सोमवार, 1 मई 2023

आज ईद के तरही मुशायरे का हम समापन करते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल के साथ

मित्रों आज ईद के तरही मुशायरे का हम समापन करते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के की एक मुकम्मल घटिया ग़ज़ल के साथ। हालाँकि भभ्भड़ कवि ने इसे लिखने में भी पूरा सप्ताह लगा दिया है, मगर फिर भी हम इसे बासी ईद में शामिल कर लेते हैं। इस ग़ज़ल के साथ ही हम ईद के तरही मुशायरे को भी विधिवत समाप्त घोषित करते हैं।
"हिलाल-ए-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है"

भभ्भड़ कवि भौंचक्के
रहेगा ख़्वाब ही तेरा के उन क़दमों पे ये सर है
यही जन्नत है गर तेरी तो इस जन्नत को ठोकर है
कभी लगता है ये के आसमाँ पे सच में ईश्वर है
कभी फिर ये भी लगता है वहाँ भी सिर्फ़ पत्थर है

गले उसको लगाने दिल हमेशा अपना तत्पर है
और उस पे आज तो ये ईद का वैसे भी अवसर है
गुज़र जाती है सारी उम्र तय इसको ही करने में
ये दिल से आँख की दूरी जो बस बालिश्त ही भर है

लगा दे आग सारे मुल्क में नफ़रत की तू, पर सुन  
जलेगा एक दिन तू भी, यहाँ तेरा भी तो घर है
कभी घर छोड़ देता तू, कभी झोला उठा लेता
हमारी बात सुन बेटा ! तेरे पैरों में चक्कर है

किसे दिखला रहा दरिया तू बारिश में उफन कर यूँ ?
नहीं तू जानता क्या, सामने तेरे समंदर है
पुराने सब ख़ुदा, सारे मसीहा ख़त्म अब समझो
यहाँ अब एक ही, बस एक ही अब, बन्दा-परवर है

मेरे रश्क़-ए-क़मर को चाँद ने देखा तो वो बोला-
"हिलाल-ए-ईद जलवागर हुआ हर घर मुनव्वर है"
कहावत को बदल कर अब ज़रा कुछ यूँ किया जाए-
"है मुँह में नाम गाँधी का मगर हिटलर का पैकर है"

हमारी दास्तान-ए-इश्क़ गुम-गश्ता नदी कोई
नज़र आती नहीं पर रूह को छूती वो अक्सर है
ये सच है जीव-हत्या के मुख़ालिफ़ में खड़े
हैं वो
लहू इन्सान का पीते हैं वो, ये बात दीगर है

तेरे पीछे तो है ईमान वाला नेक ये बंदा
मगर तू सामने आये तो दिल मेरा ये काफ़र है
उसे सोने की चाँदी की ज़रूरत क्या है अब आख़िर
'सुबीर' उस शोख़ के तन पर हमारा लम्स ज़ेवर है

तो मित्रों अगर आपको ग़ज़ल ठीक लगे तो दाद दे दें, नहीं लगे तो कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती तो है नहीं। ख़राब लगे तो भभ्भड़ को उनके मोबाइल पर जी भर कर गालियाँ प्रदान करें। मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में। तब तक जै रा जी की।

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