दीपावली का मुशायरा अपनी पूरी सफलता के साथ गुजरा है । जिस प्रकार लोगों ने बढ़ चढ़ कर कमेंट किये और जिस प्रकार से लोगों ने ग़ज़लें कहीं उससे ये तो तय हो गया कि अब ये ब्लाग एक कम्यूनिटी ब्लाग बन चुका है । ये सबका है । जिस प्रकार से लम्बी लम्बी विस्तृत टिप्पणियां आईं उससे मुशायरे का आनंद दुगना हो गया । और अब पूरे मुशायरे की एक पीडीएफ पत्रिका डिज़ाइन की जा रही है । प्रयास ये किया जा रहा है कि पत्रिका भी मुशायरे की ही तरह से जानदार और शानदार हो । भभ्भड़ कवि भौंचक्के अभी ग़ज़ल कह नहीं पाये हैं सो आज तिलक जी की ये तीन ग़ज़लें समापन की घोषणा हैं । और हां भभ्भड़ कवि को छोड़ा नहीं जा रहा है वे जल्द ही अपनी ग़ज़ल के साथ आएंगे ।
( भाई दूज के तिलक के बाद परी और अंकित में मिठाई को लेकर जारी बहस )
श्री तिलक राज कपूर जी
तरही तो नहीं लेकिन एक प्रयास किया है मिलता जुलता। इस प्रयास में काफि़या दुगन में प्रयोग किया है और इस प्रकार कि काफि़या का शब्द दोनों जगह एक ही रखा है।
दूसरी पंक्ति की अदायगी कुछ यूँ है कि: फ़ायलातुन्, मफ़ा के बाद विराम लेकर यलुन् फ़ालुन् पढ़ना है। इसमें अगर कोई प्रयोग आपत्तिजनक है तो जानना चाहूँगा। 'झरे' का प्रयोग देशज रूप में है जैसा कि नीरज साहब ने 'स्वप्न झरे फूल से' में किया था; अनुमत्य़ है कि नहीं, जानना चाहूँगा। मत्ले के शेर में मिसरा-ए-सानी में वाक्य रचना में कोई दोष हो तो जानना चाहूँगा। सुना तो है लोगों को यह कहते कि 'फ़ख्र करता हूँ' लेकिन अधिक सहज लगता है 'मुझे फ़ख्र है'। काफि़या के लिये मुनासिब सभी शब्द लेने का प्रयास किया है। 'मरे' शब्द का प्रयोग केवल इसलिये किया है कि यह भी प्रयोग का अंश है वरना ये शब्द शायरी में इस रूप में काफि़या के अनुकूल नहीं है ऐसी मेरी समझ है। ये ग़ज़ल एक प्रयोग भर है छोटी बह्र में काफि़या दुगन में लेते हुए वाक्य रचना का एक उदाहरण देने का।
ख्वाब तो थे हरे, हरे हर सू
शाख़ से जब झरे, झरे हर सू।
वक्त का फ़ेर, लोग कहते हैं
अब हमें ही 'अरे', 'अरे' हर सू।
लफ़्ज़ तेरे, ज़ुबॉं रहे मेरी
बोल निकलें खरे, खरे हर सू।
हो गये वो जवॉं, समझ लीजे
रह रहे हैं परे, परे हर सू।
ये चला कौन जो सभी देखे
नैन ऑंसू भरे, भरे हर सू।
शम्अ को जो समझ नहीं पाये
वो पतिंगे मरे, मरे हर सू।
हर किसी को समझ मिले ऐसी
पाप करते डरे, डरे हर सू।
है 'सियासत', मिज़ाज़ बकरी का
जो दिखा, वो चरे, चरे हर सू।
थाम लूँ अंगुलियॉं खुदा तेरी
और जीवन तरे, तरे हर सू।
रौशनी राह में बिछाने को
दीप उसने धरे, धरे हर सू।
हुक्म तेरा, अदा करे जब तो
फ़ख्र 'राही' करे, करे हर सू।
वाह वाह तिलक जी सुंदर प्रयोग है । हां एक बात ये कि 'झरे' शब्द बिल्कुल प्रयोग किया जा सकता है । हिंदी में तो झरे का बहुतायत प्रयोग होता है । पिछले दिनों कहीं किसी ग़ज़ल में इस शब्द को लेकर असहमति जताई गई थी किन्तु मैं उस असहमती से पूरी तरह असहमत था । झरे शब्द हिंदी का देशज शब्द है और अपने मूल 'झड़े' की तुलना में अधिक सुंदर है । झड़े को अन्य संदर्भ में प्रयोग किया जाता है जहां पर सुंदरता की आवश्यकता नहीं हो जैसे ''बाल झड़ गये '' । किन्तु यदि सुंदर परिमल वाक्य बनाना हो तो झड़े नहीं लेंगे झरे ही लेंगे जैसे ''झर गये हारसिंगार'' ।इसलिये झरे बिल्कुल सही है । वहां उस ग़ज़ल में भी था जहां आपत्ती लगाई गई थी और यहां भी सही है । बाकी भी जिन बातों को लेकर आपने भूमिका में कहा है, मेरे विचार से वे भी आपत्तीजनक नहीं हैं सब ठीक हैं ।
इसके अतिरिक्त तरही से अलग दो प्रयास और किये हैं जो निम्नानुसार हैं:
एक ग़ज़ल रिश्तों की ज़मीन पर
और क्या चाहिये मुझे हर सू
अम्न् औ चैन बस रहे हर सू।
वो बसा है हरेक ज़र्रे में
हम उसे ढूँढते फिरे हर सू।
पुरसुकूँ प्यार से भरे रिश्ते
भीड़ में आज खो गये हर सू।
सोचता हूँ बसूँ कहॉं जाकर
काश होते न हाशिये हर सू।
आप रिश्ता निभा नहीं पाये
और बदनाम हम हुए हर सू।
फूल ही फूल बीज कर हमको
खार ही खार क्यूँ चुभे हर सू।
एक आवाज़ नाम लेती सी
काश 'राही' तुझे मिले हर सू।
एक ग़ज़ल ज़मीनी हालात् पर:
लोग कुछ हौसले भरे हर सू
मुठ्ठियॉं तान कर चले हर सू।
मैं मसीहा किसे यहॉं समझूँ
हाथ हैं खून से सने हर सू।
वायदे जो न पूर्ण कर पाये
वोट वो मॉंगते दिखे हर सू।
ऑंत खाली लिये नहीं दिखता
शह्र में दीप जल गये हर सू।
कान से कान तक चला क्या है
बँट गये लोग, एक थे हर सू।
शह्र ये दौड़ते नहीं थकता
ख्वाहिशें ख्वाहिशें लिये हर सू।
प्यास धरती की बुझ नहीं पाई,
मेघ तो थे दिखे घने हर सू।
हर दिशा से उठे हज़ारों सुर,
कल तलक थे यही दबे हर सू।
रहनुमा मान लूँ किसे 'राही'
मूल्य ही आज गिर गये हर सू।
अहा तीनों ही ग़ज़लें आनंद दे रहीं हैं । समापन के लिये इससे अच्छा और क्या हो सकता था । दुगन काफिये के साथ की एक सुंदर ग़ज़ल और उसके बाद दो अलग अलग मूड पर लिखी हुई ग़ज़लें और क्या चाहिये हमें । चलिये तो विधिवत समापन घोषित करते हैं हम दीपावली की तरही का । दाद देते रहिये ।
( हाजमोला की ज़रूरत पड़ने ही वाली है । )