गुरुवार, 24 मई 2012

प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं प्रिये, अभी तक जो ग़ज़लें मिली हैं वे बहुत सुंदर हैं जिससे पता चलता है कि प्रेम आज भी काव्‍य का मूल तत्‍व है ।

इस बार का पूरा तरही मुशायरा प्रेम पर केन्द्रित है । और उसके ही लिये इस बार का मिसरा प्रेम की चाश्‍ानी में पगा हुआ दिया गया है । हालांकि इस बार भी एकवचन तथा बहुवचन को लेकर कई मेल प्राप्‍त हुए हैं । सो बात वही है  कि यदि आप एकवचन में लिखना चाहें तो लिख सकते हैं । जिस में आप अपने आप को सहज मेहसूस करें । हालांकि एकवचन में लिखने में बस एक दिक्‍कत है कि उसमें मिसरा ए तरह पर गिरह नहीं लग पायेगी । क्‍योंकि मिसरा ए तरह में अल्‍पनाएं हैं जो कि बहुवचन के रूप में लिया गया है । मगर यदि आप एकवचन में लिखते हैं तो फिर ये भी आपको ही करना है कि आप अब इस मिसरे को किस प्रकार से सजाते हैं कि ये एकवचन में प्रयुक्‍त हो जाये ।

प्रेम का हमारे जीवन में स्‍थान कितना रूखा हो गया है कि हम प्रेम की कोमलता समझ नहीं पा रहे हैं । जैसे इस बार के मिसरे को लेकर एक मेल मिली कि 'इस बार के मिसरे में प्रिये शब्‍द भर्ती का है ' । पहले तो बहुत गुस्‍सा आया । गुस्‍सा इस बात पर कि प्रेम में प्रिय भर्ती का कब से होने लगा । फिर लगा कि ये आज का प्रेम है जिसमें संबोधनों के सौंदर्य से प्रेम परिचित ही नहीं है । इस मिसरे में सबसे सुदंर शब्‍द 'प्रिये' है । परिमल काव्‍य में संबोधन की कोमलता छंद में शहद भर देती है । लेकिन अब तो परिमल काव्‍य बीते जमाने की बात हो गये । तो बात चल रही थी संबोधन की । इस बार मिसरा किसी को संबोधित मिसरा है । यदि उसमें से प्रिये को हटा दें तो फिर वो सार्वजनिक हो जायेगा । और जो सार्वजनिक होता है वो और कुछ भी होता रहे पर प्रेम तो नहीं होता । प्रेम नितांत व्‍यक्तिगत मामला होता है । यदि हम इस मिसरे में से प्रिये शब्‍द को हटा दें तो मिसरा हो जायेगा 'प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं' बात यकीनन पूरी हो रही है । मिसरे का कहने का उद्देश्‍य ये बताना था कि यहां पर प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हुई हैं । लेकिन फिलहाल ये मिसरा केवल सूचनाप्रद मिसरा है । अर्थात ये केवल एक सूचना है, समाचार है, खबर है । अभी ये कविता नहीं है । कविता बनाने के लिये इसमें प्रिये शब्‍द जोड़ना होगा । प्रिये शब्‍द इसे कविता बना देगा । बात वही है कि हर खबर के पीछे एक कहानी होती है लेकिन खबर और कहानी में अंतर होता है । एक और बात ये कि इस बार का मिसरा कोमलकांत मिसरा है, इसे जब ग़ज़ल में गूंथा जायेगा तो कोमलकांत मिसरों के साथ ही गूंथा जायेगा । मोगरे की वेणी में गेंदा नहीं गूंथा जाता क्‍योंकि दोनों की प्रवृत्तियां भिन्‍न हैं । तो इस बार मिसरे में रेशम की डोर लेकर गिरह बांधनी होंगीं । ये प्रेम का मामला है ।

तो फिलहाल के लिये बात ये कि यदि आप 'सजी हैं' के स्‍थान पर 'सजी है' करना चाहें तो उसके लिये आप स्‍वतंत्र हैं लेकिन मिसरा ए तरह को आप किस प्रकार गूंथते हैं ये देखने वाली बात होगी । जल्‍दी करें क्‍योंकि जून के प्रथम सप्‍ताह से मुशायरा शुरू करना है ।

