।   तो हमें दो ही दोष दूर करने हैं । मैंने कई प्रकार से उदाहरण निकालने का प्रयास किया है

भीड़ में यूं भीड़ बनकर के अगर चलता रहा
देख लेना एक दिन तू गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ में जो भीड़ बन कर के यूंही चलता रहा
एक दिन इस भीड़ में ही गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ में चलता रहा गर भीड़ बन कर के यूंही
भीड़ में ही एक दिन तू गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ बनकर के अगर चलता रहा तू भीड़ में 
एक दिन होगा यही तू गुमशुदा हो जायेगा ( ये मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर सबसे ठीक लग रहा है )

हालंकि गौतम का शेर सामान्‍य तौर पर बिल्‍कुल ठीक है पर हम यहां कक्षाओं में असामान्‍य शायर बनने आ रहे हैं सामान्‍य शायर तो कई हैं ।

जो शेर सरताज के लिये कड़ी टक्‍कर दे रहे थे वे

दोस्‍त से हमको मिला वो भर गया मत सोचिये

जख्‍म को थोड़ा कुरेदो फिर हरा हो जायेगा

इसमें मिसरा उला कमजोर हो गया अन्‍यथा मिसरा सानी तो गजब का है । जख्‍म  शब्‍द मिसरा उला में आना चाहिये तब ही बात बनेगी ।

हर नफस रोशन किये है जिन्‍दगी को आज जो

कल वो जायेगा तो स्‍यापा इक घना हो जायेगा

आज और  कल  शब्‍दों के प्रयोग ने शेर को कमजोर कर दिया अन्‍यथा शेर यकीनन बेहतरीन था ।

इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ

इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

मिसरा उला में जो कहना चाह रहे थे उसका मिसरा सानी के साथ जो विरोधाभास है बस वही आनंददायक है । कन्‍ट्रास्‍ट का अद्भुत नमूना है ये शेर । बस  गाली  और जूते  के स्‍थान पर कुछ और शब्‍द होने थे ( हांलकि जो हैं वो भी सटीक हैं पर बस बात ये है कि ये शेर को मजाहिया शेर बना रहे हैं और हम चाह कर भी प्रेम में इस्‍तेमाल नहीं कर सकते ) बद्दुआ शब्‍द बिल्‍कुल ठीक है । उड़नतश्‍तरी ने नई बहर पर ग़ज़ल भेज दी है बाकि लोग भी  आराम से करके भेजें अभी काफी समय है । चलिये तैयारी कीजिये और मिलते हैं बहर की कक्षा में जो आज होनी थी पर विद्यार्थियों के अनुरोध पर आज ये विश्‍लेषण कर लिया गया । 

शनिवार, 20 सितंबर 2008

प्‍यार के दो बोल सुनकर वो तेरा हो जायेगा, फिर भी इन्‍सां है किसी दिन वो जुदा हो जायेगा, नेकदिल है वो भला है हुक्‍मरां पर है नया, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

तरही मुशायरा भाग 2

आज तीन और शायरों की रचनायें प्रस्‍तुत हैं इस तरही मुशायरे के दूसरे और अंतिम दौर में । ग़ज़ल की कक्षाओं को शुरू करने से पहले इस तरह का तरही मुशायरा आयोजित करने के पीछे कारण कई हैं पर एक कारण तो ये है कि मानसिकता बन जाये और दूसरा वीनस केसरी ने मेल किया था कि कक्षायें प्रारंभ करने के पहले टेस्‍ट लिया जाये सो दोनों ही कारणों से ये तरही मुशायरा आयोजित किया गया । चलिये आज समापन करते है।

माड़साब : सबसे पहले आ रहे हैं गौतम राजरिशी जिनका शेर आज शीर्षक में लगा है इन्‍होने अच्‍छा प्रयास किया है और दो बार किया है । एक बार तो ग़ज़ल प्रस्‍तुत की और दूसरी बार भेड़ दी । इनके लिये ये ही कहा जा सकता है कि ये कलाकार है सारी कलायें रखता है, बंद मुट्ठी में आवारा हवायें रखता है ।

