सोमवार, 20 दिसंबर 2021

आइए आज से प्रारंभ करते हैं जाड़ों का तरही मुशायरा, आज सुनते हैं राकेश खंडेलवाल जी और मन्सूर अली हाशमी जी से उनकी रचनाएँ।

इस बार पहली बार हम ठंड के मौसम पर तरही मुशायरा आयोजित कर रहे हैं। इससे पहले हमने गर्मी, बरसात, वसंत सब पर तरही मुशायरा आयोजित किया। जाड़ों का मौसम हमसे इसलिए छूटता रहा क्योंकि दीपावली का तरही मुशायरा आयोजित करने के बाद एकदम कुछ आलस आ जाता है। और फिर होली तक यह आलस बना ही रहता है। लेकिन इस बार सोचा कि अपने इस पसंदीदा मौसम को क्यों छोड़ा जाए। बस एक मिसरा बना और भूमिका बन गई तरही मुशायरे की।अच्छा लगा यह देख कर कि आप सब ने इस बार बहुत उत्साह के साथ इस मुशायरे में अपनी ग़ज़लें भेजी हैं। बल्कि ऐसा लग रहा है कि यह उत्साह दीपावली के मुशायरे के उत्साह से भी कहीं अधिक है। ब्लॉग पर यह आयोजन करते हुए अब तो पन्द्रह बरस हो रहे हैं, लेकिन आपके उत्साह के कारण हर मुशायरा एकदम नया सा लगता है। आपका प्रेम और दुलार जो इस मुशायरे को मिलता है, वही पूँजी है जीवन की।

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

आइए आज से प्रारंभ करते हैं जाड़ों का तरही मुशायरा। आज दो रचनाकार अपनी रचनाएँ लेकर आ रहे हैं। यह रचनाकार हर तरही में एक से अधिक रचनाएँ भेज कर हमारे मुशायरे को समृद्ध करते हैं। आज सुनते हैं राकेश खंडेलवाल जी और मन्सूर अली हाशमी जी से उनकी रचनाएँ।

राकेश खंडेलवाल

मिला है निमंत्रण, ग़ज़ल इक कहें आ
“यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम”
तो मन ये कहे अब चलें हम वहीं पर
जहां सर्दियों का गुलाबी हो मौसम


तो फिर जाग उट्ठी है मन में अचानक
वो सोंधी महक बाज़री रोटियों की
खुली धूप में गोठ इतवार वाली
उड़द दाल की चूरमा बाटियों की
कटोरी भरा गाजरी गर्म हलवा
इमारती वे ताज़ा गरम चाशनी में
समोसे, कचौड़ी, तली मूँगफलियाँ
महकती हुई वादियों, घाटियों की
मगर फिर हक़ीक़त मिटा देती सपना
औ ख़्वाबों का फिर टूट जाता है परचम


चली आइ है सामने बचपनों की
वे कोहरे में डूबी हुई कच्ची राहें
ठिठुरती हुई स्वेटरों मफ़लरों में
दो सूखे अधर मिचमिचाती निगाहें
भरी जेब चिलग़ोज़े और किशमिशों से
थे सात आठ काजू या बादाम संग में
इसी के सहारे सुबह से दुपहर तक
रही मौन ठंडी सिकुड़ती कराहें
अभी गर्म कमरे में पाँवे पसारे
यही यादें हमको किए जाती बेदम


कहीं खो गई तापने की अंगीठी
जो पत्थर के लकड़ी के कोयले जलाती
कहाँ खोई है साँझ चौपाल वाली
जहां पीढ़ियाँ थी चिलम गुड़गुड़ाती
बताना अभी हैं क्या आलाव जलते
अभी चंग पर गए जाती क्या लहरी
अभी गूंजती है वे सारंगियाँ क्या
जो दरवेशिया थीं कथाएं सुनाती  
यहां ऊहापोहों  के उमड़े कुहासे
मनाते है उन गर्म लम्हों का मातम

यह गीत नहीं है बल्कि जैसे पूरा एक चित्र है मौसम का। इस चित्र में बाजरे की रोटी के साथ में इतवार की गोठ मनाती हुई मंडली किसी कोने के दिखाई दे रही है तो गाजर का हलवा, कचौरियाँ, इमरती जैसे व्यंजन पहले ही बंद में किसी कोने में रखे हुए हमको दिखाई दे रहे हैं। बचपन में स्वेटर तथा मफलरों से अपने आप को बचाता हुआ बचपन गलियों में घूम रहा है जेब में किशमिशें और चिलगौज़े भर कर। देर रात तक तापने की अंगीठी में सुलगते हुए पत्थर के कोयले और साँझ की चौपाल पर गुड़गुड़ाती हुई चिलमें, जलते हुए आलाव पर दरवेशों के किस्से। सचमुच ऐसा लग रहा है कि यह गीत नहीं बल्कि एक पूरा का पूरा चित्र है, जो हमें अपने बचपन की गलियों में ले जा रहा है। बहुत ही सुंदर गीत वाह वाह वाह।

मन्सूर अली हाश्मी

यहां पड़ रही है जगह पहले ही कम
कहीं मन में बसने न आ जाये बालम
अजी खाइये अब ग़िज़ाए मुरग़्ग़न'
'यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम'

न पंखे की हाजत न ए.सी. की झंझट
खपत कम तो आयेगा बिजली का बिल कम
गरम पानी से गर नहाना हुआ तो
'गटर गैस', चूल्हे को कर लेंगे बाहम

कभी फूल झरते थे बातों से उनकी
हर इक जुमले पर अब निकलते है बलग़म
कभी 'लेडी-फिंगर' थे, नाज़ुक बदन था
है कद्दू की मानिंद अब भारी-भरकम

वो फूलों की रानी बहारो की मलका
रहे हम तो माली वह कहलाती 'मेडम'
हुए 'शेख़'* समझो न कमज़ोर हमको
बहुत 'हाश्मी' में अभी तो है दमख़म

* शेख़ =बुज़ुर्ग

मन्सूर अली हाशमी जी की हज़लें सुन कर किस के मन में गुदगुदी नहीं होती है। इस बार ठिठुरते हुए मौसम में उनकी यह ग़ज़ल हँसी की गर्मी पैदा कर रही है। वन बीएचके में बालम के आन बसने की चिंता कवि को मतले में दुखी किए हुए है। अगले ही शेर में बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। कवि को भी जेब की चिंता होती है, तभी तो वह ठंड के मौसम में ख़ुश है कि एसी बंद हो जाएँगे तो बिजली का बिल कम हो जाएगा। ठंड के मौसम में फूल की जगह बलग़म का चित्रण कवि की चिंता को दर्शा रहा है। हर लेडी फिंगर को अंतत: कद्दू होना है, इस चिंरंतन सत्य को बहुत अच्छे से बाँधा गया है। मकते के शेर में हमारे बुज़ुर्ग शायर अपने दमख़म को लेकर कितने आश्वस्त हैं, यह देखकर अच्छा लगा । बहुत सुंदर हज़ल, वाह वाह वाह।

आज के दोनों रचनाकारों ने बहुत अच्छे से मुशायरे का आगाज़ किया है। कल से ही हमारे यहाँ जाड़ा शुरू हुआ है और आज ही इन दोनों रचनाकारों ने अपनी रचनाओं से मामला गर्म कर दिया है। तो आप भी दाद दीजिए दोनों रचनाकारों को और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

29 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों शायरों ने बहुत अच्छी शुरुआता की है। राकेश जी का गीत जहाँ बचपन में खींच ले गया वहीं मंसूर जी की हज़ल ने भीतर तक गुदगुदाया। बहुत सुन्दर

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  2. वाह क्या ही सुंदर वर्णन किया है, बहुत शानदार शुरुआत।।

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  3. राकेश भाई हमेशा की तरह अपनी विलक्षण प्रतिभा से सर्दी के मौसम से हमें रुबरु करवा रहे हैं उनकी कविता का स्थान डॉन की तरह वहाँ स्थापित हो चुका जहाँ और किसी का पहुँचना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन है।
    मंसूर भाई तो अद्भुत हैं ये बुढ़ऊ हर दिन जवान होता जाता है। पता नहीं कौनसी चक्की का आटा खाता है। ऐसै कमबख्तों की वजह से हमें शायरी छोड़नी पड़ी। इन जैसे लोग ऐसी बात कह जाते हैं जिसके बाद दूसरे के पास कहने को कुछ रह ही नहीं जाता। कमाल किया है भाईजान... मेरा फर्शी सलाम कुबूल करें...🙏❤️🙏

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    1. धन्यवाद नीरज जी....But....

      "था मिसरा 'सुबीरी' "गुलाबी है मौसम"
      चला दी क़लम हमने 'नीरज जी' यकदम
      नज़र न लगाओं 'बुढ़ापे' पे हमरे
      छुपे है कईं इसमें शोला-ओ-शबनम!"

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  4. वाह वाह बहुत ही खूबसूरत शब्दों में सर्दी के मौसम को वर्णित किया है आदरणीय राकेश जी व मंसूर जी ने । दोनों शायरों को बहुत - बहुत बधाई 🙏💐💐

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  5. इस ब्लॉग का तरही मुशायरा यदि एक ग़ज़ल है तो खंडेलवाल sir का गीत उसके मतले का मिसरा उला माना जायेगा, और हाशमी sir की हज़ल मतले का सानी

    ये जोड़ी तेंदुलकर और गांगुली की तरह जबरदस्त ओपनिंग जोड़ी है। लगता है लंबी पारी चलेगी इस टेस्ट मैच की

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    1. आभार।
      रन आउट हुए हम बिना रन बनाए
      अब संभालो पारी ज़रा आ के 'गोतम'.

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  6. यादों के गलियारे होते हुवे कहाँ कहाँ नहीं ले गए आदरणीय राकेश जी ... रवानगी के साथ जैसे अतीत के सागर में गोते लगा रहे हिन् सब ... हर बंध बस वाआआह ... कोई जवाब नहीं ... बहुत बहुत बधाई राकेश जी को और इस लाजवाब शुरुआत को ...

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  7. आदरणीय हाशमी जी के शेरो ने तो सचमुच इस गुलाबी मौसम की हंसी बिखेर दी ...
    सादा और बेमिसाल शेर ... ए. सी., पंखा, गिजाए मुरब्बन ... आस पास बिखरे शबों को समेटना बखूबी जानते हैं हाशमी जी ...
    इस कामयाब गज़ल की बहुत बधाई और शरद की शुभकामनायें ...

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    1. शुक्रिया।

      "भला आपका मुस्कुराना लगा है
      'दिगम्बर' सदा ही रहे ख़ुश व ख़ुर्रम।"

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  8. उम्दा प्रस्तुति, दोनों ही साहित्यकारों द्वारा।

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  9. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-12-2021) को चर्चा मंच          "दूब-सा स्वपोषी बनना है तुझे"   (चर्चा अंक-4286)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  10. Waah waah waah Rakesh ji ne jaese smrtiyon ko punrjeevit hi kar diya. Yaadon ke jhrokhe ko is sundar geet ke maadhyam se kholne ke liye behad shukriya Rakesh ji
    Mansoor ji ki hazal ke to kya hi kahne hansi ko honthon se aankhon tak le jaane wali hazal
    Bahut mubarak. Bahut shukriya itni gudgudati hazal kahne ke liye

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    1. Thanks...

      "ग़ज़ल से हज़ल पर जो बदली है पटरी
      हसीनों के मन को भी लो भा गये हम!"

