बीतता हुआ श्रावण मास खूब मेहरबान हो गया है । इतना मेहरबान कि मेरे जिले की चार तहसीलें पानी में डूबी हुई हैं । सीहोर में गंगा की सहायक नदी पार्वती और नर्मदा दो प्रमुख नदियां हैं । सीहोर से केवल चालीस किलोमीटर पर स्थित कस्बा आष्टा शनिवार को पन्द्रह ये बीस फीट पानी में डूब गया था । यही हालत अन्य तीन स्थानों की भी है । हैरत की बात ये है कि मौसम का रंग क्या अजीब होता है, सीहोर के पश्चिम में केवल चालीस किलोमीटर पर आष्टा है जहां बाढ़ ने कहर ढा दिया है, उत्तर में केवल बीस किलोमीटर पर इछावर में भी यही स्थिति है लेकिन सीहोर में पानी नहीं गिर रहा है । बाकी स्थानों पर तीन दिन से लगातार पानी गिर रहा है, कोई मौसम विज्ञानी ही बता पाये कि ऐसा क्यों होता है कि मेरा घर छोड़ के कुल शहर पे बरसात हुई ।
प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
आज तरही में हम सुनने जा रहे हैं श्री तिलक राज जी कपूर की दो ग़ज़लें । पहली एक वचन में है और दूसरी बहुवचन में । पहली ग़जल़ में उन्होंने सोलह श्रंगारों को आधार बना कर खूब प्रयोग किये हैं । बहुत खूब बन पड़ी है ये ग़ज़ल ।
श्री तिलक राज जी कपूर
श्रंगार रस पर मुसल्सछल ग़ज़ल की बात उठते ही मुझे सोम ठाकुर जी से 80 के दशक में हुई एक मुलाकात याद आई जिसमें उन्हों ने कहा था कि श्रंगार तलवार की धार की तरह होता है। जरा सा चूके कि रचना अश्लील हो जाती है। उस समय तक श्रंगार पर मैनें एक गीत भर लिखा था जिसपर उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ और सराहना मिली। सोम ठाकुर जी की वह बात निरंतर एक दबाव निर्मित करती रही है प्रस्तु्त ग़जलें कहते समय।
दो प्रयास किये हैं; एक हबुवचन में तथा एक एकवचन में। श्रंगार रस में मुसल्सल ग़ज़ल होने के कारण रस-निरंतरता के साथ विषय-निरंतरता ने एक और चुनौती प्रस्तुंत की विषय चयन की। प्रस्तुत ग़ज़ल बस इस प्रयास के लिये निर्धारित प्रयोग हैं। जहॉं बहुवचन की ग़ज़ल में एक घटनाक्रम की निरंतरता है वहीं एकवचन में कही ग़ज़ल दुल्हन के सोलह श्रंगारों का महत्व बताती हुई और सोलह श्रंगार के बारे में एक अन्य वैब-साईट पर दिये गये विवरण पर आधारित है।
रूप-श्रंगार की छवि नयी है प्रिये
देख श्रंगार सोलह कही है प्रिये।
रस्म भर की नहीं ये 'अंगूठी' तो इक
प्यानर विश्वास की बानगी है प्रिये।
माँग 'सिन्दूर' की लालिमा यूँ लगे
ज्यूँ क्षितिज रेख इसमें भरी है प्रिये।
हो रवि ज्यूँ सलोना उदय काल में
तेरे माथे ये बिंदी सजी है प्रिये।
दो कटारें नयन की हैं 'काजल' भरीं
रूप लावण्य से तू ढली है प्रिये।
इस करीने से तुझ पर लगी है 'हिना'
प्रीत की अल्पना ज्यूँ सजी है प्रिये।
वेणियों में गुँथी मोगरे की कली
और 'गजरे' में खुश्बू बसी है प्रिये।
हो गुलाबों पे तारों की चादर बिछी
'लाल जोड़े' में तू यूँ सजी है प्रिये।
'कर्णफूलों' के ये केश बंधन कहें
अप्सरा स्वर्ग से आ गयी है प्रिये।
बाजुओं को कसे 'बन्द बाजू' के हैं
स्वर्ण आभूषणों से लदी है प्रिये।
'मॉंग-टीका' बना पथ-प्रदर्शक तेरा
राह दिखलायेगा जो सही है प्रिये।
सात फेरे लिये अग्नि पावन के तब
पार्वती मान में 'नथ' मिली है प्रिये।
आज से तुम पिया से वचनबद्ध हो
'मंगलम्-सूत्र' आशय यही है प्रिये।
आज दूरी पिया घर की 'बिछिया' पहन
बस विदा की घड़ी तक बची है प्रिये।
मातु सी सास देती बहू को बड़ी
पुश्त-दर-पुश्त 'कंगन' वही है प्रिये।
इक 'कमरबन्द ' में चाबियॉं सौंपकर
सास दुल्हन को घर सौंपती है प्रिये।
एक संदेश दे 'पायलों' की झनक
घर पिया के तू जबसे बसी है प्रिये।
जब से नज़रें हमारी मिली हैं प्रिये।
धड़कनें साथ चलने लगी हैं प्रिये।
हैं अधर मौन पर बात नयना करें
क्यूँ परिंदों से हम अजनबी हैं प्रिये।
भाव भटका किये, शब्द मिलते नहीं
फ़ाड़ दीं चिट्ठियॉं जो लिखी हैं प्रिये।
बादलों में छुपी हैं हवाओं में हैं
प्रेम पाती तुझे जो लिखी हैं प्रिये।
इश्क औ मुश्क छुपना न मुमकिन हुआ
पर्त जितनी भी थीं खुल गयी हैं प्रिये।
कुछ इशारे हुए ऑंख ही ऑंख में
यार करने लगे दिल्लगी हैं प्रिये।
चुन लिया संगिनी एक को, शेष अब
सिर्फ़ इतिहास की संगिनी हैं प्रिये।
मुद्रिकायें बदलने में शामिल हैं सब
अब न बाधक न बाधा बची हैं प्रिये।
अब हमारा मिलन दूर लगता नहीं
छिड़ रही हर तरफ़ रागिनी हैं प्रिये।
हाथ पैरों सजी ये हिना यूँ लगे
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये।
भोर की लालिमा मॉंग में सज गयी
संदली पॉंव बिछिया चढ़ी हैं प्रिये।
आज स्वागत तुम्हारा पिया द्वार पर
भोर की रश्मियॉं कर रही हैं प्रिये।
कुछ पहर दूर है एक होने का पल
धड़कनों को बढ़ाती घड़ी हैं प्रिये।
सॉंझ से ही धड़कने लगा है ये दिल
कल्प नाओं की लहरें उठी हैं प्रिये।
एक कोने में सिमटी सी सकुचाई सी
भाव औ भंगिमायें नई हैं प्रिये।
नैन जादू भरे कनखियों से चलें
दो कटारी लगें जादुई हैं प्रिये।
दें निमंत्रण लरजते हुए ये अधर
थाम लो, धड़कनें थम रही हैं प्रिये।
देखिये क्या जतन, काम करता है अब
देह अंगार सी तप रही हैं प्रिये
ये प्रहर रात्रि का आज कर दें अमर
फिर न आयें ये ऐसी घड़ी हैं प्रिये।
भोर अलसा रही है मिलन रात्रि की
देह मादक उनींदी हुई हैं प्रिये।
रात काटी है फूलों भरी सेज पर
तेरी अंगड़ाईयॉं कह रही हैं प्रिये।
दाहिने पॉंव की पैंजनी है कहॉं
बात सखियॉं यही पूछती हैं प्रिये।
दोनों ग़ज़लें बहुत सुंदर बन पड़ी हैं । एक वचन में सोल श्रंगारों को जिस प्रकार से ग़ज़ल में ढाला है वो प्रयास अनोखा है । कुछ शेर बहुत सुंदर बने हैं मंगलम् सूत्र का आशय हो या कि कमरबंद में घर सौंपना दोनों ही प्रयोग मन को छू लेने वाले हैं । भारतीय परंपराओं को बहुत सुंदरता के साथ वर्णित कर रहे हैं । कुछ ऐसा ही सुंदर शेर पुश्त दर पुश्त चलते कंगनों का बन पड़ा है । पीढ़ी दर पीढ़ी चलती परंपराओं को मनो स्वर दे दिया है । बहुवचन की तरही भी सुंदर बनी है चुन लिया एक को में मानों तिलक जी ने हम सब की व्यथा को ही शेर में ढाल दिया है । इतिहास की संगिनियों का हुजूम सब के जीवन में होता है । मुद्रिकाएं बदलने में शामिल हैं सब में बाधक और बाधा का प्रयोग खूब है । बहुत सुंदर । आनंदम । वाह वाह वाह ।