बुधवार, 10 नवंबर 2021

आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं

मित्रो इस बार का तरही मुशायरा बहुत सफल रहा है, सभी रचनाकारों ने बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया इसमें। और अभी भी मुशायरा चल ही रहा है। शायद एक दो अंक और भी आएँगे इस मुशायरे के क्योंकि कई लोग अभी भी दौड़ते हुए ट्रेन को पकड़ रहे हैं। अच्छा लगता है यह रचनाधर्मिता का उत्साह देख कर, क्योंकि यह उत्साह ही उस अवसाद से हमको बाहर निकालता है, जिस अवसाद से हम सब पिछले दो साल से जूझ रहे हैं।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं। हमेशा की ही तरह भभ्भड़ कवि की ग़ज़ल दीपावली पर चलाई जाने वाली लड़ की तरह लम्बी है। इस ग़ज़ल के बारे में मैं और तो कुछ नहीं कह सकता बस यह कह सकता हूँ कि अब जैसी भी है आपको यह ग़ज़ल तो झेलनी ही पड़ेगी। तो आइये सुनते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के से उनकी यह ग़ज़ल।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
पिता की आँख के तारे, थे माँ के लाड़ले दीपक
सुना है रात सरहद पर कई फिर बुझ गये दीपक
किसी के लम्स की चिंगारियों से आँच पाई तो
सरापा ख़्वा​हिशों के यक-ब-यक हैं जल उठे दीपक

हमारे देश का राजा, हज़ारों आफ़ताबों सा
किसे तेरी ज़रूरत अब यहाँ, सुन बे अबे दीपक
लरजता जिस्म वो जैसे, नदी का घाट हो कोई
और उस पर हम लबों से रात भर रक्खा किये दीपक

अमावस है घनी, होती रहे, परवाह क्या उसकी
हमारे साथ हैं काजल भरे दो साँवले दीपक
अँधेरा ओढ़ कर बैठे रहो चुपचाप सब यूँ ही
व्यवस्था को पसंद आते नहीं जलते हुए दीपक

बरस बीते कई अब तो किसी का हाथ छूटे पर
अभी तक जल रहे मन में उसी की याद के दीपक
नई दुल्हन की दो रतनार आँखें ये बताती हैं
पिया रँगरेज़ के संग कर रहे हैं रतजगे दीपक

न गांधी हैं, न ईसा अब, मगर उनके विचार अब भी
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"
कहेंगे वस्ल उसको ही, बहुत बेचैन होकर जब   
मिला लें लौ से लौ अपनी, तेरे दीपक, मेरे दीपक

समझना इश्क़ में हो तुम, अगर होने लगे ऐसा
किसी को देखते ही दिल की देहरी पर जले दीपक
दिखा जब से कोई सूरज, हुए सूरजमुखी तब से
उसी के साथ चलते हैं नयन के बावरे दीपक

"सुबीर" इनसे ही क़ायम है भरम दुनिया के होने का
नहीं, शम्स-ओ-क़मर, तारे नहीं, ये सिरफिरे दीपक
तो जैसा मैंने पहले ही कहा था कि आपको इस अठहत्तर किलोमीटर लम्बी ग़ज़ल को झेलना तो पड़ेगा ही। नाक बंद कर इस कड़वे घूँट को पी जाइये। और हाँ अगला अंक शायद समापन का अंक होगा जिसमें नीरज गोस्वामी जी शो स्टॉपर बन कर आएँगे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करने। तो मिलते हैं अगले अंक में।




13 टिप्‍पणियां:

  1. गजब भइया गजब ! गजब की सोच,गडब की उठान, गजब का कथ्य.
    एक-एक शेर सवा लाख का. किस एक की बात करूँ ? हर शेर गहीर बहती नदी की अपसारी भँवर है, जिस एक में डूबो तो बस डूब जाओ और मुग्ध-मुग्ध घुमड़ो.

    भभ्भड़ कवि भौंचक की इस कमाल की कोशिशों पर चकित-मन की जय-जय !

    सौरभ

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  2. भभ्भड़ कवि ने हद कर दी इस बार... हम नहीं जानते थे कि वो सीरियस टाइप दमदार ग़ज़लें भी कह लेते हैं , हम तो उन्हें अपने टाइप का नौटंकी बाज समझते थे लेकिन इस बार... उफ्फ... बोलती बंद कर दी हब की...एक एक शेर ऐसा कि बार बार पढ़ने के बावजूद फिर फिर पढ़ने को मजबूर करे...किसी ग़ज़ल की दीवाली पर शेरों के ऐसे करीने से सजे दीपक नहीं देखे...एक एक दीपक आफताब की तरह चमकता हुआ...किसकी रौशनी ज्यादा है ये तय करना नामुमकिन है...कहीं राजनीति पर धारदार कटाक्ष हैं तो कहीं प्रेम के सतरंगी रुप हैं तो कहीं मन की कोमल भावनाओं का ऐसा सजीव चित्रण है कि पूछो मत।
    भभ्भड़ कवि के समक्ष सर रोकने की हजार कोशिश करने के बावजूद झुकता ही जा रहा है...
    जय हो भभ्भड़ तेरी सदा ही जय हो....

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  3. गज़ब,कमाल, खासकर लरजता जिस्म वो जैसे.......... वाह वाह अद्भुत शेर

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  4. धमाकेदार ग़ज़ल... किसी को एक शेर लिखना भी मुश्किल और कविराज ने लड़ी ही जला दी शेरो की ...
    एक से बढ़ कर एक और सभी अलग अलग अंदाज़ के ... नई सोच हर शेर में ... और रुक रुक के बार बार पढने को खींचता है हर शेर ... दीपावली का मुशायरा सच में लाजवाब और बेमिसाल रहा ... अभी समापन अंक की प्रतीक्षा है ...

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  5. भभ्भड़ कवि भौंचक्के “ पंकज “ सर की ग़ज़ल नींद में से उठकर चाय के कप के साथ शुरू कि पढ़ना और भौंचक्के रह गए । बार - बार एक-एक शेर को चबाना पड़ रहा था , खाल मोटी क़द बड़ा । बहुत गहरी गम्भीर बात बहुत सरलता से कहना और झँझोड़ना , भीतर की दिवाली की सफ़ाई हो गई । एक से बड़कर एक , लाजवाब ! आपकी ग़ज़ल ने निशब्द कर दिया है अपनी राय देने के लिए । कुल मिलाकर सभी रचनाएँ बेहतरीन सर जी 🙏🙏

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  6. वाह, वाह। क्या बात है। एक से एक शे’र निकालें हैं आपने। सब के सब कमाल। प्रेम, तंज, दर्शन सब पर कमाल के अश’आर। दिली दाद कुबूल फरमाइये।

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  7. इस बार भभ्भड़ कवि ने कमाल कर दिया। कितना कुछ कह दिया एक ही ग़ज़ल में।

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  8. लरजता जिस्म वो जैसे, नदी का घाट हो कोई
    और उस पर हम लबों से रात भर रक्खा किये दीपक

    उफ्फ वाह गुरु जी क्या शानदार शेर है।ख्याल को जिस सलीके से शेर में ढाला है ,कमाल है। मतले से लेकर मकते तक सभी शानदार शेर।

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  9. उस्तादाना कलाम, बहुत ख़ूब। सारे शे'र लाजवाब है। दिली मुबारक बाद क़बूल फरमाएं।

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  10. ये तो जबरदस्त काम हुआ है खासकर वो शेर जिसमे दो रतनार आँखे का ज़िक्र हुआ है कुक्य ही बेहतरीन शेर हुआ है. भरपूर ग़ज़ल हुई है पंकज भाई .... पुष्पगुच्छ स्वीकार करें.

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  11. वाह वाह वाह भईया एक से बढ़कर एक शेर हुए हैं । बहुत ख़ूब

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  12. लगभग 14 दिन मेल से दूर रह और मुझसे अंतिम दो पोस्ट छूट गईं। आज मेल चेक करना हुआ तो अंतिम दो पोस्ट की जानकारी मिली। हर शेर पूरी गंभीरता से अपना रंग प्रस्तुत कर रहा है और यह सिद्ध करने में सक्षम है कि ग़ज़ल सलीके से कही जाए तो विचार रदीफ़, क़ाफ़िया और बह्र की सीमाओं में रहते हुए भी अपनी खूबसूरती कायम रख सकता है।

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