इस दीपावली पर बाज़ार में रौनक कुछ कम दिखाई दी। कारण यह कि हमारे यहां सब कुछ कृषि आधारित होता है और पिछली फसल इस प्रकार से चौपट हुई है कि किसान के पास कुछ भी हाथ में नहीं है। उसी का असर बाजारों में भी देखने को मिला है। दीपावली के एक दिन पहले जो गहमा गहमी बाजार में देखने को मिलती थी वह इस बार नहीं थी। मगर फिर भी परंपरा है तो त्यौहार तो मनाया ही जाता है। असल में हमने स्वयं ही अपने हाथों से अपने त्यौहारों को, अपने पर्वों को,अपने घर में होने वाले कार्यक्रमों शादी विवाह के आयोजनों को इतना खर्चीला कर दिया है कि अब उसका निर्वाह करना मुश्किल होता जा रहा है। फिर पंरपरा के पालन के नाम पर हम करते हैं और उस चक्कर में कई बार क़र्जे में डूब जाते हैं। इस समस्या का कोई न कोई हल निकालना ही होगा। कु छ ऐसा कि त्यौहारों के आगमन की सूचना मन में दहशत पैदा नहीं करे कि अरे खर्च आ गया सिर पर।
आइये आज तरही के क्रम को कुछ और आगे बढ़ाते हैं। आज हम बासी दीपावली का आयोजन कर रहे हैं दो गुणी रचनाकारों के साथ। तिलक जी के बारे में तो मैंने पूर्व में ही घोषणा की थी कि वह सारे मिसरों पर ग़ज़ल लेकर आएंगे और वैसा ही हुआ है। लावण्या जी ने दो सुंदर से मुक्तक भेजे हैं। तो आइये इन दोनों गुणी रचनाकारों के रचनाओं का आनंद लेते हैं।
लावण्या दीपक शाह जी
बाग़ों में गुल खिलेंगे, इक बार मुस्कुरा दो
झरने से बह उठेंगे, इक बार मुस्कुरा दो
हो चांद चौदहवीं का, पूनम की रात हो तुम
अँधियारे सब छँटेंगे, इक बार मुस्कुरा दो
चांदी की हों ये रातें, इक बार मुस्कुरा दो
हों रौशनी की बातें, इक बार मुस्कुरा दो
कलियां हैं अधखिली सी, खिल जाएंगी वो पल में
खुश्बू की हों बरातें, इक बार मुस्कुरा दो
वाह वाह वाह क्या सुंदर मुक्तक रचे हैं। अपने प्रिय के एक बार मुस्कुराने को लेकर कितने सारे बिम्ब रच दिये हैं। सचमुच हम जिसे प्रेम करते हैं, उसकी एक मुस्कुराहट हमारे लिये कितने मायने रखती है यह शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता । हमारे लिये फूलों का खिलना, झरनों का बहना, रौशनी सब कुछ उसकी मुस्कुराहट में ही निहित होता है। मुस्कुराहट बहुत कुछ कह जाती है बहुत कुछ कर जाती है । बहुत ही सुंदर मुक्तक। वाह वाह वाह।
श्री तिलक राज कपूर
माना है रात गहरी, इक बार मुस्करा दो
लौट आयेगी खुशी भी, इक बार मुस्करा दो
दीपक न तेल बाती, मन जायेगी दिवाली
धनिया से बोले होरी, इक बार मुस्करा दो।
हर सू सियाह मन्ज़र, भाई के हाथ खन्ज़र
वातावरण है भारी, इक बार मुस्करा दो।
बोझिल बहुत है माना, तन्हा समय बिताना
इक याद आ बसेगी, इक बार मुस्करा दो।
इस लोकतंत्र में है इक झूठ सच पे भारी
राहत जरा मिलेगी, इक बार मुस्करा दो।
माँ लक्ष्मी कृपा का वरदान आज दे दो
दर पर है इक सवाली, इक बार मुस्करा दो।
अंधियार रात का ये, सूरज सा खिल उठेगा
मावस चमक उठेगी, इक बार मुस्करा दो।
वाह वाह वाह । क्या बात है। धनिया और होरी का दर्द किस प्रकार से गूँथा है शेर में । कमाल । एक और प्रयोग तिलक जी ने किया है जो इस प्रकार की बहरों में खूब किया जाता है। वह ये कि मिसरा उला में आधा मिसरा भी अपने से अगले आधे मिसरे के साथ काफियाबंदी करे, तुक मिलाए। जैसे मन्ज़र और खन्ज़र, माना और बिताना के प्रयोग मिलक जी ने किये हैं। यह चूँकि गाई जाने वाली बहर है इसलिए इस प्रकार के प्रयोग बहुत प्रभाव छोड़ते हैं तरन्नुम में ग़ज़ल पढ़ते समय।
मुड़ कर न कल तलाशो, इक बार मुस्करा दो
बीता हुआ भुला दो, इक बार मुस्करा दो।
सीने में जल रहा है, इक आस-दीप कब से
तुम साथ तो निबाहो, इक बार मुस्करा दो।
ये शह्र अजनबी है, मिलता है दोस्त बनकर
कुछ दोस्ती बढ़ाओ, इक बार मुस्करा दो।
रोने से दम परों का, कमज़ोर हो रहा है
छूना है आस्मां तो, इक बार मुस्करा दो।
निर्भय से निर्भया का, इक युद्ध चल रहा है
तुम मुस्करा सको तो, इक बार मुस्करा दो।
कैसा समय का फेरा, तम छा रहा घनेरा,
मिल कर ये तम हरा लो, इक बार मुस्करा दो।
अंधियार से लड़ाई लड़ते थके हैं दीपक
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्करा दो।
