ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
ज़ुरूरी सूचना: यदि समय की कमी हो तो फिलहाल पोस्ट को न पढ़ें, ये पोस्ट थोड़ा अतिरिक्त समय मांगती है. और एक बात यदि इन सातों में से एक एक शेर छांट कर कुल सात शेरों की ग़ज़ल ( मतला, मकता और गिरह मिलाकर) आपको बनानी हो तो आप कौन कौन से छांटेंगें.
यूं तो तरही मुशायरे का समापन हो चुका है लेकिन फिर भी एक ग़ज़ल और झेल ली जाये. दरअसल हुआ ये कि पिछली बार के वर्षा मंगल तरही मुशायरे में पाठशाला के एक छात्र ने कहा कि मिसरे में कठिनता ये है कि काफिया मुश्किल है, अधिक शेर कहे नहीं जा सकते. उस समय 'फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं' मिसरा था जिसमें काफिया था घटाएं. छात्र का कहना था कि काफिये हैं ही नहीं सो मजबूरी में क्रियाओं को ही काफिया बनाना होगा. बात उड़ते उड़ते भभ्भड़ कवि भौंचक्के तक पहुंची और बस बात चुभ गई, सो उस मुशायरे में भभ्भड़ कवि ने बिना क्रियाओं के काफियों का उपयोग किये 108 शेरों की ग़जल़ कही ( उस समय तो 103 शेर थे लेकिन बाद में श्री तिलक राज जी के आदेश पर 5 शेर और बढ़ा कर उसे 108 किया गया). इस बार सात गुणा सात अर्थात 49 शेर तथा अंत में दो समापन के शेर इस प्रकार कुल 51 शेर हैं.
इस बार भी यही हुआ एक छात्र ने कहा कि इस बार एक तो दुपहरी और उस पर मुसलसल ग़ज़ल इन दोनों शर्तों ने मजा बिगाड़ दिया है. एक ही विषय पर एक ही तरीके से ग़ज़ल कहना अपने बस की बात नहीं है. भभ्भड़ कवि का ये व्यक्तिगत सोचना है कि आपको किसी डॉक्टर ने पर्चा नहीं लिखा था कि आप शायर बनो और एक ग़ज़ल सुब्ह, एक दोपहर और एक शाम कहो. आप स्वयं बने हैं तो, ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होगा, जैसी बातें करके दूसरों को और अपने को मूर्ख मत बनाओ. छात्र का कहना था कि मैं विषय पर ग़जल़ नहीं कह सकता. मुझे लगा कि एक साहित्यकार यदि ये कहे कि वो विषय पर नहीं लिख सकता तो उससे बड़ी मूर्खता की कोई बात है ही नहीं. तो भभ्भड़ कवि ने सात अलग अलग विषयों पर गर्मियों की दुपहरी को आधार बना कर मुसलसल ग़ज़लें कहने की कोशिश की. वस्ल, हिज्र, मौसम, विद्रोह, हौसला, शब्द चित्र और खान पान, इन सात विषयों पर सात सात शेरों वाली ग़ज़लें. सात शेर जिनमें मतला, मकता और गिरह के शेर के अलावा चार शेर हैं. ठीक बीच में गिरह का शेर है. भभ्भड़ कवि को मकता लिखना पसंद नहीं है, भभ्भड़ कवि की सोच है कि मकता लगाना अपने गर्व का प्रदर्शन है, कि ये मैंने लिखा है. जबकि हक़ीक़त ये है कि देनहार कोइ और है ........, लेकिन फिर भी केवल तरही मुशायरों में भभ्भड़ कवि मकता लिखते हैं.
यादों के गलियारे से कुछ फोटो
इस मिसरे में तो तख़ल्लुस के लिये 121 होने के कारण और मुश्किल थी, सो संयुक्त अक्षरों का खेल हर मकते में जमाया गया है. भभ्भड़ कवि ने उस समय भी कहा था कि उस ग़ज़ल को केवल प्रयोग के तौर पर देखा जाये ( स्वर्गीय हठीला जी ने उसे खारिज भी किया था) और आज भी वही बात कि ये ग़ज़लें केवल प्रयोग हैं, और प्रयोग हमेशा कमज़ोर होता है ( साहित्यिक नज़रिये से).
