सोमवार, 1 मई 2023

आज ईद के तरही मुशायरे का हम समापन करते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल के साथ

मित्रों आज ईद के तरही मुशायरे का हम समापन करते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के की एक मुकम्मल घटिया ग़ज़ल के साथ। हालाँकि भभ्भड़ कवि ने इसे लिखने में भी पूरा सप्ताह लगा दिया है, मगर फिर भी हम इसे बासी ईद में शामिल कर लेते हैं। इस ग़ज़ल के साथ ही हम ईद के तरही मुशायरे को भी विधिवत समाप्त घोषित करते हैं।
"हिलाल-ए-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है"

भभ्भड़ कवि भौंचक्के
रहेगा ख़्वाब ही तेरा के उन क़दमों पे ये सर है
यही जन्नत है गर तेरी तो इस जन्नत को ठोकर है
कभी लगता है ये के आसमाँ पे सच में ईश्वर है
कभी फिर ये भी लगता है वहाँ भी सिर्फ़ पत्थर है

गले उसको लगाने दिल हमेशा अपना तत्पर है
और उस पे आज तो ये ईद का वैसे भी अवसर है
गुज़र जाती है सारी उम्र तय इसको ही करने में
ये दिल से आँख की दूरी जो बस बालिश्त ही भर है

लगा दे आग सारे मुल्क में नफ़रत की तू, पर सुन  
जलेगा एक दिन तू भी, यहाँ तेरा भी तो घर है
कभी घर छोड़ देता तू, कभी झोला उठा लेता
हमारी बात सुन बेटा ! तेरे पैरों में चक्कर है

किसे दिखला रहा दरिया तू बारिश में उफन कर यूँ ?
नहीं तू जानता क्या, सामने तेरे समंदर है
पुराने सब ख़ुदा, सारे मसीहा ख़त्म अब समझो
यहाँ अब एक ही, बस एक ही अब, बन्दा-परवर है

मेरे रश्क़-ए-क़मर को चाँद ने देखा तो वो बोला-
"हिलाल-ए-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है"
कहावत को बदल कर अब ज़रा कुछ यूँ किया जाए-
"है मुँह में नाम गाँधी का मगर हिटलर का पैकर है"

हमारी दास्तान-ए-इश्क़ गुम-गश्ता नदी कोई
नज़र आती नहीं पर रूह को छूती वो अक्सर है
ये सच है जीव-हत्या के मुख़ालिफ़ में खड़े
हैं वो
लहू इन्सान का पीते हैं वो, ये बात दीगर है

तेरे पीछे तो है ईमान वाला नेक ये बंदा
मगर तू सामने आये तो दिल मेरा ये काफ़र है
उसे सोने की चाँदी की ज़रूरत क्या है अब आख़िर
'सुबीर' उस शोख़ के तन पर हमारा लम्स ज़ेवर है

तो मित्रों अगर आपको ग़ज़ल ठीक लगे तो दाद दे दें, नहीं लगे तो कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती तो है नहीं। ख़राब लगे तो भभ्भड़ को उनके मोबाइल पर जी भर कर गालियाँ प्रदान करें। मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में। तब तक जै रा जी की।

सोमवार, 24 अप्रैल 2023

आइए आज ईद का तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं तिलक राज कपूर, चरनजीत लाल और मंसूर अली हाशमी के साथ।

दोस्तों ईद की भी परंपरा रही है कि हम ईद को बासी भी मनाते हैं। बासी ईद का अपना ही आनंद होता है। असल में सब कुछ जो त्यौहार पर बनाया गया था खाने के लिए, उसे एक दिन बाद, दो दिन बाद खाने का अपना ही मज़ा होता है। बासी त्यौहार असल में त्यौहार को जीवन में बनाए रखने का एक प्रयास होता है। तो हम भी ईद के इस त्यौहार को कुछ दिन और बनाए रखते हैं अपने जीवन में।

"हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है”
आइए आज ईद का तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं तिलक राज कपूर, चरनजीत लाल और मंसूर अली हाशमी के साथ।

तिलक राज कपूर
प्रयास-1
न पाने की तमन्ना है न अब खोने का ही डर है
समझ में आ गया जबसे कि ये दुनिया ही नश्वर है।
किसी को सिर्फ़ इक टुकड़ा ज़मीं रेशम का बिस्तर है
किसी को रेशमी बिस्तर पे नींद आना भी दुष्कर है।
ज़माने को समझने की बहुत कोशिश तो करता हूं
मगर इसको समझना छोड़ना लगता है बेहतर है।
नुमाइंदा चुनूं अपना मुझे अधिकार है लेकिन
कोई लंपट, कोई मक्कार है तो कोई जोकर है।
तुम्हें भी उसके आने पर यही धोखा हुआ होगा
"हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है।"
प्रयास-2
तुम्हारी ज़िद, कि सच कह दूं, जो मेरे दिल के अंदर है
बिखर जाएंगे सब रिश्ते, मुझे इस बात का डर है।
वो नन्हे हाथ जिनको हम थमा आए थे मुस्तकबिल
समय का फेर है कैसा, उन्हीं हाथों में पत्थर है।
लगा था पेट जब तक पीठ से, कुछ और थे तेवर
जरा सा पेट भरते ही तेरा बदला हुआ स्वर है।
मेरे अंदर उतर कर देखना क्या चाहते हो तुम
कोई अंतर न पाओगे जो अंदर है वो बाहर है।
यकीं उसपर हमें खुदसे अधिक रहता था लेकिन अब
समझ में कुछ नहीं आता, वो रहजन है कि रहबर है।
समझदारी का परिचय है संभलकर खोलना मुंह को
सुनाऊं दास्तां किसको न श्रोता हैं न अवसर है।
पहली ग़ज़ल में मतला ही क्या कमाल का है, दुनिया के फ़ानी होने की बात और जीवन को जीने की बात। रेशम और ज़मीं पर सोने के अंतर को बहुत सुंदर तरीक़े से दिखाया है। सबसे बड़ा सच यह कि दुनिया को बदलने की कोशिश मत करो, दुनिया नहीं बदलने वाली। लंपट, मक्कार और जोकर नुमाइंदे चुनने की बात गहरी है। और अंत के शेर में क्या कमाल है क्या सुंदर गिरह है। वाह। दूसरी ग़ज़ल में मतले में दुविधा का सुंदर चित्रण है। नन्हें हाथों में पत्थर होना हम सब की चिंता है, जिस पर सुंदर शेर कहा गया है। एक कड़वी सच्चाई पेट ख़ाली होने और भरने की, बहुत कमाल। रहजन और रहबर के बीच अंतर नहीं कर पाने की बात और भरोसे का टूटना, यही तो हम सबका जीवन है। और अंतिम शेर एक चेतावनी नहीं है बलिक एक समझाइश है। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

मंसूर अली हाशमी
किये रोज़े इबादत भी कि जिस्मो-जां मुतह्हर है
हिलाले ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है
कहे ईश्वर, कोई मालिक, विधाता, कोई शंकर है
पुकारे गॉड तो कोई कहे अल्लाह अकबर है
हुआ है ऑनलाइन जॉब अब दफ्तर ही घर पर है
हुआ करते थे पहले बॉस अब बीवी भी सिर पर है
पड़ा है गर्द में हीरा अंगूठी में जड़ा पत्थर
वो क्या है किस जगह पर है इसी पे सारा निर्भर है
लिखो एसा कि हाकिम को पड़े पल्ले नहीं कुछ भी
हुआ है कार्यरत ई डी तो मोहतात अब सुख़नवर है
बड़ी ही बे नियाज़ी से पुकारा तो सही आख़िर
ख़ुलासा इसका रहने दे वो बरतर है कि कमतर है
ज़मीं है आशिक़ाना औ'र संजीदा सुख़न तेरा!
है करना फ़लसफ़ा तो 'हाश्'मी' चोला मयस्सर है!!

