बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

आइए आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं सौरभ पाण्डेय जी की एक सुंदर ग़ज़ल के साथ

आज चतुर्दशी है, आज का दिन कहीं कहीं छोटी दीवाली भी कहलाता है। कहीं कहीं इसको रूप चतुर्दशी कहते हैं तो कहीं कहीं इसको वैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है। मुझे याद है कि बचपन में माँ का कड़ा निर्देश होता था कि आज के दिन सुबह जल्दी उठ कर उबटन लगा कर स्नान करना है। इसे रूप में निखार आता है। उन दिनों दीपावली पर ठंड आ चुकी होती थी, तो सुबह से उठ कर नहाना बहुत कष्टदायक होता था। अब तो ख़ैर दीपावली तक भी ठंड का कोई पता नहीं होता और उस पर गीज़र के गरम पानी से नहाना होता है। बचपन में बहुत कुछ वह सब जो हमें मिला वह हमारे बच्चों को नहीं मिला। कितना कुछ खो दिया है इन बच्चों ने। ख़ैर आइए आज छोटी दीवाली मनाते हैं। 

इन चराग़ों को जलना है अब रात भर

आइए आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं सौरभ पाण्डेय जी की एक सुंदर ग़ज़ल के साथ। 


सौरभ पाण्डेय

इस तमस में सँभलना है अब रात भर
दीप के भाव जलना है अब रात भर
हर अँधेरा निपट कालिमा ही नहीं
एक विश्वास पलना है अब रात भ

एकपक्षीय प्रेमिल विचारों भरे
इन चरागों को जलना है अब रात भर
निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये
मन से मन तक टहलना है अब रात भर

देह को देह की भी न अनुभूति हो
मोम जैसे पिघलना है अब रात भर
अल्पनाओं सजी गोद में बैठ कर
दीप को मौन बलना है अब रात भर 

कितना सुंदर मतला है तमस में सँभालना और दीप के भावों से जलना यदि इंसान सीख ले तो उसके लिए हर दिन दीपावली हो जाए। और अगले ही शेर में कितनी सुंदरता के साथ कहा गया है कि हर अँधेरा केवल कालिमा ही नहीं होता। एकपक्षीय प्रेमिल विचारों जैसी सुंदर बात के साथ क्या ही सुंदर गिरह बाँधी गयी है। वाह। और अगले ही शेर में एक बार फिर से निर्निमेषी नयन का निवेदन लिए मन से मन तक टहलना वाह वाह क्या सुंदर प्रयोग किया गया है। और अगले ही शेर में मोम जैसे पिघलने की बात और उस पर शर्त कि देह को देह की अनुभूति तक न हो। अंतिम शेर में अल्पनाओं की गोद में दीप का बलना... कितने सारे अर्थ लिए हुए है यह एक शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।

तो आज की इस सुंदर ग़ज़ल ने जैसे दीपावली का माहौल ही रच दिया है। आप दिल खोल कर दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

आइए आज तरही मुशायरे का आरंभ करते हैं चार रचनाकारों देवी नागरानी, डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर, गिरीश पंकज और डॉ. संजय दानी के साथ।

आइए आज से दीपावली का यह तरही मुशायरा प्रारंभ करते हैं। अब लगभग बीस वर्ष होने जा रहे हैं इस ब्लॉग पर हम सभी को साथ रहते हुए, साथ चलते हुए। जैसी की रीत होती है, कुछ नये जुड़ते हैं तो कुछ पुराने छूट जाते हैं। मिलना बिछड़ना रीत यही है। ख़ैर यह क्रम तो चलता ही रहेगा। हम पर्व पर इसी प्रकार मिलते रहेंगे, जो लोग समय निकाल कर आ जायेंगे उनके साथ पर्व की ख़ुशियों को साझा कर लेंगे। इस बार जिन रचनाकारों ने समय निकाल कर पर्व पर उपस्थिति दर्ज करवाई है उनके साथ आइए आज से हम यह पाँच दिवसीय ज्योति पर्व का शुभारंभ करते हैँ। 
इन चराग़ों को जलना है अब रात भर


आइए आज तरही मुशायरे का आरंभ करते हैं चार रचनाकारों देवी नागरानी, डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर, गिरीश पंकज और डॉ. संजय दानी के साथ।

