शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे, आगाज़ आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, अश्विनी रमेश जी, वासुदेव अग्रवान नमन जी, निर्मल सिद्धू जी और सुलभ जायसवाल के साथ



मित्रों एक बार फिर से दीपावली का यह त्यौहार सामने आ गया है। भारतीय संस्कृति में परिवार को सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई माना गया है। परिवार की धुरी के आस-पास ही सभ्यता की, संस्कृति की, समाज की परिकल्पना की गई है। दुनिया के किसी दूसरे देश, या किसी दूसरी संस्कृति में परिवार की इतनी प्रधानता नहीं दिखाई देती। इसी परिवार को केन्द्र में रखकर हमारे यहाँ त्यौहारों का निर्धारण किया गया। त्यौहार, जिनके आगमन के साथ ही सारा परिवार एक साथ होने का प्रयास करता है। परदेश गए हुए सदस्य लौटने का प्रयास करते हैं, कि त्यौहार आ रहा है। यह जो लौटना और फिर से एकत्र होना है, यही शायद त्यौहारों का मूल काम है। इसीलिए वर्ष में एक निश्चित अंतराल के बाद कोई न कोई त्यौहार आ जाता है। और उसमें भी सबसे विशिष्ट और सबसे बड़ा त्यौहार दीवापली का त्यौहार। बाकी सारे त्यौहार ‘होली’, ‘रक्षा बंधन’ जहाँ पूरे चाँद की जगमग रात में आते हैं, वहाँ यह एकमात्र ऐसा त्यौहार है जो घोर तमस में डूबी अमावस की रात में आता है, और रात में ही मनाया जाता है। कैसा विरोधाभास है कि सबसे गहन अंधकार में डूबी रात को ही कहा जाता है ‘प्रकाश पर्व’। और यह प्रकाश पर्व मनाया भी कैसे जाता है ? पूरा परिवार एक साथ एकत्र होकर उस अँधेरी रात को दीपकों के प्रकाश से रोशन करता है। चुनौती देता है अँधेरे को कि ‘‘हम एक साथ हैं, और एक साथ ही तेरे इस स्याह साम्राज्य से लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं अपने हाथों में प्रकाश के ध्वजवाहक दीपकों को लेकर।’’ बहुत गहरे में उतर कर अगर इसका अर्थ निकाला जाए, तो बात वही सामने आती है कि जीवन में हमेशा सूर्य के प्रकाश से भरे हुए दिन तथा चंद्रमा की शीतल चाँदनी से भरी हुई रातें नहीं होती, कभी-कभी अँधेरा भी होता है, घना और गहरा अँधेरा। जब अँधेरा घिर आए तो फिर सबको एक साथ खड़ा होना पड़ता है, फिर ये लड़ाई सबकी हो जाती है। दीपक वास्तव में प्रतीक होते हैं हमारे संकल्प के, वह संकल्प जो पूरा परिवार लेता है, और संकल्प यह होता है कि हम सारे सदस्य जो परिवार का हिस्सा हैं, अब हम में से कोई भी एक अलग इकाई नहीं है, यदि किसी एक पर अँधेरा गहरा रहा है, तो दीपक हम सब के हाथों में होगा, चुनौती हम सब की तरफ़ से प्रस्तुत की जाएगी। चूँकि सब को एक साथ होना है, इसलिए सब लौट आते थे, और आज भी लौट आते हैं वापस अपने घर, कि दीपावली आ गई है। इसी तरह हम सब भी लौटते हैँ अपने इस ब्लॉग पर हर त्यौहार पर। साल भर अपनी-अपनी व्यस्तताओं में उलझे रहते हैं और फिर जैसे याद आने पर आ जाते हैं यहाँ।

  उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


राकेश खंडेलवाल

करेंगे मेजबानी कब तलक छाए अंधेरों की
भला कब रूढ़ियों के चक्र से ख़ुद को निकालेंगे
भले ही भूल बैठा हो दिशा इस ओर की सूरज
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
नए फिर थाम कर निश्चय कमर कस कर के तत्पर हो
नए संकल्प हम लेकर बना लेंगे दिशा अपनी
नहीं है शेष आशा की अपेक्षा हुक्मरानों से
हुए जो खोखले वायदे न बनते नींव सपनों की
नए निश्चय हमारे हैं नयीं राहें बना लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी का फिर दीपक जला लेंगे
सहारा ढूँढने की जो हमें अब तक बिमारी ही
उसी को तो भुनाते हैं हमारे ही चुने शासक
शिकायत, हाथ फैलाना, कोई दे दे मदद हमको
हमारी उन्नति में हो गया सबसे बड़ा बाधक
अगर हम तोड़ कर रेखा, क़दम अपने बढ़ा लेंगे
उजाले तब स्वयं आकर हमारा पथ सज़ा देंगे
बहुत दिन हो चुके, इक नींद में संवाद सेवा थी
उठी अँगड़ाइयाँ लेकर अमावस के अंधेरों में
अगर ये व्यस्तताओं का कलेवर जो तनिक उतरे
नहीं फिर देर लग पाए, नए उगते सवेरों में
यहाँ आ गीत-ग़ज़लें नित नई शमअ जला लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।

राकेश जी का इस ब्लॉग के प्रति प्रेम और लगाव मन को नम कर देता है। वे हमेशा पूछते रहते हैं कि इस बार तरही का मिसरा नहीं दिया गया। और जब तरही का आयोजन होता है तो उनकी एक के बाद एक रचनाएँ प्राप्त होना शुरू हो जाती हैं। इस बार भी वे तीनों अंकों में उपस्थित रहेंगे। सबसे पहले उनके इस सकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए गीत से ही हम दीपावली की शुरूआत करते हैं। भले ही भूल बैठा हो दिशा इस ओर की सूरज, उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे, वाह क्या बात है। जैसे हमारे पूरे समय को दो पंक्तियों में समेट दिया गया हो। सूरज की प्रतीक्षा नहीं करने की बात और आत्म दीपो भव की बात जैसे इस गीत की आत्मा है। नए निश्चयों की बात एकदम चुनौती के रूप में पहले बंद में सामने आ रही है। दूसरे बंद में किसी की मदद का इंतज़ार नहीं करने की बात को क्या सुंदर तरीक़े से कहा है - सहारा ढूँढने की जो हमें अब तक बिमारी ही,  उसी को तो भुनाते हैं हमारे ही चुने शासक। वाह वाह क्या बात है। और अंतिम बंद जैसे एक नई सुबह की बात कर रहा है - अगर ये व्यस्तताओं का कलेवर जो तनिक उतरे,  नहीं फिर देर लग पाए, नए उगते सवेरों में। इससे शानदार शुरूआत भला और क्या हो सकती है तरही की। राकेश जी का यह सुंदर गीत तरही को नई ऊँचाइयों पर पहुँचा रहा है। वाह वाह वाह।
 

अश्विनी रमेश
नया जीवन नयी दुनिया नये सपने तलाशेंगे
समझते हों हमें जो लोग वो अच्छे तलाशेंगे
अजब है ज़िन्दगी बाज़ार होती जा रही हर शय
इस अँधी दौड़ से हटकर सुकूँ  बच्चे तलाशेंगे
अंधेरा हो भले संघर्ष कर आगे बढ़ेंगे हम
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे  
उदासी ज़िन्दगी में घेर पाएगी न हमको यूं
नयी आशा नए आयाम जीने के तलाशेंगे 
बुरा है दौर फिर भी बीत जायेगा सँभल लेंगे
सलीके कुछ मुसीबत से उबरने के तलाशेंगे
हमारा वक़्त तो आखिर तनावों से भरा ठहरा
सदा अपना सुकूँ पाने खुदा बन्दे तलाशेंगे
समझ लेना नहीं आसान है खुद को मगर फिर भी
मिलेगा खोजकर कुछ खुद को अगर गहरे तलाशेंगे
मुखोटों में छिपे चेहरे डराने अब लगे हमको
बची मासूमियत जिनमें नए चेहरे तलाशेंगे
ललक अब भी हमारे में नया कुछ कर लिया जाए
पकड़कर राह सत की हम नए हीरे तलाशेंगे
 