मतले में ही बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। अगले शेर में सबका मालिक एक की भावना बहुत अच्छे से आई है। और वर्क फ्राम होम का एक दूसरा पहलू दिखाता हुआ मज़ाहिया शेर सच में कमाल है। अगला शेर बहुत कमाल है, जिसे जहाँ होना चाहिए वो वहाँ नहीं है, असल में सब कुछ जगह का ही खेल है। और अगला शेर एक बार फिर गहरा तंज़ कस रहा है। बरतर और कमतर के बीच के अंतर को मिटाता हुआ शेर सुंदर है। मकते का शेर भी बहुत सुंदर बन पड़ा है। वाह, वाह, वाह, बहुत सुंदर ग़ज़ल।

चरनजीत लाल, यू.एस.ए
हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है
ख़ुदाई नूर दिखने का यही तो दिन मुक़र्रर है
करो सब ख़ैर-मक़दम है फ़लक पर माहताब आया
कहो मत चाँद इसको ये तो ख़ुशियों का समंदर है
इबादत का महीना रफ़्ता-रफ़्ता ईद तक पहुँचा
क़मर पैग़ाम ख़ुशियों का लिये देखो उजागर है
किया आदाब कुछ यूँ गुल-फ़िशाँ ने गुल खिले हर सू
लबों की सुर्ख़ियों से गुलमोहर का लाल पैकर है
हमारी ज़िंदगी नेमत ख़ुदा की, प्यार में बीते
इरादे नेक हों तो फिर क़यामत का भी क्या डर है
गिले-शिकवे हज़ारों थे, भरी थीं नफ़रतें दिल में
गले मिलने के बाद उन पर दिलो-जाँ सब निछावर है
किया दीदार उसने चाँद का जब बाम पर आकर
कहा ये चाँद ने- 'अल्लाह मेरा क्या मुक़द्दर है'
गली से उनकी गुज़रे ईद पर, झाँके वो चिलमन से
मोहब्बत से 'चरन' अब जिस्मो-जाँ सब कुछ मो'अत्तर है

मतले में ही बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह को बाँधा गया है। उसके बाद चाँद के स्वागत के लिए आह्वान करता हुआ शेर ख़ूबसूरत है। इबादत का महीना बीत जाना और उसके बाद चाँद का दिखना, सुंदर मंज़रकशी है। किसी के बस आदाब करने से चारों तरफ़ फूल खिल जाना और गुलमोहर का लाल हो जाना। हम सबकी ज़िंदगी ख़ुदा की नेमत है, इसे प्रेम में बिताने वालों को क़यामत का भी डर नहीं होता। जिनसे गिले शिकवे थे, उनसे ईद पर गले मिलने के बाद प्यार उमड़ पड़ना यही तो त्यौहार होता है। और मकते के शेर में मोहब्बत की कहानी को बहुत सुंदरता के साथ स्वर मिले हैं। वाह, वाह, वाह, बहुत सुंदर ग़ज़ल।

तो आज के शायरों ने रंग जमा दिया है। सेंवई खाते रहिए और दाद देते रहिए। मिलते हैं बासी ईद में कुछ और रचनाकारों के साथ। तब तक सबको ईद मुबारक।

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

आइए आज से ईद का तरही मुशायरा आयोजित करते हैं गिरीश पंकज, धर्मेंद्र कुमार सिंह, तिलक राज कपूर-नीरज गोस्वामी, रेखा भाटिया और डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर के साथ।

ईद मुबारक, ईद मुबारक, सबको ईद मुबारक। ईद का चाँद कल नज़र आ गया है और आज ईद हो गई है। पवित्र रमज़ान का महीना इबादत करते हुए बीता है और अब उस इबादत के फल के रूप में ईद का यह त्यौहार सारी दुनिया को अता हुआ है। इस ईद पर बस यही प्रार्थना की जाए कि नफ़रतों का जो दौर चल रहा है, वह बीत जाए। प्रेम, करुणा, शांति का हर तरफ़ बोलबाला हो। आपसी प्रेम की गंगा एक बार फिर से बह उठे, आमीन।

"हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है”
आइए आज से ईद का तरही मुशायरा आयोजित करते हैं गिरीश पंकज, धर्मेंद्र कुमार सिंह, तिलक राज कपूर-नीरज गोस्वामी, रेखा भाटिया और
डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर  के साथ। 

गिरीश पंकज
वो मेरे दर पे आए हैं, हमारा क्या मुकद्दर है
यहाँ तो ईद है दुहरी अजब दिलकश ये मंज़र है
कभी मैं चाँद को देखूँ कभी सूरत तेरी देखूँ
"हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है"
मिलाए दिल से जो दिल को वही दिलदार कहलाए
वो क्या जानेगा दिल की बात जिसका दिल ही पत्थर है
मिलेंगे खोल के दिल को हमारा फ़र्ज़ है यह तो
हमारे दिल में जो अंदर वही तो सोच बाहर है
उसे ही ईद, होली या दिवाली खूब जमती है
फकीरी में भले हो आदमी दिल का सिकन्दर है
मुझे सेंवई खिला दो आज कल गुजिया खिला देना
मुझे मालूम है इनमें महब्बत की ही शक्कर है
जिसे मज़हब या धर्मों की दिवारें बाँध ना पाईं
वही पंकज हमारा रहनुमा है या के शायर है
मतले में ही बहुत अच्छे से दुहरी ईदका मंज़र सामने आ रहा है। और उसके बाद अगले ही शेर में गिरह को पारंपरिक तरीक़े से बहुत अच्छे से बाँधा है। दिलदार और पत्थर दिल की तुलना करता हुआ शेर सुंदर है। और दिल में अंदर और बाहर एक सा रहने की बात एकदम कमाल है। दिल का सिकन्दर होने की बात एकदम सही कही है, पर्व मनाने के लिए यही होना पड़ता है। सेंवई और गुजिया का तुलनात्मक अध्ययन करता शेर बहुत सुंदर है। और उतना ही सुंदर मकते का शेर है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

धर्मेन्द्र कुमार सिंह
समर्पित इश्क़ है जिसका वही शिव, सत्य, सुंदर है
किसी का हो न पाया जो समझ लेना वो पत्थर है
कहो जब न्याय कर ऐ दिल बताता ख़ुद को नौकर है
मगर जब-जब हो तड़पाना ये बन जाता कलेक्टर है
भले ही विश्व को लगता सदा वो व्यक्ति औघर है
ये दुनिया प्यार में त्यागी है जिसने चंद्रशेखर है
उसी से है मेरी दुनिया उसी पे खत्म है दुनिया
जिसे अपना कहा दिल ने वही रब के बराबर है
उसी का प्यार बन छाया रखे महफूज गर्मी से
बने बरसात में छतरी तो सर्दी का भी स्वेटर है
चुराकर ले गया नज़रों की सरहद पार वो दिल को
लगे मासूम सबको पर बड़ा ही दक्ष तस्कर है
मैं जिसमें तैरता हूँ, खेलता हूँ, डूब जाता हूँ
नहीं वो हुस्न का दर्या वो यादों का समंदर है
जिसे कहती है दुनिया धर्मपत्नी, श्रीमती, बीवी,
वो दिलबर है, वो रहबर है, वही मेरा मुकद्दर है
वो आया शाम को छत पर तो रब के मुँह से ये निकला
हिलाल-ए-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है
मेरी तन्हाईयों को थामकर जिंदा रखे `सज्जन'
किसी के साथ गुजरे थे जो उन लम्हों का गर्डर है
वाह क्या कमाल का मतला है धर्म को दर्शन की राह दिखाता हुआ शेर। कमाल। नौकर और कलेक्टर की तुलना करते हुए क्या कमाल इश्क़ का हुस्ने-मतला कहा है। और अगले ही शेर में औघर और चंद्रशेखर की तुलना करता एक और सुंदर हुस्ने-मतला।जिसे अपना कहा दिल ने वही रब के बराबर बहुत सुंदर। दक्ष तस्कर वाला शेर तो एकदम सुंदर बना है क्या कमाल क़ाफ़िया। पत्नी के लिए कहा गया शेर मिसरा सानी में अद्भुत समर्पण के साथ सामने आया है। और गिरह का शेर तो एकदम कमाल बना है। मकते के शेर में एक बार फिर सुंदर क़ाफ़िया। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
 

