मंगलवार, 14 सितंबर 2010

सरकारी हिसाब से आज हिंदी का दिन है, अपनी मातृभाषा का एक दिन । भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के जनता की फरमाइश पर अपनी ये विचित्र किन्‍तु सत्‍य वस्‍तु लेकर आ रहे हैं ।

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं  

इस बार का तरही मुशायरा समापन का नाम ही नहीं ले रहा है । जून के अंत से इसकी सुगबुगाहट प्रारंभ हुई तो सितम्‍बर के मध्‍य तक तो हम आ ही पहुंचे हैं । आज हिंदी दिवस है । वैसे तो अपनी ही मातृभाषा का एक अलग दिवस मनाने का कोई औचित्‍य नहीं हैं । जिसे हम रोज ही बोल रहे हैं व्‍यवहार में ला रहे हैं उसके लिये एक अलग दिन ? खैर सरकारी औपचारिकताओं की तरह ही हिंदी दिवस भी एक ऐसी औपचारिकता है जिसमें सरकारी कार्यालय एक हिंदी के साहित्‍यकार को ढूंढ़ते हैं ताकि उसको सम्‍मान कर सकें । आज भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के अपनी एक रचना के साथ तरही को हिंदी दिवस पर समापन कर रहे हैं । हिंदी दिवस इसके लिये मुफ़ीद दिन इसलिये है क्‍योंकि इस पूरी रचना ( श्री रमेश जी द्वारा खारिज किये जाने के बाद इसे ग़ज़ल कहने की हिम्‍मत नहीं हो रही ) में हिंदी का बोलबाला है । लगभग सारे काफिये हिंदी के हैं । और इसी अनुरूप पूरी रचना ढली हुई है । कई सारे शेर अभी भी काम मांग रहे थे लेकिन उसके लिये समय नहीं मिला सो आज जो है जैसी है वैसी ही प्रस्‍तुत है ये रचना । आप सबसे पहले ही कह दिया था कि दिमाग़ को सिरे से अनुपस्थित मान कर इसे पढ़ें और केवल काफिये के उपयोग को देखें ।

