प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
शब्दों को लेकर जो बहस चल रही थी वो किसी मुकाम पर पहुंच गई और ये ज्ञात हुआ कि कई सारे शब्दों को लेकर किसी भी प्रकार की शुचिता का कोई पालन करना आवश्यक नहीं है । जहां पर जैसी मात्रिक आवश्यश्कता हो शब्द को उस हिसाब से तोड़ मरोड़ कर ग़ज़ल में फिट किया जा सकता है । यदि आपको 222 चाहिये तो दीवाना कह लो और यदि 122 चाहिये तो दिवाना कर लो । यदि आपको 21 चाहिये तो और कहो तथा यदि केवल 2 चाहिये तो उर कर लो । मतलब ये कि हिंदी कविता में शब्दों की शुचिता तथा शुद्धता का जैसा ध्यान रखा जाता है वैसा उर्दू ग़ज़ल में नहीं है । यहां सुविधाभोगी स्थिति है । जैसी आपकी सुविधा हो शब्द का वज़्न वैसा कर लो । यदि आपको आसमान चाहिये तो आसमान करो और कम चाहिये तो आसमां कर लो । इस मामले में उर्दू ग़ज़ल, हिंदी कविता से कमज़ोर हो जाती है । क्योंकि यहां शब्दों को मात्रिक वज्न के हिसाब से परिवर्तित किया जा सकता है । बात दफा तो ऐसे ऐसे शब्दों में मात्राओं को दीर्घ से से गिरा कर लघु कर लिया जाता है जिनमें सुनने में ही अटपटा लगता है मगर जब उस्तादों की सलाह लो तो पता चलता है कि हां ये मात्रा गिराई जा सकती है । जैसे 'कोई' एक पूरा पूरा 22 मात्रिक शब्द है जिसमें दोनों मात्राएं दीर्घ हैं । लेकिन यही शब्द जहां 11 की आवश्यकता होती है वहां 11 हो जाता है । ये सुविधाभोगी स्थिति है । यदि शब्दों के साथ ये छेड़छाड़ जायज़ है तो फिर ऐसे शब्द जिन को लेकर सबसे ज्यादा बवाल मचता है 'सुबह' तथा 'शहर' का हिंदी रूप क्यों नहीं स्वीकार किया जाता । हिंदी के पूरे पट्टे में हिंदीभाषी 'शहर' ही बोलता है 'शह्र' नहीं बोलता और उसी प्रकार 'सुबह' ही बोलता है 'सुब्ह' नहीं बोलता । तो फिर क्यों इस रूप में भी इन शब्दों को स्वीकार नहीं किया जाता है । अभी डॉ श्याम सखा श्याम का ग़ज़ल संग्रह शुक्रिया जिंदगी मिला । वो संग्रह एक नई बहस को जन्म दे रहा है । उसमें कहीं भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया गया है । उनका कहना है कि हिंदी वर्णमाला में कहीं भी क़, ख़, ग़, ज़, फ़ नहीं हैं, यदि नहीं हैं तो देवनागरी में लिखते समय इनका उपयोग क्यों किया जाये । ये प्रश्न भी महत्वपूर्ण है । ये सारे प्रश्न बहस की मांग करते हैं । लेकिन हमारे यहां समस्या ये है कि ये बहस अक्सर ग़लत दिशा ( सांप्रदायिक ) में मुड़ जाती है । लोग हिंदी और उर्दू की बहस को हिंदू और मुस्लमान की बहस मान कर चलने लगते हैं । आवश्यकता है सारे प्रश्नों के बिना किसी चश्मे के देखा जाये । और शुद्ध रूप से बहस की जाये ।
खैर ये तो हुई विचारों की बात । आइये आज तरही मुशायरे को कुछ और आगे बढ़ाते हैं । आज श्री राजेंद्र स्वर्णकार एक सुंदर सी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं । ये ग़ज़ल न केवल प्रीत के रस में पगी है बल्कि इसमें हिंदी के परिमल शब्दों का बहुत सुंदरता के साथ प्रयोग किया गया है । राजेंद्र जी पूर्व में नियमित रूप से मुशायरों में आते थे किन्तु अब बहुत दिनों बात वे मुशायरे में आये हैं ।
राजेन्द्र स्वर्णकार
धड़कनें सुरमयी-सुरमयी हैं प्रिये !
