मंगलवार, 31 अगस्त 2010

धीरे धीरे समापन की तरफ बढ़ रहे हैं हम । आज गुरुकुल की ही तीन शायरों की प्रस्‍तुतियां हैं, अभिनव शुक्‍ल, प्रकाश अर्श और वीनस केशरी को आज सुनिये ।

C_Documents_and_Settings_Balan_My_Documents_My_Pictures_krishna

जनम से कृष्‍ण के हर्षित दसों दिशाएं हैं

हौले हौले हम अपने मुकाम पर पहुंच रहे हैं । बरसात का मौसम तो अभी चल ही रहा है । लेकिन हां ये बात ज़ुरूर है कि इस बार हमारे इलाके में बरसात ठीक नहीं हुई है अभी तक । इस बार शहर से होकर बहने वाली नदी एक बार भी बह कर नहीं निकली है उससे  ही पता चलता है कि बरसात की स्थिति क्‍या है । खैर अभी तो भादों का माह शेष है । भादों के माह के बारे कहा जाता है कि इसमें खूब बिजली चमकती है । सावन में तो बिना गरज चमक के वर्षा होती है ।  अब तो त्‍यौहार भी खूब चल रहे हैं । परसों ही सातूड़ी तीज गई है और मैंने  सातू खाने का खूब आनंद उठाया है । हल षष्‍ठी है फिर जन्‍माष्‍टमी है और फिर तो त्‍यौहारों की झडी़ ही लगने वाली है । यहां से लेकर अब देव उठनी ग्‍यारस तक त्‍यौहार ही त्‍यौहार होने हैं । तो चलिये आज तीन शायरों की ग़ज़लें सुनते हैं और आनंद उठाते हैं । आज भी बीच बीच में मैं नहीं आऊंगा आप सुनिये और दाद दीजिये ।

फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

Rain101

अभिनव शुक्‍ल

abhinav

अभिनव की सक्रियता इन दिनों ब्‍लाग जगत में वो पहले वाली नहीं है । लेकिन हां ये पता है कि साहित्‍य सृजन में वो सक्रिय है । अभिनव ग़ज़ल की कक्षाओं से सबसे शुरुआत से ही जुड़ा हुआ है । नये चित्र को देखकर लगता है कि पिछले दिनों काया का विस्‍तार हो चुका है । आइये सुनते हैं अभिनव की ग़ज़ल ।

ग़ज़ल बनाय रहे आंय बांय सांय हैं ,
नए ज़माने की नूतन विभीषिकाएं हैं,

नरक की झेल रहे चाहे यातनाएं हैं,
हमारे लोगों के सपनों में अप्सराएं हैं,

महानगर की बड़ी कुछ ये मूर्खताएं हैं,
वो मल्टीप्लेक्स में भी पापकार्न खाएं हैं,

जो अपने दिल के निकट से नहीं गुज़रते हैं
वो गीत सारे गुरु फिस्स फिस्स टांय हैं,

ये प्यार, दोस्ती, विश्वास, त्याग, अपनापन,
ये शब्द, शब्द नहीं हैं, कड़ी दवाएं हैं,

ज़रा मैं देखूं तो किसने संदेस भेजा है,
''फलक पे झूम रही सांवली घटाएं हैं.''

हूं अच्‍छे शेर निकाले हैं लेकिन ये भी नज़र आ रहा है कि बहुत जल्‍दी में काम किया गया है । रंग-ए-अभिनव गिरह के शेर में दीख पड़ रहा है लेकिन बाकी के शेर अभी और काम तथा मेहनत मांग रहे हैं । नरक की झेल रहे चाहे यातनाएं हैं में भी बहुत सुंदर प्रयोग है ।

प्रकाश अर्श

IMG_2241

प्रकाश को इस बार की बहर काफी मुश्किल लग रही थी । मगर मुश्किल के हिसाब से ग़ज़ल बहुत ही सुंदर निकाल कर भेजी है ।  हां इस बार ये कमी रह गई कि प्रकाश ने जामुनी नारंगी हरी पीली रंग की लड़कियों पर कोई शेर नहीं निकाला ।

ये ज़िंदगी से मिलीं जो भी यातनाएँ हैं

गुरेज क्यूँ हों,लिखीं सब की पटकथाएँ हैं

चला था घर से मैं जब तो ये ज़ेब खाली थी

हूं जिस मुकाम पे सब माँ की ये दुआएँ हैं

समझता है तू ही साकी के मर्ज क्‍या है मेरा

तेरे ही पास मेरे ग़म की सब दवाएँ हैं

वो प्यास कैसी रही होगी जिसको सुनकर ये

''फलक पे झूम रहीं सांवलीं घटाएँ हैं''

चलो लिबास ये अपना उतार कर रख दें

छलक न जाएं कहीं जो भी भावनाएँ हैं

बदल रही हैं हवाएं भी शक्ल अब अपनी

वो जानती हैं निशाने पे सब दिशाएं हैं

हूं गिरह का शेर एक बार फिर अच्‍छा बंधा है । मतला भी अच्‍छा बांधा है । चला था घर से मैं जब तो ये जेब खाली थी ये शेर भी मन का शेर बन गया है । लेकिन हां कंचन जैसे लोगों को उम्‍मीद ये थी कि पिछली बार जामुनी लड़कियां थी तो इस बार नारंगी होंगीं ।

वीनस केशरी

IMG_2252

वीनस ने गिरह के चार शेर भेजे थे । चारों शेर अलग अलग मूड के थे । उनमें से मुझे सबसे अच्‍छा जो लगा उसे ही मैंने शामिल किया है । 

