यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
आइए आज मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं ग़ज़ल से हट कर काव्य की अन्य विधाओं में लिखी गई रचनाओं के साथ, आज इन रचनाओं को लेकर आ रहे हैं राकेश खण्डेलवाल जी, पी. सी. गोदियाल परचेत जी और रेखा भाटिया जी।
रेखा भाटिया
प्यासी थी धरती और प्यासा अम्बर
पीली धूप में, पीली धरती पीला अम्बर
हमदम,हमसफ़र ऋतु की सखी पत्तियाँ
करें काम दिन-रात ,न गम ,न लें दम
कैलिफ़ोर्निया का दिल नमी को रोता
देख समर्पण पत्तियों का ऋतु फ़िदा है
चुराकर रंग धूप से ओढ़ाया पत्तियों को
लाल, पीली, नारंगी ख़ुशगवार पत्तियाँ
मचल छोड़ दरख्तों को चलीं फ़िज़ाओं में
एक सपना है आँखों में हवा में घुलता
बिछ जाती हैं राहों में करने शीत का स्वागत
हवा की सिरहन के साथ महकती सुगंध
आगे सरकता वक्त थोड़ा पीछे चल देता
थक कर दिन शामल ,सिकुड़ने लगते
ऊबकर रातें हो जाती कुंहासी लम्बी
शबनम मचल छम से चुरा रहीं पल-पल
शरमा सिकुड़ी आ बैठी ऋतु की पलकों में
देख पुरवाई थम गई है बादलों के संग
फ़िज़ाओं का मिज़ाज़ बदलने लगा अब
उनकी मस्ती का आलम नोकझोंक करती
साथ आ गया सर्दी का मौसम झमाझम
बरसने लगा ख़ुशगवार सावन सर्दी में
सांता आएगा तोहफ़े लेकर उत्तर ध्रुव से
क्रिसमस का दिन है जगजग घर आँगन
कैलिफ़ोर्निया का आदम अति ख़ुश है
सदियों का मौसम है गुलाबी, जश्न मनाते
उल्लास में नए साल को न्यौता है भेजा
रेखा जी बहुत अच्छी कवयित्री हैं तथा दीपावली के मुशायरे से वे हमारे साथ जुड़ गई हैं। इस बार भी उन्होंने कैलिफ़ोर्निया की सर्दी के बहाने सर्दी की रुत का पूरा का पूरा चित्र खींच दिया है। बहुत से बिम्ब इस कविता में बनते- मिटते हैं। सर्दियों के साथ पीली नारंगी झड़ रही पत्तियों का बिम्ब हमेशा से जुड़ा र हा है। हमारे यहाँ चिनार के पत्ते झड़ते हैँ तो वहाँ अमेरिका कैनेडा में मेपल के पत्ते। वह भी झड़ने से पहले चिनार की ही तरह रंग बलते हैं।दिन के सिकुड़ कर छोटे हो जाने और रात के ऊबकर लंबे हो जाने का प्रयोग भी बहुत सुुंदर है, मौसम का पूरा सजीव दृश्य उपस्थित हो जाता है। और सर्दी के मौसम में साथ आता है क्रिसमस का त्यौहार जिसमें उत्तर ध्रुव से सांता आता है ख़ुशियाँ लेकर, उपहार लेकर। हर मौसम किसी न किसी त्यौहार से जुड़ा होता है ऐसे में त्यौहार की बात करते ही उस मौसम की संपूर्णता का एहसास होता है। बहुत ही सुंदर कविता कैलिफोर्निया की सर्दी के बहाने लिखी गई है। वाह, वाह, वाह।
पी. सी. गोदियाल 'परचेत'
रात चूड़ियों भरा हाथ होगा सिरहाने हमदम,
सुबह चाय पिलाऐंगे हम तुमको गरमा गरम,
शहर छोड के कर दो, तुम रुख इस तरफ का,
यहां पहाड़ों में सर्दियों का गुलाबी है मौसम।
घर का छज्जा, वादियों के नजारे और तुम हम,
स्वच्छ परिवेश, गुनगुनी धूप सुकून देगी नरम,
पल-पल बदलता हुआ मौसम दूर पर्वतों पर,
हिम मखमली सी गिरती दरख्तों पे झमझम।
बैठ मैखाने मिलकर बांटेंगे हर खुशी, हर गम,
सूर्यास्त पर जब सांझ ढलेगी मद्धम-मद्धम,
और सहा जाता नहीं विरह का दर्द-ए-पैहम,
'परचेत' आ जाओ, सर्दियों का गुलाबी है मौसम।
