शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आप सभी को दीपावली के इस पावन पर्व पर बहुत बहुत मंगल कामनाएँ। दीपावली का यह पावन पर्व आपके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लाए। पिछले कुछ समय से सारा विश्व जिस समस्या से जूझ रहा है, उससे अब मुक्ति मिले, सब स्वस्थ रहें, आनंद से रहें। एक बार फिर से जीवन पटरी पर आकर दौड़ने लगे। इस महामारी से जो सबक़ हमने सीखे हैं, वो सारे सबक़ हमें याद रहें। पर्यावरण को बचाने के लिए हम सब मिल कर प्रयास करें। आइये इस दीपावली को उन लोगों की याद में मनाएँ, जो पिछले दिनों हमसे बिछड़ गए।
उजालों के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक आइये आज दीपावली के पावन पर्व पर तरही मुशायरे को इन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के साथ आयोजित करते हैं, सर्वश्री राकेश खण्डेलवाल जी, इस्मत ज़ैदी जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, मन्सूर अली हाशमी जी, सौरभ पाण्डेय जी और डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर।
राकेश खण्डेलवाल उजालों के मुहाफ़िज हैं तिमिर से लड़ रहे दीपकपढ़ा जो वाक्य यह, सुधि के हजारों खुल गए पन्ने
विगत के चित्र नयनों के पटल पर फिर लगे बनने
कुम्हारी चाक पर बनते हुए वे माटिया दीपक
अलावों की तपन पाकर निरंतर तप रहे दीपक
कभी खड़िया से, गेरू से रंगे शोभित हुए दीपक
कतारों में लगे वे सांझ में जलते हुए दीपक
उजालों के मुहाफिज़ थे वे बचपन में जले दीपक बदलते आज के युग में कहीं दीपक नहीं मिलते
हुए जो बंद डिब्बों में महज कुछ कुमकुमे दिखते
नई पीढ़ी हुमक पूछे, अलेक्सा और गूगल से
ये दीपक क्या बला होती, ज़रा समझाओ खुल कर के
मिलेंगे व्हाट्सएप्प पर चित्र कुछ हैप्पी के बाजू से
या होंगे फेसबुक पर ही किसी की पोस्ट आजू से
खिताबों के मुहाफिज़ ही बने हैं आज ये दीपक पड़ौसी की छतों पर जा रखे हमने कभी दीपक
किसी के आंगना में जा जलाये थे कभी दीपक
हुए अब कैद मंदिर में, घरों में कल जले दीपक
यही पूछे बुझी माचिस, कहाँ अब खो गए दीपक
हमारी संस्कृतियों की धरोहर हैं जले दीपक
चलो हम आज मिलकर के जलाएं कुछ नए दीपक
उजालों के मुहाफिज ही रहेंगे जल रहे दीपक राकेश जी के गीत पर कुछ भी लिखने में मेरे पास शब्दों की कमी होने लगती है। राकेश जी जिस प्रकार गीत को शुरूआत देते हैं, उसके बाद मौन के अलावा कुछ और नहीं बचता। इसी गीत में एकदम सुधि के पन्नों का खुलना और विगत के चित्रों का बनना, एकदम से हमें दूसरी दुनिया में ले जाता है। उसके बाद चाक, अलाव, गेरू, खड़िया जैसे शब्द हमें मंत्रमुग्ध किए रहते हैं। पड़ौसी की छत पर या किसी के आँगन में जाकर दीपक जलाने की पंक्तियों से अपना बचपन याद आ गया।सच है कि हमारी संस्कृति की वह धरोहर कहीं खो गई है। मन को अंदर तक नम कर गया यह गीत। वाह, वाह, वाह, शानदार गीत
इस्मत ज़ैदीकहानी रात से जब कालिमा की कह चुके दीपक
तो फिर यकबारगी ख़ामोश हो कर रह गए दीपक
ज़िया से अपनी रौशन कर के लम्बी शाहराहों को
मुसाफ़िर को दिखा कर राह थक कर सो रहे दीपक जो सत्ता आ गई काली अँधेरी रात के हाथों
तो फिर ऐसा हुआ कि एहतेजाजन जल उठे दीपक
पुराने कुछ चराग़ों की जो मद्धिम हो गई है लौ