श्री श्री 103 भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के 

bullet

मतला
ख़ता करो न करो तय मगर सज़ाएँ हैं
ये कूए यार की उल्‍टी परम्‍पराएँ हैं
1
ये ख्‍़वाब ख्‍़वाब फि़ज़ा दिलनशीं नज़ारे ये
जिधर भी देखिये बस धुंध की रिदाएँ हैं
2
सवाले वस्‍ल पे इन्‍कार तो किया उसने
कुछ और कह रहीं पर भाव भंगिमाएँ हैं
3
तुम अपनी ख़ैर मनाओ हमारी मत सोचो
''हमारे साथ तो मां बाप की दुआएँ हैं''
4
कथा नहीं है किसी एक ही अहिल्‍या की
कई हैं इन्‍द्र यहां, और कई शिलाएँ हैं
5
महक हवा में यकायक जो घुल गई है ये
वो आ रहे हैं हवाओं की सूचनाएँ हैं
6
हरे दुपट्टे से छनती हुईं वो दो आंखें
ख़मोशियों की चमकती हुई सदाएँ हैं
7
झटकना, तोड़ना, पैरों तले मसल देना
ये मेरे यार की कुछ दिलनशीं अदाएँ हैं
8
यहां न ढूंढिये मां को, बहन को, बेटी को
बहिश्‍त है ये, यहां सिर्फ अप्‍सराएँ हैं
9
कुल्‍हाड़ी पैर पे मारो ख़ुद अपने हाथों से
नये समय की ये ग्‍लोबल सी मूर्खताएँ हैं
10
जहां से लौट के आने की कोई राह नहीं
ये शहरे इश्‍क की पुरपेंच वो गुफ़ाएँ हैं
11
लिखा है साफ़ यहां सिर्फ जिस्‍म हैं आते 
वो जाएं और कहीं जिनकी आत्‍माएँ हैं
12
पिघल रहा है धड़कनों में जो ये लावा सा
ये भावनाएँ हैं या सिर्फ वासनाएँ हैं
13
ये शायरी, ये सुख़न, गीत और ग़ज़ल ये सब
लहू से लिक्‍खी हुई चंद याचिकाएँ हैं
14
बिगड़ रहे हैं जो बच्‍चे तो घर में झांको ज़रा
वहीं से मिलतीं इन्‍हें सारी प्रेरणाएँ हैं
15
सुफ़ेद खादी में बैठे हैं वो सिंहासन पर
गुनाहगार सभी उनके दाएँ बाएँ हैं
16
ये पत्‍थरों पे शहीदों के नाम जो हैं लिखे
हमारे दौर के वेदों की ये ऋचाएँ हैं
17
मैं जिस्‍म हूं मुझे फितरत मिली है बादल की
बरस ही जाउंगा प्‍यासी जहां ख़लाएँ हैं
18
वो आ गए कभी छत पर कभी नहीं आए
कभी बहार का मौसम, कभी खिज़ाएँ हैं
19
बस एक बार इन्‍हें छू लो अपने पैरों से
लहू से दिल के बनाई ये अल्‍पनाएँ हैं
20
मुहब्‍बतों के शजर तो तमाम सूख गये
घृणा की शेष मगर विष भरी लताएँ हैं
21
उमर जवानी की जिद्दी बड़ी ये होती है
उधर ही जाती है जिस ओर वर्जनाएँ हैं
22
हैं बिखरे गेसुए जाना हमारे शानों पर
ये ख्‍़वाब है, के भरम है, के कल्‍पनाएँ हैं
23
ये बेकली, ये तड़पना, ये जागना, रोना
वो कह रहे हैं ये सब आपकी जफ़ाएँ हैं
24
नज़र किसी की जो फिसले तो क्‍यों नहीं फिसले
है चांदनी का बदन, रेशमी कबाएँ हैं
25
सहर है दूर अभी और चराग़ थकने लगे
उठो के मांग रहीं ख़ून वर्तिकाएँ हैं
26
जो साधता है जगत को उसी को साध लिया
ये गोपिकाएँ नहीं ये तो साधिकाएँ हैं
27
है पास कुछ भी नहीं अब सिवाए यादों के
अंधेरी राह में ये ही प्रदीपिकाएँ हैं
28
ज़रा सुरूर में आ जाएं पहले मंत्री जी
फिर उसके बाद सुनेंगे जो इल्तिजाएँ हैं
29
यहां न चांद है कोई, न चांदनी कोई
यहां युगों से मुसल्‍सल अमा निशाएँ हैं
30
किया न वादा कोई आज तक कभी पूरा
तुम्‍हारे वादे तो सरकारी घोषणाएँ हैं
31
सफ़र शुरू भी हुआ और सफ़र ख़तम भी हुआ
सभी की एक ही जैसी तो पटकथाएँ हैं
32
तिरंगा हाथ में लेकर के गाओ जन गण मन
हमारे वास्‍ते इतनी ही भूमिकाएँ हैं
33
बरस रहा है आसमान खुल के धरती पर
प्रणय के रंग में डूबी हुई दिशाएँ हैं
34
दिखा रहे हैं ये टीवी पे आज के चैनल
कि नारियां सभी भारत की, मंथराएँ हैं
35
ये चिलमनें ये नक़ाब आग लगा दो सबमें
हमें सताने की सारी ये योजनाएँ हैं
36
न हीर है, न है लैला, न कोई है शीरीं
न जाने खोईं कहां सारी प्रेमिकाएँ हैं
37
गली है हुस्‍न की ऐ दिल संभल के चलना यहां
क़दम क़दम पे यहां टूटतीं बलाएँ हैं
38
प्रतीक बेटियां होतीं हैं ख़ुशनसीबी का
जो देवताओं ने सुन लीं वो प्रार्थनाएँ हैं
39
वही धनक में, घटा, फूल, चांद, तारों में
उसी के नूर की फैली हुईं शुआएँ हैं
40
तबीयत उनकी है नासाज़ ख़ुदा ख़ैर करे
उन्‍हीं के पास तो हर मर्ज की दवाएँ हैं
41
मिज़ाज पुर्सी को आए हैं ख़ूब सज धज कर
लगे है बख्‍़श दीं पिछली सभी ख़ताएँ हैं
42
निगाहे नाज़, तबस्‍सुम, हया, अदा, शोख़ी
है एक दिल ये मगर कितनी शासिकाएँ हैं
43
ये इन्‍तेहा है मुहब्‍बत की, इन्‍तज़ार की हद
कलिन्‍दी तट पे खड़ीं अब भी गोपिकाएँ हैं
44
सियासी दल हैं ये जितने भी अपने भारत में 
वतन को लूट के खाने की संस्‍थाएँ हैं
45 
भुला दिया जिसे बेटों ने है उसी मां के
लबों पे बेटों के मंगल की कामनाएँ हैं
46
छुएंगीं जिसको भी उसको हरा ये कर देंगीं
भरी भरी सी ये बादल की तूलिकाएँ हैं
47
प्रणय को भोग के दुष्‍यंत भूल जाता है
प्रणय के पाप को ढोतीं शकुन्‍तलाएँ हैं
48
लगे जो भूख तो चूहों को भून कर खाओ
ये कैसा दौर है कैसी विभीषिकाएँ हैं
49
तुम्‍हारे जिस्‍म के कोने हैं छू लिये जबसे
नशे में डूबी हुईं तब से ये फिज़ाएँ हैं
50
चुनाव जीत के डाकू यहां पे हैं आते
निज़ामे मुल्‍क चलाने की ये सभाएँ हैं
51
शिखा को छू के, झुलस के शलभ ने ये जाना
यहां वफ़ाओं के बदले में यातनाएँ हैं
52
अगस्‍त आई है पन्‍द्रह, सभी के हाथ में फिर
सफ़ेद, लाल, हरी बांझ आस्‍थाएँ हैं
53
अधूरे ख्‍़वाब कई साथ में जले उनके
जलीं शहीद जवानों की जब चिताएँ हैं
54
कभी तो थम के पलट के कहीं वो देखेंगे
के उनके पीछे मेरी बेज़ुबां वफ़ाएँ हैं
55
उठा के सर को ज़रा गर्व से इन्‍हें गाओ
भगत, सुभाष, तिलक की ये वंदनाएँ हैं
56
हरेक युग में तपस्‍या को भंग होना है
हरेक युग की यहां अपनी मेनकाएँ हैं

