मंगलवार, 29 मार्च 2016

होली का रंग वैसे तो पंचमी तक चलता है किन्‍तु हमारे यहां शीतला सप्‍तमी तक होली का त्‍योहार चलता है। आइये मनाते हैं आज बासी होली।

त्‍योहारों को लेकर भारत में कुछ बातें बहुत अच्‍छी हैं। जैसे पहली बात तो यह कि कोई भी त्‍योहार एक दिन का नहीं होता है। हर त्‍योहार मानो एक पूरा सप्‍ताह या उससे भी अधिक समय लेकर आता है। जैसे होली को ही ले लीजिये। यह पूरे फागुन माह का त्‍योहार तो है ही लेकिन फागुन के बाद भी सप्‍तमी तक चलता है। शीतला सप्‍तमी के दिन महिलाएं जाकर जिस जगह पर होलिका का दहन होता है उस स्‍थान पर धधक रही अग्नि पर पानी डाल कर उसे शांत करती हैं। आप कहेंगे कि भला सात दिन तक भी कोई आग दहकेगी। तो मित्रों मैंने अपने बचपन में स्‍वयं देखा है कि सात आठ दिन तक होली में आग बनी रहती थी। अंदर ही अंदर राख में दबी हुई। शीतला सप्‍तमी को महिलाएं कलश में पानी ले जाती थीं और उसे ठंडा कर देती थीं। कहा जाता है कि शीतला सप्‍तमी से ही गर्मी का प्रारंभ होता है। इसीलिये इस दिन ठंडा खाया जाता है। ठंडा का मतलब यह कि गर्मियां आ गईं हैं अब अपने खाने पीने की आदतें बदल ली जाएं। भारत के सारे त्‍योहार मौसम पर आधारित हैं। कोई भी त्‍योहार मौसम से अछूता नहीं है। और एक अच्‍छी बात यह है कि हर चार महीने पर एक त्‍योहार ऐसा ज़रूर है जिससे बेटियां लौट कर मायके आ सकें। रक्षा बंधन है फिर दीपावली के बाद की भाई दूज, फिर संक्रांति और होली के बाद की भाई दूज। होली के बाद की भाई दूज शायद देश के कई हिस्‍सों में नहीं होती हो लेकिन हमारे यहां होती है। और एक बात मजे की यह है कि सारे त्‍योहारों के बाद में एक बासी त्‍योहार भी होता है। बासी होली, बासी दीपावली और बासी ईद भी। 
 हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे
आप सोच रहे होंगे कि इतनी लम्‍बी भूमिका क्‍यों। असल में यह भूमिका बासी होली की भूमिका है। हम आज बासी होली मनाने जा रहे हैं। जैसा कि मैंने कहा था कि द्विजेन्‍द्र जी की एक और ग़ज़ल है जो आज आ रही है। होली के स्‍थाई ग़ज़लकार श्री तिलकराज कपूर के जोड़ीदार श्री नीरज गोस्‍वामी ने उनकी अनुपस्थिति को बहुत ज्‍यादा अन्‍यथा लिया सो अपने जोड़ीदार को पुन: प्रसन्‍न करने हेतु श्री तिलकराज जी ने होली की छुट्टी में बैठ कर ग़ज़ल लिखी और भेजी है। श्री पवनेंद्र पवन नगरोटा बगवाँ ज़िला कांगड़ा के रहने वाले हैं तथा द्विजेंद्र जी के मित्र हैं। तरही में पहली बार आ रहे हैं। तो आज इन तीनों के साथ हम मना रहे हैं बासी या बूढ़ी होली। 
 श्री तिलक राज कपूर
वक्त के सितम से हैं, बन्द कोठरी, जैसे
कल जहॉं ने पूजा था, हमको रौशनी, जैसे।
चाहतों के मेले में, मृग बने भटकते हैं
खोजते हैं कस्तूरी, नाभि में छुपी जैसे।
रेत के घरौंदों से, ख़्वाब में बने रिश्ते
सुब्ह इक लहर जैसी, साथ ले गयी जैसे।
आपका चले आना, ख़्वाब है, हक़ीक़त है
क्यूँ लगे इनायत ये, आज दिल्लगी, जैसे।
हुस्न यूँ दिखा ठहरा, आपकी जवानी पर
थम गया हर इक लम्हा, थम गयी घड़ी जैसे।
वादियों में उठता है, सुब्ह  का हसीं सूरज
टेसुओं से श्रंगारित कोई रूपसी जैसे।
धूप को विदा कहते, सामने दिखा मंज़र
आ गयी है जीवन में, सांझ सुरमई, जैसे।
क्या हसीन मंज़र है, सामने निगाहों के
छा गया हर इक शै पर रंग फागुनी जैसे।
झुरमुटों से बॉंसों के, फागुनी हवा गुजरी,
हौले हौले बजती हो बॉंसुरी कोई जैसे।
सबसे पहले तो मतले की बात की जाए। क्‍या तुलना है एक तरफ बंद कोठरी और दूसरी तरफ रौशनी। विरोधाभास का बहुत अच्‍छा चित्र । आपका चले आना ख्‍वाब है शेर में विश्‍वास नहीं होना तथा इससे पार की स्थिति का बखूबी चित्रण किया गया है। हुस्‍न यूँ दिखा ठहरा आपकी जवानी पर में घड़ी और लम्‍हों दोनों का एक साथ ठहर जाना बहुत ही सुंदर प्रयोग है। क्‍या हसीन मंज़र है सामने निगाहों के में हर इक शै पर फागुन का रंग कमाल का चढ़ा है। और सबसे सुंदर है गिरह का शेर क्‍या कमाल की गिरह लगाई है। बांस और बांसुरी दोनों ही एक दूसरे का प्रतीक हैं। वाह वाह वाह क्‍या कमाल की बासी ग़ज़ल है। अति सुंदर।
  द्विजेन्द्र द्विज
नज़्म (प्यार में ...)
गूँजती है कानों में एक रागिनी जैसे
'हौले-हौले बजती है बाँसुरी कोई जैसे’
दिल  में यूँ उमड़ते हैं  सात सुर उमंगों के
तन-बदन भिगोती है उनकी नग़मगी जैसे
हर तरफ़ थिरकती हैं, तितलियाँ  ख़यालों की
ज़ेह्नो-दिल महकते हैं बनके चम्पई जैसे
आँखें पढ़ ही लेती हैं अर्ज़ियाँ ख़मोशी की
बिन कहे पहुँचती है   बात अनकही जैसे
ज़ेह्न के जज़ीरों से यूँ ख़याल  आते हैं 
खिड़कियों से कमरों में धूप-चाँदनी जैसे
गुफ़्तगू चराग़ों की हौसला बढ़ाती है
लगता है अमावस की शब हो चांदनी जैसे
उम्र बीत जाती है जैसे कोई सपना हो,
यूँ ही बातों-बातों में साँझ ढल गई जैसे.
द्विज जी ने होली की ग़ज़ल भी खूब कही थी और यह ग़ज़ल भरी प्रेम की चाशनी में पगी हुई है। मतले में ही सुंदर गिरह बांध कर ग़ज़ल को उठाया है। और उसके बाद जो शेर एक दम खींच लेता है वह है खयालों की तितलियों का थिरकना और उनके थिरकने से ज़ेह्नो दिल का चम्‍पई हो जाना। वाह वाह प्रेम को कितने सुंदर चित्रों से सजाया गया है। और उसके ठीक बाद ही खामोशी की अर्जियों का बिन कहे पहुंच जाना। प्रेम को कितने नाज़ुक शब्‍दों से अभिव्‍यक्‍त किया है। उम्र बीत जाती है जैसे कोई सपना हो और उसकी तुल्‍ना सांझ के ढल जाने के साथ करके ग़ज़ल को अंत में उदासी का टच दे दिया है। बहुत खूब वाह वाह वाह।
 पवनेंद्र पवन
श्री पवनेंद्र पवन नगरोटा बगवाँ ज़िला कांगड़ा के रहने वाले हैं तथा द्विजेंद्र जी के मित्र हैं। 
राम बुद्ध नानक के बोल भी अली जैसे
सुर गिटार वीणा के ज्यूँ हैं बाँसुरी जैसे
फाख्ता का चूज़ा जो बाज से उड़ा ऊँचा
मच गयी इसी पे अम्बर में खलबली जैसे
आत्मा मिलेगी परमात्मा से ही आखिर
इक खुली गली से मिलती है तंग गली जैसे
इक सुखद तपिश का एहसास दे छुअन तेरी
सर्दियों की लगती है धुप गुनगुनी जैसे
वक्त ने भगाया है साथ यूं हमें अपने
दौड़ता है गाड़ी के साथ इक कुली जैसे
पाप दिल में हो तो वरदान शाप बनता है
जो न जल थी सकती वो होलिका जली जैसे
पवन जी ने मतले में ही सौहार्द का जो रंग घोला है उसके सामने सारे रंग फीके हैं। राम बुद्ध नानक और अली सब एक ही बात कह कर गए हैं। बहुत सुंदर मतला। फाख्‍ता के चूजे के बाज से ऊंचा उड़ने पर अम्‍बर पर मची खलबली के कितने व्‍यापक अर्थ हैं। यही तो होती है कवि की दृष्टि जो अंदर तक उतरती है। खुली गली और बंद गली का प्रयोग भी अंदर तक झकझोर देता है। कमाल का बिम्‍ब। ग़ज़ब।  प्रेम का एक और सुंदर चित्र छुअन की तपिश से सर्दियों की धूप के गुनगुने होने का है । बहुत ही सुंदर तरीके से उस एहसास को शब्‍द दिये हैं। और अंत में होलिका के वरदान का श्राप हो जाना भी खूब है। बहुत सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।
तो मित्रों यह है बासी होली। यदि और भी किसी को बासी होली खेलना हो तो आ जाए क्‍योंकि अभी भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के अपनी ग़ज़ल लेकर आने वाले हैं। तो आज की ग़ज़लों पर दाद दीजिये और इंतजा़र कीजिये भभ्‍भड़ कवि का। 

13 टिप्‍पणियां:

  1. क्या हसीन मंज़र है सामने निगाहों के.....
    दिल मे यूँ उमड़ते हैं....
    हर तरफ़ थिरकती है....
    आँखें पढ ही लेती है.....
    वक़्त ने भगाया है साथ यूँ हमें अपने.....
    वाह वाह क्या खूबसूरत शेर और ग़ज़लें बासी होली भी क्या ही कमाल खेली जा रही हैं। काव्य रस की बौछारों के लिए तिलक जी द्धिजेन्द्र जी पवन जी को बधाई।
    अब तो भौचक्के जी को आ ही जाना चाहिए।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-03-2016) को "ईर्ष्या और लालसा शांत नहीं होती है" (चर्चा अंक - 2297) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सरप्रथम पवनेंद्र पवन जी हार्दिक स्वागत इस परिवार में। अध्यात्म का अनुभव बड़ी खूबसूरती से ग़ज़ल में उतरा है।
    बहुत खूबसूरत शेर।

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  4. बासी होली पर पेश हुई हैं मग़र ग़ज़लों की ताज़गी में कोई कमी नहीं। तीनो शायरों ने एक से बढ़कर एक अश’आर कहे हैं। बहुत बहुत बधाई आदरणीय तिलक जी और द्विज जी को एवं हार्दिक स्वागत आदरणीय पवनेंद्र जी का।

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  5. आदरणीय श्री पवनेंद्र पवन जी बहुत सुन्दर गज़लें कहते हैं।पवन जी की कुछ गज़लें कविताकोश में भी उपलब्ध है।उनकी व आदरणीय श्री तिलकराज कपूर साहब की सुन्दर ग़ज़लों के साथ अपनी रचना को यहां देखना सुखद लग रहा है। बहुत सुन्दर तरही के सफल आयोजन के लिए सुबीर साहब का आभार । उन्हें हार्दिक बधाई!

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  6. आज बासी हो१ली की ग़ज़लें पेश हुई हैं लेकिन ग़ज़लों की धमक कदम से टटका है ! अदरणीय तिलकराज कपूर की ग़ज़लों की प्रतीक्षा थी । प्रकृति अपने पूरे निखार के साथ आपकी ग़ज़ल में मौज़ूद है । मतले की कहन ने मोह लिया ।
    जबकि, मतलेके बाद का शेर अपने आध्यात्मिक शेड से आकर्षित करता हुआ है ।
    आपके शेरों का अंदाज़, आदरणीय, अलहदा ही हुआ करता है ।
    दाद दाद दाद

    आदरणीय द्विजेन्द्र द्विज भाई की एक ग़ज़ल पहली भी आ चुकी है और ढेरों दाद से नवाज़ी गयी है । ये ग़ज़ल भी कई शेरों के कारण विशिष्ट बन कर सामने आयी है । नग़मग़ीं जैसे शब्दों का शुमार होना ग़ज़ल के होने के पीछे की कहानी कहता हुआ है । इसमें शक नहीं कि द्विजेन्द्र भाई ग़ज़ल कहते नहीं बल्कि जीते हैं ।
    हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय

    इस बार के मुशायरे की विशिष्टता रही आदरणीय पवनेन्द्र पवनजी की ग़ज़ल ! क्या कमाल के शेर हुए है ! फिर ये तो होना ही था । जब द्विजेन्द्र द्विज जैसे सखा हों तो ग़ज़लों का परवान चढ़ना समझ मेम् आने वाली बात होती है । वैसे आपकी ग़ज़लों की ऊँचाइयाँ देख कर शिकस्ते’नारवा पर ध्यान नहीं जाता । लेकिन इनसे बचना उचित होता ।

    तीनों अत्यंत संवेदनशील ग़ज़लकारों को हार्दिक शुभकामनाएँ.

    जो शेर याद रह जाता है, बिला शक निम्नलिखित शेर है --
    वक़्त ने भगाया है साथ यूँ हमें अपने
    दौड़ता है गाड़ी के साथ इक कुली जैसे !

    कमाल कमाल कमाल !

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  7. अहा हा प्यारेलाल जी आ गए ,आये भी पूरे गाजे बाजे के साथ हैं। देर आयद दुरुस्त आयद। प्यारेलाल जी जैसा कोई नहीं , उनका नजरिया कहने का अंदाज़ और लफ़्ज़ों का इस्तेमाल बेमिसाल है। मतले से ही वो अपने शिकार याने पाठक को अजगर की भांति कुंडली में कस लेते हैं और मक्ते तक उसे उस अवस्था में पहुंचा देते हैं जिसमें उसे अपना ही होश नहीं रहता। बंद कोठरी के साथ रौशनी जैसे काफिये , रेत के घरोंदों जैसा फलसफा , हुस्न यूँ दिखा जैसे ठेठ रूमानी शेर और झुरमुटों के बांसों जैसा सुरीला मिसरा तिलक राज तिलक जी के कलम से ही संभव है , तभी तो हम जैसे उनका बेताबी से इंतज़ार करते हैं और मजे की बात ये है कि वो भी क्रिकेटर कोहली जैसे कभी निराश नहीं करते।

    द्विज जी के बारे में क्या कहूं पहले ही कह चुका हूँ और जितनी बार भी, जो भी कहूं कम ही होगा "ज़ेहन के ज़जीरों से यूँ ख्याल आते हैं....." जैसा शेर तो कलेजे से लगने लायक है।

    पवनेंद्र पवन जी को पहली बार पढ़ा और पहली बार में ही उनके कलाम का कायल हो गया। कमाल की ग़ज़ल कही है उन्होंने , जितनी भी तारीफ की जाए कम पड़ेगी। तंग और खुली गली की बात तो अद्भुत है , गाडी के साथ दौड़ते कुली ने तो अवाक कर दिया। सादर नमन करता हूँ ऐसी विरली सोच वाले शायर को। वाह वाह वाह !!!

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  8. लगभग 24 घंटे के अंतराल पर पुनः लौट रहा हूँ शेष बात कहने को।
    द्विजेन्द्र जी की ग़ज़ल पढ़ने का जब जब अवसर मिला, कुछ नया मिला, हर शेर कहता है कि शेर का प्रभाव केवल तकनीकि पक्ष नहीं सोच का दायरा निर्मित करता है।

    ग़ज़ल की बह्र को समझने के प्रयास में जब पर्वतों के पेड़ों पर की दूसरी पंक्ति पढ़ी तो कवि की कल्पना के दायरे ने चकित कर दिया कि "सुरमई उजाला है, चम्पई अँधेरा है"। कल्पना में विरोधाभासी रंगो को एक स्तर पर किस खूबसूरती से लाया गया है कि पढ़ने वाला दृश्य में खोकर रह जाता है। शायद यही स्थिति है जो तर्क और रचनात्मकता के अंतर को स्पष्ट करती है। फाख्ता के चूजे के शेर में इसी ख़ूबसूरती का दर्शन पवन जी ने कराया।
    मेरा तुच्छ प्रयास आप सब को पसंद आया यह आपका स्नेह है, जिसकी चाह हमेशा बानी रहेगी।
    अब भभ्भड़ कवि भौचक्के का बेसब्री से इंतज़ार है।

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  9. एक और बात जो पंकज भाई की प्रस्तुति की। आप सभी साक्षी हैं कि उत्सव सन्दर्भ भी इतनी ख़ूबसूरती से कम ही स्पष्ट होते देखे हैं। मुझे विश्वास है कि इस एक बात पर सर्वसम्मति है।
    इसी प्रकार प्रस्तुति पर टिप्पणी के माध्यम से व्याख्या पर नीरज भाई और सौरभ भाई ने इतनी खूबसूरत पकड़ बना ली है कि किसी प्रकाशन ने यह क्षमता देख ली तो इनको लिए बिना नहीं रहेगा। वाह।

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  10. एक और बात जो पंकज भाई की प्रस्तुति की। आप सभी साक्षी हैं कि उत्सव सन्दर्भ भी इतनी ख़ूबसूरती से कम ही स्पष्ट होते देखे हैं। मुझे विश्वास है कि इस एक बात पर सर्वसम्मति है।
    इसी प्रकार प्रस्तुति पर टिप्पणी के माध्यम से व्याख्या पर नीरज भाई और सौरभ भाई ने इतनी खूबसूरत पकड़ बना ली है कि किसी प्रकाशन ने यह क्षमता देख ली तो इनको लिए बिना नहीं रहेगा। वाह।

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  11. उस्तादों की गजलें पढने का जो मजा है वो बहुत कम मिलता है पर आज ये सुख भरपूर मिल रहा है ...तिलक राज जी की ग़ज़ल का हर शेर बहुत ही गहरा और लाजवाब है ... द्विज जी की प्रेम में डूबी हुयी ग़ज़ल बेमिसाल है ... और पवन जी ने तो ग़ज़ल को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है ... इस मुशायरे ने सच में समा बाँध दिया है ... अब तो बस आपकी ग़ज़ल का इंतज़ार है ...

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  12. पवनेंद्र पवन जी की टिप्पणी:

    तरही गज़ल का हिस्सा बनाने के लिये सुबीर साहिब का आभार ।उस्ताद शायरों को पढ़ने का अवसर प्रदान करने के लिये द्विज जी का शुक्रगुजार तो हूँ ही ,आप सभी महानुभावों ने जिस प्रकार मेरा होंसला बढ़ाया है उससे नई प्रेरणा और स्फूर्ति भी मिली है ।आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद ।श्री तिलक राज और द्विज जी को पढ़ कर आनंद के साथ बहुत कुछ सीखने को भी मिला ।आप के साथ साथ होंसला बढ़ाने के लिये पारूलजी ,वंदना जी ,सज्जन धर्मेन्द्र ,सौरभ जी नीरज गोस्वामी जी तथा दिगम्बर जी का भी आभारी हूं
    पवनेंद्र पवन

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