शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये ( वो ) दुपहरी, एक मुसलसल ग़ज़ल लिखने की दावत है ये मिसरा । मुसलसल ग़ज़ल जिसमें गर्मियों की तपती दोपहरी का सौंदर्य उभर कर सामने आ जाये ।

नुसरत दीदी का फोन आया, कहने लगीं पंकज तुम बहुत शरारत करते हो अच्‍छा खासा मिसरा बन रहा था और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की दोपहर  उसे तुमने एक मात्रा बढ़ा कर उलझा दिया । मैंने कहा दीदी सवाल तो बहर का  आ रहा था, मुझे इसी बहर पर काम करवाना था सो मजबूरी में मात्रा को बढाना पड़ा । दरअसल में इस बहर में 2122-2122-2122-212 पर इतना काम हुआ है कि बहरे रमल तो अब ऐसा लगता है कि यही हो गई है । उसके पीछे भी एक कारण ये है कि ये अंत में जो 212 होता है उससे मिसरे में रवानगी आ जाती है । जबकि 2122 के लिये पहले से सावधान होकर पढ़ना होता है । खैर बात जो भी लेकिन सच तो यही है कि बहर तो 212 वाली ही लोकप्रिय है । फिर भी अभी तक तो काफी ग़ज़लें मिल चुकी हैं । जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि इस बार मिसरा दो प्रकार का है पहले में रदीफ है  गर्मियों की ये दुपहरी  तथा दूसरे में है  गर्मियों की वो दुपहरी,  ये जो दूसरा वाला प्रयोग है ये तिलक जी के कहने पर किया गया है । दरअसल में अब ये ग़ज़ल दो प्रकार ही हो रही है । पहले मिसरे पर यदि कही जाती है तो बात वर्तमान काल में ही चलेगी हां पहला मिसरा भूतकाल में जा सकता है तथा तुलनात्‍मक रूप से दोनों कालों की तुलना की जा सकती है ।उसी प्रकार से यदि आप दूसरे मिसरे पर ग़ज़ल कहते हैं तो उस स्थिति में पूरी ग़ज़ल भूतकाल पर ही जायेगी, हां बात वही है कि आप तुलनात्‍मक रूप से दोनों कालों की तुलना कर सकते हैं । तो इस प्रकार से दोनों काल में बात कही जा सकती है ।

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

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( चित्र सौजन्‍य श्री बब्‍बल गुरू )

इस बार जैसा कि तय किया गया है कि 5 मई से मुशायरा प्रारंभ हो जायेगा तथा उसके बाद हर अंक में एक बार में एक ही शायर को लगाया जायेगा । हर पोस्‍ट को दो दिन के अंतर से लगाया जायेगा । तथा हर अंक में हर शायर का पूरा परिचय दिया जायेगा ( यदि उपलब्‍ध करवा दिया जायेगा तो ।) । इस बहाने से हम उन लोगों के बारे में विस्‍तार से भी जान सकेंगें जिन को हम अभी तक पढ़ते रहे हैं । साथ में यदि वे लोग अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में भी लिख भेजेंगें तो वो भी बहुत अच्‍छा होगा । रचना प्रकिया का मतलब ये कि कोई भी नई रचना का सृजन करते समय वे किन मानिसक स्थितियों से गुजरते हैं तथा अपनी रचना में किन बातों का ध्‍यान रखते हैं । चूंकि एक ही ग़ज़ल लगनी है इसलिये रचनाकार के बारे में और अधिक जानने का अवसर रहेगा ।

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

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( चित्र सौजन्‍य श्री बब्‍बल गुरू )

मुसलसल ग़ज़ल को लेकर तो आप सब जानते ही हैं कि ये एक ही विषय को लेकर कही जाती है । एक ही विषय को लेकर कहने का मतलब ये कि ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी में गीत होता है जो पूरा का पूरा एक ही विषय का निर्वाहन करता हुआ चलता है । उसी प्रकार से ग़जल़ भी एक विषय को लेकर उठती है और हर शेर में वही विषय मौजूद रहता है । एक बार बहस में मैंने कहा था कि इस हिसाब से तो दुष्‍यंत की हर ग़ज़ल ही मुसलसल है क्‍योंकि वहां हर ग़ज़ल में हर शेर में व्‍यवस्‍था के विरोध में आक्रोश है । आक्रोश जो कि अपने अपने तरीके से अभिव्‍यक्‍त होता है । मुसलसल ग़ज़ल का एक फायदा ये होता है कि किसी एक विशेष समय में रचनाकार एक विशेष मानसिक अवस्‍था में होता है तथा उस समय वो एक विषय का बहुत अच्‍छी तरह से निर्वाहन कर सकता है । ऐसे में मुसलसल ग़ज़ल लिखने से वो उस समय अपना सर्वश्रेष्‍ठ दे सकता है । हालांकि मुसलसल ग़ज़ल कहने का चलन थोड़ा कम है । फिर भी मुसलसल ग़ज़ल यदि बिल्‍कुल सही प्रकार से लिखा गई है तो वो श्रोताओं को रोमांचित करती है, आनंदित करती  है ।

