मित्रो हर त्योहार के बीत जाने के बाद एक सूनापन सा रह जाता है। ऐसा लगता है कि अब आगे क्या? और उसी सूनेपन को मिटाने के लिए शायद हर त्योहार का एक बासी संस्करण भी रखा गया। भारत में तो हर त्योहार का उल्लास कई दिनों तक चलता है। होली की धूम शीतला सप्तमी तक रहती है, रक्षा बंधन को जन्माष्टमी तक मनाया जाता है और दीपावली को देव प्रबोधिनी एकादशी तक। यह इसलिए कि यदि आप किसी कारण से त्योहार मनाने में चूक गए हों तो अब मना लें। हमारे ब्लॉग पर भी बासी त्योहारों के मनाए जाने की परंपरा रही है। कई बार तो बासी त्योहार असली त्योहार से भी ज़्यादा अच्छे मन जाते हैं।
कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी।
आइये आज हम भी बासी दीपावली मनाते हैं तिलक राज कपूर जी, सुधीर त्यागी जी और सुमित्रा शर्मा जी के साथ।
तिलक राज कपूर
पुत्र द्वारे दिखा, देहरी खिल उठी
टिमटिमाती हुई ज़िन्दगी खिल उठी।
द्वार दीपों सजी वल्लरी खिल उठी
फुलझड़ी क्या चली मालती खिल उठी।
पूरवी, दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी
हर दिशा आपने जो छुई खिल उठी।
दीप की मल्लिका रात बतियाएगी
सोचकर मावसी सांझ भी खिल उठी।
इक लिफ़ाफ़ा जो नस्ती के अंदर दिखा
एक मुस्कान भी दफ़्तरी खिल उठी।
एक भँवरे की गुंजन ने क्या कह दिया
देखते-देखते मंजरी खिल उठी।
चंद बैठक हुईं, और वादे हुए
आस दहकां में फिर इक नई खिल उठी।
गांठ दर गांठ खुलने लगी खुद-ब-खुद
द्वार दिल का खुला दोस्ती खिल उठी।
देख अंधियार की आहटें द्वार पर
कुमकुमे हँस दिए, रोशनी खिल उठी।
सचमुच त्योहारों का आनंद तो अब इसी से हो गया है कि इस अवसर पर बेटे-बेटी लौट कर घर आते हैं। दो दिन रुकते हैँ और देहरी के साथ ज़िदगी भी खिल उठती है। फुलझड़ी के चलने से मालती के खिल उठने की उपमा तो बहुत ही सुंदर है, सच में रोशनी और सफेद फूल, दोनों की तासीर एक सी होती है। प्रेम की अवस्था का यही एक संकेत होता है कि चारों दिशाएँ किसी के छू लेने से खिल उठती हैं। एक लिफाफे को नस्ती के अंदर देखकर दफ़्तरी मुस्कान का खिल उठना, बहुत ही गहरा कटाक्ष किया है व्यवस्था पर। भंवरे की गुंजन पर मंजरी का खिल उठना अच्छा प्रयोग है। गांठ दर गांठ खुलने लगी खुद ब खुद में दिल के द्वारा खुलने से दोस्ती का खिल उठना बहुत सुंदर है। सच में गांठों को समय-समय पर खोलते रहना चाहिए नहीं तो वो जिंदगी भर की परेशानी हो जाती हैं। और अंत में गिरह का शेर भी बहुत सुंदर लगा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
सुधीर त्यागी
हुस्न के दीप थे, आशिकी खिल उठी।
आग दौनों तरफ, आतिशी खिल उठी।
साथ तेरा जो दो पल का मुझको मिला।
मिल गई हर खुशी, जिन्दगी खिल उठी।
खिल उठा हर नगर, मौज में हर बशर।
थी चमक हर तरफ, हर गली खिल उठी।
देखकर रात में झालरों का हुनर।
