मित्रों चूँकि त्यौहार के बाद उसके मनाए जाने की एक सीमा होती है। और उसके बाद हमें अपने अपने कार्यों पर लौटना ही होता है। इसीलिए आज हम ईद के मुशायरे का समापन कर रहे हैं। हालांकि अपेक्षाकृत रूप से कम ग़ज़लें आईं इस बार लेकिन उसके पीछे मेरे विचार में बहर का मुश्किल होना और रदीफ काफिये के कॉमिब्नेशन का भी कुछ उलझन भरा होना एक कारण है। लेकिन एक बात तो है कि जो ग़ज़लें आईं वो बहुत अच्छी आईं। बहुत ही अच्छे प्रयोग शायरों ने किये। और एक अच्छी बात ये भी हुई है कि ईद मुबारक को लेकर सबके पास अच्छी ग़ज़लें भी हो गईं हैं। ईद के मुबारक मौके पर यदि आपको किसी मुशायरे में शिरकत करने जाना हो तो ये खूबसूरत ग़ज़ल आपके काम आएगी।
आइये आज हम ईद के मुशायरे का समापन करते हैं चार रचनाकारों के साथ शेख चिल्ली जी, बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी, महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ जी और राकेश खंडेलवाल जी की रचनाओं के साथ हम ईद की दुआओं में विश्व शांति की कामना करते हैं।
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक
शेख़ चिल्ली
सावन की झड़ी लायी ख़बर ईद मुबारक़
हो काश दुआओं में असर, ईद मुबारक
सलफास निगल कर भी वो बोला, मेरे बच्चों
रखना मेरे खेतों पे नज़र, ईद मुबारक़
मायूस खड़े काकभगोड़े ने बताया
कह कर था गया मुझ से बशर "ईद मुबारक़"
सुनकर ये टपकती हुई छत फूट के रोई,
चलता हूँ मैं लम्बा है सफ़र, ईद मुबारक़
क्रिसमस न, दीवाली न तो होली न गुरुपर्व
मज़दूर की किस्मत में किधर ईद मुबारक़
सरकार की नीयत पे लगे दाग धुलेंगे
हो जाय किसानों की अगर ईद मुबारक़
बक़वास है, सौ फ़ीसदी झूटी ये ख़बर है
कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक?
मतले में सकारात्मक नोट के साथ शुरू होकर पूरी ग़ज़ल व्यथा की कहानी कहती हुई एक लगभग मुसलसल ग़ज़ल है। जिसमें किसान और मजदूर की कहानी को आँसुओं से लिखा गया है। पहला ही शेर कलेजे को चीर कर उतर गया। मेरे जिले में पिछले पन्द्रह दिनों में बीस के लगभग किसान आत्म हत्या कर चुके हैं। और मिसरा सानी जैसा हूबहू एक वाकया हुआ भी है। एक किसान ने सल्फास खाकर अपने बच्चों से यही कहा था। उफ़्फ। और उसके बाद काकभगोड़े का दृश्य भी उसी कहानी को आगे बढ़ाता है। घर की टूटी हुई छत अपने मालिक को लम्बे सफ़र पर जाते हुए देख कर रो रही है बहुत ही मार्मिक दृश्य बन पड़ा है। अकाल में उत्सव लिखने वाले लेखक के लिए यह दृश्य कैसा होगा आप समझ सकते हैं। और यह भी सच है कि मजदूर के किस्मत में कोई त्यौहार नहीं होता। आखिरी शेर में जिस अंदाज़ में गिरह लगाई है वो अंदाज़ सबसे हट के है। सच में जो सबसे हट कर करे वो ही तो देर तक याद रहता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक,
खुशियों का ये दे सबको असर ईद मुबारक।
घुल आज फ़िज़ा में हैं गये रंग नये से,
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।
पाँवों से ले सर तक है धवल आज नज़ारा,
दे कर के दुआ कहता है हर ईद मुबारक।
सब भेद भुला ईद गले लग के मनायें,
ये पर्व रहे जग में अमर ईद मुबारक।
ये ईद है त्योहार मिलापों का अनोखा,
दूँ सब को 'नमन' आज मैं कर ईद मुबारक।
बासुदेव जी ने ईद की पारंपरिक ग़ज़ल बहुत सलीक़े के साथ कही है। पाँवों से से ले सर तक है धवल आज नज़ारा में मानों ईदगाह का दृश्य ही सामने आ गया है जहाँ श्वेत परिधान पहने रोज़ेदार रमज़ान के समापन पर नमाज़ अदा कर रहे हैं। कितनी शांति होती है इस दृश्य में। श्वेत रंग वैसे भी शांति का प्रतीक है उसमें एक प्रकार की शीतलता होती है। सब भेद भुला कर ईद मनाने की बात और ईद के त्यौहार को अमर करने की बात बहुत अच्छे ढंग से कही गई है। मकते का शेर भी अच्छा बना है सच में ये त्यौहार मिलने मिलाने का ही तो त्यौहार है। इसमें बस एक ही काम करना चाहिए कि खूब मिलना मिलाना चाहिए। सबसे हँस कर मिलना ही तो ईद है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात वाह वाह वाह।
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक
है झूम उठा सारा शहर, ईद मुबारक
दो दोस्तियों का सदा पैग़ाम सभी को
मन में न रहे आज ज़हर, ईद मुबारक
दिल खोल के बाँटें सिवैयाँ, शौक अजब है
उल्फ़त की उठी दिल में लहर, ईद मुबारक
आया है हसीं वक़्त मेरे दोस्त ज़रा सुन
कुछ देर अभी और ठहर, ईद मुबारक
रंगीन नज़ारों में ख़लिश रब न भुलाना
कर लो जो इबादत दो पहर, ईद मुबारक.