और एक जानकारी

aasan arooz

बहुत दिनों से इस प्रयास में था कि हिंदी में ग़ज़ल कह रहे ग़ज़लकारों के लिये देवनागरी में ही एक ऐसी पुस्‍तक हो जिसमें ग़ज़ल से संबंधित सम्‍पूर्ण तकनीकी जानकारी उपलब्‍ध हो । उर्दू में तो इस प्रकार की कई पुस्‍तकें हैं लेकिन हिंदी में कोई सम्‍पूर्ण पुस्‍तक नहीं है । इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया हिंदी और उर्दू के साथ साथ ग़ज़ल पर समान अधिकार रखने वाले शायर डॉ आज़म ने । पुस्‍तक पर वे पिछले दो सालों से काम कर रहे थे । और होते होते ये पुस्‍तक अब एक मोटे ग्रंथ की शक्‍ल ले चुकी है । आसान अरूज़ के नाम से प्रकाशित ये पुस्‍तक हिंदी में ग़ज़ल कहने वालों के लिये एक मुकम्‍मल ग्रंथ है । जिसमें लगभग सारे  प्रश्‍नों के उत्‍तर मिल जाएंगे और वो भी आसान तरीके से । पुस्‍तक का प्रारंभ में सीमित संस्‍करण छापा जा रहा है । पुस्‍तक को मिलने वाले प्रतिसाद के बाद और प्रकाशित किया जायेगा ।

पुस्‍तक की जानकारी

नाम - आसान अरूज़ ( ग़ज़ल का छंद विधान तथा तकनीकी जानकारी )

लेखक - डॉ. आज़म ( सुकून, आई-193, पंचवटी कॉलोनी, एयरपोर्ट रोड, भोपाल, 426030, दूरभाष 09827531331)

मूल्‍य - 300 रुपये,  पृष्‍ठ संख्‍या – 196 हार्ड बाउंड, ISBN -978-93-81520-02-4

प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, पीसी लैब, सम्राट कॉम्‍प्‍लैक्‍स बेसमेंट, बस स्‍टैंड के सामने, सीहोर, म.प्र. 466001 दूरभाष 07562405545

शनिवार, 5 मई 2012

ग़ज़ल के गांव में आओ सजाएं फिर महफिल, सुख़नवरों चलो मिल के जमाएं फिर महफिल ।

पहले अंकित सफर का मेल आया कि ग़ज़ल के गांव में कुछ सन्‍नाटा सा क्‍यों है, बकौल दादा ए के हंगल फिल्‍म शोल ' ये इतना सन्‍नाटा क्‍यों है भाई ' । और फिर उसके बाद कल आदरणीय राकेश जी का फोन आया कि क्‍या बात है ब्‍लाग पर ख़मोशी क्‍यों छा रही है । जब देखा तो पाया कि सचमुच ही ग़ज़ल के गांव में ख़मोशी छाई हुई है । ख़मोशी के हालांकि अपने कारण भी हैं, किन्‍तु ख़मोशी तो ख़मोशी होती है । ज्‍़यादा देर तक बनी रहे तो दहशत पैदा करती है । तो लगा कि ख़मोशी को तोड़ना भी ज़ुरूरी है । अब तो पांच साल हो गये हैं इस ग़ज़ल गांव को बसे हुए । अगस्‍त में पूरे पांच साल को हो जायेगा ये सफ़र । इन पांच सालों में बहुत स्‍नेह बहुत प्रेम मिला अपनों से । और उसी नेह ने लड़ने का जूझने का हौसला प्रदान किया । और इसी बीच कुछ कुछ ऐसे अनुभव भी होते रहे कि बरबस डॉ राहत इन्‍दौरी साहब का वो शेर याद आता रहा '' मैं न जुगनू हूं, दिया हूं, न कोई तारा हूं, रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्‍यों हैं'' । पिछले एक बरस से एक बड़े व्‍यक्ति की ओर से भी मुझे इसी प्रकार के अनुभव मिले । वे पूरी योजना के साथ कुछ ऐसा कर रहे हैं जो किसी भी 'बड़े व्‍यक्ति' को शोभा नहीं देता । मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि मैं कोई बहुत बड़ा जानकार नहीं हूं 'इल्‍मे अरूज़' को । जो जानता हूं, जितना जानता हूं बस उतना ही आप सब के साथ शेयर करता रहता हूं ''दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम'' वाली उक्ति को धन के स्‍थान पर ज्ञान के लिये प्रयोग करते हुए । लेकिन मुझे लगता है कि कुछ अपनों को और कुछ 'बड़ों' को इस काम से परेशानी हो रही है । अपने, अपने तरीके से और बड़े, बड़े तरीके से इस परेशानी को व्‍यक्‍त  करते रहते हैं ।  खैर ये तो सब होता ही है । यदि आप कुछ भी निस्‍वार्थ करने निकलते हैं, कुछ भी अच्‍छा करने निकलते हैं तो ये सब तो होता है । यदि आप घर से शराब की दुकान की ओर जा रहे हैं तो आपके रास्‍ते में कोई अड़चन कोई रुकावट नहीं आती, किन्‍तु, यदि आप घर से पुस्‍कालय की ओर जाते हैं तो आपके रास्‍ते में सौ रुकावटें आती हैं । तो जब रुकावटें आ रही हों तो जान लीजिये कि आप का प्रयोजन अच्‍छा है । वैसे भी हमें सबसे ज्‍यादा भयाक्रांत करती है 'प्रतिभा' । हमें हमेशा से 'प्रतिभा' से डर लगता है । हम चाहते हैं कि लोग यूं ही रहें बस । तो चलिये उन सब 'बड़ों' को और उन सब 'अपनों' को प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं । प्रणाम इसलिये कि वो हैं तो हम हैं ।

