रविवार, 30 अक्तूबर 2016

शुभ दीपावली, शुभ दीपावली, आज अश्विनी रमेश जी, दिनेश कुमार, मंसूर अली हाशमी जी, डॉ. संजय दानी जी, राकेश खंडेलवाल जी, नुसरत मेहदी जी और लावण्या दीपक शाह जी के साथ दीपपर्व के दीप हम जलाते हैं।

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दीपावली का यह पर्व आप सबके जीवन में खुशियाँ लाए और आपकी सारी इच्छाएँ पूरी करे। वह सब कुछ जो आपने सोचा है वह सब कुछ आपको मिले। सबसे अच्छी शुभकामना यह कि आप सब रचते रहें, लिखते रहें और आपका लिखा हुआ सराहा जाता रहे। लेखक के लिए रचनाकार के लिए सबसे बड़ी दुआ तो यही हो सकती है। हाँ और एक दुआ इस परिवार के लिए भी, इस ब्लॉग के परिवार के लिए, हमारा यह प्रेम यह सद्भाव इसी प्रकार बना रहे। हम सबके बीच प्रेम का यह भाव बना रहे। कोई नहीं बिछड़े कोई नहीं दुखी हो। हम सब इसी प्रकार बरसों बरस तक प्रेम के यह दीपक जलाते रहें।

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deepawali (15)उजाले के दरीचे खुल रहे हैंdeepawali (15)

आइये आज हम छः रचनाकारों के साथ दीपावली का यह पर्व मनाते हैं आज अश्विनी रमेश जी, दिनेश कुमार, मंसूर अली हाशमी जी, डॉ. संजय दानी जी, राकेश खंडेलवाल जी, नुसरत मेहदी जी और लावण्या दीपक शाह जी के साथ दीपपर्व के दीप हम जलाते हैं।

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ashwini ramesh ji

अश्विनी रमेश

deepawali (1)

दिवाली के दिवे कुछ यूँ जले हैं
उजाले झिलमिलाने से लगे हैं

गिले शिकवे भुलाकर लोग अपने
खुशी से आज सब से ही मिले हैं

मिटा दे सब अंधेरे जो ज़हन के
उजाले यों दमक दिल के रहे हैं

दिवाली के जुनूँ में आज खोकर
पटाखे फुलझड़ी झर-झर झरे हैं

दिवारें नफरतों की तोड़ कर हम
उजाला प्यार का करने चले हैं

दिवाली इस कदर रोशन ये होवे
मिटे रंजिश इबादत कर रहे हैं

दिवाली बज़्म यों सजती रहेगी
हसीं अशआर के दीपक जले हैं

deepawali (7)

दीपावली के त्योहार की सारी भावनाएँ समेटे हुए बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है। दीपावली की एक-एक रस्म को शेर में पिरोते हुए बहुत ही भावनात्मक बातें कही गईं हैं। नफ़रतों को हटा का प्रेम का रंग चारों ओर बिखेरना यही तो हर पर्व का कार्य होता है। प्रेम और स्नेह के रंगों से रौशनी से हर तरफ नूर बिखर जाए यही कामना होती है। पटाखे फुलझड़ी का झर झर झरना, खुशी से लोगों का गले मिलना, रंजिशों का मिटना, यही तो हम सबकी कामना है। और हमारी कामना को शब्दों में ढाल दिया है अश्विनी जी ने बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

deepawali[4]


Dinesh Kumar

दिनेश कुमार

deepawali (1)[3]

उजाले का लिए परचम खड़े हैं
हवा में जल रहे नन्हे दिये हैं

शराफ़त का नक़ाब ओढ़े हुये हैं
अधिकतर आदमी बगुले बने हैं

नफ़ा नुक़सान अक़्सर देखते हैं
उसूलों के भी अपने क़ाइदे हैं

लगी ठोकर तो उठ कर चल दिए हैं
हमारे ख़्वाब भी चिकने घड़े हैं

सफलता पाँव भी चूमेगी इक दिन
चुनौती के मुक़ाबिल हौसले हैं

ये सच है हम भी मेंढक हैं कुएं के
हमारी सोच के भी दायरे हैं

'प्रदूषण' के पटाखे मत चलाओ
ये सुन सुन कान के पर्दे हिले हैं

कहाँ मिटता है भीतर का अँधेरा
अगरचे हर तरफ़ दीपक जले हैं

deepawali (7)[4]

उजाले का परचम लिए खड़े दीपकों को समर्पित यह ग़ज़ल बहुत ही सुंदर है। जिसमें हर अँधेरे को अपने तरीके से आईना दिखाने की कोशिश की गई है। नफा नुकसान देखने वाले उसूल हों, ठोकर पर चल देने वालो ख्वाब हों, या शराफत का नकाब हो। हर शेर अपने ही ढंग से अँधेरों को उजाले में लाने का प्रयास कर रहा है। सोच के दायरे वाला शेर भी बहुत सुंदर बना है जिसमें मेंढक होने के प्रतीक से बहुत अच्छे से कहा गया है। चुनौती के मुकाबल हौसलों को खड़े करने वाला शेर भी शानदार है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

deepawali[6]

Mansoor ali Hashmi

मन्सूर अली हाश्मी जी

deepawali (1)[5]

1

हमें अपने से वो क्यूँ लग रहे हैं
कोई सपना है या हम जगे हैं

है हिन्दू भी, मुसलमॉ, सिख इसाई
नगीने बन वतन में सब जड़े हैं

निराशा से उभर कर अब तो देखो
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

ये काकुल भी तुम्हारे नैन भी तो
ये तुम से ही गिला क्यों कर रहे हैं ?

तग़ाफुल है,भरम या ख़ुद पसंदी ?
खड़े हैं आईने को तक रहे हैं

कही नेता कही रावण दहन है
विचारों के पुलिन्दे जल रहे हैं

जिये हम जिसकी ख़ातिर और मरे भी
वो पहलूए रकीबाँ में खड़े हैं

2

बहुत ज़ोरों से अब क्यूँ बज रहे हैं
नही लगता कि वो थोथे चने हैं ?

ये फिर 'यूपी' में कोई  'कैकेयी' है
कोई  फिर राम क्या वन को चले हैं?

तमस्ख़ुर, तन्ज़ है और जुमलाबाज़ी
सियासत में सभी क्या मसख़रे है !

बड़ी अच्छी बहर दी इस दिवाली
पटाख़ों पर पटाख़े छुट रहे है !

मिली है 'हाश्मी' को दाल-रोटी
गधे है कि मिठाई खा रहे है।

deepawali (7)[6]

दोनों ही ग़ज़लें मंसूर भाई ने अपने ही अंदाज़ में कही हैं। एक सीधी सादी ग़ज़ल और दूसरी तंज़ की ग़ज़ल। पहली ग़ज़ल में गिरह बहुत ही सकारात्मक तरीके से बाँधी गई है। उजाले के दरीचे खुलने का मतलब यही तो होता है कि आप निराशा से उभर कर सकारात्मक हो जाएँ। एक मिसरा तो ऐसा ग़ज़ब बना है कि बस, खड़े हैं आईने को तक रहे हैं, वाह वहा कमाल का मिसरा बना है। दूसरी ग़ज़ल का मतला ही खूब बन पड़ा है। ग़ज़ब। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

deepawali[8]

papa

डा संजय दानी दुर्ग

deepawali (1)[7]

फ़क़ीरी के सितम हम भी सहे हैं,
मुहब्बत की वक़ालत कर चुके हैं ।

अंधेरा अब अंधेरे में रहेगा ,
उजाले के दरीचे खुल रर्हे हैं ।

पहाड़ों को बुलाना मत घरों में ,
ज़मीनी धोखों से ही दिल भरे है ।

विदेशी चीज़ें अच्छी लगती हैं पर,
वतन के हाट रोने से लगे हैं ।

चलो दीवाली में अच्छा करें कुछ,
ग़रीबों की गली में बैठते हैं ।

चलो फिर गांव में ढूंढे ख़ुशी को,
सुकूं शहरों के बस चिकने घड़े हैं ।

दगाबाज़ी का बादल ख़ौफ़ में है,
मदद के दीप हम दोनों रखे हैं ।

ज़माना"दानी" कितना भी डराए
वतन पे मरने वाले कब डरे हैं ।

deepawali (7)[8]

अंधेरा अब अंधेरे में रहेगा, वाह यह होती है बात, यही तो वह बात है जिसके कारण काव्य में रस आता है। क्या खूब गिरह लगाई है मज़ा ही आ गया। वाह। पहाड़ और ज़मीन को प्रतीक बना कर बड़ी बात कहने का प्रयास अगले शेर में किया गया है। बहुत ही सुंदर। ग़जल का एक शेर सकारात्मक होता है और अगला नकारात्मकता पर प्रहार करता है। बहुत ही सुंदर। मकते में सेना को समर्पित मिसरा भी ख्‍ब है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

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nusrat mehdi

नुसरत मेहदी जी

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पंकज बहुत गड़बड़ हो गई तुमने मिसरा दिया मैंने सिर्फ वो पढ़ा और चलते फिरते शेर कह दिए ये पढ़ा ही नहीं कि तुमने क्या रदीफ़ क़ाफ़िया तय किये हैं।

हमारे ग़म में वो कब घुल रहे हैं
सुना है फिर कहीं मिलजुल रहे हैं

ये किन रंगों में मौसम खुल रहे हैं
ग़मों की धूप में हम धुल रहे हैं

अभी हैं बेख़बर सिम्तो से फिर भी
उड़ानों पर परिंदे तुल रहे हैं

नहीं टूटा तअल्लुक़, ठीक,लेकिन
ग़लत कुछ फ़ैसले बिलकुल रहे हैं

अँधेरे छुप गए गोशो में जाके
"उजालों के दरीचे खुल रहे हैं "

असासा हैं ये तहजीबों के रिश्ते
दिलों के दरमियां ये पुल रहे हैं

मुक़द्दर है चराग़ों का ये 'नुसरत'
कि अपनी ज़ात में खुद घुल रहे हैं

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नुसरत दी के कहने में एक अलग ही अंदाज़ होता है। इस बार जैसा कि उन्होंने लिखा कि वे रदीफ और ‌काफिया क्या है यह नहीं देख पाईं औ र ग़ज़ल कह दी। लेकिन इस ग़फ़लत से हमें एक अलग प्रकार की सुंदर ग़ज़ल मिल गई। मतला ही ऐसा ग़ज़ब बना है कि अश अश करने को जी चाह रहा है। ग़ज़ब। सिम्तों से बेखबर परिंदों का उड़ानों पर होना क्या कमाल है। यही तो जोश होता है। नहीं टूटा तअल्लुक क्या कमाल का शेर है, जीवन की कड़वी सच्चाई को बयाँ करता शेर, ग़लत फैसलों की ओर इशारा करता हुआ शेर। वाह। अँधेरे छुप गए गोशों में जाकर मिसरे से क्या खूब गिरह बाँधी गई है। वाह। मकते में मानों हर उस शख्स की बात कह दी गई है जो अँधेरों से लड़ रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह ।

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Rakesh2
राकेश खंडेलवाल जी

deepawali (1)[9]

1

सिमट कर रातरानी की गली से
तुहिन पाथेय अपना है सजाता
अचानक याद आया गीत, बिसरा
मदिर स्वर एक झरना गुनगुनाता
बनाने लग गई प्राची  दिशा में
नई कुछ  बूटियां राँगोलियों की
हुई आतुर गगन को नापने को
सजी है पंक्तपाखी टोलियों की
क्षितिज करवट बदलने लग गया है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

चली हैं पनघटों की और कलसी
बिखरते पैंजनी के स्वर हवा में
मचलती हैं तरंगे अब करेंगी
धनक के रंग से कुछ मीठी बातें
लगी श्रृंगार करने मेघपरियां
सुनहरी, ओढनी की कर किनारे
सजाने लग गई है पालकी को
लिवाय साथ रवि को जा कहारी
नदी तट गूंजती है शंख की ध्वनि
उजाले ले दरीचे खुल रहे हैं

हुआ है अवतरण सुबहो बनारस
महाकालेश्वरं में आरती का
जगी अंगड़ाइयाँ ले वर्तिकाये
मधुर स्वर मन्त्र के उच्चारती आ
सजी तन मन पखारे आंजुरि में
पिरोई पाँखुरी में आस्थाएं अर्चनाये
जगाने प्राण प्रतिमा में प्रतिष्ठित
चली गंगाजली अभिषेक करने
विभासी हो ललित गूंजे हवा में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

deepawali[12]

