शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

श्री अश्विनी रमेश, सुश्री रजनी मल्होत्रा नैय्यर, श्री अशोक अकेला और श्री पी.सी.गोदियाल "परचेत" के साथ समापन करते हैं सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा का आज ।

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

एक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में 
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गांव में

आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि 
कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।
जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होने जा रहा है । इस अंक में रचनाएं यदि आप 4 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्‍य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्‍छा होगा परिचय अवश्‍य भेजें
होली का मिसरा-ए-तरह
''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''
बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ

ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्‍य का हो। हास्‍य रस में सराबोर हज़ल, गीत  । हास्‍य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये

तो आइये आज सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति मुशायरे का आज समापन करते हैं श्री अश्विनी रमेश, सुश्री रजनी मल्होत्रा नैय्यर, श्री अशोक अकेला और श्री पी.सी.गोदियाल "परचेत" की रचनाओं के साथ । 

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

ashwini ramesh ji 

अश्विनी रमेश

अश्विनी जी पिछले कुछ समय से मुशायरों के नियमित श्रोता के रूप में उपस्थित हो रहे हैं । और अपनी रचनाएं भी लेकर आते रहे हैं । आज भी वे एक सुंदर सी ग़जल लेकर आये हैं तो आइये सुनते हैं उनसे ये ग़ज़ल ।

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ये हवा जो ठंडी ठंडी है अभी तक गांव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

आज भी कुछ पेड़ बाक़ी गांव में हैं, इसलिये
मोर कोयल और गिलहरी है अभी तक गांव में

जिन्दगी तो इन दरख्तों ने तुम्हें दी इस कदर
आब अनुकम्पा से इनकी है अभी तक गांव में

जिसके साये में छुपे तुम धूप जलती से बचे
छांव पीपल पात वाली है अभी तक गांव में

क्यों बज़ुर्गों से हमें कुछ सीखना आता कहीं
उनकी तो हर एक थाती है अभी तक गांव में

लोग जो हैं पेड़ जैसी जिन्दगी जीते सदा
उनकी पूजा रोज होती है अभी तक गांव में

यह गज़ल मेरी अकीदत है हठीला जी तुम्हें
ख़ुश्बू सी फैली तुम्हारी है अभी तक गांव में

जानवर, पक्षी, मकौड़े सब पलें पेड़ों से ही
पेड़ मुनसर आदमी भी है अभी तक गांव में !!

पेड़ों को समर्पित एक मुसलसल ग़जल । वृक्षों के उपकार को बहुत सुंदर तरीके से अभिव्‍यक्‍त किया गया है शेरों में । पेड़ों जैसी जिंदगी के बहाने बहुत ही अच्‍छे तरीके से दूसरों के लिये जीने की कला पर प्रकाश डाला है एक बहुत पुराना गीत 'मधुबन खुश्‍बू देता है' याद आ गया । सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।  
कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।               

rajni

रजनी मल्होत्रा  नैय्यर

रजनी जी ब्‍लाग जगत का एक सुप्रसिद्ध नाम हैं । तरही मुशायरे में वे पहली बार आ रही हैं । किन्‍तु शिवना प्रकाशन से उनकी एक कविताओं की पुस्‍तक स्‍वप्‍न मरते नहीं प्रकाशित होकर पिछले साल आई है । भाव प्रवणता के साथ कविताएं लिखती हैं । आइये सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।

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सभ्यता की वो निशानी है अभी तक  गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

शहर में फैले हुए हैं कांटे नफरत के मगर  
प्रेम की बगिया महकती है अभी तक गाँव में

चैट और ईमेल पर होती है शहरी गुफ़्तगू
ख़त किताबत, चिट्ठी पत्री है अभी तक गाँव में

दौड़ अंधी शहर में पेड़ों को हर दिन काटती 
पेड़ों की पर पूजा होती है अभी तक गाँव में

एक पगली सी नदी बारिश में आती थी उफन
वैसे ही सबको डराती है अभी तक गाँव में

शहर में चाइनीज़, थाई नौजवानों की पसंद
ख़ुश्बू  पकवानों की आती है अभी तक गाँव में

दिन के चढ़ने तक हैं सोते मगरिबी तहजीब में
तड़के तड़के की प्रभाती अभी तक गाँव में

चैट और ईमेल से चिट्ठी पत्री की तुलना करने वाला शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । और पगली सी नदी जो डराती थी बरसात के दिनों में उसकी तो बात ही क्‍या है । गांव का वो मंज़र याद आ गया जब रात तेज़ बरसात होने पर नानाजी चिंता में करवट बदलते रहते थे । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें । 

p. c. godiyal

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

परचेत जी भी कुछ दिनों पहले ही ब्‍लाग परिवार से जुड़े हैं और सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी दर्ज करवाते रहे हैं । हालांकि उनका बहुत परिचय नहीं मिल पाया लेकिन ठीक है आने वाले होली के मुशायरे में सबसे परिचय हो जायेगा । तो आइये सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल । 

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याद मेरे बचपने की,  है अभी तक गांव में
एक परछ़ांई सरीखी है अभी तक गांव में

हो गये सब लुप्त अंधड़, बारिश ओ तूफान में
एक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

जिसके नीचे बैठ के बपचन के खेले खेल थे
नीम की छाया घनेरी है अभी तक गांव में

नन्हे मुन्ने बंद करते सुन के जिसको शोर सब
गीत कोयल ऐसा गाती है अभी तक गांव में 

वो महक फूलों की, अमराई की खुशबू फागुनी
ले बयार आती है, चलती है अभी तक गांव में

कोयल की आवाज़ सुन कर नन्‍हे मुन्‍नों का चुप हो जाना एक शब्‍द चित्र है । जो स्‍मृतियों के गलियारे में ले जाता है । स्‍वर के माधुर्य का शेर है । हो गये सब लुप्‍त अंधड़ में के माध्‍यम से लेखक ने सभ्‍यता और संस्‍कृति के खंडहर होते मानदंडों को बखूबी व्‍यक्‍त किया है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

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अशोक"अकेला"

अकेला जी ने मतले ही मतले लिख कर नया प्रयोग करने की कोशिश की है उनके ही शब्‍दों में :-

आप के कहे मुताबिक एक प्रयास किया है ,कुछ लिखने का
सिर्फ अपने अहसासों को महसूस करके ,बस यही मैं कर सकता हूँ|
गजल या गजल की बंदिशों से एक दम नासमझ .....
अगर आप इस को सजा-संवार कर मुझे वापस भेजे तो मैं इसमें
कुछ और सीखने की कोशिश करूँगा | इससे पहले एक प्रयास
दिवाली पर भी कर चूका हूँ , मेरा अपने बारे में किसी किस्म का
कोई दावा नही....
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इक पुराना पेड़ बाकी, है अभी तक गांव में
झूले पे गोरी हुमकती, है अभी तक गांव में

रास्तों पे धूल उडती,  है अभी तक गांव में
प्यार से मिटटी भी मिलती, है अभी तक गांव में

मसलों पे चौपाल होती, है अभी तक गांव में
बैठ कर जो सबकी सुनती, है अभी तक गांव में

टन टना टन घंटी बजती, है अभी तक गांव में
पेड़ नीचे क्लास लगती, है अभी तक गांव में

एक पगडंडी बुलाती, है अभी तक गांव में
देख मुझको मुस्कुराती, है अभी तक गांव में

बालपन की याद बाकी, है अभी तक गांव में
वो शरारत मीठी मीठी, है अभी तक गांव में

ताल में मछली भी रहती, है अभी तक गांव में
उस किनारे धूप पड़ती, है अभी तक गांव में

क्या "अकेला" चीज बाकी, है अभी तक गांव में
राह संग चलने को कहती, है अभी तक गांव में

