इस उपन्यास को लिखते समय मन बहुत अजीब सी स्थिति में था । एक तो पहला ही उपन्यास लिखना और उस पर भी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि पर लिखना । जरा सी भी गलती होने पर मार पड़ने की संभावना रहती है । मगर फिर भी बहुत इच्छा थी कि सीहोर में 1857 में स्थापित की गई पहली समानांतर सरकार सिपाही बहादुर पर कुछ अवश्य लिखूं । इसलिये भी कि 356 लोगों का नरसंहार होने के बाद भी इस घटना पर कुछ भी नही लिखा गया था । 14 जनवरी 1858 को जनरल ह्यूरोज़ ने बड़ी ही बेरहमी के साथ सीहोर की सिपाही बहादुर सरकार को कुचल दिया था । और कुचलने के लिये उसने 356 सिपाहियों को बेरहमी से मारा था । मुझे ये घटना हमेशा ही उद्वेलित करती रही कि इस पर किसी ने कुछ क्यों नहीं लिखा अभी तक । उद्वेलित शायद इसलिये भी करती हो कि मेरा ऑफिस ठीक उसी स्थान पर है जहां पर 14 जनवरी 1858 को वो नरसंहार हुआ था । सीहोर के बस स्टैंड के ठीक सामने का ये इलाका उस समय चांदमारी का इलाका कहलाता था जहां पर आज मेरा आफिस है तथा उस समय ये नरसंहार हुआ था । संयोग की बात है कि 2007 की वो घटना भी इसी इलाके में हुई जिसको लेकर मैंने ये उपन्यास रचा । 1857 की क्रांति के वे सिपाही माहवीर कोठ, वली शाह, शुजाअत खां, आदिल मोहम्मद, फाजिल मोहम्मद इनको कोई नहीं जानता । कोई नहीं जानता कि सीहोर में दुनिया की पहली समानांतर सरकार का गठन करने वाले ये लोग कौन थे । इतिहास में इनका जिक्र बहुत कम आता है । बस यही कारण था कि मुझे लगा कि अपने शहर की इस विरासत को लोगों के सामने लाया जाये ।
ताकि कम से कम उन 356 की जो मजारें नदी के किनारे बनी हैं वहां पर कोई स्मारक बन सके । अभी तो ये होता है कि 14 जनवरी को सब जुटते हैं एक बार मंत्री जी भी आये घोषणा कर गये स्मारक की लेकिन उस घोषणा को भी चार साल बीत गये । हो सकता है कि अब कुछ हो । जब भारतीय ज्ञानपीठ ने इस उपन्यास को नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की तो ऐसा लगा कि मेहनत सफल हो गई है। उपन्यास को लिखने के दौरान की बाते कभी साझा करूंगा ।
ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार 2010 तो आखिरकार भारतीय ज्ञानपीठ का ये आयोजन होने जा रहा है । वर्ष भर उसको लेकर ऊहापोह रहा कि पता नहीं कब होगा । लेकिन अंतत: बीतते वर्ष में 29 दिसम्बर को शाम पांच बजे ये आयोजन नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे पुस्तक मेले के हाल नंबर 9 में आयोजित किया जा रहा है । अभी तक जो सूचना मेरे पास है उसके अनुसार डॉ नामवर सिंह जी, चित्रा मुदगल जी, रवीन्द्र कालिया जी और शायद राजेंद्र यादव जी भी कार्यक्रम में रहेंगें । इन सबकी गरिमामय उपस्थिति में ये पुरस्कार प्रदान किया जायेगा । पुरस्कार जो मेरे विचार में सीहोर की उस सिपाही बहादुर सरकार को बरसों बाद मिल रही पहचान का पहला कदम है । मुझे तो 29 को दिल्ली आना ही था श्री समीर लाल जी के बेटे की शादी में सम्मिलित होने । मगर अब ये दो प्रयोजन हो गये हैं । मेरी इच्छा है कि आप सब भी 29 दिसम्बर को समय निकाल कर शाम पांच बजे प्रगति मैदान के हाल क्रमांक 9 में आयें । कम से कम दिल्ली के मित्रगण आयें तो बहुत ही अच्छा लगेगा । कई लोगों से मिलना मिलाना हो जायेगा । मैं स्वयं तो 28 की रात दिल्ली पहुंच जाऊंगा ।
तरही मुशायरा इस बार नववर्ष का तरही मुशायरा नये वर्ष में ही प्रारंभ होगा क्योंकि 31 को वपसी के बाद 1 जनवरी को साल के ठीक पहले ही दिन भोपाल में ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार को लेकर एक नगारिक अभिनंदन का कार्यक्रम है । ये अभिनंदन कवि सम्मेलन के मंच पर होगा । तो इस बार का तरही मुशायरा नये साल में 2 को शुरू होगा । तरही को कठिन बताने वाले लोगों के लिये सूचना कि अभी तक 10 ग़ज़लें मिल भी चुकी हैं । सो जाहिर सी बात है कि जो कठिन बता रहे हैं वे केवल कामचोरी कर रहे हैं ।
बीता वर्ष वर्ष वैसा ही रहा जैसा रहता है कुछ खट्टा कुछ मीठा । सबसे पहले कथादेश कहानी प्रतियोगिता में शायद जोशी से जनवरी की शुरूआत हुई, फरवरी में ज्ञानपीठ नवलेखन, फिर मई में सीहोर का ऐतिहासिक मुशायरा, जून में कहानी चौथमल मास्साब ने वो सब कुछ दिया जो कहानीकार को चाहिये होता है । ये वो सहर तो नहीं का प्रकाशन हुआ और साथ में ज्ञानपीठ की दो और पुस्तकों में दो कहानियों को स्थान मिला । और साल बीतते बीतते हंस की कहानी सदी का महानायक को लेकर जो फोन आ रहे हैं वे भी उत्साह वर्द्धन करने वाले हैं । मई में ही एक बड़ा संकट सामने आ गया जो अभी तक सरपर सवार है लेकिन अब उसके सुलझने के कुछ आसार बनते दिख रहे हैं । और अब साल बीतते बीतते ज्ञानपीठ नवलेखन का ये समारोह । आभार उस ईश्वर का जो मेरे साथ बना रहा और उन मित्रों का जो मेरा संबल बन कर उस संकट में मेरे साथ खड़े रहे और आज भी खड़े हैं । किसी एक का नाम ले ही नहीं सकता । बस ये कि आप सब हैं तो मैं हूं ।
आइयेगा ज़रूर 29 दिसम्बर की शाम 5 बजे, मुझे अच्छा लगेगा कि मेरे भी कुछ लोग हैं वहां पर ।