तिलक राज कपूर और नीरज गोस्वामी
करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना कि ईद आई
हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना कि ईद आई
किसी को याद करते ही अगर बजते सुनाई दें
कहीं घुँघरू कहीं कंगन, समझ लेना कि ईद आई
कभी खोलो अचानक , आप अपने घर का दरवाजा
खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना कि ईद आई
तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें
उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना कि ईद आई
हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल
अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना कि ईद आई
बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की
जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना कि ईद आई
अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज'
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना कि ईद आई
यह मूल रूप से नीरज गोस्वामी जी की ज़मीन है, जिस पर आधी खेती भी उनकी ही है, बस रदीफ़ का फ़सल तिलक राज कपूर जी ने लगा दी है। होली के अवसर पर नीरज गोस्वामी जी द्वारा लिखी गई सुप्रसिद्ध ग़ज़ल में ईद का रदीफ़ लगा कर उसे ईद की ग़ज़ल बना दिया है तिलक राज कपूर जी ने। और क्या कमाल किया है। यही तो हमारा भारत है, जहाँ होली और ईद में कोई फ़र्क़ नहीं होता । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह, सुंदर ग़ज़ल।

रेखा भाटिया
बची ख़्वाहिशें
ख़्वाहिशों के जंगल से चलकर
आज बची हुई ख़्वाहिशें नूरानी हैं
धरती में कुछ दबी थीं कुछ खिलीं
हर ख़्वाहिश दरख़्त की एक कहानी
वक़्त की लताओं से है लिपटा हुआ
एक वजह है हर दरख़्त का खिलना
हर वजह हर दरख़्त की बनती कहानी
एक इंसानी जीवन हज़ारों ख़्वाहिशें
अरबों इंसान धरती पर, अनगिनत हैं
ख़्वाहिशें बची हुई कैक्टस बन उगी हैं
दश्त बन धरती फट रही फिर बची हैं
ख़ुश्क रूहें अनजान हैं अब भी प्यासी
मुंतज़िर इबादत में माँगते हैं दुआएँ
हर दिन ईद हो जाए हर रात में हिलाल
गए साल की गुज़री ईद पर थोड़ी ज़्यादा
रूहें हुई थीं ख़ुश्क दिल के बियाबानों में
रिश्तों के परिंदों ने साँसें छोड़ी बेदम हो
इंसानों ने तोड़ा है रिश्ता क़ुदरत से अब
आज ईद है बची नूरानी ख़्वाहिशों की
रात घिर आने पर हर घर नूरानी ख़्वाहिशें
हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुन्नवर है !
यह कविता असल में एक दुआ है। हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उस दौर में एक काँपती हुई दुआ। जहाँ दुनिया में हर तरफ़ अशांति फैली हुई है वहाँ यह दुआ एक अमन की उम्मीद में थरथरा रही है।  उन नूरानी ख़्वाहिशों की ईद है, जिन्होंने अभी तक दुनिया के बेहतर हो जाने की उम्मीद का दामन छोड़ा नहीं है। यह रिश्तों के उन परिंदों की ईद है, जो बेदम हो रहे हैं, पर अभी भी दुआ माँग रहे हैँ दुनिया की बेहतरी के लिए। यह कविता ईद की असल कविता है। बहुत ही सुंदर कविता, वाह वाह वाह।

डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर
हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है
नहीं है चाँद तन्हा तारों का भी लाव लश्कर है
रखें विश्वास जो तुझ पर वही क्यों पाते हैं पीड़ा
अभागे पूछते तुझसे ख़ुदा कैसा मुक़द्दर है
सियासत तो सदा मोहरा बना कर छोड़ती आई
नहीं है डर पड़ोसी का सियासत का हमें डर है
अगर बाँटेगा वो तो बस मुहब्बत ही वो बाँटेगा
भरा जिसके सदा दिल में मुहब्बत का समंदर है
मिटा कर भेद आपस में मुसलमां और हिंदू का
मुबारक ईद में डूबा मनाता जश्न घर घर है
मतले में ही बहुत सुंदरता के साथ गिरह को बाँधा गया है। चाँद के साथ तारों का लाव लश्कर भी आया है। जिन लोगों को ख़ुदा पर भरोसा है उनको ही पीड़ा मिलती है यह प्रश्न जायज़ है। सियासत पर गहरा व्यंग्य लिये हुए है अगला शेर। सच कहा जिसके दिल में मुहब्बत का समंदर हो वह तो मुहब्बत ही बाँटेगा। और अंत में त्यौहार के अवसर पर धर्मों के भेद को मिटाता हुआ शेर। वाह वाह वाह, बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

तो आज के शायरों ने रंग जमा दिया है। सेंवई खाते रहिए और दाद देते रहिए। मिलते हैं बासी ईद में कुछ और रचनाकारों के साथ। तब तक सबको ईद मुबारक।

सोमवार, 10 अप्रैल 2023

वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 8, अंक : 29, अप्रैल-जून 2023 अंक

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा एवं संपादक पंकज सुबीर के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 8, अंक : 29, अप्रैल-जून 2023 अंक अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय, मित्रनामा, साक्षात्कार- एक लेखक को उसी के बारे में लिखना चाहिए, जिसको वह जानता है, समझता है। हरि भटनागर से आकाश माथुर की वार्ता। विस्मृति के द्वार से- दिमाग़ की दीवारों से चिपके अनाम और अविस्मरणीय से नाम- सुदर्शन प्रियदर्शिनी। कथा कहानी- दूध की धुली- डॉ. रमाकांत शर्मा, मन न भये दस बीस- सुधा जुगरान, शून्य से आगे- कमलेश भारतीय, डॉलर ट्री- शुभ्रा ओझा, यह देश हुआ बेगाना- गोविन्द उपाध्याय, मैं क्यों नहीं- अदिति सिंह भदौरिया, टॉमी पकड़ो मुझे- प्रेम गुप्ता 'मानी', किसके लिए- डॉ. पूरन सिंह। भाषांतर- सेफ्टी किट- पंजाबी कहानी, मूल लेखक : जिंदर, अनुवाद : जसविंदर कौर बिन्द्रा। लघुकथा- वित्तीय संकट- प्रो. नव संगीत सिंह, शिकारी- ज्ञानदेव मुकेश, नेगटिव मार्किंग- ज्ञानदेव मुकेश, निर्णय- राजनंदिनी राजपूत, जीवंत ग़ज़ल- वीरेंद्र बहादुर सिंह। ललित निबंध- त्यौहारों के लिंग- वंदना मुकेश। शहरों की रूह- सफेदी की विशालकाय चादर पर छोटे-छोटे पैर- हंसा दीप। व्यंग्य- कीर्तिशेष महाकवि मौजानन्द- पूरन सरमा, झूठ बुलवाए रे जो मशीनवा मोबाइलवा की- पूजा गुप्ता। संस्मरण- कैसे -कैसे लोग- कादम्बरी मेहरा। ग़ज़ल- सतपाल ख़याल, अनिरुद्ध सिन्हा। कविताएँ- विशिष्ट कवि- चन्द्र मोहन, ब्रजेश कानूनगो, ममता त्यागी, खेमकरण 'सोमन'। गीत- सत्यशील राम त्रिपाठी। आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र- पंकज सुबीर, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, शहरयार अमजद ख़ान, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी, आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

