शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

दीवारों से मिल कर रोना अच्‍छा लगता है हम भी पागल हो जायेंगें ऐसा लगता है

क़ैसर उल ज़ाफरी साहब की ये ग़ज़ल अब है । कुछ सालों पहले वे इंतकाल फरमा चुके हैं । मृत्‍यु से कुछ महीनों पहले ही वे सीहोर आये थे तब उन्‍हीं के मुंह से उनकी ये ग़ज़ल सुनने का सौभाग्‍य मिला था । हालंकि सच ये भी है कि वे ग़लती से एक कवि सम्‍मेलन में आ गये थे । ग़लती से इसलिये कि आज के कवि सम्‍मेलनों का जो हाल है वहां पर कैसर उल ज़ाफरी जैसे लोगों के लिये जगह ही कहां है वहां पर तो विदूषकों की ज़ुरूरत है । खैर जो भी हो मैं तो अपने आप को सौभाग्‍यशाली समझता हूं कि जिस ग़ज़ल को ( पंकज उदास ) सुनते सुनते मैं बड़ा हुआ उसको लिखने वाले शायर के मुंह से ही ये कलाम सुना । आज इसकी बात इसलिये कर रहा हूं कि ये ग़ज़ल भी खास है । अभी कुछ दिनों पहले गौतम ने एक सवाल उठाया था कि क्‍या 2222-2222-2222-2222 वज्‍न हो सकता है । तो ये ग़ज़ल पूरी तरह से वैसी तो नहीं है इसमें भी 2222-2222-2222-2 का वज्‍़न है । अर्थात मुफतएलातुन-मुफतएलातुन- मुफतएलातुन- फा  पूरी तरह से दीर्घ मात्राओं पर चलने वाली काफी बहरें हैं और उनको लेकर हम आगे बात तो करेंगें । पर आज इसका उदाहरण इसलिये दे रहा हूं कि हमने इस बार के तरही मुशायरे में जो बहर ली है वो भी पूरी तरह से दीर्घ की है । 22-22-22-22 फालुन-फालुन- फालुन- फालुन ।  और काफी लोगों को उसमें उलझन भी आ रही होगी कि कैसे काम किया जाये ।

चलिये अब चलते हैं कैसर उल ज़ाफरी साहब की ग़ज़ल पर । उसका एक शेर है दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है  

अब मेरी उलझन इसीमें हुई बात तब की है जब मैं भी आप ही की तरह से ग़ज़ल की व्‍याकरण सीखने का प्रयास कर रहा था । उलझन ये थी कि  शाम ढले में   और   ये दोनों जो लघु हैं ये तो अलग अलग शब्‍दों में आ रहे हैं इनको मिला कर के एक दीर्घ कैसे बना सकते हैं । बात कैसर उल जाफरी जैसे चलते फिरते ग़ज़ल के विश्‍वविद्यालय की थी तो ग़लती होने का तो प्रश्‍न उठता ही नहीं था । खैर काफी मशक्‍कत करने पर ज्ञात हुआ कि सभी दीर्घ वाले प्रकरण में मात्राओं की गणना से काम चलाया जाता है । यदि कोई लघु मात्रा स्‍वतंत्र है और उसके बाद एक और स्‍वतंत्र लघु आ रहा है तो उन दोनों को एक दीर्घ मान लिया जाता है भले ही वे दोनों अलग अलग शब्‍दों में आ रही हों । ये मेरे लिये एक नया ही ज्ञान था । कई बार होता है न कि बहुत जि़यादह पढ़ने से भी नयी खिड़कियां खुलने लगती हैं तो मेरे लिये भी यही हुआ ।  

शा म ढ ले इस 2222

तो अब मेरे खयाल से तरही की बहर को लेकर उलझन दूर हुई होगी । कि वहां पर कैसे काम करना है समीर लाल जी ने इस पर कुछ (?????) शेर निकाल के अपनी ब्‍लाग पर लगा भी दिये हैं । उनमें से ही एक शेर है ।

जो भी इनकी पीठ खुजाये
उसकी पीठ खुजाती जनता

अब इसमें देखा जाये तो हो ये रहा है कि पीठ खुजाये  में   और खु  ये दोनों अलग अलग शब्‍दों में आ रहे हैं फिर भी मिल कर एक दीर्घ हो रहे हैं । इसलिये बहर में माना जायेगा ।

नर नारी में भेद बता कर
लोगों को भिड़वाती जनता

इसमें भी भेद बता  में हो ये गया है कि   और   दोनों को एक ही दीर्घ माना जा रहा है । माड़साब अपनी जनता वाली ग़ज़ल को यहां पर लगा रहे हैं ताकि विद्यार्थियों को आसानी हो सके

गूंगी बहरी अन्‍धी जनता

कायर और निकम्‍मी जनता

सबके पीछे है चल देती

इसकी, उसकी, सबकी जनता

दस दस रुपये में ले लो जी

ठेला भर के सस्‍ती जनता

जीवन भर लटकी रहती है

चमगादड़ सी उल्‍टी जनता

सावन भादों अगहन फागुन

है नंगी की नंगी जनता

कौन बड़ा डाकू है सबसे

वोटों से है चुनती जनता

डेमोक्रेसी का मतलब है

जिसकी लाठी उसकी जनता

चलिये मिलते हैं अगली कक्षा में । कक्षा शब्‍द का उपयोग इसलिये कर रहा हूं कि ये कक्षा ही है । हम तरही मुशायरे के माध्‍यम से बहरों को और उनके बारे में जो रहस्‍य हैं उनको जानने का प्रयास करेंगें । मैं पहले ही कह चुका हूं कि जो लोग नये आऐ हैं वे पिछले पाठों को पढ़ लें ताकि उनको असहज नहीं लगे । तो ठीक है मिलते हैं । जैराम जी की ।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

क्‍यों बना ये शेर सरताज शेर और अभी भी क्‍या कमी है इस शेर में जिसको दूर करके इसको एक मुकम्‍मल शेर बनाया जा सकता है

मैंने प्रारंभ से ही कहा है कि गज़ल का अर्थ है वज्‍न और कहन का एक अद्भुत संतुलन । हालंकि होता ये है कि वज़न संभालते हैं तो कहन चली जाती है और कहन को थामो तो वज़न चला जाता है । पर ये बात केवल प्रारंभ में ही होती है । बाद में तो धीरे धीरे दोनों का संतुलन खुद ब खुद आने लगता है । उसके लिये एक सबसे ज़रूरी चीज़ ये है कि अपने लिखें से कभी भी संतुष्‍ट मत रहो ये सोचो कि कितना घटिया लिखा है हमने और इसमें तो अभी काफी सुधार की गुंजाइश है । ग़ज़ल को लिख कर दो दिन के लिये रख दो और दो दिन बात फिर पढ़ो, आपको खुद ही उसमें दोष नज़र आने लगते हैं । ताज़ा ग़ज़ल के दोष नहीं दिखते क्‍योंकि आपने हाल में ही तो उसको बनाया है । दो दिन बाद तीन दिन बाद उसको देखो और जहां आपको लगता है कि कमजोर है वहां दुरुस्‍त करों । होता क्‍या है कि हम सिंगल स्‍ट्रोक में ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं तो मात खा जाते हैं । ग़ज़ल तो रबड़ी होती है जिसको मद्धम आंच पर धीरे धीरे पकाना होता है ।

आज हम बात करते हैं कि गौतम के शेर में क्‍या है और क्‍या नहीं है और इसके अलावा ये भी कि कौन कौन से शेर दौड़ में थे सरताज बनने के लिये ।

गौतम का जो शेर है वो कुछ इस प्रकार है

भीड़ में यूं भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर

बढ़ न पायेगा कभी तू गुमशुदा हो जायेगा

शेर वजन में में भी है और काफी हद तक कहन में भी है । सामन्‍य तौर पर इसे एक अच्‍छा शेर कहा जायेगा किन्‍तु अगर गहन अध्‍ययन करें तो कुछ सुधारों की गुंजाइश दिखाई दे रही है ।  पहला तो ये कि उम्र भर  का उपयोग ठीक नहीं है । आपने उम्र का उपयोग कर लिया तो आपने समय सीमा तय करदी । उम्र भर कहने से ये अर्थ निकला कि अगले मिसरे में जो कहा जा रहा है वो उम्र भर के बाद की बात है । अब यदि मिसरे में कुछ और कहा जाता तो उम्र भर चल भी जाता मगर यहां बात हो रही है गुमशुदा होने की । जब उम्र ही ख़त्‍म हो गई तो क्‍या गुमशुदा होना । अगर आपको गुमशुदा होने की बात करनी है तो मिसरा उला में कुछ और कहना होगा । अब बात करें मिसरा सानी की अभी बिल्‍कुल भूल जायें कि यहां पर बढ़ने  से आशय कुछ और है , हम इसे आगे बढ़ने वाला ही बढ़ना मानते हैं तो हम दो विरोधाभासी बातें तो कर ही रहे हैं । और फिर ये भी कि बढ़ न पायेगा कभी तू गुमशुदा हो जायेगा केवल इस ही मिसरे को लें तो क्‍या जो लोग आगे नहीं बढ़ते वे गुमशुदा हो जाते हैं ।   तो हमें दो ही दोष दूर करने हैं । मैंने कई प्रकार से उदाहरण निकालने का प्रयास किया है

भीड़ में यूं भीड़ बनकर के अगर चलता रहा
देख लेना एक दिन तू गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ में जो भीड़ बन कर के यूंही चलता रहा
एक दिन इस भीड़ में ही गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ में चलता रहा गर भीड़ बन कर के यूंही
भीड़ में ही एक दिन तू गुमशुदा हो जायेगा

भीड़ बनकर के अगर चलता रहा तू भीड़ में 
एक दिन होगा यही तू गुमशुदा हो जायेगा ( ये मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर सबसे ठीक लग रहा है )

हालंकि गौतम का शेर सामान्‍य तौर पर बिल्‍कुल ठीक है पर हम यहां कक्षाओं में असामान्‍य शायर बनने आ रहे हैं सामान्‍य शायर तो कई हैं ।

जो शेर सरताज के लिये कड़ी टक्‍कर दे रहे थे वे

दोस्‍त से हमको मिला वो भर गया मत सोचिये

जख्‍म को थोड़ा कुरेदो फिर हरा हो जायेगा

इसमें मिसरा उला कमजोर हो गया अन्‍यथा मिसरा सानी तो गजब का है । जख्‍म  शब्‍द मिसरा उला में आना चाहिये तब ही बात बनेगी ।

हर नफस रोशन किये है जिन्‍दगी को आज जो

कल वो जायेगा तो स्‍यापा इक घना हो जायेगा

आज और  कल  शब्‍दों के प्रयोग ने शेर को कमजोर कर दिया अन्‍यथा शेर यकीनन बेहतरीन था ।

इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ

इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

मिसरा उला में जो कहना चाह रहे थे उसका मिसरा सानी के साथ जो विरोधाभास है बस वही आनंददायक है । कन्‍ट्रास्‍ट का अद्भुत नमूना है ये शेर । बस  गाली  और जूते  के स्‍थान पर कुछ और शब्‍द होने थे ( हांलकि जो हैं वो भी सटीक हैं पर बस बात ये है कि ये शेर को मजाहिया शेर बना रहे हैं और हम चाह कर भी प्रेम में इस्‍तेमाल नहीं कर सकते ) बद्दुआ शब्‍द बिल्‍कुल ठीक है । उड़नतश्‍तरी ने नई बहर पर ग़ज़ल भेज दी है बाकि लोग भी  आराम से करके भेजें अभी काफी समय है । चलिये तैयारी कीजिये और मिलते हैं बहर की कक्षा में जो आज होनी थी पर विद्यार्थियों के अनुरोध पर आज ये विश्‍लेषण कर लिया गया । 

शनिवार, 20 सितंबर 2008

प्‍यार के दो बोल सुनकर वो तेरा हो जायेगा, फिर भी इन्‍सां है किसी दिन वो जुदा हो जायेगा, नेकदिल है वो भला है हुक्‍मरां पर है नया, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

तरही मुशायरा भाग 2

आज तीन और शायरों की रचनायें प्रस्‍तुत हैं इस तरही मुशायरे के दूसरे और अंतिम दौर में । ग़ज़ल की कक्षाओं को शुरू करने से पहले इस तरह का तरही मुशायरा आयोजित करने के पीछे कारण कई हैं पर एक कारण तो ये है कि मानसिकता बन जाये और दूसरा वीनस केसरी ने मेल किया था कि कक्षायें प्रारंभ करने के पहले टेस्‍ट लिया जाये सो दोनों ही कारणों से ये तरही मुशायरा आयोजित किया गया । चलिये आज समापन करते है।