श्री हठीला की कहानी है अभी तक गांव में 
याद उनकी ही हठीली है अभी तक गांव में

गांव के इस्‍कूल को बहुत सुंदर तरीके से चित्रित किया है टन टना टन में । पेड़ के नीचे लगत इस्‍कूल का पूरा मंज़र सामने आ गया है । चौपाल पे लगती पंचयात और उसकी निष्‍पक्षता को बखूबी दर्शाया है मसलों वाले शेर पे । मतले में ही मिट्टी के प्‍यार से मिलने की बात बहुत छूने वाली है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

तो लेते रहिये आनंद चारों रचनाओं का और देते रहिये दाद । और हां खास बात ये कि

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।
जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होने जा रहा है । इस अंक में रचनाएं यदि आप 4 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्‍य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्‍छा होगा परिचय अवश्‍य भेजें
होली का मिसरा-ए-तरह
''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''
बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ
ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्‍य का हो। हास्‍य रस में सराबोर हज़ल, गीत  । हास्‍य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

आदरणीया लावण्या शाह जी, सुलभ जायसवाल के गीत और श्री मुकेश कुमार तिवारी की ग़ज़ल - छाप उस बीते समय की है अभी तक गाँव में, रेडियो, सायकिल पुरानी है अभी तक गाँव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि 

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होने जा रहा है । इस अंक में रचनाएं यदि आप 4 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्‍य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्‍छा होगा परिचय अवश्‍य भेजें

होली का मिसरा-ए-तरह

''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''

बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ

ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है, गीत, यदि हो तो हास्‍य का हो। हास्‍य रस में सराबोर हज़ल, गीत  । हास्‍य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये

lavnya didi

आदरणीया  लावण्या शाह जी 

लावण्‍या दीदी साहब के गीतों में मिट्टी पूरी गमक के साथ महकती है । उनके गीतों में बचपन अपने पूरे आनंद के साथ उपस्थित होता है और उन सब के साथ ही गुंथा होता है प्रबल भाव पक्ष । उनके गीत हमें किसी और दुनिया की सैर करवा देते हैं । ठहर ठहर के चलती हुई हवा के मदिर और मंद झौंकों की तरह पंक्तियां लहरती हैं । तो आइये सुनते हैं उनका ये गीत ।

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कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
हौले हौले है उतरती छम से संध्या छाँव में!
कुछ दबे पांवों से  बदली, आ लुटाती है फुहार, 
आम की बगिया से बहती सरसराती सी बयार,
यादों के पीपल खड़े लहराते हैं यूं ध्यान में 
कूकती कोयल सुनाती गीत मीठी तान में    
पंख फैलाए मयूर आता है इस अंदाज़ से
कहती तब  ‘के-आऊँ ',  आती मोरनी कुछ नाज़ से  
गाँव के पेड़ों से लिपटे अनगिनत किस्से  कथा   
गोद दादी की दुबक कर जिनको बचपन ने सुना 
कुछ गढ़े थे मन ने मेरे बालपन में खुद ही जो
जाने कितने खेल आते आज भी हैं याद जो 
याद है,  अन्जान चेहरा जो कि आता था सदा 
पेड़ की जो ओट छिप कर मौन बस था देखता  
जल में पोखर के तब उसकी ही तो थी छाया पडी
कैसे भूलूं खत,  बहाए उसके थे जल में उसी !
वो बनी दुल्हिन पराये देस जा कर बस गयी
देखता हूं सूने पथ को मैं अकेला आज भी
याद फिर फिर आ रहे हैं गांव के वे पेड़ अब
वो नहीं हैं पेड़ केवल वो मेरे पुरखे हैं सब
धूप में अमिया मिरच, दादी सुखाती थी जहां
उस ही आंगन में  मेरा बचपन भी छूटा है वहां
याद ये भी,  याद वो भी कुछ भी तो भूला न मन
मेघ का मल्हार, झरने,  बैरी सावन की चुभन ! 
नाती-नातिन, संग बैठे दूर अपने ठांव में !
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में 
हौले हौले है उतरती छम से संध्या छाँव में!

और ये श्री रमेश हठीला जी के लिये

याद आएगी हठीला जी   की वो निर्मल हंसी
गीत में, बातों में जिनके थी खनकती जिंदगी !

बहुत ही सुंदर नज्‍म है । एक एक पंक्ति अपनी कहानी आप ही कह रही है । मुझे याद आ रहा है कि जबलपुर की यात्रा में जब मैंने ट्रेन में नुसरत दीदी को ये मिसरा सुनाया था तो उन्‍होंने कहा था वाह पंकज ये ग़ज़ल का नहीं ये तो नज्‍म का मिसरा है । और आज लावण्‍या दीदी साहब ने मानो नुसरत दीदी के उस कथन को सार्थक कर दिया है । पूरा गीत अपना लम्‍स छोड़ते हुए गुजरता है । वाह वाह वाह  ।  

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श्री मुकेश कुमार तिवारी

नववर्ष की तरही का मिसरा जब पढ़ते ही आसान लगा था और फिर दिये हुए उदाहरणों से एकबारगी लगा था कि बस यूँ ही हो जाएगा। लेकिन जब बैठा तो हाथ से तोते उड़ गये फिर आपसे दीपावली के तरही के बाद हुई टेलीफोन वार्ता की याद हो आई कि जो सोच रहे हो उसे गुनगुनाओ बास फिर क्या था जैसे मेरे विचारों को पंख लग गये हो......।

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छाप उस बीते समय की है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

बन के बदली याद आंखों में घुमड़ कर छा गई  
तेरी वो हर इक निशानी है अभी तक गाँव में

ठिठके ठिठके से मोहल्ले और चौराहे सभी
हर गली सुध बुध सी भूली है अभी तक गाँव में

सबसे ये पूछूंगा कल, बिन उसके कैसा लग रहा
जाएगी जो कल, वो बेटी है अभी तक गाँव में

तुमसे जो सीखा था उसको दूसरों को दे रहे
ये रवायत सीधी सच्ची है अभी तक गाँव में

ज्वार की है गर्म रोटी सौंधी सौंधी धूप  है
संग टमाटर की वो चुर्री है अभी तक गाँव में

बहुत सुंदर गज़ल कही है ।मुकेश जी के अपने काम के दायित्‍व उनको व्‍यस्‍त रखते हैं लेकिन बीच बीच में समय निकाल कर वे फिर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देते हैं । इन्‍दौर में उनके साथ मुलाकात के बाद लगा कि उनमें साहित्‍य को लेकर एक छटपटाहट है । ज्‍वार की रोटी और सौंधी धूप के साथ टमाटर की चुर्री ( अधपिसी चटनी) को बहुत सुंदर तरीके से बांधा है । खुद सीख कर दूसरों को सिखाने के गांव की उदात्‍त परंपरा को भी खूब बांधा है शेर में । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।  
sulabh-jaiswal

सुलभ जायसवाल

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धोती गमछा लाल साड़ी है अभी तक गाँव मे 
रेडियो, सायकिल पुरानी है अभी तक गाँव मे 
ना कभी होगा समापन तंबूओं और झूलों का
हर बरस फागुन में लगने वाले रंगीं मेलों का
तरुण तरुणी नृत्य करते, बालकों का जमघटा
जाती इस्टेशन से मेला,  घोड़ागाड़ी फटफटा
नीम, दातुन, आमचूरा, सैर टूटी नाव में
खेत पनघट गुनगुनाते हैं अभी तक गाँव में 
मन कहीं लगता नही मन बावरा चंचल है मन
जिंदगी है पाठशाला शब्द कहता मुझको सुन
वो डटा निश्चिंत टिककर के खड़ा है आस में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में 

