शनिवार, 15 जनवरी 2022

शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 6, अंक : 24 , त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2022 अंक

मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी, संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक, शहरयार, सह संपादक शैलेन्द्र शरण, पारुल सिंह, आकाश माथुर के संपादन में शोध, समीक्षा तथा आलोचना की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 6, अंक : 24 , त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2022 अंक अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल हैं- आवरण कविता / अनिल जनविजय, आवरण चित्र / इरफ़ान ख़ान, संपादकीय / शहरयार, व्यंग्य चित्र / काजल कुमार, अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान / तेजेंद्र शर्मा, रणेंद्र, उमेश पंत, लक्ष्मी शर्मा, इरशाद ख़ान सिकंदर, मोतीलाल आलमचंद्र को सम्मान, संस्मरण आलेख- निदा फ़ाज़ली: ख़यालों की ऊँचाई का सौन्दर्य, विजय बहादुर सिंह, उपेक्षा, अपमान और बेक़द्री में अस्त सुर-गणपत गाथा, पंकज पराशर, पुस्तकालय से- इन दिनों जो पढ़ा गया, पुकारती हैं स्मृतियाँ / आनंद पचौरी, अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा / ममता कालिया, तिल भर जगह नहीं / चित्रा मुद्गल, कोई ख़ुशबू उदास करती है / नीलिमा शर्मा, सुधा ओम ढींगरा, पुस्तक समीक्षा- रज्जो मिस्त्री, डॉ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा / प्रज्ञा, संकल्प सुख, डॉ. दीप्ति / डॉ. मधु संधू, वसंत का उजाड़, सूर्यकांत नागर / प्रकाश कांत, कुहासा छँट गया, डॉ. आशा सिंह सिकरवार / ममता त्यागी, मेरी चुनिंदा कहानियाँ, दीपक गिरकर / डॉ. अशोक गुजराती, समय का अकेला चेहरा, प्रदीप कुमार ठाकुर / नरेंद्र पुंडरीक, मन का हरसिंगार, गोविंद सेन / कुँअर उदयसिंह अनुज, पगडंडियों का रिश्ता, अश्विनीकुमार दुबे / विजय कुमार दुबे, एक बूँद बरसात, डॉ. सुशील कृष्ण गोरे / डॉ. रमाकांत शर्मा, घर वापसी, रमेश शर्मा / मनोज कुमार शिव, सिलवटें, नीरज नीर / अशोक प्रियदर्शी, खिड़कियों से झाँकती आँखें, अशोक प्रियदर्शी / सुधा ओम ढींगरा, गांधी दौलत देश की, ब्रजेश कानूनगो / ओम वर्मा, पाषाणपुष्प का किस्सा, डॉ. स्नेहलता पाठक / ब्रजेश कानूनगो, जड़ पकड़ते हुए, तरसेम गुजराल / राकेश प्रेम, आसमाँ और भी थे, शैलेन्द्र शरण / गजेन्द्र सिंह वर्धमान, जयप्रकाश चौकसे, पर्दे के सामने, ब्रजेश राजपूत / रितु पांडेय, हमेशा देर कर देता हूँ मैं, प्रज्ञा / पंकज सुबीर, हमेशा देर कर देता हूँ मैं, प्रमोद त्रिवेदी / पंकज सुबीर, टूटते रिश्ते-दरकते घर, दीपक गिरकर / तरुण पिथोड़े, अनसोशल नेटवर्क, ब्रजेश राजपूत / दिलीप मंडल, गीता यादव, हरदौल, अशआर अली / वंदना अवस्थी दुबे, सूरजमुखी सा खिलता है जो, तरसेम गुजराल / राकेश प्रेम, केंद्र में पुस्तक, उमेदा - एक योद्धा नर्तकी, गीताश्री, दीपक गिरकर / आकाश माथुर,  दृश्य से अदृश्य का सफ़र, प्रेम जनमेजय, तरसेम गुजराल, डॉ. सीमा शर्मा, दीपक गिरकर, परिचर्चा, सुधा ओम ढींगरा, कोई ख़ुशबू उदास करती है, डॉ.फतेह सिंह भाटी, अवधेश प्रीत / वंदना बाजपेयी, नीलिमा शर्मा, शोध आलेख, कुंवर नारायण का कथा-संसार, प्रो. प्रज्ञा, हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा, डॉ. सुनीता कुमारी, सुधा ओम ढींगरा की कहानियों में असामान्य मनोविज्ञान का चित्रण, रेनू यादव, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 6, अंक : 24, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 20

