बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

होली का रंग हवाओं में उड़ने लगा है, टेसू दहक कर कह रहे हैं कि आ जाओ होली में हमारे रंग रँग जाओ और हम तीन शायरों सुधीर त्यागी, प्रकाश पाखी तथा बासुदेव अग्रवाल नमन के हाथों में थमा रहे हैं पिचकारी।

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त्योहार होते क्या हैं ? कुछ नहीं बस एक उमंग को अपने दिल में भर कर अपनों के साथ आनंदित होने का अवसर होते हैं। तो इसको मतलब यह कि दो बातें किसी भी त्योहार को मनाने के लिए सबसे ज़रूरी होती हैं, सबसे पहले तो मन में उमंग हो और दूसरा अपनों का संग हो। हमारे तरही मुशायरे में भी यही दो बातें आवश्यक होती हैं। यहाँ आकर मन में उमंग आ जाती है और ढेर से अपनों का संग तो यहाँ हर दम हम सब को मिलता ही है। यह अलग बात है कि अब कुछ लोग त्योहारों की मस्ती में शामिल होने के बजाय साइड में कुर्सी लगाकर बैठ कर देखना पसंद करते हैं। इन देखने वालों का भी अपना महत्व होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कार्यक्रम स्थल तक नहीं आकर केवल अपने घर की खिड़की को अधखुला रख कर इस प्रकार देखते हैं कि उनको देखते हुए कोई देख न ले। हमारे लिए वे सब महत्वपूर्ण हैं, हमारा काम इन सबसे ही मिलकर चलता है। तो आइये अब होली के इस आनंद उत्सव को और आनंद से भर देते हैं। हमारे आस पास जो कुछ है उसे अपने रंग में रँग लेते हैं और हम उसके रंग में रँग जाते हैं। आइये होली मनाते हैं।

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इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

होली का रंग हवाओं में उड़ने लगा है, टेसू दहक कर कह रहे हैं कि आ जाओ होली में हमारे रंग रँग जाओ और हम तीन शायरों सुधीर त्यागी, प्रकाश पाखी तथा बासुदेव अग्रवाल नमन के हाथों में थमा रहे हैं पिचकारी।

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सुधीर त्यागी

टपकती छत, गरीबी, नातवानी याद आएगी।
कमी में इश्क से यारी पुरानी याद आएगी।

फिजाँ में इश्क़ हो बिखरा तो फिर गुल भी महकते है।
मुहब्बत में महकती रात रानी याद आएगी।

चली जाओगी तुम छू कर, तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा।
न जी पाएँगे, खुशबू ज़ाफरानी याद आएगी।

जुबां पर जब किसी की, नाम तेरे शहर का होगा।
हमें तब हूर कोई आसमानी याद आएगी।

किताबों के बहाने हाथ छूकर मुस्कुरा देना।
घड़ी भर इश्क की पहली कहानी याद आएगी।

न देखो यूँ समंदर के किनारे बैठे जोड़ों को।
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।

किसी ने सच कहा है कि प्रेम ही काव्य का सबसे स्थाई भाव है। प्रेम की कविता सबसे सुंदर कविता होती है। क्योंकि वह जीने का हौसला प्रदान करती है। जैसे सुधीर जी की ग़ज़ल में चली जाओगी तुम छूकर मिसरा बहुत ही ख़ूबसूरत बना है। इसमें तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा तो मानो सौंदर्य को दुगना कर रहा है। और उसके बाद मिसरा सानी में ज़ाफ़रानी ख़ुश्बू का ज़िक्र तो जैसे हम सबको यादों की यात्रा पर ले चलता है। इसी प्रकार किसी की ज़ुबाँ पर उसके शहर का नाम आते ही किसी आसमानी हूर की याद आ जाना, यह भी तो हम सबकी कहानी है। हम जो शहरों के नाम के साथ ही किसी विशिष्ट की याद में खो जाते हैं। और सबसे अच्छा शेर बना है किताबों के बहाने हाथ छूकर मुस्कुरा देना, वाह एकदम यादों के अंतिम छोर पर पहुँचा दिया इस शेर ने तो। और उसके बाद घड़ी भर इश्क़ की तो बात ही अलग है। सचमुच ये वो समय था जब घड़ी भर इश्क़ ही सबके नसीब में होता था। और उसके बाद कुछ नहीं। समंदर के किनारे बैठे जोड़ों को देखने में सचमुच यह होता है कि अपनी जवानी याद आती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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प्रकाश पाखी

ललित, नीरव की, माल्या की कहानी याद आएगी
कमाता चल तुझे अब रोज नानी याद आएगी।

अदा की रोशनी बुझने पर अब मातम मनाना क्यूँ
मिटी सरहद पे कमसिन कब जवानी याद आएगी।

इसी तरही को करना याद जब अरसा गुजर जाए
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी।

बिना तरतीब घर मिलता, जगह पर कुछ नहीं मिलता
जरा गर दूर हो जाए, ज़नानी याद आएगी।

तुझे हासिल हुआ रुतबा, मुझे भी सब सिवा तेरे
नहीं है बस मुहब्बत वह पुरानी याद आएगी।

होली का एक रंग व्यंग्य का भी रंग होता है। तीखा और धारदार व्यंग्य जो कलेजे में कटार की तरह घुस जाए। और प्रकाश भाई ने मतले में ही जो व्यंग्य का गहरा रंग पिचकारी में भर कर सरसराया है तो मानों हमारे पूरे समय को ही रँग दिया है। मिसरा सानी तो अश-अश कमाल है, वाह वाह वाह। कमाता चल तुझे अब रोज़ नानी याद आएगी। एक दूसरे के लिए ही बने हुए मिसरे। और उसके बाद बात करता हूँ गिरह के शेर की बहुत ही अलग तरीके से और बहुत ही ख़ूबसूरत गिरह लगाई है। तरही को देखकर जवानी याद आ जाना, बहुत ही कमाल की गिरह है। कुछ लोगों को तो अभी से अपनी जवानी याद आ गई होगी, कि कभी वे भी तरही में अपनी ग़ज़लें भेजते थे, अब गठिया के कारण किनारे पर कुर्सी डाल कर बस ताली बजा रहे हैं। और घर की आत्मा, घर की रूह, घर की सब कुछ गृहस्वामिनी के लिए बहुत ही सुंदर शेर कहा है। सच में उसके ज़रा कहीं जाते ही पूरा घर अस्त व्यस्त हो जाता है। वो हमारे घर की तरतीब होती है, तहज़ीब होती है। उसके बिना हम बेतरतीब हो जाते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, क्या बात है वाह वाह वाह।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तेरे चहरे की जब भी अर्गवानी याद आएगी,
हमें होली के रंगों की निशानी याद आएगी।

तुम्हें भी जब हमारी छेड़खानी याद आएगी
यकीनन तुमको होली की सुहानी याद आएगी।

मची है धूम होली की जरा खिड़की से झाँको तो,
*इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी।*

जमीं रंगीं फ़िज़ा रंगीं तेरे आगे नहीं कुछ ये,
झलक एक बार दिखला दे पुरानी याद आएगी।

नहीं कम ब्लॉग में मस्ती मज़ा लो खूब होली का,
'नमन' ग़ज़लों की सबको शेर-ख्वानी याद आएगी।

