फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं
तरही को लेकर कुछ देर हो गई है । हालांकि अभी भी देश के हर हिस्से में मानसून नहीं पहुंचा है, लेकिन क्या करें मुम्बई में तो सबसे पहले पहुंच गया है सो मुम्बई वाले शोर मचाने लगे हैं कि तरही शुरू करो । खैर ये तो होता ही रहता है । इस बार कई सारे नये लोग भी आये हैं तरही में । कुछ पुराने लोग अभी लिखने में लगे हैं शायद । इस बार के तरही को लेकर काफी उत्सुकता सभी को है कि इस बार थोड़ा कठिन काम लग रहा है । लेकिन जो ग़ज़लें आई हैं उनको देखने के बाद नहीं लग रहा है कि लोगों ने इसको कठिन मान कर लिखा है । बरसात का आनंद पूरा उठाने का मौका सामने आ गया है । हालांकि सुना ये जा रहा है कि हरियाणा तरफ तो बरसात ने कुछ ज्यादा ही आनंद कर दिया है ।
इस बार अभी तक जिन लोगों की ग़ज़लें मिली हैं वे ये हैं सर्वश्री गिरीश पंकज, राजीव भारोल, गौतम राजरिशी, कंचन चौहान, तिलक राज कपूर जी, नीरज गोस्वामी जी, रविकांत पांडेय, राकेश खण्डेलवाल जी, दिगम्बर नासवा, अंकित जोशी, जोगेश्वर गर्ग, केके, निर्मला कपिला जी, अजमल खान, चैन सिंह शेखावत, देवी नागरानी जी, निर्मल सिद्धू, सुलभ जायसवाल, वीनस केसरी, डा त्रिमोहन तरल, डा आज़म जी, नुसरत मेहदी जी और भभ्भड़ कवि भौंचक्के । नाम इसलिये दे रहा हूं कि यदि आप भी तरही भेज चुके हैं और इस सूचि में आपका नाम नहीं है तो कृपया फिर से भेज दें subeerin@gmail.com पर । कमेंट में तरही की ग़ज़लें ना लगाएं । जिन लोगों को कानूनी नोटिस भेजे जाने की तैयारी चल रही है कि उनकी तरही ग़ज़ल अभी तक नहीं मिली है उनमें सर्वश्री समीर लाल जी, डॉ सुधा ओम ढींगरा जी, शार्दूला नोगजा जी, अभिनव शुक्ल, योगेंद्र मौदगिल जी, प्राण शर्मा जी आदि प्रमुख हैं । यदि इन लोगों ने जल्द ही तरही की गज़ल नहीं भेजी तो फिर ग़ज़ल की कक्षाओं की तरफ से हमारा वकील कानूनी कार्यवाही करके इनसे ग़ज़ल वसूल करेगा । यदि ये लोग पढ़ रहे हैं तो संभल जाएं ।
तरही का फार्मेट इस बार हम एक दिन छोड़कर दो दो ग़ज़लें लगाएंगे । एक दिन छोड़कर लगाने के पीछे कारण ये है कि दो दिन में दो ग़ज़लों पर चर्चा हो जाये । कृपया अपने कमेंट में उस पोस्ट की दोनों ग़ज़लों की चर्चा करें । और कोशिश करें कि अवधि में ही चर्चा हो जाये इससे पहले की दूसरी दो ग़ज़लें सामने आ जाएं । कई बार हम ऐसा करते हैं दो नामों में से जो हमारा परिचित होता है हम उसकी ही चर्चा करते हैं । ऐसा ठीक नहीं लगता । कोशिश ये है कि बरसात जैसे जैसे परवान चढ़े वैसे वैसे हमारा मुशायरा भी परवान चढ़े उस ऊपर वाले से यही कामना करते हुए कि गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला, चिडि़यों को दाने बच्चों को गुड़ धानी दे मौला । मुशायरा प्रारंभ करने के पहले इसी बहर पर अपना एक बहुत बहुत बहुत मनपसंद गीत आपको सुनाना चाहता हूं । गीत के लिये कुछ भी कहने को मेरे पास शब्द नहीं हैं ।
वर्षा मंगल तरही मुशायरा
पिछले बारे वर्षा मंगल तरही मुशायरे की शुरूआत सुधा दीदी की कविता से की थी । पिछली बार वर्षा का मिसरा था रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से । और इस बार मेरी इच्छा है कि बहुत ही धमाकेदार तरीके से तरही मुशायरे का आगाज़ किया जाये । और उसी कारण मैं इस बार भी अपनी बड़ी बहन की ही ग़जल से शुरूआत कर रहा हूं ।