माड़साब : सबसे पहले आ रहे हैं गौतम राजरिशी जिनका शेर आज शीर्षक में लगा है इन्‍होने अच्‍छा प्रयास किया है और दो बार किया है । एक बार तो ग़ज़ल प्रस्‍तुत की और दूसरी बार भेड़ दी । इनके लिये ये ही कहा जा सकता है कि ये कलाकार है सारी कलायें रखता है, बंद मुट्ठी में आवारा हवायें रखता है ।

गौतम राजरिशी

gautam
गुरूजी होमवर्क के साथ हाजिर हूँ.जाने कैसी बन पड़ी है

मुख न खोलो गर जरा तो सब तेरा हो जायेगा
जो कहोगे सच यहाँ तो हादसा हो जायेगा 

भेद की ये बात है यूँ उठ गया पर्दा अगर
तो सरे-बाजार कोई माजरा हो जायेगा 

नेकदिल है वो भला है हुक्मरां पर है नया
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 

इक जरा जो राय दें हम तो बनें गुस्ताख दिल
वो अगर दें धमकियाँ भी,मशवरा हो जायेगा 

ये नियम बाजार का है जो न बदलेगा कभी 
वो है सिक्का,जो कसौटी पर खरा हो जायेगा

होमवर्क पर चार और शेर पका लाये हैं.लगे हाथों भेड़ देता हूँ-

सोचना क्या ये तो तेरे जेब की सरकार है
जो भी चाहे,जो भी तू ने कह दिया,हो जायेगा 

यूँ निगाहों ही निगाहों में न हमको छेड़ तू
भोला-भाला मन हमारा मनचला हो जायेगा 

भीड़ में यूँ भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर
बढ़ न पायेगा कभी तू,गुमशुदा हो जायेगा

तेरी आँखों में छुपा है दर्द का सैलाब जो
एक दिन ये इस जहाँ का तजकिरा हो जायेगा

माड़साब : अच्‍छे शेर निकाले हैं और गिरह भी अच्‍छी बांधी है । आप जानते हैं कि किसी के मिसरा सानी पर अपना मिसरा उला लगाने को गिरह बांधना क्‍यों कहते हैं । दरअस्‍ल में गिरह का अर्थ होता है गांठ और चूंकि आप किसी दूसरे की जमीन पर काम कर रहे हैं इसलिये ये जो शेर होता है ये दोनों ग़ज़लों के बीच गिरह का काम करता है । चलिये अब चलते हैं दूसरे शायर की और जो हैं रविकांत। इनके बारे में ये ही कहा जा सकता है कि ''ख़ुश्‍क पत्‍तों पे मेरा नाम यक़ीनन होगा, मैंने इक उम्र गुज़ारी है शजरकारी में ''

रविकांत पाण्डेय

ravikant
गुरू जी, होमवर्क हाजिर है-

प्यार के दो बोल सुनकर वो तिरा हो जायेगा
फ़िर भी इन्सां है किसी दिन वो जुदा हो जायेगा 

इश्क की नादानियों का सिलसिला मुझसे कहे
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 

आग दिल में दे गया जो आज फ़िर है सामने
जीने मरने का नजर से फ़ैसला हो जायेगा 

बोलना सच हो अगर पहले जरा ये सोचना
जो भी अपना है यहाँ नाआशना हो जायेगा 

सर हथेली पे रखा है तुम पुकारो जिस घड़ी
जिंदगी का इस तरह से हक अदा हो जायेगा
 

माड़साब : मतला अच्‍छा निकाला है और बाकी के शेर भी मासूम  ( वैसे फोटो में भी बंदा मासूम लग रहा है ) अब जो आ रहे हैं उनके लिये ये ही कहना चाहूंगा '' ख़ुद से चल के कहां ये तर्जे सुख़न आया है, पांव दाबे हैं ब़ुज़ुर्गों के तो फन आया है '' । खड़े होकर तालियां बजाइये आज के दौर के स्‍थापित शायर नीरज जी का जिन्‍होंने इंटरनेट के बीमार होने के बाद भी तरही में भाग लिया । आ रहे हैं ग़जल सम्राट नीरज जी

नीरज गोस्‍वामी

neerajgoswami

गुरूजी
मानना पड़ेगा की नयी पीढी का कोई जवाब नहीं...जब तक हम होमवर्क पर दिमाग लगाते इन नौजवानों ने उसे पूरा कर के आप के पास भेज भी दिया और क्या खूब भेजा है...ऐसे शेर निकले हैं जो हमारे जेहन में शायद कभी आते ही नहीं...शायरी का भविष्य सुरक्षित है.इन जवान हाथों में....और आप की ग़ज़ल....क्या कहूँ...गदगद हूँ...शब्द नहीं मेरे पास...इसे पढ़कर जो लोग संसद में जाते हैं डूब मरना चाहिए...लेकिन डूब मरने के लिए गैरत की जरूरत होती है जो इनके पास है नहीं...ऐसी नायाब ग़ज़ल पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...हम धन्य हुए...

आप के दिए होम वर्क पर पूरा काम हो नहीं पाया समय और नेट दोनों ने हाथ खींच रखा है...बड़ी मुश्किल से एक आध मिनट को चलता है और फ़िर गोल...बहुत काम बाकि है तरही ग़ज़ल का...एक आध शेर हुआ है सुनिए और हमारे कान मरोडिये ..

आदमी को आदमी सा मान देना ठीक है
सर झुका मिलते रहे तो वो खुदा हो जाएगा 

दोस्त से हमको मिला वो,भर गया मत सोचिये
जख्म को थोड़ा कुरेदो फ़िर हरा हो जाएगा
 

माड़साब : ज़ख्‍म को थोड़ा कुरेदो फिर हरा हो जायेगा, नीरज जी ये बात आप ही कह सकते हैं । बढि़या है भइ बढि़या है ।

चलिये अब परिणाम की ओर चलते हैं परिणाम में जिन चीज़ों पर ध्‍यान दिया गया है वो हैं बहर, कहन, मिसरा उला और सानी का तारतम्‍य ।

तो पहले तरही मुशायरे का सरताज शेर है

भीड़ में यूँ भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर 2122 2122 2122 212
बढ़ न पायेगा कभी तू,गुमशुदा हो जायेगा  2122 2122 2122 212

(गौतम राजरिशी)

हालंकि इसमें भी कहन का हल्‍का सा दोष है जिसको और सुधारा जा सकता है ताकि ये एक हासिले ग़ज़ल शेर हो जाये । सभीको बधाई और गौतम को खास तौर पर क्‍योंकि उनका शेर सरताज़ बना है ।

अगले तरही मुशायरे के लिये पंद्रह दिन दिये जा रहे हैं और मिसरा है माड़साब की ही ग़ज़ल का '' अंधी बहरी गूंगी जनता'' 22-22-22-22 फालुन-फालुन-फालुन-फालुन बहर है बहरे मुतदारिक मुसमन मकतूअ । काफिया है केवल ''ई'' की मात्रा और रदीफ है जनता । चलिये अगले सप्‍ताह मिलते हैं बहर की कक्षाओं के साथ ।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

रात भर जग कर पढ़ेंगे तो भी क्या हो जायेगा, हाथ में आते ही पर्चा सब सफा हो जायेगा, इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा

पहला तरही मुशायरा

पहला तरही मुशायरा इस मायने में ठीक रहा है कि केवल एक ही शेर बहर से बाहर प्राप्‍त हुआ है और उससे ये तो पता चलता ही है कि बहर क्‍या होती है ये बात अब छात्र छात्राओं को समझ में आने लगी है । हां ये बात अलग है कि अभी कहन डवलप उतनी नहीं हो पाई है जितनी कि हो जानी चाहिये । उसके पीछे माड़साब की एक ग़लती तो ये है कि माड़साब ने काम करने के लिये काफी कम समय दिया है । तो अब माड़साब ने ये तय किया है कि तरही मुशायरे अब माह में केवल दो ही होंगें अर्थात अब काम करने के लिये 15 दिनों का समय दिया जाएगा । क्‍योंकि पहले मुशायरे में जो ग़ज़लें प्राप्‍त हुईं हैं वो सारी ऐसा लग रही हैं कि जल्‍दी जल्‍दी तैयार करके भेजी गईं हैं । एक और काम हमको ये करना होगा कि जो ग़ज़लें भेजी जाएंगीं वो टिप्‍पणी में नहीं लगाकर सीधे माड़साब को मेल करनी होंगीं । टिप्‍पणी पर लगाई गई ग़ज़लें क्‍योंकि सब पहले ही पढ़ लेंगें अत: मुशायरे का चार्म खत्‍म हो जाएगा कि किसने क्‍या लिखा ।  आज के तरही मुशायरे में कुछ शेर अच्‍छे मिले हैं आज शीर्षक में जो दो शेर लगाये हैं वे भी दो अलग अलग शायरों के हैं । अभिनव और वीनस ने मज़ाहिया शायरी की है किन्‍तु सटीक की है ।

माड़साब :- चलिये शुरू करते हैं आज का मुशायरा । सबसे पहले लेडीज फर्स्‍ट आ रहीं हैं कंचन इनके लिये दो पंक्तियां

उसकी तारीफ करे कोई तो करे कैसे,

जिसकी आवाज़ में फूलों की महक आती हो

kanchan 

कंचन सिंह चौहान
अरे भगवान बड़ा टफ कंपटीसन हो गया है गुरू जी ये तो ....अबकि बार तो सारे के सारे सटूडेंटै एक से बढ़ कर एक लिखे पड़े हैं .... सब का होमवर्क बेमिसाल....! लीजिये रात में हम ने भी दिया जला के कुछ लिखा है..!

जान बस जायेगी मेरी और क्या हो जायेगा,
इम्तिहाँ ले कर तुझे तो हौसला हो जायेगा।

रोज समझाया सभी को, ना कभी समझे मगर,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा।

हर नफस रोशन किये है, जिंदगी को आज जो,                                                 कल वो जायेगा तो स्यापा इक घना हो जायेगा।

इतना ज्यादा खुद को, उसमें ढालते जाते हो क्यो,
जबकि तुम भी जानते हो, गैर वो हो जाएगा।

कौन छोड़ेगा सड़क पर घूमना डर मौत से,
आज फोड़ो बम, शहर कल आम सा हो जाएगा।

माड़साब : तालियां तालियां पूरी ग़ज़ल बहर पर फैंक के मारी है । दिया जला के ऐसी लिखी तो सूरज के उजाले में कैसी लिखेंगीं आप । बस मोहतरमा चौथे शेर में काफिये का गच्‍चा खा गईं हैं । जबकि तुम भी जानता हो गैर वो हो जाएगा । मैडम जी काफिया कहां गया । चलिये अब आ रहें हैं एक और नौजवान शायर जिनके बारे में कहा जा सकता है कि पूत के लक्षण पालने में ही नज़र आ जाते हैं । इनके लिये यहीं कहूंगा ''वही लोग रहते हैं ख़ामोश अक्‍सर ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं ''

वीनस केसरी

venus kesari

ग्रहकार्य के अनुरूप गज़ल लिखी है जैसी भी बन पडीं है आपके सामने प्रस्तुत है

मत मनाओ उसको इतना वो खफा हो जायेगा ।
रुठेगा शामोसहर ये कायदा हो जायेगा ॥

लिख बहर में पेश की तो इक गज़ल अच्छी लगी ।
सोचता था ये करिश्मा बारहा हो जयेगा ॥

तोड़ दूंगा जब हदों को आपके सम्मान की ।
तब कयामत आयेगी तब जलजला हो जायेगा

इतनी गाली इतने जूते इतनी सारी बद्दुआ ।
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

आज मैने मय के प्याले हाशिये पर रख दिये ।
अपनी कुछ गज़लें सुना दो कुछ नशा हो जायेगा ॥

फ़िर मतों की थी ज़रूरत फ़िर बहायी रहमतें ।
चार पैसे दे के वो सबका खुदा हो जायेगा ॥ 

जब तिलावत की हमारे राम को अच्छा लगा ।
मत कहो तुम फ़िर से ऐसा फ़िर दंगा हो जायेगा ॥
 

माड़साब :- आपने अच्‍छी ग़ज़ल निकाली है विशेष कर गिरह अच्‍छी बांधी है जो मैंने शीर्षक में लगाई है । मगर आप आख़ीर के शेर में मात खा गये ''दंगा '' वज्‍न में नहीं आ रहा है ''दगा'' होता तो चल जाता पर दंगा का वज्‍न 22 है । और अब आ रहे हैं अभिनव जो कई दिनों से कहीं गायब थे और अब दिखाई दिये हैं इनके लिये दो पंक्तियां '' थी ग़ज़ब की मुझमें फुर्ती तेरी ग़मे आशिकी के पहले, मैं घसीटता था ठेला तेरी दोस्‍ती के पहले ''

अभिनव

abhinav_shukla

रात भर जग कर पढ़ेंगे तो भी क्या हो जायेगा,
हाथ में आते ही पर्चा सब सफा हो जायेगा, 

उनको है इस बात का पूरा भरोसा दोस्तों,
बाल काले कर के खरबूजा नया हो जायेगा, 

तुम तो लड्डू देख कर पूरे गनेसी हो गए,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा, 

आदमी हो या अजायबघर लकड़बग्घे मियां,
बम लगाकर सोचते हो सब हरा हो जायेगा.

माड़साब :- पूरी ग़ज़ल मज़ेदार है और पूरी बहर में है साथ में कहन में भी है । और जो डायबिटिक गिरह बांधी है वो तो मस्‍त है । आज के लिये इतना ही अभी परिणाम रोक के रखे जा रहे हैं क्‍योंकि कल हम बात करेंगें कुछ और ग़ज़लों की और साथ ही परिणाम की । जिन लोगों ने माड़साब की ग़ज़ल सुनने की फरमाइश की है उनको धन्‍यवाद । और लीजिये पेश है माड़साब की ग़ज़ल

माड़साब ( और माड़साब का विश्‍व सुंदरी युक्‍ता मुखी के साथ का फोटो भी देखिये)

Untitled-3

कौडि़यों में बिक रही संसद है मेरे मुल्‍क की
दो टके की हो गई संसद है मेरे मुल्‍क की

डाकुओं, चोरों, लुटेरों, जाहिलों, नालायकों
बेइमानों से भरी संसद है मेरे मुल्‍क की

लोग गन्‍दे, सोच गन्‍दी, काम भी गन्‍दे हैं सब
गन्‍दगी ही गन्‍दगी संसद है मेरे मुल्‍क की

ये कभी यूं पाक थी जैसे के हो मंदिर कोई
अब तो कोठा बन चुकी संसद है मेरे मुल्‍क की

कोई पप्‍पू, कोई फूलन, कोई शहबुद्दीन है
कैसे खंभों पर टिकी संसद है मेरे मुल्‍क की

बस इशारे पर कभी इसके कभी उसके यूंही
बांध घुंघरू नाचती संसद है मेरे मुल्‍क की

जिनको हमने चुन के भेजा बिक गए बाज़ार में
सबकी क़ीमत लग चुकी, संसद है मेरे मुल्‍क की

मुझको भी लगता तो है पर किससे पूछूं सच है क्‍या
शोर है के मर गई संसद है मेरे मुल्‍क की

हो कहां गांधी चले भी आओ देखो तो तुम्‍हें
याद करके रो रही संसद है मेरे मुल्‍क की

चलिये कल मिलते हैं कुछ और ग़ज़लों के साथ ।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

तीन रंगों का वो सपना कब का यारों मर चुका, अब तमाशा ख़त्‍म्‍ा है अब तो उठो और घर चलो

वे सारे शेर जिनको कि शुभचिंतक कहा करते हैं कि इनको कही मत पढ़ा करो ये तीखे हैं विवादास्‍पद हैं वगैरह वगैरह, उन सारे शेरों को अब ग़ज़ल की कक्षाओं में सुनाने का मन है । क्‍योंकि पिछले शेरों को लोगों ने काफी पसंद किया है । आज की कक्षा में संसद वाली पूरी ग़ज़ल भी सुनाना है । लोगों का काफी आग्रह है उसको सुनाने का । मगर आज की कक्षा में हम कुछ हट कर बातें करेंगें । उससे पहले कि हम सीधे बहरों की बात करने लगें हम पहले ग़ज़ल के कुछ महत्‍वपूर्ण बिन्‍दु जान लें । पिछले दिनों से काफी छात्रो की ग़ज़ले इस्‍लाह के लिये आ रही हैं । और ग़ज़लों में जो सामान्‍य सा दोष आता दिखाई दे रहा है उसपर आज चर्चा करने की इच्‍छा है । हां इस बीच ये बता दूं कि कुछ ग़ज़लें तरही मुशायरे की आ गई हैं और माड़साब ने उनको सहेज लिया है । एक दो दिन में तरही मुशायरे का आयोजन किया जाएगा उसमें ग़ज़लों को प्रस्‍तुत किया जायेगा । नखलऊ की कंचन ने फोन पे  पूछा है कि बहर क्‍या है कंचन हमारी कक्षा की सबसे ढिल्‍ली छात्रा है । जब सारी कापियां जमा हो जाती हैं तब नाक पोंछती हुई आती है और कहती है '' ए माड़साब नीक सी तो देर हुई है जमा कर लो कापी '' ।

खैर बहर की बात करने के पहले हम बात करते हैं । ग़ज़ल में आने वाले असहज और अवांछित तत्‍वों की । कविता की जो परिभाषा है उसमें ये भी कहा जाता है कि कविता को उस दीवार की तरह होना चाहिये जिसमें एक भी ईंट बेकार न हो । अर्थात एक भी ईंट हटाने पर अगर दीवार गिर जाये तो इसका मतलब ये है कि हर ईंट अपनी जगह उपयोगी है । अगर ऐसा हो रहा है कि किसी ईंट को खींचने पर कुछ नहीं हो रहा है तो उसका मतलब ये है कि एक गैरज़रूरी ईंट वहां हैं । कविता में भी ये ही होता है कविता में भी एक भी गैर जरूरी शब्‍द नहीं होना चाहिये अगर एक भी शब्‍द ऐसा है तो इसका मतलब है कि वो अवांछित है और वो पूरी पंक्ति को असहज बना देगा । ग़ज़ल की भाषा में इनको भर्ती का शब्‍द कहा जाता है । अक्‍सर होता है कि हम काफिया ऐसा ले लेते हैं जो कि परेशानी वाला होता है और फिर उसका ही निर्वहन करने के चक्‍कर में हम भर्ती के शब्‍द रखते हैं ।  अगर कविता में से किसी शब्‍द को निकालने पर ये हो रहा हो कि पूरी कविता पर असर पड़ रहा हो तो इसका मतलब ये है कि वो शब्‍द जरूरी है और उसकी उपयोगिता है  । किन्‍तु अगर किसी शब्‍द को हटाने पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो तो इसका मतलब ये है कि वो शब्‍द भर्ती का है और जितनी जल्‍द हो उसे हटा दें । जैसे गौतम ने मतला बनाया

अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर

कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर

मतला देख कर ही पता चल रहा है कि काफिया कठिन है और उस पर रदीफ की बाध्‍यता है । कई बार काफिया कठिन नहीं होता पर रदीफ के साथ उसका मेल परेशानी पैदा करता है । मतले में मिसरा सानी में ही गौतम को एक समझौता करना पड़ा और वो ये कि देहलीजों  का दे  खींच कर पढ़ना है ताकि वो दीर्घ का स्‍वर पैदा करे । वास्‍तविकता ये है कि दे....ह ली जों 2122  तो है ही नहीं ये तो देह 2 ली 2  जों 2  है पर मात्रा बिठाने के चक्‍कर में असहजता पैदा हो गई ।

भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो

टिकी है मेरी दुनिया माँ की सब बाँधी तबीजों पर

शेर में ताबीज  को मात्रा के चक्‍कर में तबीज  करना पड़ा । ये असहजता नहीं आनी चाहिये । कोई जरूरी नहीं है कि हम मुश्किल काफिये लें । उससे कहीं तय नहीं होता कि हम उस्‍ताद हैं । आप तो गालिब की सबसे लोकप्रिय ग़ज़ल दिले नादां तुझे हुआ क्‍या है आखिर इस दर्द की दवा क्‍या है को ही लें कितना आसान काफिया और उतना ही आसान रदीफ ।  अपने को मुश्किल काफिये में नहीं उलझायें । आज की कक्षा लम्‍बी हो गई है । अत: जिस ग़जल की फरमाइश है उसे कल सुनाता हूं । आज की पोस्‍ट के शीर्षक में भी माड़साब ने अपना एक शेर लगाया है

तीन रंगों का वो सपना कब का यारों मर चुका,

अब तमाशा ख़त्‍म्‍ा है अब तो उठो और घर चलो

बतायें कैसा लगा कल आकर सुनाता हूं अपनी पूरी ग़ज़ल ।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

कौडि़यों में बिक रही संसद है मेरे मुल्‍क की, दो टके की हो गई संसद है मेरे मुल्‍क की

पिछले दिनों जब टीवी पर देखा कि किस प्रकार से भारत की संसद में सांसदों को आलू प्‍याल की तरह से खरीदने का और बेचने का दौर चला तो उसी दिन इस ग़ज़ल ने जन्‍म लिया था । पूरी ग़ज़ल तो खैर काफी तीखी लिखा गई है जब मैंने बाबई के मुशायरे में इसको पढ़ा तो कुछ शुभचिंतक शायरों ने कहा कि इसको संवेदनशील स्‍थान पर मत पढ़ना । जैसे कि एक बार और किसी शेर पर किसी परिचित ने कहा था कि इसको मत पढ़ना । मगर मुझे लगता है कि जब राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि

''आज़ादी खादी के कुरते की एक बटन

आज़ादी टोपी एक नुकीली तनी हुई

फैशन वालों के लिये नया फैशन निकला 

मोटर में बांधों तीन रंग वाला चिथड़ा''

तो क्‍या  वे कवियों को एक संदेश नहीं दे रहे हैं कि जन के लिये समर्पित रहो ना कि किसी और के लिये । आज अगर कोई कवि तीन रंग वाला चिथड़ा लिख दे तो हंगामा ही मच जाये और लोग पत्‍थर लेकर पिल ही पडें । खैर तो जिस शेर पर मेर मित्र ने मना किया था वो एक दूसरी ग़ज़ल का ये शेर था जिस ग़ज़ल में केवल आ की मात्रा ही काफिया थी ।

तुम्‍हारे तीन रंगों को बिछायें या कि ओढ़ें हम

के वो कमबख्‍़त दर्जी इसकी नेकर भी नहीं सिलता

मेरा एक ही मानना है कि कविता मनरंजन से ज्‍यादा जनरंजन की चीज़ है । मनरंजन जहां तक सीमा हो वहां तक हों मगर उससे ज्‍यादा कविता को जनरंजन के लिये होना चाहिये । ग़ज़ल के बारें में लोग कहते हैं कि इसको नाज़ुक होना चाहिये इसमें नफासत होनी चाहिये वगैरह वगैरह । मगर मैं कहता हूं कि अगर ऐसा है तो फिर आज भी लोगों की जुबान पर वोही शेर क्‍यों चढ़ें हैं जो जैसे खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर ....  जो कि जनरंजन के शेर थे । दुष्‍यंत की पूरी ग़ज़लें जनरंजन की ग़ज़लें हैं । हालंकि मैं दुष्‍यंत की ग़ज़लों से पूरी तरह से सहमत नहीं हूं पर फिर भी आज लोगों की ज़बान पर हैं तो वही हो गई है पीर पर्वत सी ... या फिर बाढ़ की संभावनाएं ।  तो इसके पीछे कारण ये ही है कि लोग अपने दर्द अपनी पीड़ायें ही सुनना पसंद करते हैं।और उसको ही याद भी रखते हैं ।  तो मेरा अनुरोध है कि मनरंजन के लिये लिखें पर जनरंजन का भी ध्‍यान रखें । आपनी ग़ज़ल में एक शेर ऐसा ज़ुरूर रखें जो कि वर्तमान व्‍यवस्‍था से विद्रोह करता हो । विशेषकर मैं वीनस केसरी, गौतम राजरिशी से अनुरोध करूंगा कि आप तो युवा हैं आपकी ग़ज़लों में तो वो तेवर वो आग होनी चाहिये कि अंदर तक हिला दे । अगली कक्षा में अपनी एक पूरी कविता प्रस्‍तुत करूंगा जो कि ऐसी ही है ।

खैर तो आज से हमको कक्षायें प्रारंभ करना है और ये कक्षायें अब प्रयास रहेगा कि नियमित हों । हां इस बार तरीका थोड़ा अलग होगा । पहले तो हर सप्‍ताह एक कक्षा होगी । और फिर समस्‍याओं पर चर्चा वे समस्‍याऐं जो कि आपकी ग़ज़लों के माध्‍यम से आती हैं   और एक होगा तरही मुशायरा जो हर सप्‍ताह किसी एक मिसरे पर होगा । जैसे इस बार कि बहर है

इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

आपको इस पर अपना मतला बनाना है और  कम से कम पांच शेर निकालने हैं । बहर है रमल मुसमन महजूफ़ । रुक्‍न हैं  फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलुन  या कि 2122-2122-2122-212 । ये पहली कक्षा है इसलिये बता रहा हूं कि क़ाफिया  है  आ  की मात्रा और रदीफ है हो जाएगा । अब आपका मतला अपना होना चाहिये और कम से कम एक शेर ऐसा होना चाहिये जिसमें मिसरा सानी हो इतना मत चाहो उसे वो बेवफा ओ जायेगा ( इसको गिरह लगाना कहते हैं कि आपने एक शेंर में मिसरा सानी मूल रखा और मिसरा ऊला लिखा)। ग़ज़ल तो आप पहचान ही गये होंगे बशीर बद्र साहब की है । एक मनोरंजक तथ्‍य आपको बता  दूं बशीर बद्र साहब  को जिस शेर ने ख्‍याति दी उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये वो ग़ज़ल वास्‍तव में उन्‍होंने तरही में लिखी थी ( ये बात उन्‍होंने मुझे ख़ुद चर्चा में बताई ) । किसी शायर की ग़ज़ल का मिसरा न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए तरही मुशायरे के लिये मिला था और उस पर उन्‍होंने उस पर अपनी ग़ज़ल बनाई कभी तो असमां से चांद उतरे ..... । और इस ग़ज़ल में एक शेर में उन्‍होंने मूल मिसरे न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये पर गिरह बांधी थी उजाले अपनी यादों के ..  उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास है । तरह पर लिखी ग़ज़लों को आप अपने नाम से पढ़ सकते हैं किन्‍तु पढ़ने से पूर्व बताना होता है कि किस शायर की किस ग़ज़ल पर आपने काम किया है । तो कक्षा का आग़ाज़ हम करते हैं तरही मुशायरे से । जल्‍द अपनी ग़ज़लें ( पांच शेर न निकाल पायें तो मतला और तीन शेर निकालें ) तैयार करें और भेजें ताकि आगे का कारोबार चल सके । ( कक्षायें पुन: प्रारंभ होने के लिये आभार व्‍यक्‍त करना हो तो मुझे नहीं इनको करें श्री समीर लाल जी,श्री नीरजी गोस्‍वामी जी वीनस केसरी, कंचन चौहान,  इन लोगों ने कक्षायें प्रारंभ करने के लिये जो दबाव डाला उतना तो वाम दलों ने पांच सालों में मनमोहन सिंह पर भी नहीं डाला होगा )

आपका उत्‍साह आगे की कक्षाओं के लिये प्रेरणा बनगा

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

समीर जी ये आपके लिये :- हमें आवाज़ देकर के चले हो तुम कहां साहिब, चलो हम साथ चलते हैं चले हो तुम जहां साहिब, यहां तनहाई सूनापन अकेलापन बहुत होगा, करेगा कौन मेहफिल को हमारी अब जवां साहिब

 2797507707_6d5b2dbb37_oइधर माड़साब ने घोषणा की कि अब ग़ज़ल की कक्षायें पुन: प्रारंभ होने जा रहीं हैं और उधर कक्षा के सबसे होशियार ( शरारत में ) बच्‍चे ने छुट्टी के लिये आवेदन भी दे दिया । मज़े की बात ये है कि माड़साब को कक्षायें पुन: प्रारंभ करने के लिये इसी बच्‍चे ने मेलिया मेलिया के ( मेल कर कर के ) परेशान कर दिया था । यहां तक कि 24 अगस्‍त की माड़साब की मेल जो कि तात्‍कालिक निराशा के परिणाम से लिखा गई थी उसको भी मेलिया के ब्‍लाग पे से हटवा दिया । और माड़सब जब कुछ मूड में आये और कक्षायें प्रारंभ करने की घोषण की तो पता चला कि बच्‍चे ने खुद ही छुट्टी की अर्जी पेल दी । माड़साब वैसे तो आज से ही कक्षायें प्रारंभ करने जा रहे थे मगर लगता है कि अब कुछ और दिन टालना होगा क्‍योंकि कक्षा में उड़नतश्‍तरी का न होना वैसा ही है कि पकवानों और व्‍यंजनों से भरी थाली में कोने पर चटनी नहीं रखी हो । पकवान खाते खाते उंगली से चटनी को चाटना और अगर मिर्ची तेज हो तो सी सी करके आनंद लेना उसका मजा ही अलग है । हमारे यहां पर तो बुजुर्ग लोग सबसे पहले थाली आते ही कहते हैं '' ए मोड़ा ( लड़के) नीक सी चटनी तो ला ''।  बताओ भला बिना चटनी के भी खाना खाया जाता है । हमारे यहां जब पंगत लगती है तो दाल बाफले की पंगत में सबको इंतजार होता है चटनी परोसने वाले का । उसी प्रकार से हम सब ब्‍लागियों को इंतजार रहता है कि कब उड़नतश्‍तरी हम सब की थालियों में अपनी टिप्‍पणी रूपी चटनी परोसते हुए निकल जाएगी। हम सारे व्‍यंजन छोड़कर उस चटनी के ही स्‍वाद में लग जाते हैं । समीर जी मैं ये कहना चाहता हूं कि पढ़ने के लिये समय निकालना अच्‍छी बात है पर यदि समय प्रबंधन कर लिया जाये तो दोनो ही काम किये जा सकते हैं । अर्थात ब्‍लागिंग भी की जा सकती है और अध्‍ययन भी किया जा सकता है । एक बात और अवकाश लेने में और विदा लेने में अंतर होता है । अवकाश वास्‍तव में रीचार्जर की तरह होते हैं जिनको लगा कर हम अपने को पुन: चार्ज कर लेते हैं । किन्‍तु साहित्‍य का क्षेत्र ऐसा है जहां पर अवकाश की गुंजाइश ही नहीं होती है । उसके पीछे दो कारण हैं पहला तो ये कि मेरे गुरूजी कहा करते थे कि लिखने की आदत एक बार लग जाये तो उसको छोड़ो मत क्‍योंकि छोड़ दिया तो अंतराल के बाद पुन: प्रारंभ करने में काफी समय लग जाता है । दूसरा ये कि साहित्‍य ही एक ऐसी विधा है जिसमें एक जीवन भी कम लगता है और ऐसा लगता है कि कितना कुछ तो करना हे अभी । तो समीर जी सबकी ओर से और मेरी और से भी ये निवेदन कि समय प्रबंधन करें । जब हमारा परिवार बढ़ता है तो समय प्रबंधन करना ही होता है । क्‍योंकि सबको समय देना होता है । और परिवार में एक दो बर्तन तो खड़कते ही हैं उनके खड़कने से अगर घर की बहू बार बार मैके जाने की धमकी देगी तो घर के लोगों का क्‍या होगा क्‍योंकि लहसुन की चटनी जितनी अच्‍छी ये बहू बनाती है उतनी तो कोई भी नहीं बनाता क्‍या ससुर जी भूखे सोयेंगें । तो पुर्नविचार करें जब इमरान खान सन्‍यास लेकर वापस आ गया था और अपनी टीम को वर्ल्‍ड कप जिता गया तो हम क्‍या हैं । देखिये इत्‍ते दिन बाद अब तो माड़साब ने भी एक मुक्‍तक आपके लिये लिख दिया है कम अ स कम इस मुक्‍तक की तो लाज रखिये ।

हमें आवाज़ देकर के चले हो तुम कहां साहिब,

चलो हम साथ चलते हैं चले हो तुम जहां साहिब,

यहां तनहाई सूनापन अकेलापन बहुत होगा,

करेगा कौन मेहफिल को हमारी अब जवां साहिब

आपका ही पंकज सुबीर

शनिवार, 6 सितंबर 2008

ग़ज़ल के बारे में भविष्‍य के शुभ संकेत तो मिल रहे हैं पर ये संकेत बने रहें ये हमारी जिम्‍मेदारी है ।

मुशायरों में जा जाकर एक बात जो मैंने देखी है वो ये है कि मुशायरों में रवायतों को ज्‍यादा पसंद किया जाता है । तरक्‍कीपसंद शायरी को ज्‍यादा दाद नहीं मिलती है । वो इसलिये भी कि लोग अभी भी इश्‍क मुहब्‍बत की बातें ही सुनना पसंद करते हैं । मगर हकीकत ये है कि अब समय बदल रहा है । भले ही मुशायरे के श्रोता तरक्‍की पसंद शायरी को पसंद नहीं करते लेकिन आम आदमी तो अब उसी को ही पसंद कर रहा है और गुनगुना भी रहा है । आचार्य रामधारी सिंह दिनकर जी ने संस्‍कृति के चार अध्‍याय में लिखा है कि जिस साहित्‍य में अपने समय की पीड़ायें नहीं हों वो और कुछ भले ही हो पर साहित्‍य नहीं हो सकता है । मेरे गुरू श्रद्धेय डा विजय बहादुर सिंह कहते हैं कि कविता हमेशा ही विपक्ष में खड़ी होती है । और यही उसका काम है कि वो प्रश्‍न पूछती रहे ।

आज ग़ज़ल की पुन: शुरूआत करते समय दो बातों की बड़ी प्रसन्‍नता है और ये दोनों ही बातें दो शायरों से जुड़ी हैं । नीरज गोस्‍वामी जी के बारे में ये तो सब ही जानते हैं कि वे अति विनम्र व्‍यक्ति हैं । मगर अब उनका जो रूप धीरे धीरे सामने आता जा रहा है वो एक स्‍थापित शायर का है । मेरा ऐसा मानना है कि हर वो पत्‍थर जो कि छैनी हथोड़ी की चोट सहने से इंकार कर देता है वो फिर प्रतिमा में नहीं बदल पाता । मेरा आशय ये है कि सीखने की प्रकिया के दौरान यदि हम अपनी रीढ़ की हड्डी में लोच नहीं रखते तो हम सीख ही नहीं पाते । नीरज जी में आने वाले समय के एक मशहूर शायर की जो झलक मिल रही है वो शायद उनकी विनम्रता के ही कारण है । आज के दौर में जब लोग ये बताना ही शर्म की बात समझते हैं कि हमने इसलाह करवाई है उस दौर में नीरज जी इसलाह के बारे में डंके की चोट पर अपने ब्‍लाग में जिस तरह से जिक्र कर देते हैं वैसी मिसाल मिलना आज तो कम से कम मुश्किल है । ईश्‍वर उनको ग़ज़ल के सफर में कामयाब करे ।

दूसरा जिक्र एक अपेक्षाकृत नौजवान शायर का नाम है वीनस केसरी जिन्‍होनें संभवत: कल ही अपना ब्‍लाग आते हुए लोग  बनाया है और अपनी पहली ही ग़ज़ल वहां पोस्‍ट की है । इस ग़ज़ल को संभवत: किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्‍थान भी मिला है । प्रथम किसको मिला ये तो मैं नहीं देख पाया लेकिन वीनस की ग़ज़ल भी कम से कम द्वितीय आने योग्‍य नहीं है । मगर आजकल जो चलन है कि केवल अच्‍छे होने से ही सब कुछ नहीं होता है प्रथम आने के लिये और भी कुछ आवश्‍यक होता  है । खैर वीनस का जिक्र मैं इसलिये कर रहा हूं कि भले ही ब्‍लाग वीनस ने आज बनाया है मगर टिप्‍पणियों के माध्यम से मेरा  परिचय वीनस से पूर्व का ही है । नीरज जी और वीनस इन दोनों को जिक्र इसलिये कर रहा हूं क्‍योंकि ये दोनों ही मुझे आने वाले समय के शायर दिखाई दे रहे हैं । आने वाले समय के मतलब जो दौर अब सामने है और जिसमें आम आदमी की कविता आम आदमी की भाषा में ही करनी होगी ।

इन दोनों ने मुझे पुन: ग़ज़ल की कक्षाओं को प्रारंभ करने के लिये मार मार कर उकसाया  है मार मार कर अर्थात अपने शेरों से मार मार कर । पिछले एक डेढ़ माह से श्री राकेश खंडेलवाल  के काव्‍य संग्रह अंधेरी रात का सूरज पर कार्य कर रहा था और अब वो संग्रह छपाई में जा चुका है सो कुछ समय मिल रहा है । यद्यपि श्री समीर लाल जी के काव्‍य संग्रह का काम भी प्रारंभ होना है । अगली पोस्‍ट में बात की जायेगी शिवना प्रकाशन से आ रहे श्री राकेश जी के काव्‍य संग्रह की और फिर हम प्रारंभ करेंगें ग़ज़ल की कक्षायें ।  

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