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा एवं संपादक पंकज सुबीर के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम-स्वर का वर्ष : 6, अंक : 24, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2022 अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय, अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान / तेजेंद्र शर्मा, रणेंद्र, उमेश पंत, लक्ष्मी शर्मा, इरशाद ख़ान सिकंदर, मोतीलाल आलमचंद्र को सम्मान, मित्रनामा, विस्मृति के द्वार, हमारे समाज में विधवाएँ...- उषा प्रियम्वदा, कथा कहानी- डुबोया मुझको होने ने..., प्रमोद त्रिवेदी, गुनगुनी धूप- रमेश खत्री, ज़रूरतों के खंभे देह पर ही टिके दिखते हैं.... - मीता दास, नन्ही आस- सपना शिवाले सोलंकी, मैं बोर हो रही हूँ यार- डॉ. नीहार गीते, हाथ तो हैं न!- आशा शैली, खेल- प्रगति गुप्ता, नन्हें दरख़्त- ज्योत्स्ना 'कपिल', खिड़की- डॉ. संध्या तिवारी, देवदार के आँसू- डॉ. रामकठिन सिंह, भाषांतर- सुश्री फ़ोर्ब्स की सुखद गर्मियाँ - लातिन अमेरिकी कहानी, मूल लेखक : गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़, अनुवाद : सुशांत सुप्रिय, ग्रेस नोल क्रोवैल, एंजेला मॉर्गन, माया एंजेलो मैक्स एरमन की कविताओं का अनुवाद - अनुवाद- भूपेंद्र त्यागी, व्यंग्य - तस्वीर का तिलिस्म, डॉ. दलजीत कौर, लघुकथा- तर्क, डॉ.अनामिका अनु, लिप्यंतरण- टिकट का चुनाव, मूल रचना – इब्ने इंशा, लिप्यंतरण – अखतर अली, कविताएँ - महेश कुमार केशरी, नमिता गुप्ता "मनसी", ममता त्यागी, अनिल प्रभा कुमार, मलिक राजकुमार, गीत- दीपक शर्मा दीप, डॉ. अरुण तिवारी गोपाल, ग़ज़ल- अनिरुद्ध सिन्हा, डॉ. भावना, आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र- आवरण चित्र- शहरयार ख़ान, रेखाचित्र – रोहित कुमार, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, शहरयार अमजद ख़ान, सुनील पेरवाल, शिवम गोस्वामी, आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।

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शनिवार, 8 जनवरी 2022

आइए आज मुशायरे का समापन करते हैं दो रचनाकारों रेखा भाटिया और मन्सूर अली हाशमी की चार रचनाओं के साथ।

धीरे-धीरे हम अंतिम किश्त तक आ ही गए। इस बार का मुशायरा आप सब के उत्साह के कारण इतना सफल रहा है। ठंड के मौसम को समर्पित मुशायरा हमने पहली बार किया है हालांकि नए साल का जो मुशायरा होता रहा है, वह ठंड के मौसम में ही होता रहा है, मगर वह नए साल को समर्पित रहता था। इस बार ठंड के मौसम में मुशायरे का आनंद रहा। कोरोना फिर पैर पसार रहा है, अपना बहुत ध्यान रखिए।

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम 

आइए आज मुशायरे का समापन करते हैं दो रचनाकारों रेखा भाटिया और मन्सूर अली हाशमी की चार रचनाओं के साथ। 

