शनिवार, 20 नवंबर 2021

जाड़ों के मौसम पर मुशायरे के लिए मिसरा

दीपावली का मुशायरा बहुत अच्छा रहा, सभी ने जिस प्रकार बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया उससे बहुत उत्साह बढ़ा है। ऐसा लगा जैसे हमारा वही पुराना समय लौट कर आ गया, जब हम इसी प्रकार ब्लॉग पर मिलते थे और इसी प्रकार ग़ज़लें कहते कहाते थे। हम कई बार कहे हैं कि वह समय तो बीत गया, होता असल में यह है कि हम स्वयं ही उस समय से बाहर निकल कर आ जाते हैं और उस समय में फिर लौटने के हमारे पास समय ही नहीं होता है। ऐसा लगता है कि जैसे वह समय किसी दूसरे जीवन की बात हो। लेकिन हम कभी भी उन बातों को अपने जीवन में दोहरा सकते हैं, और उनके साथ एक बार फिर चल सकते हैं। जैसे अभी हमारे दीपावली के मुशायरे में कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम लगभग पन्द्रह साल पूर्व जिस उत्साह के साथ मुशायरे में जुड़ते थे, वैसे ही उत्साह के साथ अब भी जुड़ रहे हैं। हाँ यह बात अलग है कि कुछ लोग जो पहले आते थे, उनकी अनुप​​स्थिति अब महसूस होती है, किन्तु यह भी तो है कि कई नए मुसाफ़िर भी जुड़ गए हैं हमसे, जो नए जु़ड़ रहे हैं, उनमें नएपन का उत्साह है। असल में सफ़र का मतलब ही यही होता है कि कुछ छूटेंगे, कुछ जुड़ेंगे। यह तो रेल यात्रा है, जिसमें हर स्टेशन पर कोई उतर जाता है, कोई चढ़ जाता है। कई तो ऐसे भी साथी हैं, जो सदा के लिए ही हमसे बिछड़ गए, जैसे महावीर जी, प्राण जी। मगर बात वही है कि यह तो सफ़र का स्वभाव ही होता है, यहाँ हर किसी को अपना स्टेशन आने पर उतर ही जाना पड़ता है। मगर सफ़र कभी नहीं रुकता। सफ़र मस्ट गो ऑन।

इस बार इच्छा हुई थी कि हमने चूँकि बरसात पर, गर्मी पर, वसंत सब पर मुशायरा आयोजित किया। दीवाली, ईद, राखी, होली, पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी पर मुशायरा किया, लेकिन जाड़ों के मौसम और क्रिसमस पर कभी आयोजन नहीं किया। तो इस बार सोचा है कि सर्दियों पर मुशायरा किया जाए। सर्दियों के साथ उसमें क्रिसमस पर भी शेर हों, बीतते बरस की बात हो।

तो इस मुशायरे के लिए जो मिसरा सोचा है, वह है

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

122-122-122-122

बह्र हम सब की बहुत जानी पहचानी बह्र है फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन जिस पर बहुत लोकप्रिय गीत है –मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए। और रामचरित मानस में शिव की वंदना –नमामी शमीशान निर्वाण रूपं  । बह्रे मुतक़ारिब मुसमन सालिम। इसमें रदीफ़ नहीं है, मतलब ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल है जिसमें रदीफ़ नहीं है केवल क़ाफ़िया की ही बंदिश है। और क़ाफ़िया है “मौसम”। आप सोच रहे होंगे कि यह तो मुश्किल क़ाफ़िया है। नहीं बिल्कुल नहीं है, इसमें आप 2 के वज़्न का, 22 के वज़्न का और 122 के वज़्न का क़ाफ़िया ले सकते हैं। जैसे दो के वज़्न पर - दम थम ख़म छम ग़म कम हम नम आप ले सकते हैं। 22 के वज़्न पर आप ले सकते हैं-महरम बरहम बे-दम सरगम हम-दम रुस्तम मातम आदम आलम रेशम ताहम दम-ख़म परचम शबनम हमदम। और 122 के वज़्न पर - मोहर्रम मुजस्सम छमा-छम ले सकते हैं आप। इसके अलावा भी कई क़ाफ़िये हैं इसमें।

सोचा यह है कि दिसंबर के दूसरे सप्ताह से यह मुशायरा प्रारंभ किया जाएगा और क्रिसमस तक इसका आयोजन किया जाएगा। तब तक हो सकता है कई ऐसे लोग भी ग़जल़ कह दें, जो पिछले कई मुशायरों से लापता हैं। तो मिलते हैं जाड़ों के मुशायरे में, गुलाबी ग़ज़लों के साथ।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।