सामने कल्पनाएं खड़ी हैं प्रिये !
मुस्कुराती मदिर मन में मेंहदी मधुर
प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये !
कामनाएं गुलाबी-गुलाबी हुईं
वीथियां स्वप्न की सुनहरी हैं प्रिये !
नेह का रंग गहरा निखर आएगा
मन जुड़े , आत्माएं जुड़ी हैं प्रिये !
तुम निहारो हमें , हम निहारें तुम्हें
भाग्य से चंद्र-रातें मिली हैं प्रिये !
इन क्षणों को बनादें मधुर से मधुर
जन्मों की अर्चनाएं फली हैं प्रिये !
मेघ छाए , छुपा चंद्र , तारे हंसे
चंद्र-किरणें छुपी झांकती हैं प्रिये !
बिजलियों से डरो मत ; हमें स्वर्ग से
अप्सराएं मुदित देखती हैं प्रिये !
मौन निःशब्द नीरव थमा है समय
सांस और धड़कनें गा रही हैं प्रिये !
बंध क्षण-क्षण कसे जाएं भुजपाश के
प्रिय-मिलन की ये घड़ियां बड़ी हैं प्रिये !
देह चंदन महक , सांस में मोगरा
भीनी गंधें प्रणय रच रही हैं प्रिये !
भोजपत्रक हुए तन , अधर लेखनी
भावमय गीतिकाएं लिखी हैं प्रिये !
अनवरत बुझ रहीं , अनवरत बढ़ रहीं
कामनाएं बहुत बावली हैं प्रिये !
लौ प्रणय-यज्ञ की लपलपाती लगे
देह आहूतियां सौंपती हैं प्रिये !
उच्चरित-प्रस्फुटित मंत्र अधरों से कुछ
सांस से कुछ ॠचाएं पढ़ी हैं प्रिये !
रैन बीती , उषा मुस्कुराने लगी
और तृष्णाएं सिर पर चढ़ी हैं प्रिये !
मन में राजेन्द्र सम्मोहिनी-शक्तियां
इन दिनों डेरा डाले हुई हैं प्रिये !
बहुत सुंदर ग़ज़ल । प्रीत के दोनों रूपों को अभिव्यक्त करती हुई ग़ज़ल । जिसमें आत्मिक प्रेम भी है और दैहिक प्रेम भी है । 'लौ प्रणय यज्ञ की लपलपाती लगे, शेर में प्रेम की उसी दूसरी अवस्था का बहुत सुंदर चित्रण प्रतीकों के माध्यम से किया गया है । याद आ गई बचपन में किसी उस्ताद या गुरू से सुनी हुई बात कि कवि वो होता है जो प्रतीको की नींव पर काव्य का भवन बनाता है । तुम निहारो हमें हम निहारें तुम्हें में खूब शब्द चित्र बनाया गया है जो पूरी बात कह रहा है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का ।
एक सूचना
डॉ आज़म द्वारा लिखित व्याकरण पुस्तक आसान अरूज़ प्रकाशित होकर आ गई है । इसको लेकर कुछ दुविधा थी । दरअसल प्रूफ जांच करने वाले ने अपना कमाल दिखा दिया जिसके चलते शब्दों की कुछ अशुद्धताएं चली गईं थीं ( अधिकांश नुक्तों को लेकर )। इस बात पर विचार किया जा रहा था कि क्या किया जाये । पुन:मुद्रण एक खर्चीली प्रक्रिया थी इसलिये अब यथारूप ही रखा जा रहा है । अगले संस्करण में सुधार कर लिया जायेगा । वैसे भी ये पुस्तक बहुत सीमित प्रकाशित करवाई गई है । जिन लोगों ने पुस्तक को लेकर संपर्क किया था उनसे निवेदन है कि shivna.prakashan@gmail.com पर एक बार पुन: मेल कर दें, ताकि उनको पुस्तक प्राप्ति की प्रक्रिया बताई जा सके । जिन लोगों ने पूर्व में औपचारिकताएं पूरी कर दी थीं उनको स्पीड पोस्ट से पुस्तक भेजी जा चुकी है ।