रेखा भाटिया
इस सर्दी मन बना कबीरा

कभी पहाड़ हुए आत्मीय महकती बहारों से
जब वसंत की खनक में गर्मी ने ली अंगड़ाई
रेशम की धूप से ढकी खिली नटखट प्रकृति
मीलों ख़ुशगवार हरियाली ,मैं करता इंतज़ार
आभास में तुम्हारा रेशमी बदन लेता अंगड़ाई
पीली धूपों से चुरा रंग बहारें ओढ़ाएँगी तुम्हें
कैसा होगा आलम सूरज का देख मेरी प्रियतमा
तुम शरमाकर हँस पड़ोगी गम देख सूरज का
ख़्वाब थे मैं मोहब्बत के परचम फहराऊँगा हरदम
फ़ना हो जाऊँगा, किसी गम को तुझे छूने से पहले
मैं करता था ग़रूर तुम्हारे हुस्न और मेरे इश्क़ पर
 
मन की पगडडियाँ बेदम हो चलीं वक्त में फ़ना
दम भर थम गई पुरवाई साँसों की, बरहम हम
दम-ख़म जिस्मों का टूटता, मौत के पैग़ाम से
चंचलता खो गई मौन में, टूटे थे ख़्वाब मेरे
मातम में नम नयन प्रकृति के, झरे शबनम आसमानों से
रंग बदल-बदल आसमान हुआ शामल, नभ घन काले
गंभीरता ओढ़ी प्रकृति ने, ऋतु आती-जाती न होश में हम
ख़ामोशी से उन्स हुई ऋतुएँ झुर-झुर धुंध में ढक खुद को
उनके चमकते चहेरे धुँधले,पीली धूप का रंग हुआ गुलाबी

एक पल चुरा कर सिहरती प्रकृति ने भर मुठ्ठी में
इश्क़ के पैग़ग्बर को पैगाम भिजवाया,हाल-ए-दिल सुनाया
फरिश्तों का प्यार जिस्मों से आगे रूहों का सफ़र है
आ लगा मन को मरहम बोला पैग़म्बर
आशिक मन का फ़कीर, इस सर्दी मन को बना कबीरा
ताहम खोल दे दरवाज़े, खोल दे खिड़कियाँ मन की
बन जा रसिक जीवन की सर्दी ढलने से पहले
कर स्वागत तू भी, यहाँ इश्क़ का गुलाबी है मौसम

खुल गए दरवाज़े, खुल गई खिड़कियाँ
प्रकृति में शीतल शीत के स्वागत में
मेरा मन भी इंतज़ार में खुल रहा तुम्हें समेटने
देखो न ठहर दम भर रहा जाड़ों की आगोश में
बादलों ने ओढ़ा दिया कम्बल प्रकृति को
मरहम लगाते उसे, यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
राहें खिलीं हैं, झड़ पत्ते शहीद हैं, उन्स हम भी इश्क़ को !
000

हम तुम किसी से कम नहीं

आ री सखी ! तू क्यों उदास है
किस बात का गम है
क्या हम-तुम किसी से कम हैं
जीवन में सर्दी से घबरा रही है

देख सखी री ,महसूस कर
महकती ऋतुएँ आती-जाती
शीत की सिरहन क्या सिखलाती
समर्पण पत्तियों का , रंग बदलता

ख़ामोशी से विदा होकर
नए जीवन को जीवन दान देता
सर्दी अनमोल है ,नीरसता में मोल है
शामल रंग में सभी रंग हैं

साल के अंत में आता क्रिसमस
आनंदित घर-आँगन औ जग जगमग
सांता लाता भेंट सभी की, पोटली भर-भर
दोस्त,परिवार मुस्कराते करते नए साल का स्वागत

आ सखी, ओढ़ाऊँ तुझे उम्मीदों का कम्बल
यहाँ सर्दियों का गुलाबी मौसम है जीवन का
याद है माँ कितने जुगाड़ लगाती थी सर्दी में
पुराने कम्बलों को धूप दिखा भर देती थी ऊर्जा

फ़टे स्वेटरों में रंगीन फूल काढ़ नया कर देती
छोटे स्वेटरों से गरीब की सर्दी गर्मा देती
गाजर हलवा ,सौंठ के लड्डू ,तिल की चिक्की
फिर कड़वे काढ़े से पूरी बीमारी भगा देती