देवी नागरानी

“इन चरागों को जलना है अब रात भर”
आँच में उनको गलना है अब रात भर
देती क़ुदरत इशारे मुसलसल हमें
उन इशारों पे चलना है अब रात भर

नीम बेहोशी भी इतनी अच्छी नहीं
होश रहते संभलना है अब रात भर
फ़लसफ़ा ज़िंदगी का समझ लीजिए
उस समझ में ही ढलना है अब रात भर

ज़िन्दगी एक जलता हवन ही तो है
जागकर ही पिघलना है अब रात भर
कैसे कह दूँ कथा इन चराग़ों की मैं
इनको ‘देवी’ यूँ जलना है अब रात कर

मतले के मिसरा ऊला से ही गिरह लगा कर शुरुआत की है। और मिसरा सानी में उन चराग़ों की आँच में गलने का दृश्य सुंदर है। और यह भी सच है कि क़ुदरत तो हमें लगातार इशारे कर रही है, मगर हम ही उन इशारों को नहीं समझ पा रहे हैं। एक विचित्र प्रकार की बेहोशी में हम सब चले जा रहे हैं, शायद दीप पर्व पर सँभल जायें। ज़िंदगी का फ़लसफ़ा समझ कर उसमें ढलना ही ज़िंदगी है। ज़िंदगी एक अनवरत सा हवन है जिसमें हमें पिघलते रहना है। और मकते के शेर में चराग़ों की कथा की बात बहुत सुंदर आयी है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।


डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर 

लो शमा को पिघलना है अब रात भर
इन चरागों को जलना है अब रात भर
मेरे ख्वाबों में तुम सामने आ गए
दिल का मौसम बदलना है अब रात भर

तुम हक़ीक़त में मुझसे मिलो न मिलो
ख़्वाब में संग चलना है अब रात भर
नींद आयेगी कैसे तेरी याद में
करवटें ही बदलना है अब रात भर

मैने शब्दों में कब से तराशा तुम्हें
तुमको ग़ज़लों में ढलना है अब रात भर

रात भर अँधेरे से लड़ने के लिए शमा और दीपक दोनों को ही जलना और पिघलना होता है, बहुत सुंदर मतला। कोई रात को सोते में ख़्वाब में आ जाये तो दिल का मौसम एकदम बदल जाता है। और कोई सचमुच मिले या नहीं मिले मगर यह भी सच है कि वह ख़्वाब में हमारे संग चलता रहता है। और किसी की याद में करवट बदलने का नाम ही तो प्रेम होता है, और जब प्रेम होता है तब नींद आँखों से उड़ जाती है। जिसे शब्दों में तराशा है वही रात भर ग़ज़ल में ढलेगा, बहुत सुंदर। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।


गिरीश पंकज 

स्याह सूरत बदलना है अब रात भर
दीप लेकर ही चलना है अब रात भर
वो अँधेरे से लड़ने चले आए हैं
"इन चिरागों को जलना है अब रात भर"

देख इसको अँधेरा भी घबराएगा
एक दीपक को बलना है अब रात भर
चाँद की रौशनी हमको भी मिल सके
बन के बच्चा मचलना है अब रात भर

ये बुरा है समय पर बदल जाएगा
हाँ इसे ही बदलना है अब रात भर
अब ये सपने हमें खूब तरसाएँगे
खुद को ही हमको छलना है अब रात भर

एक बेहतर समय कल खड़ा सामने
मेरे सपने को पलना है अब रात भर 

स्याह सूरत को बदलने के लिए दीप लेकर ही चलना होता है। और जो दीप अँधेरे से लड़ने आये हैं, उनको रात भर जलना ही होता है। यह भी सच है जब दीपक बाला जाता है तो अँधेरा उसे देख कर घबरा जाता है। उम्र कुछ नहीं होती, जब भी आप चाँद पाने को मचल जायें तभी आपका बचपन एक बार फिर से वापस आ जाता है। हर बुरा समय कभी न कभी बदल जाता है बशर्ते हम उसे बदलने का प्रयास करें। सपने तरसाते भी हैं और वही रात भर आँखों में पलते भी हैं। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।


डॉ. संजय दानी दुर्ग

हम चराग़ों को जलना है अब रात भर
हाँ अँधेरे से लड़ना है अब रात भर
ख़ूब दीपावली ये मनाएँ मगर
ग़ैर का दुःख भी हरना है अब रात भर

सो गये लोग, सन्नाटे का शोर है
फिर भी हमको न डरना है अब रात भर
रावणों की अदालत से बचने हमें
राम का नाम जपना है अब रात भर

मान सम्मान हमको मिले ना मिले
काम बस अपना करना है अब रात भर
अहमियत अपनी समझे न समझे जहाँ
घर उजालों से भरना है अब रात भर

क़ाफिया में थोड़े हेर-फेर के साथ ग़ज़ल कही गयी है। चराग़ों को जब जलाया जाता है तब यही उम्मीद होती है कि ये अब रात भर जलेंगे। मगर जब आप दीपावली मना रहे हों तो यह याद रहे कि दूसरों के लिए भी कुछ करना है। जब रात गहरी हो जाती है और सन्नाटा छा जाता है, तब भी डरना मना होता है। और बड़ी बात यह कही गयी है कि हमें बस अपना काम ही करते रहना है, मान सम्मान की परवाह किये बग़ैर। कोई अहमियत समझे न समझे हमें उजालों से सबके घर भरना है। वाह, वाह, वाह, सुंदर ग़ज़ल।

तो ये आज के चारों शायरों की दीपावली है। बहुत सुंदर ग़ज़लें चारों ने कही हैं। आप दिल खोल कर इनको दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।



शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

आइए दीपावली के तरही मुशायरे के मिसरे पर बात करते हैं


दोस्तों समय की अपनी ही गति होती है, और उस गति में सब कुछ पीछे ही छूटता जाता है। जो आज है वह कल नहीं रहेगा यह तय है। कल कुछ और होगा और उसके बाद कुछ और होगा। यही तो ज़िंदगी है। जो पल हम जी रहे हैं, वही तो असल ज़िंदगी है। राकेश खंडेलवाल जी हर दीपावली के लगभग एक माह पूर्व मुझे मेल करके पूछते थे कि तरही का मिसरा कब देंगे आप। इस बार कोई पूछने वाला नहीं था तो इस बार देर हो गयी। हालाँकि बहुत देर तो नहीं हुई है मगर समय सच में ही अब कम है। राकेश जी की रचना हर तरही में सबसे पहले मिलती थी और फिर एक के बाद एक उनकी कई रचनाएँ प्राप्त होती थीं। मगर अब तो बस उनकी यादें ही शेष हैं। मगर वे जहाँ भी हैं, वहीं से हमारे इस तरही मुशायरे में शामिल होंगे। दीपावली का पर्व इस बार ऐसे समय में आया है, जब हमारे इलाक़े में बरसात का मौसम अभी भी पूरी तरह से विदा नहीं हुआ है। पिछले कुछ सालों से ऐसा हो रहा है कि दीपावली के अवसर पर ही बरसात होती है। जैसे इस बार हमारे यहाँ दशहरे पर रावण को जलाया नहीं गया बल्कि गलाया गया। शायद यही ग्लोबल वॉर्मिंग है। जो भी हो हमें तो दीपावली का पर्व मनाना है और वैसे ही मनाना है जैसे हम पहले मनाते रहे हैं।

इस बार का तरही मुशायरा होगा बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम पर। यह एक बहुत ही मधुर और गाई जाने वाली बहर है। तरन्नुम में ग़ज़ल पढ़ने वाले सभी शायर इस बहर पर ज़रूर लिखते हैं। इसको कई अलग-अलग तरन्नुम में गाया जा सकता है। इसका वज़न होता है- फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन या 212-212-212-212। जगजीत सिंह की गायी हुई एक बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल इसी बहर पर है- आपको देख कर देखता रह गया। इस मिसरे का सौंदर्य इस बात में है कि इसमें रुक्न में शामिल होने वाला हर शब्द पूर्ण है, मतलब टूट कर दूसरे रुक्न में नहीं जा रहा है। आपको 212, देख कर 212, देखता 212, रह गया 212। इस मिसरे की एक और बात यह है कि इसमें कहीं कोई दीर्घ मात्रा गिरा कर लघु नहीं की गयी है।यह एक शुद्ध मिसरा है। इस प्रकार के मिसरे कहना बहुत मुश्किल होता है। असल में यदि आप इस प्रकार से वज़न को साधने की कोशिश करेंगे तो आपके हाथ से कहन चली जायेगी। मगर मुझे तो इस प्रकार के शुद्ध मिसरे बहुत पसंद आते हैं, जिनमें कोई शब्द टूट कर दो रुक्नों में नहीं बँटा हो और कहीं कोई दीर्घ मात्रा को गिरा कर लघु नहीं किया गया हो। ख़ैर आइए अब चलते हैं अपने मिसरे की तरफ़। 


 इन चराग़ों को जलना है अब रात भर

यह है हमारा इस बार का मिसरा। इस मिसरे में जो क़ाफ़िया ध्वनि है वह है ‘लना’ और रदीफ़ है ‘है अब रात भर’। इसमें आप 22 और 122 या 2122 वज़न के क़ाफ़िये ले सकते हैं। जैसे- चलना, ढलना, पलना, गलना जैसे 22 के वज़न वाले क़ाफ़िये और निकलना, पिघलना, बदलना जैसे 122 के वज़न वाले क़ाफ़िये। थोड़ी मुश्किल दिखाई दे रही होगी पर ग़ज़ल कहना शुरू करेंगे तो उतनी मुश्किल नहीं आएगी।

एक ग़ज़ल तो मैंने ऊपर आपको सुना ही दी- ‘आपको देख कर देखता रहा गया’, एक पुरानी फ़िल्म त्रिदेव का गाने का मुखड़ा भी गुनगुना सकते हैं आप ‘रात भर जाम से जाम टकराएगा, जब नशा छाएगा तब मज़ा आएगा’।

तो यह है इस बार का तरही मुशायरा

बहर- बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम

वज़न- फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन-फाएलुन या 212-212-212-212

मिसरा- इन चराग़ों को जलना है अब रात भर

क़ाफ़िया ध्वनि- ‘लना’

रदीफ़- ‘है अब रात भर’

इंतज़ार रहेगा आपकी ग़ज़लों का, समय कम है इसलिए अगर जल्दी भेज सकें तो बेहतर रहेगा।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 9, अंक : 35, अक्टूबर-दिसम्बर 2024

मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक- सुधा ओम ढींगरा, संपादक- पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक- शहरयार, सह संपादक- शैलेन्द्र शरण, आकाश माथुर के संपादन में शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 9, अंक : 35, अक्टूबर-दिसम्बर 2024 अंक अब उपलब्ध है।

इस अंक में शामिल हैं-

आवरण कविता - जब यह दीप थके- महादेवी वर्मा। संपादकीय- शहरयार, व्यंग्य चित्र- काजल कुमार।

साक्षात्कार- कविता के केंद्र में आलोचना की संगत, कवि-आलोचक विजय कुमार से साधना अग्रवाल की बातचीत।

केंद्र में पुस्तक- आधी दुनिया पूरा आसमान- सुप्रिया पाठक, डॉ. बी. मदन मोहन, जयपाल / ब्रह्मदत्त शर्मा, चलो फिर से शुरू करें- दीपक गिरकर, ममता त्यागी, रेखा भाटिया / सुधा ओम ढींगरा, डोर अंजानी सी- संदीप तोमर, रेखा भाटिया / ममता त्यागी, टूटी पेंसिल- दीपक गिरकर, जसविन्दर कौर बिन्द्रा / हंसा दीप, ज़ोया देसाई कॉटेज- अमृतलाल मदान, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, गोविन्द सेन / पंकज सुबीर, उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श- डॉ. सुरेश वशिष्ठ, ब्रजेश कानूनगो, डॉ. शील कौशिक / दीपक गिरकर।

पुस्तक समीक्षा- तस्वीर जो नहीं दिखती- दीपक गिरकर / कविता वर्मा, अब न नसैहों- सुधा जुगरान / सरोजिनी नौटियाल, चाँद गवाह- सुषमा मुनीन्द्र / उर्मिला शिरीष, यायावरी- शैलेन्द्र शरण / शेर सिंह, कुछ चेहरे, कुछ यादें- सुरेश रायकवार / ज्योति जैन, एजी ओजी लोजी इमोजी- लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव / अरुण अर्णव खरे, 21 श्रेष्ठ नारी मन की कहानियाँ- डॉ. कुमारी उर्वशी / डॉ. अनिता रश्मि, कुछ तो बचा रहे- रमेश खत्री / रामदुलारी शर्मा, गतिविधियों की रेल- ओम वर्मा / रवि खंडेलवाल, सुगंधा- एक सिने सुंदरी की त्रासद कथा- डॉ. रेवन्त दान / मुरारी गुप्ता, तट पर हूँ तटस्थ नहीं- शैलेन्द्र शरण / डॉ. शोभा जैन, विदेश में हिंदी पत्रकारिता- डॉ. पिलकेन्द्र अरोरा / जवाहर कर्नावट, वांग छी- डॉ. उपमा शर्मा / मनीष वैद्य, शनिवार के इंतज़ार में- ज्योत्स्ना कपिल / नीलिमा शर्मा।

नई पुस्तक- फूल को याद थे सारे मौसम / विजय बहादुर सिंह, सुधा ओम ढींगरा का साहित्य... / प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी, डॉ. योगेन्द्र सिंह, इश्क़ कंबल बन गया है / सुधीर मोता, काली धार / महेश कटारे, थे मज़ा करो म्हाराज / कौसर भुट‍्टो, हरसिंगार सा झरूँगा मैं / मनीष शर्मा, धार्मिक मेले और पर्यटन / विमल कुमार चौधरी, ग्रामीणा के संघर्ष और सफलता की यात्रा / रूबी सरकार, प्रेम का घर : प्रेम की यात्रा / भालचन्द्र जोशी, दण्ड से न्याय तक / प्रवीण कक्कड़, अर्बन नक्सल बीवी / रजनीगंधा, गुमशुदा चाबियों की तलाश / अरुण सातले।

पुस्तक पड़ताल- विमर्श- रूदादे-सफ़र- दीपक गिरकर / सुधा ओम ढींगरा।

आवरण चित्र- पंकज सुबीर, डिज़ायनिंग- सनी गोस्वामी, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

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बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 9, अंक : 35, अक्टूबर-दिसम्बर 2024 अंक

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा एवं संपादक पंकज सुबीर के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 9, अंक : 35, अक्टूबर-दिसम्बर 2024 अंक अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय। मित्रनामा। साक्षात्कार- साहित्य-व्यवहार, साहित्य-व्यापार की ओर बढ़ता दिखता है, कहानीकार-उपन्यासकार महेश कटारे से आकाश माथुर की बातचीत। विस्मृति के द्वार- अभिव्यक्ति की प्रबलता- अर्चना पैन्यूली। कथा-कहानी- एक दरवाज़ा नया सा- विकेश निझावन, ज़रा सा...डांस- टीना रावल, लम्हों के साए- अरुणा सब्बरवाल, पेंटिंग्स- जिज्ञासा सिंह, बिगड़ी हुई लड़की- शराफ़त अली ख़ान, जब उनसे मुलाकात हो गई- डॉ. विमला व्यास, करवा चौथ- कादम्बरी मेहरा, अन्तर्मन में नागफ़णी- रेणु गुप्ता। भाषांतर- इतनी-सी बात (पंजाबी कहानी), मूल लेखक- बलीजीत, अनुवाद- गीता वर्मा। लघुकथा- मिडिल क्लास स्त्री-पुरुष का प्रेम उत्सव- सन्दीप तोमर, पैरों तले ज़मीन- मनमोहन चौरे, मध्यम- मनप्रीत मखीजा, लाल बत्ती- कमलेश भारतीय। ललित निबंध- एक बिजली का बल्ब और दो पतंगे- गोविंद गुंजन, नृत्य और अनुष्ठान- विनय उपाध्याय। रेखाचित्र- समझदारों की दुनिया में वह पग्गल- ज्योति जैन। व्यंग्य- बड़ा चोर: छोटा चोर- डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल, हॉस्पिटल का इंस्पेक्शन- डॉ. मुकेश 'असीमित'। शहरों की रूह- अमेरिका यात्रा के बहाने- डॉ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा। ग़ज़ल- जय चक्रवर्ती, सत्यशील राम त्रिपाठी। आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र- पंकज सुबीर, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, शहरयार अमजद ख़ान, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी, आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

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