मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

बहरे हजज का कारवां कुछ और आगे की बातें , और बहरों के नामकरण की तकनीक की जानकारी ।

अभी रविवार को ही बैठकर एक ग़ज़ल पर काम कर रहा था । जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि आजकल हिंदी की ग़ज़लें लिखने का काम कर रहा हूं । उस पर भी ऐसी ग़ज़लें जिनमें हुस्‍न इश्‍क, जामो मीना, जैसी बातें न आयें केवल वर्तमान हालात की बातें हों । लिखते लिखते ही उस ग़जल में ये शेर भी बन गया जो ऊपर शीर्षक में लगाया है मिला हो रक्‍त मानव का भले ही, मगर भोजन निरामिष है महोदय एक और शेर उसमें कुछ ऐसा बना है समंदर ताल नदियां आप रख लो, हमारे पास बारिश है महोदय ।

खैर ये तो हुई अपनी बात अब चलिये विषय को आगे खिसकाते हैं । बात चल रही थी पिछली बार बहरे हजज़ की जिसके बारे में मैंने बताया था कि ये एक गाई जाने वाली बहर है । जिसमें कई सारी उप बहरें ऐसी हैं जिनको कि गाने के लिये ही उपयोग किया जाता है । आज के शीर्षक में जो शेर लगा है वो भी एक ऐसी ही बहर है जिसका नाम  है बहरे हजज़ मुसद्दस महज़ूफ और इसके रुक्‍न हैं मुफाईलुन-मुफाईलुन-फऊलनु । अब पिछले सबक को देखकर आप ये तो कह ही सकते हैं कि स्थिर रुक्‍न मुफाईलुन है सो ये हजज़ है । तीन रुक्‍न हैं सो ये मुसद्दस है । मगर ये महज़ूफ क्‍या बला है । आइये आज इसी के बारे में कुछ बातें करते हैं कि ये महज़ूफ क्‍या बला है । दरअस्‍ल में जब बहरों का नाम करण किया जाता है तो उसमें ये देखा जाता है कि बहर के सामिल रुक्‍न के अलावा परदेशी रुक्‍न कौन कौन से हैं । सालिम रुक्‍न का मतलब होता है कि उसे बहर का स्थिर रुक्‍न जैसे कि बहरे हजज़ का स्थिर रुक्‍न है मुफाईलुन । तो सबसे पहले तो उन परदेशियों की पहचान की जाती है और फिर उनका नाम तलाश जाता है । नाम तलाशा जाता है से मतलब ये कि बहरे हजज़ में आने वाले रुक्‍नों की एक फेहरिस्‍त है उस फेहरिस्‍त में ये ढूंढा जाता है कि इस रुक्‍न का नाम क्‍या है । अब एक और सवाल ये आ गया कि बहरे हजज़ में आने वाले रुक्‍न से क्‍या अर्थ । दरअस्‍ल में बहरे हजज़ में कुछ निश्चित रुक्‍न ही आ सकते हैं । आप ऐसा नहीं कर सकते कि अपने मन से एक रुक्‍न को मुफाईलुन के साथ लगा दें और कह दें कि ये बहरे हजज़ हैं क्‍योंकि इसमें रुक्‍न है मुफाईलुन और साथ में एक परदेशी रुक्‍न है ।

दरअस्‍ल में हजज़ में मुफाईलुन  जैसी ही ध्‍वनियों वाले रुक्‍न आ सकते हैं । जैसे मफऊलु 221, फऊलुन 122, मुफाईलु 1221, फाएलुन 212, मुफाएलुन 1212, मफऊलुन 222, ये सारे के सारे रुक्‍न जो हैं ये उसी प्रकार की ध्‍वनि के हैं जो कि मुफाईलुन की है । इसीलिये इनका उपयोग हजज़ में किया जाता है । अब ये जा परदेशी हैं उनके कुछ तय नाम हैं । ये याद रखें के ये नाम हजज़ में ही हैं मुफाएलुन रुक्‍न का नाम जो हजज़ बहर में है वो ज़रूरी नहीं कि उसका वही नाम बहरे रजज़ में भी हो । अर्थात हर रुक्‍न का नाम बहर में जाकर बदल जाता है । कभी कभी ये एक ही हो सकता है ।