आ सखी री इस सर्दी जुगाड़ लगाते हैं
साल बीता, अब है जीवन का क्रिसमस
आने वाले नए का जश्म मनाने के लिए
इस गुलाबी ठंड में हाथ थाम लें एकदूजे का !
दोनों ही कविताएँ बहुत सुंदर है। पहली कविता में तो एक तरह से प्रेम की पूरी कहानी लिख दी गई है। सबसे अच्छी बात यह है कि यह कविता प्रेमिका की दृष्टि से नहीं लिखी गई है बल्कि प्रेमी की आँखों से लिखी गई है। प्रकृति के साथ-साथ प्रेम के बदलते दृश्यों का बहुत अच्छे से चित्रण किया गया है कविता में। पत्तों के झरने और मन के कबीर हो जाने का चित्रण बहुत ख़ूबसूरती के साथ किया गया है। दूसरी कविता किसी अपने को नकारात्मकता से सकारात्मकता की तरफ़ ले जाने का प्रयास बहुत सुंदरता से किया गया है। सर्दियों के प्रतीकों का उपयोग करते हुए बहुत अच्छे से मन को उदासी से बाहर लाने का प्रयास किया गया है। उम्मीदों का कंबल  और जीवन का क्रिसमस जैसे बिम्ब कविता को मौसम से जोड़ देते हैं। गुलाबी ठंड में एक दूसरे का हाथ थामने की चाह में कविता समाप्त होती है। बहुत ही सुंदर रचनाएँ, वाह, वाह, वाह।


मन्सूर अली हाश्मी  

लो, ख़ुद फूल पर गिर रही आ के शबनम
'यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम'
करे बात कैसे वो है ग़ैर महरम
है खटका यहीं कि न हो जाये बरहम
तसव्वुफ़ में जो तशनगी को मिटा दे
वही गंगाजल है वही आबे ज़मज़म
है 'नाताल' खुशियों की अपनी विरासत
सिख, हिंदू, मुसलमान, ईसाई सब हम
हो पाकीज़गी या कि क़ुर्बानी हक पर
हमें याद आते है ईसा व मरियम
ख़ुशी भी मिले और हो दूर सब ग़म
अगर कर ले हम जो इरादा मुसम्मम
तफ़र्क़ा भला कैसे जाइज़ हो जबकि
है इन्सान सारे अगर इब्ने आदम
जो हो धर्मों-मज़हब ही नफ़रत का बाइस
तो बेहतर है बन जा क़लन्दर दमादम
'कोरोना' की ज़द में अगर आ गये फिर
तो बेकार सारे ये दीनारो-दरहम
मोहब्बत है शै क्या यह कैसे बताएं
जो सिमटे तो क़तरा जो फैले तो क़ुलज़ुम
नही ये अगर ख़ुदनुमाई तो क्या है
फ़क़त 'सेल्फी' से भरा तेरा 'अल्बम

वफ़ाश्आर है औ' वफ़ा दोस्त भी हम
नही जज़्बा ईसार का हम में कुछ कम
न हठ तुम करो औ' न ज़िद हम करेंगे
वतन है यह सबका रहे मिल के सब हम
तक़ाज़ा है सौजन्यता का यह कह ले
श्रीमान हम, आप भी मोहतरम
करे ईश वन्दन कि भू अपनी पावन
करे नाज़ जिस पर है सारा ये आलम
लताफ़त, कसाफ़त, नफासत, ख़बासत
अनासिर से इन्सॉं बना है मुजस्सम*
मोहब्बत, अदावत, अताअत, बग़ावत
है इन्सान इन फ़ितरतो का समागम
करो हक़ बयानी मिले गरचे सूली
हो 'मन्सूर' गर तो बनो फिर मुकर्रम**
नया साल भी अब क़रीब आ गया है
बजे ढोल तासे ढमाढम-ढमाढम
नही 'हाश्मी' ठीक बैचेनी इतनी
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम।
*देहधारी
**आदरणीय 
मन्सूर अली हाशमी जी ने मिसरे पर दो प्रकार से ग़ज़लें कही हैं। एक ग़ज़ल उनकी पहले ही हम सुन चुके हैँ। दोनों ही ग़ज़लें मानवता की बात करती हैं। धर्म अगर नफ़रत की बात सिखा रहा हो तो कलन्दर बन जाने तक की बात ग़ज़ल में शायर कह रहा है। और कोरोना की ज़द में आने पर सारा पैसा धरा का धरा रह जाने की बात बहुत सुंदर है। मोहब्बत का फैल कर सारी दुनिया को समेट लेने की बात बहुत अच्छी है। दूसरी ग़ज़ल में दोनों पक्षों से कहा जा रहा है कि तुम भी हठ मत करो हम भी ज़िद नहीं करेंगे, मिल कर रहेंगे। अनासिर से इन्सान के इन्सान बन जाने की बात बहुत अच्छे से कही गई है। सच की बात कहने पर अगर सूली पर भी चढ़ना पड़े तो भी कहना चाहिए इस बात को बहुत अच्छे से कहा गया है शेर में। नए साल के आने पर ढोल के बज उठने की बात और अंत में गिरह का शेर मकते में आना बहुत सुंदर है। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।
तो मित्रो आज के दोनों रचनाकारों ने बहुत अच्छे से अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया है। आप भी इन रचनाओं पर दाद दीजिए। मिलते हैं होली के मुशायरे में। अपने स्वास्थ्य का ख़ूब ध्यान रखिए।