किसी को याद करना अकेले में बैठ कर और उसके बहाने बहुत कुछ याद आ जाना, यही तो हमारे इस बार के मिसरे की ध्वनि है। यादों में खोने के लिए ही इस बार का मिसरा है। होली और वो भी उस समय की होली जब उमर में जवानी की गंध घुल रही होती है। उस उमर की बात करता हुआ हुस्ने मतला तुम्हें भी जब हमारी छेड़खानी याद आएगी और उस छेड़खानी में बसी हुई होली की सुहानी याद। यादें, यादें और यादें। जीवन बस यही तो होता है। और गिरह के शेर में उन लोगों को जगाने की कोशिश जो होली के दिन भी अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद करके बैठे हैं। उनको शायर जगा रहा है कि होली की इस धूम को देख कर अपनी जवानी को याद कर लो। और किसी एक के नहीं दिखने से होली की उमंग, मस्ती और आनंद का फीका होना और उससे अनुरोध करना कि झलक एक बार दिखला दे तो हर रंग में उमंग आ जाए। किसी एक के होने से ही तो होली होती है, वह नहीं तो कुछ नहीं होता। ग़ज़ल और होली का अनूठा संयोग किया है बासुदेव जी ने, होली के रंगों में रँगी हुई ग़ज़ल है पूरी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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कहते हैं कि जब जागो तब ही सवेरा होता है और हमारे यहाँ भी ऐसा ही होता है कि बहुत से लोग देर से ही जागते हैं। कुछ लोगों ने कल तरही की पहली पोस्ट लगने के बाद अपनी ग़ज़ल भेज दी हैं। चूँकि यहाँ तो दरवाज़े अंतिम पोस्ट लगने तक खुले रहते हैं। कभी भी दौड़ते हुए आओ और दरवाज़े का डंडा पकड़ कर ट्रेन में चढ़ जाओ। अपनी यह तरही की ट्रेन तो शिमला वाली खिलौना ट्रेन है जिसमें आप कभी भी कहीं भी सवार हो सकते हैं। हमारी यह ट्रेन मद्धम गति से चलती है। तो अभी भी आप में से वो जन जो कि ट्रेन में सवार होने के लिए घर से निकलूँ या न निकलूँ के इंतज़ार में हैं, वे निकल ही पड़ें। हमारी यह ट्रेन अपने एक-एक यात्री के इंतज़ार में रहती है। आइये आपका इंतज़ार है। और हाँ आज के तीनों शायरों ने होली का बहुत ही सुंदर रंग जमा दिया है। लाल, नीले, हरे, पीले, गुलाबी, सिंदूरी सारे रंगों से रँगी हुई अपनी ग़ज़लों से महफ़िल में हर तरफ़ रंग ही रंग कर दिया है। और जब शायरों ने इतनी मेहनत की है तो आपको भी तो करनी होगी, दाद देने में वाह वाह करने में । तो देते रहिए दाद करते रहिए वाह वाह मिलते हैं अगले अंक में।

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

होली का त्योहार सामने है रंग गुलाल की दुकानें सजने लगी हैं, आइये अपनी दुकान सजाना भी आज से शुरू करते हैं आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी और द्विजेन्द्र द्विज जी के साथ

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मित्रो, परंपराएँ त्योहारों के साथ ही चल रही हैं, और कितने दिन चलती हैं, अब कुछ कहा नहीं जा सकता। असल में एक प्रकार का ठंडापन चारों तरफ पसर गया है। ठंडेपन का मूल है यह भाव कि –ऐसा करने से क्या हो जाएगा ? होली मना लें, मनाने से भी क्या हो जाएगा ? नाच-गा लें, नाच गाने से भी क्या हो जाएगा ? तरही के लिए ग़ज़ल लिख दें, ग़ज़ल लिखने से भी क्या हो जाएगा ?  यह जो भाव है न कि –ऐसा करने से भी क्या हो जाएगा ? यह ही हमको जीवन का आनंद लेने से रोक देता है। यूँ तो कुछ भी करने से कुछ भी नहीं होता, लेकिन उसके कारण क्या हम सब कुछ करना ही छोड़ दें? यूँ तो साँस लेने से भी क्या हो जाएगा? साँस लेने से भी फ़र्क क्या पड़ रहा है। मगर इन सबके बीच में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कहते हैं –कुछ होता हो य न होता हो, हमें तो करना है, हमें तो होली मनाना है, हमें तो आनंद लेना है, हमें तो तरही के लिए ग़ज़ल कहना है। ये दीवाने, पागल, खब्ती, सनकी लोग होते हैं, जो दुनिया को रहने योग्य बनाए रखते हैं। हमारी तरही का काम भी ऐसे ही पागलों से चलता है। जो हर बार तरही की घोषणा के साथ ही बिना यह सोचे कि –इससे क्या हो जाएगा ? ग़ज़ल लिखने में जुट जाते हैं। मित्रो कुछ भी करने से कुछ भी नहीं होता, लेकिन फिर भी जीवन में बहुत कुछ करते रहना पड़ता है। जीवन एक निरंतरता का नाम है। जो मित्र तरही में रचनाएँ भेज देते हैं यह आयोजन असल में उनके ही लिए होता है। जब तक एक भी मित्र रचना भेजेंगे तब तक यह आयोजन चलाने की कोशिश की जाती रहेगी। असल में जीवन उपस्थित का उत्सव होता है, अनुपस्थित का सोग नहीं। हमें उपस्थितों का सम्मान करना चाहिए, उसकी जगह हम अनुपस्थितों की अनुपस्थिति पर प्रतिक्रिया देने में लगे रहते हैं। अनुपस्थिति का अर्थ शून्य नहीं होता। जीवन का कारोबार हमेशा चलता रहता है। एक दिन हम सब अनुपस्थित हो जाएँगे, यह दुनिया फिर भी चलती रहेगी।

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इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

आइये आज होली की भूमिका बनाते हैं दो ऐसे रचनाकारों के साथ, जो दो अलग-अलग विधाओं के विशेषज्ञ हैं। दोनो की रचनाएँ 24 कैरेट स्वर्ण से निर्मित होती हैं। चूँकि दोनों की इस बार एक से अधिक रचनाएँ प्राप्त हुई हैं इसलिए हम इनसे शुरुआत भी कर रहे हैं और आगे भी कुछ और रचनाएँ इनकी हम लेंगे। होली का त्योहार सामने है रंग गुलाल की दुकानें सजने लगी हैं, आइये अपनी दुकान सजाना भी आज से शुरू करते हैं आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी और द्विजेन्द्र द्विज जी के साथ। आज राकेश जी का गीत और द्विज जी की ग़ज़ल के साथ होली महोत्सव का दीप प्रज्जवलित हो रहा है।

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राकेश खंडेलवाल जी

चली फगुनाइ होकर चंद्रिकाए आज रंगों से
नज़ारा देख चैती दूर से ही मुस्कुराते है
हवा मदहोशियों की धार में डुबकी लगा निकली
फिजाये ओढ़ कर खुनकेँ जरा सी लड़खड़ाती हैं
खड़े हो पंक्तियों में देखते हैं खेत के बूटे
सुनहरी शाल ओढ़े कोई बाली लहलहायेगी
उसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

हरे परिधान में लिपटी हुई इक रेशमी काया
छरहरी ज्वार के पौधे सरीखी लचकचाती है
उसे आलिंगनों में बांध कर मधुप्रेम की धारा
भिगोती और धीरे से ज़रा सा छेड़ जाती है
हुई असफल छुपाने में वो तर होते हुई अंगिया
लजाकर आप अपने में सिमटती थरथराएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

चलेगी नंद की अंगनाइयों से गोप की टोली
गली बरसानिया बादल उमंगों के उड़ाएंगी
दुपहारी खेल खेलेगी नए कुछ ढाल कोड़े के
घिरी संध्या मिठाई की कईं थाली सजायेगी
हुए है आज इतिहासी ये बीते वक्त के पन्ने
छवि, है आस इस होली पे फिर से जगमगाएगी
इसे देखेंगीं तो अपनी जवानी याद आएगी

नहीं दिखती गुलालों की वो मुट्ठी लाल पीली अब
न दिखते नाद में भीगे कही भी फूल टेसू के
न भरता कोई पिचकारी न ग़ुब्बारे हैं रंग वाले
न दिखते मोतियों को झारते वे गुच्छ गेसू के
पुरानी कोई छवि आकर निगाहों में समाएगी
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी

अब ऐसे गीत पर क्या कहा जाए ? आनंद का पूरा उत्सव ही है यह गीत तो। होली के माहौल को अपने शब्द रंगों से सजाता, गीत गुनगुनाता हुआ सा यह गीत। हवा मदहोशियों की धार में जहाँ डुबकी लगा कर निकल रही हो। सुनहली शॉल ओढ़े जहाँ बाली लहलहा रही हो, वहाँ अगर अपनी जवानी नहीं याद आए तो क्या याद आएगा। सुनहली शॉल ओढ़े खड़ी बाली का यह मंज़र और इसकी मंज़रकशी…. अंदर तक महुए का रस उतर गया हो जैसे।  “लचकचाती” शब्द….. उफ़्फ़ एक शब्द मानों अंदर तक रसाबोर कर गया हौ जैसे। हरे परिधान में लिपटी हुई काया का छरहरी ज्वार के पौधे सरीखा लचकचाना, वाह ! आनंद और क्या होता होगा। आलिंगनों में बाँध कर मधुप्रेम की धारा जो भिगोती भी है और छेड़ भी जाती है… वाह क्या कमाल है, यह जो रस की गाँठ है यही तो आनंद है और जीवन में रखा क्या है ? लजा कर थरथराती हुई रेशमी काया का अपने आप में सिमटना, उफ़्फ़….. मानों स्मृतियों की गहरी धुंध से निकल कर कोई होली साकार हो गई हो।  नंद की अंगनाइयों से गोप की टोलियों का चलना उमंगों के बादलों का उड़ना और फिर मिठाई की थाली में शाम का ढलना, पूरे दिन का मानों शब्दों से ही ऐसा चित्र खींच दिया है, जो होली के चंदन और अबीर से रँगा हुआ है। और अंतिम छंद में हम सबकी वही पीड़ा, वही व्यथा, जिसका ज़िक्र मैंने आज प्रारंभ में भी किया है। गुलालों से भरी हुई लाल-पीली मुट्ठी, नाद में भींगते टेसू के फूल , पिचकारी, गुब्बारे, यह सब खो गए हैं। और इन सबसे ऊपर मोतियों को झारते हुए गुच्छ गेसू के। वाह यह ही तो कमाल होता है जो राकेश जी जैसे समर्थ गीतकार के शब्दकोश से ही निकल कर सामने आता है। मोतियों को झारते गुच्छ गेसू के, होली के बाद होने वाले स्नान का मानों सजीव दृश्य सामने आ गया हो। कुछ नहीं बला असल में हम जीवन का आनंद लेना भूल गए हैं। ऐसे में इनको कहीं भी देखेंगे तो अपनी जवानी याद तो आएगी ही। बहुत ही कमाल का गीत,वाह वाह वाह।

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​द्विजेन्द्र द्विज जी

न राजा याद आएगा न रानी याद आएगी
मगर भूखे को रोटी की कहानी याद आएगी

हमें रह-रह तुम्हारी पासबानी याद आएगी
निज़ामे-मुल्क से हर छेड़खानी याद आएगी

ज़रा-सा दाँव लगते ही हमें हमसे भिड़ाता है
हमें रहबर! तेरी शोलाबयानी याद आएगी

जो तुमने देश के सीने को इतने ज़ख़्म बख़्शे हैं
हक़ीमों ये तुम्हारी मेह्रबानी याद आएगी

तेरी सब सरहदों को सींचता है ख़ूँ शहीदों का
तुझे कब, ऐ वतन ! यह बाग़बानी याद आएगी

उछलती बच्चियों को देख कर सर्कस में तारों पर
हक़ीक़ी ज़िंदगी की तर्जुमानी याद आएगी

बयाँ होने लगे अशआर में हालात हाज़िर के
सुनोगे जब ग़ज़ल नौहाख़वानी* याद आएगी

कभी थक हार कर हिन्दी और उर्दू के झमेले से
’द्विज’ आख़िर फिर ग़ज़ल हिन्दोस्तानी याद आएगी

(* मृतक के लिए विलाप)

ऐसा लग रहा है जैसे ओपनिंग में एक छोर पर सुनील गावस्कर और दूसरे पर सचिन तेंदुलकर उतर आए हों बल्लेबाज़ी करने। कमाल के बल्लेबाज़ हैं दोनों। पहले सुनील गावस्कर ने गीत में अपना कमाल दिखाया और अब सचिन तेंदुलकर की बारी है ग़ज़ल के साथ सामने आने की। कमाल और धमाल दोनों तय हैं। यह ग़ज़ल ज़रा अलग मूड की है, यह होली की नहीं है यह होलिका दहन की ग़ज़ल है, वह होली जो हममे में से हर किसी संवेदनशील इन्सान के दिल में धधकती रहती है।सच कहा द्विज जी राजा और रानी नहीं याद आते, रोटी की कहानी ही याद आती है। बहुत ही सुंदर मतला है। और पहला ही शेर मानों मौजूदा दौर की पूरी कहानी कह रहा है तुम्हारी पासबानी और निज़ामे मुल्क से छेड़खानी, वाह ! उस्तादों की कहन ये होती है। और अगले ही शेर में रहबर का हमें हमसे ही भिड़ा देना, वाह किसी का नाम लिए बिना “हमें हमसे” कह कर मानों सब कुछ कह दिया है, ग़ज़ल का सलीक़ा यही तो होता है। हक़ीमों की मेह्रबानी का ज़िक्र भी कितनी मासूमियत के साथ अगले शेर में किया गया है सीने को दिए गए ज़ख़्मों का पूरा हिसाब कर देता है यह शेर, ग़ज़ब। और ग़ाफ़िल वतन की आँखें खोलता हुआ शेर कि तू कब तक ग़ाफ़िल रहेगा कि तेरी सरहदों पर ख़ून की बाग़बानी कुछ शहीद कर रहे हैं। तीखी धार वाला शेर। और दर्द से भरा हुआ शेर जिसमें सर्कस के तारों पर उछलती हालात के हाथों में फँसी हुई ज़िंदगी की तर्जुमानी है, आँखों की कोरों को गीला कर देता है। नौहाख़वानी….. ग़ज़ल को सुन कर जब यह याद आने लगे तो सचमुच हमारा समय बहुत कठिन हो गया है यह समझ लेना चाहिए। बहुत ही सुंदर शेर। और मकता तो मानों गज़ल की सीमित कर दी गई दुनिया के सारे दायरे तोड़ देना चाहता है। सच में हम सबको ग़ज़ल हिन्दोस्तानी ही चाहिए। न हिन्दी न उर्दू, बस हिन्दोस्तानी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई द्विज ने। कमाल के जलते हुए शेर निकाले हैं। वाह वाह वाह ।

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तो मित्रो आज यह दोनो रचनाकार होली का मूड बनाने के लिए आए हैं। अपनी रचनाओं से आपके अंदर दबी हुई होली की फगुनाहट को जगाने के लिए। उस आनंद को जागृत करने जो शीत ऋतु में ठिठुर कर सो गया है। सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर की जोड़ी ने ज़बरदस्त ओपनिंग की है आज। आपका काम है कि हर एक शॉट पर दिल खोल कर तालियाँ बजाना, दाद देना, वाह-वाह करना। क्योंकि यही तो किसी रचनाकार को मिलने वाला सबसे बड़ा ईनाम होता है। और हाँ अपनी ग़ज़ल भी भेज दीजिए यदि आप इस आनंद उत्सव में शामिल होना चाहते हैं तो। यदि आपकी प्राथमिकता में अब ग़ज़ल नहीं है तो फिर वही करिये जो आपकी प्राथमिकता है क्योंकि ग़ज़ल यदि आपकी प्राथमिकता नहीं है, तो ज़बरदस्ती लिखने से कुछ होगा भी नहीं। बहुत से काम होते हैं करने को जीवन में। ग़ज़ल-वज़ल शायरी-वायरी तो फुरसतियों का काम है। कई बार सलाम करने का जी चाहता है उन लोगों को जो सफ़र में कहीं से कहीं जा रहे होते हैं और रास्ते से ही तरही की ग़ज़ल भेज देते हैं। असल में यह मुशायरा उन जैसे पागलों के दम पर ही चल रहा है। ग़ज़ल का कारोबार पागलों के दम पर ही चलता है। ग़ज़ल की दुनिया में अक़्लमंदों के लिए वैसे भी जगह नहीं है।अक़्लमंदों के पास बहुत काम हैं। अभी उनको मोदी, ट्रंप, राहुल गांधी, केजरीवाल, उत्तर कोरिया आदि आदि के बारे में काम करना है, अभी उनके पास ग़ज़ल कहने की फुरसत ही कहाँ है ? मगर हमारा काम तो इसलिए चल रहा है कि हमारे पास राकेश खंडेलवाल जी जैसे वरिष्ठ पागल और भाई द्विजेंद्र द्विज जैसे प्रखर युवा पागल हैं, जो अभी भी दुनियादार नहीं हुए हैं। आज की दोनों रचनाएँ एक डंके की तरह इस कठिन समय में गूँजती हैं, कि निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं अभी हम हैं। तो आप इन ग़ज़लों का आनंद लीजिए, वाह वाह कीजिए, और खुल कर इन पर दाद दीजिए। तो देते रहिए दाद । मिलते हैं अगले अंक में।

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

मित्रो होली का पर्व सामने आ गया है, क्या विचार है तरही मुशायरे के बारे में ?

दोस्तो यह सच है कि ब्लॉग पर अब कम आना-जाना हो रहा है। कई बार लगता है कि यह विधा अब समाप्त हो रही है। लेकिन नॉस्टेल्जिया है कि बार-बार यहाँ पर खींच कर ले आता है। जब भी कोई त्योहार सामने आता है, कोई पर्व आता है तो सबसे पहले ब्लॉग की ओर भागने का मन करता है। हाँ यह बात अलग है कि अब बस वार-त्योहार ही ब्लॉग की याद आती है। मगर फिर भी कोई रिश्ता ऐसा है कि जो यहाँ खींच लाता है। मेरे लिए यह ब्लॉग परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पर आकर ऐसा लगता है कि परदेस कमाने गए लोग त्योहार पर घर लौटे हैं और एकत्र हुए हैं। बतिया रहे हैं, हाहा-हीही कर रहे हैं, गा रहे हैं, नाच रहे हैं, मज़े कर रहे हैं। कल वापस परदेस निकलना है काम पर इसलिए आज को पूरी तरह से जी रहे हैं। हम सब भी तो ऐसे ही हो गए हैं। साल में कुछ बार यहाँ ब्लॉग पर एकत्र होते हैं, आनंद लेते हैं और उसके बाद फिर परदेसी हो जाते हैं। मगर सबसे अच्छी बात यह है कि आपस में जुड़े रहते हैं। एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी बनाते रहते हैं।

इस बार सोचा है कि तरही मुशायरे को प्रेम, इश्क़, महब्बत के पक्के रंग में रँगा जाए। वह रंग जो एक बार चढ़ता है तो फिर उम्र भर उतरता नहीं है। और मिसरा ऐसा भी हो कि जिसको चाहो तो हास्य और व्यंग्य में भी गूँथ लो होली के अनुसार। तो ऐसा ही एक मिसरा है जो दोनों प्रकार के रंगों में गूँथा जा सकता है। इस पर होली की हजल भी कही जा सकती है और प्रेम की ग़ज़ल भी। मिसरा बहुत ही कॉमन बहर पर दिया जा रहा है। वही हमारी बहरे हजज मुसमन सालिम 1222-1222-1222-1222

और मिसरे के साथ रदीफ-क़ाफिया का भी कॉम्बिनेशन सरल दिया जा रहा है। काफिया है ध्वनि “आनी” मतलब सुहानी, पुरानी, निशानी, कहानी, जवानी, रानी, राजधानी, ज़िंदगानी, आदि आदि आदि। और रदीफ है “याद आएगी” और पूरा मिसरा यहाँ दिया जा रहा है।

इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी 

मिसरा ऐसा है कि आपको जो चाहे वो कर लो आप इसके साथ। प्रेम से लेकर होली तक सारे रंग भरे जा सकते हैं इस मिसरे में। कुछ लोग कहेंगे कि रदीफ का स्त्रीलिंग होना इस सीमित करेगा, लेकिन यदि आप दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो पता चलेगा कि लगभग सारे काफिये जो आनी की ध्वनि के साथ हैं वे स्त्रीलिंग ही हैं। पानी जैसे एकाध को छोड़कर। इसलिए शिकायत करने से बेहतर है होली की तैयारी में जुट जाया जाए।

अब जो लोग पूछते हैं कि इस बहर पर कौन सा फिल्मी गीत है तो उनके लिए ये ढेर सारे गीत नीचे दिए जा रहे हैं। यह तो कुछ ही गीत हैं, इनके अलावा भी बहुत से गीत और ग़ज़ल इस बहर पर हैँ। कुमार विश्वास का मशहूर मुक्तक कोई दीवाना कहता है भी इसी पर है। तो आपको जो भी धुन पसंद आए उस पर ग़ज़ल कहिए। बाकी बहाने बनाने के लिए तो फिर बहुत से बहाने हैं।

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हमदोनों, बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है, मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम, किसी पत्थर की मूरत से महब्बत का इरादा है, मुझे तेरी महब्बत का सहारा मिल गया होता, भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ, कभी तन्हाईयों में यूँ हमारी याद आएगी, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं, खुदा भी आस्माँ से जब जमीं पर देखता होगा, है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आयेगा

तो तैयार हो जाइए और होली पर ग़ज़ल कह ही दीजिए। होली का तरही मुशायरा अब आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

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