आदरणीय नुसरत मेहदी जी
श्रीमती नुसरत मेहदी उर्दू अकादेमी के सचिव के पद पर है, आप उर्दू की लेखक होने के साथ-साथ शायरी में भी जानी जाती है। इसके अलावा समाज सेवा और अदबी तन्जीमों से जुड़ी हुई है। उन्हौने कहानियां लिखी, ड्रामें लिखें, और शेर कहें इसमें भी शायरी को इम्तियाज़ी हैसियत हासिल हुई है। हिन्दुस्तान के कई शहरों में मुशायरों और सेमीनारों के ज़रिये भोपाल शहर की नुमाइंदिगी कर चुकी है। इन दिनों आपकी तीन ग़ज़लें काफी चर्चित हो रही हैं । ख़त हवा में उड़ा दिया है क्या, तो इतिहास बनाने वाली ग़ज़ल है । एक सुप्रसिद्ध शायर द्वारा ये कहे जाने पर कि 45 साल से कम की शायराएं अपनी खुद की ग़ज़लें नहीं पढ़ती हैं उन्होंने एक तीखी ग़ज़ल कही है आप शायद भूल बैठे हैं यहां मैं भी तो हूं । आपका एक शेर जो डॉ कुमार विश्वास तक ने कहा कि ये अद्भुत शेर है हर कोई देखता है हैरत से, तुमने सबको बता दिया है क्या । पिछले दिनों पाकिस्तान सहित खाड़ी के देशों की अपनी यात्रा में खूब लोकप्रियता हासिल करके लौटी हैं । इन सबके अलावा ये परिचय कि मेरी बड़ी बहन हैं । पहले उनका एक बहुत मीठा गीत जो मेरा मनपसंद है जिसे पांच साल पहले मैंने अपने ही संचालन के किसी मंच पर पहली बार सुना था ।
ग़ज़ल
धुंए में डूबी हुई दूर तक फि़ज़ाएं हैं
ये ख़्वाहिशों की सुलगती हुई चिताएं हैं
ये अश्क और ये आहें तुम्हारी याद का ग़म
ये धड़कनें किसी साइल की बद्दुआएं हैं
(साइल : प्रार्थी)
ए ख़ुद परस्त मुसाफि़र तेरे तआकुब से
रवां दवां मेरे एहसास की सदाएं हैं
( तआकुब : पीछा करना, रवां दवां : प्रवाहित)
तिरी निगाहे करम की हैं मुंतजि़र कबसे
झुकाये सर तिरे दर पर मिरी वफ़ाएं हैं
( मुंतजि़र : प्रतीक्षारत )
गुलाब चेहरे हैं रोशन तमाज़तों के यहां
सरों पे उनके रवायात की रिदाएं हैं
( तमाज़त : धूप की गर्मी, रिदा - चादर )
है कैसा दौर के फ़न और क़लम भी बिकने लगे
हर एक सिम्त मफ़ादात की हवाएं हैं
( मफादात : लाभ का बहुवचन)
अजीब रंग है मौसम का इस बरस नुसरत
तपिश के साथ बरसती हुई घटाएं हैं
वाह वाह वाह । क्या शानदार शुरूआत हुई है मुशायरे की । क्या ग़ज़ब के शेर निकाले हैं । उफ ( गौतम से उधारे ले रहा हूं ) । वैसे तो किसी एक शेर की तारीफ करना दूसरे के साथ अन्याय होगा लेकिन फिर भी मेरे मन को तो भाया है तिरी निगाहे करम की हैं मुंतजि़र कबसे । अहा अहा आनंद ही आ गया । तो आप सब भी लीजिये आनंद इस सुंदर ग़ज़ल का । और चलने दीजिये मुशायरे को । परसों दो नई ग़ज़लों के साथ हाजिर होता हूं ।
सूचना : सुख़नवर पत्रिका का नया अंक आ गया है उसे पढ़ने के लिये यहां जायें ।
सूचना : भभ्भड़ कवि भौंचक्के का कहना है कि जिन लोगों को काफिया ढ़ूंढने में समस्या आ रही है वे उन से संपर्क कर सकते हैं क्योंकि उनके पास 70 काफिये हो चुके हैं ।
सूचना - भ. कवि. का कहना है कि वे इस बार कुछ नया करने वाले हैं ।
सुबीरजी ,
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
अचानक मुशायरा शुरू … ?