कुमकुमे हँस दिए,रोशनी खिल उठी।
रोशनी से धुली घर की सब खिडकियां।
द्वार के दीप से, देहरी खिल उठी।
हुस्न के दीपों से आशिकी का खिल उठना और उसके बाद दोनों तरफ की आग से सब कुछ आतिशी हो जाना। वस्ल का मानों पूरा चित्र ही एक शेर में खींच दिया गया है। जैसे हम उस सब को आँखों के सामने घटता हुआ देख ही रहे हैं। किसी के बस दो पल को ही साथ आ जाने प जिंदगी खिलखिला उठे तो समझ लेना चाहिए कि अब जीवन में प्रेम की दस्तक हो चुकी है। और दीपावली का मतलब भी यही है कि नगर खिल उठे हर बशर खिल उठे हर गली खिल उठे। गिरह का शेर भी बहुत कमाल का बना है। देखकर रात में झालरों का हुनर कुमकुमों का हँसना बहुत से अर्थ पैदा करने वाला शेर है। दीवाली रोशनी का पर्व है, जगमग का पर्व है। जब रोशनी से घर की सारी खिड़कियाँ धुल जाएँ और द्वार के दीप से देहरी खिल उठे तो समझ लेना चाहिए कि दीपावली आ गई है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। क्या बात है। वाह वाह वाह।
सुमित्रा शर्मा
झिलमिलाईं झलर फुलझड़ी खिल उठी
कुमकुमे हंस दिए रौशनी खिल उठी
घेर चौबारे आंगन में दिवले सजे
जैसे तारों से सज ये ज़मीं खिल उठी
सबके द्वारे छबीली रंगोली सजी
तोरण इतरा रहे देहरी खिल उठी
आज कच्ची गली में भी रौनक लगी
चूना मिट्टी से पुत झोंपड़ी खिल उठी
पूजती लक्ष्मी और गौरी ललन
पहने जेवर जरी बींधनी खिल उठी
नैन कजरारे मधु से भरे होंठ हैं
देखो श्रृंगार बिन षोडषी खिल उठी
लौट आए हैं सरहद से घर को पिया
दुख के बादल छंटे चांदनी खिल उठी
हँस के सैंया ने बाँधा जो भुजपाश में
गाल रक्तिम हुए कामिनी खिल उठी
पढ़ के सक्षम हुई बालिका गांव की
ज्ञान चक्षु खुले सुरसती खिल उठी
असलहा त्याग बनवासी दीपक गढ़ें
चहक चिड़ियें रहीं वल्लरी खिल उठी
झिलमिलाती हुई झलरों और खिलती हुई फुलझड़ियों का ही तो अर्थ होता है दीपावली। चौबारों और आँगन को घेर कर जब दिवले सजते हैं तो सच में ऐसा ही तो लगता है जैसे कि ज़मीं को तारों से सजा दिया गया है। सबे द्वारे पर छबीली रंगोली के सजने में छबीली शब्द तो जैसे मोती की तरह अलग ही दिखाई दे रहा है। दीपावली हर घर में आती है फिर वो महल हो चाहे झोंपड़ी हो सब के खिल उठने का ही नाम होता है दीपावली। लक्ष्मी और गौरी ललन की पूजा करती घर की लक्ष्मी के जेवरों से जरी से घर जगर मगर नहीं होगा तो क्या होगा। नैर कजरारे और मधु से भरे होंठ हों तो फिर किसी भी श्रंगार की ज़रूरत ही क्या है। पिया के सरहद से घर लौटने पर चांदनी का खिलना और दुख के बादलों का छँट जाना वाह। और पिया के भुजपाश में बँधी हुई बावरी के गालों में रक्तिम पुष्प ही तो खिलते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
तो मित्रों ये हैं आज के तीनों रचनाकार जो बासी दीपावली के रंग जमा रहे हैं। अब आपको काम है खुल कर दाद देना। देते रहिए दाद।