सुकवि रमेश हठीला स्मृति तरही मुशायरा
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
वसंत पंचमी को तरही मुशायरे ने छुटकी अनन्या की ग़ज़ल के साथ नई ऊंचाइयों को छुआ । और सभी अग्रजों-अग्रजाओं ने जिस प्रकार से अनन्या का उत्साह बढ़ाया उससे ये पता लगा कि क्यों इस ब्लाग को एक परिवार माना जाता है । यहां पर एक परिवार की तरह ही सब आपस में जुड़े हैं । और मुझे ऐसा लगता है कि यही सबसे बड़ी सफलता है । और सबसे बड़ी बात ये है कि परिवार अब धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है । हर बार तरही में कुछ नये लोग जुड़ते हैं । पिछली पोस्ट पर श्री तिलक राज जी द्वारा की गई टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने रदीफ की व्याख्या की है और मिसरा ए तरह पर भी चर्चा की है । जिन बातों की ओर उन्होंने इंगित किया है वो जानना बहुत ज़ुरूरी है । 'अभी तक' को समझे बिना शेर कहा गया तो शेर बेमज़ा हो जायेगा। कुछ लोग कहते हैं आप अपने ब्लाग पर अपनी रचनाएं क्यों नहीं लगाते हैं । मैं कहता हूं कि एक तो मैं इन गुणीजनों जितना अच्छा नहीं लिख पाता हूं । दूसरा मैं आज भी उस मत पर दृढ़ता से कायम हूं कि संपादक को अपने संपादन में निकलने वाली पत्रिका में अपना संपादकीय देना चाहिये केवल, उसे अपनी कहानी या कविता उस पत्रिका में छापने से बचना चाहिये । इसीलिये मैं केवल संपादकीय ही लिखता हूं । तो चलिये आज का संपादकीय खत्म करते हैं और श्री नवीन सी चतुर्वेदी 'नवीन' और मुस्तफा माहिर पंतनगरी से सुनते हैं उनकी शानदार ग़ज़लें ।
श्री नवीन सी चतुर्वेदी 'नवीन'
नवीन जी आज नये वर्ष के इस मुशायरे में एक नये रूप में अवतरित हो रहे हैं । दरअसल में आज वे पहली बार अपने तख़ल्लुस के साथ प्रकाशित हो रहे हैं । नवीन को ही अपना तख़ल्लुस बनाया है उन्होंने । और आज पहली बार इस तख़ल्लुस के साथ ये ग़ज़ल कही है । तो अब वे द्विगुणित नवीन हो चुके हैं । आइये सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।
हरक़तों पे टोकाटाकी है अभी तक गाँव में
नस्ल की तीमारदारी है अभी तक गाँव में
आप का कहना बजा है, गाँव में भी है जलन
फिर भी टकसाली तसल्ली है अभी तक गाँव में
जानते हो क्यूँ तरक़्क़ी गाँव तक पहुँची नहीं
वक़्त की रफ़्तार धीमी है अभी तक गाँव में
यूँ तो महँगाई ने रत्ती भर कसर छोड़ी नहीं
फिर भी मस्ती लाख सस्ती है अभी तक गाँव में
जिस में हिम्मत हो बना ले अपने सपनों के महल
कुदरती मज़बूत धरती है अभी तक गाँव में
ये तो पुरखों के पसीने का ही जादू है फकत
हर तरफ सौंधास रहती है अभी तक गाँव में
ज़िन्दगी जिसके लिए थी ज़िन्दगी भर इम्तिहाँ
वो "जनक-धरती की बेटी" है अभी तक गाँव में
उस से मिलता हूँ तो बचपन लौट आता है मेरा
"इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में"
शह्र की तहज़ीब दाख़िल हो चुकी है पर 'नवीन'
एक हद तक फिर भी नेकी है अभी तक गाँव में
जनक धरती की बेटी, क्या प्रयोग किया गया है और मिसरा उला भी उतने सशक्त रूप से अपने आपको अभिव्यक्त कर रहा है । मतले में गांव के मुख्य गुण को खूब पकड़ा है गांव में आज भी ये नहीं देखा जाता कि बच्चा अपना है कि दूसरे का है, यदि ग़लत कर रहा है तो कोई भी डांट सकता है । वक्त की रफ़तार को जिस प्रकार से गांव में धीमा किया है वो भी खूब है मैं तो इस सुस्त गति को जानता हूं इसलिये कह सकता हूं कि बहुत खूब । और बचपन के लौट आने की जबरदस्त गिरह, वाह वाह वाह । आनंद ला दिया नवीन जी ।
मुस्तफा महिर पंतनगरी
मुस्तफा से मैं हर बार कुछ अलग, कुछ खास की उम्मीद रखता हूं । पिछले दिनों फेसबुक पर मुस्तफा के कुछ कमजोर शेर देखे तो सबसे ज्यादा निराश होने वालों में मैं ही था । लेकिन इस ग़ज़ल में कुछ मिसरे तो मुस्तफा ने ऐसे गढ़े हैं कि सारी निराशा छू मंतर हो गई है । मुस्तफा उस शायर का नाम है जिससे मुझे भविष्य में बहुत उम्मीदें हैं ।
मुल्क़ की पहचान बाक़ी है अभी तक गाँव में
आदमी हिन्दोस्तानी है अभी तक गाँव में
शहर में तो नफरतें हर दिल पे ग़ालिब हो गयीं
प्यार की दूकान चलती है अभी तक गाँव में
मंतरी जी पांचवां भी साल पूरा हो चला
पर सड़क, बिजली न पानी है अभी तक गाँव में
फाइलों के आंकड़ों पर गौर मत कीजे जनाब
फाइलों में तो तरक्की है अभी तक गाँव में
कौन सूरज बनके निगलेगा ग़मों की तीरगी
ये पहेली उलझी उलझी है अभी तक गाँव में
छत पे भी जाती नहीं है बेदुपट्टा बेटियाँ
शर्म का आँखों में पानी है अभी तक गाँव में
इस ज़माने को गुज़िश्ता दौर से जोड़े हुए,
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
फ़स्ल बोने काटने में गाँव बूढ़ा हो गया,
भूख पर लेकिन जवानी है अभी तक गाँव में.
तुझको ए दिल्ली! मिले फुर्सत तो आ कर देखना
कितनी मुश्किल जिंदगानी है अभी तक गाँव में
किसके इक दीदार की हैं मुन्तजिर तन्हाईयाँ
पारो किसकी राह तकती है अभी तक गाँव में
आज भी आ जाती हैं यादें तेरी दिल में मेरे,
शाम की चौपाल लगती है अभी तक गाँव में.
छत पे भी जाती नहीं हैं बेदुपट्टा बेटियां, क्या कह दिया है मुस्तफा । गांव को जीकर लिखा गया है ये शेर । और फिर कहता हूं कि जिसने गांव को स्वयं नहीं जिया हो वो फस्ल बोने काटने में जैसा मिसरा कह ही नहीं सकता । मतले में भी दोनों बार रदीफ को बेहतरीन तरीके से निभाया है । और गिरह में जिस प्रकार से पिछले दौर को वर्तमान से जोड़ा है आनंद आ गया है । कौन सूरज बने के निगलेगा गमों की तीरगी, गांव की पूरी व्यथा को एक ही शेर में पिरो दिया है । वाह वाह वाह । खूब कहा है मुस्तफा ।
तो आनंद लीजिये दोनों महत्वपूर्ण शायरों का और देते रहिये दाद । अगले अंक में मिलते हैं कुछ और रचनाकारों के साथ ।