गौतम राजरिशी

gautam
गुरूजी होमवर्क के साथ हाजिर हूँ.जाने कैसी बन पड़ी है

मुख न खोलो गर जरा तो सब तेरा हो जायेगा
जो कहोगे सच यहाँ तो हादसा हो जायेगा 

भेद की ये बात है यूँ उठ गया पर्दा अगर
तो सरे-बाजार कोई माजरा हो जायेगा 

नेकदिल है वो भला है हुक्मरां पर है नया
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 

इक जरा जो राय दें हम तो बनें गुस्ताख दिल
वो अगर दें धमकियाँ भी,मशवरा हो जायेगा 

ये नियम बाजार का है जो न बदलेगा कभी 
वो है सिक्का,जो कसौटी पर खरा हो जायेगा

होमवर्क पर चार और शेर पका लाये हैं.लगे हाथों भेड़ देता हूँ-

सोचना क्या ये तो तेरे जेब की सरकार है
जो भी चाहे,जो भी तू ने कह दिया,हो जायेगा 

यूँ निगाहों ही निगाहों में न हमको छेड़ तू
भोला-भाला मन हमारा मनचला हो जायेगा 

भीड़ में यूँ भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर
बढ़ न पायेगा कभी तू,गुमशुदा हो जायेगा

तेरी आँखों में छुपा है दर्द का सैलाब जो
एक दिन ये इस जहाँ का तजकिरा हो जायेगा

माड़साब : अच्‍छे शेर निकाले हैं और गिरह भी अच्‍छी बांधी है । आप जानते हैं कि किसी के मिसरा सानी पर अपना मिसरा उला लगाने को गिरह बांधना क्‍यों कहते हैं । दरअस्‍ल में गिरह का अर्थ होता है गांठ और चूंकि आप किसी दूसरे की जमीन पर काम कर रहे हैं इसलिये ये जो शेर होता है ये दोनों ग़ज़लों के बीच गिरह का काम करता है । चलिये अब चलते हैं दूसरे शायर की और जो हैं रविकांत। इनके बारे में ये ही कहा जा सकता है कि ''ख़ुश्‍क पत्‍तों पे मेरा नाम यक़ीनन होगा, मैंने इक उम्र गुज़ारी है शजरकारी में ''

रविकांत पाण्डेय

ravikant
गुरू जी, होमवर्क हाजिर है-

प्यार के दो बोल सुनकर वो तिरा हो जायेगा
फ़िर भी इन्सां है किसी दिन वो जुदा हो जायेगा 

इश्क की नादानियों का सिलसिला मुझसे कहे
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 

आग दिल में दे गया जो आज फ़िर है सामने
जीने मरने का नजर से फ़ैसला हो जायेगा 

बोलना सच हो अगर पहले जरा ये सोचना
जो भी अपना है यहाँ नाआशना हो जायेगा 

सर हथेली पे रखा है तुम पुकारो जिस घड़ी
जिंदगी का इस तरह से हक अदा हो जायेगा
 

माड़साब : मतला अच्‍छा निकाला है और बाकी के शेर भी मासूम  ( वैसे फोटो में भी बंदा मासूम लग रहा है ) अब जो आ रहे हैं उनके लिये ये ही कहना चाहूंगा '' ख़ुद से चल के कहां ये तर्जे सुख़न आया है, पांव दाबे हैं ब़ुज़ुर्गों के तो फन आया है '' । खड़े होकर तालियां बजाइये आज के दौर के स्‍थापित शायर नीरज जी का जिन्‍होंने इंटरनेट के बीमार होने के बाद भी तरही में भाग लिया । आ रहे हैं ग़जल सम्राट नीरज जी