अच्छा आग़ाज़ है …
अपनी ग़ज़ल भेज रहा हूं …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
आदरणीय सुबीर जी, प्रणाम
जवाब देंहटाएंमुशायरा शुरू हो गई बहुत अच्छा लगा आज नुसरत जी का ग़ज़ल पढ़ कर अच्छा लगा आगे भी बढ़िया ग़ज़ल पढ़ने के लिए आँखे लगाए बैठे है हम..साथ ही साथ हम भी प्रयास कर सकें कुछ लिखने का....ताकि और ग़ज़ल के महान हस्तियों का आशीर्वाद मिल जाए..
ये अश्क और ये आहें तुम्हारी याद का गम
जवाब देंहटाएंये धडकने किसी साईल की बद्दुआयें हैं
गुलाब चेहरे हैं रोशन तमाज़तों के यहाँ
सरों पे उनके रवायात की रिदायें हैं
अजीब रंग है मौसम का इस बरस नुसरत तपिश के साथ बरसती हुयी घटायें हैं
वाह क्या सुन्दर आगाज़ है मुशायरे का। नुसरत जी की आवाज़ और कलम दोनो मे जादू है। मै तो उन की तस्वीर देख कर आवाज़ सुन कर ही उन की मुरीद हो गयी हूँ। उन्हें बहुत बहुत शुभकामनायें और आपको ऐसी बहन पाने के लिये बधाई। ये महफिल यूँ ही सजती रहे। आशीर्वाद।
तपिश के साथ बरसती हुई घटायें हैं...इस एक मिसरे ने दिल लूट लिया...अब इसके बाद कहने को क्या बचता है...वाह...वाह...वाह...
जवाब देंहटाएंनुसरत जी का हर शेर बेहतरीन है और कमाल की कारीगरी से कहा गया है...और उनके बेशुमार हुनर की नुमाइंदगी कर रहा है...ऐसे शेर कहने के लिए कितना तजुर्बा चाहिए ये बात आसानी से समझ में आ रही है...मेरी दिली दाद उन तक पहुंचा दीजियेगा.
गुरुदेव बेहतरीन शुरुआत की है अपने इस तरही मुशायरे की लेकिन एक शिकायत है...नुसरत जी की ग़ज़ल में तरही मिसरा "फलक पे झूम रही सांवली घटायें हैं" क्यूँ शामिल नहीं है ? अगर ये पूछना गुस्ताखी है तो सजा भुगतने को तैयार हूँ...:))
बारिश जैसी आपके ब्लॉग पर है वैसी सिवा चेरापूंजी के और कहीं नहीं है....हम तो नहा कर तृप्त हो लिए...थोड़ी देर में खुद को सुखा कर फिर से लौटते हैं...
नीरज
ग़ालिब साहब और नुसरत जी को एक साथ समर्पित:
जवाब देंहटाएंअगर हों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
तो कोशिश कीजिये उनसे, धुऑं निकले तो कम निकले।
यूँ तो हर शेर उम्दा है लेकिन 'ये अश्क..' में बद्दुआऍं का प्रयोग बहुत खूबसूरत बन पड़ा है।
इस तरही में ग़ज़ल सीखने वालों के लिये एक पाठ खुलकर सामने आने वाला है और वह है उर्दू शब्दों पर हिन्दी व्याकरण का उपयोग कर बहुवचन बनाने का। इस बार शायद ही कोई ग़ज़ल इस खूबसूरत गंगा-जमुनी प्रयोग से बच पाये।
आदरणीया बड़ी बहन नुसरत मेहदी जी
जवाब देंहटाएंकी ग़ज़ल पढ़ कर तबीअत ख़ुश हो गई ।
क्या ख़ूब शे'र है …
ऐ ख़ुदपरस्त मुसाफ़िर तेरे तआकुब से
रवां दवां मेरे एहसास की सदाएं हैं
और यह भी …
है कैसा दौर कॅ फ़न और क़लम भी बिकने लगे
हर एक सिम्त मफ़ादात की हवाएं हैं
वाह वाह !