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी / और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

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( चित्र सौजन्‍य श्री बब्‍बल गुरू )

पांच मई में अब कुछ ही दिन रह गये हैं, सो जल्‍दी कीजिये और कहिये एक जानदार ग़जल़ यादों के उन गलियारों में भटकते हुए जहां कुछ लम्‍हे आज भी इस प्रकार से मिलते हैं जैसे कोई बरसों बरसों पुराना मीत मिल रहा हो, और कह रहा हो पहचाना मुझ मैं वही हूं ।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हर ऋतु का अपना आनंद है, लेकिन हम सबकी यादों में जो ऋतु बसी रहती है वो होती है ग्रीष्‍म । हम सब जो पिछली पीढ़ी के हैं, जिन्‍होंने गर्मी की छुट्टियां देखी हैं । तो हो जाये मुसलसल ग़ज़लों का ग्रीष्‍म तरही मुशायरा ।

जब गर्मी की तरही का आयोजन करने सोचा तो  कई सारी यादें दिमाग़ में आती गईं । यादे जो कि उन दिनों की है जब स्‍कूल की तीन महीने की गर्मी की छुट्टियां होती थीं । उन छुट्टियों में क्‍या क्‍या नहीं होता था । वो दोस्‍तों के साथ पूरा दिन भी धुमड़ाना ( मम्‍मी पापा के शब्‍दों में ), कभी पता लता कि कहीं पर जंगल में खजूर पक गये हैं तो पूरी टोली निकल लेती । खजूर के पेड़ पर से खजूर तोड़ना कितना मुश्किल काम होता है । नीचे से पत्‍थर मारे जा रहे हैं और पता लग रहा है कि दस पत्‍थरों में से कोई एक लग रहा है । लगते ही पर्रर से पके खजूरों की बोछार हो जाती । फिर पता लगता कि और आगे जंगल में कहीं पर करोंदे पक रहे हैं । काले काले रस भरे करोंदे, मुंह में पानी तो आ जाता लेकिन डर भी लगता । डर इसलिये कि जब रात को सोते थे तो इन्‍हीं जंगलों से जानवरों की आवाजें आती थीं । टोली होने के कारण निकल पड़ते करोंदों की तलाश में । पता चलता कि करोंदों के साथ कहीं कहीं आम की पक्‍की साखें ( हमारे यहां डाल पर पके आम को साख कहा जाता है ) भी मिल जाती । दूर दूर तक फसल कट जाने के बाद वीरान पड़ हुए खेत देखने में  कितने सुंदर लगते थे । हर तरफ भांय भांया करती गर्मी की दोपहरी । और उस कड़कती दोपहरी में जंगल जंगल भटकती हम पन्‍द्रह से बीस बच्‍चों की टोली । न कोई अल्‍ट्रा वायलेट का डर न कोई डिहाइड्रेशन का और न कोई हाईजीन का खयाल । जहां प्‍यास लगी किसी कुंए में उतरे और प्‍यास बुझा ली । आप सोच रहे होंगें कि ये सब कोई कहानी है । जी नहीं ये कहानी नहीं हैं ये सच है, सच उस छोटे से क़स्‍बे इछावर का, जहां मेरा पूरा बचपन तथा कालेज का पूरा समय बीता है । वहां पर हमें जो सरकारी मकान मिला हुआ था उसके ठीक पीछे से ही जंगल शुरू हो जाता था । जंगल का मतलब सचमुच का जंगल । सागवान और खांकर का जंगल । जंगल जो हमें आकर्षित करता रहता था । मुझे याद है कि कालेज की परीक्षाएं तब अप्रैल मई में हुआ करती थीं, मैं उस समय पढ़ने के लिये गर्मी की दोपहरी में अपनी किताबें लेकर पीछे के जंगल में चला जाता था । एक इमली का बड़ा विशालकाय पेड़ था । उसकी जड़ें ऊपर निकली हुई थीं । उन जड़ों पर आसन जमा कर दिन भर पढ़ाई चलती थी । और साथ में बजती रहता था विविध भारती रेडियो पर । मेरी कई सारी कहानियों में इछावर आता रहता है । वे कहानियां जो समाचार पत्रों में छपती हैं । बल्कि मेरी ठीक पहली ही कहानी में इछावर का नास्‍टेल्‍िजिया विद्यमान है । इछावर का तीन कमरों का खपरैल का वो मकान आज भी सपनों में आता है । बल्कि यूं कहें कि सपनों के घर के रूप में वही आता है  ।

