सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं ठीक ठाक हूं । बस ये कि कम्‍प्‍यूटर कक्षाओं का सीजन शुरू हो रहा है सो कुछ व्‍यस्‍तता है वहां पर

दो दिन से धड़ा धड़ मैसेज और फोन आ रहे हैं कि कहां हो । दरअस्‍ल में इस बार कुछ लम्‍बी चुपपी हो गई है । उसके पीछे भी कारण ये है कि कम्‍प्‍यूटर कक्षाओं का सीजन अपैल में प्रारंभ होता है जो कि अब शुरू होने वाला है सो उसकी तैयारियों में व्‍यस्‍त था । उस पर काफी सारा काम इस्‍लाह के लिये रखा हुआ था सो पिछले सप्‍ताह भर से उसको पूरा करने में लगा था । इस्‍लाह के अपने तरीके के कारण मुझे समय जियादह लगता है । दरअस्‍ल में जब मैं सिखाड़ी था तो मैं भी इस्‍लाह  करवाता था और जब मेरे किसी शेर को आमूलचूल ही बदल दिया जाता था तो मुझे लगता था कि उसमें अब मेरा बचा ही क्‍या ये तो पूरा बच्‍चा उस्‍ताद  का ही हो गया । असल में जब भी कोई कवि कविता लिखता है तो वो एक मानसिक स्थिति में लिखता है । और उस समय में भाव ही उसकी कविता में आते हैं । जब उस्‍ताद उसकी इस्‍लाह करने बैठते हैं तो वे अपनी मनोदशा में होते हैं । और ऐसे में होता ये है कि वे पूरे शेर के मानी ही बदल के रख देते हैं । इसको हम ऐसे समझ सकते हैं कि आपको यदि किसी भवन के रिनोवेशन का काम मिला है तो आप उसके बीम कालम थोड़े ही उखाड़ के फिर से बिठओगे । आप को तो बस ये करना है कि जो ढा़चा तैयार है उसको ही कुछ इस प्रकार से बदलो के वो ठीक लगे । यही काम मैं इस्‍लाह में करता हूं इसीलिये मुझे समय अधिक लगता है । मैं प्रयास करता हूं कि शेरों में जो शब्‍द इस्‍तेमाल हुए हैं उनको भी नहीं बदलूं जब तक कि बहुत जियादह ही आवश्‍यक न हो । उन्‍हीं शब्‍दों से या उनके पर्यायवाची शब्‍दों से काम चला कर बहर में ले आऊं । नये सिरे से कुछ बनाना हो तो उसमें अधिक समय नहीं लगता किन्‍तु बने बनाये में सुधार करना मुश्किल होता है  । प्रयास होता है कि मैं लिखने वाले की भावनाओं के अनुरूप ही फेर बदल करूं । तिस पर ये भी कि बहर में भी आ जाये । एक और काम मैं करता हूं वो ये कि ऐसे दोष जो उर्दू में तो हैं पर हिंदी में जायज होते हैं उनको मैं इसलिये ले कर चलता हूं कि आज की ग़जलें हिंदी में ही हो रहीं हैं । जैसे एक काफिया का दोष है जिसे ईता का दोष कहा जाता है । दरअसल में काफिया में एक ध्‍वनि या हर्फ होता है जिसे हर्फे रवी कहते हैं, जब मतले के दोनों मिसरों में रवी का हर्फ एक ही मानी रखता हो तो ऐसे लफ्जों का लाना नाजायज माना जाता है । यद्यपि हिंदी के हिसाब से उसे सही माना जाता है । हिंदी में उसे दोष नहीं माना जाता है । अक्‍सर मात्राओं वाले काफिये में इस दोष को अधिक संभाव्‍य माना जाता है ।

पिछले दिनों कुछ जगहों पर कुछ शेरों में काफी दोष नजर आये । जैसे ये

उठें‍गी चिलमनें अब हम यहां देखेंगें किस किस की
चलें खोलें किवाड़ें दब न जाये कोई भी सिसकी

ये गौतम की उस ग़ज़ल का मतला है जो कहीं लगी हुई है । अब इसका मिसरा उला उस एब से भीषण तरीके से ग्रस्‍त है जिसकी चर्चा हमने पिछले किसी अंक में की थी और मैंने कहा था कि जब कोई मिसरा द्विअर्थी ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहा हो तो उसे दोष माना जाता है इस शेर का पहला मिसरा पूरी तरह से द्विअर्थी है बल्कि जैसा मैंने गौतम से कहा कि ये तो द्विअर्थी भी नहीं एक ही अर्थ वाला है । विश्‍लेषण नहीं करना चाहता क्‍योंकि आप सब समझदार हैं ।

दिगम्‍बर नासवा जी का एक शेर था

सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ  

गाँव की मिट्टी बदल कर माँ का आँचल हो गया

इसमें दोष ये हैं कि बात मिट्टी की बात कर रहे हैं जो पुल्लिंग नहीं होती और आगे  उसके लिये हो गया लिखा है । आप भले सोच रहे हैं कि आपने हो गया तो मां के आंचल के लिये लिखा है किन्‍तु विन्‍यास को देखें तो क्‍या है मां का आंचल केवल उपमा है किन्‍तु जो हो गया है आपने लिखा है वो गांव की मिट्टी के लिये लिखा है । मिट्टी स्‍त्रील्रिग होती है दूसरा ये कि जो मिट्टी का प्रयोग किया है वो मां की गोद की उपमा के साथ चलेगा , आंचल के साथ नहीं ।

तो ये छोटी छोटी बातें हैं जो याद रखनी हैं ।

कई सारे लोग कह रहे हैं कि कक्षाएं पुन: प्रारंभ करने की । किन्‍तु जो लोग जुड़े हैं तथा जिनकी ग़ज़लें इस्‍लाह के लिये आ रही हैं वे जानते हैं कि कक्षाएं तो चल रही हैं ।

समीर लाल जी की पुस्‍तक बिखरे मोती प्रकाशित होकर आ गई है शीघ्र ही उसका विमोचन कार्यक्रम संभवत: कनाडा में होगा । उसके बारे में विस्‍तृत जानकारी अगली रपट में ।

तरही का मिसरा नहीं दिया सो दे देते हैं मेरी बड़ी बहन तथा म.प्र उर्दू आकदमी की सचिव सुप्रसिद्ध शायरा नुसरत मेहदी साहिबा की ग़ज़ल का मिसरा है

आज महफिल में कोई शम्‍अ फरोज़ां होगी

आज महफिल 2122 फाएलातुन म कु ई शम्‍ 1122 फएलातुन अ फ रो जां 1122 फएलातुन हो गी 22 फालुन बहरे रमल मुसमन मखबून मुसक्‍कन रदीफ होगी काफिया आं

बुधवार, 18 मार्च 2009

ज्ञानपीठ का आयोजन, होली का तरही मुशायरा, प्रकाश अर्श के साथ एक दिन और हमारी होली

होली मेरा सबसे पसंदीदा त्‍यौहार है । और मुझे साल भर दीपावली से जियादह इसका ही इंतेजार रहता है । जैसा कि मैंने बताया कि हमारे क्षेत्र में होली पांच दिनों की होती है या छ: दिनों की  होती है ऐसा भी कह सकते हैं । क्‍योंकि होलिका दहन के दिन से प्रारंभ होकर रंग पंचमी पर समाप्‍त होती है । पूरे छ: दिनों तक रंग और रंगों से जियादह उमंग का उल्‍लास छाया रहता है (उसमें आप चाहें तो भंग को भी शामिल कर सकते हैं )। मगर इस बार की होली तो कुछ जियादह ही खास निकली । रंगपंचमी के  एक दिन पहले पहले कहानी संग्रह के विमोचन का क्षण आया और वो भी भारतीय ज्ञान पीठ के आयोजन में । होली के अवसर पर ब्‍लाग पर आयोजित तरही मुशायरा इस कदर लोकप्रिय हुआ कि उसने ये सिद्ध कर दिया कि आज भी हास्‍य सर्वप्रिय रस है किन्‍तु उसके लिये प्रवाह होना आवश्‍यक है । किसी चैनल पर चलने वाले कामेडी सर्कस पर जो हास्‍य होता है वो तो वीभत्‍स हास्‍य रस ( ये मैंने एक नया दसवां रस बनाया है ) की श्रेणी में आता है ।

पहले बात ज्ञानपीठ के आयोजन की, निश्चित रूप से ये जीवन का एक महत्‍वपूर्ण क्षण था ।  उस आयोजन में प्रकाश अर्श श्रोता थे सो मेरे खयाल से उन्‍होने कार्यक्रम को जियादह अच्‍छी तरह से सुना और गुना है उन्‍होंने अपने ब्‍लाग पर साहित्‍य, ज्ञानपीठ और गुरुदेव.... जो पोस्‍ट लगाई मेरे विचार से उसमें उन्‍होंने सब कुछ बलख दिया है और मेरे लिखने के लिये कुछ बाकी नहीं है । फोटो भी उन्‍होंनें सब लगा दिये हैं सो मेरे पास कुछ अधिक नहीं है । फिर भी मैं एक फोटो यहां लगा रहा हूं ।

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कई सारे मित्रों से पहली बार भेंट हुई सजीव सारथी जी, शैलेष भारतवासी जी से और प्रकाश अर्श से । हिंद युग्‍म ने पंकज सुबीर के कहानी-संग्रह 'ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी' का विमोचन कीजिये  पर पुस्‍तक का आनलाइन विमोचन करने की व्‍यवस्‍था की और वहीं पर श्री अनुराग जी के स्‍वर में शीर्षक कहानी ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी को अत्‍यंत प्रभावशाली तरीके से श्रोताओं को सुनवाया वहीं कहानी कलश पर ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी  पढ़वाया भी । सभी का आभार ।   प्रकाश के साथ तो दिन भर व्‍यतीत किया । आप सोच सकते हैं कि दो अत्‍यंत संकोची प्राणी किस प्रकार एक दूसरे के साथ दिन भर रहे होंगें ।  खैर बहुत अच्‍छा लगा प्रकाश के साथ दिन भर । मितभाषी लोगों के साथ रहना भी अच्‍छा होता है, सबसे अच्‍छी सुविधा तो ये होती है कि आप को ही बोलना है ।

इस बार दिल्‍ली की यात्रा के कारण होली नहीं हो पाई थी क्‍योकि वहां की तैयारियों में ही लगे रहे । खैर जब रंगपंचमी को सीहोर पहुंचे तो वहां रंग चल रहा था, सामान पटका और शामिल हो गये धमाल में । देर रात तक धमाल किया । यकीन न आये तो ऊपर ज्ञानपीठ के समारोह में खड़े अपने इस मित्र को नीचे के चित्रों में पहचान के बताइये जरा

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चलिये सभी का आभार कई लोगों के मेल मिले हैं कि ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी कैसे प्राप्‍त की जा सकती है । तो शहर के साहित्यिक पुस्‍तक केन्‍द्रों पर ये संभवत: इस माह के अंत तक आ जायेगी । या फिर भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्‍टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्‍ली 110003 फोन 24626467, 24654196, 24656201, 24698417 ये संपर्क कर मंगवाई जा सकती है । सभी का आभार, तरही के लिये मिसरा अगली पोस्‍ट में ।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

सुन दिल्‍‍ली, तुझसे मिलने को आ रहा हूं । कई सारी शुभकामनाएं लिये और कई मित्रों के स्‍नेह का तिलक अपने माथे पर लगाये, और माता पिता की दुआएं सर पर लिये ।

आज बस एक छोटी सी पोस्‍ट क्‍योंकि बाकी का काम तो हिंद युग्‍म के मित्रों शैलेष भारतवासी जी और सजीव सारथी जी ने यहां http://hindi-khabar.hindyugm.com/2009/03/sheela-dixit-release-13-new-books-hindi.html कर ही दिया है । हिंद युग्‍म ने एक सुंदर सा ग्राफिक्‍स भी <a href="http://hindi-khabar.hindyugm.com/2009/03/sheela-dixit-release-13-new-books-hindi.html" target="_BLANK"><img src="http://i173.photobucket.com/albums/w76/bharatwasi001/gyanoday_vimochan.gif" title="Padhariye"/></a> बनाया है जो मेरे लिये सुखद है । मैं तो केवल आप सबको आमंत्रित कर रहा हूं कि 14 मार्च को सुबह 11 बजे आप सभी दिल्‍ली के हिंदी भवन में अपने इस मित्र का मान बढ़ाने के लिये पहुंचे । मेरे पहले कहानी संग्रह ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी का विमोचन वहां भारतीय ज्ञानपीठ के आयोजन में होना है । दिल्‍ली की मुख्‍यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित जी तथा श्री कुंवर नारायण जी के कर कमलों से ये विमोचन होना है । आप सब के आने से मेरा मान बढ़ेगा । मैं स्‍वयं भी आज शताब्‍दी एक्‍सप्रेस से निकल रहा हूं रात 11 तक दिल्‍ली पहुंच जाऊंगा ताकि कल सुबह के कार्यक्रम में शामिल हो सकूं । आप सब भी अपने मित्र का मान बढ़ाने पहुंचे ।

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आपका ही सुबीर

मंगलवार, 10 मार्च 2009

मिलिये राक्षसी खण्‍डेलवाल, नीरजा गोस्‍वामी, गौतमी राजरिशी, जोगन मौदगिल और कई कवियित्रिओं से, देखिये उड़नतश्‍तरी से आईं समीरा लाली का अनोखा चित्र और काव्‍य पाठ इस होली के तरही मुशायरे में ।

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें हम तो परेशान आ ही गये हैं इन सुसरी कवियित्रिओं की टीम के कारण अब बताओ कविता उविता तो कुछ कहती नहीं हैं बस ये है कि सजाई धजाई में लगी हैं । अरे जोन कहें सो तोन कहें सरोता गन तूमका देखे के लाबे नहीं आय रहे सूनबे के लाने आये हैं । और ये क्‍या कहें उड़नतश्‍तरी अभीन तलक पहूंची ही नहीं ई सुसरी भी जाने कहां कहां गुल खिलाती रहती है, जोन कहें सो तोन कहें एक दिन नाक कटाएगी ई हमारी, जाने कौन घड़ी में इसको हमने मंडली में शामिल किया था । काहे से हम घूंघट नहीं उठा सकते, नहीं कौनो से सरम नहीं है पर हम गंजी है ना सो हम सर पे पल्‍लू रखती हैं । ई हमार दोनों असिस्‍टेंट हवलदार रमेश हठीला और ऊ सोना बाई कहां हैं । ए सोना बुला तो हवलदार को, कहो के यहीं खड़े रहे कवियित्रियां आ रहीं हैं सज धज के कौनहु का भरोसा नाहीं है  ।

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हवलदार रमेश हठीला                           सोना बाई

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें चलो री मोडि़यों चालू करो तो तुम्‍हारी कविता फविता । ए री कौन सुरू करेगी कार्यक्रम । चल री अरशिया बाई तू ही कर चालू मालूम है न तरही मुशायरा है तुम्‍हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं पर ।

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परकाशी बाई अरशिया :  मेरे हाथों में नौ नौ ........

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें मुजरा नहीं करना है गजल पढ़नी है गजल ।

परकाशी बाई अरशिया : छिमा करो हम भूल गईं थीं ।

सडान्धों  मे जो दिन हमने निकले याद आते है
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते है

अम्मा ने परोसा जब आलू और बैगन के
पकोडे संग ममता के निवाले याद आते है .

कभी गोबर कभी नाली मे सनके थे खड़े तनके
कहानी पर सडे अंडे ही वाले याद आते है

आया फाग रे भैया गावो आज भी होरी
पिटे थे जो हमने ढोल-झाले याद आते है

जो की थी मैंने शैतानी पिलाया था सभी को भंग
मगर भौजी की गारी,गोरे-गाले याद आते है

सभी मिलते है खेलते है पीते है पिलाते है
मेरे गाँव के सारे भोले भले याद आते है

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें चलो री सब खी खी क्‍यों कर रही हो ताली ठोंकों । चल री अरशिया पढ़ दी ना तूने अब छोड़ माइक को । अरे केसरिया वीनस बाबा तुम कहां इधर छोकरियों में घुसे आ रहे हो जोन कहें सो तोन कहें । चलो अच्‍छा पढ़ लो तुम भी एक पर जल्‍दी छोड़ना माइक ।

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केसरिया वीनस बाबा : अब बुढ़ापे के कारण ज्‍यादा नहीं पढ़ पाता तीन चार शेर पेल रहा हूं

जिन्हें दिन रात मंदिर औ शिवाले याद आते है
जो होली हो उन्हें भी मय के प्याले याद आते है
डुबो कर जिसमे तुम होली में सबको शुद्ध करते हो
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं
ये होली भी अजब त्यौहार है जिसमे न जाने क्यों
बुजुर्गों को जवानी के रिसाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें  बुढ़ऊ को इस समर में भी जवानी के रिसाले याद आ रहे हैं । चलो हटो जी आने दो हमारी छो‍करियों को, तुमको देख के श्रोता भाग जाएंगें । चल री नसवारी छीन तो बुढ़ऊ से माइक और हो जा शुरू ।

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दिगम्‍बरी बाई नसवारी दुबई वाली :  हम तो दुबई से इत्‍ती अच्‍छी कविता लाई हैं कि बस ।

 सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें  पर इत्‍ते छोटे कपड़े पहन के क्‍यों आई है ।

दिगम्‍बरी बाई नसवारी दुबई वाली : 

मुंहासों में जो अटके हाथ काले याद आते हैं
तुम्हारे साथ जो लम्हे निकाले याद आते हैं
जहां से छिप कर तुझे घूरते थे रोज़ ही हम
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं
आज भी रंग तेरे गाल पर हूँ जब लगाता
कभी गुंडे थे जो मेरे वो साले याद आते हैं
दिया था पुलिस में उस रोज़ तेरे बाप ने जिनको
वो मेरे हम निवाला पिटने वाले याद आते हैं
साथ मिल कर गिराते थे भरे कीचड़ के टब में
वो मोटी तौंद वाले, गंजे लाले याद आते हैं
भांग चोरी से पी थी साथ में खाई थी गुजिया
पड़े थे लट्ठ पिछवाडे वो छाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें अभी भी गंजे लाले याद आ रहे है मुई को । चल हट अलग नाक कटवा रही हो सब की सब जाने किस किस को याद कर रही हो । ए साधू बाबा कहां घुसे आ रहे हो यहां ।

शार्दूल महाराज नौगजा सिंगापुर वाले : बम बम हम सीधे सिंगापुर से आ रहे हैं कविता पढ़ने और पढ़ के ही जायेंगें कौन रोकेगा हमें ।

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें  नहीं रोकेंगें पढ़ लो तुम भी ए दिगम्‍बरी चल छोड़ दे माइक पढ़ लेन दे इनको भी इस उमर में भगवान के भजन की बजाय ग़ज़ल सूझ रही है ।

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शार्दूल महाराज नौगजा सिंगापुर वाले :

जो खोलूँ दूध के पैकेट, दही डब्बों का मैं खाऊँ
तो गोरी गाय, काली भैंसेंवाले याद आते हैं
जो निकलूँ बार से भरपूर इन मरदूद गलियों से
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं
तुम जब बोलते हो बिन रुके दिन-रात घंटों तक
हाय! मुझको अलीगढ़ के वो ताले याद आते हैं
और खा-पी के जो खर्राटे भरते हो नगाडों से
फ़टीचर भोंपू , टूटे तबलेवाले याद आते हैं
रातों में ठिठुरती हैं जब भी सहसा मेरी बाहें
ओ माँ! तेरे बुने रंगीं दुशाले याद आते हैं
क्या खोया है विदेशों में कभी जब सोचती हूँ मैं 
तेरी गलियों के दिन इतवार वाले याद आते हैं !
होली की बात भी ना कर, तुझे भाभी की है सौगंध
देवर जी मुझे कश्मीर वाले याद आते हैं
वो जो घूमा किया करते लिए साईकिल मेरे पीछे
सुना है मेरे लिक्खे गीत वो अब तक भी गाते हैं
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें अब हटो ई अपना तिरशूल लेके यहां से श्रोता डर रहे हैं । चल री गौतमी संभाल तो माइक । अरी गौतमी  कहां नैन मटक्‍का कर रही है श्रोता से चल आ जा माइक पे । और इत्‍ते दांत क्‍यों निकाल रही है मुई ग़ज़ल पढ़ ग़ज़ल । 

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गौतमी बाई राजरिशी दून वाली :  पढ़ तो रही हूं डांटती क्‍यों हो ।

वो सब वादे जो तू ने कर के टाले याद आते हैं
लबों के तेरे सब झूठे हवाले याद आते हैं
दमकती उस जवानी के उजाले याद आते हैं
किये आँखों से जितने भी निवाले याद आते हैं
निशाने ताक कर छेदे जिगर जिन से मेरे तू ने
तुम्हारी आँखों के मोटे वो भाले याद आते हैं
न अपने भाई से भिजवाओ कुछ,मुँह खोलता है जब
तुम्हारे शह्रभ के गंदे वो नाले याद आते हैं
उड़े थे चीथड़े जो भी तेरे आँगन की होली में
वो पैजामे वो कुर्ते छाप वाले याद आते हैं
बरस बीते पिटे मुझको तेरे उन मोटे मामों से
अभी भी तेरे बापू के वो साले याद आते हैं
नई जूती में अपना रौब यूँ उन पर जमा तो खूब
मगर तलवे के अब सारे वो छाले याद आते हैं
ये जाना जब कि वो तिरछी नजर है अस्ल  में ’तिरछी’
उन आँखों पर चढ़े ’रे-बैन’  काले याद आते हैं
लगाऊँगा तेरे गालों पे होली,सोचता हूँ जब
तेरी मम्मी ने है कुत्ते जो पाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें किसके कुर्ते छाप वाले याद कर रही है कलमुंही । सब बी सब आज ठान के ही आई हो क्‍या कि मेरी नाक जड़ से ही कटवा के जाओगी । मना कर रही हूं फिर भी दांत निकाल रही है । अरे दूल्‍हे राजा तुम कहां घुस रहे हो । ये शादी का मंडप नहीं है मुशायरा चल रहा है ।

डंकी सफर पूना वाला :  तुम्‍हारी सौं भौजी एक पढ़ लेन दो । कल नौकरी मिली है तब से ही दूल्‍हे की ड्रेस पहन के घूम रहा हूं । कोई तो मिलेगी । इधर भोत सारी इकट्ठी हैं शायद ग़ज़ल सुनकर कोई पसंद कर ले ।

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें शहर बसा नहीं लुटेरे पहले ही आ गये । चल पढ़ ले तू भी ।

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डंकी सफर पूना वाला : 

तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं.
उसी से भर के गुब्बारे उछाले याद आते हैं.
पकोडे मुफ्त के खाए थे जो दावत में तुम्हारी,
बड़ी दिक्कत हुई अब तक मसाले याद आते हैं.
भला मैं भूल सकता हूँ, तेरे उस खंडहर घर को,
वहां की छिपकली मकड़ी के जाले याद आते हैं.
बड़ी मुश्किल से पहचाना तुझे जालिम मैं भूतों  में,
वो वो चेहरे लाल पीले नीले काले  याद आते हैं.
कोई भी रंग न छोड़ा तुझे रंगा सभी से ही
तेरी उफ, हर अदा  के वो उजाले याद आते हैं.

 

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें शादी करने निकला है और मकड़ी के जाले छिपकली याद कर रहा है । अरे क्‍या छिपकली से करेगा शादी । चल छोड़ माइक को । जोगशी बर्मी बैंक वाली  कहां है बुलाओ उसे ।

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सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें तुम सब आज क्‍या मल्लिका शेरावत से मुकाबला करने को निकली हो । इससे छोटे कपड़े नहीं मिले क्‍या ।

जोगशी बर्मी बैंक वाली  : जो मिले पहन लिये पता है दिल्‍ली में कितनी गर्मी पड़ रही है । तुमको ग़ज़ल सुननी है कि कपड़ देखने हैं ।

तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं

घुटा जाता है दम मिलता नहीं है चैन खुशबू में
मिले तकदीर से झरने , जो काले याद आते हैं

हमीं से ब्लेकमेलिंग कर हमीं से छीन कर पैसे
चरस गांजा जो पीते थे वो साले याद आते हैं

किनारे बैठ कर नालों की खुशबु सूंघते अक्सर ,    
भरे थे जो लबालब माय के प्याले याद आते है 

और कभी मदहोश हो नालों में गिरकर
अजब से स्वाद, नालों के, मसाले याद आते हैं

कभी मुंडेर पर नालों की, बैठे बे-तकलूफ़ से 
जो हम ने पेट से "दस्त-ख़त "निकाले  याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें अरी बैंक वाली किसके दस्‍तखत निकाल के जालसाजी कर रही है । ऐ मुन्‍ना गुड्डू तुम कहां आ गये हियां । अरे जाओ अपनी अम्‍मा के पास जाओ हियां मुशायरा चल रहा है । क्‍या तुम भी ग़ज़ल पढ़ोगे, अरे बचुआ ये बच्‍चों का काम नहीं है । ए रोओ मत चलो पढ़ लो । ए बैंक वाली चल दे दे माइक बचुआ को ।

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कुकवि कांत पाण्‍डेय कानपुर वाले :   हम कोई बच्‍चे वच्‍चे नहीं है समझे ये तो हमारी अभी शादी हुई है सो हम ये कपड़े पहने हैं आपनी पत्‍नी को खुश करने के लिये । है क्‍या कि उसे बच्‍चे बहुत पसंद हैं ।

बुढ़ापे में कराये बाल काले याद आते हैं
मुझे करतब तुम्हारे सब निराले याद आते हैं
छुपे थे जिस जगह इक दिन तुम्हारे बाप के डर से
सड़ा, सीलन भरा कमरा वो जाले याद आते हैं
समोसे गर्म थे यारों लगी थी भूख जोरों की
इसी धुन में पड़े मुंह में जो छाले याद आते हैं
बड़े सब होटलों का खा लिया खाना मगर फ़िर भी
वो माँ के सील पर पीसे मसाले याद आते हैं
अभी जो हाल गंगा का बतायें क्या तुम्हे दिलवर
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें चलो अब जाके घर समोसे खाओ और अबके ठंडे करके खाना । चले आते हैं जाने कहां कहां से ।  चल री  जोगन मौदगिल्‍ली पानीपत वाली  ले ले बच्‍चे से माइक और हो जा शुरू पानी पी के पानीपत के युद्ध में । संचालन की तो सोचना भी मत यहां तो मैं ही करूंगी । मालूम है कि तुझे भी संचालन का बहुत शौक है ।

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जोगन मौदगिल्‍ली पानीपत वाली  : हमें करना भी नहीं है संचालन एक तो पानीपत से आते आते वैसे ही थक गये हैं और उस पे तुम्‍हारे ताने । ज्‍यादा करोगी तो बिना पढ़े चले जायेंगें ।

तेरे अब्बू ने जो लटकाये ताले याद आते हैं
वो पहरेदारी जो करते थे साले याद आते हैं
वो टूटा नल वो गीला तौलिया वो फर्श की फिस्लन
लगे थे गुस्लखाने में वो जाले याद आते हैं
वो रमज़ानी के कोठे पै जो मुरगा बांग देता था
उसी के साथ में उगते उजाले याद आते हैं
कोइ उल्लू का पट्ठा एक दिन भी बांध ना पाया
तेरे सब पालतू कुत्ते वो काले याद आते हैं
बहुत रुसवा किया तूने हमेशा तोड़ कर वादे
मुझे अब भी वो वादों के हवाले याद आते हैं
वो टीटू-नीटू अब भी अल्लसुब्ह ही बैठते होंगें
तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं
जो थी हमने कही ग़ज़लें कि वो तो भूल बैठे हम
तेरे मामू ने जो लिक्खे मक़ाले याद आते हैं
तेरी अम्मां भी झुकती थी तेरा अब्बू भी झुकता था
तेरी दीवार के सैय्यद के आले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें क्‍या टीटू नीटू का लौटा लेके भागने का इरादा है । क्‍या पानीपत से यहां तक रेल की खिड़की से टीटू नीटू को ही रेल की पटरी के किनारे .... देखती आई है । अरी लड़कियों से मुम्‍बई की नीरजा  आई की नहीं आई । अरी समीरा तू कहां धींग धडांग कर रही है चुप कर बैठ तेरा भा लम्‍बर आयेगा । अरी नीरजा  चल आजा माइक पे ।

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नीरजा गऊ सुआमी मुम्‍बई वाली : हम तो भोत दूर से आई हैं हम तो खूब सारी सुना के ही बैठेंगीं । हो नहीं तो । हमारी पोशाक देख रहीं हैं ये रंग बिरंगी इस पे ही बीस हजार खर्च हो गये हैं । लो सुना हमारी गजक..... अरे ग़ज़ल ।

पिलायी भाँग होली में,वो प्याले याद आते हैं
गटर, पी कर गिरे जिनमें, निराले याद आते हैं
दुलत्ती मारते देखूं, गधों को जब ख़ुशी से मैं
निकम्मे सब मेरे कमबख्त, साले याद आते हैं
गले लगती हो जब खाकर, कभी आचार लहसुन का
तुम्हारे शहर के गंदे, वो नाले याद आते हैं
भगा लाया तिरे घर से, बनाने को तुझे बीवी
पढ़े थे अक्ल पर मेरी, वो ताले याद आते हैं
नमूने देखता हूँ जब अजायब घर में तो यारों
न जाने क्यूँ मुझे ससुराल वाले याद आते हैं
कभी तो पैंट फाड़ी और कभी सड़कों पे दौड़ाया
तिरी अम्‍मी ने जो कुत्‍ते, थे पाले याद आते हैं
सफेदी देख जब गोरी कहे अंकल मुझे 'नीरज'
जवानी के दिनों के बाल काले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें अरी बुढ़ापे में सफेदी नहीं आयेगी तो क्‍या आयेगा मुम्‍बई वाली । चल छोड़ माइक को आने दे देहरादून वाली संजना चतुर्वेदन को ।

sanjay copy

देहरादून वाली संजना चतुर्वेदन :  इत्‍ते बाद में हमारा नंबर आ रहा है हम नाराज हैं फिर भी सुन लो सुनाए देते हैं ।

तुम्हें  देखा  तो  फिर  अंडे उबाले याद आते हैं
सडे वो  कोयलों से  दाँत   काले  याद आते हैं
तुम्हारी जुल्फ़ जब भी  देखता हूँ बाकसम जानम
हवेली में लगे  मकडी  क़े  जाले  याद  आते हैं
खुदा ने नाक मेरी सालियों के मुँह पे यूँ फिट की
अलीगढ  में बने  जेलों के  ताले  याद आते हैं
तुम्हें परफ्यूम की खुश्बू में जब भी तरबतर देखा
तुम्हारे  शहर  के  गन्दे  वो  नाले याद आते हैं
कभी रिक्शों  के  टायर  झूलते  देखे दुकानों पर
तुम्हारे  कान  पर  लटके  वो बाले याद आते हैं
सजी बारात में देखी  जो  छप्पन भोग की थाली
वो ताऊ  हाथ  में  लोटा  सँभाले  याद आते हैं
वो गुझिया चिप्स पापड से  भरी थाली अगर देखूँ
अपच  पेंचिश  डकारें  और  छाले  याद आते हैं
वो काले दिल पे जब रँगों ने अपनी छाप छोडी तो
अन्धेरों   से   लडे  ऐसे   उजाले  याद  आते  हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें  कौन से ताऊ को याद कर रही है लोटे वाले । चल अब छोड़ भी दे माइक को अब आ रही हैं वाशिंगटन वाली राक्षसी खण्‍डेलवाल जरा नखरे तो देखो एसा लग रहा है कि अमरीका से नहीं सीधे आसमान से ही आ रहीं हैं । ठीक है भई अच्‍छे गीत लिखती है मगर क्‍या बाकी के घास चरते हैं । आजा बाई आजा ऐसे हाथ बांध के गुस्‍से में खड़े होने से काम नहीं चलेगा । चल आजा तेरे पीछे कनाडा वाली भी बची है ।

rakesh ji

 राक्षसी खण्‍डेलवाल वाशिंगटन वाली : तमीज से बुलाओ मेरे तीन चार रिसाले आ चुके हैं गरीब लोगों तुम्‍हारे पास तो एक भी रिसाला नहीं है । मेरे मुंह मत लगो । सुनना है तो सुन लो कविता पूरी है लम्‍बी लट्ट कविता ।

बहाईं थीं जहां फ़ाकिर ने कागज़ की कभी कश्ती
कि जिसके साहिलों पर मजनुऒं की बस्तियां बसतीं
जहां हसरत तमन्ना के गले को घोंट देती थी
लगा कर लोट जिसमें भेंस दिन भर थी पड़ी हँसती
हरे वो रंग पानी के औ: काले याद आते हैं
तुम्हारे शहर के वो गन्दे नाले याद आते हैं

नहीं मालूम था हमको मुहब्बत जब करी हमने
कि माशूका की गलियों में लुटेंगे इस कदर सपने
जो उसके भाईयों ने एक दिन रख कर हमें कांधे
किया मज़बूर उसमें था सुअर के साथ मिल रहने
हमें माशूक के वो छह जियाले याद आते हैं
तुम्हारे शहर के वो गंदे नाले याद आते हैं

कहां है गंध वैसी, सड़ चुकी जो मछलियों वाली
जहां पर देख हीरों को बजी फ़रहाद की ताली
जहां तन्हाईयों में इश्क का बेला महकता था
जहां पर रक्स करती थी समूचे गांव की साली
अभी तक झुटपुटों के वे उजाले याद आते हैं

तुम्हारे गांव के वे ग्म्दे नाले याद  आते हैं
किनारे टीन टप्पड़ का सिनेमाहाल इकलौता
जहां हीरो किया करता था हीरोइन से समझौता
जहां पर सब सिनेमा देखते थे बिन टिकट के ही
जहां उड़ता रहा था मालिकों के हाथ का तोता
हमें उनके निकलते वे दिवाले याद आते हैं
तुम्हारे शहर के वे गंदे नाले याद आते हैं

जहां पर एक दिन फ़रहाद ने शीरीं को छेड़ा था
निगाहे नाज की खातिर किया लम्बा बखेड़ा था
कहां पर चार कद्दावर जवानों ने उठा डंडा
मियां फ़रहाद की बखिया की तुरपन को उधेड़ा था
हमें फ़रहाद के अरमाँ निकाले याद आते हैं
तुम्हारे शहर के वे गंदे नाले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली :  जोन कहें सो तोन कहें  अरी अब छोड़ भी दे माइक को । अमरीका से आई है तो क्‍या रात भर तू ही पढ़ेगी । चल हट अब जनता शोर मचा रही है कनाडा वाली समीरा लल्‍ली  के लिये । अरी समीरा अब नखरे मत कर आजा माइक पे जनता तेरा नाम ले ले के चिल्‍ला रही है । लो भई ये आखिरी आइटम है इसे झेलो और सुनो ।

sameer lal

समीरा लल्‍ली कनाडा वाली उड़ने वाली तश्‍तरी : गरीब लोगों जानते भी मेरी टीआरपी क्‍या है । अरे मैं तो छींक भी देती हूं तो टिप्‍पणियों की लाइन लग जाती है । गरीब जनता के गरीब लोगों तुम क्‍या जानो टिपपणियों की बौछार क्‍या होती है । एक एक टिप्‍पणियां मांगने वाले भिखारियों मेरे एक एक ठुमके पर हजार हजार टिप्‍पणियां आती हैं । चलो अब सुनो मेरी ये ग़ज़ल ।

तुम्हारे शहर के गंदे, वो नाले याद आते हैं
नहाते नंगे बच्चों के रिसाले याद आते हैं
था ऐसा ही तो इक नाला, तुम्हारे घर के आगे भी
हमें उसके ही किस्से अब, वो वाले याद आते हैं
तुम्हें छेड़ा था हमने बस ज़रा सा ही तो, नाले पर
पिटे फिर जिनके हाथों से वो साले याद आते हैं
तुम्हारा घर था बाज़ू से, नज़र दीवार से आता
हमें उस पर लगे, मकड़ी के जाले याद आते हैं.
हाँ छिप कर पेड़ के पीछे, नज़र रखते थे हम तुम पर
तुम्हारे गाल गुलगुल्ले, गुलाले याद आते हैं.
नशा नज़रों का तुम्हारा, उतारा बाप ने सारा
हमें रम का मज़ा देते, दो प्याले याद आते हैं
मिटा दी हर रुकावट हमने, अपने बीच की सारी
लगाये बाप ने तुम पर जो ताले, याद आते हैं
अँगूठी तुमको पीतल की, टिका कर उसने भरमाया
जो तुमने हमको लौटाए, वो बाले याद आते हैं
चली क्या चाल तुमने भी, जो कर ली गै़र संग शादी
हमें गुज़रे ज़माने के, घोटाले याद आते हैं.
जिगर को लाल करने को, गुलाल दिल पे था डाला
चलाए नज़रों से तुमने, वो भाले याद आते हैं 
अँधेरी रात थी वो घुप्प और बिजली नदारत थी
समीर’ भागे थे जिन रस्तों से, काले याद आते हैं

सुबीरा बाई सीहोर वाली : जोन कहें सो तोन कहें चलो अब खत्‍म करो काम । होली की शुभकामनाएं । हमारे पास तो कुछ नहीं है सुनाने को हम तो कोठे की मुन्‍नी बाई हैं जो खुद कुछ नहीं करती बस बैठे बैठे सुपारी काटती है और पान खाती है । सभी को होली की शुभकामाएं खुश रहो आनंद करों । कल होली है रंगों से आपका जीवन सदा ही रंगो से भरा रहे ।

सोमवार, 9 मार्च 2009

टेन टेनन और लीजिये ये आ रहीं हैं होली की उपाधियां जो नेट पर अपनी ऊटपटांग रचनाओं से श्रोताओं को जबरन बोर कर रहे कवियों और तथाकथित शायरों को दुमदार दोहों के रूप में दी जा रहीं हैं ।

होली है होली हैं रंगों वाली होली ।

लो साहब होली आ ही गई । हम कब से कह रहे थे कि भई हमें फोटो भेजों हम होली पर उपाधियां देने जा रहे हैं लेकिन मजाल है जो किसी के कान पर जूं भी रेंगें । खैर जस तस करके हमने कुछ फोटो तो ढूंढे और कविवर श्री रमेश हठीला जी ने उपाधियां देने का काम किया है । केवल एक उपाधी मेरे छात्र सोनू समीर ने दी है रमेश हठीला जी वाली । होली के अवसर पर बुरा मानने का कोई काम नहीं होता । हठीला जो और मैं पिछले दस सालों से स्‍थानीय समाचार पत्रों में होली की उपाधियां देने का काम करते आ रहे हैं । और उसमें एक ही वाक्‍य लिखते हैं बुरा मानो तो भाड़ में जाओ , तो यही बात यहां के लिये भी कि

बुरा मानो तो भाड़ में जाओ

होली है भइ होली है रंगों वाली होली है ।

उपाधियां देने में कोई जूनियरिटी सीनियरिटी नहीं है जिस क्रम में लिखा गये हैं उसी क्रम में प्रस्‍तुत हैं । अगर किसी सीनियर को ये बुरा लगे कि उसका नाम जूनियर के बाद आ रहा है तो ....... ऊपर की लाइनें पढ़ें । जिसका फोटो नहीं लगा है वो स्‍वयं को कोसे कि उसने फोटो क्‍यों नहीं भेजा । जिस को भी कुछ भी कहना हो वो श्री हठीला जी को उनके मोबाइल 09977515484 पर फोन लगा कर गालियां दे सकता है इसकी उसे स्‍वतंत्रता है ।

श्री अनूप जी भार्गव

 13
ईकविता का आपने, परचम रखा है थाम
अमरीका में आपने हिंदी का किया नाम
कभी भारत भी आओ,
काव्‍य का जाम पिलाओ

कैप्‍टन संजय चतुर्वेदी

14  
दूर गगन की छांव में, पहरा देते आप,
आती घर की  याद जब, लिखते कुछ चुपचाप
आंख कुछ भर आती है,
ग़ज़ल तब हो जाती है

कंचन चौहान

15

जैसा कंचन नाम है, वैसा लिखतीं आप
ब्‍लाग जगत पर आपकी कविता छोड़े छाप
कभी बन झांसी रानी,
करे हैं ये मनमानी

सुनीता शानू

29

निर्यातक ये चाय की अपने हैं बागान

किन्‍तु कवीता ने किया हिरदय में स्‍थान

चाय के संग कवीता

जैसे बारूद पलीता

लावण्‍या शाह जी

 6
बड़ा मृदुल सा नाम है, लिखतीं मीठे गीत
शब्‍द थिरकते काव्‍य में, भाव बने मन मीत
कल्‍पना है सतरंगी,
सुरों की ये सारंगी

शार्दूला नोगजा

 9
सात सुरों में ढाल कर, जब ये गातीं गीत
शरमा करके कोकिला, करती इनसे प्रीत
ये भारत भू की जाया
मगर सिंगापुर भाया

प्रकाश बादल

16  
जैसा कि उपनाम है, वैसा करते काम
सजो सजो कर काव्‍य के घट भर रहे निष्‍काम
कविता का कोष सजाते
कवि को दाद दिलाते

शैलेष भारतवासी

 30
हिंदी रग रग में बसी हिंदी इनका धर्म
हिंदी हित के वास्‍ते करते रहते कर्म
मिलेगा इक दिन रस्‍ता
चले चलो रफ्ता रफ्ता

विजेंद्र विज

 17
इंद्रधनुष से स्‍याही ले, देते चित्र उकेर
सात समंदर पार की, तुरत कराते सैर
तूलिका के ये साधक
कल्‍पना के आराधक

समीर लाल समीर

 8
उड़नतश्‍तरी बन गये, ये ब्‍लाग पर यार
दिखने में ऐसे लगें ज्‍यों यमपुर सरदार
ये हैं शोले के गब्‍बर
बच्‍चे छुप जाते डरकर

राकेश खण्‍डेलवाल जी

 25
कविता सुनकर आपकी, भाभी हो गईं बोर
कौन घड़ी में बंध गई, इन संग जीवन डोर
मायके कब तक जाऊं
पीर मैं किसे सुनाऊं

नीरज गोस्‍वामी

 7
सबसे हंस कर बोलते, जैसे मस्‍त मलंग
पहुंची नहीं ठिकाने पे, चिट्ठी ये बेरंग
ग़ज़ल की टांग तोड़ते
श्रोता हैं सर को फोड़ते

बीना टोडी

 26
जोगन मत बन जाना कहीं, है सुश्री जी आप
अब तक तो हर क्षेत्र में आप रही हो टाप
बंग का इन पर रंग है
संग इनके सतसंग है

रविकांत पाण्‍डेय

 21
वेलेनटाइन डे हुआ, इनके लिये अभिशाप
आ बैल मुझको मार का इनने भरा अलाप
फंस गया ये बैचारा
रोयेगा दिल का मारा

अंकित सफर

 1
टेड़ी मेढ़ी है बहुत यार ग़ज़ल की राह
अच्‍छा है हो जाये तिरा, इससे जल्‍द निकाह
मिली नौकरिया जैसे
मिले छोकरिया वैसे

प्रकाश सिंह अर्श

2  
नया नया ये छोकरा, लिख रहा ग़ज़ल ये खूब
धोका इसको दे गया कोई मुआ मेहबूब
हो गया ये दीवाना
ग़ज़ल का है परवाना

वीनस केसरी

 18
यक्ष प्रश्‍न ये नित करें सदा रहें कन्‍फ्यूज
ये बजाज का बल्‍ब है बस केवल है फ्यूज
खोपड़ी प्रश्‍न भरी है
प्रश्‍नवाचक गठरी है

दिगम्‍बर नासवा

4  
देखे हमने आज तक पत्‍नी जी से त्रस्‍त
आज दुबई में मिल गया हमको पत्‍नी भक्‍त
डोर संग पतंग है भैया
चले चलो छैंया छैंया

योगेंद्र मोदगिल

 5
संचालक बन खोल ली कविता की दूकान
ग़ज़लों से हैं मारते पानीपत मैदान
काव्‍य की खेती करते

इनसे श्रोता हैं डरते

सजीव सारथी

 3
कैसी ये आवाज की मचा रखी है धूम
बनकर हिंदी सारथी की हिंदी की बूम
मगर थोड़े से सनकी
ब्‍लाग पर चर्चा इनकी

गौतम राजरिशी

 20 
देश के पहरेदार हैं हमको इन पर नाज़
जाने कैसे लग गई इन्‍हें ग़ज़ल की खाज
छुप के कविता करते हैं
घराली से डरते हैं

अर्चना पंडा

 23
प्रेमचंद का आज तक मोह न पाईं तोड़
ले गईं याद समेट कर मातृभूमि को छोड़
ये हैं वैसी की वैसी
भले ही हईं परदेशी

विशाखा ठाकर

 24 
दर्द भरी ये गागरी छलक छलक ये जाए
नैनों से काजल बहा गीत विरह के गाए
मेरा कोई दरद न जाना
दिवानी कहे जमाना

अभिनव चतुर्वेदी

 22
जब से ये पापा बने, हो गए हैं बेहाल
इनके ब्रेन के काव्‍य ने, कर डाली हड़ताल
सूनो पप्‍पू के पापा

करो न ऐसे घांपा  

योगेश वर्मा

 10
करें बैं‍क की नौकरी और ग़ज़लों का पाठ
मोदक दोनों हाथ में खूब तुम्‍हारे ठाट
काव्‍य की एफ डी कर दो
ग़ज़ल को रिकरिंग में लो

पंकज सुबीर

 11 
अरे गुरूजी आपके, उड़ गये सारे बाल
उजड़ चमन सी आपकी, क्‍यूं दिख रही है टाल
प्रत्‍यारोपण करवाओ
या फिर नाखून बढ़ाओ

सोनू समीर

 27
नया नया मुल्‍ला है ये, पढ़ रहा पांच नमाज
जाने कैसे हो गई इसे कोढ़ में खाज
करेला नीम चढ़ा है
कवि ये बहुत बड़ा है

रमेश हठीला

 28
कविता भी कुछ सीख लो, कवि तो बन गये आप
रहते ऐसे संग में ज्‍यों अस्‍तीन में सांप
पत्‍नी का नाम है गंगा
करे जो हरदम दंगा

होली है भई होली है रंगों वाली होली है सभी को होली की शुभकामनाएं

 

 

 

गुरुवार, 5 मार्च 2009

समीर लाल जी के बिखरे मोती आ रहे हैं, होली को लेकर जुटे हैं हठीला जी उपाधियां देने में, तरही को लेकर जबरदस्‍त रचनाएं मिली हैं और हमारी दिल्‍ली की तैयारियां ।

होली तो आ ही गई है और वातावरण में  होली का उल्‍लास छाने लगा है । हम कवियों के लिये तो वैसे भी होली का अर्थ होता है कविता कविता और कविता । तो इस बार भी ग़ज़ल की कक्षाओं में होली को लेकर विशेष तैयारियां चल रहीं हैं । श्री रमेश हठीला जी की अपनी तैयारियां चल रहीं हैं तो इधर लोग भी दिये गये मिसरे पर उत्‍साह पूर्वक ग़ज़लें पेल रहे हैं । ऐसी पेल रहे हैं कि अपनी तो होली सप्‍ताह भर पहले ही मन रही है ।

पहले बात करते हैं समीर लाल जी की पुस्‍तक बिखरे मोती  के बारे में । समीर लाल जी जब पिछली बार बार भारत आये थे तब वे जनवरी में सीहोर भी आये थे और तब ही ये तय हुआ था कि उनकी पुस्‍तक शिवना प्रकाशन से आयेगी । किन्‍तु उसके बाद हिन्‍ुदस्‍तान की भांति भांति की नदियों में भांति भांति का पानी बह गया और पुस्‍तक पर काम चलता रहा । समीर जी अब एक बार फिर भारत में हैं तथा अब उस पुस्‍तक पर फिर काम प्रारंभ हुआ है । पुस्‍तक अब प्रिंट में जा चुकी है । संभवत: होली के पश्‍चात उसका विमोचन होगा । संग्रह में सबसे पहले तो समस्‍या ये आई कि समीर जी के कई रूप हैं और उस हिसाब से कई सारी कविताएं हैं तो क्‍या किया जाये । किन्‍तु जैसा होता है कि जब कोई राह नहीं सूझे तो बुजुर्गों से सलाह लेना चहिये अत: वयोवृद्ध कवि श्रद्धेय नारायण कासट जी से विमर्श किया गया और उनकी ही सलाह थी कि समीर जी का वो पक्ष इस संग्रह से सामने आये जिसको उन्‍होंने छुपा रखा है । श्री कासट जी का कहना था कि हास्‍य सुनने की चीज होता है जबकि गंभीर काव्‍य पढ़ने की । उनकी आज्ञा को समीर लाल जी ने भी शिरोधार्य किया और इस संग्रह में समीर जी का गंभीर रूप ही सामने आयेगा । पुस्‍तक का बहुत बेहतरीन कवर पृष्‍ठ श्री संजय बैंगाणी जी और श्री पंकज बैंगाणी जी ने छबी मीडिया द्वारा बनाया है जिसके बारे में ये ही कहा जा सकता है अद्भुत । शीघ्र ही समीर जी के गीतों, मुक्‍तकों, छंदमुक्‍त कविताओं, क्षणिकाओं तथा ग़ज़लों से सजी ये पुस्‍तक आपके हाथों में होगी बस थोड़ा सा इंतेजार ।

काफी लोगों को मजेदार उपाधियां देने का काम हठीला जी कर चुके हैं । मैं तो पूर्व से ही आनंद ले रहा हूं । दरअसल में हमारे यहां होली पर दुमदार दोहों के रूप में उपाधियां दी जाती है । दुमदार दोहे एक अलग विधा है हास्‍य की जिसमें दोहे के बाद दो छोटी छोटी दुमें भी होती हैं । जिनको जब कवि पढ़ता है तो श्रोता ठेके (ठेके का मतलब मुंह से अहा कहना)  लगाते हैं । जैसे पांच साल पहले जब मैंने एक दल विशेष के लिये प्रचार सामग्री बनाने में सहयोग दिया था तो हठीला जी ने अगली होली पर मुझे उपाधि दी थी

हवा देखकर आप भी बदल गये गुलफाम

सत्‍ता रज में लोट कर हो गये ललित ललाम

न बेंदा ना बेंदी का ( अहा)
ये लोटा बिन पैंदी का ( अहा)

एक अनुरोध है कि हम तो अपने हिसाब से ब्‍लाग के जितने कवियों को जानते हैं उनको ले रहे हैं । किन्‍तु यदि आप अपने को इस सूचि में शामिल करना चाहते हैं तो अपना परिचय भेज दें । रविवार को ये उपाधियां प्रदान की जायेंगीं जिनको आप लोग सोमवार को पढ़ सकेंगें । अत: यदि शनिवार तक अपना या किसी अन्‍य कवि का परिचय भेजना चाहें तो भेज दें ।

अब बात तरही मुशायरे की उसको लेकर जबरदस्‍त चीजें मिल रही हैं । राकेश खण्‍डेलवाल जी ने तो एक ऐसी नज्‍म उस मिसरे पर भेजी है कि उसे पढ़कर मैंने उनको एक ही मेल भेजी है राकेश जी आप तो मूल रूप से हास्‍य के कवि है आप कहां ये श्रंगार वृंगार में पड़ गये । तिस पर नीरज जी के उफ उफ शेर योगेंद्र जी की ग़ज़ल । मेरी तो होली मन ही गई है होली से पहले ही । जो लोग अपनी ग़ज़लें या नज्‍म नहीं भेज पायें हैं तुरंत भेजें । होली पास है तरही मुशायरा मंगलवार को होगा ।

उधर दिल्‍ली में ज्ञानपीठ का कार्यक्रम 14 को है सो वहां जाने की तैयारियां भी चल रहीं हैं । जैसी सूचना है कि 14 मार्च को दिल्‍ली में हिंदी भवन में ज्ञानपीठ के कार्यक्रम में पुस्‍तक का विमोचन होगा तथा नवलेखन पुरुस्‍कार प्रदान किये जायेंगें । 13 की रात्रि को पहुंचना है तथा 15 की सुबह भागना है । सो उसकी भी तैया‍रियां  चल रहीं हैं ।

ग़ज़ल का एब : आज का एब ये है कि ग़ज़ल में कोई भी एक पंक्ति यदि इस प्रकार का उच्‍चारण कर रही हो जो द्विअर्थी हो तो उसे एब माना जाता है । कई बार होता है कि हम मिसरे का आधा हिस्‍सा ऐसा बनाते हैं तो हमको तो पता ही नहीं चलता पर वो एक दूसरा अर्थ भी पैदा करता है । ये बात अलग है कि मिसरे के दूसरे हिस्‍से को पढ़ने पर वो अर्थ स्‍वत: ही समाप्‍त हो जाता है । किन्‍तु जब तक आप दूसरा हिस्‍सा नहीं पढ़ें तब तक तो वो ग़लत अर्थ पैदा कर ही रहा है । इसका उदाहरण मैं यहां नहीं दे सकता मर्यादाओं के चलते । बस ये सम्‍झ  लें कि एक मिसरा है

उजाले अपनी यादों के, हमारे साथ रहने दो

इसमें पहली अर्द्धाली है ''उजाले अपनी यादों के'' । यहां पर आप रुक कर फिर पढ़ते हैं ''हमारे साथ रहने दो'' तो यदि पहली अर्द्धाली द्विअर्थी है तो आपके दूसरी अर्द्धाली पढ़ने तक तो लोग संशय में आ ही जायेंगे । तो इस बात का ध्‍यान रखें । मैं उदाहरण नहीं दे पा रहा इसलिये जानता हूं कि कुछ लोगों को समझने में दिक्‍क्‍त आयेगी ।

चलिये आज की तस्‍वीर जो पिछली होली की मेरी स्‍वयं की है हठीला जी के निवास के बाहर जहां मेरे ही कम्‍प्‍यूटर के छात्रों ने मेरा ये हाल किया था ।

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