ऑनलाइन पढ़ें पत्रिका-

https://www.slideshare.net/vibhomswar/vibhom-swar-april-june-2023pdf

http://www.vibhom.com/pdf/april_june_2023.pdf

वेबसाइट से डाउनलोड करें

http://www.vibhom.com/vibhomswar.html

फेस बुक पर

https://www.facebook.com/Vibhomswar

ब्लॉग पर पढ़ें-

http://shabdsudha.blogspot.com/

http://vibhomswar.blogspot.com/

कविता कोश पर पढ़ें

http://kavitakosh.org/kk/विभोम_स्वर_पत्रिका

गुरुवार, 23 मार्च 2023

ईद पर तरही मुशायरे के लिए मिसरा

दोस्तो हमारे भारत में सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ पर हमारे पर्व, त्यौहार हमें अकेले या उदासी में घिरने ही नहीं देते। एक त्यौहार जाता है तो एक आ जाता है। शायद हमारे पूर्वजों ने इनका निर्धारण इस प्रकार किया था कि इंसान को एकाकीपन की एकरसता से दूर किया जाए। अब देखिए न होली का त्यौहार विदा लेकर गया है तो एक साथ दो पवित्र दिन आ गये हैं। इधर रमज़ान शुरू हो रहे हैं तो उधर नवरात्रि का पर्व भी। दोनों ही कठिन व्रतों के पर्व हैं। आराधना के, इबादत के पर्व हैं। इस बार रमज़ान मार्च में ही प्रारंभ हो गये हैं। अप्रैल के अंत में ईद होगी। बरसों पहले की याद है जब मेरी परीक्षाओं के समय में ईद आई थी। असल में इस्लाम तथा हिन्दू, दोनों धर्मों में चाँद के हिसाब से वर्ष का निर्धारण होता है। लेकिन चंद्रवर्ष होता है 354 दिनों का और सूर्य वर्ष होता है 365 दिनों का। हिन्दू धर्म में अधिक मास की व्यवस्था है  जिससे सूर्य और चंद्र वर्ष में जो 11 दिनों का अंतर है उसे तीन वर्ष बाद बैलेंस कर दिया जाता है। हर तीन वर्ष (असल में 32 महीने 16 दिन बाद) बाद एक अधिक मास आ जाता है तीस दिनों का, जो पीछे हो रहे चंद्र कैलेंडर को एक बार फिर सूर्य कैलेंडर से सम कर देता है। इस्लामिक कैलेंडर में भी हज़रत मोहम्मद साहब के समय ऐसा ही होता था (ऐसा मैंने पवित्र क़ुरान की भूमिका में पढ़ा है) लेकिन बाद में इस्लाम में अधिक मास की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। इसके कारण यह होता है कि चंद्र और सूर्य कैलेंडर का सम नहीं हो पाता और चंद्र कैलेंडर सूर्य कैलेंडर से 11 दिन पीछे हर वर्ष होता जाता है। लगभग 32 से 33 साल लगते हैं एक चक्र को पूरा होने में। मतलब यह कि अगर 1990 में मार्च-अप्रैल में पवित्र रमज़ान का महीना आया होगा, तो अब 2023 में मार्च अप्रैल में आ रहा है। हिन्दू धर्म में इसीलिए ऐसा होता है कि होली का पर्व पहले मार्च के तीसरे सप्ताह में आता है, अगले वर्ष दूसरे सप्ताह में, फिर पहले सप्ताह में आता है, इससे पहले कि यह चौथे वर्ष फरवरी में पहुँचे, एक अधिक मास आ जाता है और होली एक बार फिर मार्च के अंतिम सप्ताह में पहुँच जाती है। जैसे इस बार होली मार्च के प्रथम सप्ताह में है और इसी वर्ष अधिक मास, जिसे मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं 18 जुलाई से 16 अगस्त तक रहेगा। इस कारण 2024 में होली एक बार फिर 25 मार्च मतलब अंतिम सप्ताह में पहुँच जायेगी। यदि इस्लाम में भी अधिक मास की यह व्यवस्था हो तो ईद भी इसी प्रकार सूर्य कैलेंडर के हिसाब से सम पर बनी रहे।

ईद पर तरही की परंपरा इस ब्लॉग पर रही है, तो आइए इस बार उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ईद के मुशायरे की तैयारी में लिए मिसरा घोषित किया जाये। इस बार बहुत प्रचलित बहर में यह मिसरा कहा गया है। बहरे-हज़ज मुसमन सालिम एक बहुत ही प्रचलित बहर है, जिस पर बहुत ग़ज़लें कही जाती हैं। यह एक बहुत मधुरता से गायी जाने वाली बहर है, जिसका तरन्नुम भी बहुत शानदार होता है। तो इस बार हम इसी बहर पर काम करेंगे।

हिलाले-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है

जैसा कि आपको बहर से ही पता चल रहा है कि 1222-1222-1222-1222 के वज़्न पर मिसरा है। इस बार मिसरे में रदीफ़ है “है” और क़ाफ़िया है “अर” की ध्वनि जैसे घर, डर, बाहर, अंदर, शायर, पत्थर, समंदर, मुक़द्दर, मुनव्वर, मतलब 2 के वज़्न पर जैसे “घर, डर”, 22 के वज़्न पर “बाहर, मंज़र”, 122 के वज़्न पर  “समंदर, मुनव्वर” या 2122 के वज़्न पर  “लाव-लश्कर” जैसे आप क़ाफ़िये ले सकते हैं। 

पिछली बार कुछ लोगों ने कहा था कि बहर के साथ कुछ प्रसिद्ध गीत भी दिये जाएँ ताकि पहचानने में आसानी हो तो इस बार बार इस बहर के कुछ प्रसिद्ध गीत-

बहारों फू - ल बरसाओ - मेरा महबू - ब आया है

1222-1222-1222-1222

या फिर एक और गीत यह भी है-

ख़ुदा भी आ – समाँ से जब – ज़मीं पर दे - खता होगा

1222-1222-1222-1222

सोमवार, 13 मार्च 2023

आइए आज मनाते हैं बासी होली भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल के साथ

इस बार मिसरा कुछ कठिन होने के कारण प्रतिभागियों की संख्या कम ही रही। उस पर यह भी हुआ कि रदीफ़ और क़ाफ़िया का मेल भी ज़रा कठिन था। असल में इस बार इस बात का ख़तरा बहुत ज़्यादा था कि ज़रा सी असावधानी से रदीफ़ असंबद्ध हो जाएगा। मतलब यह कि उसका पूरे मिसरे से कोई संबंध ही नहीं बचेगा, उसके बिना भी मिसरा मुकम्मल रहेगा। कुछ शायद यह भी कारण रहा और य​ह भी कि इस बार समय भी कुछ कम दिया गया तरही के लिए। जो भी हो फिर भी कई लोग आ गए और मुशायरा हो गया ठीक प्रकार से। हाँ इस बार आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी पहली बार अनुपस्थित रहे हैं, जबसे हमने तरही प्रारंभ की है तब से ऐसा कभी नहीं हुआ। उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता हो रही है, यदि कोई मित्र उनके बारे में जानकारी प्रदान कर पाएँ तो बहुत अच्छा। उनको किए गए मेल का भी उत्तर नहीं प्राप्त हुआ है।
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
आइए आज मनाते हैं बासी होली भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल के साथ।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
मैं भी ख़तरे में हूँ साथी जब तक तू ख़तरे में है
जुम्मन कैसे चैन से सोये गर अलगू ख़तरे में है
सब अपना सुख-दुख बाँटें यह उनको है मंज़ूर नहीं
पीर-पराई में बहता जो वह आँसू ख़तरे में है
धीरे-धीरे बढ़ता ही आता है नफ़रत का पानी
हम जिस पर हैं प्रेम का वह सुंदर टापू ख़तरे में है
गोदी वालों नया शगूफ़ा जल्दी से कोई छोड़ो
दाढ़ी वाले बाबा का काला जादू ख़तरे में है
कुछ भी नहीं किया हो लेकिन 'आएगा तो फिर वो ही'
उसको बस इतना तो कहना है- 'हिन्दू ख़तरे में है'
जो भी चमकेगा वह उनकी आँखों में चुभ जाएगा
चंदा, सूरज, हर इक तारा, हर जुगनू ख़तरे में है
स्याह 'घृणा-जल' का चलता व्यापार अयोध्या नाम से अब
अविरल, निर्मल, रामप्रिया, पावन सरयू ख़तरे में है
संसद-वंसद, नेता-वेता, मंत्री-वंत्री के कारण
चम्बल, बीहड़ ख़तरे में हैं, हर डाकू ख़तरे में है
हम सब आदम की संतानें यह 'सुबीर' तुम याद रखो
कोई है ख़तरे में तो अपना ही लहू ख़तरे में है