नीरज गोस्‍वामी

neerajgoswami

गुरूजी
मानना पड़ेगा की नयी पीढी का कोई जवाब नहीं...जब तक हम होमवर्क पर दिमाग लगाते इन नौजवानों ने उसे पूरा कर के आप के पास भेज भी दिया और क्या खूब भेजा है...ऐसे शेर निकले हैं जो हमारे जेहन में शायद कभी आते ही नहीं...शायरी का भविष्य सुरक्षित है.इन जवान हाथों में....और आप की ग़ज़ल....क्या कहूँ...गदगद हूँ...शब्द नहीं मेरे पास...इसे पढ़कर जो लोग संसद में जाते हैं डूब मरना चाहिए...लेकिन डूब मरने के लिए गैरत की जरूरत होती है जो इनके पास है नहीं...ऐसी नायाब ग़ज़ल पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...हम धन्य हुए...

आप के दिए होम वर्क पर पूरा काम हो नहीं पाया समय और नेट दोनों ने हाथ खींच रखा है...बड़ी मुश्किल से एक आध मिनट को चलता है और फ़िर गोल...बहुत काम बाकि है तरही ग़ज़ल का...एक आध शेर हुआ है सुनिए और हमारे कान मरोडिये ..

आदमी को आदमी सा मान देना ठीक है
सर झुका मिलते रहे तो वो खुदा हो जाएगा 

दोस्त से हमको मिला वो,भर गया मत सोचिये
जख्म को थोड़ा कुरेदो फ़िर हरा हो जाएगा
 

माड़साब : ज़ख्‍म को थोड़ा कुरेदो फिर हरा हो जायेगा, नीरज जी ये बात आप ही कह सकते हैं । बढि़या है भइ बढि़या है ।

चलिये अब परिणाम की ओर चलते हैं परिणाम में जिन चीज़ों पर ध्‍यान दिया गया है वो हैं बहर, कहन, मिसरा उला और सानी का तारतम्‍य ।

तो पहले तरही मुशायरे का सरताज शेर है

भीड़ में यूँ भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर 2122 2122 2122 212
बढ़ न पायेगा कभी तू,गुमशुदा हो जायेगा  2122 2122 2122 212

(गौतम राजरिशी)

हालंकि इसमें भी कहन का हल्‍का सा दोष है जिसको और सुधारा जा सकता है ताकि ये एक हासिले ग़ज़ल शेर हो जाये । सभीको बधाई और गौतम को खास तौर पर क्‍योंकि उनका शेर सरताज़ बना है ।

अगले तरही मुशायरे के लिये पंद्रह दिन दिये जा रहे हैं और मिसरा है माड़साब की ही ग़ज़ल का '' अंधी बहरी गूंगी जनता'' 22-22-22-22 फालुन-फालुन-फालुन-फालुन बहर है बहरे मुतदारिक मुसमन मकतूअ । काफिया है केवल ''ई'' की मात्रा और रदीफ है जनता । चलिये अगले सप्‍ताह मिलते हैं बहर की कक्षाओं के साथ ।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

रात भर जग कर पढ़ेंगे तो भी क्या हो जायेगा, हाथ में आते ही पर्चा सब सफा हो जायेगा, इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा

पहला तरही मुशायरा

पहला तरही मुशायरा इस मायने में ठीक रहा है कि केवल एक ही शेर बहर से बाहर प्राप्‍त हुआ है और उससे ये तो पता चलता ही है कि बहर क्‍या होती है ये बात अब छात्र छात्राओं को समझ में आने लगी है । हां ये बात अलग है कि अभी कहन डवलप उतनी नहीं हो पाई है जितनी कि हो जानी चाहिये । उसके पीछे माड़साब की एक ग़लती तो ये है कि माड़साब ने काम करने के लिये काफी कम समय दिया है । तो अब माड़साब ने ये तय किया है कि तरही मुशायरे अब माह में केवल दो ही होंगें अर्थात अब काम करने के लिये 15 दिनों का समय दिया जाएगा । क्‍योंकि पहले मुशायरे में जो ग़ज़लें प्राप्‍त हुईं हैं वो सारी ऐसा लग रही हैं कि जल्‍दी जल्‍दी तैयार करके भेजी गईं हैं । एक और काम हमको ये करना होगा कि जो ग़ज़लें भेजी जाएंगीं वो टिप्‍पणी में नहीं लगाकर सीधे माड़साब को मेल करनी होंगीं । टिप्‍पणी पर लगाई गई ग़ज़लें क्‍योंकि सब पहले ही पढ़ लेंगें अत: मुशायरे का चार्म खत्‍म हो जाएगा कि किसने क्‍या लिखा ।  आज के तरही मुशायरे में कुछ शेर अच्‍छे मिले हैं आज शीर्षक में जो दो शेर लगाये हैं वे भी दो अलग अलग शायरों के हैं । अभिनव और वीनस ने मज़ाहिया शायरी की है किन्‍तु सटीक की है ।