और ये श्री रमेश हठीला जी के लिये

मस्त मौला थे हठीला गीत बंजारे लिये
छोड़ इस धरती को अब वो नभ के तारे बन गये

सुलभ भी अभी तक साहित्‍य को लेकर कुछ तय नहीं कर पा रहा है कि क्‍या करना है । किन्‍तु उसके बाद भी उसकी उपस्थिति हर मुशायरे में ये बताती है कि उसके मन में कही न कही एक कसक है । सुलभ ने इस बार गीत लिखने की कोशिश की है । और सार्थक कोशिश की है । गांव के माहौल को बहुत सुंदर तरीके से बांधा है । मुझे अपने गांव का जतरा ( त्‍यौहारों पर लगने वाला मेला ) याद आ गया । और याद आ गया अपने ही गांव में लगने वाला आदिवासियों का भगोरिया भी जिसमें युवक युवती एक दूसरे को पसंद करते हैं और फिर भाग जाते हैं सबकी सहमति से । ये होली पर लगता है । पूरा गीत सुंदर बना है । वाह वाह वाह ।

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

तो दाद देते रहिये और सुनते रहिये तीनों को मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ । और आज केवल और केवल एक ही बात करनी है वो ये कि 

कृपया 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज दें । अपना फोटो भेज दें । अपना परिचय भेज दें ।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

समीर लाल जी और तपन दुबे : सुबह हो या दोपहर हो या भले ही शाम हो, गीत कोयल गुन-गुनाती है अभी तक गाँव मैं

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में 
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

आज केवल कुछ सूचनाएं ।पहली तो ये  कि होली के तरही को लेकर अब आप अधिकतम 4 मार्च तक अपनी रचनाएं भेज सकते हैं । हालांकि आज ही एक रचना मिली है और जबरदस्‍त रचना है । होली का मूड बन गया है उस रचना से । तो अपनी रचनाएं 4 मार्च के पहले भेज दें ।  मिसरा-ए-तरह तो आपको पता ही है ''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''  बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ ।

दूसरी सूचना ये कि श्री नीरज जी को सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान की जो घोषणा की गई है वो सम्‍मान समारोह मई के महीने में आयोजित किया जायेगा । उसीमें सम्‍मान के साथ साथ सुकवि मोहन राय स्‍मृति पुरस्‍कार भी दिया जायेगा । यह पुरस्‍कार है इसलिये यह किसी युवा को दिया जायेगा ।  तो आइये आज सुनते हैं श्री समीर लाल जी और तपन दुबे की रचनाएं ।

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श्री समीर लाल समीर जी

समीर जी इस ब्‍लाग की प्रक्रिया से पहले दिन से ही जुड़े हुए हैं । इस ब्‍लाग से मुझे कई नाम मिले उनमें से एक नाम समीर जी का दिया हुआ है 'मास्‍साब' । ठेठ मध्‍यप्रदेशिया नाम । समीर जी के गद्य जितना रोचक होते हैं उतनी ही उनकी कविताएं आनंद देती हैं । गंभीर बातों को सहजता से कह देना उनकी विशेषता है । तो आइये सुनते हैं उनकी ये शानदार ग़ज़ल ।

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शुक्र है के वो निशानी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

गाड़ी,बंगला,शान-ओ-शौकत माना के हासिल नहीं
पर बड़ों की हर निशानी है अभी तक गाँव में

सुबह हो या दोपहर हो या भले ही शाम हो
साफ़ - सुथरी वायु बहती है अभी तक गाँव में

शहर की राहों पे जा के सारे बेटे खो गये  
राह तकती माँ अभागी  है  अभी तक गाँव में

सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिए
सादगी  की  आबदारी  है  अभी  तक गाँव  में

साथ  मेरे  जाते  तो  ए काश तुम भी देखते
निष्कपट सी जिंदगानी है अभी तक गाँव में

छोड़ कर  जा तो रहा है ए ` समीर ` इतना तो जान
रोटी - सब्ज़ी , दाना - पानी है अभी तक गाँव में

आबदारी - चमक
सबसे पहले तो बात की जाये मकते की ही । मकता बहुत ही प्रभावी बन पड़ा है । इस मकते में नास्‍टेल्जिया नहीं है बल्कि हकीकत है । सादगी की आबदारी का शेर भी बहुत सुंदर बना है । विशेषकर ये कहना कि सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिये । और फिर राह तकती मां का चित्र बहुत सुंदर बन पड़ा है समीर जी की ही पुस्‍तक बिखरे मोती की एक कविता जो उन्‍होंने मां को समर्पित की थी वो याद आ गई । बहुत सुंदर बहुत सुंदर । खूब ।

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तपन दुबे
तपन पहली बार मुशायरे में शिरकत कर रहे हैं सो उनकी बात उनकी ही ज़बानी सुन ली जाये ।

आपके ब्लॉग में चल रहे तरही मुशायरे में मैं भी शिरकत करना चाहता हूँ . अभी गजल के व्याकरण से जरा अनजान हूँ. आपके पुराने लेख गजल के बारे में पड़ कर बहुत कुछ सिखने को मिला हैं . मैं बहुत छोटी उम्र लगभग ११-१२ वर्ष की उम्र से ही थोड़ी बहुत पंक्तिया लिख लेता था पर १२ साल बाद आज जब में २४ वर्ष का हो गया हूँ तब मुझे पहली बार आपके द्वारा गजल के व्याकरण के बारे में पता चला. में आपके गजल के लेख को अच्छी तरह से पड़ रहा हूँ और कोशिश करुगा की जल्द से जल्द अच्छी गजल आपके अन्य विधार्थियों की तरह लिखू. पंकज जी मुझे ये मलाल होता है की मैने इंजीनियरिंग भोपाल से करी अगर तब में आप से मिल लेता तो शायद आज में बहुत कुछ सिख जाता. और १ और बात पंकज जी सिर्फ आप के इस ब्लॉग के कारण जिस शायरी को वक्त ने मुझसे छीन लिया था, उसे में वापस से जीवित कर पाया हूँ. और लगभग ३-४ साल बाद आज मैने कुछ लिखा है. बहुत सकूँ मिला है लिख कर. ऐसा लगा है जैसे बरसो से बंद परिंदे को खुला आसमान मिल गया हो ।

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इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
गीत कोयल गुन-गुनाती है अभी तक गाँव में

शहर में तो सिर्फ कम्‍प्यूटर ही  कम्‍प्‍यूटर हैं बस  
पर कलम काग़ज़  सियाही है अभी तक गाँव में

बिजली, पानी और सड़कें , शहर में सुविधाएं सब 
राह कच्‍ची धूल उड़ाती है अभी तक गाँव में

अब तो नाना जी को गुजरे साल कितने हो गए
किन्‍तु नानी है कि रहती है अभी तक गाँव में

शहर में आकर यही महसूस होता है "तपन"
हर ख़ुशी ज्‍यों जिंदगी की है अभी तक गाँव में

हूं पहली बार को ध्‍यान में रखा जाये तो बहुत अच्‍छी ग़ज़ल कही है । नाना और नानी का शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है और उतना ही मार्मिक भी है । शहर में कम्‍प्‍यूटर और गांव में कलम काग़ज़ सियाही के माध्‍यम से बहुत सहजता के साथ इशारा कर दिया है गांव और शहर की मानसिकता पर ।  सड़कों और गांव की राहों वाला शेर भी प्रभावी है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये दोनों सुंदर ग़ज़लों का मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

आज महाशिवरात्री है आज प्रथम सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान की घोषणा की जानी है । आज के दिन तरही को स्‍थगित रखते हुए बात करते हैं सम्‍मान की ।

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उज्‍जैन में दो साल रहने का मौका मिला है हालांकि वो बहुत बचपन की बात है । मगर उज्‍जैन की स्‍मृतियां अभी भी दिमाग़ में हैं । शिवरात्री को लेकर बहुत सी बातें हैं जो स्‍मृतियों में दर्ज हैं । उनमें से ही कोई एक बात ऐसी है जो मुझे नास्तिक नहीं होने देती है । एक ऐसी घटना जो मुझसे कहती है कि हो जाओ नास्तिक किन्‍तु उस घटना को कैसे नकारोगे । और मैं नास्तिक नहीं हो पाता । बचपन की वो एक घटना आज भी दिमाग़ में यूं है जैसे कल की ही बात हो । शिव के प्रति बचपन से ही मन में अनुराग रहा है । और उज्‍जैन के महाकाल के प्रति तो विशेष कुछ रहा है हमेशा मन में । कहते हैं कि महाकाल शिवलिंग जहां पर स्थित हैं वो पृथ्‍वी का केन्‍द्र है । उज्‍जैन की विश्‍व प्रसिद्ध वेधशाला का वहां होना भी इसका ही प्रमाण है । कृष्‍ण ने शिक्षा उज्‍जैन में प्राप्‍त की । कहते हैं महाकाल कवित्‍व का वरदान भी देते हैं संस्‍कृत के महान कवि कालिदास जो उज्‍जैन के ही थे उनको भी कवित्‍व का वरदान महाकाल ने ही दिया था । डॉ शिवमंगल सिंह सुमन भी इसी कारण उत्‍तर प्रदेश छोड़ कर उज्‍जैन में बस गये थे । उज्‍जैन के बारे में एक और महत्‍वपूर्ण बात ये है कि चूंकि यहां के राजा महाकालेश्‍वर हैं इसलिये कोई भी दूसरा राजा ( जिसमें मुख्‍यमंत्री, प्रधानमंत्री, राज्‍यपाल शामिल हैं ) उज्‍जयिनी में रात नहीं रुकता है ।  भर्तहरी गुफा में एक हवा में लटकी हुई चट्टान पर किसी की पूरी उभरी हथेली आज भी देखने पर रोमांचित कर देती है । और काल भैरव के मुंह पर लगा प्‍याला जब रीत जाता है तो हैरान रह जाते हैं सब । उज्‍जैन के महाकालेश्‍वर में सुब्‍ह 3 बजे होने वाली भस्‍म आरती का विशेष महत्‍व है । पहले ये भस्‍म ताजा मुर्दे की ही होती थी किन्‍तु अब परंपरा में कुछ परिवर्तन किया गया है । इस आरती की एक झलक आप नीचे वीडियो में देख सकते हैं ।

और सु‍कवि रमेश हठीला रचित ये शिव वंदना भी आज के दिन

16-20

शिव सत्य है, शिव सुंदरम्।
शिव पूर्ण ब्रह्म सनातनम् ।
शिव शंकरम् प्रलयंकरम् ।
शिव को नमन् शत्-शत् नमन॥

शिव शक्ति है, शिव भक्ति है।
शिव जगत की अभिव्यक्ति है।
शिव तारणम् शिव मारणम् ।
शिव विश्व पालन हारणम् ॥
शिव शंकरम् प्रलयंकरम् ।
शिव को नमन् शत्-शत् नमन॥

शिव ओम भी, ओंकार भी,
शिव व्योम का आधार भी।
शिव रुण्ड मुण्ड त्रिपुण्ड भी।
शिव स्वयं में हवि कुण्ड भी॥
शिव शंकरम् प्रलयंकरम् ।
शिव को नमन् शत्-शत् नमन॥

शिव आदि अनादि अनंत है।
शिव संत पंत बसंत है।
शिव शब्द है शिव नाद है।
शिव ब्रह्म और निनाद है॥
शिव शंकरम् प्रलयंकरम् ।
शिव को नमन् शत्-शत् नमन॥
 

शिव सत्य है, शिव सुंदरम्।
शिव पूर्ण ब्रह्म सनातनम् ।
शिव शंकरम् प्रलयंकरम् ।
शिव को नमन् शत्-शत् नमन॥

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सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति सम्‍मान

तो अब बात करते हैं सुकवि श्री रमेश हठीला की स्‍मृति में स्‍थापित किये गये सम्‍मान की । इस सम्‍मान के लिये बाकायदा एक समिति बनाई गई थी । समिति के अध्‍यक्ष ने शुक्रवार को अपनी रिपोर्ट सौंपी है जिसमें सारे 6 सदस्‍यों ने सर्व सम्‍मति से एक नाम का चयन किया है ( इस समिति में मैं स्‍वयं शामिल नहीं था और निर्णय में मेरा किसी भी प्रकार का कोई हस्‍तक्षेप नहीं था ) । सुकवि रमेश हठीला जी के स्‍मृति में ये सम्‍मान प्रतिवर्ष ब्‍लाग से जुड़े एक कवि को प्रदान किया जायेगा । तथा हर वर्ष इस सम्‍मान के नाम की घोषणा जनवरी माह में की जायेगी, तथा उसी वर्ष आयोजन में ये सम्‍मान समारोह पूर्वक प्रदान किया जायेगा । इस वर्ष के लिये जो चयन समिति बनाई गई थी उसने सर्व सम्‍मति से वरिष्‍ठ शायर श्री नीरज जी गोस्‍वामी के नाम की अनुशंसा की है ।    चयन समिति ने अपनी चयन प्रक्रिया में पिछले वर्ष के तरही मुशायरों के साथ समग्र रचना प्रक्रिया, साहित्‍य के प्रति समर्पण जैसी बातों को आधार बनाया है ।  सो आज महाशिवरात्री के अवसर पर महाकालेश्‍वर बाबा की अनुमति लेते हुए  प्रथम सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान, श्री नीरज गोस्‍वामी जी को दिये जाने की विधिवत घोषणा की जाती है ।

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श्री नीरज गोस्‍वामी

नीरज गोस्वामी का जन्म 14 अगस्त 1950 को जम्मू में हुआ। इंजिनियरिंग स्नातक नीरज जी लगभग 30 वर्षों के कार्यानुभव के साथ वर्तमान में भूषण स्टील मुम्बई में असिसटैंट वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत हैं।

बचपन से ही साहित्य पठन में इनकी रुचि रही है। अनेक जालघरों में इनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने अनेक नाटकों में काम किया और पुरुस्कार जीते हैं। नीरज जी वर्तमान समय के एक महत्‍वपूर्ण शायर हैं । इनकी ग़ज़लों में बहुत सादगी से बात कही जाती है । साहित्‍य के प्रति इनका अनुराग ही इनको किताबों की दुनिया से जोड़े हुए है जहां ये कुछ जानी कुछ अनजानी किताबों की चर्चा करते हैं ।

बहुत सी बधाई तथा शुभकामनाएं श्री नीरज जी को ।

अंत में भगवान महाकालेश्‍वर की सम्‍पूर्ण मंगला आरती के साथ सबको महाशिवरात्री की मंगल कामनाएं ।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

डॉ मोहम्‍मद आज़म और धर्मेंद्र सिंह सज्‍जन कह रहे हैं : टूटी फूटी सी हवेली है अभी तक गाँव में, एक गइया संग दादी है अभी तक गाँव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति मुशायरा

16-20

कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

तरही धीरे धीरे चलती हुई अपने अंतिम पड़ाव पर आ रही है । लेकिन इसके बाद ही तुरंत होली की तरही की भूमिका बन रही है । सो बस कुछ दिनों के बाद ही फिर से नया धमाल । वैसे अभी तो अगले सप्‍ताह और ये मुशायरा जारी रहना है। उधर सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान को लेकर भी चयन समिति काफी मशक्‍कत कर रही है । तथा जो सूचनाएं आ रही हैं उससे पता चलता है कि महाशिवरात्री के दिन हम उस सम्‍मान की घोषणा करने की स्थिति में आ जाएंगे ।

होली का तरही मुशायरा

खैर तो पहले बात की जाये होली के तरही मुशायरे की । जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होने जा रहा है । पहले पीडीएफ की शक्‍ल में जारी होगा दिनांक 5 मार्च को और फिर होली के धमाल के रूप में वो ही ब्‍लाग पर उपलब्‍ध होगा । इस अंक में रचनाएं यदि आप 1 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्‍य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्‍छा होगा । ग्राफिक्‍स का काम करने में उससे मदद मिलेगी । परिचय अवश्‍य भेजें क्‍योंकि उसे ही आपके होली के हास्‍य परिचय में तब्‍दील किया जायेगा । चूंकि बहुत कम समय है इसलिये बहर और रदीफ काफिये दोनों ही आसान दिये जा रहे हैं ।

होली का मिसरा-ए-तरह

''कोई जूते लगाता है, कोई चप्‍पल जमाता है''

बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ

ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है । हास्‍य रस में सराबोर हज़ल । हास्‍य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये । और हां होली के इस विशेष अंक के लिये आप हज़ल के अलावा भी और कुछ भेजना चाहें जैसे हास्‍य समाचार, हास्‍य विज्ञापन, हास्‍य समीक्षाएं, हास्‍य पाठक के पत्र तो उनका भी स्‍वागत है । चूंकि ये पूरी तरह से पत्रिका के रूप में आ रहा है इसलिये कोशिश की जायेगी कि इसे पूर्ण पत्रिका का ही स्‍वरूप दिया जा सके । तो उठाइये क़लम और हो जाइये शुरू ।

तरही में आज सुनते हैं डॉ मोहम्‍मद आज़म और धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्‍जन की शानदार ग़ज़लें ।

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डॉ मोहम्‍मद आज़म

आज़म जी इन दिनों भोपाल के मुशायरे खूब लूट रहे हैं । उनके कहने का अंदाज़ भी लोगों को खूब पसंद आ रहा है । तरही के अंकों में वे आते रहे हैं तथा यहां भी श्रोताओं का मन जीतते रहे हैं । तो आइये आज उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़जल 

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टूटी  फूटी  सी  हवेली  है  अभी  तक  गाँव  में
पूर्वजों  की  इक  निशानी  है  अभी  तक  गाँव  में

घी  दही  या  दूध  हो , विश्वास  हो  या  प्यार  हो
इन  में  से  हर  एक  असली  है  अभी  तक  गाँव  में

दुःख  सभी  का  दुःख  यहाँ  पर , सुख  सभी  का  सुख  यहाँ
एकता  ऐसी  मिसाली  है  अभी  तक  गाँव  में

रिश्तों  की  पाकीजगी  ,छोटे  बड़ों  का  एहतेराम
ऐसी  ही  तहज़ीब  बाक़ी  है  अभी  तक  गाँव  में

खेत  में  ,खलयान  में  पहले  पहुँच  जाते  हैं  लोग
बाद में  फिर  सुब्ह आती  है  अभी  तक  गाँव  में

जिसके  साये  में  सियासी  सरहदें  बिलकुल  नहीं
'इक  पुराना  पेड़  बाक़ी  है  अभी  तक  गाँव  में ''

शहर  'आज़म' आ  गए  जिस  राह  से  चलते  हुए
वो  हमारी  राह  तकती  है  अभी  तक  गाँव  में

घी दही और दूध के साथ विश्‍वास को बहुत सुंदर तरीके से गूंथा है मिसरे में और सबको असली बता कर एक करारा व्‍यंग्‍य किया है शहर की व्‍यवस्‍था पर । दुख सभी का दुख यहां पर और सुख सभी का सुख यहां बहुत सुंदर बात कही है ।  गिरह को शेर भी बहुत अलग तरीके से कहा गया है । और फिर मकते के शेर में जिस प्रकार से राह को ही राह तकते हुए बताया है वो सुंदर बन पड़ा है । वाह वाह वाह ।

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्‍जन

धर्मेंद्र कुमार जी ने दोनों ही मिसरों पर ग़ज़ल कही हैं । धर्मेंद्र जी की ग़ज़लें उनके ही अंदाज़ में होती हैं । उनकी ग़ज़लों में कुछ हट कर भाव प्रतीक और बिम्‍ब होते हैं । ये कहा जा सकता है कि उन्‍होंने अपनी कहन का अपना अंदाज़ विकसित कर लिया है । ये हर रचनाकार के लिये ज़रूरी होता है कि उसका अपना एक अंदाज़ बन जाये । तो आइये सुनते हैं दो शानदार ग़ज़लें ।

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एक गइया संग दादी है अभी तक गाँव में
शुद्ध गंगा स्वच्छ काशी है अभी तक गाँव में

रुख़ हवा का है तुम्हारे साथ तो ये मान लो
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में

एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता शहर
एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में

स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में

आँख से चंचल नदी की उस बिचारे ने पिया
लोग कहते वो शराबी है अभी तक गाँव में

मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले
आँसुओं की सेज बिछती है अभी तक गाँव में

छोड़ कर हमको हठीला जी गए गोलोक, पर
वायु उनके गीत गाती है अभी तक गाँव में

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नीम पीपल आम साथी हैं अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

सर झुकाते हैं सभी को छू चुकें जब आसमाँ
बाँस के ये पेड़ काफी हैं अभी तक गाँव में

चाय का वर्षों पुराना स्वाद जिंदा है अभी
शुक्र है दो चार तुलसी हैं अभी तक गाँव में

भूल जाता गंध माटी की मैं यारब शुक्रिया
रहगुजर कुछ एक कच्ची हैं अभी तक गाँव में

छान उठाते दूसरों की, छोड़ कर पूजा तेरी
शुक्रिया रब ऐसे पापी हैं अभी तक गाँव में

मुंह अधेरे ही किसी की याद में महुआ तले आंसुओं का बिछना, बहुत लयात्‍मकता के साथ चित्रकारी की है शायर ने । गांव और शहर की तुलना को गुड़ की जलेबी के प्रतीके के रूप में सलीके से कह दिया गया है । कि स्‍वाद में बेजोड़ तो है लेकिन चूंकि शहर को तो रंग रूप चाहिये होता है इसलिये गुड़ की जलेबी तो गांव में ही रहेगी । दूसरी ग़ज़ल में कच्‍ची रहगुज़र के बहाने से माटी की गंध को याद रखने की बात सुंदर तरीके से कही गयी है । लेकिन कहन में सबसे जानदार शेर बना है जिसमें ईश्‍वर से कहा जा रहा है कि दूसरो की छप्‍पर छानी में हाथ लगाने के लिये पूजा छोड़ने वाले भले ही पूजा छोड़ने के दोष के कारण पापी हों लेकिन शुक्र है कि ऐसे पापी अभी भी गांव में हैं । जिस बात को कहने के लिये प्रवचनकारों को कई सारी बातें कहनी होतीं उसको दो पंक्तियों में कह डाला है शायर ने । वाह वाह वाह ।

होली का मिसरा ए तरह, नियम और शर्तें आपने नोट कर ही ली होंगीं । समय कम है सो शीघ्रता दिखलाइये । देते रहिये दाद, मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

शेषधर तिवारी जी और सौरभ पाण्‍डेय जी यानि आज टोटल इलाहबादिया ग़ज़लें :- शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसे, शान मूँछों की निराली है अभी तक गांव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
-स्‍वर्गीय अदम गोंडवी जी

आज वर्तमान समय के सबसे महत्‍वपूर्ण शायर स्‍वर्गीय अदम गोंडवी जी का ये मतला और शेर कोट करने के पीछे एक महत्‍वपूर्ण कारण है । असल में इस मतले का मिसरा उला अपने आप में सब कुछ कह रहा है । सब कुछ, कि क्‍यों आज का कवि आज का शायर समकालीन लेखन नहीं कर पा रहा है । असल में वो लोक को भूल गया है । और यही कारण है कि उसमें वो तत्‍व नहीं हैं जो लोक से उठ कर आते थे । गोंडवी जी ग़ुस्‍से के शायर थे, वे ग़लत को ग़लत कहने वाले शायर थे । इसीलिये उन्‍होंने कहा कि ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में । आज की दोनों ग़ज़लें ठेठ अंदाज़ में बातें कर रही हैं । जिसमें समधी है, जेवनार है, मूंछें हैं, सुहागन हैं, मनौती है, भिनसार है अर्थात वे सारे शब्‍द हैं जिनको ग़ज़ल में रखने की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी । यदि ये शब्‍द ग़ज़ल में हैं तो हमें स्‍वीकार करना चाहिये कि लोक की कविता आज भी सबसे सशक्‍त कविता होती है । अब हमें ग़ज़ल के शब्‍दकोश को विस्‍तृत करना होगा । उसमें लोक के ठेठ और भदेस शब्‍दों को शामिल करना होगा । आदमी की कविता उसी की भाषा में होनी चाहिये, तब ही तो वो पसंद करेगा । श्री नीरज गोस्‍वामी जी की मुम्‍बइया ग़ज़लों को मैं बहुत पसंद करता हूं तो उसके पीछे भी कारण यही है कि उसमें आदमी से आदमी की भाषा में बात की जा रही है । बस एक बात कि ''श्रोताओं को मंगल ग्रह की भाषा में कविता सुनाना बंद करिये, उससे उसकी ही भाषा में बात करिये, फिर देखिये वो कैसे आपका मुरीद होता है ।'' तो आइये सुनते हैं ये दो सुंदर ग़ज़लें श्री शेषधर तिवारी जी से और श्री सौरभ पाण्‍डेय जी से ।

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श्री शेषधर तिवारी जी

शेष जी इलाहाबाद से हैं । वही इलाहाबाद जहां का अमरूद बहुत प्रसिद्ध होता है । लेकिन जिस सुंदरता के साथ श्री तिवारी  जी ग़ज़लें कहते हैं उससे लगता है कि अब इलाहाबाद में ऐ प्रसिद्ध चीज़ और बढ़ने वाली है और वो है श्री तिवारी जी के अशआर । उनकी ग़ज़लें ठेठ अंदाज़ में भदेस होकर बातें करती हैं । आइये उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर गज़ल़

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कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
पीढ़ियों की ये निशानी हैं अभी तक गाँव में

वक़्त रोने और हँसने का हमें मिलता नहीं
छोरियाँ कजरी सुनाती हैं अभी तक गाँव में

शादियों के जश्न में जेवनार पर समधी हँसें
गालियाँ लगती सुहानी हैं अभी तक गाँव में

बेटियों सा प्यार बहुएँ पा रहीं शायद तभी
सास के वो पाँव धोती हैं अभी तक गाँव में

आपसी रिश्तों में तल्खी आ नहीं पाती यहाँ
छोहरी, बायन औ सिन्नी  हैं अभी तक गाँव में

हैं हठीले आज भी गांवों में सच्ची सोच के 
बातें सच्ची हैं तो सच्ची हैं अभी तक गाँव में

छोहरी - रबी की फसल घर में आने पर सबसे पहले सत्तू बनाकर गाँव भर के छोरों छोरियों को खिलाया जाता है
बायन - शादी या गौने की बिदाई में बहू के साथ आये लड्डू आदि मिठाइयों को गाँव भर में बांटा जाता है
सिन्नी - गन्ने से खांड और गुड बनाने पर पहले पाग से बच्चों को खिलाया जाता है

मित्रों आज पहले एक ही शेर की बात जिसमें छोहरी, बायन और सिन्‍नी का जिक्र आया है । गांव के रिश्‍तों को बहुत बारीकी के साथ विश्‍लेषित किया है इस शेर में । यूं कि मानों हमारे आज की पूरी पड़ताल कर दी गई है । तल्‍खी को मिटाने का सबसे अच्‍छा तरीका कि गांव भर के बच्‍चों को बुला कर उन्‍हें खिला पिला दो, नई बहू के साथ आई मिठाई को गांव भर में बांट दो । वैसे हमारे यहां तो मिठाई पर आटे के समधी और समधन भी बने आते हैं क्‍या आपके यहां भी आते हैं । शादियों के जश्‍न में जेवनार पर हंसते समधियों की बात ही निराली है । खूब चित्रकारी की है तिवारी जी ने ।  वाह वाह वाह ।

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श्री सौरभ पाण्‍डेय जी

आज के दूसरे इलाहाबादी श्री पाण्‍डेय जी भी देशज शब्‍दों का प्रयोग बहुत सुंदर तरीके से अपनी ग़जलों में करते हैं । इनसे हमको आने वाले होली के तरही मुशायरे में बहुत सी उम्‍मीदें हैं । क्‍योंकि होली भले दुनिया भर में मनाई जाती हो लेकिन जो बात उत्‍तर प्रदेश की होली की है वो तो अलग ही है । तो आइये सुनते हैं श्री पाण्‍डेय जी से उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।

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आपसी व्यवहार बासी है अभी तक गांव में
हो न हो मौसम चुनावी है अभी तक गांव में

क्या कहूँ ज़ज़्बात रिश्तों दोस्ती व्यवहार की
बिल्लियों-बंदर की यारी है अभी तक गांव में

बाँस कोठी, आम-महुओं के बगीचे बिक गये
खेल लेकिन ’डोल-पाती’ है अभी तक गांव में

इस नगर या उस नगर वो  हो रहा आबाद  पर
आपसों में वो ज़ुबानी है अभी तक गांव में

गालियों में बात, आँखें लाल तिसपर गोलियाँ
सब सही, पर शांति कितनी है अभी तक गांव में

हो गई कुछ तीतरी या फिर बटेरी ज़िन्दग़ी
साथ कंप्यूटर के धोती है अभी तक गांव में

शह्र के अंदाज़ मौज़ूं,  रीढ़ तक सीधी नहीं
शान मूँछों की निराली है अभी तक गांव में

हर सुहागिन की मनौती सुन रहा है ग़ौर से
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

अनमने दालान में भिनसार तक धुरखेल सी  
आस झूली चारपायी है अभी तक गांव में

जानती है रात ’सौरभ’ टूटना होता है क्या
चांद फिर भी रोज़ बुनती है अभी तक गांव में

बात आखिरी के तीन शेरों और मक्‍ते की । गिरह के शेर में जिस प्रकार से सुहागिन की मनौती को गौर से सुनने की बात कही है वह सुंदर बन पड़ी है । और अनमने से दालान में पड़ी चारपाई क्‍या बात है । यूं लगता है कि आंखें बंद करो और गांव में पहुंच गये । नींबू को टिका रखने वाली मूंछों पर लिखा गया शेर गुदगुदा रहा है । लेकिन बात मक्‍ते की क्‍या बात है कितनी सुंदरता से बात कही गई है । जानती है रात सौरभ टूटना होता है क्‍या बहुत सुंदरता के साथ गढ़ा है शेर को । वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये इन दोनों सुंदर ग़ज़लों का दाद देते रहिये और मिलते हैं अगले अंक में जिसमें होगी होली के तरही मिसरा की घोषणा और यदि निर्णायक मंडल ने नाम भेज दिया तो प्रथम सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान की भी घोषणा ।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

शार्दूला नोगजा जी और रविकांत पांडेय के साथ आइये प्रेम की ये चतुर्दशी मनाएं- कौन कहता है मेरा अपना वहां कोई नहीं, इक हठीली धुन तुम्हारी है अभी तक गाँव में

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

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इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गांव में

आज प्रेम की चतुर्दशी है । देशज में कहें तो प्रेम चौदस । प्रेम किसको नहीं चाहिये । ईश्‍वर ने ये सृष्टि प्रेम से ही तो रचाई है । किन्‍तु हमने ही उस प्रेम के स्‍थान पर घृणा का सृजन कर दिया । घृणा को ईश्‍वर ने नहीं बनाया । वो इन्‍सान की बनाई हुई है । किन्‍तु फिर ये भी कि क्‍या प्रेम के लिये केवल एक ही दिन । क्‍या केवल 14 फरवरी को ही प्रेम किया जाये । और क्‍या केवल एक लड़की एक लड़के से ही प्रेम करे या एक लड़का एक लड़की से ही प्रेम करे । फिर परिवार जनों से, दोस्‍तों से, और उन सबसे जिन्‍हें हम जानते तक नहीं, क्‍या उन सबसे प्रेम नहीं किया जाये । बात केवल वही है कि भारतीय परंपरा में प्रेम के लिये कोई खास दिन नहीं है क्‍योंकि हम मानते हैं कि प्रेम के लिये तो पूरी उम्र छोटी पड़ती है फिर केवल एक दिन में कैसे हो सकता है । हम मानते हैं कि प्रेम तो जीवन भर करते रहने का नाम है । जिस दिन हम प्रेम करना बंद कर देते हैं उस दिन हमारी मेंटल डेथ हो जाती है । उसके बाद हम केवल और केवल विरचुअल लाइफ जीते हैं । आभासी जिंदगी । जिंदगी है तो प्रेम है, प्रेम है तो जिंदगी है । और इस बात को बहुत पहले आई फिल्‍म सौदागर के गीत 'हर हंसी चीज का मैं तलबगार हूं ' में बहुत अच्‍छे से व्‍यक्‍त किया था । नदी, पेड़ परबत, झरने, तितलियां, चिडि़यां, फूल, सब तो हमारे वेलेण्‍टाइन हैं, हम प्रेम तो सबसे करते हैं ।

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खैर फिर भी परंपरा है कि एक दिन भी प्रेम को लेकर सजग रहो तो ठीक है मैं भी आपको प्रेम की चतुर्दशी की शुभकामनाएं देता हूं और ये कि आप सबका मेरे प्रति प्रेम इसी प्रकार बना रहे, मैं आज जो हूं, जहां हूं इस प्रेम के ही कारण हूं । आइये प्रेम चतुर्दशी पर सुनते हैं दो गीतकारों की ग़ज़लें ।

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शार्दूला नोगजा जी

शार दी से मेरी अभी कुट्टी चल रही है । और ये कुट्टी मैंने ही की हुई है । अभी मेरी नाराजगी खत्‍म होने की कोई सूरत नहीं दिखाई पड़ती है । शार दी के गीतों में चंदन की सुगंध और चांदनी की ठंडक होती है । जाहिर सी बात है कि ऐसे में ग़ज़ल तो होगी ही सुंदर । कल कवि सम्‍मेलन में कवि श्री विष्‍णु सक्‍सेना ने कहा कि पंकज भाई ग़ज़ल में ग़ज़ब की सोच होती है और गीतों में विलक्षण सौंदर्य होता है यदि इन दोनों का मेल हो जाये तो आनंद ही आ जाये । शार दी की ग़ज़लें दरअसल इसी मेल का उदाहरण होती हैं ।

Tree of Love

देहरी पग की सवाली  है अभी तक गाँव में
मटकुरी लटकी अटारी  है अभी तक गाँव में
               

गोपियाँ कब मान पाईं, कृष्ण मथुराधीश हैं
श्याम वृन्दावन-बिहारी है अभी तक गाँव में

सर उठा, सब ग़म उठा, सरगम उठा के जी गए
इक हठीली  धुन तुम्हारी है अभी तक गाँव में

बाढ़ के पग रुक गए, तूफ़ान का सिर झुक गया
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

खेलती है  दोपहर कब्बा, पचीटे, रस्सियाँ
लोरियाँ रजनी सुनाती है अभी तक गाँव में

लील लेता है नगर मासूमियत, इंसानियत
आचरण सर्वोपकारी है अभी तक गाँव में

बात क्या तुम कर रही हो गाँव सच ऐसे कहाँ
दुःख, जहालत, बेलदारी  है अभी तक गाँव में

बाप-दादा ने लिया पर क़र्ज़ के चुकता नहीं
दानवी सी देनदारी है अभी तक गाँव में

अनमनी सी ट्यूबवैलें  और बिजली लापता
सूखती खेती-पथारी है अभी तक गाँव में
  
गोपियां कब मान पाईं कृष्‍ण मथुराधीश हैं, श्‍याम वृन्‍दावन विहारी है अभी तक गांव में, इस शेर को जिस दिन पढ़ा था उस दिन स्‍तबध सा रह गया था । कुछ समझ नहीं आ रहा था क्‍या लिखूं । यूं जैसे कि कोई सन्निपात सा हो गया हो । ये वो शेर है जिसकी विवेचना को मर्मज्ञ पूरे पूरे दिन कर सकता है । ये आनंद का शेर है ये पीर का शेर है ये आध्‍यात्‍म का शेर है । इस शेर को समझने के लिये कृष्‍ण को नहीं गोपियों को समझना होगा । इस मिसरे में कृष्‍ण के लिये 'हैं' और श्‍याम के लिये 'है' का जिस सलीक़े से प्रयोग किया गया है उसे सुन कर यूं लगता है कि एक ही शेर कहने में शायद पूरे प्राण झौंक दिये गये हैं । शुतुरगुरबा का दोष तो तब बने जब एक ही व्‍यक्ति के लिये कभी ''है'' तो कभी ''हैं'' प्रयोग किया जा रहा हो, लेकिन गोपियों का श्‍याम और मथुराधीश कृष्‍ण दोनों एक हैं कब, ये तो दो अलग अलग शख्‍सीयत हैं । मुझे नहीं मालूम बाकी के शेर ग़ज़ल के क्‍या हैं । मैं उनकी बात नहीं करना चाहता हूं, वो आप करें । मैं किसी और शेर की बात करके इस एक शेर का आनंद कम नहीं करना चाहता । वाह वाह वाह ।  

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रविकांत पांडेय

रवि भी मूल रूप से गीतकार है । रवि की ग़ज़लों में भी गीतों का ही शिल्‍प और बिम्‍ब होते हैं । ये होता ही है । क्‍योंकि हम मूल रूप से किसी एक विधा के सिद्धहस्‍त होते हैं । और हम उस विधा से जुड़ी किसी अन्‍य विधा में भी यदि काम करते हैं तो भी हमारी रचनाओं में मूल विधा की झलक मिलती ही है । तो रवि की ग़ज़लें भी गीतों और ग़ज़लों की संकर नस्‍ल है । आइये सुनते हैं ये सुंदर ग़ज़ल ।

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ढोलकों की थाप न्यारी है अभी तक गांव में
यानि हंसती ज़िंदगानी है अभी तक गांव में

कौन कहता है मेरा अपना वहां कोई नहीं
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गांव में

मैं पतंग उड़ती शहर के आसमां में शान से
पर बंधी यूं डोर मेरी है अभी तक गांव में

शहर में तुमको मिलेंगे कागजों के फ़ूल बस
रिश्तों में पर रातरानी है अभी तक गांव में

वो छलकती बूंद जल की, भीगती धानी चुनर
वो नदी, पनघट, वो गगरी है अभी तक गांव में

शहर में तो सूखकर नाला हुआ है ये मगर
प्यार के दरिया में पानी है अभी तक गांव में

कोई पागल सरफ़िरा था, सबसे से जिसको प्रेम था
मेरे पीछे ये कहानी है अभी तक गांव में

शहर में तो सूखकर नाला हुआ है ये मगर, बहुत गहरी बात को सरलता से कह दिया गया है । सचमुच शहर में आकर प्‍यार का दरिया जाने कैसे यूं ही सूख जाता है । इतना कूड़ा करकट जमा हो जाता है कि बस । और वेलेण्‍टाइन डे की भावनाओं को व्‍यक्‍त करता आख्रिरी शेर कोई पागल सिरफिरा था सबसे जिसको प्रेम था , खूब कहा है ये । गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है मेरा अपना कोई होना मन को गहरे छू रहा है । वो छलकती बूंद जल की में सुंदर शब्‍द चित्र है । पूरा का पूरा दृश्‍य सामने आ रहा है । सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये दोनों ग़ज़लों का दाद देते रहिये और मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

इस्‍मत ज़ैदी जी और वीनस केशरी से सुनते हैं - पक्षियों की चहचहाहट ,सुब्ह की ठंडी हवा, हर पुराना रंग बाकी है अभी तक गाँव में

सु‍कवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गाँव में

पिछली बार के अंक में नीरज जी ने जो फूल के कुप्‍पा होती रोटियों का शब्‍द चित्र बनाया वो अभी तक आनंद दे रहा है । बहुत उम्‍दा । आइये आज तरही को आगे बढ़ाते हैं । इसके बाद अगला अंक लगने में शायद कुछ विलम्‍ब होगा क्‍योंकि कल सुब्‍ह कुछ मुशायरों के लिये निकलना है । इस बीच होली के तरही के लिये मिसरा भी तय करना है । खैर आइये आज सुनते हैं इस्‍मत ज़ैदी जी और वीनस केशरी से उनकी सुंदर ग़ज़लें ।

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आदरणीया इस्‍मत ज़ैदी जी

इस्‍मत दीदी की ग़जलों में सबसे महत्‍वपूर्ण बात ये होती है कि बड़ी बड़ी बातों को बहुत ही सादगी के साथ वे कह देती हैं । उनकी ग़ज़लें स्‍वस्‍फूर्त होती हैं, वे लिखने के लिये नहीं लिखतीं बल्कि विचार जब क़लम उठाने पर मजबूर कर देते हैं तब लिखती हैं । आइये उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़ज़ल ।

tree-of-life

गोरियाँ पनघट पे जाती हैं अभी तक गाँव में
प्रीत की राहों के राही हैं अभी तक गाँव में

पायलों से सुर मिलाती वो खनकती चूड़ियाँ
लोक धुन पर गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हाँ, रहट की वो सदाएं मुझ को शहनाई लगें
आरज़ूएं कुछ बुलाती हैं अभी तक गाँव में

पक्षियों की चहचहाहट ,सुब्ह  की ठंडी हवा
चुनरियाँ खेतों की धानी हैं अभी तक गाँव में

झोपड़ी, खलिहान, पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
याद के कुछ फूल बासी हैं अभी तक गाँव में

छोड़ आए थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले
झील सी आँखें वो प्यासी हैं अभी तक गाँव में

संस्कारों के, क्षमा के, दान के और त्याग के
"कुछ पुराने पेड़ बाक़ी हैं अभी तक गाँव में"

क्या बुज़ुर्गों का है दर्जा, मान क्या, सम्मान क्या
माँएं बच्चों को सिखाती हैं अभी तक गाँव में

भूल कर भी अपनी मिट्टी को न भूलेगी ’शेफ़ा’
कुछ जड़ें गहरे समाई हैं अभी तक गाँव में

छोड़ आये थ जिन्‍हें तुम गांव के बरगद तले, क्‍या कहूं, क्‍या लिखूं इस मिसरे के बारे में । यूं लगता है कि जैसे लोकशैली में किसी सिद्धहस्‍त चित्रकार ने बहुत सुंदर पेंटिंग बना दी है । पूरा चित्र आंखों के सामने उभर रहा है । अहा  । पायलों से सुर मिलाती हैं खनकती चूडि़यां, अहा एक और सुंदर चित्र । क्‍या बुजुर्गों का है दर्जा में गहरी बात कह दी गई है । गिरह का शेर और मक्‍ता दोनों ही बहुत खूबसूरत बन पड़े हैं । मतला और उसके ठीक बाद का शेर तो अपने आप में एक मुक्‍तक हैं सुंदर मुक्‍तक । वाह वाह वाह ।

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वीनस केशरी

उधर प्रकाश अर्श के घोड़ी पर चढ़ने की तैयारी हुई और इधर गुरुकुल के कुंवारे शायरों के मन में लड्डू फूटने लगे हैं । ऐसा लगता है कि बस इस साल के खत्‍म होने तक हमारे पास कुंवारों का स्‍टाक ख़त्‍म हो जायेगा । वीनस केशरी भी कुंवारों की उस लिस्‍ट में सबसे ऊपर चल रहे हैं । तथा आशा भरी नजरों से बहन कंचन की तरफ देख रहे हैं 'जैसे उनके दिन फिरे' । आइये सुनते हैं वीनस की ये सुंदर ग़ज़ल ।

mnMQeji

एक चूल्हे की समाई, है अभी तक गाँव में
लौट चल खेती किसानी है अभी तक गाँव में

अनकही हर एक कहानी है अभी तक गाँव में
हर ओसारे* एक होरी है अभी तक गाँव में

सुब्ह झुलसी शाम काली है अभी तक गाँव में
हादसों से जंग जारी है अभी तक गाँव में

लोकगीत अब भी यहाँ की ज़िंदगी में है घुला  
गीत, फगुआ और कजरी है अभी तक गाँव में

शह्र में सम्बन्ध सब अनुबंध होते जा रहे
खूब रिश्तों की कमाई है अभी तक गाँव में

ताल - पोखर, खेत - बगिया, झोपड़ी, ढेकुल - कुआँ   
हर पुराना रंग बाकी है अभी तक गाँव में

इक कसम, दो चार वादे, मैं न पूरे कर सका
ये खनकती फौजदारी है अभी तक गाँव में

शह्र  अंधी दौड में ले जा रहा जाने कहाँ 
दिन ध्रुपद है शाम ठुमरी है अभी तक गाँव में

मेरे पुरखों ने लगाया था जिसे मेरे लिए
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

दिन में चूल्हा जल गया तो शाम को फाकाकशी
बेबसी की बैलगाड़ी है अभी तक गाँव में

शह्र से कुछ रहनुमा आये थे खुशियाँ बांटने
इक कसैला खौफ तारी है अभी तक गाँव में

श्रद्धेय हठीला साब के लिए -
सादगी, जिंदादिली, यायावरी, बेबाकपन
शह्र की लंबी उधारी है अभी तक गाँव में

कभी कभी एक मिसरा ही ऐसा हो जाता है कि पूरी ग़ज़ल उसके सामने फीकी हो जाती है । अब क्‍या जाये उस 'खनकती फौजदारी' को लेकर । उफ मानो बरसों के इंतजार को स्‍वर मिल गया हो । ताल पोखर खेत बगिया में सारे रंगों को सुंदरता के साथ समेटा गया है । दिन में चूल्‍हा जल गया तो शाम को फाकाकशी बहुत सुंदर तरीके से बात कह दी गई है । शहर से कुछ रहनुमा शेर भी सुंदर बन पड़ा है । और हठीला जी को समर्पित शेर भी मिसरा उला में श्री हठीला जी को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त कर गया है । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

तो देते रहिये दाद और लेते रहिये आनंद मिलते हैं अगले अंक में कुछ और शायरों के साथ । 

और अंत में कुछ तस्‍वीरें ।

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