नीरजजी की तरह मैं भी ढूंढ रहा था कि गिरह कैसे बांधी है बहनजी ने ।
… मैं एक दो बात और भी जानना चाह रहा था …
आपने इस शे'र में तो लिखा
ऐ ख़ुदपरस्त मुसाफ़िर तेरे तआकुब से
रवां दवां मेरे एहसास की सदाएं हैं
जबकि यहां तिरी , तिरे , मिरी
तिरी निगाहे - करम की है मुंतज़िर कबसे
झुकाये' सर तिरे दर पर मिरी वफ़ाएं हैं
वज़्न के लिहाज़ से तो तक़्तीअ करते वक़्त तेरे मेरे के स्थान पर भी तिरे मिरे ही आ रहा है ।
फिर भेद क्यों ?
… और मेरे विचार से तिरे / तेरे निगाहे - करम होना चाहिए था … निगाह से नहीं , निगाह के करम से तअल्लुक है ।
आपका क्या कहना है ?
बड़े भाई साहब नीरज जी की तरह मैं भी अपनी गुस्ताख़ी की सज़ा पाने को तैयार हूं ।
बस , सीखा ये है कि गुणीजन सामने हों तो झिझक छोड़ कर कुछ सीखने का अवसर नहीं गंवाना चाहिए ।
उम्मीद है , नादानी के लिए मुआफ़ कर दिया जाऊंगा ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
तेरी मेरी...नहीं नहीं... तिरी मिरी बात...अक्सर देखा गया है के हिंदी ग़ज़लों में तिरे या मिरे शब्द का प्रयोग तेरे या मेरे के लिए किया जाता है...जो अखरता है....तिरे या मिरे हिंदी भाषा के शब्द नहीं हैं जबकि उर्दू में तेरे मेरे और तिरे मिरे दोनों प्रयोग किये जाते हैं...ये स्पष्ट नहीं है के कहाँ तेरे कहना है और कहाँ तिरे? मुझे लगता है के मूल रूप से उर्दू में कही ग़ज़ल के हिंदी संस्करण में शायद तिरे मिरे का प्रयोग किया जाता हो...शुद्ध हिंदी या देवनागरी में लिखी गयी ग़ज़ल के लिए तेरे या मेरे लिखना ही शायद उचित है...मैं स्वयं एक पिछली बैंच पर बैठने वाले विद्यार्थियों में से हूँ इस लिए मेरे (मिरे ...नहीं) लिए अधिकारपूर्वक इस विषय पर कुछ कहना दृष्टता होगी...गुणी जन शायद इस पर कुछ प्रकाश डालें...
जवाब देंहटाएंनीरज
प्रणाम गुरु जी,
जवाब देंहटाएंचलिए मुंबई वालों का शोर कुछ काम आया और आपने तरही मुशायेरे को आग़ाज़ दे दिया.
जिस ग़ज़ल का बेसब्री से इंतज़ार था उसी से शुरुआत हो रही है, लग रहा है मुहमांगी मुराद पूरी हो गयी.
नुसरत मेहंदी साहिबा जी की ग़ज़ल और उसका हर शेर वक़्त और अनुभव की कसौटी पे तराशा हुआ है,
मतला पूरी ग़ज़ल की बुनियाद से रूबरू करवा रहा है, ख्वाहिशों की सुलगती हुई चिताएं, काफिये का बहुत सुन्दर प्रयोग और कहन का जादू ही है ये और कुछ नहीं.
"ये अश्क और ये आहें............." और "तिरी निगाहें करम की................" क़यामत ढा रहे हैं, और मक्ता तो ग़ज़ब है, "तपिश के साथ ........" वाह वाह वाह. नुसरत मेहंदी साहिबा जी को बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया, इस बेहतरीन ग़ज़ल से मिलवाने के लिए.
इस तरही से बहुत कुछ सीखने को मिलने वाला है और साथ में पढने के लिए अच्छी ग़ज़लें भी.
भौचक्के जी हर बार ही नया करते हैं और दूसरों का जीना भी दूभर कर देते हैं अब बताइए जहाँ ४-५ काफिये भी यहाँ निकालने मुश्किल हो रहे हैं वहां ७० काफिये लग रहा है..........अब क्या बताऊँ, आप भी समझ सकते हैं.
तिरे तथा तेरे दोनों ही सही होते हैं । लेकिन आसानी के लिये तिरे लिख देते हैं ताकि नये लिखने पढ़ने वाले को बहर को लेकर उलझन न हो । और जहां तक निगाहे करम की बात है तो उसका अर्थ होता है करम की निगाह तथा निगाह चूंकि स्त्रीलिंग शब्द है इसलिये उसके साथ तेरे नहीं आ सकता तेरी ही आयेगा । आप शायद निगाहे करम का अर्थ निगाहों का करम लगा रहे हैं । एक सुप्रसिद्ध शेर है शायद आपने सुना हो
जवाब देंहटाएंग़ुनाह से हमें रग़बत न थी मगर या रब
तेरी निगाहे करम को तो मुंह दिखाना था
फिराक गोरखपुरी साहब का एक शेर है
वो जिंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
तेरी निगाहे-करम का घना-घना साया।
और इस बात के लिये मेरी थोड़ी तो प्रशंसा कर ही सकते हैं कि मैं निगाहे करम के उदाहरण के लिये दोनों शेर एक ही बहर पर लाया कौन सी यही अपनी वाली ।
आशा है आपका प्रश्न हल हो गया होगा ।
गुरूजी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंतरही की शुरुआत हो गई. बहुत अच्छा लगा. मैं कल शाम आपको मेल कर के पूछने वाला था. नुसरत जी की गज़ल बहुत अच्छी है. आपने मुश्किल शब्दों के अर्थ देकर समझाने में आसान कर दिया.
ग़ज़ल की तक्तीअ का काम लगता बहुत सरल है, मगर है नहीं। मुझे नहीं मालूम 'ग़ज़ल का सफ़र' और इसी ब्लॉग पर किसने किस पाठ को कितनी गंभीरता से पढ़ा है लेकिन मैनें इसे जितना समझा उससे मुझे तो लगता है कि 1 2 के दायरे में रहकर की गयी तक्तीअ का तरीका सही नहीं है। क्यूँ नहीं है, जानने के लिये एक बार फिर सबब, वतद और फासिला पर लौटना होगा, सारा खेल वहीं है। एक और बात जो जरूरी है जानना, संगीत शास्त्र की है कि संगीत आरोह, अवरोह, ठहराव, सुर, लय और ताल का खेल है।
जवाब देंहटाएंइतना अवश्य कहूँगा कि प्रस्तुत ग़ज़ल बह्र और कहन की दृष्टि से दोषरहित है।
देश में कई जगह अभी भी पारा उँचा है .... पर ब्लॉग-जगत में तो मौसम बदल गया आज से .....
जवाब देंहटाएंशुरुआत इतनी धमाकेदार हुई है की अब लग रहा है अपनी ग़ज़ल क्यों भेजी .... नुसरत जी का हर शेर उर्दू ज़बान का खालिस रंग लिए है ... अदब लिए है .... वाह वाह तो हर शेर पढ़ने के बाद अपने आप ही निकल जाता है मुँह से ....