मेरे सपनों के उस घर के ठीक सामने तीन गुलमोहर के पेड़ थे, इनमें से एक पेड़ पर बोगलवेलिया की लतर इस प्रकार छाई थी कि पूरे पेड़ पर फैली हुई थी । ग़लमोहर के फूल और बोगनवेलिया के फूल दूर से देखने पर अजीब सी सुंदरता पैदा करते थे । मकान के एक तरफ कतार में रंगून क्रीपर की आठ दस लतरें थीं । रंगून क्रीपर के सफेद, लाल गुलाबी फूल भी गर्मी में झूम कर खिलते हैं । मकान के ठीक पीछे एक अति प्राचीन पीपल का पेड़ था जिसका घेरा एक कमरे के बराबर था । गर्मियो में उसके पत्‍ते झड़ जाते थे और एक विचित्र सी उदासी मन में उसको देखने पर उत्‍पन्‍न होती थी ( क्‍योंकि उन दिनों प्रेम व्रेम जैसी चीजें भी जीवन में घटित हो रहीं थीं । ) । पीपल से सटी हुइ दस बारह इमलियों के विशाल वृक्षों की एक लम्‍बी कतार थी  ।इन इमलियों ने ही हमें पेड़ पर चढ़ना और वहां से गिरना भी सिखलाया । रंगून क्रीपर की घनेरी छांव के नीचे गर्मियों की छुट्टियों में खेले जाने वाले खेल जिनमें चंगे अष्‍टे ( परी पंखुरी को खेलते देख कर आनंद आता है ) केरम, ताश, शतरंज होते थे । और साथ में होंती थीं चर्चाएं । कालोनी के वे पन्‍द्रह बीस बच्‍चे केवल दो समय का खाना खाने अपने घर जाते थे बाकी समय उनका अड्डा हमारा वही घर होता था ।

और फिर गर्मियों की वो रात , अहा, पूरी कालोनी के बच्‍चों के बिस्‍तर घर के बाहर लगे होते थे । हम बच्‍चों के लिये कोई रोक टोक नहीं कि कितनी बजे सोना है ।  बिस्‍तर तो बाहर ही लगे हैं, कभी भी आकर सो जाओ । रंगून क्रीपर से सटा कर हमारे पलंग बिछते थे ठीक ऊपर एक चमेली की लतर थी जो जमीन से होती हुई मकान के खपरैलों पर छाई हुई थी । चमेली की भीनी भीनी सुगंध और गर्मी की रात की ठंडी हवा । सच कहूं तो विश्‍वास नहीं होगा कि मच्‍छर जैसी भी कोई चीज होती है ये बात हमको तब पता ही नहीं थी । वहां मच्‍छरों का नाम तक नहीं था ( मेरे ननिहाल के छोटे से गांव में आज भी नहीं हैं ) मच्‍छर क्‍या होते हैं ये बात हमें शहर आकर पता चली । रात को लोहे के दो पलंगों पर बिस्‍तर लगाने के पहले उनके आस पास पानी छिड़का जाता । कूलर तो हमने इछावर छोड़ने के बाद ही देखे ।