माड़साब :- चलिये शुरू करते हैं आज का मुशायरा । सबसे पहले लेडीज फर्स्‍ट आ रहीं हैं कंचन इनके लिये दो पंक्तियां

उसकी तारीफ करे कोई तो करे कैसे,

जिसकी आवाज़ में फूलों की महक आती हो

kanchan 

कंचन सिंह चौहान
अरे भगवान बड़ा टफ कंपटीसन हो गया है गुरू जी ये तो ....अबकि बार तो सारे के सारे सटूडेंटै एक से बढ़ कर एक लिखे पड़े हैं .... सब का होमवर्क बेमिसाल....! लीजिये रात में हम ने भी दिया जला के कुछ लिखा है..!

जान बस जायेगी मेरी और क्या हो जायेगा,
इम्तिहाँ ले कर तुझे तो हौसला हो जायेगा।

रोज समझाया सभी को, ना कभी समझे मगर,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा।

हर नफस रोशन किये है, जिंदगी को आज जो,                                                 कल वो जायेगा तो स्यापा इक घना हो जायेगा।

इतना ज्यादा खुद को, उसमें ढालते जाते हो क्यो,
जबकि तुम भी जानते हो, गैर वो हो जाएगा।

कौन छोड़ेगा सड़क पर घूमना डर मौत से,
आज फोड़ो बम, शहर कल आम सा हो जाएगा।

माड़साब : तालियां तालियां पूरी ग़ज़ल बहर पर फैंक के मारी है । दिया जला के ऐसी लिखी तो सूरज के उजाले में कैसी लिखेंगीं आप । बस मोहतरमा चौथे शेर में काफिये का गच्‍चा खा गईं हैं । जबकि तुम भी जानता हो गैर वो हो जाएगा । मैडम जी काफिया कहां गया । चलिये अब आ रहें हैं एक और नौजवान शायर जिनके बारे में कहा जा सकता है कि पूत के लक्षण पालने में ही नज़र आ जाते हैं । इनके लिये यहीं कहूंगा ''वही लोग रहते हैं ख़ामोश अक्‍सर ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं ''

वीनस केसरी

venus kesari

ग्रहकार्य के अनुरूप गज़ल लिखी है जैसी भी बन पडीं है आपके सामने प्रस्तुत है

मत मनाओ उसको इतना वो खफा हो जायेगा ।
रुठेगा शामोसहर ये कायदा हो जायेगा ॥

लिख बहर में पेश की तो इक गज़ल अच्छी लगी ।
सोचता था ये करिश्मा बारहा हो जयेगा ॥

तोड़ दूंगा जब हदों को आपके सम्मान की ।
तब कयामत आयेगी तब जलजला हो जायेगा

इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ ।
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

आज मैने मय के प्याले हाशिये पर रख दिये ।
अपनी कुछ गज़लें सुना दो कुछ नशा हो जायेगा ॥

फ़िर मतों की थी ज़रूरत फ़िर बहायी रहमतें ।
चार पैसे दे के वो सबका खुदा हो जायेगा ॥ 

जब तिलावत की हमारे राम को अच्छा लगा ।
मत कहो तुम फ़िर से ऐसा फ़िर दंगा हो जायेगा ॥
 

माड़साब :- आपने अच्‍छी ग़ज़ल निकाली है विशेष कर गिरह अच्‍छी बांधी है जो मैंने शीर्षक में लगाई है । मगर आप आख़ीर के शेर में मात खा गये ''दंगा '' वज्‍न में नहीं आ रहा है ''दगा'' होता तो चल जाता पर दंगा का वज्‍न 22 है । और अब आ रहे हैं अभिनव जो कई दिनों से कहीं गायब थे और अब दिखाई दिये हैं इनके लिये दो पंक्तियां '' थी ग़ज़ब की मुझमें फुर्ती तेरी ग़मे आशिकी के पहले, मैं घसीटता था ठेला तेरी दोस्‍ती के पहले ''

अभिनव

abhinav_shukla

रात भर जग कर पढ़ेंगे तो भी क्या हो जायेगा,
हाथ में आते ही पर्चा सब सफा हो जायेगा, 

उनको है इस बात का पूरा भरोसा दोस्तों,
बाल काले कर के खरबूजा नया हो जायेगा, 

तुम तो लड्डू देख कर पूरे गनेसी हो गए,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा, 

आदमी हो या अजायबघर लकड़बग्घे मियां,
बम लगाकर सोचते हो सब हरा हो जायेगा.

माड़साब :- पूरी ग़ज़ल मज़ेदार है और पूरी बहर में है साथ में कहन में भी है । और जो डायबिटिक गिरह बांधी है वो तो मस्‍त है । आज के लिये इतना ही अभी परिणाम रोक के रखे जा रहे हैं क्‍योंकि कल हम बात करेंगें कुछ और ग़ज़लों की और साथ ही परिणाम की । जिन लोगों ने माड़साब की ग़ज़ल सुनने की फरमाइश की है उनको धन्‍यवाद । और लीजिये पेश है माड़साब की ग़ज़ल

माड़साब ( और माड़साब का विश्‍व सुंदरी युक्‍ता मुखी के साथ का फोटो भी देखिये)

Untitled-3

कौडि़यों में बिक रही संसद है मेरे मुल्‍क की
दो टके की हो गई संसद है मेरे मुल्‍क की

डाकुओं, चोरों, लुटेरों, जाहिलों, नालायकों
बेइमानों से भरी संसद है मेरे मुल्‍क की

लोग गन्‍दे, सोच गन्‍दी, काम भी गन्‍दे हैं सब
गन्‍दगी ही गन्‍दगी संसद है मेरे मुल्‍क की

ये कभी यूं पाक थी जैसे के हो मंदिर कोई
अब तो कोठा बन चुकी संसद है मेरे मुल्‍क की

कोई पप्‍पू, कोई फूलन, कोई शहबुद्दीन है
कैसे खंभों पर टिकी संसद है मेरे मुल्‍क की

बस इशारे पर कभी इसके कभी उसके यूंही
बांध घुंघरू नाचती संसद है मेरे मुल्‍क की

जिनको हमने चुन के भेजा बिक गए बाज़ार में
सबकी क़ीमत लग चुकी, संसद है मेरे मुल्‍क की

मुझको भी लगता तो है पर किससे पूछूं सच है क्‍या
शोर है के मर गई संसद है मेरे मुल्‍क की

हो कहां गांधी चले भी आओ देखो तो तुम्‍हें
याद करके रो रही संसद है मेरे मुल्‍क की

चलिये कल मिलते हैं कुछ और ग़ज़लों के साथ ।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

तीन रंगों का वो सपना कब का यारों मर चुका, अब तमाशा ख़त्‍म्‍ा है अब तो उठो और घर चलो