खलिश जी ने छोटी लेकिन सुंदर ग़ज़ल कही है। दिल खोल के बाँटे सिवैयाँ शौक अजब है में उल्फत की दिल में उठी लहर की बात ही अलग है। सच में ये त्यौहार यही तो बताता है कि मेहमान को घर में बुला कर उसकी खातिर करो। उसका आपके घर आना आपकी बरकत में इज़ाफा होना ही है। कहते हैं खुदा आपसे खुश होता है तो आपके घर मेहमान भेजता है। और अगले शेर में प्रेम की भावना का वही चिरंतन भाव कि अभी न जाओ छोड़ कर। प्रेम में सबसे ज्यादा एक ही बात कही जाती है कुछ देर और ठहर जाओ। यही तो प्रेम है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
राकेश खंडेलवाल
रह रह के हुलसता है जिगर ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक
विस्फोट ही विस्फोट हैं हर सिम्त जहां में
रब की नसीहतों के सफे जाने कहाँ है
इस्लाम का ले नाम उठाते है जलजला
चाहे है हर एक गांव में बन जाए कर्बला
कोशिश है कि रमजान में घोल आ मोहर्रम
अब और मलाला नहीं सह पाएगी सितम
आज़िज़ हो नफ़रतों से ये कहने लगा है दिल
अब और न घुल पाये ज़हर ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक
अल कायदा को आज सिखाना है कायदा
हम्मास में यदि हम नहीं तो क्या है फायदा
कश्मीर में गूंजे चलो अब मीर की गज़लें
बोको-हरम का अब कोइ भी नाम तक न ले
काबुल हो या बगदाद हो या मानचेस्टर
पेरिस मे न हो खौफ़ की ज़द मे कोइ बशर
उतरे फलक से इश्क़ में डूबी जो आ बहे
आबे हयात की हो नहर, ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक
राकेश जी हमेशा नए प्रयोगो के साथ मुशायरे में आते हैं इस बार भी उन्होंने नए प्रयोग किये हैं। पहला बंद गीत का उन लोगों को कठघरे में खड़ा करता है जो धर्म की आड़ में हिंसा के बीज बो रहे हैं और अपने कृत्यों से धर्म को बदनाम कर रहे हैं। हर गाँव में कर्बला बनाना चाहते हैं। तभी तो रचनाकार कहता है कि नफ़रतों से आज़िज़ आ चुकी है अब दुनिया। दूसरा बंद पहले बंदी की नकारात्मकता का हल तलाशता हुआ आता है। कश्मीर से लेकर काबुल और बगदाद हर जगह पर रचनाकार चाहता है कि फलक से उतर कर आई आबे हयात की नहर सारी दुनिया में बहे और सारी नफरतें उस नहर के प्रेम भरे पानी में बह जाएँ। सारी दुनिया खुशरंग हो जाए। बहुत ही सुंदर गीत क्या बात है वाह वाह वाह।
तो मित्रों आप सब को ईद मुबारक। आज की चारों रचनाओं पर खुलकर दाद दीजिए। वैसे तो मुशायरे का अधिकारिक समापन हो चुका है लेकिन भभभड़ कवि का क्य है वो तो कभी भी आ सकते हैं। तब तक जय हो।