क़ैसर उल ज़ाफरी साहब की ये ग़ज़ल अब है । कुछ सालों पहले वे इंतकाल फरमा चुके हैं । मृत्यु से कुछ महीनों पहले ही वे सीहोर आये थे तब उन्हीं के मुंह से उनकी ये ग़ज़ल सुनने का सौभाग्य मिला था । हालंकि सच ये भी है कि वे ग़लती से एक कवि सम्मेलन में आ गये थे । ग़लती से इसलिये कि आज के कवि सम्मेलनों का जो हाल है वहां पर कैसर उल ज़ाफरी जैसे लोगों के लिये जगह ही कहां है वहां पर तो विदूषकों की ज़ुरूरत है । खैर जो भी हो मैं तो अपने आप को सौभाग्यशाली समझता हूं कि जिस ग़ज़ल को ( पंकज उदास ) सुनते सुनते मैं बड़ा हुआ उसको लिखने वाले शायर के मुंह से ही ये कलाम सुना । आज इसकी बात इसलिये कर रहा हूं कि ये ग़ज़ल भी खास है । अभी कुछ दिनों पहले गौतम ने एक सवाल उठाया था कि क्या 2222-2222-2222-2222 वज्न हो सकता है । तो ये ग़ज़ल पूरी तरह से वैसी तो नहीं है इसमें भी 2222-2222-2222-2 का वज़्न है । अर्थात मुफतएलातुन-मुफतएलातुन- मुफतएलातुन- फा पूरी तरह से दीर्घ मात्राओं पर चलने वाली काफी बहरें हैं और उनको लेकर हम आगे बात तो करेंगें । पर आज इसका उदाहरण इसलिये दे रहा हूं कि हमने इस बार के तरही मुशायरे में जो बहर ली है वो भी पूरी तरह से दीर्घ की है । 22-22-22-22 फालुन-फालुन- फालुन- फालुन । और काफी लोगों को उसमें उलझन भी आ रही होगी कि कैसे काम किया जाये ।
चलिये अब चलते हैं कैसर उल ज़ाफरी साहब की ग़ज़ल पर । उसका एक शेर है दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
अब मेरी उलझन इसीमें हुई बात तब की है जब मैं भी आप ही की तरह से ग़ज़ल की व्याकरण सीखने का प्रयास कर रहा था । उलझन ये थी कि शाम ढले में म और ढ ये दोनों जो लघु हैं ये तो अलग अलग शब्दों में आ रहे हैं इनको मिला कर के एक दीर्घ कैसे बना सकते हैं । बात कैसर उल जाफरी जैसे चलते फिरते ग़ज़ल के विश्वविद्यालय की थी तो ग़लती होने का तो प्रश्न उठता ही नहीं था । खैर काफी मशक्कत करने पर ज्ञात हुआ कि सभी दीर्घ वाले प्रकरण में मात्राओं की गणना से काम चलाया जाता है । यदि कोई लघु मात्रा स्वतंत्र है और उसके बाद एक और स्वतंत्र लघु आ रहा है तो उन दोनों को एक दीर्घ मान लिया जाता है भले ही वे दोनों अलग अलग शब्दों में आ रही हों । ये मेरे लिये एक नया ही ज्ञान था । कई बार होता है न कि बहुत जि़यादह पढ़ने से भी नयी खिड़कियां खुलने लगती हैं तो मेरे लिये भी यही हुआ ।
शा म ढ ले इस 2222
तो अब मेरे खयाल से तरही की बहर को लेकर उलझन दूर हुई होगी । कि वहां पर कैसे काम करना है समीर लाल जी ने इस पर कुछ (?????) शेर निकाल के अपनी ब्लाग पर लगा भी दिये हैं । उनमें से ही एक शेर है ।
जो भी इनकी पीठ खुजाये
उसकी पीठ खुजाती जनता
अब इसमें देखा जाये तो हो ये रहा है कि पीठ खुजाये में ठ और खु ये दोनों अलग अलग शब्दों में आ रहे हैं फिर भी मिल कर एक दीर्घ हो रहे हैं । इसलिये बहर में माना जायेगा ।
नर नारी में भेद बता कर
लोगों को भिड़वाती जनता
इसमें भी भेद बता में हो ये गया है कि द और ब दोनों को एक ही दीर्घ माना जा रहा है । माड़साब अपनी जनता वाली ग़ज़ल को यहां पर लगा रहे हैं ताकि विद्यार्थियों को आसानी हो सके
गूंगी बहरी अन्धी जनता
कायर और निकम्मी जनता
सबके पीछे है चल देती
इसकी, उसकी, सबकी जनता
दस दस रुपये में ले लो जी
ठेला भर के सस्ती जनता
जीवन भर लटकी रहती है
चमगादड़ सी उल्टी जनता
सावन भादों अगहन फागुन
है नंगी की नंगी जनता
कौन बड़ा डाकू है सबसे
वोटों से है चुनती जनता
डेमोक्रेसी का मतलब है
जिसकी लाठी उसकी जनता
चलिये मिलते हैं अगली कक्षा में । कक्षा शब्द का उपयोग इसलिये कर रहा हूं कि ये कक्षा ही है । हम तरही मुशायरे के माध्यम से बहरों को और उनके बारे में जो रहस्य हैं उनको जानने का प्रयास करेंगें । मैं पहले ही कह चुका हूं कि जो लोग नये आऐ हैं वे पिछले पाठों को पढ़ लें ताकि उनको असहज नहीं लगे । तो ठीक है मिलते हैं । जैराम जी की ।