सोमवार, 4 नवंबर 2019

आज सुनते हैं नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाएँ।

 
बासी दीपावली का दौर जारी है, और अभी तो कार्तिक पूर्णिमा तक हम दीपावली का यह दौर जारी रखेंगे। इस बार बहुत अच्छी ग़ज़लें सामने आई हैं। बहुत अच्छे से लोगों ने मिसरे और पर्व दोनों की भावनाओं के अनुरूप ग़ज़लें कही हैं। आज हम बासी दीपावली का क्रम ही आगे बढ़ा रहे हैं। आज दो रचनाकार जो इस तरही में पूर्व में भी आ चुके हैं, अपनी नई रचनाओं के साथ साथ आ रहे हैं वहीं नवीन चतुर्वेदी जी आज अपनी ब्रज ग़ज़ल के साथ आ रहे हैं। दीपावली का यह त्यौहार मनाया जा रहा है और अभी आगे भी और कुछ रचनाएँ आप सब को सुनने को मिलेंगी। आज सुनते हैं नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाएँ।

 
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे 
 

 
नवीन चतुर्वेदी 
 


अगर मीठे नहीं मिल पाए तौ खारे तलासिंगे।
मगर यह तय रह्यौ बस प्रीत के धारे तलासिंगे।।
अभी तक कौ दही-माखन तौ सिगरौ लुट गयौ भैया।
चलौ फिर सों नये कछु मोखला-आरे तलासिंगे।।
परी है गेंद कालीदह में हमरे जीउ की, ता पै।
हमारौ सोचनों कि ढूँढिवे वारे तलासिंगे।।
प्रयोजन के नियोजन कों समुझि कें का करिंगे हम।
महज हम तौ शरद पूनम के उजियारे तलासिंगे।।
हमारे हाथ के ये रत्न तौ ड्यौढ़ी में जड़ने हैं।
कँगूर’न के लिएँ तौ और हू न्यारे तलासिंगे।।
अनुग्रह की पियाऊ ठौर-ठौर’न पै जरूरी हैं।
तपन बढिवे लगैगी तौ थके-हारे तलासिंगे।।


ब्रज भाषा एक तो वैसे ही मीठी होती है, उस पर ग़ज़ल की नफ़ासत... उफ़्फ़.. जानलेवा। नवीन जी ने क़ाफ़िये में परिवर्तन करते हुए ए की मात्रा के स्थान आरे की ध्वनि को लिया है। मतले में ही प्रीत के धारे बहुत सुंदर प्रयोग हुआ है। कृष्ण का नाम लिए बिना ही अगला शेर पूरा कृष्ण को सम​र्पित सा लग रहा है। और अगला शेर जिसमें दर्शन शास्त्र और अध्यात्म का रंग है बहुत खूब है गेंद और कालीदह का प्रतीक बहुत अच्छा है। और कृष्ण के महारास की शरद पूर्णिमा के उजियारों की तलाश करता शेर सुंदर बना है। ड्यौढ़ी और कंगूरों का द्वंद्व अगले शेर में बहुत अच्छे से उभरा है। और अंतिम शेर भारतीय परंपरा की सबसे सुंदर बात अनुग्रह के बारे में सुंदरता से बात कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

मन्सूर अली हाश्मी


यक़ीनन ही तलाशेंगे, तलाशेंगे, तलाशेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
पुरानों ने दिया धोखा नये चमचे तलाशेंगे
जो अपनों ही से हारे तो नये गमछे तलाशेंगे
पदौन्नत हो ही जाएंगे, जो हाँ में हाँ मिलायी तो
अगर बदला ज़रा भी स्वर, उड़नदस्ते तलाशेंगे
भरम बाबाओं से टूटा नही है सब गंवा कर भी
उम्मीदें जब तलक क़ायम नये हुजरे तलाशेंगे
है ये निर्लज्जता का दौर अब मजनूँ नही मरते
नई लैला, नई गोपी, नये मटके तलाशेंगे
चला ना काम ईवीएम से, धन से और बल से तो
दुहाई दे के धर्मों की नये रस्ते तलाशेंगे
न मेलों में न रैलों में न कूचों में न खेलों में
ज़माना नेटवर्कों का, जी गूगल पे तलाशेंगे
अरे ओ हाश्मी साहब कहां खोये हो सपनो में
निकल भी आओ अब बाहर तुम्हें बच्चे तलाशेंगे 


मैंने भी नहीं सोचा था कि रदीफ़ तो स्वयं ही क़ाफिया बन सकता है। और मतले में उसका तीन बार प्रयोग क्या बात है... ग़ज़ब ही प्रयोग है। हुस्ने मतला में हाशमी जी अपने व्यंग्य के पुट को लिए हुए उपस्थित हैं। उड़नदस्ते का प्रयोग वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर तीखा प्रहार कर रहा है। बाबाओं की दुकानदारी और लोगों के मोह पर अगले शेर में खूब व्यंग्य कसा गया है। और मजनूँ के नहीं मरने की बात जैसे हमारे पूरे समय पर एक गहरा व्यंग्य है। मेलों और कूचों की बात कर के जैसे दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मकते का शेर भी बहुत अच्छा बना है। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।

राकेश खण्डेलवाल


बरस के बाद भेजी है जो तरही मान्य पंकज ने
नहीं स्वीकार वो हमको मगर फिर भी निभा लेंगे
उजाले तो नहीं निर्भर शमाओं दीप पर, फिर क्यों
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