यादों के गलियारे से कुछ और फोटो
ये सात ग़ज़लें भी हो सकता है कहन में बहुत कमज़ोर हों, क्योंकि जब भी अधिकता होती है तो गुणवत्ता में कमी आती ही है. मगर फिर भी ये समझाना ज़ुरूरी था कि भले ही विषय कुछ भी हो लेकिन उस विषय को कैसे आप अपने मनचाहे विषय की तरफ मोड़ सकते हैं. एक बात और, इस बार काफी अच्छी ग़ज़लें मिलीं, लेकिन फिर भी हर ग़ज़ल में कम से एक या दो शेर ऐसे थे जिनमें रदीफ के साथ मिसरे का राबिता नहीं था, या था भी तो ठीक से नहीं था. भभ्भड़ कवि ने भी सातवें नंबर की ग़ज़ल में मकते के ठीक ऊपर के दोनों शेर इसी प्रकार से लिखे हैं जिनमें मिसरे के साथ रदीफ का राबिता ठीक नहीं हो रहा है. देखने में दोनों शेरों में ऐसा लग रहा है कि बिल्कुल ठीक है लेकिन गड़बड़ तो है. कई ग़ज़लों में रदीफ की ध्वनि के दोहराव का दोष बना था, जैसा भभ्भड़ कवि ने छठे नंबर की ग़ज़ल में मतले के ठीक बाद के तथा गिरह के ठीक बाद के शेर में रखा है. ये भी नहीं होना चाहिये, यदि रदीफ ई पर समाप्त हो रहा है तो मिसरा ऊला ई पर समाप्त नहीं होना चाहिये. एक कोशिश और ये की है कि इन 51 शेरों में कोई भी काफिया दोहराया नहीं जाये, जैसा वर्षा में किया था. इन ग़ज़लों में कहन नहीं तलाशें क्योंकि ये प्रयोग के लिये लिखी गई हैं. फिर भी कहीं एकाध शेर में कहन मिल जाये तो बोनस समझ कर रख लें.
आइये सुनते हैं ये सातों ग़ज़लें
( परिवार 1 - तीन पीढि़यां, मां पिता, भैया भाभी और बच्चे )
(1) ग़ज़ल वस्ल की (मिलन)
तुमको छूकर महकी महकी, गर्मियों की ये दुपहरी
ख़ुश्बुओं की है रुबाई, गर्मियों की ये दुपहरी
धूप में झुलसे बदन को, तुम अगर होंठों से छू दो
बर्फ सी हो जाए ठण्डी, गर्मियों की ये दुपहरी
हर छुअन में इक तपिश है, हर किनारा जल रहा है
है तुम्हारे जिस्म जैसी, गर्मियों की ये दुपहरी
अब्र सा साँवल बदन उस पर मुअत्तर सा पसीना
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
ज़ुल्फ़े जाना की घनेरी छाँव में बैठे हुए हैं
हमसे मत पूछो है कैसी, गर्मियों की ये दुपहरी
है अभी बाँहों में अपनी, एक सूरज साँवला सा
देख ले तो जल मरेगी, गर्मियों की ये दुपहरी
क्यों न बोलें चाँद रातों से 'सुबीर' इसको हसीं हम
साथ में तुमको है लाई, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 2- हम दो हमारी दो )
(2) ग़ज़ल हिज्र की ( विरह )
दर्द, तनहाई, ख़मोशी, गर्मियों की ये दुपहरी
इक मुसलसल सी है चुप्पी, गर्मियों की ये दुपहरी
जब तलक तुम थे तो कितनी ख़ुशनुमा लगती थी लेकिन
लग रही अब कितनी सूनी, गर्मियों की ये दुपहरी
लाई थी पिछले बरस ये, साथ अब्रे मेहरबाँ को
अब के ख़ाली हाथ आई, गर्मियों की ये दुपहरी
हिज्र का मौसम, तुम्हारी याद, तन्हाई का आलम
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
रो रही है धूप आँगन में तुम्हारा नाम लेकर
आँसुओं से भीगी भीगी, गर्मियों की ये दुपहरी
मन की सूनी सी गली में उड़ रहे यादों के पत्ते
एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी
चल पड़ो तुम भी 'सुबीर' अब, दे नहीं सकती तुम्हें कुछ
बिखरी बिखरी, ख़ाली ख़ाली, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 3 - नेह का नाता, वे लोग जिन्होंने मुझे 'मैं' बनाया. )
(3) ग़ज़ल मौसम की
है विरहिनी उर्मिला सी, गर्मियों की ये दुपहरी
इसलिये दिन रात जलती, गर्मियों की ये दुपहरी
दे रहा इसको मुहब्बत से सदाएँ कब से मगरिब
फिर भी माथे पर है बैठी, गर्मियों की ये दुपहरी
नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी
जाने किस कारण अचानक, हो गई कोयल भी चुप तो
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
क्या किया है रात भर, इसने वहाँ पश्चिम में जाकर
किसलिये इतनी उनींदी, गर्मियों की ये दुपहरी
पी गई तालाब, कूँए, बावड़ी, पोखर, नदी सब
फिर भी है प्यासी की प्यासी, गर्मियों की ये दुपहरी
जब 'सुबीर' इसके गले, हँस कर लगा इक नीम कड़वा
हो गई कड़वी से मीठी, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 4 - मेरी शक्ति, कोई ज़ुरूरी तो नहीं कि बेटों से आपका रक्त संबंध भी हो. )
(4) ग़ज़ल विद्रोह की
