पहले अंकित सफर का मेल आया कि ग़ज़ल के गांव में कुछ सन्नाटा सा क्यों है, बकौल दादा ए के हंगल फिल्म शोल ' ये इतना सन्नाटा क्यों है भाई ' । और फिर उसके बाद कल आदरणीय राकेश जी का फोन आया कि क्या बात है ब्लाग पर ख़मोशी क्यों छा रही है । जब देखा तो पाया कि सचमुच ही ग़ज़ल के गांव में ख़मोशी छाई हुई है । ख़मोशी के हालांकि अपने कारण भी हैं, किन्तु ख़मोशी तो ख़मोशी होती है । ज़्यादा देर तक बनी रहे तो दहशत पैदा करती है । तो लगा कि ख़मोशी को तोड़ना भी ज़ुरूरी है । अब तो पांच साल हो गये हैं इस ग़ज़ल गांव को बसे हुए । अगस्त में पूरे पांच साल को हो जायेगा ये सफ़र । इन पांच सालों में बहुत स्नेह बहुत प्रेम मिला अपनों से । और उसी नेह ने लड़ने का जूझने का हौसला प्रदान किया । और इसी बीच कुछ कुछ ऐसे अनुभव भी होते रहे कि बरबस डॉ राहत इन्दौरी साहब का वो शेर याद आता रहा '' मैं न जुगनू हूं, दिया हूं, न कोई तारा हूं, रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं'' । पिछले एक बरस से एक बड़े व्यक्ति की ओर से भी मुझे इसी प्रकार के अनुभव मिले । वे पूरी योजना के साथ कुछ ऐसा कर रहे हैं जो किसी भी 'बड़े व्यक्ति' को शोभा नहीं देता । मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि मैं कोई बहुत बड़ा जानकार नहीं हूं 'इल्मे अरूज़' को । जो जानता हूं, जितना जानता हूं बस उतना ही आप सब के साथ शेयर करता रहता हूं ''दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम'' वाली उक्ति को धन के स्थान पर ज्ञान के लिये प्रयोग करते हुए । लेकिन मुझे लगता है कि कुछ अपनों को और कुछ 'बड़ों' को इस काम से परेशानी हो रही है । अपने, अपने तरीके से और बड़े, बड़े तरीके से इस परेशानी को व्यक्त करते रहते हैं । खैर ये तो सब होता ही है । यदि आप कुछ भी निस्वार्थ करने निकलते हैं, कुछ भी अच्छा करने निकलते हैं तो ये सब तो होता है । यदि आप घर से शराब की दुकान की ओर जा रहे हैं तो आपके रास्ते में कोई अड़चन कोई रुकावट नहीं आती, किन्तु, यदि आप घर से पुस्कालय की ओर जाते हैं तो आपके रास्ते में सौ रुकावटें आती हैं । तो जब रुकावटें आ रही हों तो जान लीजिये कि आप का प्रयोजन अच्छा है । वैसे भी हमें सबसे ज्यादा भयाक्रांत करती है 'प्रतिभा' । हमें हमेशा से 'प्रतिभा' से डर लगता है । हम चाहते हैं कि लोग यूं ही रहें बस । तो चलिये उन सब 'बड़ों' को और उन सब 'अपनों' को प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं । प्रणाम इसलिये कि वो हैं तो हम हैं ।
( आदरणीय विजय बहादुर जी की सीहोर यात्रा )
