सोमवार, 2 जून 2008

उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग, सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है । और बहर की एक उलझन जिसने रविवार को उलझा दिया और ग़ज़ल की कक्षाओं की शुरूआत ।

बहर को लेकर जो बात कही जाती है वो ये है कि आप यदि किसी ग़ज़ल पर काम कर रहे है और उसकी बहर निकाल रहे हैं तो सावधानी से तकतीई करके ही निकाले क्‍योंकि बहर वो चीज़ है जो इतने छलावे देती है कि बस । आज कक्षाओं का प्रारंभ मैं एक ऐसी ही समस्‍या के साथ करना चाहता हूं । जब नीरज जी ने मुझे ये ग़ज़ल भेजी तो मैंने उसे वहीं कम्‍प्‍यूटर पर ही तकतीई कर के वापस भेज दी । तकतीई करने का उसूल है कि काग़ज पर उतार कर ध्‍यान पूर्वक तकतीई करना है । पर कहते हैं ना कि आदमी को घमंड आ जाए तो जिंदगी उसका घमंड तोड़ने में सबसे पहले लग जाती है । तो माड़साब को भी शायद घमंड आ गया था कि अब हमें कागज पर उतारने की ज़रूरत ही क्‍या है हम तो कम्‍प्‍यूटर पर ही वहीं के वहीं काम कर सकते हैं । और इसी ग़लत फहमी में चूक हो गई । नीरज जी ने जो ग़ज़ल भेजी थी वो ये थी

इस दौर में इंसान क्यों बेहतर नहीं मिलते
रेह्ज़न मिलेंगे राह में रहबर नहीं मिलते
घबरा गये हो देख कर ये घाव क्यों यारों
सच बोलने पर किस जगह पत्थर नहीं मिलते
सहमें हुए हैं देखिये चारों तरफ़ बच्चे
किलकारियाँ गूजें जहाँ वो घर नहीं मिलते
गिनती बढ़ाने के लिए लाखों मिलेंगे पर
खातिर अना के जो कटें वो सर नहीं मिलते
अंदाज़ ही तुमको नहीं तकलीफ का जिनके
है जोश तो दिल में मगर अवसर नहीं मिलते
माँ की दुआओं में छिपे बैठे मिलें मुझे
दैरो हरम में रब कभी जा कर नहीं मिलते
घर से चलो तो याद ये दिल में रहे नीरज
दिलकश हमेशा राह में मंज़र नहीं मिलते

अब इसको माड़साब ने क्‍या किया कि वहीं के वहीं तकतीई किया और वापस भेज दिया कि जल्‍दी का काम हो जाए मगर कहावत तो हैं ना कि जल्‍दी का काम शैतान का काम होता है । माड़साब ने एक बहर निकाल के दे दी उस ही बहर पर काम करते हुए नीरज जी ने जब कुछ शेरों में संशोधन करके भेजा तो माड़साब का भेजा ही घूम गया क्‍योंकि सौलह सौ के हजार हो चुके थे और हुए माड़साब की ही ग़लती से थे नीरज जी की कोई ग़लती ही नहीं थी । उन्‍होंने तो उसी बहर पे काम किया जो माड़साब ने निकाल के दी थी । माड़साब को समझ में आ गया कि सरस्‍वती ने सपाटा मारा है कि बेटा इतना मत उड़ । माड़साब ने ग़ज़ल को लेकर पूरे रविवार को काम किया और वो भी इसलिये कि एक ग़लती को सुधारना तो था ही और फिर गल़ती को मानना ही था ।

दरअसल में ये एक बहुत ही ज्‍यादा गाई जाने वाली बहर है जिसको आप मुशायरों में अमूमन सुनते ही होंगें । जो गाई जाने वाली चंद बहरें हैं उनमें इसकी लोकप्रियता काफी ज्‍यादा है । आज की पोस्‍ट के शीर्षक में भी ये ही लगी है जो दाग साहब का एक मशहूर शेर है । अब उसमें ये मत उलझियेगा कि शेर के मिसरा ऊला में तो आखिर में दाग  आ रहा है और सानी में की है । दरअसल में ये भी एक प्रकार की सुविधा है जो ग़ज़ल लिखने वालों ने बनाई है जिसमें दाग, आम,हाय जैसे शब्‍द यदि आखिर में आ रहे हैं तो कुछ खास बहरों में इनको 21 न करके केवल 2  ही माना जाता है । ये एक अलग विषय है जो हम आगे देखेंगें ।