वे सारे शेर जिनको कि शुभचिंतक कहा करते हैं कि इनको कही मत पढ़ा करो ये तीखे हैं विवादास्‍पद हैं वगैरह वगैरह, उन सारे शेरों को अब ग़ज़ल की कक्षाओं में सुनाने का मन है । क्‍योंकि पिछले शेरों को लोगों ने काफी पसंद किया है । आज की कक्षा में संसद वाली पूरी ग़ज़ल भी सुनाना है । लोगों का काफी आग्रह है उसको सुनाने का । मगर आज की कक्षा में हम कुछ हट कर बातें करेंगें । उससे पहले कि हम सीधे बहरों की बात करने लगें हम पहले ग़ज़ल के कुछ महत्‍वपूर्ण बिन्‍दु जान लें । पिछले दिनों से काफी छात्रो की ग़ज़ले इस्‍लाह के लिये आ रही हैं । और ग़ज़लों में जो सामान्‍य सा दोष आता दिखाई दे रहा है उसपर आज चर्चा करने की इच्‍छा है । हां इस बीच ये बता दूं कि कुछ ग़ज़लें तरही मुशायरे की आ गई हैं और माड़साब ने उनको सहेज लिया है । एक दो दिन में तरही मुशायरे का आयोजन किया जाएगा उसमें ग़ज़लों को प्रस्‍तुत किया जायेगा । नखलऊ की कंचन ने फोन पे  पूछा है कि बहर क्‍या है कंचन हमारी कक्षा की सबसे ढिल्‍ली छात्रा है । जब सारी कापियां जमा हो जाती हैं तब नाक पोंछती हुई आती है और कहती है '' ए माड़साब नीक सी तो देर हुई है जमा कर लो कापी '' ।

खैर बहर की बात करने के पहले हम बात करते हैं । ग़ज़ल में आने वाले असहज और अवांछित तत्‍वों की । कविता की जो परिभाषा है उसमें ये भी कहा जाता है कि कविता को उस दीवार की तरह होना चाहिये जिसमें एक भी ईंट बेकार न हो । अर्थात एक भी ईंट हटाने पर अगर दीवार गिर जाये तो इसका मतलब ये है कि हर ईंट अपनी जगह उपयोगी है । अगर ऐसा हो रहा है कि किसी ईंट को खींचने पर कुछ नहीं हो रहा है तो उसका मतलब ये है कि एक गैरज़रूरी ईंट वहां हैं । कविता में भी ये ही होता है कविता में भी एक भी गैर जरूरी शब्‍द नहीं होना चाहिये अगर एक भी शब्‍द ऐसा है तो इसका मतलब है कि वो अवांछित है और वो पूरी पंक्ति को असहज बना देगा । ग़ज़ल की भाषा में इनको भर्ती का शब्‍द कहा जाता है । अक्‍सर होता है कि हम काफिया ऐसा ले लेते हैं जो कि परेशानी वाला होता है और फिर उसका ही निर्वहन करने के चक्‍कर में हम भर्ती के शब्‍द रखते हैं ।  अगर कविता में से किसी शब्‍द को निकालने पर ये हो रहा हो कि पूरी कविता पर असर पड़ रहा हो तो इसका मतलब ये है कि वो शब्‍द जरूरी है और उसकी उपयोगिता है  । किन्‍तु अगर किसी शब्‍द को हटाने पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो तो इसका मतलब ये है कि वो शब्‍द भर्ती का है और जितनी जल्‍द हो उसे हटा दें । जैसे गौतम ने मतला बनाया

अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर

कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर

मतला देख कर ही पता चल रहा है कि काफिया कठिन है और उस पर रदीफ की बाध्‍यता है । कई बार काफिया कठिन नहीं होता पर रदीफ के साथ उसका मेल परेशानी पैदा करता है । मतले में मिसरा सानी में ही गौतम को एक समझौता करना पड़ा और वो ये कि देहलीजों  का दे  खींच कर पढ़ना है ताकि वो दीर्घ का स्‍वर पैदा करे । वास्‍तविकता ये है कि दे....ह ली जों 2122  तो है ही नहीं ये तो देह 2 ली 2  जों 2  है पर मात्रा बिठाने के चक्‍कर में असहजता पैदा हो गई ।

भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो

टिकी है मेरी दुनिया माँ की सब बाँधी तबीजों पर

शेर में ताबीज  को मात्रा के चक्‍कर में तबीज  करना पड़ा । ये असहजता नहीं आनी चाहिये । कोई जरूरी नहीं है कि हम मुश्किल काफिये लें । उससे कहीं तय नहीं होता कि हम उस्‍ताद हैं । आप तो गालिब की सबसे लोकप्रिय ग़ज़ल दिले नादां तुझे हुआ क्‍या है आखिर इस दर्द की दवा क्‍या है को ही लें कितना आसान काफिया और उतना ही आसान रदीफ ।  अपने को मुश्किल काफिये में नहीं उलझायें । आज की कक्षा लम्‍बी हो गई है । अत: जिस ग़जल की फरमाइश है उसे कल सुनाता हूं । आज की पोस्‍ट के शीर्षक में भी माड़साब ने अपना एक शेर लगाया है

तीन रंगों का वो सपना कब का यारों मर चुका,

अब तमाशा ख़त्‍म्‍ा है अब तो उठो और घर चलो

बतायें कैसा लगा कल आकर सुनाता हूं अपनी पूरी ग़ज़ल ।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

कौडि़यों में बिक रही संसद है मेरे मुल्‍क की, दो टके की हो गई संसद है मेरे मुल्‍क की

पिछले दिनों जब टीवी पर देखा कि किस प्रकार से भारत की संसद में सांसदों को आलू प्‍याल की तरह से खरीदने का और बेचने का दौर चला तो उसी दिन इस ग़ज़ल ने जन्‍म लिया था । पूरी ग़ज़ल तो खैर काफी तीखी लिखा गई है जब मैंने बाबई के मुशायरे में इसको पढ़ा तो कुछ शुभचिंतक शायरों ने कहा कि इसको संवेदनशील स्‍थान पर मत पढ़ना । जैसे कि एक बार और किसी शेर पर किसी परिचित ने कहा था कि इसको मत पढ़ना । मगर मुझे लगता है कि जब राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि

''आज़ादी खादी के कुरते की एक बटन

आज़ादी टोपी एक नुकीली तनी हुई

फैशन वालों के लिये नया फैशन निकला 

मोटर में बांधों तीन रंग वाला चिथड़ा''

तो क्‍या  वे कवियों को एक संदेश नहीं दे रहे हैं कि जन के लिये समर्पित रहो ना कि किसी और के लिये । आज अगर कोई कवि तीन रंग वाला चिथड़ा लिख दे तो हंगामा ही मच जाये और लोग पत्‍थर लेकर पिल ही पडें । खैर तो जिस शेर पर मेर मित्र ने मना किया था वो एक दूसरी ग़ज़ल का ये शेर था जिस ग़ज़ल में केवल आ की मात्रा ही काफिया थी ।

तुम्‍हारे तीन रंगों को बिछायें या कि ओढ़ें हम

के वो कमबख्‍़त दर्जी इसकी नेकर भी नहीं सिलता

मेरा एक ही मानना है कि कविता मनरंजन से ज्‍यादा जनरंजन की चीज़ है । मनरंजन जहां तक सीमा हो वहां तक हों मगर उससे ज्‍यादा कविता को जनरंजन के लिये होना चाहिये । ग़ज़ल के बारें में लोग कहते हैं कि इसको नाज़ुक होना चाहिये इसमें नफासत होनी चाहिये वगैरह वगैरह । मगर मैं कहता हूं कि अगर ऐसा है तो फिर आज भी लोगों की जुबान पर वोही शेर क्‍यों चढ़ें हैं जो जैसे खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर ....  जो कि जनरंजन के शेर थे । दुष्‍यंत की पूरी ग़ज़लें जनरंजन की ग़ज़लें हैं । हालंकि मैं दुष्‍यंत की ग़ज़लों से पूरी तरह से सहमत नहीं हूं पर फिर भी आज लोगों की ज़बान पर हैं तो वही हो गई है पीर पर्वत सी ... या फिर बाढ़ की संभावनाएं ।  तो इसके पीछे कारण ये ही है कि लोग अपने दर्द अपनी पीड़ायें ही सुनना पसंद करते हैं।और उसको ही याद भी रखते हैं ।  तो मेरा अनुरोध है कि मनरंजन के लिये लिखें पर जनरंजन का भी ध्‍यान रखें । आपनी ग़ज़ल में एक शेर ऐसा ज़ुरूर रखें जो कि वर्तमान व्‍यवस्‍था से विद्रोह करता हो । विशेषकर मैं वीनस केसरी, गौतम राजरिशी से अनुरोध करूंगा कि आप तो युवा हैं आपकी ग़ज़लों में तो वो तेवर वो आग होनी चाहिये कि अंदर तक हिला दे । अगली कक्षा में अपनी एक पूरी कविता प्रस्‍तुत करूंगा जो कि ऐसी ही है ।