57

तुम्‍हारी याद ये शैतान की भी है ख़ाला
इसे तो आतीं सताने की सब कलाएँ हैं
58
उतार लाये जो धरती पे स्‍वर्ग से गंगा
कहां वो तप है, कहां अब वो साधनाएँ हैं
59
वही अंगूठा, वही द्रोण, एकलव्‍य वही
न जाने कब से यही चल रहीं प्रथाएँ हैं
60
अरे ! सुनो तो ज़रा ! एक पल ठहर जाओ
ग़रीब दिल की ये मासूम याचनाएँ हैं
61
मचल गया जो कहीं दिल तो फिर न संभलेगा
फिज़ा की शह से बग़ावत पे भावनाएँ हैं
62
न जाने धूप को बंदी किया गया है कहां
न जाने क़ैद कहां सारी पूर्णिमाएँ हैं
63
वो जिनका कृष्‍ण कभी लौट कर नहीं आया
तमाम उम्र भटकतीं वो राधिकाएँ हैं
64
मिला के ख़ून ग़रीबों का इसमें पीते हैं
ये देवलोक से उतरी हुईं सुराएँ हैं
65
उमीद इनसे बग़ावत की मत करो, इनका
है इतना सर्द लहू, जम गईं शिराएँ हैं
66
वो कैसी होती हैं बेटी के दिल से पूछो तुम
जो घर को छोड़ के जाने की वेदनाएँ हैं
67
ये कौंध कैसी हुई कोई तो बताओ ज़रा
वो घर से निकले के चमकीं ये क्षणप्रभाएँ हैं
68
उदास वो हैं तो मेहसूस हो रहा है ये
के जैसे चांद की फीकी हुईं विभाएँ हैं
69
वो झूठ है जो पहन के खड़ा है जयमाला
ये सच है जिसको मिलीं बस प्रताड़नाएँ हैं
70
चमन में कौन है आया कि जिसके स्‍वागत में
कुहुक रहीं ये मगन हो के कोकिलाएँ हैं
71
दिखा चुके हैं उन्‍हें चीर के भी दिल अपना
मगर बदल न सकीं उनकी धारणाएँ हैं
72
हरी से होने लगी स्‍याह ये धरती कैसे
हवा में, जल में घुलीं कैसी कालिमाएँ हैं
73
हमारी नस्‍ल को मारोगे गर्भ में कब तक
सवाल पूछ रहीं हमसे बालिकाएँ हैं
74
बदन की क़ैद से निकले हैं रूह बन कर हम
हमारी राहगुज़र अब निहारिकाएँ हैं
75 
अभी भी सोने की सीता महल में रहती है
अभी भी वन में भटकतीं जनकसुताएँ हैं
76
जो झूठी राह पकड़ ली तो ऐशो इशरत है
चले जो सच की राह पर तो कर्बलाएँ हैं
77
कुछ इनके बारे में भी सोचिये हुजूर के ये
हैं भेड़ बकरी नहीं, आपकी प्रजाएँ हैं
78
ख़ुदा के वास्‍ते तुम तो ठहर के सुन लो इन्‍हें
जिन्‍हें सुना न किसीने ये वो व्‍यथाएँ हैं
79
बुढ़ापा आया तो विकलांग हो गये वो ही
जो कहते थे मेरे बेटे मेरी भुजाएँ हैं
80
जनकदुलारियों वनवास उम्र भर का है
हरेक घर में यहां शोक वाटिकाएँ हैं
81
ये मुल्‍क वो जहां नायक हैं चंद्रशेखर से
जहां पे झांसी की रानी सी नायिकाएँ हैं
82 
कहें तो कैसे नगरपालिकाएँ इनको हम
है सच तो ये के ये सब नर्क पालिकाएँ हैं
83
जिन्‍होंने खून है चूसा बहुत ग़रीबों का
उन्‍हीं के गालों पे सूरज की लालिमाएँ हैं
84
वली अहद ही संभालेगा देश की गद्दी
जम्‍हूरियत में भी वो ही विडम्‍बनाएँ हैं
85
अंधेरी शब में उजाला कहां से फैला ये
ये किस हसीन के चेहरे की चन्द्रिकाएँ हैं
86
गुरू बना के सबक हौसलों का लो इनसे
हवा से लड़ रहे दीपों की ये शिखाएँ हैं
87
कहीं न उम्र से लम्‍बी ये रात हो जाये
चले भी आओ के अब बुझ रहीं शमाएँ हैं
88
जो तुम कहो तो चलें, तुम कहो तो रुक जाएं
ये धड़कनें तो तुम्‍हारी ही सेविकाएँ हैं
89
मिलन की रात में बरसात जैसा आलम है
कहीं चमक तो कहीं घोर गर्जनाएँ हैं
90
न जाने कितने ही सिद्धार्थ घर को छोड़ गये
न जाने कितनी ही विरहन यशोधराएँ हैं
91
बदन में मुल्‍क के नासूर बन के फैल रहीं
धरम की, प्रान्‍त की, भाषा की भिन्‍नताएँ हैं
92
डरो ज़रा भी न इनसे, हो तुम तो अपराधी
नहीं तुम्‍हारे लिये दंड संहिताएँ हैं
93
यक़ीं है ख़ुद से भी ज्‍यादा शनी पे मंगल पर 
ये उंगलियों में तभी इतनी मुद्रिकाएँ हैं
94
ख़तम हुई है कहां अब भी जंगे आज़ादी
अभी भी क़ैद में लोगों की चेतनाएँ हैं
95
इन्‍हें दिखाए न डर कोई राहू केतू का
ये लोग फाड़ चुके जन्‍म पत्रिकाएँ हैं
96
है प्रेम के ही लिये जिन्‍दगी बहुत छोटी
निकाल फैंकिये सब दिल में जो घृणाएँ हैं
97
कहा है नज्‍़म किसी ने, किसी ने गीत कहा
है बात एक ही, कविता की सब विधाएँ हैं
98
उतर भी आइये धरती पे आस्‍मां से अब
धरा पे पाप की हर सिम्‍त इन्‍तेहाएँ हैं
99
बसी है यादों में अब तक जो सांवली लड़की
उसी के नाम मेरी सारी सर्जनाएँ हैं 
100
न गीत है, न है कविता, ग़ज़ल, न छंद कोई
ये वीणा पाणी के चरणों की अर्चनाएँ हैं