हमें जो अर्थ प्रजातंत्र के बताएं हैं,

उन्हीं के पुत्र विरासत में मुल्क पाएं हैं

अभी तो गाँव में, पानी चढ़ा है, कन्धों तक

अभी से केन्द्र में क्यों हो रही सभाएं हैं

भला-बुरा न समझते हम इतने हैं नादाँ

सही, सही है गलत को गलत बताएं हैं

मुझे सफर में कोई हमसफ़र नहीं दिखता

ये जब से रूठ गई, मुझसे सब दिशाएं हैं

ए कहकशाँ तेरे आँगन में कौन रोता है

फलक पे झूम रही साँवली घटाएं हैं

तरस रहे हैं, जिसे देखने को सब, ‘‘वीनस’’

“ये वो सहर तो नहीं” , जिसकी कामनाएं हैं

हूं क्रियाओं का सही प्रयोग किया गया है और बहुत ही अच्‍छा है । मतले के दोनो ही मिसरों में क्रियाओं का काफिया बना कर बहुत सटीक निर्वाह किया है । मगर हां गिरह का शेर बहुत ही उसतादाना रंग लिये है । और मकते में मिसरा सानी के प्रयोग ने मुझे भावुक कर दिया ।

चलिये आज तीनों का आनंद लीजिये और अगला अंक जो शायद समापन हो सकता है उसका इंतज़ार कीजिये ।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

तरही अब अपने आखिरी दौर से गुज़र रही है, इस तरही को और ऊंचाइयों पर ले जाने आज राकेश खंडेलवाल जी की एक नज्‍़म, एक ग़ज़ल, और देवी नागरानी जी की ग़ज़ल ।

तरही में ये अब तक का सबसे लम्‍बा खिंचने वाला मुशायरा साबित हो रहा है । और न केवल लम्‍बा बल्कि सबसे सफल भी हो रहा है ऐसा लोगों के मेल से पता चल रहा है । जब मिसरा दिया था तो लगा था कि इस बार कुछ कठिन बहर , रदीफ काफिया का काम्बिनेशन लोगों को परेशान करेगा और उतनी ग़ज़लें नहीं आएंगीं । लेकिन जब आना प्रारंभ हुई तो अंबार ही लग गया । अभी भी ऐसा लग रहा है कि इस एक अंक के बाद दो या तीन अंक और आएंगें । वो भी तब जब नयी ग़जलों के लिये अब मना करना पड़ा । नहीं तो अभी तो और चार पांच आनी थीं । खैर इस बार के मुशायरे में जैसा कि राकेश जी ने फोन पर कहा कई सारे शेर बहुत ही अच्‍छे और हासिले मुशायरा निकल कर आये । बल्कि ये कहें कि हर ग़ज़ल में एक या दो शेर इसी प्रकार के निकले । अब जब हम समापन की तरफ बढ़ रहे हैं तो आज फिर एक बार सिद्धहस्‍त रचनाकारों की जुगलबंदी सामने है । राकेश जी और देवी नागरानी जी ऐसे नाम नहीं हैं जिनका परिचय करवाया जाये । ये तो वे रचनाकार हैं जिनको केवल और केवल सुना ही जाता है । और तिस पर आज तो बोनस में राकेश जी की एक नज्‍़म भी है जो पूरी तरह से बरसाती नज्‍़म है । 

93509271

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

Rakesh ji

राकेश खंडेलवाल जी

राकेश जी  ने इस बार के तरही मुशायरे को एक दिन मुझे फोन करके बहुत सराहा । वे कहने लगे कि इस बार तो कई लोगों ने मानो चौंका ही दिया है । सच है जब उनके जैसी पारखी नज़रें ऐसा कह रहीं हैं तो फिर तो मानना ही पड़ेगा कि इस बार का तरही नई ऊंचाइयों को छू गया है । राकेश जी ने पहले तो एक बरसाती नज्‍़म भेजी थी फिर बाद में उन्‍होंने कहा कि इतनी सुंदर ग़ज़लें देख मैंने भी एक ग़ज़ल मिसरे पर लिख दी है । सो हमें नज्‍़म बोनस में प्राप्‍त हो गई आज चलिये दोनों का ही आनंद लेते हैं ।