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  11. बहुत ही शानदार और लाजवाब प्रस्तुति
    जितनी तारीफ की जाए कम है!
    अली जी की रचना अंदर तक गुदगुदा रही है और लबों पर हंसी ला रही है और वहीं राकेश सर की रचना बचपन की सैर करा रही है दोनों ही बहुत शानदार है!
    सादर🙏
    अगर वक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी पधारे और हमारा मार्गदर्शक करें आदरणीय सर🙏🙏🙏

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    1. धन्यवाद मनीषा जी।

      "कथन गुदगुदी का मज़ा दे रहे है
      हज़ल हाश्मी कह के शर्मा रहे हम।"

      ब्लॉग 'स्वतंत्र आवाज़' की विज़िट की।

      http://dbjmc.blogspot.com/
      आपकी साहसिक व प्रेरणादायी लेखनी को सलाम।

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  12. वाह! बहुत ही शानदार दोनों शायर अंंदाज अलग पर लाजवाब।

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    1. Thanks.

      " 'मन की वीणा' के तारो तलक पहुंचना
      शायरी कर यही तो कमा पाये हम।"

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  13. आहा.. सुन्दर आगाज़। जाड़े की तरही।
    आदरणीय खण्डेलवाल जी ने बहुतों को बहुत कुछ याद दिलाया है.
    यह लाइन झकझोड़ गया " यहाँ ऊहापोहों के उमड़े कुहासे,,

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  14. मन्सूर अली हाशमी जी, वाह वाह !
    हजल की है बारिश नहा लें ज़रा हम

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    1. शुक्रिया भाईजान

      "सुलभ है बहुत यह हज़ल गोई लेकिन
      मिली दाद तुमसे तो इतरा गये हम।"

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  15. वाह वाह बहुत ही शानदार शुरुआत हुई है मुशायरे की। आदरणीय राकेश जी का गीत भावों और शब्दों की क्या कमाल की रवानी लिए हुए शुरू से अंत तक पहुंचता है। कमाल।
    आदरणीय हाशमी जी किस सहजता से ग़ज़लियत का स्तर कायम रखते हुए हजल कहते हैं, वह कमाल है।
    बहुत मजा आया आज का अंक पढ़ कर।

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  16. जो सदियों कहीं मन के कोने दबी थीं
    कई ऐसी बातें उभर आयीं खुल्लम
    गुमा शांत गुमसुम कहीं बचपना था
    जगा लाये राकेश भइया इसी दम !

    तरही मुशाइरे का शुभारम्भ ऐसी प्रस्तुति से होना जिसकी तासीर गहरे भीतर तक भिगो जाती हो, सफल आयोजन की पूर्व आश्वस्ति से कम नहीं.
    सादर प्रणाम के साथ ऐसी मनोहारी प्रस्तुति के लिए अशेष बधाइयाँ स्वीकारें, आदरणीय राकेश भाईजी.


    सौरभ

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  17. गटर गैस, लेडी-फिंगर, कद्दू आदि-आदि जैसे फन्नी जारगन्स के हवाले से जो हास्य उत्पन्न किया है आपने जनाब हाश्मी साहब, उसका जवाब नहीं है.

    अलबत्ता, कहा तो खुद ही है आपने ...
    हुए शेख समझो न कमजोर हमको
    बहुत हाश्मी में अभी तो है दमखम

    जय-जय, जय-जय ! .. दाद पर दाद पर दाद कुबूल फरमाएँ, जनाब हाश्मी साहब.


    सौरभ

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  18. राकेश जी का गीत उसी खूबसूरती से पुरानी यादों में ले जाने में सक्षम है जैसे किसी ज़माने में "वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी" हर सुनने वाले को ले गया था।
    राकेश जी को इस गीत की बहुत-बहुत बधाई।

    हाश्मी साहब की हास्य ग़ज़ल कह रही है कि शायर को हास्य-मी साहब के नाम से नवाज़ा जाना चाहिये। यह ग़ज़ल इस कदर हँसाने में सक्षम है कि कड़कती सर्दी में भी हंसने से हुई हरकत से बदन में गर्मी आ जाये।
    मुबारक़ हो हाश्मी साहब।

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  19. शुक्रिया तिलक राज कपूर साहब, महफ़िल में आपका भी इंतज़ार हो रहा है।

    (लगाय के तिलक हाश्मी के 'कपूर जी'
    हंसोड़ो मा वांने बनय दियो रूस्तम)

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