सुकवि रमेश हठीला स्मृति तरही मुशायरा
एक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गांव में
आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि
कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।
जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्ल में जारी होने जा रहा है । इस अंक में रचनाएं यदि आप 4 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्छा होगा परिचय अवश्य भेजें
होली का मिसरा-ए-तरह
''कोई जूते लगाता है, कोई चप्पल जमाता है''
बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ
ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्य का हो। हास्य रस में सराबोर हज़ल, गीत । हास्य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये
तो आइये आज सुकवि रमेश हठीला स्मृति मुशायरे का आज समापन करते हैं श्री अश्विनी रमेश, सुश्री रजनी मल्होत्रा नैय्यर, श्री अशोक अकेला और श्री पी.सी.गोदियाल "परचेत" की रचनाओं के साथ ।
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अश्विनी रमेश
अश्विनी जी पिछले कुछ समय से मुशायरों के नियमित श्रोता के रूप में उपस्थित हो रहे हैं । और अपनी रचनाएं भी लेकर आते रहे हैं । आज भी वे एक सुंदर सी ग़जल लेकर आये हैं तो आइये सुनते हैं उनसे ये ग़ज़ल ।
ये हवा जो ठंडी ठंडी है अभी तक गांव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
आज भी कुछ पेड़ बाक़ी गांव में हैं, इसलिये
मोर कोयल और गिलहरी है अभी तक गांव में
जिन्दगी तो इन दरख्तों ने तुम्हें दी इस कदर
आब अनुकम्पा से इनकी है अभी तक गांव में
जिसके साये में छुपे तुम धूप जलती से बचे
छांव पीपल पात वाली है अभी तक गांव में
क्यों बज़ुर्गों से हमें कुछ सीखना आता कहीं
उनकी तो हर एक थाती है अभी तक गांव में
लोग जो हैं पेड़ जैसी जिन्दगी जीते सदा
उनकी पूजा रोज होती है अभी तक गांव में
यह गज़ल मेरी अकीदत है हठीला जी तुम्हें
ख़ुश्बू सी फैली तुम्हारी है अभी तक गांव में
जानवर, पक्षी, मकौड़े सब पलें पेड़ों से ही
पेड़ मुनसर आदमी भी है अभी तक गांव में !!
पेड़ों को समर्पित एक मुसलसल ग़जल । वृक्षों के उपकार को बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया गया है शेरों में । पेड़ों जैसी जिंदगी के बहाने बहुत ही अच्छे तरीके से दूसरों के लिये जीने की कला पर प्रकाश डाला है एक बहुत पुराना गीत 'मधुबन खुश्बू देता है' याद आ गया । सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।
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रजनी मल्होत्रा नैय्यर
रजनी जी ब्लाग जगत का एक सुप्रसिद्ध नाम हैं । तरही मुशायरे में वे पहली बार आ रही हैं । किन्तु शिवना प्रकाशन से उनकी एक कविताओं की पुस्तक स्वप्न मरते नहीं प्रकाशित होकर पिछले साल आई है । भाव प्रवणता के साथ कविताएं लिखती हैं । आइये सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।
सभ्यता की वो निशानी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
शहर में फैले हुए हैं कांटे नफरत के मगर
प्रेम की बगिया महकती है अभी तक गाँव में
चैट और ईमेल पर होती है शहरी गुफ़्तगू
ख़त किताबत, चिट्ठी पत्री है अभी तक गाँव में
दौड़ अंधी शहर में पेड़ों को हर दिन काटती
पेड़ों की पर पूजा होती है अभी तक गाँव में
एक पगली सी नदी बारिश में आती थी उफन
वैसे ही सबको डराती है अभी तक गाँव में
शहर में चाइनीज़, थाई नौजवानों की पसंद
ख़ुश्बू पकवानों की आती है अभी तक गाँव में
दिन के चढ़ने तक हैं सोते मगरिबी तहजीब में
तड़के तड़के की प्रभाती अभी तक गाँव में
चैट और ईमेल से चिट्ठी पत्री की तुलना करने वाला शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । और पगली सी नदी जो डराती थी बरसात के दिनों में उसकी तो बात ही क्या है । गांव का वो मंज़र याद आ गया जब रात तेज़ बरसात होने पर नानाजी चिंता में करवट बदलते रहते थे । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।
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पी.सी.गोदियाल "परचेत"
परचेत जी भी कुछ दिनों पहले ही ब्लाग परिवार से जुड़े हैं और सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी दर्ज करवाते रहे हैं । हालांकि उनका बहुत परिचय नहीं मिल पाया लेकिन ठीक है आने वाले होली के मुशायरे में सबसे परिचय हो जायेगा । तो आइये सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।
याद मेरे बचपने की, है अभी तक गांव में
एक परछ़ांई सरीखी है अभी तक गांव में
हो गये सब लुप्त अंधड़, बारिश ओ तूफान में
एक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
जिसके नीचे बैठ के बपचन के खेले खेल थे
नीम की छाया घनेरी है अभी तक गांव में
नन्हे मुन्ने बंद करते सुन के जिसको शोर सब
गीत कोयल ऐसा गाती है अभी तक गांव में
वो महक फूलों की, अमराई की खुशबू फागुनी
ले बयार आती है, चलती है अभी तक गांव में
कोयल की आवाज़ सुन कर नन्हे मुन्नों का चुप हो जाना एक शब्द चित्र है । जो स्मृतियों के गलियारे में ले जाता है । स्वर के माधुर्य का शेर है । हो गये सब लुप्त अंधड़ में के माध्यम से लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के खंडहर होते मानदंडों को बखूबी व्यक्त किया है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।
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अशोक"अकेला"
अकेला जी ने मतले ही मतले लिख कर नया प्रयोग करने की कोशिश की है उनके ही शब्दों में :-
आप के कहे मुताबिक एक प्रयास किया है ,कुछ लिखने का
सिर्फ अपने अहसासों को महसूस करके ,बस यही मैं कर सकता हूँ|
गजल या गजल की बंदिशों से एक दम नासमझ .....
अगर आप इस को सजा-संवार कर मुझे वापस भेजे तो मैं इसमें
कुछ और सीखने की कोशिश करूँगा | इससे पहले एक प्रयास
दिवाली पर भी कर चूका हूँ , मेरा अपने बारे में किसी किस्म का
कोई दावा नही....
इक पुराना पेड़ बाकी, है अभी तक गांव में
झूले पे गोरी हुमकती, है अभी तक गांव में
रास्तों पे धूल उडती, है अभी तक गांव में
प्यार से मिटटी भी मिलती, है अभी तक गांव में
मसलों पे चौपाल होती, है अभी तक गांव में
बैठ कर जो सबकी सुनती, है अभी तक गांव में
टन टना टन घंटी बजती, है अभी तक गांव में
पेड़ नीचे क्लास लगती, है अभी तक गांव में
एक पगडंडी बुलाती, है अभी तक गांव में
देख मुझको मुस्कुराती, है अभी तक गांव में
बालपन की याद बाकी, है अभी तक गांव में
वो शरारत मीठी मीठी, है अभी तक गांव में
ताल में मछली भी रहती, है अभी तक गांव में
उस किनारे धूप पड़ती, है अभी तक गांव में
क्या "अकेला" चीज बाकी, है अभी तक गांव में
राह संग चलने को कहती, है अभी तक गांव में
श्री हठीला की कहानी है अभी तक गांव में
याद उनकी ही हठीली है अभी तक गांव में
गांव के इस्कूल को बहुत सुंदर तरीके से चित्रित किया है टन टना टन में । पेड़ के नीचे लगत इस्कूल का पूरा मंज़र सामने आ गया है । चौपाल पे लगती पंचयात और उसकी निष्पक्षता को बखूबी दर्शाया है मसलों वाले शेर पे । मतले में ही मिट्टी के प्यार से मिलने की बात बहुत छूने वाली है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।
तो लेते रहिये आनंद चारों रचनाओं का और देते रहिये दाद । और हां खास बात ये कि
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होली का मिसरा-ए-तरह
''कोई जूते लगाता है, कोई चप्पल जमाता है''
बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ
ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्य का हो। हास्य रस में सराबोर हज़ल, गीत । हास्य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये