वर्षा मंगल तरही मुशायरा
फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं
इस बार का तरही मुशायरा समापन का नाम ही नहीं ले रहा है । जून के अंत से इसकी सुगबुगाहट प्रारंभ हुई तो सितम्बर के मध्य तक तो हम आ ही पहुंचे हैं । आज हिंदी दिवस है । वैसे तो अपनी ही मातृभाषा का एक अलग दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं हैं । जिसे हम रोज ही बोल रहे हैं व्यवहार में ला रहे हैं उसके लिये एक अलग दिन ? खैर सरकारी औपचारिकताओं की तरह ही हिंदी दिवस भी एक ऐसी औपचारिकता है जिसमें सरकारी कार्यालय एक हिंदी के साहित्यकार को ढूंढ़ते हैं ताकि उसको सम्मान कर सकें । आज भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी एक रचना के साथ तरही को हिंदी दिवस पर समापन कर रहे हैं । हिंदी दिवस इसके लिये मुफ़ीद दिन इसलिये है क्योंकि इस पूरी रचना ( श्री रमेश जी द्वारा खारिज किये जाने के बाद इसे ग़ज़ल कहने की हिम्मत नहीं हो रही ) में हिंदी का बोलबाला है । लगभग सारे काफिये हिंदी के हैं । और इसी अनुरूप पूरी रचना ढली हुई है । कई सारे शेर अभी भी काम मांग रहे थे लेकिन उसके लिये समय नहीं मिला सो आज जो है जैसी है वैसी ही प्रस्तुत है ये रचना । आप सबसे पहले ही कह दिया था कि दिमाग़ को सिरे से अनुपस्थित मान कर इसे पढ़ें और केवल काफिये के उपयोग को देखें ।
श्री श्री 103 भभ्भड़ कवि भौंचक्के
मतला ख़ता करो न करो तय मगर सज़ाएँ हैं ये कूए यार की उल्टी परम्पराएँ हैं 1 ये ख़्वाब ख़्वाब फि़ज़ा दिलनशीं नज़ारे ये जिधर भी देखिये बस धुंध की रिदाएँ हैं 2 सवाले वस्ल पे इन्कार तो किया उसने कुछ और कह रहीं पर भाव भंगिमाएँ हैं 3 तुम अपनी ख़ैर मनाओ हमारी मत सोचो ''हमारे साथ तो मां बाप की दुआएँ हैं'' 4 कथा नहीं है किसी एक ही अहिल्या की कई हैं इन्द्र यहां, और कई शिलाएँ हैं 5 महक हवा में यकायक जो घुल गई है ये वो आ रहे हैं हवाओं की सूचनाएँ हैं 6 हरे दुपट्टे से छनती हुईं वो दो आंखें ख़मोशियों की चमकती हुई सदाएँ हैं 7 झटकना, तोड़ना, पैरों तले मसल देना ये मेरे यार की कुछ दिलनशीं अदाएँ हैं 8 यहां न ढूंढिये मां को, बहन को, बेटी को बहिश्त है ये, यहां सिर्फ अप्सराएँ हैं 9 कुल्हाड़ी पैर पे मारो ख़ुद अपने हाथों से नये समय की ये ग्लोबल सी मूर्खताएँ हैं 10 जहां से लौट के आने की कोई राह नहीं ये शहरे इश्क की पुरपेंच वो गुफ़ाएँ हैं 11 लिखा है साफ़ यहां सिर्फ जिस्म हैं आते वो जाएं और कहीं जिनकी आत्माएँ हैं 12 पिघल रहा है धड़कनों में जो ये लावा सा ये भावनाएँ हैं या सिर्फ वासनाएँ हैं 13 ये शायरी, ये सुख़न, गीत और ग़ज़ल ये सब लहू से लिक्खी हुई चंद याचिकाएँ हैं 14 बिगड़ रहे हैं जो बच्चे तो घर में झांको ज़रा वहीं से मिलतीं इन्हें सारी प्रेरणाएँ हैं 15 सुफ़ेद खादी में बैठे हैं वो सिंहासन पर गुनाहगार सभी उनके दाएँ बाएँ हैं 16 ये पत्थरों पे शहीदों के नाम जो हैं लिखे हमारे दौर के वेदों की ये ऋचाएँ हैं 17 मैं जिस्म हूं मुझे फितरत मिली है बादल की बरस ही जाउंगा प्यासी जहां ख़लाएँ हैं 18 वो आ गए कभी छत पर कभी नहीं आए कभी बहार का मौसम, कभी खिज़ाएँ हैं 19 बस एक बार इन्हें छू लो अपने पैरों से लहू से दिल के बनाई ये अल्पनाएँ हैं 20 मुहब्बतों के शजर तो तमाम सूख गये घृणा की शेष मगर विष भरी लताएँ हैं 21 उमर जवानी की जिद्दी बड़ी ये होती है उधर ही जाती है जिस ओर वर्जनाएँ हैं 22 हैं बिखरे गेसुए जाना हमारे शानों पर ये ख़्वाब है, के भरम है, के कल्पनाएँ हैं 23 ये बेकली, ये तड़पना, ये जागना, रोना वो कह रहे हैं ये सब आपकी जफ़ाएँ हैं 24 नज़र किसी की जो फिसले तो क्यों नहीं फिसले है चांदनी का बदन, रेशमी कबाएँ हैं 25 सहर है दूर अभी और चराग़ थकने लगे उठो के मांग रहीं ख़ून वर्तिकाएँ हैं 26 जो साधता है जगत को उसी को साध लिया ये गोपिकाएँ नहीं ये तो साधिकाएँ हैं 27 है पास कुछ भी नहीं अब सिवाए यादों के अंधेरी राह में ये ही प्रदीपिकाएँ हैं 28 ज़रा सुरूर में आ जाएं पहले मंत्री जी फिर उसके बाद सुनेंगे जो इल्तिजाएँ हैं 29 यहां न चांद है कोई, न चांदनी कोई यहां युगों से मुसल्सल अमा निशाएँ हैं 30 किया न वादा कोई आज तक कभी पूरा तुम्हारे वादे तो सरकारी घोषणाएँ हैं 31 सफ़र शुरू भी हुआ और सफ़र ख़तम भी हुआ सभी की एक ही जैसी तो पटकथाएँ हैं 32 तिरंगा हाथ में लेकर के गाओ जन गण मन हमारे वास्ते इतनी ही भूमिकाएँ हैं 33 बरस रहा है आसमान खुल के धरती पर प्रणय के रंग में डूबी हुई दिशाएँ हैं 34 दिखा रहे हैं ये टीवी पे आज के चैनल कि नारियां सभी भारत की, मंथराएँ हैं 35 ये चिलमनें ये नक़ाब आग लगा दो सबमें हमें सताने की सारी ये योजनाएँ हैं 36 न हीर है, न है लैला, न कोई है शीरीं न जाने खोईं कहां सारी प्रेमिकाएँ हैं 37 गली है हुस्न की ऐ दिल संभल के चलना यहां क़दम क़दम पे यहां टूटतीं बलाएँ हैं 38 प्रतीक बेटियां होतीं हैं ख़ुशनसीबी का जो देवताओं ने सुन लीं वो प्रार्थनाएँ हैं 39 वही धनक में, घटा, फूल, चांद, तारों में उसी के नूर की फैली हुईं शुआएँ हैं 40 तबीयत उनकी है नासाज़ ख़ुदा ख़ैर करे उन्हीं के पास तो हर मर्ज की दवाएँ हैं 41 मिज़ाज पुर्सी को आए हैं ख़ूब सज धज कर लगे है बख़्श दीं पिछली सभी ख़ताएँ हैं 42 निगाहे नाज़, तबस्सुम, हया, अदा, शोख़ी है एक दिल ये मगर कितनी शासिकाएँ हैं 43 ये इन्तेहा है मुहब्बत की, इन्तज़ार की हद कलिन्दी तट पे खड़ीं अब भी गोपिकाएँ हैं 44 सियासी दल हैं ये जितने भी अपने भारत में वतन को लूट के खाने की संस्थाएँ हैं 45 भुला दिया जिसे बेटों ने है उसी मां के लबों पे बेटों के मंगल की कामनाएँ हैं 46 छुएंगीं जिसको भी उसको हरा ये कर देंगीं भरी भरी सी ये बादल की तूलिकाएँ हैं 47 प्रणय को भोग के दुष्यंत भूल जाता है प्रणय के पाप को ढोतीं शकुन्तलाएँ हैं 48 लगे जो भूख तो चूहों को भून कर खाओ ये कैसा दौर है कैसी विभीषिकाएँ हैं 49 तुम्हारे जिस्म के कोने हैं छू लिये जबसे नशे में डूबी हुईं तब से ये फिज़ाएँ हैं 50 चुनाव जीत के डाकू यहां पे हैं आते निज़ामे मुल्क चलाने की ये सभाएँ हैं 51 शिखा को छू के, झुलस के शलभ ने ये जाना यहां वफ़ाओं के बदले में यातनाएँ हैं 52 अगस्त आई है पन्द्रह, सभी के हाथ में फिर सफ़ेद, लाल, हरी बांझ आस्थाएँ हैं 53 अधूरे ख़्वाब कई साथ में जले उनके जलीं शहीद जवानों की जब चिताएँ हैं 54 कभी तो थम के पलट के कहीं वो देखेंगे के उनके पीछे मेरी बेज़ुबां वफ़ाएँ हैं | 55 उठा के सर को ज़रा गर्व से इन्हें गाओ भगत, सुभाष, तिलक की ये वंदनाएँ हैं 56 हरेक युग में तपस्या को भंग होना है हरेक युग की यहां अपनी मेनकाएँ हैं 57 तुम्हारी याद ये शैतान की भी है ख़ाला इसे तो आतीं सताने की सब कलाएँ हैं 58 उतार लाये जो धरती पे स्वर्ग से गंगा कहां वो तप है, कहां अब वो साधनाएँ हैं 59 वही अंगूठा, वही द्रोण, एकलव्य वही न जाने कब से यही चल रहीं प्रथाएँ हैं 60 अरे ! सुनो तो ज़रा ! एक पल ठहर जाओ ग़रीब दिल की ये मासूम याचनाएँ हैं 61 मचल गया जो कहीं दिल तो फिर न संभलेगा फिज़ा की शह से बग़ावत पे भावनाएँ हैं 62 न जाने धूप को बंदी किया गया है कहां न जाने क़ैद कहां सारी पूर्णिमाएँ हैं 63 वो जिनका कृष्ण कभी लौट कर नहीं आया तमाम उम्र भटकतीं वो राधिकाएँ हैं 64 मिला के ख़ून ग़रीबों का इसमें पीते हैं ये देवलोक से उतरी हुईं सुराएँ हैं 65 उमीद इनसे बग़ावत की मत करो, इनका है इतना सर्द लहू, जम गईं शिराएँ हैं 66 वो कैसी होती हैं बेटी के दिल से पूछो तुम जो घर को छोड़ के जाने की वेदनाएँ हैं 67 ये कौंध कैसी हुई कोई तो बताओ ज़रा वो घर से निकले के चमकीं ये क्षणप्रभाएँ हैं 68 उदास वो हैं तो मेहसूस हो रहा है ये के जैसे चांद की फीकी हुईं विभाएँ हैं 69 वो झूठ है जो पहन के खड़ा है जयमाला ये सच है जिसको मिलीं बस प्रताड़नाएँ हैं 70 चमन में कौन है आया कि जिसके स्वागत में कुहुक रहीं ये मगन हो के कोकिलाएँ हैं 71 दिखा चुके हैं उन्हें चीर के भी दिल अपना मगर बदल न सकीं उनकी धारणाएँ हैं 72 हरी से होने लगी स्याह ये धरती कैसे हवा में, जल में घुलीं कैसी कालिमाएँ हैं 73 हमारी नस्ल को मारोगे गर्भ में कब तक सवाल पूछ रहीं हमसे बालिकाएँ हैं 74 बदन की क़ैद से निकले हैं रूह बन कर हम हमारी राहगुज़र अब निहारिकाएँ हैं 75 अभी भी सोने की सीता महल में रहती है अभी भी वन में भटकतीं जनकसुताएँ हैं 76 जो झूठी राह पकड़ ली तो ऐशो इशरत है चले जो सच की राह पर तो कर्बलाएँ हैं 77 कुछ इनके बारे में भी सोचिये हुजूर के ये हैं भेड़ बकरी नहीं, आपकी प्रजाएँ हैं 78 ख़ुदा के वास्ते तुम तो ठहर के सुन लो इन्हें जिन्हें सुना न किसीने ये वो व्यथाएँ हैं 79 बुढ़ापा आया तो विकलांग हो गये वो ही जो कहते थे मेरे बेटे मेरी भुजाएँ हैं 80 जनकदुलारियों वनवास उम्र भर का है हरेक घर में यहां शोक वाटिकाएँ हैं 81 ये मुल्क वो जहां नायक हैं चंद्रशेखर से जहां पे झांसी की रानी सी नायिकाएँ हैं 82 कहें तो कैसे नगरपालिकाएँ इनको हम है सच तो ये के ये सब नर्क पालिकाएँ हैं 83 जिन्होंने खून है चूसा बहुत ग़रीबों का उन्हीं के गालों पे सूरज की लालिमाएँ हैं 84 वली अहद ही संभालेगा देश की गद्दी जम्हूरियत में भी वो ही विडम्बनाएँ हैं 85 अंधेरी शब में उजाला कहां से फैला ये ये किस हसीन के चेहरे की चन्द्रिकाएँ हैं 86 गुरू बना के सबक हौसलों का लो इनसे हवा से लड़ रहे दीपों की ये शिखाएँ हैं 87 कहीं न उम्र से लम्बी ये रात हो जाये चले भी आओ के अब बुझ रहीं शमाएँ हैं 88 जो तुम कहो तो चलें, तुम कहो तो रुक जाएं ये धड़कनें तो तुम्हारी ही सेविकाएँ हैं 89 मिलन की रात में बरसात जैसा आलम है कहीं चमक तो कहीं घोर गर्जनाएँ हैं 90 न जाने कितने ही सिद्धार्थ घर को छोड़ गये न जाने कितनी ही विरहन यशोधराएँ हैं 91 बदन में मुल्क के नासूर बन के फैल रहीं धरम की, प्रान्त की, भाषा की भिन्नताएँ हैं 92 डरो ज़रा भी न इनसे, हो तुम तो अपराधी नहीं तुम्हारे लिये दंड संहिताएँ हैं 93 यक़ीं है ख़ुद से भी ज्यादा शनी पे मंगल पर ये उंगलियों में तभी इतनी मुद्रिकाएँ हैं 94 ख़तम हुई है कहां अब भी जंगे आज़ादी अभी भी क़ैद में लोगों की चेतनाएँ हैं 95 इन्हें दिखाए न डर कोई राहू केतू का ये लोग फाड़ चुके जन्म पत्रिकाएँ हैं 96 है प्रेम के ही लिये जिन्दगी बहुत छोटी निकाल फैंकिये सब दिल में जो घृणाएँ हैं 97 कहा है नज़्म किसी ने, किसी ने गीत कहा है बात एक ही, कविता की सब विधाएँ हैं 98 उतर भी आइये धरती पे आस्मां से अब धरा पे पाप की हर सिम्त इन्तेहाएँ हैं 99 बसी है यादों में अब तक जो सांवली लड़की उसी के नाम मेरी सारी सर्जनाएँ हैं 100 न गीत है, न है कविता, ग़ज़ल, न छंद कोई ये वीणा पाणी के चरणों की अर्चनाएँ हैं 101 गिरह का शेर ये ज़ुल्फ़े जाना के हैं पेंचो ख़म हसीं या फिर ''फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएँ हैं'' मकता कहे हैं तुमने, रहो मत 'सुबीर' ग़फ़लत में ग़ज़ल के शे'र तो भगवान की कृपाएँ हैं (105 शेर + मतला + मकता + गिरह का शेर = 108 इस प्रकार भभ्भड़ कवि होते हैं श्री श्री 108 ) |
और इस प्रकार आज हम करते हैं अपने वर्षा मंगल तरही मुशायरे का औपचारिक समापन । और जल्द ही अगले दीपावली के मुशायरे के साथ मिलते हैं ( इन्शा अल्लाह ) ।