गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

शिवना साहित्यिकी वर्ष : 4, अंक : 16 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2020

मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी, संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक, शहरयार, सह संपादक पारुल सिंह के संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 16 त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2020 का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है-  आवरण कविता  / अमृता प्रीतम, संपादकीय / शहरयार, व्यंग्य चित्र / काजल कुमार, स्मृति शेष- स्वयं प्रकाश / वीरेन्द्र जैन, एकाग्र- जयनंदन की कहानियाँ / डॉ. नीलोत्पल रमेश, राकेश मिश्र  की कविताएँ  / डॉ. सीमा शर्मा, पुस्तक समीक्षा- अयोध्या से गुजरात तक- भालचन्द्र जोशी / सुशांत सुप्रिय, बाबाओं के देश में- सूर्यकांत नागर / कैलाश मंडलेकर, नई कोंपलें- पारुल सिंह / मोतीलाल आलमचंद्र, मंच पर उतरी कहानियाँ- अनिता रश्मि / कुमार संजय, आईना किस काम का- अनीता रश्मि / जाबिर हुसैन, हरिद्वार का हरि- गोविन्द सेन / महेश शर्मा, बिन पूँजी का धंधा- दीपक गिरकर / अश्विनी कुमार दुबे, एक पाती ऐसी भी- डॉ. ऋतु भनोट / कृष्णा अग्निहोत्री, कोचिंगञ्चकोटा- नवीन कुमार जैन / अरुण अर्णव खरे, दोहों से दोहा ग़ज़लों तक- डॉ. मधुसूदन साहा / ज़हीर कुरेशी, बेहतरीन व्यंग्य- अरुण अर्णव खरे / प्रभाशंकर उपाध्याय, चलो ! अब आदमी बना जाए- अरुण अर्णव खरे / सतीश श्रीवास्तव ‘नैतिक’, इस ज़िन्दगी के उस पार- संदीप ‘सरस’ / राकेश शंकर भारती, इस समय तक- डॉ. नीलोत्पल रमेश / धर्मपाल महेंद्र जैन, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, कारण और निवारण- शैलेन्द्र शरण / शहरयार अमजद ख़ान, पुस्तक चर्चा- ऋणानुबंध / सचिन तिवारी / डॉ. विमलेश शर्मा, शोध आलेख- जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था- जुगेश कुमार गुप्ता, प्रतिभा सिंह, डॉ. रश्मि दुधे, लेखक : पंकज सुबीर। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा बब्बल गुरू, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी। आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 4, अंक : 16, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2020

मित्रो, संरक्षक तथा प्रमुख संपादक सुधा ओम ढींगरा एवं संपादक पंकज सुबीर के संपादन में वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "विभोम-स्वर" का वर्ष : 4, अंक : 16, त्रैमासिक : जनवरी-मार्च 2020 अंक का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- संपादकीय। मित्रनामा। साक्षात्कार- रचना श्रीवास्तव से सुधा ओम ढींगरा की बातचीत। कथा कहानी- डेरा उखड़ने से पहले...!, वन्दना अवस्थी दुबे, स्मृतियों के प्रश्नचिह्न- अंशु जौहरी, घास का मैदान- शेर सिंह, जॉन की गिफ़्ट- पुष्पा सक्सेना, सीप में समुद्र- कविता विकास, सीख- डॉ. पुष्पलता, तुम नहीं समझोगे!- राजगोपाल सिंह वर्मा। लघुकथाएँ- अधूरा लेख- ज्योत्सना सिंह, भीड़- जनगणना, पुखराज सोलंकी, बस अपने लिए- डॉ. संगीता गांधी, गिनीपिग्स, ड्रॉबैक- संतोष सुपेकर। भाषांतर- एंटीक फिनिश, मूल तेलुगु कहानी : अरुणा पप्पु, अनुवाद : आर.शांता सुंदरी, यह दूध तुम्हारा- मूल पंजाबी कहानी- कुलवंत सिंह विर्क, अनुवाद- डॉ. अमरजीत कौंके। व्यंग्य- एक्स इंस्पैक्टर मातादीन टेंशन में- अशोक गौतम, पांडेय जी मौसम और मौसिकी- लालित्य ललित। शहरों की रूह- मनभावन शहर सिडनी की कुछ गलियाँ- रेखा राजवंशी। यात्रा वृत्तांत- दर्रों की घाटी लद्दाख- संतोष श्रीवास्तव। हमारी धरोहर- शादी.....मेरी गुड्डी की- शशि पाधा। नाटक- राम की शक्ति पूजा- महाकवि निराला, डॉ. कुमार संजय। ग़ज़ल- नज़्म सुभाष। कविताएँ- प्रमोद त्रिवेदी, शिफाली पांडेय, रेखा भाटिया, सुमित चौधरी, सुमित दहिया, अमृत वाधवा। नव पल्लव- सुप्रीता झा, गर्भनाल-शुभ्रा ओझा, अनूठे जज़्बात- दर्शना जैन, दोहे- यूथिका चौहान। समाचार सार- शांति गया स्मृति सम्मान, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की प्रदर्शनी, ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान, खंडवा में पुस्तक चर्चा, शमशेर सम्मान, राष्ट्रभाषा भूषण सम्मान, हाउस ऑफ लॉर्ड्स, लघुकथा सम्मेलन, धर्मपाल महेंद्र जैन सम्मानित, कथाक्रम सम्मान, पुस्तकों का लोकार्पण, राष्ट्रीय व्यंग्योत्सव, सृजन संवाद, विमोचन समारोह, आख़िरी पन्ना। आवरण चित्र राजेंद्र शर्मा, रेखाचित्र - अनुभूति गुप्ता, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी, शहरयार अमजद ख़ान, आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्क़रण भी समय पर आपके हाथों में होगा।
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बुधवार, 6 नवंबर 2019

भभ्भड़ कवि भौंचक्के की इस ग़ज़ल के साथ आज दीपावली 2019 के तरही मुशायरे का विधिवत समापन

 दीपावली का त्यौहार अब धीरे-धीरे बीत रहा है। देवप्रबोधिनी एकादशी बस आने को ही है और भभ्भड़ कवि भौंचक्के जाग गए हैं। भौंचक्के इस मुशायरे का समापन कर रहे हैं। असल में इस बार भौंचक्के तो दीपावली के दिन ही आना चाहते थे लेकिन नहीं आ पाए। आने के लिए जागना पड़ता है और भभ्भड़ तो देवों के साथ ही जागते हैं। ख़ैर जो भी हो आज हम विधिवत मुशायरे का समापन करेंगे। भभ्भड़ कवि जैसी की उनकी बुरी आदत है, कि छोटी ग़ज़ल नहीं कह पाते हैं, आते हैं तो अपनी पूरी भड़ास निकाल कर ही जाते हैं। इस बार तो मन्सूर अली हाश्मी जी ने बाक़ायदा उनको आमंत्रित भी कर दिया है।
मन्सूर अली हाश्मी
क़ित्आत:
द्विज आये नही,  इस्मत न पारूल के हुए दर्शन
न जल पाये ये दीपक तो दीये कैसे तलाशेंगे?
निभाना ही पड़ेगा तुमको वादा इस दफा ए मित्र
तुम्हें भभ्भड़ कवि हम अंक में अगले तलाशेंगे
तो जब आमंत्रित कर ही दिया है तो ज़ाहिर सी बात है कि झेलना भी पड़ेगा और साथ में भले ही बिना मन के ही सही पर दाद भी देनी ही पड़ेगी। चूँकि बुलाया गया है तो अब झेलना ही पड़ेगा भभ्भड़ कवि भौंचक्के को। ग़ज़ल इतनी लम्बी है कि अभी सुनना शुरू करेंगे तो देव प्रबोधिनी एकादशी आ ही जाएगी। तो सुनिए भभ्भड़ कवि भौंचक्के की यह ग़ज़ल।

उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे



भभ्भड़ कवि 'भौंचक्के' 

कभी फिर लौट कर इस इश्क़ के क़िस्से तलाशेंगे
पुराने पानियों में चाँद के टुकड़े तलाशेंगे

नहीं अब ज़िंदगी भर दूसरा कुछ काम करना है
वो जब मिल जाएगा तो उसको ही फिर से तलाशेंगे

अब इसके बाद मौसम हिज्र का आएगा, ये तय है
अब इसके बाद हम इस वस्ल के पुर्ज़े तलाशेंगे

तुम्हारे लम्स भी शायद हों इस यादों की गुल्लक में
कभी तोड़ेंगे इसको और वो सिक्के तलाशेंगे

ये बच्चे चहचहा के, चुग के उड़ जाएँगे कल और हम
फिर उसके बाद बस बीते हुए लम्हे तलाशेंगे

मिलेगा सिर्फ़ सन्नाटा किसी शहर-ए-ख़मोशाँ का
हमारे बाद जब घर में हमें बच्चे तलाशेंगे*

तुम्हारी बज़्म से उठ कर चला जाऊँगा कल जब मैं
तुम्हारी बज़्म में सब फिर मेरे नग़मे तलाशेंगे

तेरे माथे की बिंदिया में तलाशेंगे कभी सूरज
तेरी आँखों की झिलमिल में कभी तारे तलाशेंगे

सितारों के जहाँ में जा के बस जाओ भले ही तुम
तुम्हें फिर भी तुम्हारे चाहने वाले तलाशेंगे

है मंज़िल एक ही पर मज़हबों के फेर में पड़ कर
सफ़र के वास्ते सब मुख़्तलिफ़ रस्ते तलाशेंगे

बड़ी क़िस्मत से हमको है मिला फ़ुर्सत का पूरा दिन
चलो यूट्यूब पर गुलज़ार के गाने तलाशेंगे

कहानी है सभी की ये, सभी का है यही क़िस्सा
तलाशेंगे तो खो देंगे, जो खो देंगे, तलाशेंगे

बदन इक कड़कड़ाता नोट है बचपन के हाथों में
जवानी आएगी तो नोट के छुट्टे तलाशेंगे

तलाश अपनी अज़ल से अब तलक जारी मुसलसल है
ख़ुदा तुझको क़यामत तक तेरे बन्दे तलाशेंगे

तुम्हारे चाहने वाले तुम्हारी दीद की ख़ातिर
गुमी हो चीज़ घर में पर उसे छत पे तलाशेंगे

पता तो दूर उसका नाम तक भी तो नहीं पूछा
बताएँ हज़रत-ए-दिल अब उसे कैसे तलाशेंगे

बुझा दें चाँद का कंदील और तारों के सब दीपक
"उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे"

वही चेहरा कि जिसकी इक झलक ही देख पाए बस
'सुबीर' उसको ही अब ताउम्र ढूँढ़ेंगे, तलाशेंगे

* नीरज गोस्वामी जी से उधार लिया हुआ मिसरा


अब इतनी लम्बी ग़ज़ल पर अपने तो बस की नहीं कि पूरी भी पढ़ें और टिप्पणी भी करें अगर आप लोगों को कोई शेर ठीक-ठाक लगा हो तो औपचारिकता पूरी कर दें। नहीं भी देंगे दाद तो कोई बात नहीं, अगले को ख़ुद ही सोचना था कि इत्ती लम्बी ग़ज़ल भी कही जाती है भला ? 
तो मित्रों दीपावली का यह तरही मुशायरा अब विधिवत समाप्त घोषित किया जाता है। इस बार भी हमेशा की तरह बहुत उल्लास और आनंद का माहौल रहा। ख़ूब अच्छे से लोगों ने आकर यहाँ अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। कोशिश करते हैं कि अब अगले मुशायरे के लिए इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़े और हम जल्दी-जल्दी मिलते रहें। तो मित्रों मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में। 





सोमवार, 4 नवंबर 2019

आज सुनते हैं नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाएँ।

 
बासी दीपावली का दौर जारी है, और अभी तो कार्तिक पूर्णिमा तक हम दीपावली का यह दौर जारी रखेंगे। इस बार बहुत अच्छी ग़ज़लें सामने आई हैं। बहुत अच्छे से लोगों ने मिसरे और पर्व दोनों की भावनाओं के अनुरूप ग़ज़लें कही हैं। आज हम बासी दीपावली का क्रम ही आगे बढ़ा रहे हैं। आज दो रचनाकार जो इस तरही में पूर्व में भी आ चुके हैं, अपनी नई रचनाओं के साथ साथ आ रहे हैं वहीं नवीन चतुर्वेदी जी आज अपनी ब्रज ग़ज़ल के साथ आ रहे हैं। दीपावली का यह त्यौहार मनाया जा रहा है और अभी आगे भी और कुछ रचनाएँ आप सब को सुनने को मिलेंगी। आज सुनते हैं नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाएँ।

 
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे 
 

 
नवीन चतुर्वेदी 
 


अगर मीठे नहीं मिल पाए तौ खारे तलासिंगे।
मगर यह तय रह्यौ बस प्रीत के धारे तलासिंगे।।
अभी तक कौ दही-माखन तौ सिगरौ लुट गयौ भैया।
चलौ फिर सों नये कछु मोखला-आरे तलासिंगे।।
परी है गेंद कालीदह में हमरे जीउ की, ता पै।
हमारौ सोचनों कि ढूँढिवे वारे तलासिंगे।।
प्रयोजन के नियोजन कों समुझि कें का करिंगे हम।
महज हम तौ शरद पूनम के उजियारे तलासिंगे।।
हमारे हाथ के ये रत्न तौ ड्यौढ़ी में जड़ने हैं।
कँगूर’न के लिएँ तौ और हू न्यारे तलासिंगे।।
अनुग्रह की पियाऊ ठौर-ठौर’न पै जरूरी हैं।
तपन बढिवे लगैगी तौ थके-हारे तलासिंगे।।


ब्रज भाषा एक तो वैसे ही मीठी होती है, उस पर ग़ज़ल की नफ़ासत... उफ़्फ़.. जानलेवा। नवीन जी ने क़ाफ़िये में परिवर्तन करते हुए ए की मात्रा के स्थान आरे की ध्वनि को लिया है। मतले में ही प्रीत के धारे बहुत सुंदर प्रयोग हुआ है। कृष्ण का नाम लिए बिना ही अगला शेर पूरा कृष्ण को सम​र्पित सा लग रहा है। और अगला शेर जिसमें दर्शन शास्त्र और अध्यात्म का रंग है बहुत खूब है गेंद और कालीदह का प्रतीक बहुत अच्छा है। और कृष्ण के महारास की शरद पूर्णिमा के उजियारों की तलाश करता शेर सुंदर बना है। ड्यौढ़ी और कंगूरों का द्वंद्व अगले शेर में बहुत अच्छे से उभरा है। और अंतिम शेर भारतीय परंपरा की सबसे सुंदर बात अनुग्रह के बारे में सुंदरता से बात कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

मन्सूर अली हाश्मी


यक़ीनन ही तलाशेंगे, तलाशेंगे, तलाशेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
पुरानों ने दिया धोखा नये चमचे तलाशेंगे
जो अपनों ही से हारे तो नये गमछे तलाशेंगे
पदौन्नत हो ही जाएंगे, जो हाँ में हाँ मिलायी तो
अगर बदला ज़रा भी स्वर, उड़नदस्ते तलाशेंगे
भरम बाबाओं से टूटा नही है सब गंवा कर भी
उम्मीदें जब तलक क़ायम नये हुजरे तलाशेंगे
है ये निर्लज्जता का दौर अब मजनूँ नही मरते
नई लैला, नई गोपी, नये मटके तलाशेंगे
चला ना काम ईवीएम से, धन से और बल से तो
दुहाई दे के धर्मों की नये रस्ते तलाशेंगे
न मेलों में न रैलों में न कूचों में न खेलों में
ज़माना नेटवर्कों का, जी गूगल पे तलाशेंगे
अरे ओ हाश्मी साहब कहां खोये हो सपनो में
निकल भी आओ अब बाहर तुम्हें बच्चे तलाशेंगे 


मैंने भी नहीं सोचा था कि रदीफ़ तो स्वयं ही क़ाफिया बन सकता है। और मतले में उसका तीन बार प्रयोग क्या बात है... ग़ज़ब ही प्रयोग है। हुस्ने मतला में हाशमी जी अपने व्यंग्य के पुट को लिए हुए उपस्थित हैं। उड़नदस्ते का प्रयोग वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर तीखा प्रहार कर रहा है। बाबाओं की दुकानदारी और लोगों के मोह पर अगले शेर में खूब व्यंग्य कसा गया है। और मजनूँ के नहीं मरने की बात जैसे हमारे पूरे समय पर एक गहरा व्यंग्य है। मेलों और कूचों की बात कर के जैसे दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मकते का शेर भी बहुत अच्छा बना है। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।

राकेश खण्डेलवाल


बरस के बाद भेजी है जो तरही मान्य पंकज ने
नहीं स्वीकार वो हमको मगर फिर भी निभा लेंगे
उजाले तो नहीं निर्भर शमाओं दीप पर, फिर क्यों
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

अखिल ब्रहमाण्ड में गूंजा हुआ है जो प्रथम अक्षर
उजालों से दिया उसने अतल को और भूतल भर
उसी आलोक सेपूरित रहे नक्षत्रे भी ग्रह भी
उसी ने प्रीत जोड़ी है उजालों से यों नज़दीकी
अंधेरे हों अगर तो देख यह ख़ुद को मिटा लेंगे
भला फिर किसलिए हम कोई दीये को तलाशेंगे

हमारा तन बदन भी एक उस आलोक से दीप्ति
हमारे प्राण भी तो हैं उजालों से ही संजीवित
हमारी दृष्टि का भ्रम है, उजाले ढूँढते हैं हम
हम हैं कस्तूरियों के मृग भटकते रह गए हर दम
हमारी सोच के भ्रम से हमी ख़ुद  को निकालेंगे
तो फिर क्यों दीप कोई भी उजालों को तलाशेंगे

हमारे स्वार्थ ने डाले हुए  पर्दे उजालों पर
चुराते अपना मुख हम आप ही अपने सवालों पर
अगर निश्चय हमारा हो. न छलके बूँद भी तम को
मिली वासुदेव को हर बार ख़ुद ही राह गोकुल की
दिवस में भी निशा में भी डगर अपनी बना लेंगे
नहीं हम फिर उजाले को कोई दीपक तलाशेंगे


राकेश जी के गीत इस बार पूरी तरही में हमारा साथ दे रहे हैं। इस गीत की शुरूआत में ही उन्होंने जैसे इस ब्लॉग की परवाह करते हुए एक वर्ष के अंतराल पर आयोजित आयोजन को लेकर परिवार के बुज़ुर्ग की तरह डाँट पिलाई है। यह प्रेम भरी डाँट सिर आँखों पर। पहला ही बन्द अक्षर की महिमा का वर्णन कर रहा है। वह अक्षर जो की प्रथम नाद के रूप में सृष्टि का आधार है। उस प्रथम स्वर के बाद प्रथम आलोक की बात करता हुआ दूसरा बंद। वह प्रथम आलोक जो समूचे ब्रहृमाण्ड में व्याप्त है। और अंत में एक बार फिर अध्यात्म की ओर मुड़ कर गीत चरम को छू लेता है। बहुत ही ही सुंदर रचना वाह वाह वाह। 


तो आज नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाओं का आनंद लीजिए। दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए कि शायद अगली बार भभ्भड़ आ रहे हों। 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए

 
बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। देर से आने वाले यात्री दौड़ते हुए आते हैं और अगले स्टेशन पर गाड़ी पकड़ते हैं। लेकिन हमारे लिए सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही दौड़ते हुए आएँ मगर आते ज़रूर हैं और सबके मन में गाड़ी को पकड़ने की चिंता ज़रूर रहती है। और हम उनके साथ ही मनाते हैँ दीवाली का जश्न। इस बार भी यात्री आ रहे हैं और हमारा बासी दीपावली मनाने का इंतज़ाम होता जा रहा है। वैसे भी कार्तिक पूर्णिमा तक तो दीपावली का त्यौहार चलता ही है। अभी तो छठ पर्व सामने है, उसके बाद देव प्रबोधिनी एकादशी उसके बाद कार्तिक पूर्णिमा। सब एक के बाद एक आने हैं। तो आइए आज की बासी दीपावली मनाते हैं नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ।


उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

नुसरत मेहदी
 

ज़मीं के साथ हम दिल के वही रिश्ते तलाशेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
रिवायत की मुंडेरों पर दीयों की जगमगाहट में
नए इमकान ढूँढ़ेगे, नए सपने तलाशेंगे
हुनर से और तख़य्युल से इसी मिट्टी में कूज़ागर
नई तख़लीक़ ढूँढ़ेगे, नए कूज़े तलाशेंगे
बड़े-बूढ़े अंधेरों में यहां क़न्दील आंखों से
नए किरदार ढूँढ़ेगे, नए चेहरे तलाशेंगे
चराग़-ए-जुस्तुजू लेकर हमारे संत और सूफ़ी
नए दरवेश ढूँढ़ेगे, नए विरसे तलाशेंगे
ये तहज़ीबें यही क़दरें असासा हैं इन्ही में हम
नए मज़मून ढूँढ़ेगे, नए क़िस्से तलाशेंगे
वतन की फ़िक्र रौशन है, इन्हीं जज़्बों में हम नुसरत
नई तामीर ढूँढ़ेगे, नए नक़्शे तलाशेंगे


वाह क्या कमाल की तकनीक का उपयोग किया गया है पूरी ग़ज़ल में। मिसरा सानी एक ही पैटर्न पर नए अर्थों और शब्दों के साथ सामने आ रहा है। रदीफ़ और क़ाफ़िये की ध्वनि के साथ मिसरा सानी का पैटर्न भी दोहराया जाना, यह अनूठा प्रयोग है। मतले में कमाल तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। ज़मीं के साथ रिश्ते तलाश करने की कोशिश में हम मिट्टी के दियों तक ही पहुँचते हैं। अगला ही शेर जैसे हमें परंपराओं की पुरानी हवेली में ले जाता है जहाँ हम नम आँखें लिए सपने तलाशने लगते हैं। साहित्य को परिभाषित करता हुआ अगला शेर जहाँ हुनर और तख़य्युल दोनों के संतुलन की बात कही गई है। सच में केवल हुनर से ही सब कुछ नहीं होता। उफ़ अगले शेर में आया हुए कन्दील आँखों का प्रयोग... ग़ज़ब। जैसे कई सारे चेहरे उभर कर सामने आ गए हों। संतों और सूफ़ियों की तलाश को शब्द प्रदान करता अगला शेर पूरी परंपरा को उजागर कर देता है। और अगले ही शेर में तहज़ीबों के रास्ते नए मज़मून नए क़िस्सों की तलाश। वाह क्या बात है। मकते के शेर में देश के प्रति अपनी चिंता को नई तामीर और नए नक़्शों के द्वारा बहुत ही सुंदर तरीक़े से व्यक्त किया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह। 
 
 


डॉ. मुस्तफ़ा माहिर


तेरी आंखों में अपनी आंख के सपने तलाशेंगे।
जो जाएं मन्ज़िलों तक हम वही रस्ते तलाशेंगे।
भले वो कर रहे हैं वायदा सूरज उगाने का,
'उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।'
जो ख़ाने हो गए ख़ाली उन्हें भरना ज़रूरी है,
पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे।
ज़माने से कहो दिल की निगाहें काम आएंगी,
ज़माना पूछता है हम उन्हें कैसे तलाशेंगे।
मैं वो हूँ जो सभी के होंट पर धरता था मुस्कानें
तलाशेंगे मुझे तो दर्द के मारे तलाशेंगे।
ज़रा भी मैल हो दिल में तो वो मिल ही नहीं सकता,
खुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे।
ये सोहबत का है जादू इस तरह जाने नहीं वाला,
तुम्हारी गुफ़्तगू में सब मेरे जुमले तलाशेंगे।
गुले नरगिस निगाहे आम से तो बच गया माहिर
मगर ये तय है इक दिन हम-से दीवाने तलाशेंगे।


मुस्तफ़ा ने मतले के साथ ही जो आग़ाज़ किया है, उससे ही ग़ज़ल की परवाज़ का पता चल जा रहा है। किसी की आँखों में अपने सपने तलाश लेना, प्रेम को इससे सुंदर तरीक़े से और क्या व्यक्त किया जा सकता है। अगले ही शेर में गिरह को गहरे राजनैतिक कटाक्ष के साथ बाँधा है। सूरज उगाने का वादा करने वाले अंततः मिट्टी के दीपक ही तलाशते हैं। एक बिलकुल नए तरह से बाँधी गई गिरह। पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे, किसी उस्ताद के अंदाज़ में कहा गया मिसरा है ये। ग़ज़ब। और दिल की निगाहों वाले शेर में उस्तादों वाला अंदाज़ और ऊँचाई पर गया है। मैं वो हूँ जो, यह शेर कितनी सुंदरता के साथ बात कर रहा है, अपने होने की बात करता हुआ शेर। ख़ुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे, ग़ज़ब कहन। मिसरा सानी और ऊला के बीच क्या ग़ज़ब तारतम्य। और प्रेम के रस में डूबा अगला शेर और उस शेर में सोहबत का जादू... वाह वाह वाह क्या कमाल। मकते का शेर एक बार फिर कमाल बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। एक-एक शेर बोलता हुआ है। वाह वाह वाह। 


मन्सूर अली हाश्मी 


"उजालो के लिये मिट्टी के.... कब दीये तलाशेंगे?" को प्रश्न वाचक बनाया तो निम्न रुप सामने आया है।

दिए जो कैकयी माँ को, निभा लें वो वचन पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है क्या ख़तरात 'रेखा पार करने' का समझ लें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है शुर्पनखा अगर आहत तो उसको प्यार दें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यह शबरी फल लिये बैठी है इसको तार लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है स्वर्णिम मृग या मृगतृष्णा ये पहले जान तो लें हम
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
विभीषण कौन है यह जान लें पहचान लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
वफ़ादारी ए लक्ष्मण को समझ तो लें ज़रा पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
तपस्या को समझना है तो पहले तू भरत बन जा
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
हनुमानी इरादा कर ले, गर लंका जलानी है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है मुंह में राम जो तेरे, बगल में भी उन्हीं को रख
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
दशानन अपने मन में बैठा उसको मार ले पहले
उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
अभी 'अग्निपरीक्षा' की घड़ी भी आने वाली है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


एक बिलकुल नए ही तरीक़े का प्रयोग है ये। रामायण को आधार बना कर मिसरा ऊला में प्रश्न और मिसरा सानी में तरही मिसरे के साथ उसका उत्तर। कैकयी के वचन, लक्ष्मण रेखा को पार करने के ख़तरे, शूर्पनखा का आहत होना, शबरी के बेर, सोने का मृग, विभिषण का संत्रास, लक्ष्मण की निष्ठा, लंका जलाने के लिए हनुमान का इरादा, दशानन और अग्नि परीक्षा। ऐसा लगता है जैसे रामचरित मानस का लघु रूप पढ़ रहे हैं हम। हर बात को तरही मिसरे के साथ जोड़ देना। बहुत ही कमाल, वाह वाह वाह। 


आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए। दाद देते रहिए और प्रतीक्षा कीजिए बासी दीपावली के अगले अंकों की। अभी राकेश खंडेलवाल जी के कुछ और सुंदर गीत आने हैं, और हाँ भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी शायद इस बार आ ही जाएँ। 

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। आज राकेश खण्डेलवाल जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, नीरज गोस्वामी जी और सौरभ पाण्डेय जी के साथ मनाते हैं दीपावली का यह त्यौहार।



आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। इस बार दीपावली में जब बाज़ार जाएँ, तो इस बार देखें अपने आसपास कि क्या सुंदर परिकल्पना है इस त्यौहार की, कि समाज के हर वर्ग, हर प्रकार के व्यवसायी, हर प्रकार के श्रमिक, हर किसी के लिए यह त्यौहार कुछ न कुछ लाया है। यदि और ग़ौर से देखेंगे तो पाएँगे कि सड़क के किनारे बैठ कर खील-बताशे बेचने वाली बूढ़ी सुखिया देवी से लेकर, जगमगाती ज्वैलरी शॉप में बैठे स्वर्णकार तक, सब मिलकर एक प्रकाश स्तंभ को रच रहे हैं। इस प्रकाश स्तंभ में अलग-अलग स्तरों पर सब अपने-अपने दीपक लिए खड़े हैं। सब एक-दूसरे से जुड़े हैं, इस प्रकार कि उस जुड़ाव का जोड़ दिखाई ही नहीं देता। प्रकाश द्वारा लगाया गया जोड़ आत्मा के स्तर पर होता है, इसलिए वो दिख भी नहीं सकता। भारतीय संस्कृति द्वारा समाज के हर व्यक्ति के सहयोग से बनाए गए इस प्रकाश स्तंभ का नाम ही होता है दीपावली। दीपावली का समग्र अर्थ है परिजन, नातेदार, रिश्तेदार, परिचित, मित्र, पड़ोसी.. वे सब जिनसे मिलकर हम ‘मैं’ से ‘हम’ हो जाते हैं। प्रकाश का अर्थ ही है ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर बढ़ना। दीपावली हमारे जीवन में आकर हमें ‘मैं’ से ‘हम’ हो जाने का ही पाठ पढ़ाती है। आइए इस दीपावली को ‘मैं’ से ‘हम’ और ‘हम’ से ‘हम सब’ की ओर बढ़ें... बढ़ते रहें... बढ़ते ही रहें। 



उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे




राकेश खण्डेलवाल


चले ये सोच कर भारत, वहाँ छुट्टी मना लेंगे
पुरानी याद जो छूटी हैं गलियों में उठा लेंगे

वहाँ पर पाँव रखते ही नयन के स्वप्न सब टूटे
जो कल परसों की छवियाँ थी सभी इतिहास में खोई
कहीं दिखता न पअपनापन उमड़ती बेरुख़ी हर सू
नई इक सभ्यता के तरजुमे में हर ख़ुशी खोई
वो होली हो दिवाली हो, कहें हैप्पी मना लेंगे
मिलेंगे वहात्सेप्प संदेश तो आगे बढ़ा देंगे

कहीं भी गाँव क़सबे में, न परचूनी दुकानों पर
खिलौने खाँड़ वाले साथ बचपन के, नहीं दिखते
न पूए हैं मलाई के, न ताजा ही इमारती हैं
जिधर देखा मिठाई के चिने डिब्बे ही बस सजते
यहाँ जो मिल रहा उसको वहीं फ्रिज से उठा लेंगे
चलें मन हम ये दीवाली जा अपने घर मना लेंगे

हमारे पास हैं मूरत महा लक्ष्मी गजानन की
घिसेंगे सिल पे हम चंदन, सज़ा कर फूल अक्षत भी
बना लेंगे वहीं पूरी कचौड़ी और हम गुझिया
बुला कर इष्ट मित्रों को मनेगी अपनी दिवाली
पुरानी रीतियाँ को हम पुनः अपनी निभा लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
पुराने बाक्स से लेकर उन्हें फिर से जला लेंगे


आज की दीपावली के लिए इससे अच्छा और क्या गीत हो सकता है। प्रवास में बसे हुए गीतकार को जब अपना देश याद आता है तो अपने आप ही गीत बन पड़ता है। पहले ही बंद में सोशल मीडिया के कारण त्यौहारों का जो हाल है उस पर विदेश में बैठा हुआ कवि भावुक होकर अपनों को याद कर रहा है। दूसरे बंद में एक बार फिर स्मृतियों के गलियारे में भटकते हुए वही बातें याद आ रही हैं। वो मिठाई की दुकानें जो बचपन की यादों में बसी हुई हैं पर अब जो कहीं नहीं हैं, वह सारी दुकानें कवि को याद आ रही हैँ। और अंतिम बंद में वहीं विदेश में ही प्रवास के दौरान कवि मन अपनी दीवाली को मनाने का तरीके तलाश कर अपने आप को दिलासा दे रहा है। बहुत अच्छा गीत वाह वाह वाह। 


तिलक राज कपूर

सभी परिवार में, हिस्‍से अगर, अपने तलाशेंगे
नहीं दिन दूर, जब तन्‍हाई में, रिश्‍ते तलाशेंगे।
हम अपने अनुभवों की खुश्‍बुएँ भर दें किताबों में
इन्‍हीं में दृश्‍य अनदेखे, कई बच्‍चे तलाशेंगे।
समय के साथ सीखा है गरल पी कर भी जी लेना
हमारे बाद कैसे आप हम जैसे तलाशेंगे।
इन्‍हीं गलियों से होकर, रोज ही, गुजरा हूँ मैं, लेकिन
मुझे अब से, दरीचे और दर, इनके तलाशेंगे।
कभी फुर्सत मिलेगी तो चलो हम साथ बैठेंगे
बिताये थे जो मिलकर फिर वही लम्हे तलाशेंगे।।
यहाँ हर पल नये संबंध बनते और मिटते हैं
हमेशा के लिये संबंध हम कैसे तलाशेंगे।
चले आओ, अंधेरी कोठरी, यादों भरी खोलें
“उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे”।

मतले के साथ ही जैसे हमारे ख़राब होते समय पर जैसे हम सब की पीड़ा को व्यक्त कर दिया गया है। सच में हिस्से और अपने में से हमें कुछ एक ही मिलना है। ओर अनुभव की ख़ुशबुओं से किताबों को आने वाली पीढ़ी के लिए महका देने की भावना तो एकदम कमाल है। और कमाल के शेर में जो बात कही गई है कि गरल पीने वालों को कल बस तलाशती ही रह जाएगी यह दुनिया। वाह। गलियों दरीचों वाला शेर तो जैसे कलेजे को चीर कर अंदर उतरता चला गया है। यह मुशायरे का हासिल है। हमेशा मिटने और बनने वाले दौर में स्थाई की तलाश करना सच में बेमानी है। और अंत में गिरह का शेर भी एकदम कमाल है। लेकिन जो शेर मैं अपने साथ लिए जा रहा हूँ वह तो वही है मुझे अब से दरीचे और दर इनके तलाशेंगे। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।


गिरीश पंकज

अंधेरा भाग जाएगा हमी रस्ते तलाशेंगे
"उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे"
बुरे लोगों की है बस्ती मगर विश्वास है हमको
मिलेंगे लोग अच्छे हम अगर अच्छे तलाशेंगे
चलो चलते चलो इक दिन ज़माना साथ आएगा
अभी जो दूर हैं हमको वही अपने तलाशेंगे
बना दें राह उजली हम चले जिस पे नई दुनिया
हमारे बाद वो रस्ते नये बच्चे तलाशेंगे
जो हैं खुद्दार वो भूखे मरेंगे झुक नहीं सकते
कभी दरबार में जाकर नहीं टुकड़े तलाशेंगे
अगर टूटेगा इक सपना नया फिर से गढ़ा जाए
हमारा हौसला है नित नये सपने तलाशेंगे
अंधेरा दूर करने एक दीया ही बहुत पंकज
 मगर हर हाथ में दीपक लिये बंदे तलाशेंगे

मतले में ही बहुत सुंदर तरीक़े से अत्यंत सकारात्मक गिरह बाँधी है। गिरीश जी पिछले दिनों अस्वस्थ रहे उसके बाद भी सबसे पहली ग़ज़ल हमेशा की तरह उनकी ही प्राप्त हुई। अगले ही शेर में सकारात्मकता अपनी चरम पर है अच्छे लोगों की तलाश करेंगे तो अच्छे ही मिलेंगे, जीवन का इससे अच्छा मंत्र और क्या हो सकता है। पूरी ग़ज़ल सकारात्मकता से भरी हुई हे अपने से बाद में आने वाली पीढ़ी के लिए उजालों को  छोड़ना वाह क्या सोच है। जो हैं खुद्दार वाला शेर मुझे स्तब्ध कर गया। किसी मामले में अनिर्णय की स्थिति में था, लेकिन इस शेर ने जैसे मुझे निर्णय का हौसला प्रदान कर दिया। शुक्रिया इस शेर के लिए। आगे के दोनों शेर जैसे हौसलों के शेर हैं। जीवन के संघर्ष में हमेशा लड़ते रहने का हौसला देते हुए। वाह वाह वाह क्या सुंदर ग़ज़ल है। गिरीश जी के पूर्ण स्वस्थ होने की हम सब की तरफ़ से मंगल कामनाएँ। 


नीरज गोस्वामी

बिना दस्तक जो खुल जाएँ वो दरवाज़े तलाशेंगे
जो रिश्तों को हैं गर्माते वो दस्ताने तलाशेंगे
वो जो कुछ बीच था अपने न जाने क्यों कहाँ छूटा
चलो वादा करें दोनों उसे फिर से तलाशेंगे
समाये तू अगर मुझमें समा मैं तुझ में गर जाऊँ
बता दुनिया में हम को लोग फिर कैसे तलाशेंगे
हज़ारों फूल कलियाँ तितलियाँ देखो हैं गुलशन में
मगर कुछ सरफिरे केवल यहाँ कांटे तलाशेंगे
अंधेरों को मिटाने में रहा नाकाम जब सूरज
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यही खूबी हमारे दुश्मनों की हमको भाती है
हमेशा हार कर भी वार के मौके तलाशेंगे
समझना तब हकीकत में ये दुनिया जीत ली तूने
कि तेरे बाद जब घर में तुझे बच्चे तलाशेंगे 

नीरज जी का अपना ही अलग अंदाज़ होता है वे जिस प्रकार कहते हैं उसका कोई मुकाबला नहीं है। मतले में ही अंदाज़ लग जाता है कि क्या कमाल की ग़ज़ल कही जाने वाली है। मतला पूरी तरह से नीरज जी के रंग में रँगा हुआ है।क्या ख़्याल है। अगले ही शेर में वो जो कुछ बीच में था उसके छूटने और फिर से तलाशने की बात बहुत कमाल है। एक दूसरे में समा जाने की कल्पना बहुत ही कमाल है। सच में इसके बाद एक-दूसरे को तलाशने की बात सुंदर है कौन तलाश सकता है ।और नकारात्मकता पर गहरा व्यंग्य कसता हुआ शेर जिसमें कुछ सिरफिरों द्वारा केवल कांटे तलाश किए जाने की बात कही गई है। अंधरों को मिटाने में नाकाम रहे सूरज की गिरह जैसे हमारे समय पर एक गहरा राजनैतिक व्यंग्य है।  और दुश्मनों की प्रशंसा में कहा गया शेर नीरज जी के ही बस की बात है। क्या सलीक़े से दुश्मनों को लपेटा है। और अंतिम शेर एक बार फिर आँखें भिगो देता है, जैसे तिलक जी के शेर ने किया था वही इस शेर ने किया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 


सौरभ पाण्डेय

सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे
इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे 
अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अब भी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे
किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
हृदय में भाव था उसने निछावर कर दिया खुद को
मगर सोचो कि उसके नाम अब कितने तलाशेंगे ?
चिनकती धूप से बचते रहे थे आजतक, वो ही-
पता है कल कभी जुगनू, कभी तारे तलाशेंगे
मुबारक़ हो उन्हें दिलकश पतंगों की उड़ानें पर
इधर हम घूमते ’सौरभ’ बचे कुनबे तलाशेंगे 

मतले में ही जीवन की छूटी हुई डोर के सिरों को पकड़ कर यादों के गलियारे में भटकने का बहुत ही सुंदर प्रयोग है। और अगले ही शेर में बहुत ही कमाल के जोड़ के साथ गिरह बाँधी गई है। एक गहरा राजनैतिक व्यंग्य है इस शेर में । बहुत ही कमाल निर्वाह हुआ है तरही मिसरे का। और अगला शेर एक बार फिर से राजनैतिक कटाक्ष से भरा हुआ है। लेकिन अगले शेर में प्रेम के उस पड़ाव का बहुत सुंदर ​चित्रण है जिस पड़ाव में आकर प्रेम छीजने लगता है। परदे चादर और तकिये का प्रयोग ग़ज़ब है। अगला शेर देश प्रेम को समर्पित शेर है। और कुर्बानी की बात को बहुत अच्छे से महिमा प्रदान करता है। चिलकती धूप से बचने वालों को जुगनू और तारे तलाश करना वाह सुंदर प्रयोग। मकते का शेर भी बहुत सुंदर है। सच में यहाँ दो प्रकार के लोग होते हैं एक वो जो उड़ते हैं और दूसरे वो जो ज़मीन से जुड़ रहते हैं। शायर दूसरे प्रकार का होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 




आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। आज राकेश खण्डेलवाल जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, नीरज गोस्वामी जी और सौरभ पाण्डेय जी के साथ मनाते हैं दीपावली का यह त्यौहार। आप सब स्वस्थ रहें, सुखी रहें और परिवार के साथ इसी प्रकार त्यौहारों पर आनंद करते रहें।

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