कब हुई आख़िर किसी की, गर्मियों की ये दुपहरी
खेल है केवल सियासी, गर्मियों की ये दुपहरी
मुल्क के राजा हैं बैठे, बर्फ के महलों में जाकर
मुल्क की क़िस्मत में लिक्खी, गर्मियों की ये दुपहरी
बारिशों का ख़्वाब देखा था मगर हमको मिला क्या
साठ बरसों से भी लम्बी, गर्मियों की ये दुपहरी
रो रहा है भूख से सड़कों पे नंगे पाँव बचपन
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
सब खड़े होंगे न जब तक, भींच अपनी मुट्ठियों को
तब तलक क़ायम रहेगी, गर्मियों की ये दुपहरी
ख़ुशनुमा मौसम सभी कुछ ख़ास तक महदूद हैं बस
आम इन्सानों को मिलती, गर्मियों की ये दुपहरी
बस इसी कारण छलावे में 'सुबीर' इसके फँसे सब
पैरहन पहने थी खादी, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 5- हम साथ साथ हैं )
(5) ग़ज़ल हौसले की
है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी
आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी
धूप के तेवर अगर तीखे हैं तो होने दो यारों
हौसलों से पार होगी, गर्मियों की ये दुपहरी
मंजि़लों को जीतने का, जिनके सीने में जुनूं है
उनको लगती है सुहानी, गर्मियों की ये दुपहरी
इम्तेहाँ राही हैं तेरा, धूप में जलती ये राहें
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
शान से सिर को उठा कर, कह रहा है गुलमोहर ये
देख लो मुझसे है हारी, गर्मियों की ये दुपहरी
सुख सुहानी सर्दियों सा, बीत ही जाता है आख़िर
है हक़ीक़त ज़िन्दगी की, गर्मियों की ये दुपहरी
एक चिंगारी 'सुबीर' अंदर ज़रा पैदा करो तो
देख कर उसको बुझेगी, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 6 - दादा दादी और बच्चे )
(6) ग़ज़ल शब्द चित्रों की
ढीट, ज़िद्दी और हठीली, गर्मियों की ये दुपहरी
फिर रही है रूठी रूठी, गर्मियों की ये दुपहरी
बूढ़ी अम्मा ने ज़रा टेढ़ा किया मुँह, और बोली *
आ गई फिर से निगोड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी
पल में दौड़ेंगे ये बच्चे, आम के पेड़ों की जानिब
इक ज़रा लाये जो आँधी, गर्मियों की ये दुपहरी
चुप हुई शैतान टोली, डांट माँ की खा के जब तो
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
गाँव में अमराई की ठंडी घनेरी छाँव बैठी *
चैन की बंसी बजाती, गर्मियों की ये दुपहरी
बुदबुदाई पत्थरों को तोड़ती मज़दूर औरत
राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी
माँ को बड़ियाँ तोड़ते देखा 'सुबीर' इसने जो छत से
धप्प से आँगन में कूदी, गर्मियों की ये दुपहरी
( * इन दोनों शेरों में रदीफ की ध्वनि (ई) के दोहराव का दोष मिसरा उला में बन रहा है.)
( परिवार 7- परी के साथ मंखा सरदार )
(7) ग़ज़ल खाने पीने की
थोड़ी मीठी, थोड़ी खट्टी, गर्मियों की ये दुपहरी
जैसे अधपक्की हो कैरी, गर्मियों की ये दुपहरी
याद की गलियों में जाकर, ले रही है चुपके चुपके
बर्फ के गोले की चुसकी, गर्मियों की ये दुपहरी
धूप की ये ज़र्द रंगत, चार सूँ बिखरी है ऐसे
जैसे केशर की हो रबड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी
ले के नींबू की शिकंजी, घूमता राधे का ठेला
''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''
छुप के नानी की नज़र से, गट गटा गट, गट गटा गट *
पी गई है सारी लस्सी, गर्मियों की ये दुपहरी
धूप का देकर के छींटा, थोड़ी कैरी, कुछ पुदीना
माँ ने सिलबट्टे पे पीसी, गर्मियों की ये दुपहरी *
पक गये हैं आम, इमली, खिरनियाँ, जामुन, करौंदे
है 'सुबीर' आवाज़ देती, गर्मियों की ये दुपहरी
( * राबिता की कमी वाले शेर )
( परिवार 7- ये वो, जो पिछले एक साल से जीवन में चल रही कड़ी दुपहरी में छांव दे रहे हैं . गौतम और संजीता तुमको क्या कहूं , नि:शब्द हूं. )
समापन के दो शेर
महफिले तरही में गूँजे गीत, कविता, छंद, ग़ज़लें
जिनके दम पर हमने काटी, गर्मियों की ये दुपहरी
अब ख़ुदा हाफ़िज़ कहो इसको, रही रब की रज़ा तो
अगली रुत में फिर मिलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी
( परिवार 8 - दीदी उस कठिन समय में हर वक़्त यही लगा कि आप बिल्कुल पास हैं, साथ हैं, क्या कहूं... बहनों को आभार भी तो नहीं दिया जाता )