अश्विनी रमेश जी की ग़जल हर बार कुछ नये प्रयोगों को साथ लाती है। इस बार भी उनकी ग़ज़ल जैसे अपने समय को चुनौती दे रही है। चुनौती इस बात की कि हम हारे नहीं हैं और ना ही थके हैं। हमारे लिए संघर्ष जीवन भर का है। बाज़ार में घिरे हुए हमारे बच्चों का सुकूँ तलाशने का विचार बहुत अच्छा है, काश हमारे बच्चों को बाज़ार की दौड़ से कुछ सुकूं मिले। अंधेरों की चुनौती को स्वीकार कर उजालों की तलाश करना ही अगले शेर का मुख्य भाव बन गई है। उदासी से पार पाकर नई आशा और नए आयामों की तलाश बहुत अच्छे से शेर में ढल गई है। और स्वयं को तलाश करने का शेर तो जैसे कमाल ही बन पड़ा है गहरे उतर कर स्वयं की तलाश करना ही तो जीवन है। और हमारे समय की सबसे बड़ी पीड़ा कि कुछ चेहरे मुखौटे के पीछे छिपे हैं। नए चेहरों की तलाश करने के लिए हम सबको आगे बढ़ना ही होगा। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है अश्विनी रमेश जी ने। बहुत ख़ूब वाह वाह वाह।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे।
समस्याएँ अगर इसमें तो हल मिल के तलाशेंगे।
स्वदेशी वस्तुएं अपना के होंगे आत्मनिर्भर हम,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
महक खुशियों की बिखराने वतन में हम बढ़ेंगे सब,
हटा के ख़ार राहों के, खिले गुंचे तलाशेंगे।
सकें रख ये वतन जिस एकता की डोर में बाँधा,
उसी डोरी के सब मजबूत हम धागे तलाशेंगे।
पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं,
जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे।
सही इंसानों से रिश्तों को रखना कामयाबी है,
बड़ी शिद्दत से हम रिश्ते सभी ऐसे तलाशेंगे।
अगर बाकी कहीं है मैल दिल में कुछ किसी से तो,
मिटा पहले ये रंजिश राब्ते अगले तलाशेंगे।
पराये जिनके अपने हो चुके, लाचार वे भारी,
बनें हम छाँव जिनकी वे थकेहारे तलाशेंगे।
बधाई दीपमाला की, यही उम्मीद आगे है,
'नमन' फिर से यहाँ मिलने के सब मौके तलाशेंगे।
वाह क्या मतला है। एकदम सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ मतला। समस्याओं का हल मिल कर तलाशने की बात बहुत सुंदर है। और अगले ही शेर में बहुत ही कमाल की गिरह बांधी गई है। स्वदेशी के आंदोलन को जिसकी शुरूआत गांधी जी ने की थी, उसे इस प्रकार भी गिरह में बांधा जा सकता है वाह वाह। कांटों को हटा कर फूलों की तलाश करना ही तो देशप्रेम है जो अगले शेर में बख़ूबी व्यक्त हो रहा है। वतन को मज़बूत रखने के लिए पक्के धागों की तलाश करता अगला शेर भी ख़ूब बना है। सबसे पहले दिल के मैल को, नफ़रत को हटाकर उसके बाद अगले राब्ते तलाश करना ही तो आज मानवता के लिए सबसे बड़ा काम है। इस बात को बहुत ही सुंदर तरीके से शेर में गूँथ दिया गया है। और मकते का शेर तो जैसे आँखें नम कर देता है। सच में हर वर्ष यही उम्मीद करना कि अगले साल हम सब फिर मिलेंगे मिलते रहेंगे बस यही उम्मीद है। मौके तलाशने की बात कमाल है। सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

निर्मल सिद्धू

दिवाली आयेगी जब-जब निशां उनके तलाशेंगे
मुहब्बत के वही हम दौर फिर पिछले तलाशेंगे
सजेगा हर गली कूचा नये अरमां लिये दिल में
दिवाने होके सब अपने सभी सपने तलाशेंगे
चलेगी हर तरफ़ आतिश मचेगी धूम हर आंगन
जो घर-घर की बनें रौनक वही नग़्मे तलाशेंगे
भले हों पास अपने आजकल लाखों तरीके पर
उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
सितारों से उतर आने लगे ख़ुशियों के पल अब तो
मनाने को ख़ुशी पर जाम ना टूटे तलाशेंगे
भुला के रंज-ओ-ग़म सारे मिला के हाथ निर्मल से
चलेंगे साथ जब मिलकर क़दम पक्के तलाशेंगे
वाह इससे सुंदर बात क्या हो सकती है कि जब-जब उनके निशां तलाशे जाएँगे तब ही यादों की दीवाली मन जाएगी। मोहब्बतों के दौर पिछले तलाशने की बात ख़ूब कही है। अगले ही शेर में जिन नए अरमानों की बात कही गई है वही तो हम के सपनों के रूप में हामरी आँखों में बसते हैं। आँगनों को सजा देने के बाद हम तलाश करते हैं गीत की संगीत की। और यहाँ इस शेर में भी उन नग्मों की तलाश की बात है, जो हर आँगन में गूँजें। जब हम सब थक जाते हैं ऊब जाते हैं, तभी तो लौटते हैं हम अपनी जड़ों की तरफ़ और उसी बात को बहुत अच्छे से गिरह का शेर कह रहा है। सच में जब भी हम एकरसता से ऊब जाते हैं तभी तो हम लौटते हैं कि चलो अब मिट्टी की दीपकों की तलाश की जाए। जब सारे ग़म और सारे दुख भुला दिए जाएँ और उसके बाद हम सबके हाथ एक दूसरे के हाथों में होंगे तभी तो हम सब के कदम पक्के होंगे। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

सुलभ जायसवाल

नदी झरने परी जंगल के हर किस्से तलाशेंगे,
कहानी और किस्सो में छुपे बच्चे तलाशेंगे।
सँवारा था करीने से मेरे माथे की जुल्फों को,
बड़ी बुआ के उस फोटो में हम रिश्ते तलाशेंगे।
कलम कागज़ नहीं छेनी हथौड़ा भी नही फिर तो
सदी इक्कीसवीं में वह छुरी भाले तलाशेंगे।
कहीं पानी बहुत ज्यादा मवेशी डूबते मरते
कहीं सूखा न आ जाए कि हम कौवे तलाशेंगे।
वो ठेकेदार अभियंता नगर परमुख या मुखिया हो
घुसे पानी जहाँ घर में वे तब नाले तलाशेंगे।
वो जिनके खून में हैवानियत नफरत के कीड़े हों
मिटाने रोग उनके हम नये टीके तलाशेंगे।
सजे बाज़ार चौराहे भले कितने ही बल्बों से
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
मोबाइल संग हर लम्हे ये कैसे रोग पाले हैं
कभी इकदिन पड़ौसी के हमी काँधे तलाशेंगे।
गली सड़कें हैं पक्की और यहाँ बिजली के खम्भे हैं
'सुलभ' फिर क्यों वहाँ दिल्ली में हम पैसे तलाशेंगे।
सुलभ की भी आदत है ग़ज़लों में एकदम नए प्रयोग करने की। इस बार भी सुलभ ने एकदम नए तरीक़े से अपनी ग़ज़ल को कहा है। मतले का शेर ही जैसे आँखें नम कर देता है। सच में हम अब तो उम्र भर उन्हीं बच्चों की तलाश करेंगे, जो कहानी और किस्सों में छिपे हैं। अगला ही शेर नम आँखों से आँसू को बहने पर मजबूर कर देता है। बड़ी बुआ का वह फोटो हम सब के पास है। बहुत ही कमाल का शेर कहा है। सच कहा है अगले शेर में कि अब जब आने वाले समय में कलम कागज नहीं होगा तो सच में हमारे बच्चे छुरी भाले ही तो तलाशेंगे। गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है सच में कितने ही बल्बों की झालरें लगी हों, लेकिन हम तो तलाशते हैं उन्हीं मिट्टी के दीपकों को। मकते का शेर गाँव से शहर की तरफ़ हो रहे पलायन को रोकने के लिए बहुत अच्छे प्रतीक के रूप में सामने आया है। यही बात सबको समझनी होगी। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।
आज मुशायरे का बहुत ही कमाल आगाज़ आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, अश्विनी रमेश जी, वासुदेव अग्रवान नमन जी, निर्मल सिद्धू जी और सुलभ जायसवाल ने किया है। आज धनतेरस है, आज के दिन से ही दीपावली प्रारंभ हो जाती है। तो आज इन पाँचों रचनाकारों ने मिलकर दीपावली के आ ही जाने का एहसास करवा दिया है। तरही का रंग छा गया है आप सब दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।


28 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी शुरुआत। सार्थक रचनाओं को पढ़ कर खुशी हुई।

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  3. आ0 राकेश खण्डलवाल जी ने सीधे दिल में उतरते गीत से मुशायरे का आगाज़ किया है। गीत हमें रूढ़ियों से निकाल हुक्मरानों की जी हुजूरी से निकालते हुए खुद पर संबल रखने के लिए कहता है। और अंत में अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय अपने पर्व और रीति रिवाजों को भी दें। बहुत सुंदर आगाज़।

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  4. आ0 अश्विनी रमेश जी को बहुत ही सुंदर ग़ज़ल की बधाई। आज के आर्थिकवाद से निकल उस दुनिया को तलाशने की सन्देश देती ग़ज़ल जहां हम तनावमुक्त रहें और नकली मुखौटे उतार अपना वास्तविक जीवन जियें

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  5. आ0 निर्मल सिद्धू जी ने मुहब्बत, मेलजोल बढ़ा आगे चलने, और सकारात्मक सोच पर प्रकाश डालती सुंदर ग़ज़ल कही है। बहुत बधाई

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  6. आ0 सुलभ जयसवाल जी ने बचपन, बुजर्गों का प्यार, नफरत हटा प्यार में खिलना, टेक्नोलॉजी में उलझ के न रह जाना, शहरों की तरफ अनावश्यक झुकाव इत्यादि कई मुद्दे उठाते हुए बहुत सार्थक ग़ज़ल कही है।

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  7. बहुत सार्थक पोस्ट....
    राकेश खंड़लवाल जी, अश्विनी रमेश जी, वासुदेव अग्रवाल नमन जी, निर्मल सिद्धू जी और सुलभ जायसवाल...सभी धुरंधर रचनाकारों ने अपने काव्यात्मक विचार सम्प्रेषण से मंत्रमुग्ध कर दिया।
    साधुवाद आपको और सभी रचनाकार मनीषियों को 🙏

    धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं ✨🌹✨

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  8. राकेश को पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुजरना होता है...कमाल के रचनाकार हैं वो...नये निश्चय हमारे हैं नयी राहें बना लेंगे...वाह.
    रमेश जी ने भी आशा का संदेश दिया है नयी आशा नये आयाम जीने के तलाशेंगे...बेहतरीन ग़ज़ल कही है...बधाई.
    सही इंसानों से रिश्ते को रखना कामयाबी है...पहली बार पढ़ा है वासुदेव जी को...बहुत सार्थक ग़ज़ल कही है उन्होंने.
    सजेगा हर गली कूचा नये अरमां लिए दिल में...निर्मल जी अपनी कलम का लोहा पिछले तरही मुशायरों में मनवाते आए हैं इस बार भी आनंदित कर गए.
    सुलभ विलक्षण प्रतिभा संपन्न शायर हैं और हमेशा कुछ नया कहने की कोशिश में रहते हैं...संवारा था करीने से...वाह...बहुत खूब ग़ज़ल...
    आगाज़ बेहतरीन है मुशायरे का.ब्लॉग पर आना अपने पुराने घर लौटने जैसा अनुभव देता है...वो भी क्या दिन थे...अहा!!!@

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  10. राकेशजी खण्डेलवाल :
    शब्द 'तलाश' में छुपी असीमित सम्भावनाओं के भाव को राकेश जी ने ख़ूब समझा है उसका प्रेरक पहलू ही इनकी रचना में उजागर हो रहा है।
    सुबीर संवाद सेवा से उनकी अपेक्षाएं सर्वथा उपर्युक्त है।

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  11. अश्विनी रमेश जी:
    समझ लेना नहीं आसान है खुद को मगर फिर भी
    मिलेगा खोजकर कुछ खुद को अगर गहरे तलाशेंगे

    बहुत ख़ूब, तलाश की इन्तहा है अपनी ज़ात में उतरना।

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  12. बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी:
    पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं,
    जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे।
    आमीन, आपकी तलाश पूरी हो।
    आज के माहोल के लिये क्या अच्छी बात कह दी है आपने।

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  13. निर्मल सिद्धु जी:
    दीपो के पर्व को समर्पित आपकी रचना बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है। हार्दिक बधाई।

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  14. सुलभ जायसवाल:
    कलम कागज़ नहीं छेनी हथौड़ा भी नही फिर तो
    सदी इक्कीसवीं में वह छुरी भाले तलाशेंगे।
    हक़ीक़त बयान करते तमाम अशआर। बहुत ही ख़ूब, सुलभ जी।

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  15. इस पटल पर तरही मुशायरा का प्रारम्भ होना कई आत्मीय भावों के एकबारग़ी जग जाने का कारण हुआ करता है. पिछली बार के आयोजन में मैं अपनी ग़ज़ल के साथ उपस्थित नहीं हो पाया था. इसका मलाल मुझे आजतक है.
    इस बार स्वयं से ही एक तरह से ज़िद कर बैठा था कि जैसी भी होगी, जितनी भी होगी, मैं उतनी ही ग़ज़ल सही, भेजूँगा.
    लेकिन देखिए, मुशायरा नियत समय से शुरु भी हो गया और हम अपनी ही ज़िद की ऐसी-तैसी करते रहे. ख़ैर..

    आदरणीय राकेश भाई साहब गीति-प्रतीतियों के सक्षम रचनाकार हैं और उनकी इन पंक्तियों पर मुँह से बरबस ’वाह’ निकल पड़ता है -
    भले ही भूल बैठा हो दिशा इस ओर की सूरज .. उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे !
    अद्भुत भाई साहब, अद्भुत !

    आदरणीय अश्विनी रमेश जी की कोशिशें सदा बनीं रहती हैं. यह उनकी रचनात्मकता का परिचायक तो है ही, हमसबों के लिए प्रेरणा का कारण भी है. यह अवश्य है कि अश्विनीजी इस समृद्ध पटल हेतु अपनी रचना को भेजने के पूर्व उससे इत्मिनान हो लें.
    हार्दिक बधाइयाँ !

    आदरणीय वासुदेव अग्रवाल ’नमन’ जी की रचनाओं को पढ़ते हुए मुझे एक अरसा हो चुका है. उनकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ..

    आदरणीय निर्मल सिद्धू जी की प्रस्तुति से उत्सर्जित होती ऊर्जा सकारात्मकता ससे भर दे रही है. विशेषकर, मतला कमाल का हुआ है.

    भाई सुलभ जायसवाल की ग़ज़ल का मतला ही लाज़वाब हुआ है. वाह वाह ! .. और बुआ वाले शेर की तासीर बड़ी गहरी है. बहुत ख़ूब सुलभ भाई.

    शुभातिशुभ .. दीपोत्सव की शुभकामनाएँ ..

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    1. बहुत शुक्रिया । आपकी इस टिप्पणी से ज़्यादा क्या अपेक्षा करूं।

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  16. शब्दों की जादूगरी की साथ राकेश जी के गीत ने जो आग़ाज़ किया है वो सुलभ जी की ग़ज़लों तक बरकरार है ...
    शब्दों के चितेरे है राकेश जी ... शुरुआत ही रूडियों को ख़त्म करने और आशा के संदेश से ... फिर नई उम्मीद से महकती हुयी रचना देश तक गूंजती है ...
    रमेश जी की ग़ज़ल कई प्रश्न खड़े करती है और उसका उत्तर भी देती चलती है ... बहुत ही सकारात्मक शेरों से सज्जित ग़ज़ल ... आनंद आ गया ...

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  17. स्वदेशी देश फिर अमन का संदेश और रिश्तों को तलाशती नमन जी की ग़ज़ल गहरा संदेश लिए है और दिल को छूती है ... बधाई नमन जी को ...
    प्रेम आशा दीप और ख़ुशियों की कड़ियों को पिरोते हुए लाजवाब शेर हैं आदरणीय निर्मल जी के जो सकारात्मक ऊर्जा देते हैं ...
    बधाई उन्हें भी ...

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  18. सुलभ जी ने तो इस मुशायरे को लूट लिया है अपनी नायाब ग़ज़ल से ... एक से बढ़ कर एक हीरे जैसे शेर हैं ... रिश्तों कि तलाश ... और फिर आज की कठोर हक़ीक़त को बखूबी उतारा है अपने शेरों में ... फ़ोर मोबाइल वाला शेर दिल में अटक गया और आख़री शेर तो ग़ज़ब ... सच है जब अपने क़स्बे में सारा जहाँ है तो दिल्ली की सूखी गालियाँ क्यों ... बहुत लाजवाब ग़ज़ल ... बहुत बधाई सुलभ जी को ...

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  19. उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे...मिट्टी की सौंधी महक से महकते दीयों सा ख़ूबसूरत मिसरा। तरही मुशायरे की इस सुन्दर शुरुआत के लिए आपको बधाई पंकज जी। हमेशा की तरह इस बार की भी अभी तक की दोनों पोस्ट्स की भूमिका ने मन मोह लिया है। मैं इस ब्लॉग पर लिखी जाने वाली भूमिकाओं को बहुत चाव से पढ़ती हूँ। सभी रचनाकारों की रचनाएं बार बार पढ़ी जाने वाली हैं। सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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  20. दीपावली परंपरागत त्योहार है और परंपरा का निर्वहन हमारी संस्कृति की विशेषता। एक समय था ब्लॉगस्पॉट का जो अन्य विकल्पों के उपलब्ध होने से लुप्तप्रायः होने की स्थिति में आ गया लेकिन इस ब्लॉग पर जो सम्बंध स्थापित हो गए वो इस प्रकार एक परिवार का रूप ले चुका है कि कोई गतिविधि होते ही लगभग सभी उपस्थित होने का प्रयास दिल से करते हैं।
    मुख्य बात है कुछ गतिविधि होना और यह दायित्व जिस प्रकार पंकज जी द्वारा निभाया जाता है वह सम्माननीय है। इस गतिविधि को संचालित करने में कितने प्रयास लगते हैं वह सभी के समक्ष हैं। एक अवसरानुकूल मिसरा बनाना, आमंत्रण पोस्ट तैयार करना, हर प्रस्तुति पर विस्तृत टिप्पणी देना कितना वृहद कार्य है यह समझने के लिए ऐसा ही प्रयास आवश्यक है। शायद इन प्रयत्नों की आंशिक समझ ही है जो परिवार के सभी सदस्यों को रचना प्रेषित करने की ऊर्जा ही प्रदान नहीं करती उन्हें प्रयास की गंभीरता के लिए भी प्रेरित करती है। परिणाम समक्ष में है खूबसूरत रचनाओं के रूप में जिन्हें प्रस्तुत करते हुए पंकज जी द्वारा जो रचनावार विस्तृत व्याख्या की गई है वह अपने आपमें परिपूर्ण है।
    प्रस्तुत रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

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    1. आपने बहुत अच्छा लिखा ,इस ब्लाग का भावनात्मक जुड़ाव यहां खींच लाता है और आदरणीय पंकज जी मेहनत का सोचिए तो ये भी उनका जुड़ाव ही है जो भावनात्मक रूप से उनको ऊर्जा प्रदान करता है जबकि इस ब्लॉग पर भी अब अपेक्षित रौनक अब नहीं जो 2014 तक हुआ करती थी।

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  21. राकेश जी, अश्विनी जी, वासुदेव जी, निर्मल सिद्धू जी और सुलभ बहुत-बहुत बधाइयाँ। सुलभ मतला बड़ा ही प्यारा हुआ है।

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