तो यह है भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल, यदि ठीक लगे तो दाद दीजिए नहीं तो कोई बाध्यता तो नहीं है। भभ्भड़ कवि का नया उपन्यास 'रूदादे-सफ़र' पढ़ना चाहें तो अमेज़न पर जाकर ऑर्डर कर सकते हैं। https://www.amazon.in/dp/B0BXP1VZXM


शनिवार, 11 मार्च 2023

आइए आज मनाते हैं बासी होली तिलक राज कपूर जी की सुंदर ग़ज़ल के साथ।

धीरे-धीरे आकर ट्रेन पकड़ने वालों की ग़ज़लें अब प्राप्त हो रही हैं। चूँकि हमारे यहाँ रंगपंचमी तक या यूँ कहें कि शीतला सप्तमी तक होली का पर्व मनाया जाता है। शीतला सप्तमी पर होली पर पानी छिड़क कर उस आग का ठंडा किया जाता है। और उसके साथ ही होली पर्व का समापन हो जाता है। इसलिए हम भी शीतला सप्तमी तक तो होली मना ही सकते हैं।
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
आइए आज मनाते हैं बासी होली तिलक राज कपूर जी की सुंदर ग़ज़ल के साथ।

तिलक राज कपूर
सोंधे सोंधे रिश्तों वाला हर जादू ख़तरे में है।
सम्बन्धों को मीठा करता हर पहलू ख़तरे में है।
फेर समय का कैसा है, जो था धांसू, ख़तरे में है
रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है।
रंग भरी पिचकारी लेकर बच्चे घर में ढूंढ रहे
अम्मी को तो रंग डाला है अब अब्बू ख़तरे में है।
दरवाज़े पर हुड़दंगी हुरियारों की है भीड़ जमा
बचने की कोशिश करनी है, कर ले तू ख़तरे में है।
मिष्ठान्नों पर रंगबिरंगी पैकिंग का जादू देखा
गुड़धानी, गुझिया, खुरमा वाला जादू ख़तरे में है।
मतले में ही बहुत सुंदरता से रिश्तों के धीरे-धीरे छीजते जाने की कहानी बहुत सुंदरता के साथ कही है तिलक जी ने। सचमुच जो कुछ हमारे संबंधों को मीठा करता था, वह सब कुछ अब ख़तरे में ही है। हुस्ने मतला में बहुत अच्छे से गिरह बाँधी गई है। अम्मी और अब्बू को रंग लगाने की बच्चों की कोशिश का प्रयोग अगले शेर में दिल को ख़ुश कर रहा है। और होली का पूरा चित्र खींच रहा है अगला शेर जिसमें होली के हुरियारों की पूरी भीड़ दरवाज़े पर जमा है और बचने वाला बचने की कोशिश में लगा हुआ है। अंतिम शेर में एक बार फिर होली के समाप्त होते रीति-रिवाजों की बात कही गई है। सचमुच अब ऐसा ही लगता है कि होली का जादू अब ख़तरे में ही है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

आज तिलक जी की ग़ज़ल ने बासी होली का रंग जमा​ दिया है। आप भी दाद दीजिए और इंतज़ार कीजिए भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल का जो फिलहाल अपने उपन्यास "रूदादे-सफ़र" के प्रचार में लगे हुए हैं।  https://www.amazon.in/dp/B0BXP1VZXM

शुक्रवार, 10 मार्च 2023

आइए आज मनाते हैं बासी होली डॉ. रजनी मल्होत्रा नैयर, गुरप्रीत सिंह 'जम्मू' और सौरभ पाण्डेय के साथ।

होली का मुशायरा हर बार की तरह हर तरह के रंगों का गुलदस्ता लेकर आया है। रंगों का यह त्योहार उमंग और उल्लास से भरा होता है। इस बार हमने इस त्योहार की उन परंपराओं को मिसरे में लिया है, जो परंपराएँ पीछे छूटती जा रही हैं। उमंग और उल्लास से भरी हुई पुरानी होलियों की यादों को अपने मुशायरे में इस बार जगह प्रदान की है। होली असल में एक संधिपर्व होता है, जो ग्रीष्म और शिशिर के संधिकाल में आता है। जिस प्रकार दीपावली आती है, वर्षा और शिशिर के संधिकाल में। आइए आज अपने तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं।
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
आइए आज मनाते हैं बासी होली डॉ. रजनी मल्होत्रा नैयर, गुरप्रीत सिंह 'जम्मू' और सौरभ पाण्डेय के साथ।

डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर
धीरे धीरे सारे पर्वों का जादू ख़तरे में है
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
बिन सोचे धो डाला तूने चौराहे के गुंडों को
वो सब तुझ पर टूट पड़ेंगे अब तो तू ख़तरे में है
कितनी अंधी और करेगी भौतिकता की दौड़ हमें
जीवनदायी साफ़ हवा, पानी हर सू ख़तरे में है
बनकर आया जिन बच्चों को बेच दिया करती हैं जो
आया से पलने वाला वो  हर बाबू  ख़तरे में है
गैस, शुगर, बीपी सबको, कैसा सबका जीवन है ये
बेदम साँसें थमती धड़कन बेकाबू ख़तरे में है
मतले में ही गिरह को बहुत सुंदर तरीक़े से लगा कर उसी चिंता की तरफ़ इशारा किया गया है, जो चिंता हम सब की चिंता है कि हमारे जीवन से पर्व समाप्त हो रहे हैं। उसके बाद चौराहे के गुंडे को धोने के बाद के ख़तरे की तरफ़ ठिठौली में इशारा किया गया है। पर्यावरण की चिंता आज हमारी प्राथमिकताओं के होनी चाहिए, साफ हवा और पानी कब तक मिलता रहेगा यह सोचना चाहिए। अगले शेर में बिन माँ-बाप के पल रहे बच्चों के सिर पर मँडरा रहे ख़तरे की बात अच्छे से कही गई है। और अंतिम शेर तो जैसे हमारे समय का एक कड़वा सच है। बहुत ही शानदार ग़ज़ल वाह वाह वाह।

गुरप्रीत सिंह 'जम्मू'
जानवरों के घर, उनके पुरखों की भू खतरे में है
जंगल की तो बात ही छोड़ो अब तो ज़ू खतरे में है
तुझ को लगता है सरहद के पार अदू खतरे में है
अपना मुस्तकबिल तो देख ले भईए तू खतरे में है
माली को बस एक ही रंग के फूल चाहिएं गुलशन में
यानी सब फूलों की मिली जुली खुशबू खतरे में है
राजा जी की सोच से सब का सहमत होना है लाज़िम
जो उसके विपरीत दिखेगा वो पहलू खतरे में है
जब खतरे में होती है नेताओं की कुर्सी तो वो
चिल्लाते हैं मुस्लिम खतरे में, हिंदू खतरे में है
देश की जनता धीरे धीरे जाग रही, हक मांग रही
अब सत्ता और सत्ता का हर इक पिट्ठू खतरे में है
आप गुरु जी ठीक ही फरमाते हैं, सच्ची बात है ये
रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू खतरे में है
उसके पीछे पड़ने वाला है सारा सरकारी तंत्र
उसने सच तो बोल दिया पर अब 'जम्मू' खतरे में है
मतले में पर्यावरण की चिंता पर बहुत अच्छे से बात कही गई है। और हुस्ने-मतला में अदू की चिंता छोड़ कर अपना घर बचाने की सलाह सुंदरता से दी गई है। एक ही रंग के फूलों वाली बात क्या शानदार कटाक्ष है हमारे आज के रहनुमाओं पर, ख़ूब। और राजाजी की सोच से सहमति वाला इसी रंग का अगला शेर भी एकदम सटीक प्रहार है, कमाल। कुर्सी जब ख़तरे में आए तो हिंदू मुस्लिम करने की चाल को अगले शेर में बख़ूबी उजागर किया गया है। देश की जनता के जागने और हक़ माँगने पर इतना ही कहा जा सकता है... आमीन। गिरह का शेर क्या नए तरीक़े से लगाया गया है, एकदम बातचीत के अंदाज़ में, कमाल कमाल। और मकते का शेर भी हमारी वर्तमान सत्ता की कार्यप्रणाली को एकदम खोल कर सामने ला रहा है। वाह वाह वाह, शानदार ग़ज़ल।