जब इतना लाजवाब है आगाज़ .... तो अंजाम की इंतहा क्या होगी
सच पूछिए तो यहाँ लखनऊ में हम अभी भी बारिश को तरस रहें हैं..मगर ब्लॉग की रिमझिम फुहारें मनमोहक हैं जिससे कुछ राहत महसूस हो रही है... नुसरत दीदी जी की ग़ज़ल तो बेहद खूबसूरत है..वैसे तो सभी शे'र एक से बढ़कर एक हैं लेकिन मुझे
जवाब देंहटाएं"है कैसा दौर के फ़न और कलम भी बिकने लगे
हर एक सिम्त मफ़ादात की की हवाएं हैं" बहुत पसंद आया ...गीत और दीदी जी की आवाज में ग़ज़ल भी पसंद आए...शुक्रिया
भाईजी पंकज सुबीर जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
निगाहे करम / तिरे मिरे का अंतर्निहित उद्देश्य सफल हो गया , मेरे साथ आपका मौनव्रत टूटा तो सही । अब मैं भेजी गई तरही ग़ज़ल के साथ आज की अपनी मेल के जवाब को ले'कर आश्वस्त हो सकता हूं ।
आपने और अन्य गुणीजन ने जो श्रम किया , आभारी हूं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
जब आगाज़ इतना सुंदर है अंजाम खुदा जाने…………………आभार्।
जवाब देंहटाएंजनाब पंकज सुबीर जी, और मोह्तरमा नुसरत मेह्दी साहिबा, आदाब और मुबारकबादी.
जवाब देंहटाएंगज़ल बहुत खूबसूरत है और उसकी पेशकश भी.
देर से हुई शुरुआत मगर बहुत अच्छी हुई
मुझे ये शेर बहुत पसन्द आये
"है कैसा दौर कॅ फ़न और क़लम भी बिकने लगे
हर एक सिम्त मफ़ादात की हवाएं हैं "
"ये अश्क और ये आहें तुम्हारी याद का गम
ये धडकने किसी साईल की बद्दुआयें हैं"
सुबीर जी, शानदार आगाज़ के लिये शुक्रिया.
Tera aur Mera ko Tira aur Mira
जवाब देंहटाएंlikhna upyukt nahin hai.Kabhee-
kabhee tere, mera ke " Ra" ko
giraanaa padta hai.Us soorat mein
kya ter, mer ya teri ,meri likhna
achchha lagega? kabhee- kabhee
tera ,mera ke "Te , Me aur " Ra"
donon ko giraanaa padtaa hai yani
tera ,mera ko 2 yaa 11 ke wazan mein istemaal kiyaa jaataa hai us
soorat mein kya tera,mera ko
" tar " aur mar ke roop mein likhna
sahee hoga?
नुसरत दीदी के हम तो दीवाने हो गये हैं और ये बात जब मैं कह रही हूँ तो इसमें चौथाई प्रतिशत भी झूठ नही है।
जवाब देंहटाएंउनकी शैली, उनकी वाणी की मिठास उनका व्यक्तित्व हर एक चीज़ मुझे भूल नही रही। उनकी गज़लों की गहराई। छोटी बहर में गहरी बात। उनका दर्शन.. सब छाया हुआ है मेरे मन पर। मेरे तो पूरे घर पर उनकी गज़ल तुमने कुछ कह कहा दिया है क्या छाई हुई है।
और आज की गज़ल का ये शेर
ऐ खुद परस्त मुसाफिर तेरे तआकुब से,
रवाँ दवां मेरे अहसास की सदाएं हैं।
क्या शेर है...!
जहाँ तक मैं जानती हूँ उस्ताद कभी तरही के मिसरे पर गिरह नही लगाते और उर्दू अकादमी की अध्यक्षा किस स्तर की उस्ताद होंगौ हमें समझने समझाने की ज़रूरत नही शायद।
दुःख हो रहा है कि मैं पहले क्यों नही आई इस पोस्ट पर और इतनी छोटी सी बात पर मेरे गुरू जी को अपना मौन तोड़ना पड़ा।
जब गलती करके सज़ा भुगतने का दौर चल ही पड़ा है तो मैं भी एक तल्ख बात कह कर सज़ा भुगतने को तैयार हूँ कि अपनी शंकाएं रखना और किसी शेर पर सीधे अँगुली उठा देने के दो अलग तरीके होते हैँ। कोई बात समझ में ना आये ये ठीक है मगर जब हम जान रहे हैं कि लिखने वाले व्यक्ति का दर्ज़ा क्या है तो उसमें ये कह देना कि मेरे हिसाब से ये नही ये होना चाहिये थोड़ा धृष्ट रवैया है।
दोनो हथेली आगे है, सिर झुका है। सजा मंजूर।
बेहतरीन ग़ज़ल..... बेहतरीन..... कमाल की शख्सियत है नुसरत मेहंदी साहिबा..........