रोने से दम परों का कमज़ोर हो रहा है, वाह मिसरे को किस अलग प्रकार से बांधा है। मुस्कुराने की ताकत का एहसास कराता हुआ शेर। और निर्भय से निर्भया का युद्ध भी बहुत कमाल है। ये शह्र अजनबी है मिलता है दोस्त बनकर में दोस्ती बढ़ाने के लिये मुस्कुराने की बात जो कही है वह बहुत सुंदर बन पड़ी है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। कमाल कमाल।
तम के हटा के परदे, इक बार मुस्करा दो
दिन याद कर सुहाने, इक बार मुस्करा दो।
खेतों में सख़्त मिट्टी दरकी हुई है फिर भी
कहते हैं आप मुझसे इक बार मुस्करा दो।
बिखरा था नीड़ सारा, तुम ने इसे सॅंवारा,
भरने को चाँदनी से, इक बार मुस्करा दो।
दिन की थकान लेकर, जब आईने को देखा
दिल ने मुझे कहा ये, इक बार मुस्करा दो।
पूरी हुई प्रतीक्षा, अब मान लो मुनव्वल
देखो न कनखियों से, इक बार मुस्करा दो।
जीवन की हर घड़ी में, कोई खुशी तलाशो
दिल में वही बसा के, इक बार मुस्करा दो।
मावस का दीप उत्सव, बेताब हो रहा है
तारीकियां मिटाने, इक बार मुस्करा दो।
पूरी हुई प्रतीक्षा अब मान लो मुनव्वल में मान और उसके बाद मुनव्वल कमाल की कारीगरी से बांधे हैं। वाह । और उसके बाद का मिसरा तो जानलेवा ही है। जीवन की हर घड़ी में कोई खुशी तलाशो दिल में वही बसा के इक बार मुस्कुरा दो। वाह क्या सकारात्मक सोच है। यही सोच यदि हम सब के मन में बस जाए तो जीवन में इतनी कठिनाई ही न हो। वाह वाह ।
किसने तुम्हें कहा था, इक बार मुस्करा दो
हर कोई अब कहेगा, इक बार मुस्करा दो।
घूँघट उठा के उसने, देखा जो मुस्करा के
दिल बार-बार बोला, इक बार मुस्करा दो।
पल भर है चांद ठहरा, बदली में जा छुपेगा
फिर कुछ नहीं दिखेगा, इक बार मुस्करा दो।
मौसम बदल रहा है, ठिठुरा करेंगी रातें
चंदा कहे शरद् का, इक बार मुस्करा दो।
मावस में चांदनी का दिखना नहीं है मुमकिन
लेकिन हमें दिखेगा, इक बार मुस्करा दो।
तुमको उदास पाकर, दीपक उदास सारे
हर दीप जल उठेगा, इक बार मुस्करा दो।
मावस की रात काली, हो जाएगी दिवाली
मिट जायेगा अंधेरा, इक बार मुस्करा दो।
अय हय, क्या मतला है, सुभान अल्लाह । किसने तुम्हें कहा था के बाद हर कोई अब कहेगा। क्या शिकायत है । क्या नफ़ासत के साथ शिकायत हो रही है। यही तो ग़ज़ल है । और उसके ठीक बाद का ही शेर घूँघट का उठना और दिल का बार बार कहना । वाह क्या बात है। तुमको उदास पाकर दीपक उदास सारे में प्रिय की उदासी से दीपों की उदासी को कमाल का जोड़ा है।
तिलक जी की ग़ज़लों में एक महत्त्वपूर्ण बात जो है वह यह है कि किसी भी ग़ज़ल में इता दोष उन्होंने नहीं बनने दिया है। क्योंकि जब मात्राओं पर काफिये होते हैं तो इता दोष बनना बहुत कॉमन होता है। उसके लिये आवश्यक होता है कि आप मतले के दोनों मिसरों में जो काफिये ले रहे हों उनमें से कोई एक काफिया, मात्रा हटाने के बाद निरर्थक हो जाए, कोई मुकम्मल शब्द न हो। पहली ग़ज़ल में उन्होंने 'गहरी' और 'भी' को लिया। दोनों ही 'ई' की मात्रा हटाने के बाद निरर्थक हो रहे हैं 'गहर' और 'भ' । दूसरी ग़ज़ल में 'तलाशो' तथा 'दो' को लिया। तलाशो में से 'ओ' की मात्रा हटाने पर 'तलाश' बचता है जो एक शब्द है लेकिन 'दो' में से 'ओ' हटाने पर 'द' बचता है जो कोई शब्द नहीं है। तीसरी ग़ज़ल में 'परदे' और 'सुहाने' दोनों में से 'ए' की मात्रा हटाने पर 'परद' और 'सुहान' जैसे निरर्थक शब्द बचते हैं। और चौथी ग़ज़ल में मतले में लिये गए 'था' और 'कहेगा' में से 'आ' की मात्रा हटाने पर 'थ' और 'कहेग' बचते हैं, जो कोई शब्द नहीं है। यह सावधानी बहुत अच्छी बरती है तिलक जी ने। बस एक उदाहरण के साथ बात समाप्त कि यदि आपने मतले के मिसरा उला में 'खुशी' और मिसरा सानी में 'बैठी' को काफिये के शब्द बनाया है तो ई की मात्रा हटाने पर खुश और बैठ जैसे मुकम्मल शब्द बचेंगे जिनमें 'श' और 'ठ' के कारण तुकांत नहीं हो रही है। इसलिए इता बन जाएगा।
चलिए तो आनंद लीजिए लावण्या जी के मुक्तकों का और तिलक जी की ग़ज़लों का । और देते रहिए दाद। दीपावली की एक बार फिर से शुभ कामनाऍ।