ग़ज़ल

जिधर भी उठती नजर रेत के बगूले हैं

बरसती आग की सूरज से बस शुआयें हैं

ये रंगतों से चमन की है हो रहा जाहिर

जली यहां पे नई पौध की चितायें हैं

कभी यहां पे बहा करती थी नदी कोई

ये जाने कौन सी तारीख की कथायें हैं

उफ़क से लौटी है सूनी नजर ये टकरा के

करी कबूल नहीं इन्द्र ने दुआयें हैं

हुज़ूर ! आपने ये मिसरा तरह भेजा है

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटायें हैं

nature_aaddy4dq

नज्‍़म

किसी पहुँचे तपस्वी की फ़लित होती दुआयें हैं

फ़लक पे झूमतीं जो सांवली ऊदी घटायें हैं

किसी ने आज फिर मल्हार छेड़ी है कहीं पर क्या

किसी ने मेघदूतम आज क्या फिर गुनगुनाया है

किसी ने नीम की शाखों पे डाले क्या कहो झूले

किसी ने या दुपट्टा आज अम्बर में उड़ाया है

धरा की प्यास को क्या मिल रहा आकाश से उत्तर

किसी की आँख का काजल जरा सा लग गया बहने

किसी के कुन्तलों को छेड़ती शायद हवा चंचल

जलद निज प्रीत की बातें अचानक लग गया कहने

लुटेरे मौसमों की आज कुछ बन आई है लगता

लपेटे श्याम के रँग की चले आये नई चादर

कई कालिन्दियों की छांव नभ पर लग गई पड़ने

हजारों कंठ हैं जयघोष करते एक स्वर गाकर

किसी पहुँचे तपस्वी की फ़लित होती दुआयें हैं

फ़लक पे झूमतीं जो सांवली ऊदी घटायें हैं

क्‍या कहा जाये नज्‍़म के बारे में और क्‍या कहा जाये ग़ज़ल के बारे में । बहरे हजज़ पर लिखी हुई बरसाती नज्‍़म तो कमाल ही है । और ये कि तरही के मिसरे को भी उसके अनुरूप ढाल कर मुखड़ा बना दिया है । पूरी की पूरी ग़ज़ल सामयिक चिंतन ( ग्‍लोबल वार्मिंग ) में लगी है । दिनकर जी ने कहा था कि जिस कवि की रचनाओं में उसका समय न झलके उस कवि की रचनाओं को समय खत्‍म कर देगा । आज को जिस प्रकार चिंता बना कर ग़ज़ल में ढाला है वो अनूठा है । वाह वाह वाह ।

devi_nangrani

देवी नागरानी जी

एक और सिद्धहस्‍त शायरा को सुनने का आनंद लीजिये । देवी नागरानी जी हम सबकी चिर परिचित शायरा हैं । उनके दो ग़ज़ल संग्रह भी आ चुके हैं । प्रयोग करने में वे माहिर हैं । उनकी ग़ज़लों में हर बार कुछ न कुछ नया मिलता है । सो आइये इस बार क्‍या है ये देखते हैं ।

rain

घटाएं सांवली जब भी फ़लक पे छाएँ हैं

बरस के धरती पे हरियालियाँ उगाएँ हैं

निभा सका न कोई दोस्ती मलाल नहीं

जो छल रहीं हैं वो उसकी हसीं अदाएँ हैं

उसे है नाज़ पली उसके घर में वीरानी

मुझे है नाज़ पली मेरे घर खिज़ाएँ हैं

ये कैसा दिल के समंदर में उठ रहा तूफाँ

कि जैसे टूटी मेरी सारी आस्थाएँ हैं

परिंदे आस के बुनते हैं आशियाँ फिर भी

भले ही तूफाँ उन्हें लाख आज़माएँ हैं

ज़मीर में जो कभी बंदगी हुई रौशन

अक़ीदतों के चरागाँ भी जगमगाएँ हैं.

वो गूँज बनके ध्वनित होती हैं मेरे घट में

खमोशियों से वही आतीं अब सदाएँ हैं

ऐ माँ मुझे जो मिली छाँव तेरे आंचल की

मुझे बचाती बलाओं से ये दुआएँ हैं

है राज़ दिल में छिपे कितने गहरे ऐ देवी

पता लगा कि गुफाओं में भी गुफ़ाएँ हैं

वाह वाह वाह पहले तो मकते का मिसरा सानी ही उलझा गया । गुफाओं में गुफाएं , उफ क्‍या प्रयोग किया है । आवृत्‍ित के प्रयोग हमेशा ही आनंद देते हैं । वो गूंज बन के ध्‍वनित होती है ये शेर भी बहुत सुंदर बना है । मगर फिर भी अपनी कहूं तो मकते का मिसरा सानी अभी मुझे बाहर नहीं निकले दे रहा ।

आप आनंद लीजिये और मुझे दीजिये इजाज़त ।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

रक्षा बंधन का ये पावन त्‍यौहार, इस त्‍यौहार के दिन तो केवल और केवल बहनों की ही बात होनी चाहिये । तो आज की तरही में भी आ रही हैं बहनें ही ।

देखते ही देखते साल बीत जाता है । और फिर से सारे त्‍यौहार आ जाते हैं । अभी पिछला साल बीता ही है कि नया आ गया । फिर से राखी आ गई । राखी, एक छोटा सा धागा, जो जब बंधता है तो अपने साथ सारी कायनात को बांधने की ताक़त रखता है  । स्‍त्री के कितने रूप हैं, मां, बहन, पत्‍नी, प्रेमिका, लेकिन बहन के रूप में स्‍त्री का नेह सावन के उन बादलों की तरह ही होता है जो हर पल हर क्षण केवल अपने भाई पर ही बरसते रहना चाहते हैं । हम सौभाग्‍यशाली हैं कि हमने भारत में जन्‍म लिया क्‍योंकि यहीं तो हमने जाना कि बहन और भाई के रिश्‍ते की व्‍यपकता क्‍या है । एक छोटा सा धागा जब बंधता है तो वो रिश्‍तों का कैसा संसार रच देता है ।

आज के तरही में सात बहनें हैं । इनमें से दो की ग़ज़लें तो आप पहले ही पढ़ चुके हैं लेकिन आज फिर से एक बार उनकी ग़ज़लों को पढि़येगा क्‍योंकि आज तो उनका ही दिन है । हां आज भाई होने के नाते मैं उनके उन पत्रों को भी सार्वजनिक कर रहा हूं जो इन बहनों ने ग़ज़ल के साथ भेजे थे । और हां आज बीच बीच में मैं बक बक करने नहीं आऊंगा, आप एक साथ पूरी गज़लें सुनें और आनंद लें । लावण्‍या दीदी साहब ने आज के लिये एक विशेष कविता भेजी है जो रिश्‍तों के ताने बाने में बुनी हुई है उसका अपना ही एक आनंद है ।

नुसरत दीदी और कंचन की ग़ज़लें पढने के लिये नीचे उनकी तस्‍वीर पर क्लिक करें और सुनें ।

 Raksha8 copy2 kanchan nusrat mehdi

कंचन चौहान           नुसरत दीदी

Raksha8 copy2

फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

वर्षा मंगल तरही मुशायरा  

Raksha8 copy2

seema-gupta-2

Raksha8 copy2

सीमा गुप्‍ता 

कुछ दो चार पंक्तियाँ लिखी हैं देखिएगा........ये ग़ज़ल का काम मेरे बस का नहीं.........क्या करूं.....?????