अब जैसे मफऊलु  भाई साहब का नाम है अख़रब भैया अब जिस भी हजज़ की बहर में ये अखरब भैया आ जाएंगें उस बहर में बहरे हजज़ के साथ एक नाम और लगेगा अख़रब । ये जो फऊलुन भाई हैं इनको कहा जाता है महज़ूफ भाई मतलब जिस भी बहर में ये आयेंगें उसके नाम में इनका नाम महज़ूफ भी लगेगा जो कि ऊपर शीर्षक  वाले शेर के नाम में लगाया गया है  । अब बात करते हैं फाएलुन की ये जब भी बहरे हजज़ में पाये जायेंगें तो इनका नाम होगा अशतर  और ये नाम जुड़ जायेगा बहरे हजज़ के साथ भी । मुफाएलुन  का नाम है मकबूज़ और मफऊलनु  का नाम है अख़रम, मुफाईलु को कहीं कहीं मकसूर  कहा जाता है और कहीं मकफूफ ।  इस प्रकार से ये कुछ ऐसे ना म हैं जिनका उपयोग नामकरण के दौरान किया जाता है । अब वापस ऊपर वाले शेर की बात करें कि उसका नाम वही क्‍यों है ।

मिला हो रक्‍त मानव का भले ही, मगर भोजन निरामिष है महोदय

1222-1222-122                           1222-1222-122

ऊपर से देखने में ये तो समझ में आ रहा है कि स्‍थाई रुक्‍न है मुफाईलुन सो ये हो गई बहरे हजज़ तीन रुक्‍न हैं सो ये हो गई मुसद्दस बहर परदेशी रुक्‍न उसमें आ रहा है फऊलुन जिसका नाम है महज़ूफ सो इस बहर का नाम हो गया बहरे हजज़ मुसद्दस महज़ूफ ।  यदि किसी बहर में दो या जियादह परदेशी रुक्‍न आ रहे हों तो उसके नाम में सभी परदेशीयों के नाम उनके आने के क्रम में शामिल कर लिये जाते हैं । चलिये अगली बार तक के लिये जय हो । कुछ लोगों ने जाना चाहा है मेरे बारे में सोचता हूं कि बता ही दूं ताकि लोगों का भरम तो टूटे । मगर किश्‍तों में बताना कैसा रहेगा तो चलिये आज अपने बारे में एक जानकारी देता हूं ।

एक समय वो था जब में मुंबई में रहा था । लगभग एक साल तक वहां रहा था । अब ये पूछिये कि मैं वहां क्‍यों गया था । दरअस्‍ल में मैं वहां माडलिंग के लिये गया था । कुछ छोटे मोटे एसाइन्‍मेंट किये थे । एक दो छोटे मोटे सीरियल्‍स में भी काम किया था जो टेलिकास्‍ट ही नहीं हो पाये । मुम्‍बई में रहना मुझे सूट नहीं हुआ । दरअस्‍ल में वहां का भारी वातावरण जमता ही नहीं था । उस पर ये कि वहां रहकर जो काम छोटा मोटा कर रहा था उससे अपना ही खर्च नहीं निकल पा रहा था । बस इन सब कारणों के चलते लौट कर बुद्धू घर को आ गये । ये उस समय की बात है जब मेरे सिर पर बाल हुआ करते थे जो कि अब केवल मोहन जोदड़ो की तरह यत्र तत्र खुदाई में पाये जाते हैं । माडलिंग के काम से ही एक दो बार बैंगलोर भी गया था । उसके बाद जो लौटा तो फिर उस तरफ कभी देखा भी  नहीं । वहां के सारे फोटोग्राफ, पत्र, जो कुछ भी था वो सब जला दिया । तो आप ये कह सकते हैं कि ये वो जगह थी जहां से मैं असफल होकर लौटा । हो सका तो अगली पोस्‍ट में उस समय का एकाध फोटो दिखाने का प्रयास करूंगा ।

पिछले सप्‍ताह अपनी पसंद के गीत आवाज पर यहां लगाये http://podcast.hindyugm.com/2009/04/rare-songs-of-film-ek-pal-bhupen.html

और नीरज जी ने अंतत: कोर्ट कचहरी की धमकी देकर एक ग़ज़ल बुलाकर यहां लगाई

http://ngoswami.blogspot.com/2009/04/blog-post_20.html 

और यहां पर मेरे एक कमेंट के अर्थ का अनर्थ निकाला गया

http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/04/blog-post_12.html

तरही को लेकर अभी कुछ ही लोगों की ग़ज़लें आईं हैं । शीघ्र करें ।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

बहरे हजज़ के बारे में कई सारी बातें पिछली पोस्‍ट में की थीं, आज उसे कुछ आगे की बात करते हैं ।