ये दो बहरों का मामला है जो कि लगभग जुड़वीं हैं । जुड़वीं का मतलब जैसे ज़ुड़वां भई बहनों में जो बारीक सा अंतर होता है वो ही इन दोनों में है । मात्राओं का योग तो वहीं है पर मात्राओं का स्‍थान थोड़ा सा अलटी पलटी टाइप का है । उदाहरण देखें

1) पहला उदाहरण

गालिब साहब का शेर है

कलकत्‍ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं

इक तीर मेरे सीने पे मारा के हाय हाय

( यहां पर हाय का य गायब हो जाएगा जैसा मैंने ऊपर बताया था । )

वज्‍न है

मफऊलु-फाएलातु-मुफाईलु-फाएलुन 221-2121-1221-212

बहर है :- मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ

1) दूसरा उदाहरण

इकबाल भी इकबाल से आगाह नहीं है

कुछ इसमें तमसखुर नहीं वल्‍लाह नहीं है

वज्‍न है

मफऊलु-मुफाईलु-मुफाईलु-फऊलुन 221-1221-1221-122

बहर है :- हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ

दोनों को ध्‍यान से देखें केवल दो स्‍थानों पर ही परिवर्तन आ रहा है बाकी सब समान है यहां तक कि दोनों की गाए जाते समय धुन भी एक ही होती है । रुक्‍न क्रमांक दो में पहले उदाहरण में 2121 है तो दूसरे उदाहरण में 1221 है मतलब एक मात्रा ने स्‍थान बदला है 21 से 12 हो गई है । पहला और तीसरा रुक्‍न तो समान ही है पर चौथे में फिर से एक मात्रा ने अपना स्‍थान बदला है और वो 212 से 122 हो गई है । दोनों बहरों को देखें तो दोनों में आठ दीर्घ और छ: लघु मात्राएं हैं । दोनों को आप जब गाके देखेंगें तो धुन भी एक सी ही आएगी पर बात वही है कि कागज पर लेंगें तो फर्क समझ में आ जाएगा ।

होमवर्क : पता लगाएं कि नीरज जी की ग़ज़ल दोनों में से किस पर आधारित है । और कहां कहां ऐसा हुआ है कि दूसरी बहर के शेर घुस आए हैं । कल तक अपनी कापियां जमा करवा दें ।

 

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. Aapne ghazal ki jaankaari dekar ek janhit ka kaarya kiya hai. badhayi.

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  2. जी, कागज पर उतार कर खोजता हूँ अभी.

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  3. हमारे माड़साब बन गए हैं सर्जन...बीमार ग़ज़ल ओपरेशन टेबल पड़ी है...नौसीखिये डाक्टर गौर से देख रहे हैं समझ में नहीं आ रहा अवरोध किस धमनी में है? कहीं ग़लत कट गयी तो ग़ज़ल वहीं ढेर ना होजाये...कोई हिंट भी नहीं दे रहे सर्जन...मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं...डाक्टरों के चेहरे पे टपकते पसीने को देख कर खुश हैं...क्या करें? ऐसा केस पहले कभी आया जो नहीं...इक डाक्टर डरते डरते बोला सर ..."घबरा गये हो देख कर ये घाव क्यों यारों
    सच बोलने पर किस जगह पत्थर नहीं मिलते और सहमें हुए हैं देखिये चारों तरफ़ बच्चे, किलकारियाँ गूजें जहाँ वो घर नहीं मिलते, इन दोनों मिसरों पर शक जा रहा है....बहर शायद २२१-२१२१-१२२१-२१२ लग रही है...काट दूँ? उसे पता है सर्जन की शब्दावली में "शायद" शब्द नहीं होता इसलिए वो ये कह कर सर झुका लेता है...या तो सर्जन उसके सर पर प्यार से हाथ फैरेंगे या फ़िर धौल जमायेंगे क्या होगा...सब साँस रोके खड़े हैं...सुई पटक सन्नाटा है...इक पल जैसे इक जग बीता...लग रहा है...ऐसा कठिन दौर इश्वर करे किसी की ज़िंदगी में ना आये...क्या होगा ग़ज़ल का बचेगी या...??????( सब मन में ये कह रहे हैं माड़साब आप तो ऐसे ना थे. )
    नीरज

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  4. क्या कहूं मैं....मुझे तो का खा गा से शुरू करना पड़ेगा....ये उला वगेरह ही समझ नहीं आता !

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  5. यस सर,

    होम वर्क: संभावित बाहर है,
    मफऊलु-मुफाईलु-मुफाईलु-फऊलुन 221-1221-1221-122
    बहर है :- हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ

    इस दौर - में इंसान - क्युं बेहतर न - हीं मिलते
    रेह्ज़न मि - लेंगे राह - में रहबर न - हीं मिलते

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