उन्हीं के साथ मिलकर जल रहे हैं अब नए दीपक सियह शब का हर इक मंज़र सुपुर्द ए सुब्ह कर डाला
फिर उस के बाद ख़ाली हाथ हो कर बुझ गए दीपक
छोटी लेकिन प्रभावशाली ग़ज़ल, इस्मत जी जब भी तरही में आती हैं, तो तरही को एक नई गरिमामय ऊँचाई प्राप्त हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे परंपरा और प्रगतिशीलता का संगम हो गया हो। मतले में ही क्या शानदार प्रयोग किया है दीपकों का ख़ामोश होकर रह जाना, कमाल है। और उसके बाद थक कर सो रहे दीपक अगले शेर में निशब्द ही कर देता है, ग़ज़ब। मगर जो शेर एकदम अंदर तक जाकर बेचैन कर देता है वह है एहतेजाजन दीपकों के जलने का सलीक़े से प्रयोग, क्या तंज़ है। पुराने और नए चराग़ों का साथ मिलकर जलना जैसे हम सब के जीवन की कहानी कह रहा है। और अंतिम शेर तो जैसे हासिले मुशायरा है ख़ाली हाथ होकर दीपकों का बुझ जाना, क्या कमाल का रूपक गढ़ा है। वाह, वाह, वाह, शानदार ग़ज़ल
तिलक राज कपूर
अगर हों याद सीमा पर बुझे रणबाँकुरे दीपक
जला लो द्वार पर अपने तुम उनके नाम के दीपक
तुम्हारी नींद में व्यवधान कोई डाल न पाये
इसी प्रतिबद्धता से सरहदों पर जागते दीपक तुम्हारी आँख का बस इक इशारा बन गया कारण
तुम्हें दिखते नहीं इस आग में बुझते हुए दीपक
समझना चाहते हो तो करो कोशिश, समझ लोगे
नयी क्या सोच लेकर आ रहे हैं ये नये दीपकप्रगति की योजनाओं में किसानों की समझ रखकर
करें कोशिश कि उनके द्वार पर भी जल सके दीपक
दबा लेते हैं हर इक दर्द अपनी मुस्कराहट में
मुखौटे पर मुखौटा धारकर मिलते हैं ये दीपक जिसे देखो वही इच्छाओं के अंधियार में गुम है
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक।"
वाह क्या मतला है एकदम अलग प्रकार से मतले में प्रयोग किया है और उसके साथ मिसरा उला में क़ाफ़िया भी ज़बरदस्त लिया गया है। सच में उनके ही नाम पर दीपक जलाने चाहिए। अगला शेर भी उन्हीं जवानों को समर्पित है। आँख के इशारे से बुझे दीपक में क्या कमाल से और सलीक़े से व्यंग्य किया गया है। नये दीपकों की अगवानी करने का इशारा करता अगला शेर बहुत सुंदर है। किसानों वाला शेर तो एकदम कमाल का है, सच है उनके द्वार पर दीपक जलेंगे तभी दीपावली हो पाएगी। दर्द को मुस्कुराहट में दबाने की बात शेर में बहुत सुंदर होकर उभरी है। और अंतिम शेर में कमाल की गिरह बाँधी गई है। इच्छाओं के अंधियार के तो क्या कहने, एकदम कमाल। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
गिरीश पंकजभले हैं वे बड़े नन्हें मगर डट कर जले दीपक
उजाले के लिए हरदम यहाँ तो मर मिटे दीपक
चलो उठ कर मिटा दो आज सारे ज़ुल्म दुनिया से
यही संदेश हमको-आपको ही बाँटते दीपक
सुना जब भी कहीं पर है अंधेरा रोक न पाए
उसे जड़ से मिटाने के लिए बस चल पड़े दीपक
सबक हमको सिखाते हैं बचाएँ हम भी दुनिया को
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"
अंधेरा है बहुत डरपोक उसकी मौत है निश्चित
मिटाने उसकी हस्ती को जले हैं शान से दीपक
पतंगे मर मिटे उन पर के उनकी लौ ही कुछ ऐसी
बुलाते पास अपने देख उनको मनचले दीपक
हमें हर पल बड़ा ही हौसला पंकज मिला इनसे
हमेशा ही तो खतरों में पले मिट्टी के ये दीपक