सौरभ पाण्डेय
छोड़ो यारा क्या कहना किनके पहलू खतरे में हैं
भ्रष्ट प्रशासक, गुंडे नेता, खल-साहू खतरे में हैं
सब ही चाहें चैन-अमन की बंसी बाजे गली-गली
चैन-अमन के अर्थ मगर, सुन लो दद्दू, खतरे में हैं
एक समय था मिलजुल फगुआ खेल-खेल सब गाते थे
फोन-मुबाइल से त्यौहारों के जादू खतरे में हैं
अब तक नदिया बेचारी थी, लेकिन नाम कमाई थी
अब तो जल, जल-जीवन क्या, तट औ’ बालू खतरे में हैं
सूने हैं चौपाल बगीचे संस्कारों के ढंग गजब
रंग अबीर गुलाल फाग रसिया टेसू खतरे में हैं
पत्रों में तब हाल दिलों का अक्षर-अक्षर चूता था
मैसिज की अब होती भाषाएँ चालू, खतरे में हैं
अपने-अपने सूबे के सब राजे क्या, महराजे हैं
लेकिन अब मनबढ़ुओं के सब टिम्बकटू खतरे में हैं
मतले में ही विरोधाभास के साथ कटाक्ष को अच्छे से पिरोया गया है। अगले शेर में चैन-अमन को लेकर एक बार फिर बहुत अच्छे क़ाफ़िये का प्रयोग करते हुए ग़ज़ल के अंदाज़ में बात कही गई है। मोबाइल के आने से पर्वों का आनंद किस प्रकार कम हो रहा है उसको लेकर पूरी चिंता के साथ अगला शेर सामने आता है। प्रकृति का दोहन करता मानव और नदी से बालू निकाल कर पर्यावरण को असंतुलित करता इंसान, अगला शेर हमारे आने वाले भयावह कल की चेतावनी के रूप में है। अगला गिरह का शेर छीजते हुए रिश्तों की बात को सुंदरता के साथ कह रहा है। पत्र और सोशल मीडिया मैसेज के बीच का अंतर बताता हुआ अगला शेर अंदर से भावुकता पैदा कर रहा है। और अंतिम शेर एकदम तीखे तीर की तरह पार उतर रहा है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

तो आज के तीनों रचनाकारों ने होली का रंग जमा दिया है। आप भी दाद दीजिए और होली का आनंद लीजिए। बासी होली मनाने इस बार भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी आ सकते हैं। फ़िलहाल भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपने इस नये उपन्यास 'रूदादे-सफ़र' के प्रमोशन में जुटे हैं, जिसकी अमेज़न पर प्रीबुकिंग इस लिंक पर प्रारंभ हो चुकी है-  https://www.amazon.in/dp/B0BXP1VZXM पढ़ने की इच्छा हो तो पिता-पुत्री के भावनात्मक संबंधों पर आधारित यह उपन्यास आप भी बुक कर सकते हैं। 







मंगलवार, 7 मार्च 2023

आइए आज मनाते हैं होली गिरीश पंकज, धर्मेंद्र कुमार सिंह, सुधीर त्यागी, संजय दानी और रेखा भाटिया के साथ।

दोस्तों इस बार बहुत व्यस्तता रही है, और शायद इस बार व्यस्तता सभी की रही है, इसलिए इस बार तरही पर रचनाएँ बहुत कम आई हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि इस बार का मिसरा थोड़ा कठिन सा है। सबसे पहले तो इसकी बहर ही कुछ उलझन पैदा कर रही है, ऐसा कुछ लोगों ने बताया। उसके बाद इस बार का क़ाफ़िया और रदीफ़ भी थोड़ी उलझन कर रहे हैं। ख़ैर जो भी हो, कुछ शायरों ने तो अपनी रचनाएँ भेजी हैं, जिनके साथ हम होली का यह तरही मुशायरा मनाएँगे। मैं भी इस बार बहुत थकान में हूँ। आज ही पुस्तक मेले से लौट कर आया हूँ, कल होली है इसलिए आज ही यह तरही कर रहा हूँ। हर बार की तरह होली की पोस्ट लगाने की कोशिश की, लेकिन थकान ने रोक दिया। ख़ैर जो है जैसी है, होली तो हमको मनानी ही है। यह भी तय है कि बहुत से लोग बाद में अपनी ग़ज़लें भेजेंगे, जिनके साथ हम होली का बासी तरही मुशायरा मनाएँगे।


"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
आइए आज मनाते हैं होली गिरीश पंकज, धर्मेंद्र कुमार सिंह, सुधीर त्यागी, संजय दानी और रेखा भाटिया के साथ।

गिरीश पंकज
प्यार-मोहब्बत-भाईचारा अब हर सू ख़तरे में है
इतने बंट गए लोग यहाँ हिंदी-उर्दू ख़तरे में है
मत इतना निश्चिंत तू हो के आग लगी है दूर कहीं
तुझ तक भी आग ये पहुँचेगी बन्दे सुन तू ख़तरे में है
महंगाई की डायन बढ़ती चली आ रही है देखो
रामभरोसे, राधा, माधव और ननकू ख़तरे में है
ये विकास की नई गन्दगी नष्ट करेगी दुनिया को
नीलगगन बस बचा हुआ है अभी तो भू ख़तरे में है
नफरत की आंधी में अब तो उत्सव भी रोते पंकज
"रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”

 मतले में ही बहुत अच्छे से हमारी आज की सबसे बड़ी समस्या को चित्रित किया गया है। हिन्दी और उर्दू के बीच की समस्याएँ दोनों के लिए ही ख़तरा हैं। और अगला शेर भी उसी क्रम को आगे बढ़ाता हुआ है कि दूसरे के घर की आग को देख कर निश्चिंत मत रहिए। और उसके बाद महँगाई की डायन के प्रकोप से काँपते हुए घरों की बात है। फिर विकास की गंदगी से नष्ट होते हुई दुनिया को बहुत अच्छे से शेर में कहा गया है। मकते के शेर में गिरह बहुत सुंदरता के साथ बाँधी गई है। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।


धर्मेन्द्र कुमार सिंह
जनता समझ रही बस पूँजी का जादू ख़तरे में है
कौन बताए बेचारी को पगली तू ख़तरे में है
झेल रहे इस कदर प्रदूषण मिट्टी, पानी और हवा
रंग, अबीर, गुलाल, फाग रसिया टेसू ख़तरे में है
इनके बिन दुनिया में सबकुछ रंगहीन हो जाएगा
भाईचारा, प्यार, वफ़ा इनका जादू ख़तरे में है
मालिक निकला चोर उचक्का दुनिया ने मुँह पर थूका
नौकर बोल रहा मेरा सोना बाबू ख़तरे में है
बेच दिया उपवन माली ने कब का अब तो ये लगता
बंधन में हैं फूल और उनकी ख़ुश्बू ख़तरे में है
जिसने अपनी छाती से ही तोपों का मुंह मोड़ दिया
नोट कुतरते चूहों को लगता बापू ख़तरे में है
बोझ उठाकर पूंजी सत्ता का बेचारा वृद्ध हुआ
मारा जाएगा `सज्जन’ अब तो टट्टू ख़तरे में है

 वाह क्या ग़ज़ब किया है मतले के शेर में जनता का नादानी पर बहुत ही सुंदरता के साथ कटाक्ष किया गया है। और अगले ही शेर में पर्यावरण की बात को बहुत अच्छे से गिरह में बाँधा गया है। सच कहा गया कि प्यार वफ़ा भाईचारा इन सबके बिना सच में रंगहीन हो जाएगी दुनिया। मालिक और नौकर वाले शेर में क्या छुपा कर व्यंग्य किया गया है, बहुत ख़ूब। माली, उपवन और फूलों का शेर देश के आज के हालात का पूरा ब्यौरा दे रहा है, वाह। नोट कुतरते चूहों के साथ बापू का क़ाफ़िया सुंदरता के साथ आया है। और टट्टू तो कमाल आया है मकते में। वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।


डॉ. सुधीर त्यागी
फागुन में गदराए फूलों की ख़ुशबू ख़तरे में है,
ढोल, नगाड़े, ताशे अब सब का जादू ख़तरे में है।
फीकी रंगत त्योहारों की बाज़ार सभी पे हावी,
रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है।
पस मंज़र है एक समंदर खोई-खोई आँखों में,
बर्फ़ जमी है आँखों से दिल तक आँसू ख़तरे में है।
इश्क़ निभाना इश्क़ गँवाना खुश होकर लम्हे जीना,
किस पहलू की बात करूँ मैं हर पहलू ख़तरे में है।
रोशनी तेरे खास मुहाफिज़ जलते कुमकुमे लील गए,
दीयों की क्या बात करें अब तो जुगनू ख़तरे में है।

 मतले में ही होली का पूरा चित्र प्रस्तुत किया गया है। वह होली जो हमारी स्मृतियों में बसी हुई है उस होली का पूरा चित्र। और अगले ही शेर में गिरह का शेर बहुत ही सुंदरता के साथ बना है। समंदर का आँखों में होना और उसके बाद बर्फ़ तथा आँसू का पूरा चित्र बहुत ही कमाल का है। इश्क़ में होना और इश्क़ में नहीं होना फिर याद करना, वहा क्या ही सुंदर तरीक़े से कहा गया है सब कुछ। और अगले शेर में हमारे पिछली दीवाली वाले मिसरे को यहाँ लाकर यादों को ताज़ा किया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।


डॉ संजय दानी दुर्ग
रंग अबीर गुलाल फाग रसिया टेसू ख़तरे में है।
अपने त्यौहारों की बगिया की ख़ुशबू ख़तरे में है।
अब सरकार शराब को पूरी तरह बंद करेगी जल्द,
मुझको लगता है के मोहल्ले के मंदू ख़तरे में है।
तूने छह बहनों वाली औरत से शादी क्यूँ कर की,
मैं दावे से कह सकता हूँ सुन अब तू ख़तरे में है।
जब से बेहद तेज़ उजाले देने वाले बल्ब हुए,
तब से अपना चमकीला साथी जुगनू ख़तरे में है।
जबसे शहर की जनता पनीर की दीवानी हो बैठी है,
तब से सदा बहार हमारा ये आलू खतरे में है। 

सच कहा है कि अपने त्यौहारों की बगिया की सारी ख़ुश्बुएँ अब ख़तरे में ही हैं। अच्छे से मकते में ही गिरह को बाँधा गया है। होली के हास्य को अगले ही शेर में शराबबंदी और मंदुओं की परेशानी में चित्रित किया गया है। और हास्य की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए छह बहनों वाली महिला से शादी करने की बात को कहा गया है। बल्बों की दुनिया में जुगनुओं के सामने आ रही लुप्त होने की समस्या को अगला शेर अच्छे से कह रहा है। और पनीर के सामने आलू के संकट में घिर जाने की बात भी अच्छे से कही गई है। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।


रेखा भाटिया
आज बलम हुए हैं रसिया वीकेंड का दिन है भैया
देख बगिया में डाली-डाली पंछी, पीली-पीली धूप
देख पेड़ों पर खिले जामुनी, सफ़ेद, गुलाबी फूल
आया बसंत दिन हुए नरम-गरम याद आया फागुन
मन पंछी फाग गा रहा परदेस में देस याद आ रहा
वहाँ पहाड़ों पर खिले होंगे टेसू, चंपा, बसंत रानी
होली आते छा जाती थी बसंत उत्सव की मस्ती
खिलता तन-मन साजन-सजनी खेलते प्रेम होली
भर पिचकारी प्रेम के रंगों की रूठने -रिझाने की
पकड़े गए आया खतरे में रंग गुलाल, अबीर का
वही सजनी बनी पत्नी निष्ठावान साजन पति की
आज बलम हुए हैं रसिया वीकेंड का दिन है भैया
आ सजनी मिलकर यादों को थोड़ा ताज़ा कर लें
आ दो चुंबन धर दूँ, गालों पर थोड़ा गुलाल मल दूँ
देख धरा पर, मौसम का मिज़ाज़ है बहुत यौवन पर
आँखें तरेर इठलाती इतराती अकड़ कर बोली पत्नी
ओ बाबू दूर हो, तुम संग न खेलूँ मैं रंग गुलाल, अबीर
ऑर्गेनिक लाल रंग मेरे बालों का, मँहगा है मैनीक्योर
फूलों वाला इत्र, लोशन लगाकर मुझे न भाये रंग निगोड़े
छोड़ ठिठोली शाम होने आई है अभी तो पार्टी टाइम है
रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है भैया 

 होली का पूरा चित्र प्रस्तुत कर रही है यह कविता, जिस कविता में भाव भी हैं और हास्य भी है। जिसमें बसंत है, पहाड़ हैं, रंग है, धूप है। और इन बिम्बों को लेकर बहुत सुंदरता के साथ बात कही गई है। साथ ही प्रेमी के साथ छेड़छाड़, गालों पर गुलाल मल देने की बात और चुंबनों से होली मनाने की बात भी इस कविता में प्रेम के रंग लेकर आती है। और मैनीक्योर, ऑर्गेनिक लाल रंग के माध्यम से सहज हास्य भी उत्पन्न किया गया है। बहुत ही सुंदर कविता, वाह वाह वाह।

होली है भाई होली है रंगों वाली होली है। आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। आज के पाँचों रचनाकारों ने होली का रंग जमा दिया है। आप भी दाद दीजिए। और यदि आगे रचनाएँ आती हैं, तो हम होली के बासी मुशायरे का भी आनंद लेंगे।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

होली का तरही मुशायरा

मित्रो बहुत व्यस्तता चल रही है नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले की। इस कारण इस बार तरही मुशायरे का मिसरा भी नहीं दिया गया। चूँकि पुस्तक मेला भी 5 मार्च तक रहना है, इसलिए इस बार हो सकता है कि तरही मुशायरा होली के बाद ही आयोजित हो पाए क्यों​कि छह तारीख़ को दिल्ली से वापसी हो पाएगी उसके बाद एक ही दिन का समय ही बीच में। ख़ैर उससे कुछ नहीं होता हम लोग तो शीतला सप्तमी तक होली मनाते हैं इसलिए इस बार भी हम होली के बाद ही आयोजन करेंगे। तरही का मिसरा दिया जा रहा है इस पर अपनी ग़ज़लें प्रेषित करें।

“रंग, अबीर, गुलाल, फाग, रसिया, टेसू ख़तरे में है”
क़ाफ़िया है “टेसू” शब्द में आ रही “ऊ” की ध्वनि, जैसे जादू, तू, बाबू  और रदीफ़ है  “ख़तरे में है”

होली की धीरे-धीरे समाप्त हो रही परंपराओं और प्रथाओं को  देख कर इस बार यह मिसरा दिया है। बहर पकड़िए और लिख डालिए ग़ज़ल। कोशिश रहेगी कि होली के साथ ही तरही का आयोजन हो पाए। देखते हैं क्या संभव हो पाता है।

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 7, अंक : 28, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2023 अंक

मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा, संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक, शहरयार, सह संपादक शैलेन्द्र शरण, आकाश माथुर के संपादन में शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 7, अंक : 28, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2023 अंक अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल हैं-  आवरण कविता / डॉ. वंदना शर्मा। संपादकीय / शहरयार। व्यंग्य चित्र / काजल कुमार। शोध आलोचना- एब्सर्ड नाटक और 'तीन अपाहिज’, संज्ञा उपाध्याय, वंचितों के प्रवक्ता- डॉ. सचिन गपाट। केंद्र में पुस्तक- ज़िंदगी की सबसे सर्द रात, डॉ. राकेश शुक्ल / कल्पना मनोरमा, कृष्ण बिहारी। पुस्तक समीक्षा- मेरी माँ में बसी है, सत्यम भारती / डॉ.भावना, सूखे पत्तों पर चलते हुए- राज बोहरे / शैलेन्द्र शरण, मन की तुरपाई- अदिति सिंह भदौरिया / सुधा ओम ढींगरा, अपने समय के साक्षी- रितु सिंह वर्मा / नंद भारद्वाज, पेड़ तथा अन्य कहानियाँ- अंतरा करवड़े / अश्विनीकुमार दुबे, सफ़ह पर आवाज़- कैलाश मंडलेकर / विनय उपाध्याय, बन्द कोठरी का दरवाज़ा- अनिता रश्मि / रश्मि शर्मा, सामाजिक अध्ययन नवचार- गोविन्द सेन / प्रकाश कान्त, बुद्धिजीवी सम्मेलन- गोविन्द सेन / पंकज सुबीर, दुनिया मेरे आसपास- प्रकाश कान्त / एकता कानूनगो बक्षी, नक़्क़ाशीदार केबिनेट- कमल चंद्रा / सुधा ओम ढींगरा, काला सोना- डॉ. एस. शोभना / रेनू यादव, धापू पनाला- अखतर अली / कैलाश मंडलेकर, पोटली- दीपक गिरकर / सीमा व्यास, एक गधा चाहिए- प्रो.नव संगीत सिंह / डॉ. दलजीत कौर, पाँचवाँ स्तंभ- ब्रजेश कानूनगो / जयजीत ज्योति अकलेचा। शोध आलेख- राजनारायण बोहरे के उपन्यासों में ग्राम्य जीवन- डॉ. पद्मा शर्मा, मधु कांकरिया की कहानी कला और उनका वैचारिक संसार- डॉ. इंदू कुमारी, संजीव के 'फाँस' उपन्यास में किसान जीवन- श्वेता जायसवाल, शिवानी की कहानियों में नारी-चरित्र- महेन्द्री कुमारी, किन्नर समाज : तीसरी दुनिया की तीसरी ताली- डॉ. अर्जुन के. तडवी, प्रवासी और भारतीय साहित्य सृजन में गांधीवाद की प्रासंगिकता- अविनाश कुमार वर्मा- आंजणा चौधरी जाति का समाज जीवन, पटेल आकाश कुमार संजय भाई, आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में कृषि संस्कृति- गौरव सिंह, कक्षा 12 में अर्थशास्त्र विषय के पाठ्यक्रम का विश्लेषणात्मक अध्ययन- शोध श्रीमती शक्ति साहू, ओरछा के भित्ति चित्रों का चित्रात्मक अध्ययन, भक्ति अग्रवाल, संत दरियाव की वाणी : वर्तमान प्रासंगिकता, मनीष सोलंकी, कुबेरनाथ राय के निबंधों में वर्णित राम- सुजाता कुमारी, राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारिता- एवं गाँधीजी का प्रभाव, डॉ. कोमल आहिर, मास मीडिया का समाज में प्रभाव- पटेल धाराबेन पी., श्रीमद्भागवत में योग-साधना की आध्यात्मिक महत्ता- डॉ. ज्योत्सना सी रावल, सल्तनतकाल में भारतीय संस्कृति का मूल्यांकन, संदीप कुमार राजपूत, Diabetes, test, Diagnosis Diabetes Risk & Care- Dr. Chhayaben R. Suchak, Programme To Increase The Aptitude For English- Katara Sejalbahen Nathubhai, Social Value of Parents and Children in Joint and Nuclear Families- Dr. Harshadkumar R. Thakkar, Exploring Indian Mythology in Modern Scenario- Patel Sitaben Kalubhai, Freedom Of The Press And The Human Rights- Dr Manishkumar Ramanlal Pandya, People In The Raj Quartet- A Study- JyotiYadav, Public-Private Sector Composition In Indian Economy- Nidhi Tewatia, Impact of Goods and Services Tax in Retail Sector- VVV. Satyanarayan डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
ऑन लाइन पढ़ें-    
https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-january-march-2023pdf
https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_january_march_2023
http://www.vibhom.com/shivna/jan_mar_2023.pdf
साफ़्ट कॉपी पीडीऍफ यहाँ से डाउनलोड करें
http://www.vibhom.com/shivnasahityiki.html
फेसबुक पर-
https://www.facebook.com/shivnasahityiki/
ब्लॉग-
http://shivnaprakashan.blogspot.com/

वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 7, अंक : 28, जनवरी-मार्च 2023 अंक

 

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा एवं संपादक पंकज सुबीर के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 7, अंक : 28, जनवरी-मार्च 2023 अंक अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय। मित्रनामा। साक्षात्कार- नए कवियों में स्थापना की हड़बड़ी और अपने पुरखों-पूर्वजों-अग्रजों के लिखे को अनदेखा करने की प्रवृत्ति है, वरिष्ठ कवि वसंत सकरगाए से शिवना साहित्यिकी के सह-संपादक आकाश माथुर की बातचीत। विस्मृति के द्वार से- किस्सा, किस्सों और उसके पीछे- पीछे मैं, गीताश्री। कथा कहानी- बा-इज़्ज़त बरी, रेनू यादव, रुके क़दम, यूँ आगे बढ़ें...- उषा राजे सक्सेना, जॉन की गिफ़्ट- पुष्पा सक्सेना, चबूतरा- विनीता राहुरीकर, खामोशी का साझापन- डॉ. अमिता प्रकाश, एक बूँद समंदर- मीनाक्षी दुबे, मैं मधु नहीं- राजकुमार सिंह, वसीयत- अनुजीत इकबाल। भाषांतर- ज़ख़्मी पंखों की फड़फड़ाहट, पंजाबी कहानी, मूल लेखक : अजमेर सिद्धू, अनुवादकः सुभाष नीरव, सौदा- मराठी कहानी, मूल कथाकार: रा. रं. बोराडे, अनुवादक : डॉ. सचिन गपाट। ललित निबंध- नव पर नव स्वर दे.., विनय उपाध्याय, अनंत, फेसबुक और मेटावर्स- डॉ. गरिमा संजय दुबे। शहरों की रूह- स्रेत्येंका-सदियों को समेटते चंद रास्ते, प्रगति टिपणीस। व्यंग्य- मठ हाउस, दिलीप कुमार, साहित्यकार बनने के नुस्खे- चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव, कुत्ते की मौत- हनुमान मुक्त, बीमार रहने के शौकीन लोग- उर्दू व्यंग्य, मूल रचना – कृष्ण चंदर, अनुवाद - अखतर अली, बस एक चुप-सी लगी है..- कमलेश पांडेय। लघुकथा- मेरा बेटा, मेरा लाल- डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, योगदान- टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"। संस्मरण- डॉ. राजेंद्र मिश्र : पॉलीटिक्स से बेख़बर- ब्रजेश श्रीवास्तव। आलेख- हिन्दी ग़ज़ल में समकालीनता, डॉ. भावना। आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र- पंकज सुबीर, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी,  शहरयार अमजद ख़ान,  सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी, आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
ऑनलाइन पढ़ें पत्रिका-
https://www.slideshare.net/vibhomswar/vibhom-swar-january-march-2023pdf    
https://issuu.com/vibhomswar/docs/vibhom_swar_january_march_2023 
http://www.vibhom.com/pdf/jan_mar_2023.pdf
वेबसाइट से डाउनलोड करें
http://www.vibhom.com/vibhomswar.html
फेस बुक पर
https://www.facebook.com/Vibhomswar
ब्लॉग पर पढ़ें-
http://shabdsudha.blogspot.com/ 
http://vibhomswar.blogspot.com/ 
कविता कोश पर पढ़ें
http://kavitakosh.org/kk/विभोम_स्वर_पत्रिका

परिवार