ये बादलों की पहाड़ों के संग वफाएं हैं 
फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

लचकती चाल हवाओं की हाय क्‍या कहना
किसी हसीन की क़ातिल सी ज्‍यों अदाएं हैं

फिजाएं पहने हुए हैं फुहार की झांझर
हरी भरी सी दरख्‍तों की अब कबाएं हैं 

मेरे ख़याल में दिन रात तू ही रहता है 
हमेशा साथ मेरे तेरी ही सदाएं हैं

Raksha8 copy2

 shar di

Raksha8 copy2

शार्दूला दीदी

हा हा भैया, काले चोर का ख़त पढ़ा...ये देखिये आज लंच में क्या भुरता बनाया है मैंने इस ग़ज़ल (??) का : ) किसी दिन लम्बी बात करेंगे, बच्चों को प्यार देना और जब वो बदमाशी करें तो मुझे याद कर के उन्हें डांटना मत... सोचना दी को पता चला तो आ के पिटाई करेंगी... :) टाफी की बात पे एक वार्ता और उच्च समिति बैठाई जायेगी... निष्कर्ष बीबीसी द्वारा सूचित किया जाएगा :) शुभाशीष...दी :)भाई आप बड़ा काम करवाते हैं... मुझे तो आज सुदामा के चिवड़े याद आ रहे हैं... आपके बज़्म में क्या लायें , क्या परोसें... झेलिये :)

नवेली पौध ने दीं दुधमुही सदाएं हैं
फ़लक पे झूम उठीं सांवली घटाएं हैं

जमात चार पढीं, तो ज़मीनें बेचीं क्यों 

मिला न काम, मिलीं आत्मवंचनाएं हैं

नदी, तलाब नहीं और है न सागर ये

धरा के देह की दूषित हुईं शिराएं हैं

कलैंडरों से सरकने लगे तपे मौसम
गुमीं तिजारती खग-वृन्द की दिशाएं हैं
 

खुले पहाड़, ज़मीं, आसमां नहीं मिलते
अभागे चाँद से मिलतीं न अब विभाएं हैं

कभी गरीब को मिलता नहीं है शहज़ादा

कहानियों में लिखीं सिर्फ कल्पनाएं हैं  

Raksha8 copy2

Sudha di

Raksha8 copy2

सुधा दीदी

मैं नहीं जानती यह क्या बना है ...

फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं 
लगीं चमकने हृदय में भी क्षण प्रभाएं हैं

वो मुझसे  मिलने था आया मगर न मिल पाया
उसी के ग़म में उदासी भरी दिशाएं हैं 

वो पास था तो न जाना उसे, मगर अब वो
चला गया तो लहू रो रहीं वफाएँ हैं

हैं बेवफाई के चर्चे तो उसके हर सूं अब
बुझे चराग़ हैं, रोती हुई हवाएं हैं

वतन को छोड़ के बेटा हुआ है परदेशी
उदास मां है मगर लब पे बस दुआएं हैं

नसीब में है 'सुधा' पान कब यहां सबके
गरल को पी के भी जीने की बस सज़ाएं हैं

 Raksha8 copy2

Nirmla Kapila di

Raksha8 copy2

निर्मला दी

प्रिय सुबीर तरही के लिये एक गज़ल लिखी है आपके पुराने शिष्य तो इतने सध चुके हैं कि उन्हें मेरे जैसे पहली जमात के बच्चे की कोई गज़ल अच्छी नही लगती-- आपको भेज रही हूँ बस ये समझना कि मेरी शुरूआत है। मुझे सिहोर आ कर आपको विधिवत गुरू धारना है नही तो एक भाई से मै कुछ नही सीख पाऊँगी क्यों कि आप बडी होने के नाते मुझे न डाँट पायेंगे न कुछ कह पायेंगे और जब तक सख्ती नही होगी तब तक कुछ सीखा नही जायेगा। देखती हूँ कब आ पाती हूँ। अभी कुछ सेहत ठीक हो जाये।

फलक पे झूम रही सांवली घटाएं हैं
तभी तो आज हुईं बावरी हवाएं हैं

अदा से शान से भंवरे मचल रहे देखो
खिली खिली सी चमन में सभी लताएं हैं

न ठौर है न ठिकाना कोई अभी अपना
उन्‍हीं के दिल में बनाने की योजनाएं हैं

गुनाहगार सज़ा पाए ये चलो माना 
तेरे जहां में मगर प्यार पर सजाएं हैं

झुका के सर को तेरे दर पे शुक्र क्‍यों न करूं
नयामतें हैं तेरी, सब तेरी दुआएं है

मेरे ही मर्ज की बस उनमें है नहीं कोई 
यूं होने को तो यहां सैंकड़ों दवाएं हैं

जो एक राह हुई बंद तो न घबरा तू  
अभी खुली हुईं बाकी सभी दिशाएं हैं

 Raksha8 copy2 lavnya didi sahab

Raksha8 copy2

लावण्‍या दीदी साहब

घर से जितनी दूरी तन की,
उतना ही नजदीक मेरा मन,
धूप छाँव का खेल जिंदगी
क्या वसँत और क्या है सावन!
नयन मूँदते ही दिखते हैं
मिट्टी के वो ही घर आँगन,
वही पिता की पुण्य छवि औ'
सजल नयन पढ़ते रामायण !
आटे लिपटे हाथ वो मां के 
वह सोँधी रोटी की खुशबु,
बहनोँ का वह निश्छल हँसना
साथ साथ, रातोँ को जगना !
वे शैशव के दिन थे न्यारे,
कितने थे अंबर पर तारे!
कितनी परियाँ रोज उतरतीँ,
सपनोँ मेँ आ आ कर मिलतीँ.
" क्या भूलूँ, क्या याद करूँ ? मैं "
अपने घर को या बचपन को ?
दूर हुआ घर का अब रस्ता,
कौन मेरा अब रस्ता तकता ?
ये है अनुभव की एक पुडि़या ,
सुन ले बहना रानी गुडि़या