खैर तो आज से हमको कक्षायें प्रारंभ करना है और ये कक्षायें अब प्रयास रहेगा कि नियमित हों । हां इस बार तरीका थोड़ा अलग होगा । पहले तो हर सप्‍ताह एक कक्षा होगी । और फिर समस्‍याओं पर चर्चा वे समस्‍याऐं जो कि आपकी ग़ज़लों के माध्‍यम से आती हैं   और एक होगा तरही मुशायरा जो हर सप्‍ताह किसी एक मिसरे पर होगा । जैसे इस बार कि बहर है

इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

आपको इस पर अपना मतला बनाना है और  कम से कम पांच शेर निकालने हैं । बहर है रमल मुसमन महजूफ़ । रुक्‍न हैं  फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलुन  या कि 2122-2122-2122-212 । ये पहली कक्षा है इसलिये बता रहा हूं कि क़ाफिया  है  आ  की मात्रा और रदीफ है हो जाएगा । अब आपका मतला अपना होना चाहिये और कम से कम एक शेर ऐसा होना चाहिये जिसमें मिसरा सानी हो इतना मत चाहो उसे वो बेवफा ओ जायेगा ( इसको गिरह लगाना कहते हैं कि आपने एक शेंर में मिसरा सानी मूल रखा और मिसरा ऊला लिखा)। ग़ज़ल तो आप पहचान ही गये होंगे बशीर बद्र साहब की है । एक मनोरंजक तथ्‍य आपको बता  दूं बशीर बद्र साहब  को जिस शेर ने ख्‍याति दी उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये वो ग़ज़ल वास्‍तव में उन्‍होंने तरही में लिखी थी ( ये बात उन्‍होंने मुझे ख़ुद चर्चा में बताई ) । किसी शायर की ग़ज़ल का मिसरा न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए तरही मुशायरे के लिये मिला था और उस पर उन्‍होंने उस पर अपनी ग़ज़ल बनाई कभी तो असमां से चांद उतरे ..... । और इस ग़ज़ल में एक शेर में उन्‍होंने मूल मिसरे न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये पर गिरह बांधी थी उजाले अपनी यादों के ..  उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास है । तरह पर लिखी ग़ज़लों को आप अपने नाम से पढ़ सकते हैं किन्‍तु पढ़ने से पूर्व बताना होता है कि किस शायर की किस ग़ज़ल पर आपने काम किया है । तो कक्षा का आग़ाज़ हम करते हैं तरही मुशायरे से । जल्‍द अपनी ग़ज़लें ( पांच शेर न निकाल पायें तो मतला और तीन शेर निकालें ) तैयार करें और भेजें ताकि आगे का कारोबार चल सके । ( कक्षायें पुन: प्रारंभ होने के लिये आभार व्‍यक्‍त करना हो तो मुझे नहीं इनको करें श्री समीर लाल जी,श्री नीरजी गोस्‍वामी जी वीनस केसरी, कंचन चौहान,  इन लोगों ने कक्षायें प्रारंभ करने के लिये जो दबाव डाला उतना तो वाम दलों ने पांच सालों में मनमोहन सिंह पर भी नहीं डाला होगा )

आपका उत्‍साह आगे की कक्षाओं के लिये प्रेरणा बनगा

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