DSC_8781 ( आदरणीय विजय बहादुर जी की सीहोर यात्रा )

तो जैसा कि बताया जा चुका है कि ब्‍लाग को पांच साल होने वाले हैं । पांच साल होने वाले हैं तो धमाल तो बनता ही है । अब ये धमाल कैसा हो ये आगे देखा जायेगा । मगर ये तो तय है कि पांच साल पूरे होने पर जो तरही मुशायरा होना है वो धमाल और कमाल का होना ही है । तरही मुशायरा जो कि अगस्‍त में होना है इसका मतलब ये कि वो दो साल बाद फिर से बरसात के मौसम पर केन्द्रित होगा । हमने 2010 में 'फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं' के माध्‍यम से पूरे दो तीन माह तक बरसात का आनंद उठाया था । 2011 में हमने बरसात के स्‍थान पर 'और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी' के द्वारा ग्रीष्‍म का आनंद लिया था । इस बार फिर से बरसात को ही विषय बना कर हम पांच साला जश्‍न को मनाएंगे । और हां इस बीच कोशिश ये की जायेगी कि उधर ग़ज़ल का सफर नाम से जो प्रयास हमने शुरू किया था उसको भी फिर से गति प्रदान की जाये । उस ब्‍लाग का स्‍वरूप बदलने के लिये कुछ किया जायेगा । फिर से उसे 'नई खुश्‍बू नये रंग'  के साथ रीलांच किया जायेगा । सुबीर संवाद सेवा को भी पांच साल हो रहे हैं तो पांच साला जश्‍न में यहां भी कुछ नया अवश्‍य किया जायेगा ।

arsh mala हम्‍मम तो अंकित का ये कहना था कि ऊंघती हुई मंडली का जगाया जाये । तो ये जगाने का काम कैसे किया जाये । फिर धर्मेंद्र कुमार सज्‍जन का सुझाव कि इस बार की तरही इस नये जोड़े ( अर्श और माला ) को समर्पित की जाये । अश्विनी रमेश जी ने कहा कि अगला मुशायरा रोमानियत के रंग में सराबोर होना चाहिये । तो  सब बातों पर विचार करने पर ये लगा कि अब तक हमने ऋतुओं पर, पर्वों पर, त्‍यौहारों पर तो खूब मुशायरे किये लेकिन अभी तक हमने कोई भी मुशायरा प्रेम को समर्पित नहीं किया । प्रेम, जो काव्‍य की आत्‍मा होता है । फिर ये कि अर्श और माला भी तो प्रेम पथ पर अपने जीवन की नयी यात्रा का आरंभ करने जा रहे हैं या कर चुके हैं । तो क्‍यों न एक मुशायरा प्रेम को ही समर्पित हो जाये । अब उसके पीछे भी एक और खास कारण है । कारण ये कि मेरे स्‍वयं कि जीवन में भी मई और जून तथा प्रेम का विशेष महत्‍व है । क्‍या है वो आगे बताया जा रहा है ।

