नुसरत दीदी का फोन आया, कहने लगीं पंकज तुम बहुत शरारत करते हो अच्छा खासा मिसरा बन रहा था और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की दोपहर उसे तुमने एक मात्रा बढ़ा कर उलझा दिया । मैंने कहा दीदी सवाल तो बहर का आ रहा था, मुझे इसी बहर पर काम करवाना था सो मजबूरी में मात्रा को बढाना पड़ा । दरअसल में इस बहर में 2122-2122-2122-212 पर इतना काम हुआ है कि बहरे रमल तो अब ऐसा लगता है कि यही हो गई है । उसके पीछे भी एक कारण ये है कि ये अंत में जो 212 होता है उससे मिसरे में रवानगी आ जाती है । जबकि 2122 के लिये पहले से सावधान होकर पढ़ना होता है । खैर बात जो भी लेकिन सच तो यही है कि बहर तो 212 वाली ही लोकप्रिय है । फिर भी अभी तक तो काफी ग़ज़लें मिल चुकी हैं । जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि इस बार मिसरा दो प्रकार का है पहले में रदीफ है गर्मियों की ये दुपहरी तथा दूसरे में है गर्मियों की वो दुपहरी, ये जो दूसरा वाला प्रयोग है ये तिलक जी के कहने पर किया गया है । दरअसल में अब ये ग़ज़ल दो प्रकार ही हो रही है । पहले मिसरे पर यदि कही जाती है तो बात वर्तमान काल में ही चलेगी हां पहला मिसरा भूतकाल में जा सकता है तथा तुलनात्मक रूप से दोनों कालों की तुलना की जा सकती है ।उसी प्रकार से यदि आप दूसरे मिसरे पर ग़ज़ल कहते हैं तो उस स्थिति में पूरी ग़ज़ल भूतकाल पर ही जायेगी, हां बात वही है कि आप तुलनात्मक रूप से दोनों कालों की तुलना कर सकते हैं । तो इस प्रकार से दोनों काल में बात कही जा सकती है ।
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
( चित्र सौजन्य श्री बब्बल गुरू )
इस बार जैसा कि तय किया गया है कि 5 मई से मुशायरा प्रारंभ हो जायेगा तथा उसके बाद हर अंक में एक बार में एक ही शायर को लगाया जायेगा । हर पोस्ट को दो दिन के अंतर से लगाया जायेगा । तथा हर अंक में हर शायर का पूरा परिचय दिया जायेगा ( यदि उपलब्ध करवा दिया जायेगा तो ।) । इस बहाने से हम उन लोगों के बारे में विस्तार से भी जान सकेंगें जिन को हम अभी तक पढ़ते रहे हैं । साथ में यदि वे लोग अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में भी लिख भेजेंगें तो वो भी बहुत अच्छा होगा । रचना प्रकिया का मतलब ये कि कोई भी नई रचना का सृजन करते समय वे किन मानिसक स्थितियों से गुजरते हैं तथा अपनी रचना में किन बातों का ध्यान रखते हैं । चूंकि एक ही ग़ज़ल लगनी है इसलिये रचनाकार के बारे में और अधिक जानने का अवसर रहेगा ।
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
( चित्र सौजन्य श्री बब्बल गुरू )
मुसलसल ग़ज़ल को लेकर तो आप सब जानते ही हैं कि ये एक ही विषय को लेकर कही जाती है । एक ही विषय को लेकर कहने का मतलब ये कि ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी में गीत होता है जो पूरा का पूरा एक ही विषय का निर्वाहन करता हुआ चलता है । उसी प्रकार से ग़जल़ भी एक विषय को लेकर उठती है और हर शेर में वही विषय मौजूद रहता है । एक बार बहस में मैंने कहा था कि इस हिसाब से तो दुष्यंत की हर ग़ज़ल ही मुसलसल है क्योंकि वहां हर ग़ज़ल में हर शेर में व्यवस्था के विरोध में आक्रोश है । आक्रोश जो कि अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त होता है । मुसलसल ग़ज़ल का एक फायदा ये होता है कि किसी एक विशेष समय में रचनाकार एक विशेष मानसिक अवस्था में होता है तथा उस समय वो एक विषय का बहुत अच्छी तरह से निर्वाहन कर सकता है । ऐसे में मुसलसल ग़ज़ल लिखने से वो उस समय अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता है । हालांकि मुसलसल ग़ज़ल कहने का चलन थोड़ा कम है । फिर भी मुसलसल ग़ज़ल यदि बिल्कुल सही प्रकार से लिखा गई है तो वो श्रोताओं को रोमांचित करती है, आनंदित करती है ।
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
( चित्र सौजन्य श्री बब्बल गुरू )
पांच मई में अब कुछ ही दिन रह गये हैं, सो जल्दी कीजिये और कहिये एक जानदार ग़जल़ यादों के उन गलियारों में भटकते हुए जहां कुछ लम्हे आज भी इस प्रकार से मिलते हैं जैसे कोई बरसों बरसों पुराना मीत मिल रहा हो, और कह रहा हो पहचाना मुझ मैं वही हूं ।