दीपावली का यह तरही मुशायरा आज समापन पर है। इस बार जिस प्रकार उत्साह के साथ सभी ने भाग लिया, उसके चलते इस बार यह सोचा है कि हमने सारे अवसरों पर सारी ऋतुओं पर मुशायरा किया है किन्तु जाड़े के मौसम पर कोई मुशायरा नहीं किया, तो इस बार विचार बन रहा है कि ऐसा किया जाए। जल्द ही उसका खुलासा किया जाएगा। मगर इस बार तरही मुशायरा बहुत आनंदमय रहा। ऐसा लगा जैसे ब्लॉगिंग का वही पुराना समय लौट कर आ गया है। सोशल मीडिया के बाक़ी प्लेटफार्म अब ऊब पैदा करने लगे हैं, लगता है ब्लॉगिंग का समय फिर लौटने को है।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।
नीरज गोस्वामी

भला कैसे जलें फ़िक्रो-अदब के, ज्ञान के दीपक
जहाँ भावों का सन्नाटा, वहाँ सारे बुझे दीपक
कभी हम भी ग़ज़ल कहते थे "डाली मोगरे की" में
गवाही दे रही पुस्तक, कभी जलता था ये दीपक

हकीमों से ज़रा पूछो, इलाज इसका कोई ढूँढ़ो
दवा कोई मिले ऐसी, ग़ज़ल का जल उठे दीपक
हमारी लेखनी को रास आया है नहीं जयपुर
खपोली में रहे जब तक सदा जलते रहे दीपक

तसव्वुर की नहीं बाती, न इनमें तेल चिन्तन का
गुज़िश्ता कुछ बरस से यूँ ही बस ख़ाली पड़े दीपक
गिरह का शेर भी हमसे न इस मिसरे पे बन पाया
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"

ग़ज़ल की बात मत करिए कोई भी अब तो "नीरज" से
गज़ल के, नज़्म के, अशआर के सब बुझ गए दीपक
इतनी अच्छी आत्मस्वीकृति और कौन कर सकता है इनके अलावा। पूरी ग़ज़ल एक ही बात पर केन्द्रित है, ग़ज़ल न कह पाने पर। हर शेर ग़ज़ल के बहाने जैसे शायर की ही बात कर रहा है। अब इसे आप चाहें तो हजल भी कह सकते हैं। हालाँकि हजल होने से यह ग़ज़ल अपने आप को बचाए हुए है। एक निराश शायर की आत्मकथा अवश्य कह सकते हैं आप इसको। वह शायर जो इन दिनों शायरी छोड़ कर ग़ज़ल की किताबों की समीक्षा के कार्य में लगा हुआ है। किसी ने कहा है -बहुत ज़्यादा पढ़ना आपके लिखने को प्रभावित करता है, विशेषकर ग़ज़ल के मामले में। क्योंकि आप सोचने लगते हैं कि इतने अच्छे शेर तो कहे जा चुके हैं, अब मैं क्यों लिखूँ। मगर हमें यह सोचना होगा कि जो अच्छा लिखा जा चुका वह हो चुका है, हमें वह लिखना है, जो होने वाला है।
तो नीरज जी की इस ग़ज़ल पर दाद दीजिए। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि एक जाड़े के मौसम पर भी मुशायरा करने का विचार बन रहा है। हम गर्मी पर बरसात पर पहले कर चुके हैं, तो क्यों न जाड़े पर किया जाए मुशायरा, जिसमें क्रिसमस भी शामिल हो, जो हमसे अभी तक छूटा हुआ है। चलिये तो मिलते हैं अगले अंक में।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं

मित्रो इस बार का तरही मुशायरा बहुत सफल रहा है, सभी रचनाकारों ने बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया इसमें। और अभी भी मुशायरा चल ही रहा है। शायद एक दो अंक और भी आएँगे इस मुशायरे के क्योंकि कई लोग अभी भी दौड़ते हुए ट्रेन को पकड़ रहे हैं। अच्छा लगता है यह रचनाधर्मिता का उत्साह देख कर, क्योंकि यह उत्साह ही उस अवसाद से हमको बाहर निकालता है, जिस अवसाद से हम सब पिछले दो साल से जूझ रहे हैं।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं। हमेशा की ही तरह भभ्भड़ कवि की ग़ज़ल दीपावली पर चलाई जाने वाली लड़ की तरह लम्बी है। इस ग़ज़ल के बारे में मैं और तो कुछ नहीं कह सकता बस यह कह सकता हूँ कि अब जैसी भी है आपको यह ग़ज़ल तो झेलनी ही पड़ेगी। तो आइये सुनते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के से उनकी यह ग़ज़ल।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
पिता की आँख के तारे, थे माँ के लाड़ले दीपक
सुना है रात सरहद पर कई फिर बुझ गये दीपक
किसी के लम्स की चिंगारियों से आँच पाई तो
सरापा ख़्वा​हिशों के यक-ब-यक हैं जल उठे दीपक