गर्मियों की वो दोपहरी, जिसमें बरबूले ( बवंडर ) उठते थे । सुनसान चिलचिलाती दोपहरी में जैसे ही कोई बवंडर आता हम बच्‍चे दौड़ पड़ते थे उसमें भूत को तलाशने । और फिर स्‍कूल के आम की तरफ दौड़ते क्‍योंकि वहां लगे आम के पेड़ से कच्‍ची केरियां बवंडर में टूट कर गिरती थीं । गर्मियों की वो दोपहरी जिसमें करीब दो किलोमीटर पर बने बंधान ( छोटा बांध ) पर हम लोग नहाने जाते थे । और लौटते समय जंगल में मिलने वाले फलों को बटोरते हुए आते । मैं हमेशा जेबों में कुछ फल बचा कर लाता था मम्‍मी के लिये । जाने कितनी तो यादें हैं गर्मी की दोपहर की । उस सपनों के मकान की, जिसे पिछले साल तोड़ दिया गया, अब वहां कुछ नहीं है । न वो मकान, न रंगून क्रीपर, न चमेली, न गुलमोहर । केवल वो पीपल खड़ा है यादों की तरह अभिशप्‍त सा सब कुछ देखने के लिये । हालांकि अब इछावर जाना नहीं के बराबर होता है, लेकिन जाता हूं तो उस तरफ नहीं जा पाता । उस सूने मैदान को देख कर रोना आ जाता है । मगर इस मन को क्‍या कहूं जिसके सपनों में आज तक वही मकान बसा हुआ है । मैं बहुत नास्‍‍टेल्जिक हूं । यादें हमेशा मुझ पर लदी रहती हैं । वे लोग जो...............

खैर ये तो हुईं मेरी बात, आप सबकी भी तो यादें होंगीं । तो आइये इस बार एक तरही मुशायरा पूरा का पूरा गर्मी की दोपहर को समर्पित हो जाये । एक मुसलसल ग़ज़ल ( सारे शेर गर्मी पर हों ) गर्मी की दोपहर पर लिख भेजें । इस मिसरे पर ।

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी ( रदीफ गर्मियों की ये दुपहरी, क़‍ाफि़या ई )

बहर 2122-2122-2122-2122 ( फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन )

इस बार हर एक पोस्‍ट में केवल एक ही ग़ज़ल लगेगी और हर शायर का पूरा परिचय तथा चित्र उसके साथ होगा । इसलिये यदि आप ग़ज़ल के साथ अपना चित्र तथा परिचय भेजेंगे तो बहुत अच्‍छा होगा । मुशायरा ठीक 5 मई से प्रारंभ होगा, और मानसून के आगमन 5 जून तक चलेगा । लेकिन 5 मई तक जो ग़ज़लें आ जाएंगीं केवल वही मुशायरे में शामिल होंगीं । उसके बाद आने वाली ग़ज़लों पर विचार नहीं किया जायेगा । चित्र तथा परिचय ग़ज़ल के साथ ही भेजें, ये न सोचें कि पहले भेजा था वो रखा होगा । परिचय में इस ग़ज़ल को लिखते समय आपने यादों के नि गलियारों की सैर की वह भी लिखें और ये भी कि आप मुसलसल ग़ज़ल के बारे में क्‍या सोचते हैं । लिखने का माहौल बनाने के लिये सुनिये ये दो नास्‍टेल्जिक गाने, हालांकि ये इस बहर पर नहीं हैं पर इस विषय पर तो हैं हीं ।

    

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

1987 से लेकर अब तक के इंतज़ार का पूरा होना और ग्रीष्‍म कालीन तरही मुशायरा आयोजित करने की योजना ।

समय की अपनी ही एक रफ़्तार होती है । उसको बीतना होता है सो बीतता जाता है । पता नहीं क्‍या उम्र रही होगी तब, जब 1983 में भारत ने वो विश्‍व कप जीता था । उस समय आज की तरह क्रिकेट का इतना क्रेज़ नहीं था । हां लेकिन इतना याद है कि उस समय तक 1982 के एशियाड के कारण टीवी आ चुका था भोपाल में । तब की बहुत धुंधली यादें हैं । यादें ये कि हम दोनों भाई सारणी से इछावर लौट रहे थे और रात होने के कारण भोपाल ताऊ जी के घर रुक गये थे । तब वहीं पर ये क्रिकेट का फाइनल चल रहा था । उस समय कपिल देव, सुनील गावस्‍कर जैसे नाम याद तो थे लेकिन उम्र ऐसी नहीं थी कि वो जुनून होता । खैर रात को भारत जीता । और ताऊ जी ने उठकर अपनी बंदूक से दो फायर किये थे । उसके बाद तो बहुत कुछ हुआ । क्रिकेट का शौक चढ़ा और अपनी टीम का कैप्‍टन बना, लगभग बीस टूर्नामेंटों में विजेता रहे । जब भी जीत की शील्‍ड उठाते थे तो मन के अंदर जाने क्‍या क्‍या होता था । दूर दूर तक खेलने जाते थे । हमारी टीम अपनी गेंदबाजी के दम पर मैच जीतती थी । कई बार ऐसा होता था कि हम 15 रन पर आउट हो जाते थे और सामने वाले को 10 पर चटका देते थे । स्पिन का कोई काम नहीं सात फास्‍ट बालरों के साथ खेलते थे हम । बाद में क्रिकेट के साथ एक और खेल का जुनून चढ़ा और वो थी फुटबाल । फिर ये भी हुआ कि क्रिकेट पर फुटबाल हावी हो गई । फिर उम्र के सा‍थ धीरे धीरे सब कुछ कम होता गया ।

