इस बार का तरही मुशायरा हर बार से अलग हो रहा है । अलग इस मायने में कि इस बार बहुत ही अच्छी रचनाएं मिल रही हैं । उस्तादों की बारी इस बार भी नहीं आ पा रही है क्योंकि इस बार संजय चतुर्वेदी जी और राही ग्वालियरी जी आ रहे हैं अपनी रचनाओं के साथ । इस बार का मुशायरा स्व. ओम व्यास जी को समर्पित है इसलिये ही शायद इतनी अच्छी रचनाएं आ रही हैं । एक से बढ़ कर एक रचनाएं आ रही हैं । मेरे विचार में इस बार सबसे जियादह मुश्किल उस व्यक्ति की होनी है जिसको इस बार के हासिले मुशायरा शेर का चयन करने का दायित्व निर्वाह करना होगा । अपनी बताऊं तो सच कहूं अगर कोई मुझे ये दायित्व इतनी सुंदर ग़ज़लों में से छांटने को दे तो मैं तो छोड़ के भाग ही जाऊं । बहुत अच्छी रचनाएं आई हैं । अब हम अगली बार जब बहर पर काम करेंगें तो और मजा आना चाहिये ।
अनुरोध- आधारशिला जुलाई 2009 अंक में कहानी महुआ घटवारिन पढ़ें और बताएं आपको कैसी लगी ।
बधाई हो बधाई जन्मदिन की आपको -
आज समीर लाल जी का जन्मदिन है । समीर जी हम सब के चहेते हैं । एक बार सीहोर भी आ चुके हैं और एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर चुके हैं । लोग अब भी उनका काव्य पाठ याद करते हैं । इसी साल उनकी एक पुस्तक बिखरे मोती शिवना प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है । समीर जी का एक बिल्कुल ही अलग रूप उस पुस्तक में हैं । दरअसल में समीर जी अचानक ही चौंकाने वाली रचनाएं लिखते हैं । जैसे ये देखिये
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
वह दरवाजा खो गया, जिस पर लौटूँ आज
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कितने संवेदनशील दोहे हैं ऐसा लगता है कवि ने हर दोहा आंसुओं को सियाही बना कर लिखा है । समीर जी के अंदर एक गहन संवेदनशील कवि है । आज उनका जन्म दिन है उनको हम सब की ओर से शुभकामनाएं । इस बार तरही में उनकी ग़ज़ल नहीं मिली है अन्यथा उनकी ग़ज़ल आज लगाई जाती । समीर जी के व्यक्तित्व को जितना मैंने जाना उस हिसाब से ये गीत उनको आज जन्मदिन पर उपहार स्वरूप । इस की पंक्तियां बिल्कुल उनके व्यक्तित्व के लिये ही बनी हैं । अनुरोध है कि पूरे गीत को सुनते समय, हर अंतरे को सुनते समय समीर जी का व्यक्तित्व दिमाग में रखें और बतायें कि मैंने गीत सही चयन किया कि नहीं । हर किसी के लिये जीने वाले व्यक्ति के लिये यही गीत हो सकता है सुनिये ये गीत :-
http://www.divshare.com/download/8015470-368
http://www.archive.org/details/BolIkTareJhanJhan
समूचे ब्लाग जगत और ग़ज़ल की पाठशाला की ओर से जन्मदिन की शुभकामनाएं
श्री समीर लाल जी के बचपन के जन्मदिन का चित्र बड़ी मुश्किल से मिला है ।
स्व. ओम व्यास स्मृति तरही मुशायरा
तो आज हमारे साथ दो और शायर हैं जो कि अपनी रचनाओं के साथ आये हैं । दोनों ने ही भागते भागत अगले स्टेशन पर ट्रेन पकड़ी है । और इनके ट्रेन पकड़ने के कारण हमारे दोनों ही उस्ताद शायरों के लिये अब अगले स्टेशन तक का इंतजार रहा है । क्योंकि अब वे ही शेष हैं । इस बार हमने बहरे रमल मुसमन महजूफ को लिया है । एक राज की बात आपको बताऊं बहरे रमल की एक बहर जो सबसे जियादह काम में आती है और जिस पर काफी काम हुआ है वो है बहरे रमल मुसमन मखबून मुसक्कन । फाएलातुन-फएलातुन-फएलातुन-फालुन । मदन मोहन साहब ने इस बहर को काफी उपयोग किया है । हुस्न हाजिर है मुहब्बत की सजा पाने को, रस्मे उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे, रंग और नूर की बारात किसे पेश करूं आदि आदि । इसमें लिखने में एक बड़ी परेशानी आती है कि आपको एक साथ दो स्थानों पर दो लघु मात्राओं की व्यवस्था करनी होती है । लघु मात्राएं जो कि स्वतंत्र हों । इसमें आखिरी रुक्न 112 या 22 कुछ भी हो सकता है । किन्तु फएलातनु में जो दो लघु हैं फए उसकी व्यवस्था कुछ कठिन होती है । अक्सर यहीं पर लोग मार खा जाते हैं । ग़ज़ल गायकों की ये बहुत ही पसंदीदा बहर है । लताजी और जगजीत जी के सजदा में चार पांच ग़ज़लें इसी बहर पर थीं । इस बहर पर काम करना मतलब लघु और दीर्घ की सटीक पहचान होना । सीखने के लिये सबसे बेहतरीन बहर । एक बात का ध्यान रखें कि रमल मुसमन महजूफ और मुसमन मखबून मुसक्कन में अंतर करने के लिये आखिरी रुक्न को देखना होता है । जैसे हुस्न हाजिर है मुहब्बत की सजा पा यहां तक तो आप इसे फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन 2122-2122-2122 भी कर सकते हैं ओर फाएलातुन-फएलातनु-फएलातुन 2122-1122-1122 भी । उसमें जो है और की आ रहा है उसे आप 2 भी कर सकते हैं और 1 भी । लेकिन यदि अंतिम रुक्न 212 है तो ये दोनों मात्राएं (है और की ) 2 में गिनी जाएंगी । यदि अंतिम रुक्न 112 या 22 है तो दोनों मात्राएं ( है और की) 1 में ही गिनी जाएंगीं । जैसे यदि पाने को की जगह पर पाने यहां होता तो इसका वजन 2122-2122-2122-212 हो जाता हुस्न हाजिर है मुहब्बत की सजा पाने यहां ।
खैर आज तो हम अपनी बहरे मुसमन महजूफ की ही बात करते हैं और सुनते हैं आदरणीय जोश मलीहाबादी साहब की लिखी और ग़ज़ल सम्राट श्री जगजीत सिंह साहब की गाई ये कहकशां एल्बम की ग़ज़ल ।
http://www.archive.org/details/KiskoAatiHaiMasihaai
http://www.divshare.com/download/8015680-cd9
तिलक राज कपूर जी उर्फ राही ग्वालियरी जी :- तिलक जी के बारे में उतना ही जानता हूं जितना उनके मेल से ज्ञात हुआ है । किन्तु मेरे लिये वे सम्माननीय हैं क्योंकि उनके नाम में मेरी ससुराल का नाम ग्वालियर आता है और ससुराल से जुड़ी हर चीज का सम्मान करना हर पुरुष का परम धर्म है । उनका मेल :-एक आकस्मिक संयोग, कुछ हिन्दी सामग्री की तलाश में मुझे आज आपके पोर्टल पर ले आया । वर्ष 1982 से 1985 की अवधि में मेरी आगर-मालवा की पदस्थापना में कुछ ऐसा संयोग बना कि कुछ कविगण और कुछ शायरो ने मुझे कविता और अशआर लिखने की लत लगादी जो आगर छोड़ते ही छूट गयी । एक हसरत जो दिल में आज भी बनी हुई है वह शायरी के गुर सीखने की है । बहुत कोशिश की मगर ऐसा कोई संदर्भ न मिला जो मार्ग प्रशस्त कर सकता । कोशिश में ही कमी रही होगी । बहरहाल आपके पोर्टल ने कोशिश को फिर जिन्दा कर दिया है । मैं भोपाल में रहता हूँ और तमाम व्यस्तताओं के बीच भी फिरसे पुराने शौक को जिन्दा करना चाहूँगा ।
सारी खबरें छानकर, इस माह के अखबार से,
सोचता हूँ क्या मिला, हमको नई सरकार से ।
पार लहरों के कराता था कभी पतवार से,
आज डर लगता है उसके हाथ की तलवार से ।
आपने जीता है दिलको प्यार से, मनुहार से,
जो सिकंदर कर न पाया तीर से, तलवार से ।
सुब्ह से हर शाम तक हर बात की कीमत लगी,
अब तो रिश्ते भी हमें लगने लगे व्यापार से ।
एक सन्नाटा बसा है पर मुझे लगता है क्यूँ,
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से ।
शहर् की सड़कों से मेरे गॉंव की गलियॉं भली,
जो भी मिलता था, वो मिलता था बहुत ही प्यार से ।
खेल जो खेला था मैंने, किसलिये जीता नहीं,
सीखने की कोशिशें करता रहा मैं हार से ।
ये सहज रिश्ता है जिसकी कोई भी कीमत नहीं,
दोस्ती, ऐ दोस्तों मिलती नहीं बाज़ार से ।
कोई शिकवा, या शिकायत के बिना हम खुश रहे,
कोई उम्मीदें नहीं रक्खीं कभी संसार से ।
हमने माना आपमें डसने की फितरत ना रही,
रोकता है कौन लेकिन आपको फुफकार से ।
आप कहते हैं कि ‘राही’ आजकल चुपचाप है,
बात तन्हाई में क्या करता दरो-दीवार से ।
वाह वाह वाह क्या बात है साहब आपने तो गजब के शेर निकाले हैं । मतला, मकता और गिरह वाला शेर तीनों ही जबरदस्त हैं । तिस पर हमने माना आपमें डसने की, पार लहरों के ये शेर भी खूब हैं ।
मेजर संजय चतुर्वेदी : मेजर साहब पिछली बार जब तरही में आये थे तो कैप्टन थे किन्तु अब मेजर होकर आये हैं । ये अलग बात है कि ग़ज़ल की पाठशाला के बंदे बिना मिठाई के किसी भी खुशखबर को खुशखबर नहीं मानते हैं ।संजय जी बहुत ही बेहतरीन शायर हैं । इनका एक संग्रह चांद पर चांदनी नहीं होती शिवना प्रकाशन से प्रकाशनाधीन है । संजय जी हिंदी के बेहतरीन प्रयोग करते हैं । फिलहाल देहरादून में पदस्थ हैं और गौतम के मित्र हैं ।
माँ से छत, रिश्तों से चौखट और हद है प्यार से
ईंट गारे से नहीं बनता है घर, परिवार से
आदमी-कुदरत के रिश्ते जब जुडे बाज़ार से
क्यँ चरक लुकमान भी लगते हैं कुछ बीमार से
आपके अहसास की कीमत नहीं कुछ भी यहाँ
गमज़दा हों फिर भी हँस कर बोलिये सरकार से
जब सियाही बन क़लम में ख़ून दिल का आ गया
लफ्ज़ लोहा ले रहे हैं देखिये तलवार से
रौशनी के डर से छुप कर तीरगी के प्यार में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
हो भले ही खून में डूबी हुई हर इक खबर
चाय में चीनी मिलाते हैं मियाँ अखबार से
क्या जरूरत है हमें हीरे की या तकनीक की
हम तो शीशा काटते हैं रौशनी की धार से
वाह वाह वाह मजा ही आ गया है । बहुत ही सुंदर गिरह बांधी है । कई कई शेर जबरदस्त बन पड़े हैं । विशेषकर मतले में घर की परिभाषा बहुत ही सुंदर है । शीशा काटने वाला शेर बहुत बढि़या बना है । मेजर साहब प्रमोशन की मिठाई खिलाइये ।
चलिये तो आनंद लीजिये इन ग़ज़लों का और मुझे आज्ञा दीजिये । मिलते हैं अगले अंक में दोनो उस्ताद शायरों के साथ ।