2

शरद ऋतु रख रही पग षोडसी में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
उतारा ताक से स्वेटर हवा ने
लगे खुलने रजाई के पुलंदे
सजी  छत आंगनों में अल्पनाएं
जहां  कल बैठते थे आ परिंदे
किया दीवार ने श्रृंगार अपने
नए से हो गए हैं द्वार, परदे
नए परिधान में सब आसमय है
श्री आ कोई वांछित आज वर दे
दिए सजने लगे बन कर कतारें
उजाले के दरीचे खुल रहे है

लगी सजने मिठाई थालियों में
बनी गुझिया पकौड़ी पापड़ी भी
प्लेटों में है चमचम, खीरमोहन
इमरती और संग में मनभरी भी
इकठ्र आज रिश्तेदार होकर
मनाने दीप का उत्सव मिले है
हुआ हर्षित मयूरा नाचता मन
अगिनती फूल आँगन में खिले है
श्री के साथ गणपति सामने है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

पटाखे फुलझड़ी चलने लगे हैं
गगन में खींचती रेखा हवाई
गली घर द्वार आँगन बाखरें सब
दिए की ज्योति से हैं जगमगाई
मधुर शुभकामना सबके अधर पर
ग़ज़ल में ढल रही है गुनगुनाकर
प्रखरता सौंपता रवि आज अपनी
दिये की वर्तिका को मुस्कुराकर
धरा झूमी हुई मंगल मनाती
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

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अब राकेश जी के गीतों पर कोई क्या टिप्पणी करे। टिप्पणी करे या ठगा सा रहे। दीपावली का त्योहार मानो गीतों में साकारा हो उठा है। सारे प्रतीक सारे बिम्ब एक एक करके मानो किसी द्श्य की तरह सामने आ रहे हैं। ऐसा लगता है मानों राकेश जी ने ब्लॉग की दहलीज़ पर एक सुंदर सी राँगोली बना दी है शब्दों से। जिसे बस ठगा रह कर देखा ही जा सकता है। दूसरा गीत तो मानों दीपावली को थीम साँग है। एक एक पंक्ति दीपमाला सी सजी है। क्या बात है वाह वाह वाह।

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लावण्या दीपक शाह जी

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तू जलना धीरे-धीरे दीप मेरे 
तझे है रात भर ऐसे ही जलना
है आया पर्व दीपों का अनूठा
अमावस से है तुझको आज लड़ना

मनाते हैं सभी खुशियाँ घरों में
उमंगों से है महका-महका आंगन
हर इक घर में सदा हो शुभ औ मंगल
ये व्रत लक्ष्मी का फिर आया है पावन

कृपा सब रहे ओ माँ ये तेरी
यही बिनती है तुझसे आज मेरी
तेरे आशीष से ही बस कटेगी
अमावस की निशा है ये घनेरी

उमंगों के कई दीपक जले हैं
उजालों के दरीचे खुल रहे हैं

 deepawali (7)[12]

गुणी पिता की गुणी बिटिया। ज्योति कलश छलके जैसा अमर ज्योति गीत लिखने वाले अमर गीतकार की  बिटिया। दीपक को प्रतीक बनाकर बहुत ही सुंदर गीत रचा है। कामना और भावना से भरा हुआ गीत, जो भारतीय परंपरा है कि सबके लिए हम शुभ की कामना करते हैं, सबके घरों में खुशी हो यही प्रार्थना करते हैं। यह गीत भी उसी प्रकार के भावों से भरा हुआ है। बहुत ही सुंदर गीत क्या बात है, वाह वाह वाह ।

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तो यह हैं आज के सारे रचनाकार। अभी कुछ रचनाकार बाद में गाड़ी पकड़ेंगे ऐसा लग रहा है। यदि आते हैं तो हम बासी  दीपावली उनके साथ ही मनाएँगे। तिलक जी, नीरज जी जैसे कुछ वरिष्ठ भी शायद अभी गाड़ी पकड़ने की तैयार में हैं। आप सबको दीवाली मंगलमय हो। हँसते रहें  झिलमिलाते रहें। शुभ दीपावली।

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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

कल तीन रचनाकारों ने अपनी ग़ज़लों से धमाल मचाया और पाँच रचनाकार अपनी रचनाओं से रूप चतुर्दशी का रूप बढ़ाने आ रहे हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, पूजा भाटिया, गुरप्रीत सिंह और संध्या राठौर प्रसाद के साथ मनाते हैं आज की यह रूप चतुर्दशी।