कई लोगों को ये शिकायत है कि काफी सारी दूसरी बातें तो हा रही हैं किन्‍तु वो नहीं हो रहा है जो कि होना चाहिये । अर्थात ग़ज़ल की कक्षाएं नहीं लग रहीं हैं । तो उन सभी की शिकायतों को दूर करने के लिये कुछ कुछ कभी कभी ये भी किया जायेगा । दरअस्‍ल में जीवन वैसा नहीं होता है जैसा कि उसे समझा जाता है । जीवन उस ट्रेक पर भी नहीं चलता जिस पर आप उसको चलाना चाहते हैं । मेरे साथ भी वैसा ही कुछ है जीवन मेरे लिये उतना आसान नहीं है जितना दिखाई देता है । एक परेशानी से उबरता हूं तो दूसरी सामने आ जाती है । किन्‍तु फिर याद आती है किसी की कही हुई वो बात कि ईश्‍वर जिसको जितना प्‍यार करता है उसको उतना ही परेशानियां देता है । और फिर नये सिरे से तैयार हो जाता हूं समर के लिये । कई सारे लोग मेरे बारे में जानना चाहते हैं । वे चाहते हैं कि मैं एक पोस्‍ट में अपने बारे में जानकारी उपलब्‍ध करवाऊं । वो पोस्‍ट भी कभी लगाऊंगा और उसका शीर्षक होगा एक असफल कहानी । खैर बस मैं ये बताना चाह रहा था कि मैं जो कभी कभी गुम हो जाता हूं वो अकारण नहीं होता । बस कोई न कोई परेशानी सामने आ जाती है और फिर एक नया युद्ध लड़ने निकल जाता हूं ।

पिछली बार मैंने बात की थी बहरे हजज़ के बारे में और आज उसको ही थोड़ा बढ़ाने का काम किया जाये । बहरे हजज़ की बात करने के पहले कुछ पहले से बताये गये शब्‍दों के बारे में हम फिर से बात कर लेते हैं । जब हम बहरों की बात करते हैं  तो कुछ शब्‍द बार बार आते हैं । जैसे सबसे पहले बात करते हैं मुसमन, मुसद्दस, मुरब्‍बा  की । उनके बारे में पहले ही बात चुका हूं कि यदि हमारे मिसरे में चार रुक्‍न हैं तो हमारी बहर का नाम में मुसमन  शब्‍द लगाया जायेगा । ये इस बात का प्रतीक होगा कि आपकी ग़ज़ल में चार रुक्‍न वाले मिसरे हैं । उसी प्रकार यदि तीन रुक्‍न हैं तो उसको मुसद्दस कहा जायेगा एवं दो रुक्‍न में मुरब्‍बा   नाम होगा । अब बात करते हैं सालिम और मुजाहिफ नामों की । हर बहर के कुछ स्‍थाई रुक्‍न होते हैं । जैसे बहरे हजज़ का स्‍थाई रुक्‍न है 1222 मुफाईलुन । अब यदि कोई ग़ज़ल ऐसी है जिसमें कि सभी रुक्‍न 1222 ही हैं तो उसको हम कहेंगें सालिम बहर । यदि बहर 1222-1222-1222-1222  है तो उसका नाम हो जायेगा बहरे हजज़ मुसमन सालिम । नाम को गौर से देखें तो आप पायेंगें कि चूंकि चार रुक्‍न हैं सो बहर मुसमन  है चारों रुक्‍न 1222 हैं तो ये सालिम बहर है तथा रुक्‍न मुफाईलुन  हैं अत: ये बहरे हजज़ है। तो इस प्रकार नाम हुआ  बहरे हजज़ मुसमन सालिम । यदि किसी ग़ज़ल में रुक्‍न 1222-1222-1222  हैं तो उसका नाम होगा  बहरे हजज़ मुसद्दस सालिम  उसमें केवल मुसमन के स्‍थान पर मुसद्दस आ गया है वो इसलिये कि रुक्‍न अब चार के स्‍थान पर तीन ही हैं । यदि रुक्‍न 1222-1222  हैं तो उस बहर का नाम होगा  बहरे हजज़ मुरब्‍बा सालिम  चूंकि दो ही रुक्‍न हैं इसलिये ये मुरब्‍बा हो गया । आइये अब एक ही बात को तीन प्रकार के मिसरों में ढाल कर देखते हैं कि तीन सालिम बहरें कैसी होती हैं ।

नहीं जाना कहीं भी तुम हमें यूं छोड़कर देखो ( 1222-1222-1222-1222 मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन) बहरे हजज़ मुसमन सालिम

नहीं जाओ हमें यूं छोड़कर साजन ( 1222-1222-1222 मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन ) बहरे हजज़ मुसद्दस सालिम