तो जैसा कि बताया जा चुका है कि ब्लाग को पांच साल होने वाले हैं । पांच साल होने वाले हैं तो धमाल तो बनता ही है । अब ये धमाल कैसा हो ये आगे देखा जायेगा । मगर ये तो तय है कि पांच साल पूरे होने पर जो तरही मुशायरा होना है वो धमाल और कमाल का होना ही है । तरही मुशायरा जो कि अगस्त में होना है इसका मतलब ये कि वो दो साल बाद फिर से बरसात के मौसम पर केन्द्रित होगा । हमने 2010 में 'फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं' के माध्यम से पूरे दो तीन माह तक बरसात का आनंद उठाया था । 2011 में हमने बरसात के स्थान पर 'और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी' के द्वारा ग्रीष्म का आनंद लिया था । इस बार फिर से बरसात को ही विषय बना कर हम पांच साला जश्न को मनाएंगे । और हां इस बीच कोशिश ये की जायेगी कि उधर ग़ज़ल का सफर नाम से जो प्रयास हमने शुरू किया था उसको भी फिर से गति प्रदान की जाये । उस ब्लाग का स्वरूप बदलने के लिये कुछ किया जायेगा । फिर से उसे 'नई खुश्बू नये रंग' के साथ रीलांच किया जायेगा । सुबीर संवाद सेवा को भी पांच साल हो रहे हैं तो पांच साला जश्न में यहां भी कुछ नया अवश्य किया जायेगा ।
हम्मम तो अंकित का ये कहना था कि ऊंघती हुई मंडली का जगाया जाये । तो ये जगाने का काम कैसे किया जाये । फिर धर्मेंद्र कुमार सज्जन का सुझाव कि इस बार की तरही इस नये जोड़े ( अर्श और माला ) को समर्पित की जाये । अश्विनी रमेश जी ने कहा कि अगला मुशायरा रोमानियत के रंग में सराबोर होना चाहिये । तो सब बातों पर विचार करने पर ये लगा कि अब तक हमने ऋतुओं पर, पर्वों पर, त्यौहारों पर तो खूब मुशायरे किये लेकिन अभी तक हमने कोई भी मुशायरा प्रेम को समर्पित नहीं किया । प्रेम, जो काव्य की आत्मा होता है । फिर ये कि अर्श और माला भी तो प्रेम पथ पर अपने जीवन की नयी यात्रा का आरंभ करने जा रहे हैं या कर चुके हैं । तो क्यों न एक मुशायरा प्रेम को ही समर्पित हो जाये । अब उसके पीछे भी एक और खास कारण है । कारण ये कि मेरे स्वयं कि जीवन में भी मई और जून तथा प्रेम का विशेष महत्व है । क्या है वो आगे बताया जा रहा है ।
वे स्कूल के दिन थे । अप्रैल में परीक्षाएं खत्म हो जाती थीं और मई में लग जाती थीं छ़ुट्टियां । तब आज की तरह नहीं था कि गर्मी में भी कोचिंग वगैरह करना है । छुट्टी का मतलब छुट्टी । और हर गर्मी की छुट्टी में मुझे प्रेम हो जाता था । उसे किशोरावस्था का भावुक आकर्षण ही कह सकते हैं शायद, बजाय प्रेम कहने के । बहरहाल वो जो भी हो, वो हो जाता था । और हर वर्ष मई में किसी नियम की तरह होता था । उम्र शायद 14 से 18 के बीच रहती होगी उन सालों में । और जब प्रेम हो जाता था तो मैं तथाकथित शायर भी हो जाता था । हर साल की एक डायरी बनती थी जो तुकबंदी टाइप की ग़ज़लों से भरा जाती थी । कविता नहीं लिखता था, लिखता तो उस समय भी ग़ज़लें ही था । शुरू की एक डायरी परिवार वालों के प्रकोप के कारण जुलाई आते ही अग्नि देवता को समर्पित हुई । मगर बाद की डायरियां अभी भी सुरक्षित हैं । न कोई बहर का दबाव न कोई कहन का झंझट । लिखे जाओ, लिखे जाओ । दर्द में डूबी हुई शायरी । प्रेम में भीगी हुई शायरी । दर्द और प्रेम उस पर्टिकुलर दिन पर निर्भर करता था कि वो दिन कैसा बीता । क्योंकि हर रात को एक ग़ज़ल लिखी (कही) ही जाती थी । जुलाई आती, स्कूल खुलते