मित्रो कई बार ऐसा लगता है कि दस साल पहले जो परिवार इस ब्लॉग पर बना था, जुड़ा था, वह कहीं बिखर तो नहीं गया? लेकिन फिर एक मुशायरा होता है और सारा परिवार एक बार फिर से एकजुट हो जाता है। मुझे लगता है कि यह ब्लॉग अब हम सबके नास्टेल्जिया में जुड़ गया है। यह हम सबका वह चौपाल है जहाँ पर हम समय मिलते ही फिर फिर लौटना पसंद करते हैं। और कोई अवसर आते ही सूचनाएँ प्राप्त होना प्रारंभ हो जाती हैं कि क्या बात है इस बार मिसरा अभी तक नहीं दिया गया। इस ब्लॉग पर हमने यह परंपरा प्रारंभ की है कि यहाँ पर जो भी मिसरा दिया जाएगा वह किसी पूर्वरचित ग़ज़ल का न होकर एकदम नया होगा। कई बार इस नया देने के चक्कर में ही काफी देर हो जाती है मिसरा देने में। इस बार भी एक पूरी रात की मशक़्क़त के बाद यह मिसरा सुबह-सुबह मानों सपने में आया। बात चल रही थी इस बात की कि यह तरही मुशायरा अब हम सबकी आदत बन चुका है। जो लोग आते हैं वो आते ही हैं। और हाँ आपको ज्ञात ही होगा कि इस बीच दो पत्रिकाएँ शिवना साहित्यिकी तथा विभोम स्वर प्रारंभ की गईं हैं। आपमें से जिनके पते रिकार्ड में थे उनको पत्रिकाएँ भेजी जा रही हैं लेकिन जिनके पते नहीं है उनको नहीं भेज पा रहे हैं, अनुरोध है कि अपने डाक के पते प्रदान करने का कष्ट करें। और हाँ जिस प्रकार इस ब्लॉग के लिए आप ग़जलें भेजते हैं उसी प्रकार पत्रिकाओं के लिए भी ग़ज़लें भेजें।

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आज रूप की चतुर्दशी है। कहीं कहीं इसको नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। आज सुबह जल्दी उठकर स्नान करने तथा विशेष रूप से उबटन लगाकर स्नान करने का बहुत महत्व है। तो आइये आज रूप की चतुर्दशी पर हम पाँच रचनाकारों की रूपवान रचनाएँ सुनते हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, पूजा भाटिया, गुरप्रीत सिंह और संध्या राठौर प्रसाद के साथ मनाते हैं आज की यह रूप चतुर्दशी।

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deepawali (16)

deepawali

dharmendra kumar

धर्मेन्द्र कुमार सिंह

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एल ई डी की कतारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं

दुआ सब ने चरागों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं

उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं

न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं

रखो श्रद्धा न देखो कुछ न सोचो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं

अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं

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एक बड़ी बात कह रहा हूँ और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ, आज इस ग़ज़ल ने दुष्यंत कुमार की याद दिला दी। वही तेवर, वही कटाक्ष, वही तंज़। इस ग़ज़ल के एक-एक शेर के अर्थ में जाइये और फिर सोचिए कि यह शेर कहाँ-कहाँ चोट कर रहा है। सलीक़ा यही होता है ग़ज़ल का जिसमें सब कुछ कह दिया जाए बिना कुछ कहे। दुआ सबने चरागों के लिए की में झुनझुनों का फलना रोंगटे खड़े कर देता है। और अगले ही शेर में उजाले के शुभ्र होने की बात और रंगों की पहचान में एक बार फिर गहरा कटाक्ष किया गया है। करेंग एक दिन वो भी उजाला में अभी केवल धुँआ देने का ग़ज़ब तंज़ है, ग़ज़ब मतलब सचमुच का ग़ज़ब। रखो श्रद्धा में कुछ न सोचो के रूप में एक बार फिर शायर ने अपनी आक्रामकता को बरकरार रखा है। क्या कमाल के शेर रचे गए हैं इस ग़ज़ल में। याद आते हैं प्रेमचंद भी –क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

deepawali

digambar

दिगंबर नासवा

deepawali (1)[4]