bullet वे स्‍कूल के दिन थे । अप्रैल में परीक्षाएं खत्‍म हो जाती थीं और मई में लग जाती थीं छ़ुट्टियां । तब आज की तरह नहीं था कि गर्मी में भी कोचिंग वगैरह करना है । छुट्टी का मतलब छुट्टी । और हर गर्मी की छुट्टी में मुझे प्रेम हो जाता था । उसे किशोरावस्‍था का भावुक आकर्षण ही कह सकते हैं शायद, बजाय प्रेम कहने के । बहरहाल वो जो भी हो, वो हो जाता था । और हर वर्ष मई में किसी नियम की तरह होता था । उम्र शायद 14 से 18 के बीच रहती होगी उन सालों में । और जब प्रेम हो जाता था तो मैं तथाकथित शायर भी हो जाता था । हर साल की एक डायरी बनती थी जो तुकबंदी टाइप की ग़ज़लों से भरा जाती थी । कविता नहीं लिखता था, लिखता तो उस समय भी ग़ज़लें ही था । शुरू की एक डायरी परिवार वालों के प्रकोप के कारण जुलाई आते ही अग्नि देवता को समर्पित हुई । मगर बाद की डायरियां अभी भी सुरक्षित हैं । न कोई बहर का दबाव न कोई कहन का झंझट । लिखे जाओ, लिखे जाओ । दर्द में डूबी हुई शायरी । प्रेम में भीगी हुई शायरी । दर्द और प्रेम उस पर्टिकुलर दिन पर निर्भर करता था कि वो दिन कैसा बीता । क्‍योंकि हर रात को एक ग़ज़ल लिखी (कही) ही जाती थी । जुलाई आती, स्‍कूल खुलते और जीवन में एक डायरी तथा एक प्रेम बढ़ जाता । ये सब कॉलेज तक भी चलता रहा । फिर धीरे धीरे ग़ज़लों में कहन बढ़ती गई और जीवन से प्रेम घटता गया । तो उस प्रेम को हम एक वार्षिक आयोजन कह सकते हैं । किन्‍तु उस समय का किशोर मन तो उसे प्रेम ही मानता था । सोचिये उस किशोर की हालत जो टेलीफोन, मोबाइल, इंटरनेट, कम्‍प्‍यूटर, मोटरसाइकिल से रहित समय में ( तब मेरे क़स्‍बे में केवल दो फोन थे एक पुलिस थाने में दूसरा पोस्‍ट ऑफिस में, पूरे कस्‍बे में केवल चार या पांच मोटर साइकिल और केवल एक फिएट कार थी ।) हर वर्ष पूरे नियम से प्रेम करता था । खैर नियति अपने खेल खेलती है । तब किसको पता था कि प्रेम के माध्‍यम से जो डायरियां भरा रहीं हैं वो भविष्‍य की किस रूप रेखा को तय कर रही हैं । वे ग़ज़लें भले ही ग़ज़लें न हों लेकिन वो आज भी मन को बहुत प्रिय हैं । दो चार महीनों में उनको टटोल लेता हूं । समय का वो हिस्‍सा आज भी मेरी कहानियों में ग़जल़ों में धड़कता है ।

congo तो आइये उन्‍हीं दिनों की याद में, हो जाये एक प्रेमिल मुशायरा । प्रेम के फेनिल झाग से भरा हुआ आयोजन । आयोजन नव युगल के नाम । आयोजन अर्श और माला के नाम । बहुत दिनों बाद किसी युगल का नाम एक दूसरे का पूरक होते देखा है, प्रकाश+माला= प्रकाशमाला । तो ये जो तरही मुशायरा बरसात में होने वाले मुशयरे के पहले 20-20 की तरह होने वाला है इसमें स्‍थायी भाव 'प्रेम' है । शेर जो भी कहें उसमें प्रेम होना चाहिये । इस बार घृणा, नफरत, यथार्थवाद, आद‍ि आदि के लिये कोई स्‍थान नहीं है । बस प्रेम केवल प्रेम । हमें नव युगल को अपनी शुभकामनाएं देनी हैं सो शुभकामनाओं के लिये प्रेम से बेहतर कुछ नहीं होता ।

arsh mala 2 अब ये सोचा कि फिर ये मिसरा क्‍या हो । तो ध्‍यान में आया कि अर्श अभी बैरंग अकेले ही वापस दिल्‍ली लौटे हैं । माला को दो माह बाद दिल्‍ली में आना है । दो माह बाद माला के दिल्‍ली आगमन पर अर्श की भावनाएं जिस मिसरे से व्‍यक्‍त हो जाएं वो मिसरा कुछ ऐसा होगा

प्रीत की अल्‍पनाएं सजी हैं प्रिये  

अब इस मिसरे को खोल कर देखा जाये तो ये सीधे सीधे 212-212-212-212 के वज्‍़न पर है । लिखने में आसान, गाने में सुरीली बहर । जिसमें रदीफ है 'हैं प्रिये'  और काफिया है 'ई' । मेरे विचार में तो ये आसान है । इसमें प्रीत और प्रिये का प्रयोग जान बूझ कर किया है । ये परिमल काव्‍य के वे शब्‍द हैं जो अब विलुप्‍त होते जा रहे हैं । किन्‍तु, ये ही वो शब्‍द हैं जो प्रेम की भारहीनता में बिना कोई अतिरिक्‍त वजन बढ़ाये शामिल हो जाते हैं ।

तो आइये हम सब लोग जो नहीं पहुंच पाये पटना, इस आयोजन में माध्‍यम से अर्श और माला को शुभकामनाएं दें । मई के अंतिम अथवा जून के प्रथम सप्‍ताह में ये मुशायरा प्रारंभ होना है । छोटा मिसरा सरल रदीफ काफिया, मेरे विचार में इतना समय काफी है एक ग़ज़ल कहने के लिये । तो हो जाये प्रेम ............ ।

313754_246969935352871_100001196002719_649486_482754285_nप्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय, राजा परजा जेहि रुचे सीस देई ले जाय

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