और जीवन में एक डायरी तथा एक प्रेम बढ़ जाता । ये सब कॉलेज तक भी चलता रहा । फिर धीरे धीरे ग़ज़लों में कहन बढ़ती गई और जीवन से प्रेम घटता गया । तो उस प्रेम को हम एक वार्षिक आयोजन कह सकते हैं । किन्तु उस समय का किशोर मन तो उसे प्रेम ही मानता था । सोचिये उस किशोर की हालत जो टेलीफोन, मोबाइल, इंटरनेट, कम्प्यूटर, मोटरसाइकिल से रहित समय में ( तब मेरे क़स्बे में केवल दो फोन थे एक पुलिस थाने में दूसरा पोस्ट ऑफिस में, पूरे कस्बे में केवल चार या पांच मोटर साइकिल और केवल एक फिएट कार थी ।) हर वर्ष पूरे नियम से प्रेम करता था । खैर नियति अपने खेल खेलती है । तब किसको पता था कि प्रेम के माध्यम से जो डायरियां भरा रहीं हैं वो भविष्य की किस रूप रेखा को तय कर रही हैं । वे ग़ज़लें भले ही ग़ज़लें न हों लेकिन वो आज भी मन को बहुत प्रिय हैं । दो चार महीनों में उनको टटोल लेता हूं । समय का वो हिस्सा आज भी मेरी कहानियों में ग़जल़ों में धड़कता है ।
तो आइये उन्हीं दिनों की याद में, हो जाये एक प्रेमिल मुशायरा । प्रेम के फेनिल झाग से भरा हुआ आयोजन । आयोजन नव युगल के नाम । आयोजन अर्श और माला के नाम । बहुत दिनों बाद किसी युगल का नाम एक दूसरे का पूरक होते देखा है, प्रकाश+माला= प्रकाशमाला । तो ये जो तरही मुशायरा बरसात में होने वाले मुशयरे के पहले 20-20 की तरह होने वाला है इसमें स्थायी भाव 'प्रेम' है । शेर जो भी कहें उसमें प्रेम होना चाहिये । इस बार घृणा, नफरत, यथार्थवाद, आदि आदि के लिये कोई स्थान नहीं है । बस प्रेम केवल प्रेम । हमें नव युगल को अपनी शुभकामनाएं देनी हैं सो शुभकामनाओं के लिये प्रेम से बेहतर कुछ नहीं होता ।
अब ये सोचा कि फिर ये मिसरा क्या हो । तो ध्यान में आया कि अर्श अभी बैरंग अकेले ही वापस दिल्ली लौटे हैं । माला को दो माह बाद दिल्ली में आना है । दो माह बाद माला के दिल्ली आगमन पर अर्श की भावनाएं जिस मिसरे से व्यक्त हो जाएं वो मिसरा कुछ ऐसा होगा
प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
अब इस मिसरे को खोल कर देखा जाये तो ये सीधे सीधे 212-212-212-212 के वज़्न पर है । लिखने में आसान, गाने में सुरीली बहर । जिसमें रदीफ है 'हैं प्रिये' और काफिया है 'ई' । मेरे विचार में तो ये आसान है । इसमें प्रीत और प्रिये का प्रयोग जान बूझ कर किया है । ये परिमल काव्य के वे शब्द हैं जो अब विलुप्त होते जा रहे हैं । किन्तु, ये ही वो शब्द हैं जो प्रेम की भारहीनता में बिना कोई अतिरिक्त वजन बढ़ाये शामिल हो जाते हैं ।
तो आइये हम सब लोग जो नहीं पहुंच पाये पटना, इस आयोजन में माध्यम से अर्श और माला को शुभकामनाएं दें । मई के अंतिम अथवा जून के प्रथम सप्ताह में ये मुशायरा प्रारंभ होना है । छोटा मिसरा सरल रदीफ काफिया, मेरे विचार में इतना समय काफी है एक ग़ज़ल कहने के लिये । तो हो जाये प्रेम ............ ।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय, राजा परजा जेहि रुचे सीस देई ले जाय