मित्रों कहा जाता है कि सात आसमान हैं, सात समंदर हैं, सात महाद्वीप हैं सात सुर
हैं और सात ही रंग हैं। जी हां होली तो वैसे भी रंगों का ही त्योहार है तो आज होली
पर हम भी सात रंग ही लेकर आए हैं। सात रचनाकारों के सात रंग। यह भी एक संयोग ही है
कि यह सात रचनाकार आज होली पर सात रंग की ग़ज़लें लेकर आए हैं। आज की ग़ज़लें आपकी
होली को मुकम्मल कर देंगी। यह काव्य रस की पिचकारियां हैं जो तन पर एक बूँद नहीं
डालतीं लेकिन मन को पूरा का पूरा सराबोर कर देती हैं रंग में। इनमें सारे रंग हैं।
इस बार की हमारी होली एक और मामले में भी विशिष्ट है कि इसमें सारा भारत समाया हुआ
है। इस ब्लॉग की विशेषता यह है कि यह सबका ब्लॉग है। यह एक संयुक्त परिवार के
जैसा है। जहां सब दौड़े चले आते हैं। आते हैं और त्योहार मना लेते हैं। इस बार भी
कुछ लोगों ने अंतिम समय पर दौड़ कर गाड़ी पकड़ी है। तो आइये मनाते हैं सात रंगों की
सात ग़ज़लों के साथ होली ।
हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे
नुसरत मेहदी जी
छा रही है तन मन पर बेख़ुदी कोई जैसे
रुत हुई है रंगों
की बावरी कोई जैसे
फागुनी हवाओं की मदभरी ये सरगोशी
"हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे"
क़ुर्बतों के मौसम में लम्स वो मोहब्बत का
हो गई बयां पल
में अनकही कोई जैसे
लिख रहा है फिर कोई दास्तान उल्फ़त की
फिर खुली कहीं दिल की डायरी कोई जैसे
ख़्वाहिशों की कश्ती फिर ढूंढने चली मंज़िल
और उफ़ान पर आई
फिर नदी कोई जैसे
हाथ हाथ में डाले बे ख़बर हैं दीवाने
तोड़कर रिवाजों की हथकड़ी कोई जैसे
आज जश्न होली का यूँ मनाएं हम नुसरत
ग़म न पास आएगा अब
कभी कोई जैसे
वाह वाह वाह, क्या कमाल की ग़ज़ल है। होली का पूरा वातावरण निर्मित करती है यह
ग़ज़ल। काफिये में नुसरत जी ने 'ई' की एक शब्द पीछे वाली मात्रा को पकड़ लिया है।
मतला ही मानो होलीमय होकर लिखा गया है। लेकिन जो कमाल गिरह लगाने में किया गया है
वह तो लाजवाब है। फागुनी हवाओं की मदभरी ये सरगोशी। कमाल कमाल। अगले ही शेर में
मोहब्बत का लम्स बाकमाल आया है। स्तब्ध कर देता हुआ। दास्तान उल्फ़त की लिखने
के लिये दिल की डायरी का खुल जाना भी एक अनूठा ही प्रयोग है। कश्ती का निकलना और
नदी का उफनना वाह क्या बिमब है। और उस पर मकते का शेर भी एक बार फिर से होलीमय
होकर ही लिखा गया है। सच में होली मनाने के लिये आवश्यक है कि हम बस यह सोच लें कि
अब कभी कोई भी ग़म नहीं आएगा। यही जीवन की सच्चाई है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या
बात है, वाह वाह वाह।
शार्दुला नोगजा जी
आपका लगे नाता, हमसे हो कोई जैसे
कौन वरना घुलता है, दूध
में दही जैसे
रंग से तेरे जालिम, अंग यूँ महकते हैं
गुनगुनाने लगती है, ओस छू कली जैसे
होलिका की आँचों से, बचपनों में गर्मी थी
पर्व बिन हुई
ठंडी, शहरी ज़िन्दगी जैसे
गीत माँ यूँ गाती हैं, नीपते हुए आंगन
कर रही हों बच्चे की, दाई माँ लोई जैसे
बेटियाँ हैं या कोई, रूह हैं ये खरगोशी
नर्म-नर्म बाहें
हैं, गाल हैं रुई जैसे
याद तेरे जाने की, यकबयक चली आए
रात डर के उठ जाए, लाडली सोई जैसे
डूबते उतरते हैं, यों कमल सरोवर में
जिन्दगी के सागर
में, ढूँढे मन खुशी जैसे
राधिका हैं कान्हा मन, युद्ध के नगाड़ों में
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई
जैसे
श्याम श्याम रटती हैं, बावरी हुई गलियाँ
रेणु रेणु गोकुल
की, बिरहिनी सखी जैसे
दही, सोचा नहीं था कि इस काफिये का भी इतना खूबसूरती के साथ उपयोग किया जाएगा।
एक बिल्कुल नये प्रयोग ने मतले को खूब बना दिया है। और उसके बाद के शेर में रंगों
से अंगों का महकना, वाह। कविता रंगों से रंगती नहीं है, महकाती है। सचमुच मां के
लिये उसका घर उसका बच्चा ही तो होता है और आंगन को लीपना बच्चे को लोई करना ही
होता है उसके लिये। बेटियों को लेकर बहुत ही सुंदर शेर कहा है। गाल हैं रुई जैसे।
रुई भी काफिया बिल्कुल अलग से निकल कर आया है। महाभारत के युद्ध में खडे़ हुए
कृष्ण के मन में राधिका का होना और वह भी हौले हौले बजती हुई बांसुरी के समान
होना, वाह वाह क्या कमाल का प्रयोग किया गया है, कमाल की गिरह। और उसके बाद अंतिम
शेर भी उसी प्रकार से कृष्ण के प्रेम में बावरी गोपियों की मनोदशा का चित्रण है।
वाह वाह वाह क्या सुंदर ग़ज़ल । खूब।
गौतम राजरिशी
छू लिया जो उसने तो सनसनी उठी जैसे
धुन गिटार की नस-नस
में अभी-अभी जैसे
पागलों सा हँस पड़ता हूँ मैं यक-ब-यक यूँ ही
करती रहती है उसकी याद गुदगुदी
जैसे
जैसे-तैसे गुज़रा दिन, रात की न पूछो कुछ
शाम से ही आ
धमकी, सुब्ह तक रही जैसे
तुम चले गये हो तो वुसअतें सिमट आयीं
ये बदन समन्दर था अब हुआ नदी जैसे
फुसफुसा के कुछ कहना वो किसी का कानों में
"हौले हौले
बजती हो बाँसुरी कोई जैसे"
सुब्ह-सुब्ह को उसका ख़्वाब इस क़दर आया
केतली से उट्ठी हो ख़ुश्बू चाय की
जैसे
डोलते कलेंडर की ऐ ! उदास तारीख़ों
रौनकें मेरे कमरे की
हैं तुम से ही जैसे
राख़ है, धुआँ है, इक स्वाद है कसैला सा
इश्क़ ये तेरा है सिगरेट अधफुकी जैसे
धूप, चाँदनी, बारिश और ये हवा मद्धम
करते उसकी फ़ुरकत पर
लेप मरहमी जैसे
गौतम हमारे इस परिवार का एक होनहार बिरवा है। गौतम के बिम्ब और उसके शब्द
ग़ज़लों की शब्दावली को बदलने में लगे हैं। मतला ही एकदम झन्नाटे से गुज़रता है।
चौंकाता हुआ कि अरे ! यह क्या हुआ। ग़ज़ब। जैसे तैसे गुज़रा दिन में रात का शाम से
ही आ धमकना, यह गौतम के ही बस की बात है। ग़ज़ब का टुकड़ा है। और बदन का समन्दर से
वापस नदी हो जाना, क्या उदास शेर है। दो शब्द गौतम के पेटेंट हैं ग़ज़लों में चाय
और सिगरेट तथा इस ग़ज़ल में भी दोनों शब्दों का बहुत ही खूबसूरत उपयोग किया है।
सिगरेट वाला शेर गौतम के बाकी सिगरेट वालों पर भारी है। लेकिन जिस शेर ने मोह लिया
है वह है डोलते कलेंडर की उदास तारीखों वाला शेर। बहुत ही सुंदर तरीके से रिश्ता
स्थापित किया है। खूब। गौतम को यह कमाल खूब आता है कि एक शेर में शुद्ध मिलन और
दूसरे में ही विरह । वाह वाह वाह, खूबसूरत ग़ज़ल। खूब ।
नीरज गोस्वामी जी
जब उठीं वो पलकें तो, धूप सी खिली जैसे
बह रही
है आंखों से, नूर की नदी जैसे
श्याम को बुलाती है, लोकलाज तज राधा
फागुनी बयारों से, बावरी हुई जैसे
गीत वो सुनाती है, तोतली जबाँ में यूँ
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे
वस्ल में बदन महके, इस तरह तेरा जानम
मोगरे के फूलों से, डाल हो लदी जैसे
है नहीं मुकम्मल कुछ, शै हर इक अधूरी सी
आपके बिना
सबमें, आपकी कमी जैसे
रोशनी का झरना सा, फूटता है झर झर झर
मोतियों की बारिश है, आपकी हँसी जैसे
दुश्मनों पे डालो तुम, रंग प्रेम के "नीरज"
यूँ मिलो
कि बरसों की, हो ये दोस्ती जैसे
वाह इस प्रकार की ग़ज़लें कहना नीरज जी का ही रंग है। जीवन के संदर्भों से भरी
हुई ग़ज़ल। श्याम को बुलाना और राधा का बावरी होना यह होली का स्थाई भाव है और इस
स्थाई भाव का बहुत खूबी से प्रयोग किया है शेर में। अगले शेर में गिरह को बांधने
के लिये प्रेमिका के स्थान पर बेटी का प्रयोग किया है। यह अपने आप में एक कमाल है।
नन्हीं सी बेटी जब तोतली जबां में गीत सुनाती है तो वह भी बांसुरी जैसा ही होता
है। वाह क्या बात है। वस्ल में बदन का महकना और उसमें नीरज जी के पसंदीदा फूलों
का आना बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। मोगरे की डाली पर नीरज जी का पेटेंट है। और उस पर
होली के रंगों से दुश्मनी के मैल को साफ कर देने का भाव लिये मकते का शेर भी खूब
है। नीरज जी के भी कुछ भाव हैं जो केवल और केवल उनकी ही ग़ज़लों में मिलते हैं । एक
स्थाई भाव है सकारात्मकता। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल खूब, वाह वाह वाह ।
द्विजेन्द्र द्विज जी
सबसे पहले तो यह सूचना कि द्विजेन्द्र जी की एक और भी रचना
है जो बासी होली में लगाई जाएगी।
सबसे यूँ मुख़ातिब है एक बेरुख़ी जैसे
चुप्पियाँ
सुनाती है बेहिसी कोई जैसे
नींद से जगाती है रोज़ हड़बड़ी जैसे
बस गई हो सीने में एक बेकली जैसे
रंग जब उलझते हैं मतलबों की साज़िश में
शहर ओढ़ लेता
हैं रंग कत्थई जैसे
वो जो एक पर्बत है वो भी टूट सकता है
उसमें भी तो रहती है कुछ न कुछ नमी
जैसे
आइने की पत्थर से दोस्ती नहीं होती
ढो रहे हों दोनों ही
एक बेबसी जैसे
ऐसे फेंक देते हैं लोग अपने ईमाँ को
साँप उतार देता है अपनी केंचुली जैसे
यह सफ़ेद अँधेरा है या सियाह उजाला है
रोशनी अब आँखों को
साथ ले गई जैसे
उसमें मेरे सपने थे, उसमें मेरा बचपन था
आज भी बुलाती है मुझको वो गली जैसे
यह वजूद रहता है अश्कों के समन्दर में
फिर भी ज़िन्दा
रहती है कोई तिश्नगी जैसे
ख़ुद के रू-ब-रू मैंने ख़ुद को जब भी पाया है
घूरता-सा दिखता है अजनबी कोई
जैसे
यूँ भी लोग जीते हैं मर भी जो नहीं सकते
उनका साँस लेना
ही 'द्विज’ हो लाज़िमी जैसे
सबसे पहले तो बात मतले की और हुस्ने मतला की। दोनों ही कमाल हैं। दोनों मतलों
में बहुत सुंदर काफियों का भी उपयोग किया गया है। खूब। पहले ही शेर में कत्थई रंग
को खूब बिम्ब के रूप लिया है। कविता की भाषा में शेर कहा है। लेकिन पर्बत के अंदर
नमी और उसका टूटना, कमाल है द्विज भाई । ग़ज़ब ही कहा है यह तो। आईने की पत्थर से
दोस्ती में बेबसी शब्द को अंत में अनूठे जोड़ से लगाया है। और उसके बाद सफेद
अंधेरा और सियाह उजाले में रोशनी का आंखों को ले जाना। बहुत ही खूब । उसमें मेरा
सपने थे उसमें मेरा बचपन था। ठिठका दिया इस शेर ने तो। उँगली पकड़ कर ले गया
स्मृतियों में। वाह । एक और ग़ज़ब का प्रयोग है खुद के रू ब रू खुद के आने का। और
उस पर भी अजनबी होना । वाह क्या प्रयोग किया है। अंतिम शेर में एक और अलग काफिया,
जीवन के फलसफे को शेर। वाह वाह वाह । क्या सुंदर ग़ज़ल है । बहुत खूब।
मन्सूर अली हाश्मी जी रतलामी
हौले-हौले बजती हो, बाँसुरी कोई जैसे
तार छिड़ गये मन
के, मिल गई ख़ुशी जैसे.
रंग की फुहारें है, चुलबुले इशारे हैं
तन से पहले ही मन ने, होली खेल ली
जैसे.
दौश पर हवाओं के, ख़ुश्बूओं की आमद है
इन्तेज़ार की
घड़ियां, ख़त्म हो रही जैसे.
देश प्रेमी हो गर तुम 'जय' का सुर अलापोगे
इक नई परिभाषा अब तो बन गई जैसे.
अब नये कन्हैया हैं, धुन भी कुछ निराली है
कैसा सुर ये
निकला है, रोई बाँसुरी जैसे.
अब तो भक्त किरपा से, जन ही बन रहे 'भगवन'
आश्वासनों की यां, बह रही नदी
जैसे.
धर्म - आस्थाओं के, मूल्य घटते-बढ़ते है
'हाश्मी' थे कल
तक जो, अब 'श्री-श्री' जैसे.
मंसूर भाई व्यंग्य की ग़ज़लें कहते हैं और खूब कहते हैं। होली पर उनका इंतज़ार
इसलिये सबको रहता है। रंग की फुहारें हैं, चुलबुले इशारे हैं में तन से पहले ही मन
द्वारा होली खेल लिये जाने की बात बहुत खूब है। सच है होली में रंग तन पर नहीं मन
पर ही डाले जाते हैं। देशप्रेमी हो गर तुम जय का सुर में बहुत ही करारा व्यंग्य
कसा है मंसूर जी ने । कवि वही होता है जो इशारे में अपनी बात कह देता है। इतने
सलीके के साथ कि बस अश अश हो जाए। नए 'कन्हैया' के रूप में पलट कर दूसरे पक्ष पर
भी सटीक व्यंग्य कसा है मंसूर जी ने। यही तो साहित्यकार की विशेषता होती है कि
वह किसी का नहीं होता और सबका होता है। भकत किरपा से जन का भगवन हो जाना हो या फिर
हाशमी का श्री श्री हो जाना हो अपने समय पर बहुत ही गहरा कटाक्ष किया है दोनों
शेरों में। पैना और सटीक। बहुत ही सुंदर खूब वाह वाह वाह।
अभिनव शुक्ल
उम्र यूँ कटी, हो धुन, अनसुनी कोई जैसे,
लिख के फिर मिटा
दी हो शायरी कोई जैसे।
उनके साथ अब अपने ताल्लुकात ऐसे हैं,
दुश्मनों से रखता हो दोस्ती कोई जैसे।
उसने मुझको देखा फिर, देखती रही मुझको,
गिन रही हो फंदों
को सांवरी कोई जैसे।
याद उनकी गलियों से इस तरह गुज़रती है,
हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे।
भूख से बिलख सोया, लाल, माँ निरखती है,
कोहीनूर पढ़ता हो
जौहरी कोई जैसे।
इस तरह हमें सुनना, फिर मिलें, मिलें न मिलें,
गीत हो पपीहे का आखिरी कोई
जैसे।
अभिनव और नुसरत जी दोनो ने ही एक प्रकार से ग़ज़ल कही है, एक शब्द पीछे की ई
को काफिया बना कर। बहुत ही रूमानी मतला है जिस रूमान में विरह शामिल हो उसका तो
वैसे भी कहना ही क्या। अनसुनी धुनें हम सबके पास होती हैं। और हम सब उनके सुने
जाने की प्रतीक्षा करते हैं। एक कमाल का शेर इस ग़ज़ल में है उसने मुझको देखा फिर
देखती रही मुझको। इसमें बहुत ही सुंदर प्रयोग है, देखते रहने का भी और फंदों को
गिनने का भी। बहुत ही सुंदर। और उसी प्रकार से गिरह का मिसरा भी बहुत ही अच्छे
लगाया है। याद का उनकी गलियों से गुज़रना और बांसुरी बजना, बहुत ही सुंदर। मां से
बड़ा जौहरी और कौन होता है भला और हर मां के लिये उसका लाल कोहीनूर ही होता है। और
आखिरी का शेर वाह, मिसरा ऊला ही अंदर तक गहरे उतरता जाता है। बहुत ही डूब कर लिखा
है। क्या कमाल की ग़ज़ल कही है, खूब वाह वाह वाह।
आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। आपके जीवन में रंग और उमंग बने रहें।
होली के बाद भी बासी होली होती है सो हम मिलेंगे बासी होली में कुछ और रचनाकारों के
साथ।