हमारे देश का राजा, हज़ारों आफ़ताबों सा
किसे तेरी ज़रूरत अब यहाँ, सुन बे अबे दीपक
लरजता जिस्म वो जैसे, नदी का घाट हो कोई
और उस पर हम लबों से रात भर रक्खा किये दीपक

अमावस है घनी, होती रहे, परवाह क्या उसकी
हमारे साथ हैं काजल भरे दो साँवले दीपक
अँधेरा ओढ़ कर बैठे रहो चुपचाप सब यूँ ही
व्यवस्था को पसंद आते नहीं जलते हुए दीपक

बरस बीते कई अब तो किसी का हाथ छूटे पर
अभी तक जल रहे मन में उसी की याद के दीपक
नई दुल्हन की दो रतनार आँखें ये बताती हैं
पिया रँगरेज़ के संग कर रहे हैं रतजगे दीपक

न गांधी हैं, न ईसा अब, मगर उनके विचार अब भी
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"
कहेंगे वस्ल उसको ही, बहुत बेचैन होकर जब   
मिला लें लौ से लौ अपनी, तेरे दीपक, मेरे दीपक

समझना इश्क़ में हो तुम, अगर होने लगे ऐसा
किसी को देखते ही दिल की देहरी पर जले दीपक
दिखा जब से कोई सूरज, हुए सूरजमुखी तब से
उसी के साथ चलते हैं नयन के बावरे दीपक

"सुबीर" इनसे ही क़ायम है भरम दुनिया के होने का
नहीं, शम्स-ओ-क़मर, तारे नहीं, ये सिरफिरे दीपक
तो जैसा मैंने पहले ही कहा था कि आपको इस अठहत्तर किलोमीटर लम्बी ग़ज़ल को झेलना तो पड़ेगा ही। नाक बंद कर इस कड़वे घूँट को पी जाइये। और हाँ अगला अंक शायद समापन का अंक होगा जिसमें नीरज गोस्वामी जी शो स्टॉपर बन कर आएँगे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करने। तो मिलते हैं अगले अंक में।




सोमवार, 8 नवंबर 2021

आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।

 
बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। बासी दीपावली उन मेहमानों के लिए भी मनाई जाती है, जो किसी कारण समय पर नहीं आ पाते हैं और दीपावली के बाद पहुँचते हैं। और यहाँ तो हम उनके लिए भी दीपावली मनाते हैं, जो अपनी रचनाधर्मिता की ऊर्जा से एक से अधिक रचनाएँ भेजते हैं। आदरणीय राकेश जी की रचनाएँ हमारी बासी दीपावली का एक प्रमुख आकर्षण रहती हैं। साथ ही इस बार युवा ग़ज़लकार गुरप्रीत सिंह ने भी दो ग़ज़लें भेजी थीं, एक दीवाली के पूर्व हम सुन चुके हैं दूसरी आज सुनते हैं। और नकुल गौतम ने ट्रेन पकड़ने में देर कर दी इसलिए वे दीपावली के बाद आ रहे हैं। बासी दीपावली का उद्देश्य होता है अपने जीवन में दीपावली को कुछ दिनों तक और बचा कर रखना।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।
 
नकुल गौतम

कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक
किसी ज़िद्दी से आशिक़ की तरह शब भर जले दीपक
मुखालिफ़ हैं बुराई के सभी घर-घर डटे दीपक
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"

है मिट्टी ही मगर गुज़री है कूज़ागर के हाथों से
कोई मूरत हुई तेरी तो कुछ से बन गए दीपक
न अंधेरे में शिद्दत है न परवाने जुनूनी हैं
भला किसके लिये अब इन हवाओं से लड़े दीपक

है दीवाली बहाना शहर से बच्चों के आने का
सजा रक्खे हैं नानी ने कई छोटे-बड़े दीपक
हुई मुद्दत कि शब भर घी पिलाती थी इन्हें अम्मा
लगें बीमार अब झालर की रौनक से दबे दीपक

किसी शाइर के मन में रात-दिन पकते ख़यालों से
किसी को रौशनी देंगे ये भट्ठी में पके दीपक
भरे बाज़ार थे हर सू फिरंगी लालटेनों से
दिलेरी से पुराने चौक पर मुस्तैद थे दीपक

