मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

दिल्‍ली में 'महुआ घटवारिन' का विमोचन और अब वापस दीपावली के तरही मुशायरे की तैयारी ।

तरही को लेकर इस बार लोग कुछ असमंजस में हैं । हालांकि काफी ग़जल़ें प्राप्‍त हो चुकी हैं । मगर फिर भी ऐसा लग रहा है कि मिसरे को लेकर कुछ उलझनें तो हैं । कुछ लोगों ने मिसरे पर अपने सुझाव दिये कि यदि ऐसे की जगह ऐसा कर लें तो । ये बिल्‍कुल ऐसा ही है कि परीक्षा पत्र में आये हुए प्रश्‍न के स्‍थान पर हम परीक्षक से कहें कि यदि हम इसके स्‍थान पर दूसरे किसी प्रश्‍न का उत्‍तर लिख दें तो । टास्‍क में ऑपश्‍न नहीं होते । चुनौती का मतलब ही होता है कि कोई गली नहीं । जो जैसा है वैसा ही किया जाये । जब हम सुविधा की गलियां तलाशने लगते हैं तो हमें उसकी आदत पड़ जाती है । हर बार हर काम में हम अपनी सुविधा तलाशते हैं । कुछ लोगों ने कहा कि 'जो हो रहे तो हो रहे' के स्‍थान पर 'हुआ करे हुआ करे' उनको ज्‍यादा ठीक लग रहा है । बचपन का एक किस्‍सा याद आ गया, स्‍कूल में गणित के मास्‍साब ने कोई प्रश्‍न हल करके उत्‍त्‍र तलाशने को कहा था । मेरा एक मित्र कुछ देर बाद खड़ा हुआ और कहने लगा 'मास्‍साब उत्‍तर में 45 चलेगा क्‍या' । मास्‍साब ने उसके कान उमेंठते हुए कहा 'बेटा ये गणित है किसी होटल का मीनू नहीं है कि साहब आज आलू खतम हो गया है पनीर चलेगा क्‍या '।  मतलब ये कि जीवन भी गणित की तरह ही होता है । इसमें जो उत्‍तर आना है वही आना है । तरही मुशायरा दो प्रकार की परीक्षा होती है । पहली तो कहन और बहर की । दूसरी अनुशासन की । अनुशासन इस बात का कि आप मिसरे को, रदीफ को, काफिया को पूरी तरह से निभा पा रहे हैं अथवा नहीं । साहित्‍य एक कडे़ अनुशासन की मांग करता है । यदि आप अनुशासित नहीं हैं तो साहित्‍य आपको जल्‍द ही खारिज कर देगा । किसी संपादक ने यदि आपसे कहा है कि आपको 20 जून तक अपनी रचना भेजनी है तो ये मान कर चलें कि आपकी रचना 19 जून तक उसके पास होनी चाहिये । यदि आप ठीक 20 जून को उसे फोन करेंगे कि मेरी तो तबीयत ठीक नहीं थी, मेहमान आ गये थे, इसलिये नहीं लिख पाया, 30 तक भेजता हूं, तो जान लीजिये कि अब आप उस संपादक की गुड लिस्‍ट से हट चुके हैं  । बाद में जब पत्रिका में आप अपनी रचना नहीं पाते हैं तो इस बात को लेकर रोना पीटना मत कीजिये कि मेरी रचना तो छापी ही नहीं ।

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(नई दिल्‍ली में महुआ घटवारिन का विमोचन)

इस बार दिल्‍ली में मन को बहुत अच्‍छा लगा । कार्यक्रम बहुत अच्‍छा हुआ । महेश भारद्वाज जी ने जिस प्रकार से कार्यक्रम का संयोजन किया और श्री सुशील सिद्धार्थ ने जिस प्रकार से संचालन किया वो अद्भुत था । हिंदी के लेखक को भी महत्‍व दिया जाने लगा है ये एक सुखद संकेत है । उसके साथ भी ग्‍लैमर जुड़ रहा है । राजेन्‍द्र यादव जी और नामवर सिंह जी की उपस्थिति वैसे भी कार्यक्रम को गरिमा से भर देती है । महुआ घटवारिन को लेकर लिया गया निर्णय सही सिद्ध हुआ ये जानकर मन को अच्‍छा लगा । सामयिक प्रकाशन के साथ जाने का निर्णय सही सिद्ध हुआ । कार्यक्रम के पहले और बाद में गेट टुगेदर में कई लोगों से मिलना हुआ । सौरभ पांडेय जी, सौरभ शेखर से पहली बार मिलना हुआ । मिलकर बहुत बहुत अच्‍छा लगा । सच कहूं तो जो सौरभ पांडेय जी ने कहा कि लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं वही मुझको भी लगा । अर्श से विवाह के बाद पहली मुलाकात हुई । कुछ लोग जिन्‍होंने वादा किया था कि वो कार्यक्रम में रहेंगे वे वादा करके भी नहीं आये । खैर कार्यक्रम एक अलग प्रकार का अनुभव दे गया ।

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इस बार का भाषण चुटकियों से भरा हुआ दिया । लगा कि गंभीर साहित्यिक भाषण देने का काम तो बाद में उम्र भर करना ही है अभी तो ज़रा कुछ हल्‍का फुल्‍का हो जाये ।

तिलकराज कपूर जी ने एक प्रश्‍न किया था : एक प्रश्‍न निरंतर परेशान कर रहा है कि एक अच्‍छे शेर के मूल तत्‍व क्‍या होते हैं।

यह प्रश्‍न एक पूरे विमर्श पूरी बहस की संभावना से भरा हुआ है । अच्‍छे शेर के मूल तत्‍व क्‍या होते हैं । तिलक जी ने ये भी पूछा कि शेर वो अच्‍छा होता जो केवल प्रबुद्ध लोगों को समझ में आये, या वो जो हर किसी को समझ में आ जाये । ये मूल प्रश्‍न के साथ जुड़ा हुआ एक महत्‍वपूर्ण उपप्रश्‍न है । शेर क्‍यों हो, कैसा हो, ये बात हर किसी को मथती है । आइये इसके उत्‍तर आप और हम मिलकर तलाशने की कोशिश करते हैं । समय परिवर्तन लाता है और समय के साथ हर चीज़ को बदलना होता है । साहित्‍य भी समय के साथ परिवर्तित होता रहता है । साहित्‍य के हर युग में तीन प्रकार के साहित्‍यकार होते हैं । पहले वे जो भूतकाल में उलझे होते हैं । अर्थात जो भाषा, शिल्‍प, कहन, कथ्‍य, विचार आदि सब वही रखते हैं जो बीत चुके हैं । ये यदि 2012 में भी रचना लिख रहे हैं तो इस रचना को पढ़कर, सुनकर ये लगता है कि ये रचना 1962 में लिखी गई हो । दूसरे साहित्‍यकार वे होते हैं जो वर्तमान में रहते हैं । अपने समय पर पैनी नज़र रखते हैं । और सब कुछ अपने वर्तमान समय से ही लेते हैं  । इनका साहित्‍य अपने समय का प्रतिबिम्‍ब होता है । ये साहित्‍य की मुख्‍य धारा होती है । तीसरे वे जो अपने समय से आगे का साहित्‍य रचते हैं । ये बहुत कम होते हैं । ये दुस्‍साहसी होते हैं । वर्तमान समय इनको खारिज करने की कोशिश करता है । उपहास उड़ाता है । किन्‍तु आने वाला समय इनके स्‍वागत में खड़ा होता है । ग़ालिब और कबीर इसी धारा के रचनाकार हैं । इन्‍होंने अपने समय से आगे का लिखा । बहुत आगे का लिखा । तो सबसे पहले तो अप अपने लिखे हुए का अध्‍ययन करें और अपने आप को पकड़ने का प्रयास करें कि आप इन तीनों में कहां हैं ।

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शेर के बारे में मेरा अपना विचार ये है कि शेर का सबसे आवश्‍यक तत्‍व है उसकी मासूमियत, उसकी सादगी । जितनी सहजता के साथ बात कही जायेगी उतनी आनंद देगी । इसलिये क्‍योंकि पूर्व निर्धारित वज्‍़न पर कठिन तरीके से बात कहना सरल है, किन्‍तु, सरल तरीके से बात कहना कठिन है । आप अपने समय की भाषा में बात करिये । जो लोग कहते हैं कि साहित्‍य की भाषा अलग होनी चाहिये, वे साहित्‍य को आम आदमी से दूर ही कर रहे हैं । दोहरा मानदंड नहीं चलेगा । आम आदमी पर यदि आपने कविता लिखी है तो आम आदमी को समझ में भी आनी चाहिये । एक ज़माने में पान वाले, होटल वाले, शेरों के सबसे अच्‍छे मर्मज्ञ होते थे । साहित्‍य को कठिन मत कीजिये । उसे फैलने दीजिये । नीरज जी की मुम्‍बइया ग़ज़लों को मैं इसीलिये प्रोत्‍साहित करता हूं । कि कम से कम नई ज़मीन तो तोड़ी जा रही है । अभी कल ही स्‍व. जगजीत सिंह जी का नया एल्‍बम सुन रहा था उसमें एक गीत है 'तू अम्‍बर की आंख का तारा' उस गीत में ये पंक्तियां आईं-

तुझको सारे मन से चाहा, चाहा सारे तन से

अपने पूरेपन से चाहा, और अधूरे पन से

मैं चौंक गया । चौंक गया क्‍योंकि कुछ नया था । 'चाहा सारे तन से' में जैसे प्रेम का पूरा शास्‍त्र लिख दिया है और फिर अगली ही पंक्ति में 'और अधूरेपन से' । तीन बार पीछे करके पंक्तियों को सुना । तीसरी बार आंखों में आंसू आ गये । साहित्‍य अपना काम कर चुका था । वो सार्थक हो चुका था । 'चाहा सारे तन से' इस आधी पंक्ति में ऐसा क्‍या है जो इसे फिर फिर सुनने पर मजबूर कर रहा है । और ऐसा क्‍या है उस अधूरेपन में जो पूरेपन पर भारी पड़ रहा है । बस ये है कि कुछ नया घट गया है । बहुत सादगी के साथ । बहुत निश्‍छलता के साथ । उस भाषा में जिसे हर कोई समझ सकता हो । इसी एल्‍बम में एक और नज्‍़म है 'जाओ अब सुब्‍ह होने वाली है' उसमें ये पंक्तियां आती हैं

सर उठाओ ज़रा इधर देखो, इक नज़र, आखिरी नज़र देखो

इसमें कोई नई बात नहीं कही गई है, मगर लिखने वाले ने इसमें इतनी सरलता के साथ बात कही है कि बात मन को भा रही है । दो चीजें हैं सरल बात को कठिन तरीके से कहना और कठिन बात को सरल तरीके से कहना । साहित्‍य दूसरे तरीके की मांग करता है । मगर अफसोस ये है कि प्रबुद्ध वर्ग पहले तरीके से लिखने वालों को प्रोत्‍साहन देता है । शेर तो वैसे भी दूसरे और केवल दूसरे तरीके की ही मांग करता है । संप्रेषणीयता दूसरे ही तरीके में होती है । शेर में यदि संप्रेषणयीता नहीं है तो वो कही नहीं पहुंचेगा । तिलक जी ने ये भी पूछा था कि शेर में मुहावरों कहावतों का उपयोग क्‍या उनकी सुंदरता बढ़ाता है । मेरे विचार में शेरों में कहावतों का प्रयोग करने अच्‍छा है ऐसे शेर लिखे जाएं जिनके मिसरे स्‍वयं ही कहावत बन जाएं । बहुत पहले किसी मंच पर वीर रस के कवि द्वारा नारे लगवाये जाने से दुखी होकर एक गीत कहा था जिसका मुखड़ा कुछ यूं था-

उसको कविता कैसे कह दूं जो नारे लगवाती है

कविता तो वो होती है जो ख़ुद नारा बन जाती है

कविता में नारे न हों, कविता स्‍वयं नारा बन जाये ( कवि शैलेन्‍द्र का गीत हर जोर जुल्‍म की टक्‍कर में..... आज नारा बन चुका है )

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(सामयिक प्रकाशन के श्री महेश भारद्वाज जी के साथ )

कुछ प्रश्‍नों के उत्‍तर तलाशने की कोशिश की है, कुछ का आगे कोशिश करेंगे । ग़ज़लें भेजिये और दीपावली के मुशायरे को सार्थक बनाइये ।

31 टिप्‍पणियां:

  1. गुरुदेव पहले तो पुस्तक विमोचन पर हुए इस अभूतपूर्व कार्यक्रम की ढेरों बधाई....इस रिपोर्तार्ज़ का इंतज़ार था...जिज्ञासा ये जानने की है की आपने भाषण में क्या कहा...क्या आपने पूर्व लिखित भाषण पढ़ा था यदि हाँ तो उसकी एक प्रति हमें भी भेजें...ये जानने की उत्सुकता है के कैसे आपने एक गंभीर साहित्य उत्सव को अपनी चुटकियों से सहज सरल बना दिया होगा...
    आपने सच कहा "साहित्य एक कड़े अनुशाशन की मांग करता है...यदि आप अनुशासित नहीं हैं तो साहित्य आपको जल्द ही खारिज कर देगा..."...मैंने इस बात को नोट तो कर लिया है लेकिन अमल नहीं कर पा रहा हूँ...
    इस बार की तरही सीधी सरल नहीं है... रदीफ़ शेन वार्न की गेंद बाज़ी के अनुरूप है...दिग्गज बल्लेबाज़ ही उसे समझ कर शॉट खेल सकता है...आँख बंद कर गलत खेला गया शॉट आउट होने की गारंटी है...
    मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ के शेर सहज सरल और आम इंसान की समझ में आना वाला होना चाहिए...ग़ालिब के जितने भी शेर लोगों की ज़बान पर चढ़ें हैं वो सरल ज़बान में ही कहें गए हैं जबकि उनका दीवान फ़ारसी उर्दू के भारी भरकम शब्दों से जड़ें शेरों से भरा पड़ा है...

    अंत में...दिल्ली के कार्यक्रम में आपने जो कुरता पहना है..."उफ़ यू माँ" श्रेणी का है...

    नीरज

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    1. नीरज जी मुझे दो ही लोग कुरता भेंट करते हैं एक मेरी सासू जी और दूसरे मेरे बड़े भाई साहब जो भूषण स्‍टील में उपाध्‍यक्ष हैं खपोली में रहते हैं, आप शायद जानते हों उनको । ये कुरता सासू मां ने जन्‍मदिन पर उपहार में दिया था ।
      इस पोस्‍ट में मैंने आपकी मुम्‍बइया ग़ज़लों का जिक्र किया है तो उससे याद आया कि आपकी कोई मुम्‍बइया ग़ज़ल काफी दिनों से नहीं हुई है । वर्ष 2012 में एक मुम्‍बइया ग़ज़ल मांगता ही मांगता । समझे भिड़ू ।

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    3. लगता है आज फिर आपकी टिप्‍पणी स्‍पैम में चली गयी थी।

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  2. सबसे पहले तो हार्दिक बधाई 'महुआ घटवारिन' के विमोचन की।

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  3. प्रगति-सोपान पर उतरोत्तर बढ़ते प्रत्येक कदम एक विशिष्ट अनुभूति जीते हैं. पच्चीस अक्टूबर की संध्या कई अर्थों में वस्तुतः विशिष्टतम अनुभूतियों का कारण बनी. कुछ रूढियों के समानान्तर आशान्वित करतीं नयी इकाइयाँ खड़ी होती हैं तो वर्तमान अग्रसरित होता है. उस दिन यह तथ्य कितनी तीव्रता और कितनी शिद्दत से स्पष्ट हुआ था ! समझ में भी आया कि आज का हिन्दी-रचनाकार ’बेचारा’ तो कत्तई नहीं रह गया है, तथाकथित मठाधीषों का परमुखापेक्षी भी नहीं है. ’सामयिक’ की ओर से उत्साहजन्य उद्घोषणाएँ चकित नहीं बल्कि आश्वस्त कर रही थीं. इस संदर्भ में कहूँ तो आज का हिन्दी का रचनाकार सगर्व नहीं, सकारण खड़ा है. पोडियम से पंकज भाई का यह कहना कि ’मुझे बोलना आता है.. .’ रोमांचित कर गया था. पुनः बधाई, पंकज भाई.

    उस शाम पंकजभाईजी से एकदम से मिलना और बतियाने लग जाना कितना उत्फुल्लकारी था ! सही है, विचार भूत खोज लेते हैं. हम भी उस संध्या मात्र अपने-अपने वर्तमान भूत से मिले थे, समरस विचारों को आकार देने के क्रम में. बस ! अर्श भाई की सादर समृद्ध उपस्थिति, सौरभ शेखर भाई की आत्मीयता और, सर्वोपरि, पंकजभाई का संयत व्यवहार किन्तु वैचारिक विस्तार, इन सब से भरा-भरा, कुछ और धनी हुआ, देर रात IIC से लौटा था. ऑनलाइन हुआ तो कंचनजी की बहन-सुलभ बतकहियों से लगातार दुहरा होता चला गया. ..
    सही है, साहित्य मात्र शब्द-संप्रेषण नहीं, परिचय-संप्रेषण हुआ करता है.

    शेर पर साझा हुए तथ्य मानक हैं. सादर धन्यवाद.

    लेकिन, मैं तो फँसा. इस बार का तरह-मिसरा से रदीफ़ क्या तय हुआ ’तो हो रहे, तो हो रहे’ या ’जो हो रहे, तो हो रहे’??
    पिछले पोस्ट में ’तो हो रहे, तो हो रहे’ था, जबकि इसबार संदर्भ में ’जो हो रहे, तो हो रहे’ निवेदन हुआ है.

    सादर
    -सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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    1. सौरभ जी सही वही है 'तो हो रहे, तो हो रहे' आज जल्‍दी में ग़लत टाइप हो गया है ।

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    2. स्पष्ट हुआ. धन्यवाद भाईजी.. .

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    3. मैं भी यही बात कहना चाह रहा था............वैसे गुरुदेव 'जो हो रहे, तो हो रहे' में मालवा का लहजा सा दिख रहा है.

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  4. शेर और मासूमियत, बहुत देर तक साथ नहीं निभा पाते हैं ।

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    1. गहरे वही शेर उतरते हैं जो मासूमियत से जन्‍मे हों।

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    2. प्रवीण जी आप बड़ी मासूमियत से गुगली फेंक कर चले गये थे। आप असली शेर की बात कर गये और मैं ग़ज़ल के शेर पर रहा।

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  5. और अधूरेपन से किसी भी संवेदनशील भावुक व्याक्ति की ऑंखों को नम करने में सक्षम है और शायर तो भावनाओं में ही जीता है। कविता तो वो होती है जो खुद नारा बन जाती है, और नारा वही बात बन सकती है जो सहजता से अंदर तक उतर कर मथ दे अनजाने में हाथ उठवा दे, शरीर को कोई निर्देश नहीं पर कविता अपना काम कर गयी।
    एक सुखद् संयोग कि आपने वही कहा जो मेरा मन कहता है:
    कविता
    पहेली नहीं,
    शब्दाडंबर नहीं,
    शब्द ज्ञान नहीं,
    पांडित्य‍ नहीं।
    कविता मन से मन तक चलती चेतना है
    सीधे हृदय में उतरती है
    लहू में घुलती है
    रगों में फ़ैलती है
    घुल जाती है अचेतन में।
    शब्द पीछे रह गये,
    कविता
    अब कविता नहीं.......
    मेरा मानना है कि साहित्य, लेखक का श्रेाता-पाठक से एकतरफ़ा संवाद होता है और संवाद का पहला गुण सहज संप्रेषणीयता है जिसके अभाव में प्रभाव-विहीनता की स्थिति निर्मित हो जाती है। भाषा की जटिलता या उसका कूट होना संवाद को सीमित करता है अत: कूट-संदेश और संवाद सहजता के अंतर को समझकर परिस्थिति अनुसार रचना होना चाहिये। पहेलियॉं बुझाने की स्थिति सार्वजनिक संवाद में उचित नहीं इसका ध्यान एक अच्छे शेर में भी रखा जाना चाहिये। शेर को अगर कोई गहरी बात व्यक्त करने के लिये उपयोग किया गया है तो इस बात का भी ध्यान रखा जाना जरूरी है कि उसका कोई सतही अर्थ भी पूर्णता में निकलता हो। फिर जो जितनी गहरी डुबकी लगाये उतना अधिक आनंद पाये।
    एक उदाहरण है:
    फूलों की महक रोके, कह दो ये बागबॉं से
    नाहक कोई परवाना, शम्अ से जल न जाये।
    यह उदाहरण अन्य रूप में भी उपलब्ध है। कहने को इस शेर में एक पूरी कहानी छुपी है, लेकिन ‘छुपी है’। पहेलियॉं सुलझाने का शौक रखने वाला भले ही इसकी तह तक पहुँच जाये लेकिन सहज संप्रेषण का इसमें नितांत अभाव है, ऐसे में इसे एक अच्छा शेर कैसे माना जा सकता है। हॉं, एक अच्छीह पहेली ज़रूर माना जा सकता है।

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    1. तिलक जी सही कहा आपने । असल में हम सब के मन की बात यही है कि साहित्‍य को सहज और सरल होना चाहिये किन्‍तु हम सब ही पांडित्‍य दिखाने के चक्‍क्‍र में उसे क्लिष्‍ट कर देते हैं ।

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  7. महुआ घटवारिन के विमोचन की हार्दिक बधाई...

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  8. गुरुदेव एक बार फिर से बहुत बहुत बहुत ढेर सारी बधाई

    साहित्‍य एक कडे़ अनुशासन की मांग करता है ।
    यदि आप अनुशासित नहीं हैं तो साहित्‍य आपको जल्‍द ही खारिज कर देगा ।
    शेर का सबसे आवश्‍यक तत्‍व है उसकी मासूमियत, उसकी सादगी ।
    जितनी सहजता के साथ बात कही जायेगी उतनी आनंद देगी ।
    आप अपने समय की भाषा में बात करिये ।
    आम आदमी पर यदि आपने कविता लिखी है तो आम आदमी को समझ में भी आनी चाहिये ।
    दो चीजें हैं सरल बात को कठिन तरीके से कहना और कठिन बात को सरल तरीके से कहना । साहित्‍य दूसरे तरीके की मांग करता है ।
    संप्रेषणीयता दूसरे ही तरीके में होती है । शेर में यदि संप्रेषणयीता नहीं है तो वो कही नहीं पहुंचेगा ।
    कहावतों का प्रयोग करने अच्‍छा है ऐसे शेर लिखे जाएं जिनके मिसरे स्‍वयं ही कहावत बन जाएं ।


    ///प्वाईन्टस नोटेड ///

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. गुणी अनुज को ' महुआ घटवारिन ' से जुड़े
    गौरवमय आध्याय के लिए
    ढेर सारी शुभकामनाएं एवं
    बहुत बहुत बधाईयाँ भेज रही हूँ ...
    स स्नेह आशिष
    - लावण्या

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  11. महुआ घटवारिन के विमोचन की बधाई और तरही के लिए ..तैयारी

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  12. महुआ घटियारिन के विमोचन की बहुत बहुत बधाई पंकज भाई।

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  13. लाल कुतरते में जँच रहे हैं गुरुदेव. "महुवा घटवारिन" के भव्य विमोचन के लिए बधाई.
    इस पोस्ट ने लेखन की कुछ नई खिड़कियाँ खोली.
    आखिरी फोटो सामयिक प्रकाशन के श्री महेश भारद्वाज जी के साथ वाली धांसू आई है.

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  14. अय हाय गुरूदेव .... क्या लग रहे हो आप ? ये खिलखिलाहट और ये कुर्ता और ये महेश भारद्वाज की गलबहियाँ ... आप यूं ही खिलखिलाते रहे बस और तमाम ऊँचाइयाँ यूं ही सोपान दर सोपान चढ़ते रहें| सीना और और चौड़ा हो गया| काश कि मैं भी रहता ...

    तरही अब शुरू कर दीजिये, जो भी रचनाएँ आई हैं| बर्दाश्त नहीं कर सकता अब और विलंब ...अंकित ने अभी-अभी एक इतना जबरदस्त शेर सुनाया है अपना कि मचल रहा है मन तरही शुरू होने के लिए|

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  15. अब इस माइक पे खिलखिलाती तस्वीर को प्रोफाइल फोटो में लगाईये तो फटाफट....

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  16. महुआ घटवारिन के विमोचन की बहुत बहुत बधाई। कुर्ते के लिए विशेष रूप से बधाई।
    कहते हैं ऊँचा माथा बुद्धिमत्ता की निशानी है। आज सोदाहरण देख लिया नामवर जी, राजेंद्र जी और सुबीर जी में।

    मास्साब की डाँट पड़ गई अब दिमाग की नसें कुछ खुलेंगी। (पुरानी आदत है जब तक मास्साब डाँट न दें दिमाग काम करना शुरू ही नहीं करता शुरू करता भी है तो ऐसे ऐसे शे’र बनते हैं।)

    जो थाल में अचार हो तो हो रहे तो हो रहे
    जो पेट में विकार हो तो हो रहे तो हो रहे

    हम आ गए हैं आज तो डकार ले के जाएँगे
    जो यार को बुखार हो तो हो रहे तो हो रहे

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  17. सोचा लिखूं बधाई लेकिन शब्द नहीं यह मन को भाया
    तिथि तो थीए पच्चीस,आंकड़ा अभी नहीं पूरा हो पाया
    जब पच्चीस पुस्तकें आकर छू लेंगी जन के मानस
    तभी बधाई लिखूँ सिर्फ़ मैं इतना ही निश्चय कर पाया

    चलती रहे लेखनी अविरल नये नये दरवाजे खोले
    दूर क्षितिज की खिड़की को देखे फिर अपने पर को तोले
    जहाँ कल्पना चुक जाती है, ले पाथेय उसी इक पल से
    बुने कथानक ऐसे पाठक वाह वाह ही केवल बोले

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  18. मुझे बोलना कम से कम आता है, बस इस एक वाक्य ने सभी को रोमांचित कर दिया था, और मुझे गौरवांवित ! उफ्फ क्या माहौल बना था! मिलने को सिर्फ गुरुदेव से गया था मगर मिलता बहुत से अपनों से चला गया था, जिनसे कभी मिलना नहीं हुआ था! सौरभ जी वाक़ई धनी व्यक्तित्व के मालिक हैं! लगा ही नहीं पहली दफ़ा मिल रहा हूँ! और यही होता है कि फिर आप अपने विचार खुले तौर पर किसी के भी सामने रख देते हैं वगैर किसी हिचक के!
    क्या ही ख़ूब शाम थी.. जीवन भर याद रह जाने वाली!
    फिर से करोडो बधाई गुरुदेव !

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  19. स्टेशन और मेहमानों के बीच कार्यक्रम से छूट गया. सच में हम ये कुरता और सफलता के सोपान नए नए देखते रहें.
    अब ग़ज़ल प्लेटफोर्म पर आता हूँ.

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