तभी तो दीप घर घर में जले हैं
सजग सीमाओं पर प्रहरी खड़े हैं

जले इस बार दीपक उनकी खातिर
वतन के नाम पर जो मर मिटे हैं

सुबह उठ कर छुए हैं पाँव माँ के 
मेरे तो लक्ष्मी पूजन हो चुके हैं

झुकी पलकें, दुपट्टा आसमानी
गुलाबी गाल सतरंगी हुए हैं
 

अमावस की हथेली से फिसल कर
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

पटाखों से प्रदूषण हो रहा है
दीवाली पर ही क्यों जुमले बने हैं

सफाई में मिली इस बार दौलत
तेरी खुशबू से महके ख़त मिले हैं

deepawali (4) 

दिगंबर ने इस बार मतला उलटबाँसी करके रचा है, एकबारगी तो लगा कि मिसरा सानी को उला होना चाहिए और उला को सानी। लेकिन एक दो बार पढ़ा तो लगा कि नहीं उस उलटने का भी अपना एक आनंद है, सौंदर्य है। यदि किसी प्रयोग करने से सौंदर्य बढ़ रहा हो तो वह प्रयोग जायज़ माना जाता है। मतला खूब बन पड़ा हे। इसलिए भी क्योंकि इसमें हमारे प्रहरियों को सलामी दी गई है। मतले के बाद पहला ही शेर एक बार फिर सीमाओं पर शहीद हो रहे हमारे उन सपूतों के नाम है जिनके कारण हम दीपावली मना रहे हैं। इस पूरे ब्लॉग परिवार की और से इस शेर की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए हमारे शेरों को नमन। दो अनूठे प्रेम के शेर भी इस ग़ज़ल में हैं झुकी पलकें और सफाई में मिली इस बार दौलत, यह दोनों ही शेर प्रेम की महक से भरे हुए हैं। तेरी खुशबू से महके खत मिलना तो कमाल है। बहुत ही सुंदर। गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर तरीके से बाँधा गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह। 

deepawali[8]

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पूजा भाटिया

deepawali (1)[4]

हमें प्यारे वो सारे वसवसे हैं
हमारे नाम जिन में जुड़ गए हैं

हमारे अश्क तकिये पर बिछे हैं
मगर हम ख़ाब में तो हँस रहे हैं

उसे मिलने से लेकर अब तलक हम
उसी के और होते जा रहे हैं

कहाँ तक हम फिरें सब को संभाले
हमारे अपने भी कुछ मसअले हैं

कुछ इक दिन तो सहारा देंगे दिल को
ये ग़म पिछले ग़मों से कुछ नए हैं

ये माना शहर बिल्कुल ही नया है
मगर चेहरे सभी देखे हुए हैं

अजी हाँ प्यार है हमको तुम्हीं से
चलो जाने दो अब दस बज चुके हैं

ज़मीं पर हर तरफ़ बिखरे ये ज़र्रे
सितारे थे..अँधेरा ढो रहे हैं

ख़बर सुनते ही आने की तुम्हारे
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

deepawali (4)[6] 

पूजा जी भी हमारे मुशायरों में आती रहती हैं। इस बार प्रेम और विरह के खूबसूरत शेर उन्होंने रचे हैं। बहुत ही अलग तरीक़े से ये शेर कहे गए हैं। सबसे पहले बात उसे शेर की जो ग़ज़ब ही है, विशेषकर उसका मिसरा सानी –चलो जाने दो अब दस बज चुके हैं। क्या बात है ग़ज़ल के फार्मेट पर एकदम पूरा पूरा उतरता हुआ मिसरा। ग़ज़ब। हमारे अश्क तकिये पर बिझे हैं और ख़ाब में हँसने वाला शेर भी खूब बना है। विरोधाभास पर लिखी गई हर रचना पढ़ने वाले को अलग आनंद देती है। कुछ इक दिन तो सहारा देंगे दिल को में एक बार फिर से मिसरा सानी कमाल बना है। एकदम कमाल। सितारों के अँधेरा ढोने में एक बार फिर से विरोधाभास को सौंदर्य बढ़ाने के लिए बहुत ही खूबसूरत तरीके से उपयोग किया गया है। उसे मिलने से लेकर में उसीके और होते जाना बहुत अच्छा प्रयोग बना है। और गिरह का शेर भी अंत में बहुत ही खूब बनाया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कमाल के शेर, वाह वाह वाह ।

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deepawali (15)

संध्या राठौर प्रसाद

deepawali (1)[4] 

उजालो के दरीचे खुल रहे हैं
दिये जो बुझ गए थे जल गए हैं

कमी ऐसी नहीं थी कोई उनमें
मगर फिर भी किसी को खल गए हैं

पुरानी शाख है बूढ़ा शज़र है
खिले हैं फूल जो, वो सब नए हैं

थी कैसी प्यास जो आँखों में ठहरी
जहाँ देखो वहीं दरिया बहे हैं

तुझे आवाज़ दी तुझको पुकारा
तिरी यादों के घर खंडहर किये हैं

यहाँ आया है क्या सैलाब कोई
ये किसके कैसे हैं घर जो ढहे हैं

deepawali (4)[8] 

संध्या जी का चित्र भी उपलब्‍ध नहीं हो पाया और ना ही उनके बारे में कोई जानकारी मिल पाई। लेकिन इस ब्लॉग की परंपरा है कि जो आता है उसका स्वागत है। बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है संध्या जी ने। मतले में ही गिरह को बाँधा है और बहुत ही सुंदर तरीके से बाँधा है। दियों के जलने से उजाले के दरीचों के खुलने की बात बहुत सुंदर तरीक़े से कही है। उसके बाद अगला ही शेर बहुत खूब है जिसमें जीवन की एक कड़वी सच्चाई को सामने लाया गया है। पुरानी शाख है बूढ़ा शजर है में नए फूलों के खिलने से एक प्रकार की सकारात्मक सोच सामने आ रही है। प्यास और दरिया वाले शेर में विरोधाभास को कमाल तरीक़े से उपयोग में लाया गया है। उसमें भी दो शब्द ठहरी और बहे का एक ही द्श्य में प्रयोग खूब किया है। प्यास का ठहरना और दरिया का बहना दो अलग बातें एक साथ होना बहुत सुंदर बन पड़ा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है संध्या जी ने । वाह वाह वाह ।

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गुरप्रीत सिंह

deepawali (1)[4] 

अँधेरे के ये पल कुछ ही बचे हैं
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

हवा बहती गज़ल कहती है देखो
शजर आ कर वजद में झूमते हैं

खिलौने से पराये जैसे बच्चा
वो ऐसे दिल से मेरे खेलते हैं

न चमकाओ हकीकत का ये शीशा
मेरे ख्वाबों के बच्चे सो रहे हैं

अभी कुछ रोज़ पहले दिल है टूटा
अभी ताज़ा ही हम शायर बने हैं

deepawali (4)[10] 

गुरप्रीत का भी चित्र उपलब्‍ध नहीं हो पाया है। लेकिन एक बात बताना चाहूँगा कि गुरप्रीत ने इस ब्लॉग के प्रारंभिक अध्यायों को पढ़कर ग़ज़ल के बारे में जानकारी प्राप्त की है। पाँच-छह माह पूर्व ईमेल के उत्तर में गुरप्रीत को मैंने इस ब्लॉग के बारे में बताया था और इस ग़ज़ल को पढ़कर लग रहा है कि गुरप्रीत में बहुत संभावनाएँ हैं। मतले में ही बहुत सुंदर ढंग से गिरह को बाँधा है। पहले बात उस शेर की जो बहुत सुंदर बना है। अंतिम शेर जिसमें दिल टूटने की बात को ताज़ा शायर बनने से जोड़ा गया है बहुत सुंदर है। न चमकाओ हक़ीक़त का ये शीशा में ख्‍़वाबों के बच्चों के जाग जाने का भय बहुत खूब है। तुलनात्मक तरीके से बहुत अच्छा प्रयोग किया है ख्‍वाब और हक़ीक़त का। गुरप्रीत का यह हमारे मुशायरे में पहला ही प्रयास है और ग़ज़ल को पढ़कर यह संभावना तो जाग ही रही है कि हमें गुरप्रीत की बहुत सुंदर ग़ज़लें आने वाले समय में पढ़ने को मिलनी हैं। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

deepawali[8] 

तो यह हैं आज के हमारे पाँच शायर जिन्होंने कमाल की रचनाएँ पेश की हैं। और दाद देने के आपके काम को बहुत बढ़ा दिया है। रूपवान ग़ज़लों के सौंदर्य में आज की यह रूप चतुर्दशी दिपदिपा रही है। कल दीपावली पर हम कुछ और ग़ज़लों के साथ मनाएँगे दीपपर्व तब तक आप दाद देते रहिए इन पाँचों रचनाकारों को।

diwali with Paan & Marigold flowers

deepawali[8]

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