मतला ही बहुत सुंदर तरीक़े से प्रारंभ कर रहा है ग़ज़ल को।उस पर मिसरा सानी तो एकदम कमाल है, विशेष कर किसी ज़िद्दी आशिक़ की तरह शब भर जलने की बात। अगले ही शेर में हुस्ने मतला के रूप में गिरह का शेर भी आ गया है, बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी है। मिट्टी और कूज़ागर के मिलन का शेर बहुत सुंदर बना है, एकदम नए तरीक़े का शेर। और अंधेरे, परवानों तथा हवाओं का शेर तो बीते दिनों की याद दिला देता है। रात भर दीपकों को घी पिलाती अम्मा का बिम्ब तो बचपन के गलियारों में ले गया हाथ पकड़ कर। बहुत सुंदर। और जब हर तरफ़ केवल आयातित झालरों और कंदीलों का उजाला ही मिल रहा हो तो ऐसे में माटी के दीपक सच में पुराने चौक पर ही मिलेंगे। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

 
राकेश खण्डेलवाल जी

कहें श्री कृष्ण गीता में, करोड़ों सूर्य मैं ही हूँ
पराजय का तमस भी मैं, विजय का तूर्य मैं ही हूँ
सृजक हूँ मैं, संहारक मैं, मैं पालक हूँ सकल जग का
बिना इंगित के मेरे तो, कोई पत्ता नहीं हिलता
जनम का भी, मरण का भी अकेला एक कारण हूँ
अकल्पित मैं, अजन्मा मैं, स्वयं अपना उदाहरण हूँ

तमस् मेरी ही परछाई, प्रकाशित एक मैं दीपक
उजालों का मुहाफ़िज़ मैं, तिमिर से जो लड़े दीपक


सुबह की कोई अंगड़ाई, थकावट साँझ की भारी
चषक धन्वन्तरि का मैं, जो बढ़ती, मैं महामारी
मैं कारण भी, अकारण भी, कोई आए कोई जाए
किसी के नयन भीगे हों, सदा ही कोई मुसकाए
रहा हर शोक पल भर ही तो फिर है किसलिए रोना
हुआ कब वक्त है संचित, जो पाता है उसे खोना

हुआ हर पल शुरू मुझसे, खतम होना है मुझ ही पर
उजालों के मुहाफ़िज़ है़ तिमिर से लड़ रहे दीपक


अंधेरा बन घिरा मैं ही, उजाला बन मिटाता हूँ
तिमिर से ज्योति के पथ तक डगर मैं ही सिखाता हूँ
कसौटी सत्य की मैं हूँ, भरम की मैं बनी छाया
कहाँ क्या रूप है मेरा कोई कब जान यह पाता
दिवाली मैं, दशहरा मैं, मैं ही हूँ राम, मैं बाली
मैं ही सम्पूर्ण ज्योतिर्मय, मैं ही हूँ शून्य सा ख़ाली

उजाला पांडवों का मैं, अंधेरा रूप हैं कौरव
उजाले का मुहाफ़िज मैं, निरंतर जो जले, दीपक।
कहीं अगर कोई कह रहा हो कि एक पूरी किताब को एक गीत में ढालना असंभव है, तो उसे यह गीत पढ़वाया जाए कि किसी प्रकार गीता को एक गीत में ढाल दिया है आदरणीय राकेश जी ने।  गीता-गीत, अरे वाह यह तो कमाल का नाम रखा गया है। पहले ही बंद में कृष्ण द्वारा कहा गया सारा दर्शन समा गया है। सृजक, संहारक, पालक से लेकर अंतिम कारण की बात कितने सुंदर तरीक़े से कही गई है। उसके बाद अगले बंद में धन्वन्तकि का चषक और महामारी तक सब कुछ और फिर पाने से लेकर खोने तक का सब कुछ एक ही कारण से होता है। अंतिम बंद तो बहुत सुंदर बना है गीत का, दीवाली से दशहरा और राम से लेकर बाली तक सब कुछ उसी ज्योतिर्मय में समा रहा है। बहुत ही सुंदर गीत, वाह, वाह, वाह।


गुरप्रीत सिंह जम्मू

अंधेरा काटते दीपक, उजाला बांटते दीपक
युगों से धर्म ये अपना निभाते आ रहे दीपक
बुझाना चाहता है जो, उसे भी रौशनी ही दें
न जाने कौन सी मिट्टी के आख़िर हैं बने दीपक

फकत उम्मीद के ही दम पे रौशन हैं कोई जीवन
ख़ुदाया बुझने मत देना किसी की आस के दीपक
तख़ल्लुस उनका 'जैतोई' था, खुद उम्दा गजलगो थे
कि पंजाबी ग़ज़ल के इक बड़े उस्ताद थे 'दीपक'