नहीं जाना कहीं अब तुम ( 1222-1222 मुफाईलुन-मुफाईलुन ) बहरे हजज़ मुरब्‍बा सालिम

तो ये आपने देखा उदाहरणों से कि किस प्रकार से तीन सालिम बहरें बनती हैं । ये बहरे हजज़ की तीन सालिम बहरें हैं । सालिम का अर्थ ये कि तीनों में ही स्‍थाई रुक्‍न मुफाईलनु  का ही दोहराव किया गया है इसके अलावा कोई भी दूसरा रुक्‍न नहीं है । यदि दूसरा रुक्‍न आ जाता है तो उसको फिर सालिम न कह कर कहा जायेगा मुजाहिफ बहर ।  बहरे हजज़ का स्‍थाई रुक्‍न चूंकि मुफाईलुन है इसलिये बहरे हजज़ में यदि कोई दूसरा रुक्‍न भी उपयोग किया जायेगा तो वो भी इसी प्रकार की ध्‍वनि का ही होगा । या हम ये कह सकते हैं कि मुफाईलुन  में ही कुछ कम बढ़ कर जो रुक्‍न बने और जो लगभग इसी प्रकार की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न करे वो ही रुक्‍न यहां पर उपयोग में लाये जाते हैं । मगर उस स्थिति में बहर सालिम न रह कर मुजाहिफ हो जायेगी । अब ये समान ध्‍वनि वाले कितने रुक्‍न हो सकते हैं उनको भी देख लें ।

1  सबसे पहले तो हम ये देखते हैं कि मुफाईलुन  में से एक मात्रा कम करने पर क्‍या क्‍या समान ध्‍वनि वाले रुक्‍न आते हैं।

अ) प्रथम लघु को हटा देना 222 मफऊलुन

ब) अंतिम दीर्घ में से एक लघु को कम कर देना ताकि वो लघु रह जाये 1221 मुफाईलु

स) तीसरे दीर्घ में से एक लघु को कम कर देना ताकि वो लघु रह जाये 1212 मुफाएलुन

2 अब हम ये देखते हैं कि दो मात्राएं कम करके कितने समान ध्‍वनि के रुक्‍न बनाये जा सकते हैं ।

अ) अंतिम दीर्घ को पूरी तरह से हटा देना 122 फऊलुन

ब) एक मात्रा प्रारंभ की और एक तीसरे दीर्घ में से हटाना 212 फाएलुन

स) एक मात्रा प्रारंभ की और एक अंतिम दीर्घ में से हटाना 221 मफऊलु

तो ये होते हैं कुछ समान ध्‍वनि वाले रुक्‍न जो कि बहरे हजज़ में उपयोग किये जा सकते हैं इनके अलग अलग नाम हैं जिनकी चर्चा हम अगली पोस्‍ट में करेंगें । किन्‍तु इनके उपयोग करने की हालत में हमारी बहर सालिम न रह कर मुजाहिफ हो जायेगी ।

अब हम ये सालिम और मुजाहिफ को और समझ ते हैं एक आसान उदाहरण से । जैसे सोना, चांदी, तांबा ये सारी धातुएं हैं शुद्ध धातुएं इनको सालिम धातुएं कहा जा सकता है क्‍योंकि उनके संगठन में एक ही तत्‍व है । किन्‍तु पीतल एक मिश्र धातु है जिसमें एक से अधिक तत्‍व हैं जिनको मिलाकर पीतल बनाया गया है । इसे कहा जायेगा मुजाहिफ धातु । एक और उदाहरण जब आप खाली कोक पी रहे हैं तो आप सलिम पी रहे है किन्‍तु यदि आपने स्‍वाद बदलने के लिये कोक में आरेंज कोला भी मिला कर काकटेल बना लिया तो आपने मुजाहिफ कर दिया । मिश्र करना अर्थात मुजाहिफ कर देना ।

चलिये आज के लिये इतना ही आज मन काफी उदास है किसी काम में मन नहीं लग रहा था सो शायद आज की पोस्‍ट कुछ बोझिल होगी । कुछ दिनों से मन यूं ही सा हो रहा है ।

तरही मुशायरे के लिये अभी केचल एक ही ग़ज़ल मिली है आशा है जल्‍द ही सबका काम मिल जायेगा । मिसरा तो याद ही होगा । कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी । 212 -1222-212-1222 रदीफ है 'की खामोशी' तथा काफिया बनेगा 'अर' ।

इस अंधेरे में उदासी में भी कुछ बातें ऐसी होती हैं जो कि सुकून दे जाती हैं । गुणीजनों की प्रशंसा राह की धूप में साया बन कर सर पर आ जाती है । प्रकाश अर्श के ब्‍लाग पर श्रद्धेय महावीर जी की अपने बारे में लिखी ये टिप्‍पणी मन को छू गई अभिभूत कर गई ये वो एहसास है जो हर उदासी हर अंधेरे पर भारी पड़ जाता है । महावीर जी की उसी टिप्‍पणी के साथ आज का समापन ।

प्रकाश, एक बात पर आप से सहमत नहीं हूं जब यह कहा कि "जब गुरू जी को नवलेखन के लिए सभागार के सबसे अगली पंक्ति मे बैठने को कहा गया तो ...." मैं आप से पूछता हूं कि आपको इस बात में आश्चर्य क्यों हुआ? क्या आपको साहित्य-जगत के दिग्गजों की श्रेणी में सुबीर जी के स्थान में संशय था? मैं पहले भी अन्यत्र कह चुका हूं कि ज्ञान पीठ का जो सम्मान मिला है, वे उसमें संशय या विस्मय की बात नहीं है क्योंकि वे इसके योग्य हैं। भई, कोई अचंभे की बात नहीं है, उनका स्थान तो पहली पंक्ति में होना ही था।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

समीर लाल जी का काव्‍य संग्रह बिखरे मोती प्राप्‍त करने हेतु ...................

कई सारे लोगों के मेल मुझे भी प्राप्‍त हुए हैं और समीर जी को भी प्राप्‍त हो रहे हैं । दरअसल में समीर लाल जी की लोकप्रियता जिस प्रकार ब्‍लाग जगत में है उसको देखते हुए ये तो होना ही था । पूर्व में श्री समीर लाल जी ने इसका विमोचन वहीं कनाडा में ही करने का निर्णय लिया था लेकिन फिर बाद में उसका एक अंतरिम विमोचन उन्‍होंने जबलपुर में संपन्‍न करने का विचारा और दो दिन पूर्व उसका अंतरिम विमोचन जबलपुर की ब्‍लागर्स मीट http://sanjusandesha.blogspot.com/ में सम्‍पन्‍न हुआ ।

समीर जी का ये काव्‍य संग्रह उनके एक नये रूप को सामने लाता है । एक ऐसा रूप जो कि गहन है गम्‍भीर है । जिसमें कहीं हास्‍य नहीं है । ये पुस्‍तक उनकी छंदमुक्‍त कविताओं, गीतों, ग़ज़लों, मुक्‍तकों और क्षणिकाओं का संचय है । पुस्‍तक की भूमिका लिखी है वरिष्‍ठ गीतकार त्रय सर्वश्री राकेश खण्‍डेलवाल जी, कुंअर बेचैन जी तथा रमेश हठीला जी ने । पुस्‍तक का आवरण डिजाइन किया है छ‍बी मीडिया के सर्वश्री संजय तथा पंकज जी बैंगाणी जी । ये तो बताने की आवश्‍यकता नहीं होनी चाहिये कि शिवना प्रकाशन द्वारा इसे प्रकाशित किया गया है । पुस्‍तक सजिल्‍द संस्‍करण में है । पुस्‍तक का मूल्‍य 200 रुपये भारतीय मूल्‍य तथा 15 यूएस डालर है । पुस्‍तक को श्री समीर लाल जी ने अपनी स्‍वर्गीय माताजी को समर्पित किया है । पुस्‍तक में श्री समीर लाल जी का जो रंग देखने को मिलता है वो एक क्षण को ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्‍या ये वहीं समीर लाल जी हैं उड़नतश्‍तरी वाले । पुस्‍तक में शामिल ग़ज़लें तथा मुक्‍तक श्री समीर जी की सामयिक दृष्टि को बताते हैं ।

बिखरे मोती का मूल्‍य 200 रुपये है तथा पोस्‍टल चार्जेस 25 रुपये भारत में कहीं भी के लिये हैं । इस प्रकार कुल 225 रुपये डाक द्वारा मंगवाने हेतु है । इस हेतु या तो भुगतान पंकज सुबीर के नाम से  पंकज सुबीर, पी सी लैब, सम्राट कॉम्‍प्‍लैक्‍स बेसमेंट, न्‍यू बस स्‍टेंड, सीहोर, मध्‍यप्रदेश 466001 मोबाइल 09977855399 पर भेजें अथवा यदि इंटरनेट बैंकिंग या कोर बैंकिंग से भेजना चाहें तो   केवल एक मेल subeerin@gmail.com पर कर दें ताकि आपको खाता क्रमांक भेजा जा सके । पुस्‍तक कोरियर द्वारा भेजी जायेगी तथा मिलने में एक दो दिन का समय लगेगा ।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

बिखरे मोती का अंतरिम विमोचन हुआ, और तरही मुशायरे का मिसरा बदला जा रहा है ।

समीर लाल जी के सामने दुविधा ये थी कि वे अगले सप्‍ताह वापस कनाडा लौट रहे हैं और वहीं पर बिखरे मोती का विमोचन होना है मई में । लंकिन समस्‍या ये आ रही थी कि जबलपुर में सब पुस्‍तक लेना चाह रहे हैं । और एक बार समीर जी के जाने के बाद वहां कौन वितरित करेगा ये समस्‍या सामने थी । शिवना प्रकाशन के सामने भी ये समस्‍या आ रही थी कि विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा के लिये पुस्‍तक भेजनी होती है सो उसमें भी विलम्‍ब हो रहा था । उस पर ये कि कई लोग जो पुस्‍तक प्राप्‍त करना चाह रहे थे उनके भी मेल आ रहे थे । इन सभी समस्‍याओं का समाधान ये निकला कि जबलपुर में ही एक ब्‍लागर्स मीट में पुस्‍तक का अंतरिम विमोचन सम्‍पन्‍न किया गया । क्‍या हुआ कैसे हुआ ये तो समीर जी के ब्‍लाग पर आपको पूरी जानकारी मिल पायेगी मैं तो बस ये शुभ सूचना देना चाहता हूं कि समीर जी की पुस्‍तक बिखरे मोती का अंतरिम विमोचन हो चुका है । बधाये गाये जाएं ।

तरही को लेकर ये तो मुझे पता था कि थोड़ा मुश्किल है इस बार का मिसरा । मुश्किल दो कारणों से था । आइये उन कारणों की चर्चा की जाये ।

मिसरा तो ये था ' आज महफिल में कोई शम्‍अ फरोजां होगी'

इसमें रदीफ था होगी और काफिया था आं । अब चर्चा करते हैं कि क्‍या समस्‍या थी इस काफिये में । दरअस्‍ल में पूरा काफिया था फरोजां  अर्थात 122 का मात्रा क्रम । इसका मतलब ये हुआ कि आसमां, बागबां, सायबां, जैसे कई सारे काफिये तो हट गये । अब बचे केवल गुरेजां, फरोजां, बयाबां जैसे काफिये जिनके साथ काम करना मुश्किल है । उस पर ये भी कि ये काफिये भर्ती के लग रहे थे । अब बात करते हैं दूसरी समस्‍या कि रदीफ महोदय हमारी दूसरी समस्‍या थे । और समस्‍या थी स्‍त्रीलिंग होने के कारण । स्‍त्रीलिंग होने के कारण परेशानी ये आ रही है कि हम जो भी कहते हैं उसे किसी स्‍त्रीलिंग के संदर्भ मे ही कहा जाना उचित होगा । क्‍योंकि आखिर में हमको तुक मिलानी है होगी के साथ। बाद में जब मैंने बहुत गौर किया तो पाया कि सचमुच ही कुछ मुश्किल है तो फिर मैंने मिसरा बदलने का निर्णय लिया दो कारणों से पहला तो ये कि मैं स्‍वयं ही ऐसे शब्‍दों का विरोधी हूं जिनका अर्थ नीचे देना पड़े और उसके चक्‍कर में ग़ज़ल का रसभंग ही हो जाये । इस काफिये के साथ हो रहा ये था कि आपको भर्ती के काफिये ही लेने पड़ते । तो काफी सोच समझ के मैंने तय किया कि आदरणीय दीदी नुसरत मेहदी का ही कोई दूसरा मिसरा दूं । तो उनकी ही एक ग़ज़ल का मिसरा यहां पर दे रहा हूं जिसको कि परिवर्तित मिसरे के तौर पर ले लिया जाये । पहले नुसरत मेहदी जी का परिचय दे दूं वे वर्तमान में मध्‍यप्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव हैं तथा बहुत अच्‍छी शायरा हैं । बहुत अच्‍छी का अर्थ ये कि लिखती भी बहुत अच्‍छा हैं और गाती तो ऐसा हैं कि मंत्रमुग्‍घ कर देती हैं । मंच पर चल रही गंदगी से व्‍यथित रहती हैं तथा मंच को सुधारने के लिये प्रयत्‍नशील हैं । उर्दू अकादमी की सचिव के रूप में अपने कार्यकाल में उन्‍होंने इतने मुशायरों का आयोजन किया है कि साहित्यिक माहौल पूरे प्रदेश में बना दिया है । अभी कुछ दिनों पूर्व ही उनकी पुस्‍तक भी आई है जिसका विमोचन दुबई में हुआ था । बहुत जल्‍द उनकी मीठी आवाज से भी आपका परिचय करवाता हूं ।

nusrat mehadi ji 

नुसरत मेहदी जी

मिसरा

कितनी जानलेवा है दोपहर की ख़ामोशी

( फाएलुन-मुफाईलुन-फाएलुन-मुफाईलुन ) बहरे हजज़ मुसमन अशतर 212-1222-212-1222

बहुत सुंदर और गायी जाने वाली बहर है ये शायरात अक्‍सर ही इस बहर में लिखती हैं इसकी धुन भी बहुत प्‍यारी होती है । रदीफ है  की खामोशी  और काफिया है स्‍वर  अर का अर्थात नज़र, सफर जैसे काफिये ।

हजज़ के बारे में शायद मैं पहले ही कह चुका हूं कि ये सबसे लोकप्रिय बहर है ।  लो‍कप्रिय इसलिये की इसकी सालिम और मुजाहिब बहरों में कई कई ऐसी हैं जो कि गाने के लिये होती हैं । खींच कर पढ़ने वाले इन बहरों को बहुत पसंद करते हैं । हजज़ का सालिम रुक्‍न होता है मुफाईलुन 1222  इस बहर पर हमने कई सारी ग़ज़ले कहीं हैं । और हिंदी के कई सारे कवि भी बहरे हजज़ मुसमन सालिम पर कविताएं लिखते हैं । हजज़ की एक और मुजाहिफ बहर हैं बहरे मुसमन अख़रब मुकफूफ महजूफ जिसका वज़न होता है 221-1222-1222-122 ये नीरज गोस्‍वामी जी की पसंदीदा बहरों में से है । ये बहर सबसे संकट वाली बहर हैं क्‍योंकि इसकी कई सारी जुड़वीं बहने और भी मौजूद हैं जिनमें एक दो मात्राओं का ही अंतर होता है । मजे की बात ये है कि ये जो सारी जुड़वी हैं उनको गाने की धुन एक ही है सो वे लोग जो गाकर ग़ज़लें लिखते हैं वे मात खा जाते हैं । मुजारे की बहर है जिसमें 221-2121-1221-212 है अब देखा जाये तो मात्राएं तो वही हैं । केवल क्रम में अंतर है सो कई लोग एक ही ग़ज़ल में एक शेर मुजारे का रख देते हैं और दूसरा हजज़ का ।  हजज़ की एक और गाई जाने वाली मुजाहिफ बहर है मुसद्दस महजूफ अल आखिर मुफाईलुन-मुफाईलुन-फऊलुन 1222-1222-122 ।  बहरे हजज़ इस प्रकार से गाने वालों के लिये हमेश पसंदीदा बहर रही है । इस बार का जो मिसरा है वो भी बहरे हजज़ की सबसे ज्‍यादा गायी जाने वाली बहर का है ।

अगले अंक में जानिये बहरे हजज़ के बारे में और जानकारियां ।

आज का चित्र मेरी बिटिया पंखुरी का

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

समीर लाल जी का काव्‍य संग्रह बिखरे मोती, उड़नतश्‍तरी का दूसरा रूप जो गहन और गम्‍भीर है । बिखरे मोती प्रकाशित अब विमोचन की प्रतीक्षा कीजिये ।