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

आइए आज मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर, अश्विनी रमेश जी और गुरप्रीत सिंह के साथ।

 हर आयोजन की अपनी गति होती है, जो भी प्रारंभ होता है उसे धीरे-धीरे समापन की तरफ़ बढ़ना ही होता है। हमारा यह तरही मुशायरा भी अब समापन की तरफ़ बढ़ रहा है अगले एक-दो अंकों के बाद इसका समापन हो जाएगा। उधर सारे विश्व में एक बार फिर से महामारी का प्रकोप दिखाई देने लगा है। आइये प्रार्थना करें कि महामारी का स्वरूप इस बार पिछली बार की तरह भीषण नहीं हो। सब स्वस्थ रहें, सानंद रहें।
 यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
 आइए आज मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर, अश्विनी रमेश जी और गुरप्रीत सिंह के साथ।
 
डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर
कहाँ रह गये हो चले आओ हमदम
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
दिसम्बर महीना कड़ाके की सर्दी
दिखाती है पारा गिरा कर वो दमख़म

घने कोहरे में वो सूरज छिपा है
धरा पर बिछी मोतियों जैसी शबनम
दुबक कर रहें हम रजाई के अंदर
मिले गर्म कॉफी तो बदले ये आलम

हवाएँ ये ठंडी लगें जब भी तन को
ये नश्तर सी चुभती करें साँसें बेदम
मतले में ही बहुत अच्छे से गिरह को बाँधा गया है, सच कहा है कि जब भी मौसम बदलता है तो सबसे पहले अपने प्रिय की ही याद आती है। अगले ही शेर में सर्दी द्वारा पारे को गिरा-गिरा कर अपना दमख़म दिखाने की बात कह कर मौसम का चित्रण बख़ूबी किया गया है। घने कोहरे में सूरज का छिप जाना और धरती पर शबनम के बिछने का बिम्ब सुंदर है। और सर्दियों में गर्म कॉफ़ी का मिल जाना तो किसी अमृतपान से कम नहीं होता है।  और अंतिम शेर में सर्दियों की तीखी हवाओं का दृश्य बहुत सुंदरता के साथ रचा गया है। सच में यह हवाएँ किसी नश्तर की तरह ही चुभती हैं। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

अश्विनी रमेश
न पूछो अजब हिज्र की ये शबे गम
गुज़रती है कैसे ये बस जानते हम

बहुत कम है सर्दी रजाई न ओढ़ो
पहाड़ों पे इसकी ज़रूरत है हरदम
जहाँ माइनस ताप रहता है क़ाज़ा
नहाए बहुत सर्दियों में वहाँ हम

लिए ज़िन्दगी में कई रिस्क हमने
रहे हम किसी से कभी भी नहीं कम
कहानी हमें माँ सुनाती बहुत थी
कटी सर्द रातें मधुर था वो आलम

