इस बार की तरही ग़ज़लों ने मन को खूब प्रसन्न कर रखा है, एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आ रही हैं. होली की तरही में बहर और मिसरे के कारण जो फीकापन आ गया था वो अब इस बार में हट गया है. दरअसल में तरही के पीछे जो सोच होती है वो ये होती है कि नये नये विषयों पर नयी नयी बहरों पर भी क़लम को आज़माया जाये. नहीं तो होता क्या है आपको बहरे हजज में महारत हो गई तो आप पेले जा रहे हैं, धे ग़ज़ल, धे ग़ज़ल, एक ही बहर पर. जो बहरों के जानकार हैं वो तो समझ रहे हैं लेकिन आम श्रोता को कहां जानकारी होती है. तो इसीलिये तरही का आयोजन होता है. नहीं तो आप तो कहें कि साहब हम तो बस प्रेम की ही ग़ज़लें लिख सकते हैं ये मौसम वौसम पर लिखना अपने बस की बात नहीं है, तो साहब दरअसल में तो आप कवि हैं ही नहीं, कवि तो वो होता है जो हर विषय पर अपनी क़लम की धार को सिद्ध करके बता दे. खैर ये तो बात हुई तरही की, टेम्प्लेट को कुछ लोगों ने पसंद किया है कुछ न नहीं मगर फिर भी ऐसा लग रहा है कि लोगों को फिलहाल तो अच्छा लग रहा है तो अभी तो इसे बनाया रखा जायेगा फिर आगे देखते हैं. दो दिन से एक दांत के दर्द ने जान सुखाई हुई है, आज भी बड़ी पीड़ा के बीच से पोस्ट लिखी जा रही है. तो आइये आज सुनते हैं श्री नवीन सी चतुर्वेदी जी से उनकी ये जानदार शानदार ग़ज़ल.
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
पिता का नाम:- श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
गुरु जी:- कविरत्न श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
[गुरुजी के नाम से इस वर्ष से हम लोग सरस्वती पुत्रों का सम्मान शुरू कर रहे हैं,
जन्म स्थान:- मथुरा, जन्म तिथि:- २७ अक्तूबर, १९६८, हाल निवास:- मुंबई
शिक्षा:- वाणिज्य स्नातक, लड़कपन में ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं के पाठ का सौभाग्य मिला,
भाषा:- मातृभाषा ब्रज भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, अँग्रेज़ी, गुजराती और मराठी में लिखना, पढ़ना, बोलना और उर्दू का थोडा बहुत ज्ञान,
कामकाज:- सीसीटीवी, बॉयोमेट्रिक, एक्सेस कंट्रोल, पे-रोल सॉफ़्टवेयर वग़ैरह http://vensys.biz
लेखन विधा:- पद्य - छन्द, ग़ज़ल, कविता, नवगीत वग़ैरह, भूतकाल में एक स्थानिक समाचार पत्र के लिए कोलम भी लिखा था,
प्रकाशित पुस्तक - इकलौती "ई-किताब' पिछले महीने ही प्रकाशित हुई लिंक:- http://thatsme.in/page/6377873:Page:7512
अन्य:- आकाश वाणी मथुरा और मुंबई से काव्य पाठ, कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन एवम् गोष्ठियों में काव्य पाठ, कुछ ऑडियो केसेट्स के लिए भी लिखा, एक केसेट के लिए गुजराती में ब्रज में होने वाली 'चौरासी कोस की ब्रज परिक्रमा' के लिए भी लिखा,
रचना प्रक्रिया
जब भी कुछ सोच कर लिखने बैठता हूँ, कुछ लिख ही नहीं पता, मेरे लिए इस प्रक्रिया को परिभाषित करना वाकई कठिन है, कहने को कुछ भी कह लूँ, परन्तु, मेरा ये प्रबल विश्वास है कि हम लिखते नहीं हैं - स्वयँ माँ शारदा हमें अपना माध्यम बनाती हैं - जिसके लिए हम सभी को उन के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञता प्रकट करते रहना चाहिए, जय माँ शारदे,
ब्लॉग्स:- ठाले बैठे, समस्या पूर्ति, वातायन
फेसबुक प्रोफाइल:-facebook.com/navincchaturvedi
कमजोरी:- भाषाई चौधराहट को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz
तरही ग़ज़ल
फालसे-सैंसूत वाली, गर्मियों की वो दुपहरी,
याद में हैं दर्ज अब भी, गर्मियों की वो दुपहरी.
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गर्म कर के आमियाँ, दादी बनाती थी पना जो,
उस पने से मात खाती, गर्मियों की वो दुपहरी.
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वो घड़े-कुंजे, वो खरबूजे, वो खस-टटिया महकती,
और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी.
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वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा,
छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी.
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शाम-सुब्ह पार्क जाना, या बगीची को निकलना,
पर मढैया में ही बीती, गर्मियों की वो दुपहरी.
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ठीक ग्यारह बाद ही, आँगन का टट्टर पाट कर के,
भाई-बहनों सँग बिताई, गर्मियों की वो दुपहरी.
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गर्म हवा चलते हुए भी, वोह शीतल जल 'मुसक' का,
जानती थी फ्रिज न ए. सी., गर्मियों की वो दुपहरी.
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झिराझिरी, वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में,
खूब क्या थीं ठाठ वाली, गर्मियों की वो दुपहरी.
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टाट से ढक के बरफ, वो बेचता कल्लू का पुत्तर,
और उस पे चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी.
ब्रज वासी हैं नवीन भाई तो क्यों न फिर यमुना और कदंब का जिक्र आये. और वो भी इतने सुंदर तरीके से कि वो कदंब के फूल, यमुना में नहाना वो झलंगा, बहुत ही सुंदर शब्द चित्र खींचा गया है इस मिसरे में, अहा. झिरझिरी वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में और वो घड़े कुंजे वो तरबूजे, ऐसा लग रहा है कि पूरा का पूरा गर्मियों का बचपन यादों के गलियारे से निकल कर सामने आ गया है. सुंदर ग़ज़ल.
तो सुनिये और आनंद लीजिये इस सुंदर ग़ज़ल का और इंतजार कीजिये अगली तरही का.