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समीर लाल जी जब पिछली बार भारत आये थे तो उनसे पुस्‍तक के प्रकाशन के बारे में बात हुई थी किन्‍त्‍ु बात किसी निर्णायक स्थिति में आये उससे पहले ही वे पुन: कनाडा वापस चले गये थे । अब की बार वे जब वापस आये तो पुन: छूटा हुआ सिलसिला प्रारंभ हुआ और पुस्‍तक पे काम प्रारंभ हुआ । इस बीच राकेश जी की पुस्‍तक तथा पंच रत्‍नों की पुस्‍तक आ चुकी है । समीर जी की पुस्‍तक पे काम करना मुश्किल इसलिये था कि वे भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । वे व्‍यंग्‍य भी लिखते हैं और हास्‍य भी, गीत भी लिखते हैं और ग़ज़ल भी, मुक्‍तक भी लिखते हैं और सोनेट भी । अर्थात उनकी ही हास्‍य की भाषा में कहा जाये तो उनके भी रावण की तरह दस सिर हैं । तिस पर ये भी कि कोई भी विधा में कमजोर नहीं हैं वे । जब पांडुलिपि को लेकर शिवना प्रकाशन के  श्री नारायण कासट जी, श्री रमेश हठीला जी, श्री हरिओम शर्मा जी के साथ बैठकर चर्चा हो रही थी तो सभी एकमत थे इस बात को लेकर कि संग्रह में कोई एक ही रंग जाना चाहिये क्‍योंकि अलग अलग विधाएं एक साथ देने पर किसी के साथ भी न्‍याय नहीं हो पाता है । और सभी को श्री समीर लाल जी की गम्‍भीर कविताएं अधिक पसंद आ रही थीं । उसके पीछे एक कारण ये भी है कि जब बात पढ़ने की आती है तो हास्‍य से जियादह गम्‍भीर विषय ही लोगों को पसंद आते हैं । खैर तो समीर जी से बात की गई और उन्‍होंने एक लाइन का मेल किया 'पंचों की राय सर आंखों पर' । तो निर्णय ये हुआ कि बिखरे मोती में समीर जी के गम्‍भीर रूप का ही दर्शन होगा । मेरे विचार में विश्‍व की महानतम फिल्‍म अगर कोई है तो वो है 'मेरा नाम जोकर' उस फिल्‍म का एक दोष बस ये ही था कि वो अपने समय से पहले आ गई और उसे बनाने वाला एक भारतीय था, अन्‍यथा तो आस्‍करों जैसे पुरुस्‍कारों से भी ऊपर थी वो फिल्‍म । यहां पर अचानक मेरा नाम जोकर की बात इसलिये कि उस फिल्‍म में भी यही बताया है कि किस प्रकार अंदर से रो रहा आदमी ऊपर से लोगों को हंसाने का प्रयास करता है । समीर जी के साथ भी वहीं है, उनकी बेर वाली माई की कविता में जो अंत में मीर की ग़ज़ल का उदाहरण आया है वो स्‍तम्भित करने वाला है । बिखरे मोती में समीर जी के गीत हैं, छंदमुक्‍त कविताएं हैं, ग़ज़लें हैं, मुक्‍तक हैं और क्षणिकाएं हैं । पुस्‍तक का अत्‍यंत सुंदर आवरण पृष्‍ठ छबी मीडिया के श्री पंकज बैंगाणी द्वारा किया गया है बानगी आप भी देखें

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पुस्‍तक की भुमिका वरिष्‍ठ कवि श्रद्धेय श्री कुंवर बेचैन साहब ने लिखी है वे अपने समीक्षा में लिखते हैं समीर लाल मूलत: प्रेम के कवि हैं । पहले तो मैं ये पंक्तियां पढ़कर चकराया कि कुंवर साहब ऐसा क्‍यों लिख रहे हैं । फिर मुझे अपने उस्‍ताद की बात याद आई कि बड़े लोग यदि कुछ कह रहे हैं तो किसी न किसी कारण से ही कह रहे हैं । मैंने कुंवर जी की बात के संदर्भ में पुन: समीर जी की कविताएं देखीं तो मुझे हर कहीं प्रेम नजर आया । पूरी तरह से समर्पित प्रेम की एक बानगी देखिये

मेरा वजूद एक सूखा दरख्‍़त

तू मेरा सहारा न ले,

मेरे नसीब में तो

एक दिन गिर जाना है

मगर मैं

तुझको गिरते हुए नहीं देख सकता प्रिये

राकेश खण्‍डेलवाल जी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि समीर लाल जी के दर्शन की गहराई समझने की कोशिश करता हुआ आम व्‍यक्ति भौंचक्‍का रहा जाता है । सच कहा है राकेश जी ने क्‍योंकि हास्‍य के परदे में छुपा कवि जब कहता है

वो हँस कर

बस यह एहसास दिलाता है

वो जिन्‍दा है अभी

कौन न रहेगा भौंचक्‍का सा ऐसी कविता को पढ़कर या सुनकर ।

श्री रमेश हठीला जी ने लिखा है कि नेट भर जिस प्रकार उड़नतश्‍तरी लोकप्रिय हुई उसी प्रकार साहित्‍य में बिखरे मोती उसी कहानी को दोहराने जा रही है । बिखरे मोती के बारे में और जानकारी आप शिवना प्रकाशन के ब्‍लाग शिवना प्रकाशन पर देख सकते हैं । रही बात पुस्‍तक के विमोचन की तो अभी प्रतीक्षा कीजिये उसके लिये क्‍योंकि अभी ये तय नहीं है कि विमोचन भारत में होगा अथवा कनाडा में ।

कई लोगों का कहना है कि इस बार तरही मुशायरे के लिये कुछ मुश्किल मिसरा है । है तो सही लेकिन अब बच्‍चे बड़ी क्‍लासों में आ गये हैं क्‍या अब भी वही सीखते रहेंगें ।

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