रहे मस्त हम तो रूहानी नशे में
ज़रा भी नहीं हमको इसका कोई गम
 सर्दियों के मौसम में अगर हिज्र भी आकर मिल जाए तो वह रातें कैसे गुज़रती हैं, यह केवल वही जान सकता है जिस पर वह रात गुज़र रही है। और यह भी सच है कि ज़रा सी सर्दी में रज़ाई ओढ़ कर बैठ जाने वाले क्या जानें पहाड़ों की सर्दी। क़ाज़ा नाम की जगह के बारे में शायर कह रहा है कि वहाँ माइनस तापमान में भी लोग नहाते हैं। माँ की कहानियों के सहारे सर्दी की रातों को काटने का दृश्य बहुत सुंदर बना है, सच में वे रातें कैसे कट जाती थीं, पता ही नहीं चलता था। और जो भी व्यक्ति अपने अंदर के नशे में गुम रहता है उसे किसी भी बात की चिंता या परवाह भला कब होती है। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

गुरप्रीत सिंह
उठाया है दिल ने बग़ावत का परचम।
सभी ख्वाहिशों से ये मांगे है फ्रीडम।
मेरी ज़िंदगी में तेरी अहमियत है,
बशर से कहीं बढ़ के और रब से कुछ कम।

उमीदें कई इस में बसना तो चाहें,
मगर मेरे दिल से निकलता नहीं गम।
मेरे दिल की धड़कन की ढोलक बजे है,
तू जब अपनी आवाज़ से छेड़े सरगम।

नहीं निकला जब तक हद ए जीस्त से मैं,
मुझे हांकता ही गया है तेरा गम।
तेरे वस्ल की आस जो खाट पर थी,
कि इस पूस में उसने भी तोड़ा है दम।

जो तस्वीरें स्नोफ़ाल में ली थीं हमने,
जलाती है सीना अब अपनी वो अल्बम।
मतले में ही बहुत अच्छे से हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी का बहुत ही सुंदरता के साथ उपयोग किया गया है। किसी की हमारी ज़िंदगी में अहमियत सच में वही होती है कि इंसान से कुछ ज़्यादा तथा ईश्वर से कुछ कम, बहुत ही अच्छे से इस सच को चित्रित किया है। दिल में उम्मीदें तभी आ सकती हैं, जब ग़म वहाँ से बाहर निकले सुंदर बात।दिल की धड़कन को एकदम ढोलक की तरह बज उठने का प्रयोग बिलकुल नया है, बहुत ही सुंदर। वस्ल की आस का खाट पर होना और उसका दम तोड़ देना, खाट का नए तरीके से प्रयोग किया  गया है।अंतिम शेर में बफ़बारी की तस्वीरों को देख कर सीने में आग लग उठने का बिम्ब बहुत सुंदर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
तो यह हैं आज शायरों की सुंदर रचनाएँ, इनका आनंद लीजिए और दाद दीजिए। मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाओं के साथ।

मंगलवार, 4 जनवरी 2022

आइए आज सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी और तिलकराज कपूर जी के साथ आगे बढ़ाते हैं तरही के क्रम को।

नए साल की आप सभी को शुभकामनाएँ, नया साल आप सभी के जीवन में सुख शांति और समृद्धि लाए। जो कुछ विश्व के लोग पिछले दो साल से देख रहे हैं वह बीमारी का सिलसिला रुके तथा पूरे विश्व में हर तरफ़ शांति और आरोग्य हो। आइए नए साल में हम यही दुआ माँगें और अपनी रचनाधर्मिता को आगे बढ़ाएँ।

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
आइए आज सौरभ पाण्डेय जी, गिरीश पंकज जी और तिलकराज कपूर जी के साथ आगे बढ़ाते हैं तरही के क्रम को।


सौरभ पाण्डेय
रजाई में दुबके, कहे सुन छमाछम..
किचन तक गयी धूप जाड़े की पुरनम
चकित चौंक उठतीं नवोढ़ा की आँखें
मुई चूड़ियों मत करो शोर मद्धम
तुम्हीं को मुबारक जो ठानी है कुट्टी
नजर तो नजर से उठाती है सरगम
गजल-गीत संवेदना के हैं जाये
रखें हौसला पर जमाने का कायम

भरी जेब, निश्चिंतता हो मुखर तो
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
निराला जो ताना, तो बाना गजब का
नए नाम-यश का उड़ाना है परचम

रिसालों में तिकड़म से फोटू छपा कर
बजा गाल ’सौरभ’ कहे.. ’बस हमीं हम’