ये बात इसलिये कि भारत को विश्‍व विजेता बनते देखने का सपना उस समय परवान चढ़ा था अर्थात 1983 के बाद । 1983 के बाद इसलिये कि उस समय ही ठीक ठाक होश आया था । 1987 में जब भारत अपने ही देश में विश्‍व विजेता बनने के बाद खेल रहा था तब उत्‍साह चरम पर था । उस समय कुछ आठ टीमें थीं । पूल ए के सारे मैच भारत में और पूल बी के सारे मैच पाकिस्‍तान में होने थे । मुझे याद है कि ऐन दिवाली के दिन भारत अपना पहला ही मैच केवल 1 रन से आस्‍ट्रेलिया से हारा था । हालांकि बाद में भारत और पाकिस्‍तान दोनों ही अपने अपने पूल में नंबर वन रहीं थीं और सेमी फाइनल में दोनो ही हार गई थीं । रिलायंस वर्ल्‍ड कप के लिये इंग्‍लैंड के खिलाफ सेमी फाइनल में गावस्‍कर और कपिल देव का कुछ विवाद हुआ था और बाद में भारत फाइनल में भी नहीं पहुंच पाया था । याद है कि इसी वानखेड़े स्‍टेडियम पर 5 नवंबर को भारत और इंग्‍लैंड का सेमी फाइनल हुआ था । ग्राहम गूच ने भारतीय गेंदवाजों की धुनाई करते हुए शतक बनाया था । लगभग ढाई सौ के स्‍कोर का पीछा करते हुए भारतीय बल्‍लेबाज किसी योजना बद्ध तरीके से आउट होते गये । ( योजनाबद्ध इसलिये कि बाद में मैदान पर ही गावस्‍कर तथा कपिल के बीच कुछ कहा सुनी हुई थी ) भारत हारा,  इंग्‍लैंड ने फाइनल खेला और आस्‍ट्रेलिया ने जीता ।  ये वो समय था जब क्रिकेट के लिये मेरी दीवानगी चरम पर थी । फिर उसके हर चार साल बाद ये उत्‍साह बना रहता था । 1992 में हम सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंच पाये, 1996 में सेमीफाइनल को दर्शकों के व्‍यवहार के कारण बीच में रोक कर श्रीलंका को जीता घोषित किया गया, 1999 में फिर सेमीफाइनल नहीं खेल पाये, 2003 में पूरे मैचों में धमाके दार प्रदर्शन करने वाले हम फाइनल में हार गये और उसके बाद 2007 के शर्मनाक प्रदर्शन की क्‍या कहें । अब जाकर क्रिकेट का वो उत्‍साह पूरा हुआ । मेरे जैसे लोगों का ये लगभग 25 सालों का इंतजार था ।

क्रिकेट के बारे में चाहे जो कुछ भी कहा जाये लेकिन ये तो सच है कि ये भारत में अब पैशन बन चुका है । इसको लेकर जो दीवानगी है वो किसी और चीज़ में नहीं है । और अब तो भारत विश्‍व विजेता है । हालांकि इस दीवानगी को कई बार मीडिया ने अत्‍यंत फूहड़ भी कर दिया है । फिर भी कुछ तो है कि सारा देश एक ही ताल पर नाचने लगता है । मेरे जैसा व्‍यक्ति फाइनल मैच में भारत की पारी के दौरान 2 विकेट गिर जाने पर कमरे को अंदर से बंद करके और टेप रिकार्डर को फुल वाल्‍यूम पर चलाकर बैठ जाता है कि बाहर का कुछ न सुनाई दे, बीच बीच में बाहर से फटाकों की आवाज़ आती है तो राहत मिलती है ।( पाकिस्‍तान के खिलाफ सेमी फाइनल भी ऐसे ही देखा था । ) जब छोटा भतीजा आकर दो ओवर पहले दरवाज़ा पीटता है कि काका अब तो देख लो दो ओवर बचे हैं भारत जीत रही है । तब भी मैं पूछता हूं विकेट कितने गिरे हैं उत्‍तर में 4 विकेट पता चलने पर आखिर के दो ओवर देखने कमरे से निकलता हूं । ये सब केवल तनाव के कारण । जीत के बाद रात दो बजे तक टीवी देखना और बाद में फिर दूसरे दिन यू ट्यूब पर ढूंढ ढूंढ कर पूरा मैच देखना । एक दीवानगी तो है । जैसा मैंने पहले कहा कि मीडिया ने इस दीवनगी को फूहड़ बना दिया है । लेकिन ये दीवानगी मीडिया ने पैदा की है ये भी ठीक नहीं है । वे लोग जिन्‍होंने क्रिकेट या फुटबाल को क्‍लब स्‍तर पर खेला है वो जानते हैं कि ये दोनों खेल किस प्रकार की दीवानगी पैदा करते हैं । मैं बैडमिंटन, क्रिकेट, व्‍हालीबाल, क्रिकेट, के से ये चार खेल तो क्‍लब स्‍तर पर खेल चुका हूं मगर उनमें से भी मैं दो ही खेलों को चुनता हूं जो दीवानगी पैदा करते हैं ।

तो बधाई इस विश्‍व विजय की इस गीत के साथ जो 1983 में लता जी के साथ उस समय के विजेताओं ने गाया था ।

चलिये ये तो क्रिकेट की बात हो गई । क्रिकेट की बात के बाद आइये अब ग़ज़ल की बात करते हैं । पिछला मुशायरा जो होली का मुशायरा था वो सब कुछ होने के बाद भी बहर को लेकर कुछ फीका रहा । कई लोगों ने प्रयास किया तो कई लोगों ने किनारे पर बैठकर आनंद लिया । तो ऐसा लग रहा है कि कुछ और हो जाये । ग्रीष्‍म्कालीन मुशायरा जिसमें कि अब मुरक्‍कब बहरों से शुरूआत हो । तथा मुरक्‍कब बहरों से शुरू करने से पहले एक बार ग़ज़ल का सफ़र पर भी कुछ काम करना होगा ताकि वहां पर मुरक्‍कब बहरों के बारे में विस्‍तार से बताया जा सके । वैसे भी इस ब्‍लाग पर कुछ काम उस प्रकार से नहीं हो पा रहा है जैसा सोच कर इसको शुरू किया गया था । ग़ज़ल का सफ़र पर कुछ नया लगाना अब शुरू करना है । और उसके साथ ही ग्रीष्‍मकालीन तरही मुशायरे की भुमिका भी ।

इसी बीच एक कहानी को लेकर काफी मानसिक श्रम हो गया । कहानी अडि़यल घोड़ें की तरह क़ाबू में नहीं आ रही थी । लगभग दो माह का श्रम हुआ उसके बाद कहानी कैसी हुई ये तो अब समय के हाथों में है  । कहानी के नायक 'ढप्‍पू' में कायांतरण कर लेने के बाद भी कहानी ने इतना परेशान किया ।  दरअसल में पिछले पूरे साल भर जो मानसिक तनाव झेला है उसके बाद कुछ विशेष नहीं लिख पाया । हां इस बीच चौथमल मास्‍साब तथा कूल कूल लिखा गईं । जिसमें से भी अब सदी का महानायक पर एक टैली फिल्‍म बनने की प्रक्रिया चालू हो गई है । इन्‍हीं सब कारणों के चलते कई बार आप सब के मेल का जवाब नहीं दे पाया, कई बार रात को जब कहानी पर लगा होता था तो मोबाइल अटैंड नहीं कर पाया । काफी कुछ इस्‍लाह का काम भी पेंडि़ग हो गया है जिस पर अब कुछ कुछ काम करना शुरू कर रहा हूं । खैर ये सब तो होता है । तो अब ग्रीष्‍मकालीन तरही के लिये कोई ऐसी ग़ज़ल जिसमें गर्मी की चटकती दोपहर हो, रातों में महकते मोगरे हों, गलियों में दौड़ते धूल के बगूले हों और बहुत कुछ हो । कुल मिलाकर गर्मियों का पूरा आनंद हो ।

तो आप सब को नववर्ष की शुभकामनाएं और ढेरों बधाइयों इस विश्‍व विजय की  ।

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