आज तो मानो आनंद ही बरस गया है । काफी सारे शेर ऐसे हैं जो कोट करने लायक हैं । लेकिन आज तो मैंने चुप रहने की ही कह दी थी क्‍योंकि आज तो मैं मौन रह कर इस आनंद को महसूसना चाहता हूं । आनंद जो गुणी बहनों के भाई होने का आनंद है । आप भी आनंद लीजिये बहनों की रचनाओं का ।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सावन बीत रहा है तथा भादों लगने वाला है, पवित्र रमज़ान माह भी शुरू हो चुका है, त्‍यौहारों के इस समय में सुनते हैं राजेंद्र स्‍वर्णकार, डॉ. उमाशंकर साहिल कानपुरी और चैनसिंह शेखावत की ग़ज़लें ।

मन बहुत क्‍लांत है, अशांत है और उद्विग्‍न है, अंधेरे में घिरा हुआ है, ऐसे में आज तरही के पहले कोई बात नहीं बस एक छोटी सी प्रार्थना

 

 

0021

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

 राजेन्द्र स्वर्णकार

rajendras-8x6

राजेंद्र जी तरही के लिये एक जाना पहचाना नाम हैं वे पिछले कई सारे मुशायरों में आ चुके हैं । वे गाते भी बहुत ही अच्‍छा हैं ये उनके ब्‍लाग शस्‍वरं पर लगे उनके आडियो लिंक से पता चलता है । मंच के मीठे गीतकार-ग़ज़लकार के रूप में अनेक गांवों-शहरों में काव्यपाठ और मान-सम्मान । आकाशवाणी से भी रचनाओं का नियमित प्रसारण । 100 से ज़्यादा पत्र - पत्रिकाओं में 1000 से अधिक रचनाएं प्रकाशित हैं ।

21958767

न वेदना है विरह की न यंत्रणाएं हैं
तुम्हें निहार लिया  , तृप्त कामनाएं हैं
करूंगा प्राण निछावर तुम्हारी प्रीत में मैं
बताओ , प्रीत की जो और अर्हताएं हैं
हृदय में आग नहीं , यज्ञ प्रीत का है कोई
नहीं ये शे‘र मेरे ... मंत्र हैं , ऋचाएं हैं
मुखर है मौन , न संकेत मिल रहा कोई
न लक्षणा है , न अभिधा , न व्यंजनाएं हैं
गरज रहे हैं ये घन , मस्त ज्यों गयंद कोई
हरेक रोम में सुलगीं सी वासनाएं हैं
न जा रे मेघ छली ! आज तू बिना बरसे
खड़ी युगों की लिये‘ प्यास द्रुम - लताएं हैं
करेंगे तृप्त या घन श्याम लौट जाएंगे
व्यथित विकल सी खड़ीं तट पे गोपिकाएं हैं
हवा में इत्र की ये गंध घोल दी किसने
महक लुटाने लगी अब दिशा - दिशाएं हैं
गगन - धरा हैं प्रणय - मग्न ; विघ्न हो न कहीं
लगादीं पहरे में चपलाएं - क्षणप्रभाएं हैं
धरा पॅ चंद्रमुखी यौवनाएं झूम रहीं
''गगन पॅ झूम रहीं सांवली घटाएं हैं''
छमाक छम छम राजेन्द्र झम झमा झम झम
निरत - मगन - सी ये बूंदनियां नचनियाएं हैं

क्‍या प्रयोग किये हैं शुद्ध हिंदी के काफियों के । पूरी की पूरी ग़जल़ ही उल्‍लेखनीय है गिरह का शेर भी बहुत अच्‍छा बांधा गया है । न जा रे मेघ छली ये शेर मुझे ऐसा लगा कि बस इसको आनंद के साथ पढ़ते रहो । शेर में जो छली शब्‍द का प्रयोग किया गया है वह रस विभोर करता हुआ गुजर जाता है ।

डा० उमाशंकर" साहिल" कानपुरी

पंतनगर के ही एक जाने माने शाईर डा० उमाशंकर" साहिल" कानपुरी (पंतनगर, उत्तराखंड ) की ये ग़ज़ल है उनके बारे में मुझे बहुत परिचय नहीं मिला है तथा उनका चित्र भी नहीं मिला है हां दूरभाष ०९४१११५९८२५ ये है उनका । लेकिन कहा जाता है न कि किसी भी लेखक का असली परिचय तो उसकी रचना ही होती है, उसी से लेखक की पहचान होती है सो उनके परिचय में उनकी ये गज़ल प्रस्‍तुत है ।

TheRain

''फलक पे झूम रहीं सांवली घटायें हैं''
मगर ज़मीं पे गरम चल रहीं हवाएं हैं
वही हैं फूल, वही हर तरफ बहारें हैं
मगर बदल सी रहीं आज क्यों फिजायें हैं
अदब किसी के भी दिल में नहीं बुजुर्गों का,
तभी तो उनकी नहीं लगती अब दुआएं हैं
छुपा रहा है कोई फूल सा हसीं चेहरा
ये उनकी ज़ुल्फ़ हैं या नरगिसी लताएं हैं 
हैं बेटियाँ भी सहमतीं बियाह करने से
कि दुल्हनों की तो जलती यहां चिताएं हैं
हर एक छोड़ गया साथ राह में "साहिल" 
ये कैसी राहगुज़र, कैसी  यात्राएं हैं

बढि़या शेर निकाले गये हैं । मतले में ही जोरदार गिरह लगाई गई है। छुपा रहा है कोई फूल सा हसीं चेहरा में तो जुल्‍फ और लताओं की जबरदस्‍त जुगलबंदी है । पंत नगर के अब तीन शायर मुशायरे में हो गये हैं अंकित सफर, मुस्‍तफा माहिर और साहिल जी । तीनों ने ही कमाल की ग़ज़लें कहीं हैं ।

चैन सिंह शेखावत

465

चैन सिंह शेखावत राजस्थान माध्यमिक शिक्षा विभाग . राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय ,समेजा कोठी [रायसिंहनगर] जिला -श्री गंगानगर . व्याख्याता[हिंदी] के पद पर कार्यरत हैं तरही मुशायरों में पहले भी आ चुके हैं तथा हम सबके लिये एक जाना पहचाना नाम हैं । उनका अपना ब्‍लाग है जिंदगी ए जिंदगी जहां पर वे अपनी कविताएं लगाते हैं । आज तरही के तीसरे शायर के रूप में सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।

 

rain-1

''फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं ''  

कि तेरी जुल्‍फों की ये बावली  बलाएँ हैं

कभी ज़मीं को तपाना कभी बरस जाना

ये आसमान की अपनी ही कुछ अदाएँ हैं   

ये फूल पत्तियाँ, देहरी, सजे ये  चौबारे

उतर के चांद से आई हुईं दुआएँ हैं

पिघल ही जाएंगी आखिर में ये घटाएं भी

बड़ी कशिश से भरी  प्यास की सदाएँ हैं

है भीगा भीगा हुआ तन  ये और मन सूखा

न जाने कौन से मौसम की ये हवाएँ हैं

बहुत ही सुंदर शेर कहे हैं । पिघल ही जाएंगीं आखिर में ये घटाएं भी बड़ी कशिश से भरी प्‍यास की सदाएं हैं  बहुत ही उम्‍दा शेर निकाला है । गिरह भी बहुत ही अच्‍छे तरीके से बांधी है । प्रकृति और पुरुष के चिरंतन प्रणय को  बहुत ही सटीक तरीके से चित्रित किया है । बधाइयां ।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

सुनहरे हर्फों में उनकी लिखी कथाएं हैं, वो जिनके सदक़े में आज़ाद ये फिज़ाएं हैं, स्‍वतंत्रता दिवस के अवसर पर सुनिये शाहिद मिर्जा जी की ये तरही ग़ज़ल ।

इस बार के स्‍वतंत्रता दिवस को लेकर कुछ ऊहापोह थी । ऊहापोह ये कि क्‍या किया जाये । नारे लगा कर जय बोलने से यदि सब कुछ ठीक हो जाता हो तो मैं दिन भर रात भर नारे लगाने के लिये तैयार हूं । लेकिन फिर ये खयाल आया कि वे सब जो इस देश पर अपने आप को लुटा कर चले गये उनको यदि आज भी याद नहीं किया गया तो फिर देश पर कुर्बान होने के लिये कोई आगे ही क्‍यों आयेगा । विचार आया कि अब किस शायर की तरही आनी रह गई है । पता चला कि शाहिद भाई की ग़ज़ल अभी तक नहीं आई है । शाहिद भाई से निवेदन किया गया कि आप ही 15 अगस्‍त पर लिखें । 13 अगस्‍त तक जब कुछ नहीं मिला तो लगा कि अब तो सामान्‍य रूप से ही तीन ग़ज़लें लगा कर पन्‍द्रह अगस्‍त मना लिया जाये । लेकिन 14 की सुबह मेल बाक्‍स में शाहिद भाई की ये देशभक्ति के जज्‍बों से भरी हुई शानदार ग़ज़ल मिली तो ऐसा लगा कि मानो प्रकाश फैल गया हो । देश का आज जो कुछ भी हाल हो लेकिन सच ये है कि वे लोग जो अपने प्राणों का उत्‍सर्ग करके हमारे हाथों में आज़ादी की मशाल थमा कर चले गये उनका क़र्ज अभी भी हम पर बाकी है । आभारी हूं शाहिद भाई का कि उन्‍होंने मेरे निवेदन को स्‍वीकार कर ये रचना विशेष तौर पर आज की तरही के लिये लिखी ।

पिछली बार की तरही में तिलक जी ने क्रियाओं को बहुत ही सुंदर तरीके से काफिये में बांधा था । तजल्लियात भरे, रक्‍स ये दिखाएँ हैं, खबर कोई तो मिले, खैर हम मनाऍं हैं। इन दोनों मिसरों में देशज तरीके से काफिये दिखाएं और मनाएं को बिल्‍कुल ठीक प्रकार से बाधा गया है । जैसे रक्‍स ये दिखाएं हैं  में दिखाने की क्रिया का अनवरत होता रहना दर्शाया जा रहा है और उसी प्रकार खैर हम मनाएं में खैर मनाने की प्रकिया का दोहराव हो रहा है । तो दोनों ही स्‍थानों पर देशज तरीके से क्रिया को काफिया बनाने का बहुत ही सुंदर उदाहरण पेश किया है तिलक जी ने । इसी पर शाहिद भाई ने एक शेर भी निकाला है  है बोलचाल की भाषा में फ़र्क शब्दों का, ’बता रहे हैं’ कहें, या कहें ’बताएं हैं’ । मेरे विचार में शाहिद भाई के एक शेर ने काफी कुछ साफ कर दिया है कि किस प्रकार  से क्रियाओं को काफिया बनाने का देशज तरीका होता है जो बहुधा उपयोग होता रहा है ।