101
प्रचार मिलता है सीता को सारे ग्रंथों में
ख़मोश रह के विरह सहती उर्मिलाएँ हैं
102
है जानती ये नई नस्‍ल प्‍यार को बेहतर
न इनमें है कोई चंदर न ही सुधाएँ हैं
103
यकीन जानिये है राज अब भी आपका ही
ये आपकी ही तो कुर्सी पे पादुकाएँ हैं
104
करेंगे हम भी मुहब्‍बत, लगाएंगे दिल भी
बताओ हमको भी क्‍या उसकी अर्हताएँ हैं
105
वो जिन की छांव से बनते थे रंक भी राजा
न जाने उड़ गईं किस देश वो हुमाएँ हैं


गिरह का शेर
ये ज़ुल्‍फ़े जाना के हैं पेंचो ख़म हसीं या फिर
''फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएँ हैं''
 
मकता
कहे हैं तुमने, रहो मत 'सुबीर' ग़फ़लत में
ग़ज़ल के शे'र तो भगवान की कृपाएँ हैं
 

(105 शेर + मतला + मकता  + गिरह का शेर = 108 इस प्रकार भभ्‍भड़ कवि होते हैं श्री श्री 108 )

और इस प्रकार आज हम करते हैं अपने वर्षा मंगल तरही मुशायरे का औपचारिक समापन । और जल्‍द ही अगले दीपावली के मुशायरे के साथ मिलते हैं ( इन्‍शा अल्‍लाह ) ।

28 टिप्‍पणियां:

  1. अरे बाप रे , नाम के अनुरूप ही पुरे १०० शेर जमा.. जमा .....हुए पुरे १०३.......अभी एक नज़र डाली है, जरा इत्मिनान से पढने होंगे ये १०३ शेर बस कमाल है, ये भभ्भड़ कवी तो पुरे छुपे रुस्तम निकले.......
    regards

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  2. ये शेर हैं इतने भारी रामा
    पढ पढ इनको हारी रामा

    भौंचक जी को दूँ बधाईयाँ
    हूँ उन पर बलिहारी रामा
    सुबह से बस इसे ही पढने मे लगी हुयी हूँ। कमाल कर दी इतने शेर एक बार मे? तौबाअब 103 मे ये तय करना भी मुश्किल हो रहा है कि कौन से सब से अच्छी हैं। आज सुस्ती से कम्प्यूतर पर बैठी थी मगर इसे पढ कर सारी सुस्ती भाग गयी। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। ये मुशायरा लाजवाब रहा। सब को बहुत बहुत बधाईयाँ। मुझे पता नहीं ये भौंचक्के जी कौन हैं मगर लगता है ये श्री श्री पंकज सुबीर जी ही हैं। बधाई।

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  3. सौ सुनार की एक सौ तीन लुहार (भौंचक्के जी)की...
    क्या कस कस के हथोडे चलाये हैं दिमाग का दही कर दिया...गज़ब...एक सौ तीन हैं एक दो तीन नहीं के पढ़ा और कमेन्ट कर के चल दिए...समय लगेगा...अभी तो सिर्फ हाजरी दर्ज करवाने आयें हैं कमेन्ट करने दिमाग का सी.टी. स्कैन करवा कर आते हैं...

    नीरज

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  4. 108 में से गये 103 हासिल बचे 5, वो पॉंच कहॉं हैं श्री श्री 108। अब आप एक शेर इस पर भी कहें कि 108 का राज़ क्‍या है।

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  5. शेरों की century. और सब शेर इतने अच्छे भी. लाजवाब! श्री श्री १०३ भकभौं जी को दंडवत प्रणाम.
    :)

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  6. प्रणाम है, भभ्भड़ कवि जी को वास्तव में गज़ब की ग़ज़ल प्रस्तुत किये हैं.. आपके पास शब्दों के भण्डार हैं,जितनी भी तारीफ की जाए कम हैं.. प्रणाम हो कवि जी ...

    सुबीर जी आपको भी बहुत बहुत बधाई..

    साथ ही साथ हिंदी दिवस की ढेर सारी शुभकामनायें...

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  7. बाप रे ! हद है ये तो ……………आराम से पढने पडेंगे अभी तो जितने पढे हैं वो ही गज़ब के हैं………………

    कुछ दिल से निकले कुछ दिमाग से
    ये शेर हैं या टूटे दिल की सदायें हैं

    हम तो मर मिटे उन ख्यालों पर
    जो जा जा के लौट आये हैं

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  8. श्री श्री 103 भ.क.भौं जी इस प्रकार गरज के बरसेंगे की कुछ कहना मुश्किल है...

