तो दोस्तो आज हम तरही मुशायरे के आख़िरी पड़ाव पर आ गए हैं। आज कार्तिक पूर्णिमा है आज प्रकाश पर्व है, आज गुरुनानक जयंती है, तो आज हम पन्द्रह दिवसीय प्रकाश पर्व का समापन करने जा रहे हैं। दीपावली से आज पूर्णिमा तक पूरा पखवाड़ा प्रकाश को समर्पित रहा है। बहुत अच्छा मुशायरा रहा और बहुत सुंदर रचनाएँ पढ़ने को मिली हैं।
क़ुमकुमे यूँ जल उठेंगे, नूर के त्यौहार में
आज भभ्भड़ कवि 'भौंचक्के'की एक मुसलसल घटिया ग़ज़ल के साथ हम समापन करते हैं दीपावली 2022 के तरही मुशायरे का।
भभ्भड़ कवि 'भौंचक्के'
कल घटा था दिन-दहाड़े और कुछ बाज़ार में
पर छपा है और ही कुछ आज के अख़बार में
कुछ नहीं रक्खा सुनो ! इस व्यर्थ हाहाकार में
स्वर्ग का आनंद है राजा की जय-जयकार में
हो गया अपराध कितना ही बड़ा तो क्या हुआ
सर झुका कर बैठ जाओ शाह के दरबार में
हम ही बहरे हैं जो हमको कुछ सुनाता ही नहीं
कह रहे हैं लोग डंका बज रहा संसार में
भूख, बेकारी, ग़रीबी, कुछ नहीं आता नज़र
आजकल खोए हैं सारे कलयुगी अवतार में
सीधी, तिरछी, ढाई घर, हर चाल चल लेता है वो
गुण हैं राजा से अधिक उसके सिपहसालार में
जो मुख़ालिफ़ आपके हैं, मूर्ख हैं कमबख़्त सब
इन दीवानों को है सुख मिलता रसन और दार में
ख़ानदान अपने को अब के कैसा ये मुखिया मिला
आग लगवा दी है जिसने पुरखों के कोठार में
आप से पहले हुकूमत थी ही कब कोई यहाँ
जाने किसने लिख दिया इतिहास सब बेकार में
उफ़! ये राजा, उफ़! ये मंत्री, क्या छटा दरबार की
"क़ुमक़ुमे ज्यों जल रहे हों नूर के त्योहार में"
कुछ घृणा की नागफनियाँ, केक्टस अलगाव के
आपके स्वागत में गूँथे हैं ये बंदनवार में
सीबीआई, ईवीएम, ईडी, ज्यूडिशरी, आईटी
जान हर तोते की है महाराज के अधिकार में
जब क़बीले से कहा सरदार ने- 'आभार हो'
बिछ गई सारी प्रजा कालीन बन आभार में
वो ही हैं अब पक्ष भी और वो ही हैं प्रतिपक्ष भी
अब नहीं है भेद कुछ भी जीत में और हार में
फिर 'सुबीर' इस शह्र में बाग़ी नहीं होगा कोई
गोलियाँ पड़ जाएँगी जिस दिन यहाँ दो-चार में
पर छपा है और ही कुछ आज के अख़बार में
कुछ नहीं रक्खा सुनो ! इस व्यर्थ हाहाकार में
स्वर्ग का आनंद है राजा की जय-जयकार में
हो गया अपराध कितना ही बड़ा तो क्या हुआ
सर झुका कर बैठ जाओ शाह के दरबार में
हम ही बहरे हैं जो हमको कुछ सुनाता ही नहीं
कह रहे हैं लोग डंका बज रहा संसार में
भूख, बेकारी, ग़रीबी, कुछ नहीं आता नज़र
आजकल खोए हैं सारे कलयुगी अवतार में
सीधी, तिरछी, ढाई घर, हर चाल चल लेता है वो
गुण हैं राजा से अधिक उसके सिपहसालार में
जो मुख़ालिफ़ आपके हैं, मूर्ख हैं कमबख़्त सब
इन दीवानों को है सुख मिलता रसन और दार में
ख़ानदान अपने को अब के कैसा ये मुखिया मिला
आग लगवा दी है जिसने पुरखों के कोठार में
आप से पहले हुकूमत थी ही कब कोई यहाँ
जाने किसने लिख दिया इतिहास सब बेकार में
उफ़! ये राजा, उफ़! ये मंत्री, क्या छटा दरबार की
"क़ुमक़ुमे ज्यों जल रहे हों नूर के त्योहार में"
कुछ घृणा की नागफनियाँ, केक्टस अलगाव के
आपके स्वागत में गूँथे हैं ये बंदनवार में
सीबीआई, ईवीएम, ईडी, ज्यूडिशरी, आईटी
जान हर तोते की है महाराज के अधिकार में
जब क़बीले से कहा सरदार ने- 'आभार हो'
बिछ गई सारी प्रजा कालीन बन आभार में
वो ही हैं अब पक्ष भी और वो ही हैं प्रतिपक्ष भी
अब नहीं है भेद कुछ भी जीत में और हार में
फिर 'सुबीर' इस शह्र में बाग़ी नहीं होगा कोई
गोलियाँ पड़ जाएँगी जिस दिन यहाँ दो-चार में
तो यह है भभ्भड़ कवि की ग़ज़ल, आप कह सकते हैं कि यह तो पन्द्रह दिन से खाए जा रहे सुस्वादु भोजन के बाद कंकर वाली दाल की तरह है। ख़ैर झेल लीजिए इसे और गालियाँ भभ्भड़ को व्हाट्सएप से भेज दीजिए। मिलते हैं अगले मुशायरे में, तब तक, जय जय।