कई रंगों कई किस्मों की इन में लौ समाई है
कि मैंने देखे हैं 'जम्मू' बड़े ही पास से दीपक
अंधेरा काटते दीपक, उजाला बाँटते दीपक के साथ जो मिसरा सानी आया है मतले में वह कमाल का है, सच में कितने ही युगों से अपना धर्म निभाते आ रहे हैं ये दीपक। अगले ही शेर में एक बड़े ही सुंदर विरोधाभास को विषय बनाया है, कि जो दीपकों को बुझाना चाह रहा है, उसे भी दीपक रौशनी ही दे रहे हैं, यही तो विशेषता होती है दीपकों की। अगले शेर में जो प्रार्थना है, वह सचमुच हम सबके मन की ही कामना है, किसी की आस का दीपक कभी नहीं बुझने पाए यही तो हम सभी चाहते हैं। लेकिन पंजाबी के बड़े शायर दीपक जैतोई जी को जिस प्रकार शेर में पिरो कर अपनी भावांजलि दी है इस  युवा शायर ने, वह एकदम कमाल ही किया है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह ,वाह।
बहुत सुंदर रही है इस बार की बासी दीपावली। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा था कि बासी दीपावली का काम होता है, उत्सव के बाद आए हुए सूनेपन को कम करना, और उत्सव के बाद के अवसाद से हमको बचाना। हर उत्सव के बाद मन एकदम अवसाद में चला जाता है, क्योंकि एकदम से बहुत कुछ होकर समाप्त हो चुका होता है। तीनों रचनाकारों ने दीपावली के दीपकों के प्रकाश को बनाए रखा है। आपका काम है कि दाद देते रहें इन रचनाकारों को। और हाँ अगर सब कुछ ठीक रहा तो भभ्भड़ कवि भौंचक्के आ सकते हैं तरही का समापन करने के लिए। क्योंकि इस बार जिस उत्साह से सभी रचनाकारों ने तरही में हिस्सा लिया उससे भभ्भड़ कवि भौंचक्के का उत्साह भी बढ़ गया है। मिलते हैं भभ्भड़ कवि से अगले अंक में।

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

आइये आज दीपावली के पावन पर्व पर तरही मुशायरे को इन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के साथ आयोजित करते हैं, सर्वश्री राकेश खण्डेलवाल जी, इस्मत ज़ैदी जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, मन्सूर अली हाशमी जी, सौरभ पाण्डेय जी और डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर।

शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आप सभी को दीपावली के इस पावन पर्व पर बहुत बहुत मंगल कामनाएँ। दीपावली का यह पावन पर्व आपके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लाए। पिछले कुछ समय से सारा विश्व जिस समस्या से जूझ रहा है, उससे अब मुक्ति मिले, सब स्वस्थ रहें, आनंद से रहें। एक बार फिर से जीवन पटरी पर आकर दौड़ने लगे। इस महामारी से जो सबक़ हमने सीखे हैं, वो सारे सबक़ हमें याद रहें। पर्यावरण को बचाने के लिए हम सब मिल कर प्रयास करें। आइये इस दीपावली को उन लोगों की याद में मनाएँ, जो पिछले दिनों हमसे बिछड़ गए।
उजालों के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आइये आज दीपावली के पावन पर्व पर तरही मुशायरे को इन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के साथ आयोजित करते हैं, सर्वश्री राकेश खण्डेलवाल जी, इस्मत ज़ैदी जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, मन्सूर अली हाशमी जी, सौरभ पाण्डेय जी और डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर।
राकेश खण्डेलवाल

उजालों के मुहाफ़िज हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक

पढ़ा जो वाक्य यह, सुधि के हजारों खुल गए पन्ने
विगत के चित्र नयनों के पटल पर फिर लगे बनने
कुम्हारी चाक पर बनते हुए वे माटिया दीपक
अलावों की तपन पाकर निरंतर तप रहे दीपक
कभी खड़िया से, गेरू से रंगे शोभित हुए दीपक
कतारों में लगे वे सांझ में जलते हुए दीपक

उजालों के मुहाफिज़ थे वे बचपन में जले दीपक

बदलते आज के युग में कहीं दीपक नहीं मिलते
हुए जो बंद डिब्बों में महज कुछ कुमकुमे दिखते
नई पीढ़ी हुमक पूछे, अलेक्सा और गूगल से
ये दीपक क्या बला होती, ज़रा समझाओ खुल कर के
मिलेंगे व्हाट्सएप्प पर चित्र कुछ हैप्पी के बाजू से
या होंगे फेसबुक पर ही किसी की पोस्ट आजू से