जवाब देंहटाएंनुसरत मेहदी जी उर्दू अदब की जानी-मानी हस्ती हैं. तरही पर उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंसुबीर जी, तरही की सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई स्वीकार करें. तस्वीरें बहुत अच्छी लग रही हैं.
'तिरे' , 'तेरे' आदि बातों पर टिप्पणियां पढ़ीं हैं. इस विषय में संक्षिप्त में दो बातें कहना चाहूँगा:
कुछ अरसा हुआ डॉ. अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी पी.एच. डी. (फ़ारसी,) जो ऑल इंडिया रेडियो में फ़ारसी विभाग के हैड हैं, मेरे ब्लॉग पर उनकी एक ग़ज़ल लगी थी. उन्होंने 'तिरा' शब्द की जगह 'तेरा' शब्द का प्रयोग किया. हमारे एक पाठक जो ख़ुद अच्छी ग़ज़ल कहते हैं, इस पर ऐतराज़ किया. डॉ. 'बर्क़ी' साहब ने ईमेल द्वारा कहा कि 'तिरा' शब्द न तो हिन्दी में है और न ही उर्दू में है.
ग़ज़ल जब बह्र में कही जाती है तो स्वत: ही शब्द ठीक वजन में आजाता है. इस बात का इससे अंदाजा हो जाता है कि लिखा हुआ शब्द बोलने में किस तरह बदल जाता है. उदहारण के तौर पर इन शब्दों को देखिये: जानता, पहचानता, सरलता आदि. लेकिन हम जब ऐसे शब्दों को बोलते हैं तो सुविधानुसार इनका रूप बदल जाता है. बोलने में हम इन्हें जान्ता, पहचान्ता, सरल्ता ही कहते हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि 'तेरे' 'मेरे' आदि शब्द लिखें तो कहने में वज़न में अपने आप मुख़्तसर हो जायेंगे.
वज़न की वजह से आप जिस तरह 'तिरा' लिखते हैं तो कभी कभी वज़न के कारण 'तेरा' को 'तेर' भी कहना पड़ता है. उस हालात में क्या हम 'तेरा' की जगह 'तेर' लिखेंगे?
खैर, मेरे ख़याल में शब्दों को तोड़-मोड़ कर उनका रूप बिगाड़ने की आवश्यकता नहीं है. मैं भी पहले इसी तरह तिरा मिरा का प्रयोग करता था लेकिन जिन हिन्दी ग़जलकारों ने शब्दों को उनके मूल रूप में प्रयोग किये हैं, उनकी ग़ज़लें कहने में वज़न में कोई आपत्ति नहीं आई.
महावीर शर्मा
गुरु जी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंहुर्रे तरही मुशायरा शुरू हो गया,और क्या शानदार आगाज़ हुआ है
तेरी निगाहे करम की है मुन्तजिर कबसे
झुकाए सर तेरे दर पर मेरी वफाएं हैं
इस शेर के लिए मैं क्या कह दूं कि मेरा हालेदिल बयान हो जाए, दिल बागबाग हो गया
है कैसा दौर के .... बहुत गहरा कटाक्ष, बहुत पैना व्यंग
गुरु जी, आदरणीया नुसरत जी को पहली बार मैंने आपके घर पर देखा था और पहली बार सीहोर के मंच पर सूना था
सच कहूँ तो उस मंच से सुनाई गई मुझे पूरी की पूरी याद जो एकमात्र गजल है वो नुसरत जी की दिलकश आवाज में गई गई "कतरा के जिंदगी से गुजर जाऊं क्या करूँ" है
इस गजल को तब से आज तक मैंने इतनी बार दुहराया है, गुनगुनाया है और आपकी भेजी वीडियो इतनी बार देखी है कि अभी भी आँखों के सामने मंच का वो मंज़र घूम रहा है
और सिद्धार्थ नगर में फिर से नुसरत जी को सुन पाना, और मेरी प्रिय गजल में एक और नया शेर सुन पाना
सब कुछ जैसे आँखों के सामने है
क्रमशः ....