अखिल ब्रहमाण्ड में गूंजा हुआ है जो प्रथम अक्षर
उजालों से दिया उसने अतल को और भूतल भर
उसी आलोक सेपूरित रहे नक्षत्रे भी ग्रह भी
उसी ने प्रीत जोड़ी है उजालों से यों नज़दीकी
अंधेरे हों अगर तो देख यह ख़ुद को मिटा लेंगे
भला फिर किसलिए हम कोई दीये को तलाशेंगे

हमारा तन बदन भी एक उस आलोक से दीप्ति
हमारे प्राण भी तो हैं उजालों से ही संजीवित
हमारी दृष्टि का भ्रम है, उजाले ढूँढते हैं हम
हम हैं कस्तूरियों के मृग भटकते रह गए हर दम
हमारी सोच के भ्रम से हमी ख़ुद  को निकालेंगे
तो फिर क्यों दीप कोई भी उजालों को तलाशेंगे

हमारे स्वार्थ ने डाले हुए  पर्दे उजालों पर
चुराते अपना मुख हम आप ही अपने सवालों पर
अगर निश्चय हमारा हो. न छलके बूँद भी तम को
मिली वासुदेव को हर बार ख़ुद ही राह गोकुल की
दिवस में भी निशा में भी डगर अपनी बना लेंगे
नहीं हम फिर उजाले को कोई दीपक तलाशेंगे


राकेश जी के गीत इस बार पूरी तरही में हमारा साथ दे रहे हैं। इस गीत की शुरूआत में ही उन्होंने जैसे इस ब्लॉग की परवाह करते हुए एक वर्ष के अंतराल पर आयोजित आयोजन को लेकर परिवार के बुज़ुर्ग की तरह डाँट पिलाई है। यह प्रेम भरी डाँट सिर आँखों पर। पहला ही बन्द अक्षर की महिमा का वर्णन कर रहा है। वह अक्षर जो की प्रथम नाद के रूप में सृष्टि का आधार है। उस प्रथम स्वर के बाद प्रथम आलोक की बात करता हुआ दूसरा बंद। वह प्रथम आलोक जो समूचे ब्रहृमाण्ड में व्याप्त है। और अंत में एक बार फिर अध्यात्म की ओर मुड़ कर गीत चरम को छू लेता है। बहुत ही ही सुंदर रचना वाह वाह वाह। 


तो आज नवीन चतुर्वेदी जी, मनसूर अली हाशमी जी और राकेश खण्डेलवाल जी की रचनाओं का आनंद लीजिए। दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए कि शायद अगली बार भभ्भड़ आ रहे हों। 

10 टिप्‍पणियां:

  1. ये तो नहीं पता कि बृज भाषा में ग़ज़ल की शुरुआत कहाँ से हुई लेकिन बृज ग़ज़लें मेरे पढ़ने में नवीन जी के माध्यम से ही आईं। बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कहते हैं और इस भाषा के विशिष्ट प्रभाव को सहजता से उत्पन्न करते हैं। प्रस्तुत ग़ज़ल का हर शेर प्रभावशाली है।

    हाशमी जी ग़ज़लें कहती हैं कि कितने शांतचित्त रहते हुए सहजता से विभिन्न रंग भरते हैं ग़ज़ल में, वही बात इस दूसरी ग़ज़ल में भी है।

    राकेश जी तो लगता है होली तक की तैयारी अग्रिम रूप से किये हुए हैं, बेहद खबसूरत गीत आया है निरंतरता में।

    अभी के लिए वाहः और वाहः।

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।

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  2. वाह ... बहुत हो कमल का अंदाज़ है आज नवीन जी, हाशमी जी और राकेश जी का ...
    ब्रिज भाषा के लाजवाब दोहे और फिर हाशमी साहब की व्यंग की धार ... हर शेर नए अंदाज़ का ... सुभान अल्ला ... कुर्बान है हम तो इस अदायगी पे ...

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-11-2019) को     ""हुआ बेसुरा आज तराना"  (चर्चा अंक- 3511)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।

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  4. बोल लाला नवीन चन्द चौबेजी की जय
    फ़िर श्री गिर्राज महाराज की जय,

    भैया चौबेजी, तुमने तो बड़े बड़े शायरन कू एकहि लपेट में सूँत दर्यौ और हमारि ताईं कछु नाय छोड़ो के हम कछु कह सकीं

    अब भैया होरी दरवज़्ज़े के पास भगवान दास हलवाई की दुकान सों ले के तीन किलो रब़ई कौ भोग लगाय लीनों और एक किलो भैय्या पंकज कू भिजवाय दीनों सो वूय नये बरस की ताईं मिसरौ भेजें और अगर दोय किलो भिजवाय सको तो वो मोसरौ के संग संग मिसरी भी भेज सकें.

    अ ब हम तो दाद बाद खुजली से दूर ते ही राम राम कर लेंवें तो हमारी तो आपके ताईं राधे राधे.

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।

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  5. तीनों रचनाकारों ने बहुत ही अच्छी रचनाएँ पाठकों को दी हैं। बहुत बहुत बधाई आदरणीय नवीन चतुर्वेदी जी, मन्शूर अली हासमी जी और राकेश खंडेलवाल जी को

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  6. बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण। राधे-राधे।

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