मतले के साथ ही दीपकों के हौसले को लिए ग़ज़ल बहुत सुंदर तरीक़े से प्रारंभ होती है। और अगले शेर में दुनिया से ज़ुल्मों को मिटाने के लिए दीपक के प्रतीक का प्रयोग भी बहुत सुंदरता के साथ किया गया है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बन पड़ा है, जिसमें दीपकों के माध्यम से अपने कर्त्तव्य को याद दिलाने की कोशिश की गई है। अँधेरे के डरपोक होने का प्रयोग बहुत सुंदर है, सच में अंधेरा इतना ही तो डरपोक होता है, एक दीपक ही उसे डरा कर भगा देता है। पतंगों के साथ दीपक के प्रेम का चित्रण अगले शेर में बहुत अच्छे से किया गया है। दीपक से हौसला लेने का बिम्ब लिए मक्ते का शेर भी अच्छा बना है। पूरी ग़ज़ल मुसल्सल ग़ज़ल का आनंद दे रही है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
मन्सूर अली हाश्मीइता के दोष से मतले नहीं बन पा रहे दीपक
बिना इसके ही जल लेना दिवाली पर तू ए दीपक
फिज़ाओं तुम घटाओं से करो अठखेलियाँ लेकिन
हवाओं से भी टकरा कर जलेंगे मनचले दीपकअभी तो रात बाक़ी है, अभी तो बात बाक़ी है
दिया भी, तैल भी, बाती भी, फिर क्यों बुझ रहे दीपक
अँधेरी राह को रोशन जो करने को जलाया है
दुआ है आँधियों की ज़द से हर दम वह बचे दीपककोरोना और डेंगू से भी बच कर तो निकल आए
परेशाँ तो अभी भी हैं, अभी भी अधजले दीपक
क़सम तो यह उठाई थी कि कर देंगे वतन रौशन
जलन इतनी बढ़ी देखो कि ख़ुद से भिड़ गए दीपकन घबराओ जो गहरा तम है लौ दिल की जला रक्खो
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"
थमी रफ़्तार जीवन की ग़ज़ब की आपाधापी है
थमा वैक्सीन से कोरोना, लो फिर हँस दिये दीपकबुझाने की कभी कोशिश नहीं की एक दूजे को
यूँ अक्सर लड़ते-भिड़ते हैं तिरे दीपक, मिरे दीपक
चरागाँ भी करे हैं तीरगी के भी ये दुश्मन हैं
भड़क उट्ठे तो सब कुछ ख़ाक कर देते हैं ये दीपकमनाएँगे दिवाली 'हाश्मी' गो दिल है रंजीदा
हमारा दोष क्या है बारहा ये पूछते दीपक
मन्सूर अली हाश्मी जी हर बार हज़ल कहते हैं मगर इस बार ग़ज़ल ही लेकर आए हैं वे। हाँ ये ज़रूर है कि मतले में हज़ल का रंग दिखाई दे रहा है। अगले ही शेर में हवाओं से टकरा कर भी जलते रहने का हौसला है। रात, बात, तैल, बाती सब होने के बाद भी दीपक के बुझने की बात बहुत सुंदर है। गिरह का शेर भी गहरे व्यंग्य का भाव लिए हुए है, जिसको भी कर्णधार बनाते हैं, वही बंटाधार कर देता है। तिरे दीपक, तिरे दीपक वाला शेर तो बहुत सुंदर बना है, हमारी आपसदारी को बहुत सुंदर तरीक़े से व्यक्त कर रहा है। चरागां से लेकर सब कुछ ख़ाक कर देने वाला प्रयोग अच्छा है, दीपक के विस्तार को बताता हुआ। मक्ते में दीवाली मनाने और रंजीदा होने का अच्छा समन्वय है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
सौरभ पाण्डेयदिलासा थरथराते दे रहे जलते हुए दीपक
कभी कमज़ोर मत होना मधुर-मन कह रहे दीपक
दरो-दीवार पर घर-आँगने में साँझ घिरते ही
सजल मनभाव हँसते थे मदिर आँखों लिये दीपक
ज़माना कट गया जड़-मूल से, अपनी ज़मीनों से
सुनो तो बात करते हैं ये मिट्टी के बने दीपक
कई परिवार, कितने घर तरसते हैं जिन्हें लेकर
दिखे बेटे कई कुल-नाम पर कालिख लगे दीपक
भले संसार में शातिर अँधेरे की बढ़ी है धौंस
उजालों के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक.
बहुत कमज़ोर हैं लेकिन सबल मन देखिए इनका
तिमिर का खौफ़ चाहे हो उमीदों से भरे दीपक
निशा की झिलमिलाती ओढ़नी में देख धरती को
हवा चंचल हुई 'सौरभ' लहरते खिल उठे दीपक
मतले में बहुत अच्छे से दीपक से प्राप्त होने वाले हौसले और हिम्मत की बात कह दी है सौरभ जी ने। और अगले ही शेर में उस समय का चित्र खींच दिया है, जब दीपक केवल दीपावली पर ही नहीं जलते थे, बल्कि शाम होते ही हर घर-आँगन में जल उठते थे। बेटे वाले शेर में ग़ज़ब का विरोधाभास जोड़ा है, जो प्रकाश फैलाने वाले कुलदीपक हैं, वही कालिख मले बैठे हैं। गिरह का शेर भी सुंदर बन पड़ा है जिसमें अँधेरे की धौंस के सामने दीपकों के मुहाफ़िज़ होने की बात बहुत ख़ूबसूरती के साथ कही गई है। अगले शेर में उमीदों से भरे दीपक का प्रयोग बहुत अच्छा है। मकते का शेर प्रकृति का चित्र सा खींच रहा है आँखों के सामने, जिसमें रात की ओढ़नी ओढ़ कर बैठी धरती की सुंदरता को देख कर दीपक खिल उठे हैं। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यरअमावस छाँट दो मन की, सभी से कह रहे दीपक
दिलों का तम मिटाने, रोशनी बन जल उठे दीपक
डटे बारिश में, पानी में, वो तूफ़ानों में, आँधी में
लड़े डटकर अँधेरों से, अटल अविचल रहे दीपक
सदी से हम चले आये मनाते पर्व पावन ये
जले सदियों, रहे रौशन सदा उम्मीद के दीपक
अँधेरा हो घना कितना नहीं टिकता उजाले में
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
रहें मिलकर सभी से हम, सभी से भाईचारा हो
सिखाते हैं हमें बँधना, कतारों में सजे दीपक
मतले में अंधेरे और उजाले के बीच के द्वंद्व को बख़ूबी चित्रण किया गया है। अगले ही शेर में हर परिस्थिति में दीपक के संघर्ष की कहानी है, हर समय उसके अविचल रहने की कहानी, शायद यही एक भाव इंसानों को भी दीपकों से सीखने की आवश्यकता है। दीपावली की सदियों पुरानी परंपरा तथा उसके माध्यम से आशा के उम्मीदों के दीपक जलाने की बात बहुत अच्छी है, सच में हम दीपावली के माध्यम से अपने अंदर की उम्मीदों को ही तो प्रकाशित करते हैं। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर है जिसमें दीपकों के माध्यम से अंधेरे को चुनौती प्रदान की गई है। और अंतिम शेर में दीपकों की कतार के प्रतीक द्वारा भाईचारे के बारे में बहुत सुंदरता से इशारा किया गया है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आप सबको दीपावली का यह पर्व बहुत बहुत मुबारक हो। आपके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि रहे, ख़ूब रचनात्मकता बनी रहे। मिलते हैं बासी दीपावली में कुछ और रचनाकारों के साथ तब तक दाद देते रहिए इन रचनाकारों को। शुभ शुभ।