खिताबों के मुहाफिज़ ही बने हैं आज ये दीपक

पड़ौसी की छतों पर जा रखे हमने कभी दीपक
किसी के आंगना में जा जलाये थे कभी दीपक
हुए अब कैद मंदिर में, घरों में कल जले दीपक
यही पूछे बुझी माचिस, कहाँ अब खो गए दीपक
हमारी संस्कृतियों की धरोहर हैं जले दीपक
चलो हम आज मिलकर के जलाएं कुछ नए दीपक

उजालों के मुहाफिज ही रहेंगे जल रहे दीपक
 राकेश जी के गीत पर कुछ भी लिखने में मेरे पास शब्दों की कमी होने लगती है। राकेश जी जिस प्रकार गीत को शुरूआत देते हैं, उसके बाद मौन के अलावा कुछ और नहीं बचता। इसी गीत में एकदम सुधि के पन्नों का खुलना और विगत के चित्रों का बनना, एकदम से हमें दूसरी दुनिया में ले जाता है। उसके बाद चाक, अलाव, गेरू, खड़िया जैसे शब्द हमें मंत्रमुग्ध किए रहते हैं। पड़ौसी की छत पर या किसी के आँगन में जाकर दीपक जलाने की पंक्तियों से अपना बचपन याद आ गया।सच है कि हमारी संस्कृति की वह धरोहर कहीं खो गई है। मन को अंदर तक नम कर गया यह गीत। वाह, वाह, वाह, शानदार गीत
 
इस्मत ज़ैदी

कहानी रात से जब कालिमा की कह चुके दीपक
तो फिर यकबारगी ख़ामोश हो कर रह गए दीपक
ज़िया से अपनी रौशन कर के लम्बी शाहराहों को
मुसाफ़िर को दिखा कर राह थक कर सो रहे दीपक

जो सत्ता आ गई काली अँधेरी रात के हाथों
तो फिर ऐसा हुआ कि एहतेजाजन जल उठे दीपक
पुराने कुछ चराग़ों की जो मद्धिम हो गई है लौ
उन्हीं के साथ मिलकर जल रहे हैं अब नए दीपक

सियह शब का हर इक मंज़र सुपुर्द ए सुब्ह कर डाला
फिर उस के बाद ख़ाली हाथ हो कर बुझ गए दीपक

 छोटी लेकिन प्रभावशाली ग़ज़ल, इस्मत जी जब भी तरही में आती हैं, तो तरही को एक नई गरिमामय ऊँचाई प्राप्त हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे परंपरा और प्रगतिशीलता का संगम हो गया हो। मतले में ही क्या शानदार प्रयोग किया है दीपकों का ख़ामोश होकर रह जाना, कमाल है। और उसके बाद थक कर सो रहे दीपक अगले शेर में निशब्द ही कर देता है, ग़ज़ब। मगर जो शेर एकदम अंदर तक जाकर बेचैन कर देता है वह है एहतेजाजन दीपकों के जलने का सलीक़े से प्रयोग, क्या तंज़ है। पुराने और नए चराग़ों का साथ मिलकर जलना जैसे हम सब के जीवन की कहानी कह रहा है। और अंतिम शेर तो जैसे हासिले मुशायरा है ख़ाली हाथ होकर दीपकों का बुझ जाना, क्या कमाल का रूपक गढ़ा है। वाह, वाह, वाह, शानदार ग़ज़ल

 
तिलक राज कपूर 

अगर हों याद सीमा पर बुझे रणबाँकुरे दीपक
जला लो द्वार पर अपने तुम उनके नाम के दीपक
तुम्हारी नींद में व्यवधान कोई डाल न पाये
इसी प्रतिबद्धता से सरहदों पर जागते दीपक

तुम्हारी आँख का बस इक इशारा बन गया कारण
तुम्हें दिखते नहीं इस आग में बुझते हुए दीपक
समझना चाहते हो तो करो कोशिश, समझ लोगे
नयी क्या सोच लेकर आ रहे हैं ये नये दीपक

प्रगति की योजनाओं में किसानों की समझ रखकर
करें कोशिश कि उनके द्वार पर भी जल सके दीपक
दबा लेते हैं हर इक दर्द अपनी मुस्कराहट में
मुखौटे पर मुखौटा धारकर मिलते हैं ये दीपक

जिसे देखो वही इच्छाओं के अंधियार में गुम है
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक।"