परचेत जी बीच बीच में हमारे मुशायरे में शिरकत करने आते रहते हैं। इस बार भी वे एक अलग तरह की रचना लेकर आए हैं। नज़्म शैली में लिखी गई इस रचना में मुसलसल सर्दियों के मौसम का ही ज़िक्र है और उसके बहाने अलग-अलग दृश्य बनाए गए हैं इस मौसम के। सिरहाने पर किसी का चूड़ियों भरा हाथ अगर हो तो मौसम अपने आप ही बदलने लगता है। और सुबह चाय की गरमा गरम चुस्कियों से ही तो पता चलता है कि सर्दी का मौसम चल रहा है। उस पर रचनाकार आमंत्रित कर रहा है पहाड़ों पर कि आ जाओ यहाँ गुलाबी मौसम है सर्दियों का। घर के छज्जे से दूर वादियों का नज़ारा देखने का आमंत्रण है, जहाँ दूर पर्वतों पर खड़े दरख़्तों पर गिरती हुई सफ़ेद बर्फ के कारण मौसम बलता रहता है। गुनगुनी धूप में बैठ कर इस मौसम का आनंद लेना ही चाहिए। और सर्दियों का एक और ठिकाना मयखाना, जहाँ जाकर हर ख़ुशी, हर ग़म बाँटा जाता है। जब शाम ढलने लगेगी तो यहाँ ही जाकर विरह का दर्द काटा जाएगा। बहुत ही सुंदर रचना, वाह, वाह, वाह।
राकेश खंडेलवाल
लिखे गीत हमने अभी तक निरंतर
चलें आज कोई ग़ज़ल भी कहें हम
मिला है ये संदेश आकर पढ़ें कुछ
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
ये चिट्ठी मिली जोग सीहोर वाली
सजी एक महफ़िल में मसनद लगी हैं
जहां अश्विनी हैं, तो सौरभ ने आकर
सूनाते नकुल को, दो गज़लें पढ़ी हैं
कोई जाए नुसरत को लाये बुलाकर
प्रतीक्षा में इस्मत की रजनी खड़ी है
तो गुरप्रीत दें, दाद पर और दादें
ग़ज़ल पर ग़ज़ल की खिली फुलझड़ी है
ज़रा थाम लें दिल को शोहरा करम सब
ग़ज़ल अब पढ़ेंगे जो मंसूर हाशम
सही ! सर्दियों का गुलाबी है मौसम
हैं पंकज तो पंकज ,सुबीरी-गिरीशी
ग़ज़ल कहना उनके लिए खेल होता
सुलभ कह रहा है दिया हम भी बालें
तो सज्जन कहें-हाँ अगर तेल होता
पवन बह के बोले, चरणजीत सुन लो
ये फ़न वाकई न हंसी खेल होता
अगर त्यागी मेरा नहीं साथ देते
ग़ज़ल से हमारा नहीं मेल होता
अभी आते नीरज कलामे सुखन ले
अभी माइक को थामे बैठे हैं गौतम
भला सर्दियों का गुलाबी है मौसम
सुधा ने कहा एक मिसरा उला तो
कहें आके रेखाजी मिसरा-ए-सानी
कहीं कुछ कमी शेष रहने न पाए
यही देखते हैं खड़े संजय दानी
सुलभ है तिलक के लिए शायरी यूं
कि अंशआर की है नदी सी रवानी
हमें एक मिसरा भी कहने में आई
मुसीबत, कि याद आ गई अपनी नानी
तो तरही हुज़ूर आपको हो मुबारक
हमारे लिए भेज दें बीस चमचम
हमारा तो बस नाश्ते का ही मौसम
राकेश जी हर तरही में एक रचना ऐसी अवश्य लिखते हैं जिसमें सभी रचनाकारों का नाम आ जाता है। और नाम भी इस सुंदरता के साथ लिए जाते हैं कि वे रचना का ही हिस्सा लगते हैं। इस प्रकार की रचनाओं से मुशायरे के प्रति रचनाकारों का जु़ड़ाव और बढ़ जाता है। अब इस रचना की प्रशंसा में क्या कहा जाए, कितनी ख़ूबसूरती के साथ सारे मोतियों को इस माला में पिरोया है राकेश जी ने। सभी रचनाकार आ गए हैं इसमें। कई ऐसे भी रचनाकार आ गए हैं (नीरज जी) जो इन दिनों लिख ही नहीं रहे हैं। शायद इस माला में मोती की तरह आ जाने के प्रभाव में वे फिर से लिखना प्रारंभ कर दें। क्योंकि इस रचना में तो नीरज कलामे सुख़न लेकर आ ही रहे हैं। बहुत कमाल करते हैं राकेश जी इस प्रकार की रचनाओं में। और हाँ उस पर अंत में जो इनकी मासूम सी इच्छा व्यक्त की गई है केवल बीस चमचम की वह तो एकदम ही जानलेवा है। भिजवाते हैं उनको यह सामग्री जल्द ही। बहुत ही सुंदर रचना, वाह, वाह, वाह।
तीनों रचनाकारों ने अपनी अलग तरह की रचनाओं से मुशायरे को एकदम नया रंग प्रदान कर दिया है। आप भी इन रचनाओं का आनंद लीजिए दाद दीजिए। मिलते हैं अगले अंक में।