 मतले में ही सौरभ जी ने प्रकृति को अपने साथ ले लिया है तथा रजाई में छमाछम करती हुई जाड़े की धूप को किचन तक जाते हुए देख रहे हैं। और अगले ही शेर में नई दुल्हन को चौंकने से बचाने के लिए शायर का चूड़ियों से शांत रहने को कहने का बिम्ब बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। अगले शेर में कट्टी तथा नज़र से नज़र को मिलती सरगम बहुत ही सुंदर बनी है। ग़ज़ल गीत का सचमुच ही जन्म संवेदना की कोख़ से होता है। गिरह का शेर एकदम ही अलग तरह से बाँधा है सौरभ जी ने सच में जब जेब भरी हो तो हर मौसम सुहावना होता है। और अगले दोनों शेरों में आत्ममुग्धता को मज़ाक क्या सलीक़े से उड़ाया गया है। सच में केवल अपने फोटो छपवा कर नाम कमाना ही रह गया है इन दिनों साहित्य में। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह, वाह, वाह।


तिलक राज कपूर

कहीं सर्दियों से हैं कुहसार बेदम
कहीं गुनगुनी धूप थामे है मौसम।
भरी भीड़ में जब मिला एक हमदम
छुपाया मगर छुप न पाया कभी ग़म।

कटी रात आंखों में करवट बदलते
सबेरे दिखी लॉन की घास पुरनम।
सरकती रहीं कांच की खिड़कियों पर
थिरकती हुईं ओस बूंदें छमाछम।

वहाँ बर्फ़ की एक चादर बिछी है
"यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम।"
गुलाबी अधर नर्म कलियों के जैसे
यहाँ किसलिए आ के ठहरी है शबनम।

इसी कश्मकश में हमारा मिलन था
बताएं तो क्या-क्या, छुपाएं तो क्या हम।
तुम्हारा बदलना भी मौसम के जैसा
धड़कता है दिल जब बदलती हो मौसम।

कुहसार का सर्दियों से बेदम होना तथा गुनगुनी धूप का मौसम को थाम लेना, बहुत ही सुंदर बना है मतला। और हुस्ने मतला भी सुंदर बना है जिसमें किसी अपने के सामने आते ही ग़म छलक उठने की बात कही गई है। सारी रात जब करवट बलते निकलती है तो सबेरे लॉन की घास भी नम हो जाती है, बहुत ही अच्छा प्रयोग है। और काँच की खिड़की पर शबनम की बूँदों का छमाछम सरकना बहुत सुंदर। बर्फ़ की चादर के साथ गुलाबी मौसम की गिरह बहुत सुंदर है। गुलाबी अधरों पर शबनम का आकर ठहरना शायर के लिए हैरानी कर रहा है। और अगले शेर में क्या बताएँ क्या छुपाएँ की बात बहुत सुंदरता के साथ आई है। और किसी के बदलने से मौसम की तुलना बहुत ही सुंदर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।


गिरीश पंकज
लगे है अभी कुछ शराबी है मौसम
'यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम'
सभी ओढ़ लेटे रजाई यहाँ पर
लगी ठंड जैसे नवाबी है मौसम

हुए लाल चेहरे बढ़ी कुछ नज़ाकत
ये सर्दी भी बोले शबाबी है मौसम
मोहब्बत का इज़हार सर्दी में मुश्किल
यही एक तुझ में खराबी है मौसम

अगर शीत में बाँट दें ऊनी कपड़े
तो हम भी कहेंगे सबाबी है मौसम
गिरीश जी ने क़ाफ़िया बदल दिया है तथा रदीफ़ भी लगा दिया है। मगर उससे भी सुंदरता बढ़ गई है। मतला बहुत सुंदर है। रज़ाई ओढ़ कर सभी लेटे हुए हैं नवाबी मौसम की छाँव में। अगले ही शेर में चेहरे की लाली का सर्दियों में बढ़ जाना और मौसम का शबाबी हो जाना। मोहब्बत का इज़हार सर्दी में नहीं होने के कारण शायर को मौसम में ख़राबी दिखाई दे रही है। और अंत में परोपकार की भावना के साथ ग़ज़ल को समाप्त किया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह, वाह, वाह।

आज तीनों शायरों ने बहत अच्छी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

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