IndiaF

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

pp-4

शाहिद मिर्जा

शाहिद भाई अपनी ग़ज़लों का चमत्‍कार पहले के तरही मुशायरों में भी दिखा चुके हैं और आज भी वे यही करने जा रहे हैं । शाहिद भाई मेरठ उत्‍तर प्रदेश के रहने वाले हैं और पत्रकारिता से जुड़े हैं । पहले में समझता था कि वे रेलवे में हैं क्‍योंकि जब भी उनका मोबाइल आता था तो पीछे से रेल कर आवाज़ हमेशा ही आती थी  । उनकी इस बार की ग़ज़ल सिर्फ ग़ज़ल नहीं है बल्कि एक दस्‍तावेज़ है एक ऐसा दस्‍तावेज़ है जो आज लिखा जाना बहुत ज़रूरी है । आज जब हम आज़ादी का अर्थ कुछ और लगा चुके हैं । उस दौर में ये ग़ज़ल एक प्रश्‍न है जो हर उस दरवाज़े पर पहुंच रहा है जहां पर वे लोग  बैठे हैं जिनको हमने उत्‍तर देने का जिम्‍मेदार बनाया था । बहुत कुछ नहीं लिखूंगा इस ग़ज़ल के बारे में बस आप सुनिये और गुनिये ।

abdul-hameed

सुनहरे हर्फ़ों से उनकी लिखी कथाएं हैं
वो जिनके सदके में आज़ाद ये फ़िज़ाएं हैं

Bal_Gangadhar_Tilak

हुए शहीद जो, बलिहारी उनके जज़्बों पर
वतन परस्तों के दिल की यही सदाएं हैं

 peaa001_rani_laxmibai

उठा सवाल यहां जब भी राष्ट्र भक्ति का
हैं वीर नर सभी, नारी वीरांगनाएं हैं

major-sandeep-unnikrishnan

समझ तो ये है समझ लें सबब ग़ुलामी का,
सबक़ लें उन से जो हम से हुई ख़ताएं हैं

flag-1

मना रहा है ये मौसम भी जश्ने-आज़ादी
”फ़लक पे झूम रही सांवली घटाएं हैं”

sandeep

वो जिन के अपने हुए हैं निसार सरहद पर
उन्हीं के हिस्से में आती यहां सज़ाएं हैं

1275579392_hunger_300

ज़रूरतों की सलीबों को ढो रहे हैं हम
सुकून चैन नहीं ,सिर्फ़ वेदनाएं हैं

dua_hands

अता हैं बरकतें उनकों, जो कहते हैं शाहिद
”खुदा का शुक्र है, सब आपकी दुआएं हैं”

क्‍या कहूं और क्‍या न कहूं । क्‍या वाह वाह करने की औपचारिकता निभाना जरूरी है । ये ग़ज़ल वाह वाह की हर हद के बाहर की ग़ज़ल है । गिरह का शेर किस प्रकार राष्‍ट्रभक्ति के साथ गूं‍था गया है । आप आनंद लेते रहिये इस पूरी ग़ज़ल का और इंतज़ार कीजिये अगले अंक का ।

बुधवार, 11 अगस्त 2010

आज की तरही में आ रही है लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल की जोड़ी ? नहीं नहीं नहीं सलीम जावेद की जोड़ी ? नहीं नहीं नहीं नीरज गोस्‍वामी जी और तिलकराज जी की जोड़ी ।

इन दिनों कॉलेज के एग्‍ज़ाम चल रहे हैं तो उसके कारण वहां की व्‍यस्‍तता ने थका दिया है । खैर 14 अगस्‍त को परीक्षाएं खत्‍म हो जाएंगीं और उसके बाद थोड़ी राहत मिलेगी । इतनी सावधानी के बाद भी आज एक छात्र का मोबाइल परीक्षा कक्ष के बाहर से गुम हो गया । बहुत कहा है छात्रों को कि भई अपने मोबाइल घर छोड़ के आओ लेकिन सुनता कौन है । खैर । इसी बीच कल एक सुखद अनुभूति हुई जब उपन्‍यास ' ये वो सहर तो नहीं...' की प्रथम प्रति हाथ में आ गई । बहुत ही सुंदर आवरण बनाया गया है, उपन्‍यास की भावना को पकड़ते हुए कार्य किया गया है । उपन्‍यास को हाथ में लेकर सोचता रहा कि क्‍या ये सचमुच मेरा ही है, क्‍या मैंने ही लिखा है । फिर याद आ गई वो बात कि देनहार कोई और है भेजते है दिन रैन लोग भरम हम पर करें ताते नीचे नैन । खैर आप सबकी दुआएं रंग लाईं हैं कि उपन्‍यास को पहले ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्‍कार मिला और आज वो प्रकाशित होकर हाथ में आ भी गया । ये भी सुखद संयोग है कि 1857 के जिसे ऐतिहासिक घटनाक्रम को लेकर ये कथा लिखी है वो घटना जिस तारीख को घटी थी उसी तारीख को उपन्‍यास मेरे हाथ में आया ।

ye wo sehar to nahin5

फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

98571053

आज का तरही मुशायरा कुछ ख़ास है खास इसलिये है क्‍योंकि आज एक युगल जोड़ी आ रही है । युगल जोड़ी जो लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल, सलीम जावेद, जय वीरू, वाली ही तर्ज पर बनाई गई है । दोनों ही ग़ज़ल को अलग तरीके से कहने में महारत हासिल कर चुके हैं । और सबसे अच्‍छी बात तो ये है कि दोनों ही ग़ज़ल को नये अंदाज़ से संवारने का कार्य कर रहे हैं । दोनों ही मेरे फेव‍रेट हैं । सो आज इन दोनों को ही लिया जाये ।

 

TRK Small 

राही ग्‍वालियरी जी ( तिलकराज जी )

तिलक राज जी की ग़ज़लें हमेशा ही एक नया अंदाज़ लिये होती हैं । वे काफियों का बहुत ही सुंदर तरीके से उपयोग करते हैं । मुझे हमेशा उनकी तरही का इंतज़ार इसलिये रहता है कि इन्‍होंने उन्‍हीं काफियों को कि प्रकार से बांधा होगा जो बहुत आम से हैं । शायर की यही विशेषता होती है कि वो आम शब्‍दों को ख़ास बनाने का हुनर जानता है । और फिर तिलकराज जी तो अपने हुनर में उस्‍ताद हैं ।  

p24160-1243916397

तजल्लियात भरे, रक्‍स ये दिखाएँ हैं
''फलक पे झूम रहीं सॉंवली घटाऍं हैं।''

करार दिल को नहीं भीड़ में तुम्‍हारे बिन
यूँ खुशनुमा है शह्र, शबनमी फि़ज़ाऍं हैं।

तमाम शह्र बहुत ही सुकून से सोया
किसी फ़कीर के दिल से उठी दुआऍं हैं।

मेरा ज़मीर खड़ा है मेरी हिफ़ाज़त में
मेरे खिलाफ़ हुकूमत तेरी जफ़ाऍं हैं।

हमारी बात ज़माने को सच लगे कैसे
हमारे पास कहॉं आप सी अदाऍं हैं।

बहुत दिनों से कोई ख़त नहीं मिला उसका
खबर कोई तो मिले, खैर हम मनाऍं हैं।

फि़र उसके बाद न 'राही' मिला मगर अबतक
जे़ह्न में गूँजती वो आखि़री सदाऍं हैं।

हमारी बात ज़माने को सच लगे कैसे हमारे पास कहां आप सी अदाएं हैं । मार डाला, इस एक शेर ने तो मानों चलत मुसाफिर लूट लियो रे पिंजरे वाली मुनिया कर दिया है । राही जी की ग़ज़ल में क्रियाओं को बिलकुल सही तरीके से क़ाफिया बनाया गया है , नये लिखने वाले लोग मनाएं और दिखाएं का प्रयोग ध्‍यान से देखें कि किस प्रकार से इन क्रियाओं को काफिया बनाया गया है । मकता भी बहुत ही सुंदर कहा है । आनंद ही  आ गया ।

neeraj ji

नीरज गोस्‍वामी जी

नीरज जी ने मुझे मेरे उस्‍ताद द्वारा कही गई एक बात के सच होने का एहसास कराया है । वे कहते थे कि जो अच्‍छा इंसान नहीं है वो अच्‍छा शायर भी नहीं हो सकता । खुशमिज़ाज और सभी से हंस कर मिलने वाला व्‍यक्ति ही जिंदगी से भरे हुए शेर कह सकता है । नीरज जी ने मुझे अपने उस्‍ताद की बात के सच होने का एहसास करवाया है । बहुत अच्‍छे और जिंदगी से भरे शेर पढ़ने हों तो उनके ब्‍लाग पर जाइये । पिछले साल उपन्‍यास लिखते समय जब मैं नैराश्‍य में चला गया था तब उन्‍होंने ही मुझे वहां से बाहर निकाला था ।

rain-50

गुलों को चूम के जब से चली हवाएँ हैं

गयीं, जहॉं भी, वहॉं खुशनुमा फि़ज़ाऍं हैं

भुला ग़मों को चलो आज मिल के रक्स करें     

''फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएँ हैं''

सबूत लाख करो पेश बेगुनाही का

शरीफ शख्स को मिलती सदा सज़ाएँ हैं

तड़प हिरास घुटन बेकसी अकेलापन 

अगर वो साथ है, तो दूर ये बलाएँ हैं

रकीब हो, के हो कातिल, के कोई अपना हो

हमारे पास  सभी के  लिए दुआएँ हैं

वही जो सुन के, पलट के भी देखता ही नहीं

उसी के वास्‍ते इस दिल की सब सदाएँ हैं

पलक झपकते गिरेंगे ज़मीं पे वो" नीरज"  

बगैर नींव के जो आशियाँ बनाएँ हैं

वाह वाह वाह क्‍या शेर निकाले हैं । मतला बहुत ही सुंदर कहा है । और गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर तरीके से बांधा गया है। तड़प हिरास घुटन बेकसी अकेलापन अगर वो साथ हैं तो दूर सब बलाएं हैं । ये शेर कई मायनों में सुनने में आनंद दे रहा है । पहले तो मिसरा उला में जिस प्रकार से बिना कोई भर्ती का शब्‍द लगाये बिना बात को पूरा कर दिया गया है और उसके बाद मिसरा सानी में उसको निभा भी दिया गया है वो शिल्‍पगत प्रयोग की एक मिसाल है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल ।

तरही को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है आज नीरज जी और तिलकराज जी ने । तो आज आनंद लीजिये इन दोनों का और फिर प्रतीक्षा कीजिये अगली जोड़ी का ।

परिवार