वाह क्या मतला है एकदम अलग प्रकार से मतले में प्रयोग किया है और उसके साथ मिसरा उला में क़ाफ़िया भी ज़बरदस्त लिया गया है। सच में उनके ही नाम पर दीपक जलाने चाहिए। अगला शेर भी उन्हीं जवानों को समर्पित है। आँख के इशारे से बुझे दीपक में क्या कमाल से और सलीक़े से व्यंग्य किया गया है। नये दीपकों की अगवानी करने का इशारा करता अगला शेर बहुत सुंदर है। किसानों वाला शेर तो एकदम कमाल का है, सच है उनके द्वार पर दीपक जलेंगे तभी दीपावली हो पाएगी। दर्द को मुस्कुराहट में दबाने की बात शेर में बहुत सुंदर होकर उभरी है। और अंतिम शेर में कमाल की गिरह बाँधी गई है। इच्छाओं के अंधियार के तो क्या कहने, एकदम कमाल। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल। 
 
गिरीश पंकज

भले हैं वे बड़े नन्हें मगर डट कर जले दीपक
उजाले के लिए हरदम यहाँ तो मर मिटे दीपक
चलो उठ कर मिटा दो आज सारे ज़ुल्म दुनिया से
यही संदेश हमको-आपको ही बाँटते दीपक
सुना जब भी कहीं पर है अंधेरा रोक न पाए
उसे जड़ से मिटाने के लिए बस चल पड़े दीपक
सबक हमको सिखाते हैं बचाएँ हम भी दुनिया को
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"
अंधेरा है बहुत डरपोक उसकी मौत है निश्चित
मिटाने उसकी हस्ती को जले हैं शान से दीपक
पतंगे मर मिटे उन पर के उनकी लौ ही कुछ ऐसी
बुलाते पास अपने देख उनको मनचले दीपक
हमें हर पल बड़ा ही हौसला पंकज मिला इनसे
हमेशा ही तो खतरों में पले मिट्टी के ये दीपक
 मतले के साथ ही दीपकों के हौसले को लिए ग़ज़ल बहुत सुंदर तरीक़े से प्रारंभ होती है। और अगले शेर में दुनिया से ज़ुल्मों को मिटाने के लिए दीपक के प्रतीक का प्रयोग भी बहुत सुंदरता के साथ किया गया है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बन पड़ा है, जिसमें दीपकों के माध्यम से अपने कर्त्तव्य को याद दिलाने की कोशिश की गई है।  अँधेरे के डरपोक होने का प्रयोग बहुत सुंदर है, सच में अंधेरा इतना ही तो डरपोक होता है, एक दीपक ही उसे डरा कर भगा देता है। पतंगों के साथ दीपक के प्रेम का चित्रण अगले शेर में बहुत अच्छे से किया गया है। दीपक से हौसला लेने का बिम्ब लिए मक्ते का शेर भी अच्छा बना है। पूरी ग़ज़ल मुसल्सल ग़ज़ल का आनंद दे रही है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।  

मन्सूर अली हाश्मी

इता के दोष से मतले नहीं बन पा रहे दीपक
बिना इसके ही जल लेना दिवाली पर तू ए दीपक
फिज़ाओं तुम घटाओं से करो अठखेलियाँ लेकिन
हवाओं से भी टकरा कर जलेंगे मनचले दीपक

अभी तो रात बाक़ी है, अभी तो बात बाक़ी है
दिया भी, तैल भी, बाती भी, फिर क्यों बुझ रहे दीपक
अँधेरी राह को रोशन जो करने को जलाया है
दुआ है आँधियों की ज़द से हर दम वह बचे दीपक

कोरोना और डेंगू से भी बच कर तो निकल आए
परेशाँ तो अभी भी हैं, अभी भी अधजले दीपक
क़सम तो यह उठाई थी कि कर देंगे वतन रौशन
जलन इतनी बढ़ी देखो कि ख़ुद से भिड़ गए दीपक

न घबराओ जो गहरा तम है लौ दिल की जला रक्खो
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"
थमी रफ़्तार जीवन की ग़ज़ब की आपाधापी है
थमा वैक्सीन से कोरोना, लो फिर हँस दिये दीपक

बुझाने की कभी कोशिश नहीं की एक दूजे को
यूँ अक्सर लड़ते-भिड़ते हैं तिरे दीपक, मिरे दीपक
चरागाँ भी करे हैं तीरगी के भी ये दुश्मन हैं
भड़क उट‍्ठे तो सब कुछ ख़ाक कर देते हैं ये दीपक

मनाएँगे दिवाली 'हाश्मी' गो दिल है रंजीदा
हमारा दोष क्या है बारहा ये पूछते दीपक
 
मन्सूर अली हाश्मी जी हर बार हज़ल कहते हैं मगर इस बार ग़ज़ल ही लेकर आए हैं वे। हाँ ये ज़रूर है कि मतले में हज़ल का रंग दिखाई दे रहा है। अगले ही शेर में हवाओं से टकरा कर भी जलते रहने का हौसला है। रात, बात, तैल, बाती सब होने के बाद भी दीपक के बुझने की बात बहुत सुंदर है। गिरह का शेर भी गहरे व्यंग्य का भाव लिए हुए है, जिसको भी कर्णधार बनाते हैं, वही बंटाधार कर देता है। तिरे दीपक, तिरे दीपक वाला शेर तो बहुत सुंदर बना है, हमारी आपसदारी को बहुत सुंदर तरीक़े से व्यक्त कर रहा है। चरागां से लेकर सब कुछ ख़ाक कर देने वाला प्रयोग अच्छा है, दीपक के विस्तार को बताता हुआ। मक्ते में दीवाली मनाने और रंजीदा होने का अच्छा समन्वय है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
 
सौरभ पाण्डेय

दिलासा थरथराते दे रहे जलते हुए दीपक
कभी कमज़ोर मत होना मधुर-मन कह रहे दीपक
दरो-दीवार पर घर-आँगने में साँझ घिरते ही
सजल मनभाव हँसते थे मदिर आँखों लिये दीपक
ज़माना कट गया जड़-मूल से, अपनी ज़मीनों से
सुनो तो बात करते हैं ये मिट्टी के बने दीपक
कई परिवार, कितने घर तरसते हैं जिन्हें लेकर
दिखे बेटे कई कुल-नाम पर कालिख लगे दीपक
भले संसार में शातिर अँधेरे की बढ़ी है धौंस  
उजालों के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक.
बहुत कमज़ोर हैं लेकिन सबल मन देखिए इनका
तिमिर का खौफ़ चाहे हो उमीदों से भरे दीपक
निशा की झिलमिलाती ओढ़नी में देख धरती को
हवा चंचल हुई 'सौरभ' लहरते खिल उठे दीपक 

मतले में बहुत अच्छे से दीपक से प्राप्त होने वाले हौसले और हिम्मत की बात कह दी है सौरभ जी ने। और अगले ही शेर में उस समय का चित्र खींच दिया है, जब दीपक केवल दीपावली पर ही नहीं जलते थे, बल्कि शाम होते ही हर घर-आँगन में जल उठते थे। बेटे वाले शेर में ग़ज़ब का विरोधाभास जोड़ा है, जो प्रकाश फैलाने वाले कुलदीपक हैं, वही कालिख मले बैठे हैं। गिरह का शेर भी सुंदर बन पड़ा है जिसमें अँधेरे की धौंस के सामने दीपकों के मुहाफ़िज़ होने की बात बहुत ख़ूबसूरती के साथ कही गई है। अगले शेर में उमीदों से भरे दीपक का प्रयोग बहुत अच्छा है। मकते का शेर प्रकृति का चित्र सा खींच रहा है आँखों के सामने, जिसमें रात की ओढ़नी ओढ़ कर बैठी धरती की सुंदरता को देख कर दीपक खिल उठे हैं। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।
 
डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर

अमावस छाँट दो मन की, सभी से कह रहे दीपक
दिलों का तम  मिटाने, रोशनी बन जल उठे दीपक
डटे बारिश में, पानी में, वो तूफ़ानों में, आँधी में
लड़े डटकर अँधेरों से, अटल अविचल रहे दीपक
सदी से हम चले आये मनाते पर्व पावन ये
जले सदियों, रहे रौशन सदा उम्मीद के दीपक  
अँधेरा हो घना कितना नहीं टिकता उजाले  में
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
रहें मिलकर सभी से हम, सभी से भाईचारा हो
सिखाते हैं हमें बँधना, कतारों में सजे दीपक
मतले में अंधेरे और उजाले के बीच के द्वंद्व को बख़ूबी चित्रण किया गया है। अगले ही शेर में हर परिस्थिति में दीपक के संघर्ष की कहानी है, हर समय उसके अविचल रहने की कहानी, शायद यही एक भाव इंसानों को भी दीपकों से सीखने की आवश्यकता है। दीपावली की सदियों पुरानी परंपरा तथा उसके माध्यम से आशा के उम्मीदों के दीपक जलाने की बात बहुत अच्छी है, सच में हम दीपावली के माध्यम से अपने अंदर की उम्मीदों को ही तो प्रकाशित करते हैं। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर है जिसमें दीपकों के माध्यम से अंधेरे को चुनौती प्रदान की गई है। और अंतिम शेर में दीपकों की कतार के प्रतीक द्वारा भाईचारे के बारे में बहुत सुंदरता से इशारा किया गया है।  वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।


शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आप सबको दीपावली का यह पर्व बहुत बहुत मुबारक हो। आपके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि रहे, ख़ूब रचनात्मकता बनी रहे। मिलते हैं बासी दीपावली में कुछ और रचनाकारों के साथ तब तक दाद देते रहिए इन रचनाकारों को। शुभ शुभ।


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