पोस्ट पढ़ने के बाद काफी कुछ वो बात जो मैं कहना चाहता था वो तो कंचन दीदी नें पहले ही अपने कमेन्ट में कह दी है,
जवाब देंहटाएंकल से इलाहाबाद भी बारिश की चपेट में आ गया :)
नाम पढ़ कर मजा आ गया कि मुझ सहित २३ गजल आ चुकी है
आज सुबह अर्श भाई से बात हुई, उन्होंने अभी तक गजल नहीं भेजी है, गुरु जी उनको भी नोटिस भेजिए :)
सुखनवर का नया अंक डाउनलोड करता हूँ
७० काफिए बाप रे, कहीं ऐसा ना हो भभ्भड़ जी ७० काफिए को प्रयोग करके ७० शेर भी लिख चुके हों, क्योकि सूचना नंबर तीन से आसार तो कुछ कुछ यही लग रहे हैं :)
पहली बार मुशायरे में आये हैं आज तक केवल मुशायरा शब्द ही सुना है, और ये पता है कि शायरी कही जाती है, बहुत ही अच्छी गजल पढ़ने को मिली नुसरत जी की। इस मुशायरे में हम भी रोज शामिल होंगे पाठक की हैसियर से..
जवाब देंहटाएंगजल कुछ भारी लगी हमें परंतु फ़िर भी बहुत अच्छी लगी।
है कैसा दौर कि फ़न और क़लम भी बिकने लगे
जवाब देंहटाएंहर एक सिम्त मफ़ादात की हवाएं हैं
ख़ूबसूरत शायरी से तरही का आग़ाज़ हुआ है ,
एख़्तेताम तक पहुंचते पहुंचते तो पूरा ख़ज़ाना इकट्ठा होने की उम्मीद नज़र आ रही है
शुक्रिया
इस तरही मुशायरा में उस्ताद फनकारों से परिचय हो रहा है. नुसरत दीदी जी के कलाम को पढ़ बहुत आनंद आया.
जवाब देंहटाएंमैं यात्राओं के चपेट में होने के कारण नेट पर उपलब्ध नहीं हो पा रहा हूँ... जब भी थोडा समय मिलेगा मैं दस्तक जरुर दूंगा...
- सुलभ
नुसरत जी की ग़ज़ल वाह-वाह
जवाब देंहटाएंहै कैसा दौर के फ़न और कलम भी बिकने लगे...
बधाई..बहुत बढ़िया
Subeer ji
जवाब देंहटाएंaapke blog se judi hamari aashayein hari bhari ho jaati hai.urdu hindi ki mili juli ganga jaman nirantar bahti hai par tishnagi vahin ki vahin!
मिलके बहतीं है यहाँ गंगो- जमन
हामिए-अम्नो-अमाँ मेरा वतन
Nusarat ji ko padna aur sunna ..kya kahiye!!!bas sunte h jaiye! daad hi daad dete jaiye..
किश्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा...आपके ब्लॉग ने दिलवाया है...एक बार ही पूरा मुशायरा न देकर टुकड़ों में हमें हलाल किया जा रहा है और छुरी भी बहुत आहिस्ता आहिस्ता चलाई जा रही है...मार डालो गुरुदेव तडपाओ मत...अगली किश्त आने में इतने दिनों का इंतज़ार...उफ्फ्फ्फ़...:))
जवाब देंहटाएंनीरज
नुसरत दीदी की गज़ल उनकी आवाज की तरह ही बेमिशाल है। तरही का इससे सुंदर आगाज़ और क्या होता? और यूट्यूब पर आपको सुना और सुनकर जाना कि नीरज जी ने अपने आखिरी कमेंट में बिल्कुल ठीक लिखा है--किश्तों में खुदकुशी....
जवाब देंहटाएंऔर हां बारिश की फोटो बहुत सुंदर-सुंदर है, इतना कि चुराने का मन हो रहा है। देर से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं।