शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

आइए आज बासी दीपावली का आयोजन करते हैं दो गुणी रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी और रेखा भाटिया जी की बहुत सुंदर रचनाओं के साथ।

बासी दीपावली जारी है, बीच में स्वास्थ्य की गड़बड़ी के कारण के अंक लगने में कुछ विलंब हुआ हालाँकि बस दो ही रचनाएँ बाक़ी रह गई थीं। लेकिन हमारे यहाँ तो इस ब्लॉग पर परंपरा रही है कि हम धनतेरस से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक दीपावली का त्योहार मनाते हैं। आज देव प्रबोधिनी एकादशी है तो आइए आज हम दो रचनाकारों के साथ यह एकादशी पर्व मनाते हैं। इसके बाद शायद संभव हुआ तो कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर भभ्भड़ कवि भौंचक्के आ सकते हैं।
क़ुमकुमे यूँ जल उठेंगे, नूर के त्यौहार में
आइए आज बासी दीपावली का आयोजन करते हैं दो गुणी रचनाकारों राकेश खंडेलवाल जी और रेखा भाटिया जी की बहुत सुंदर रचनाओं के साथ।



राकेश खंडेलवाल

फिर दुशासन ने हरा है चीर भोली द्रोपदी का
और पूतिन हो रहा हिटलर सदी इक्कीसवीं का
बढ़ रही है नारियों पर बंदिशें ईरान में यूँ
कह ख़ुदा का हुक्म है लिक्खा हुआ कुरआन में ज्यूँ
उठ रही संकीर्णता की लहर अमरीकी गली में
भूल कर डालर सिमटते जा रहे इक पावली में
प्रश्न करता मन, खबर पढ़ आज के अख़बार में
कुमकुमे कैसे जलेंगे नूर के त्योहार में


धैर्य तज कर हो रहा वातावरण पूरा प्रकोपित
पंचवटियों से जहां थे वन रहे होकर सुशोभित
आज की इस सभ्यता के नाम ने सब ही मिटाए
भूमि, जल, आकाश के सब संतुलन खुद ही हटाए
क़हर ढाते हैं समंदर में उठे तूफ़ान नित ही
खा रहे ठोकर बदलते आचरण ना किंतु फिर भी
क्रांति आएगी कभी जब आपके व्यवहार में
कुमकमे तब ही जलेंगे नूर के त्योहार में

द्वार पर जब एक दीपक तुम जला कर के धरो
इक किरण यूक्रेन के भी नाम की शामिल करो
इक किरण पर नाम हो महसा अमीनो का लिखा
इक किरण जिसने सदा सम्मान नारी का करा
ज्योति जागेगी यहाँ वैचारिकी आचार में
और गति आ जाएगी जब मानवी सत्कार में
तब सही होगी दीवाली पूर्ण इस संसार में
कुमकुमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहार में

अपने समय पर नज़र रखना ही किसी रचनाकार का सबसे बड़ा दायित्व होता है तथा इस गीत में पुतिन तथा हिटलर की तुलना करते हुए राकेश जी ने उसी दायित्व निर्वाह का संकेत दिया है। दुनिया भर में जो सवाल इस समय परेशान किए हुए हैं उन सब को जगह देते हुए पूछा है कि क़ुमक़ुमे कैसे जलेंगे नूर के त्योहार में। और उसके बाद अगले ही बंद में पर्यावरण को लेकर रचनाकार एकदम सचेत दिखाई दे रहा है और कड़े प्रश्न अपने समय और समाज से पूछ रहा है। सच में यह सारे प्रश्न आज ही पूछा जाना बहुत ज़रूरी है। और उसके बाद अंत के बंद में एक समाधान के साथ रचना समाप्त हो रही है, सवाल अकेले ज़रूरी नहीं हैं, समाधान भी ज़रूरी है और बंद समाप्त होता है उस प्रश्न का यह उत्तर देते हुए कि क़ुमक़ुमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहार में। बहुत ही सुंदर गीत, वाह वाह वाह। 


रेखा भाटिया 

आसमान सितारों से भर रहा और धरती खाली हो रही
जगमगाते सितारे धरती के असमय चल दिए आसमान में

कर्तव्य निभाते जैसे कुमकुमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहारों में
कभी जगमगाते थे धरती पर अमन कायम इनके कर्मों से  
बीमार अख़बार बार-बार शोर मचाते राम राज्य का सपना
सत्ताओं की आतिशबाज़ी खेली इंसानों ने विधवा हुई इंसानियत
मानता नहीं इंसान सोचता वह अमरत्व की घुट्टी पीकर आया
खेल चुकने के बाद बाज़ी क़िस्मत ने पत्ता फेंका है अपना
कहीं जल रहा है बेबस बेचारा कुमकुम आसुँओं के हवन में
कहीं जल रही चंदन की चिता फूलों की सुगंध थी कर्मों में
कभी चल रहा था अकेला सड़कों पर मन में मनाता दिवाली
छोड़ घर की दिवाली चौकन्ना पहरा देता सत्ता का फ़ैसला
बंदनवार द्वार पर बँधे हैं और डर भीतर तक समाया हुआ है
यही किस्मत खुद लिखी है इंसान ने बाज़ारवाद की दुनिया में
देह और मन को, ईमान और वतन को व्यापार बना सत्ता चाहता
अमावस का अन्धकार सदा छाया रहेगा भविष्य के उजियारे में
जो आज न बदला आचरण वीरों की चिताएँ कब तक जलेगीं
देश के भीतर तक और सरहदों पर बलिदान यह देते आए
प्रण करो इस दिवाली इंसानियत के दीप बुझने न पाए !

यह रचना भी हमारे समय के सवालों से जूझती हुई रचना है। यहाँ प्रतीकों के माध्यम से रचनाकार ने कुछ ज़रूरी सवाल उठाए हैं। कुछ दृश्य दिखाए हैं और पूछा है कि यह सब कुछ तो आज भी चल रहा है तो फिर हम कैसे मानें कि सब कुछ बदल रहा है। अंतिम पंक्ति में खड़े हुए आदमी के साथ यह कविता खड़ी हुई नज़र आ रही है। और उस आदमी के साथ खड़े होकर उसकी बात कर रही है। सत्ता की आतिशबाज़ी के बीच इंसानियत की बात कर रही है। हर समय में कवि को ही विपक्ष की भूमिका में रहना होता है, जो सत्ता के पक्ष में खड़ा होता है वह और कुछ भी हो जाए कवि नहीं हो सकता है। सत्ता के पक्ष में चारण खड़े होते हैं, और जनता के पक्ष में कवि खड़ा होता है। दुनिया की कोई भी सत्ता कभी भी जनपक्षीय नहीं होती, जनपक्षीय हमेशा कवि होता है इसीलिए वह विपक्ष होता है। वाह वाह वाह बहुत सुंदर कविता।

आज दोनो ही रचनाकारों ने बासी दीपावली का रंग जमा दिया है। आप भी दिल खोल कर दीजिए दाद और इंतज़ार कीजिए कार्तिक पूर्णिमा के अंक का जिसमें शायद भभ्भड़ कवि अपनी रचना लेकर आ जाएँ... शायद। 


3 टिप्‍पणियां:

  1. हर बार जब तरही घोषित होती है तो प्रतीक्षा रहती है देखें इस बार कैसे-कैसे रंग भरे जाते हैं तरही में और पहली ही पोस्ट से रंग विविधता का आनंद मिलने लगता है जो अंत तक छाया रहता है। राकेश जी गीत तो नये-नये शब्द-प्रयोग के रंग भरते ही हैं अन्य भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। इस बार भी यही हुआ और सभी भागीदार बधाई के पात्र रहे इस आनंद के।
    अब बस भभ्भड़ कवि की प्रतीक्षा शेष है।

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  2. बासी दीवाली पर एकदम ताजी रचनाएं पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। बहुत बहुत बधाई आदरणीय राकेश जी और आदरणीया रेखा जी को।

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