    अरे अभी तो 39 शेर तक ही पहुंचे हैं. अच्छा है कल की लम्बी रेल यात्रा में मैं, भौचक्के जी और ये बेमिसाल मुशायरा साथ साथ चंलेंगे.

    आचार्य जी, एक बार फिर से कहता हूँ - तरही जिंदाबाद!!

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  9. गज़ब है, कमाल है! और मक्ता तो बस क्या कहना! आप धन्य है ’भ्भड जी’!
    "सुबीर" जी को शत शत नमन सुन्दर प्रस्तुति, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन के लिये।

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  10. ग़ज़ब ग़ज़ब ग़ज़ब .... कमाल नही धमाल .... आज तो गुरुदेव सच में धमाल है .... शायद इसलिए कहते हैं गुरु बिन गत नही ... इस पूरे के पूरे दस्तावेज़ में हम जैसे नोसिखियों के लिए तो ख़ज़ाना गढ़ा है .... कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाना होगा पर पढ़ पढ़ कर जो आनंद आ रहा है उसको बयान करना आसान नही ..... अभी तो कई कई बार आना पड़ेगा .....

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  11. KAVI BHABHBHAD JEE NE 1O3 SHER
    KAH KAR KMAAL KAR DIYAA HAI.SHATAK
    JAMAANE PAR UNKO BADHAAEE .
    EK SAU SE ZIADAA ASHAAR KAHNE WALE
    DO - TEEN HEE KAVI HAIN . UNKE
    NAAM HAIN -- PREM RANJAN " ANIMESH"
    AUR DR. GAUTAM SACHDEV. INKE NAAM
    110 SE ZIADA ASHAAR DARZ HAIN.

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  12. आंहाँ ........" ये सांवली लडकी " की एक अलग से पोस्ट होनी चाहीये ...
    " वो कौन थी ? " हम्म ? [ नंबर - ९९ ]
    फिर पढ़ा ,
    " वीणा पाणी के चरणों की अर्चनाएं हैं "
    तब कहीं संतोष हुआ ! :)
    बेहतरीन ...मनभावन ..
    बिना प्रयास जो बहे->
    वही काव्य, ग़ज़ल,
    सरिता ,रस माधुरी धार
    अमृत वाहिनी पहुंचे कँवल चरण तले
    जंह ,ठाड़े कृष्ण मुरार !
    स - स्नेह ,
    - लावण्यादी

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  13. नीरज गोस्वामी जी की टिप्पणी मेरी भी मान ली जाये .पहले ठीक से पढ़ फिर आते हैं .वैसे झाँकने से मामला दुरुस्त लग रहा है .

    या अल्लाह !

    १०३ !

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  14. धन्य भये...
    सन्न भये...

    गिर गये
    फिर गये...

    आप आप हैं...
    मंत्रों का जाप है...


    सुना था वो बाप हैं..
    आप बापों के बाप हैं..

    :)




    जबरदस्त!!!

    सन्नाट

    सटीक!!





    हिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!

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  15. "प्रतिभा का ज्वाला मुखी" जी हाँ ये ही शब्द पंकज जी के लिए मेरे ज़ेहन में बार बार आ रहा है...ज्वालामुखी देखें हैं न आप...कैसे लावा फव्वारे की शक्ल में थोड़े थोड़े अंतराल के बाद फूट पड़ता है...ठीक वैसे ही उनकी प्रतिभा का ज्वाला मुखी जैसे फूट पड़ा है इस ग़ज़ल के दीवान में...एक के बाद एक शेर लगातार...और कोई शेर किसी से कम नहीं...जिंदगी के सारे रंग समेटे हुए...घूसर और चटख...कमाल है...
    इतने सारे काफिये और सब के सब सार्थक रूप में प्रयोग किये गए हैं...ये एक विलक्षण घटना है...कोई कैसे इतना कुछ सोच सकता है...अद्भुत...

    कमाल की बात है के किसी एक शेर को इस महान ग़ज़ल से चुन कर अलग से कोट नहीं किया जा सकता...एक शेर उठाता हूँ तो बाकि के सारे शेर भी उस के साथ उठ जाते हैं जैसे हार में पिरोये मोती हों, आप हार में से किसी एक मोती को अलग से नहीं उठा सकते.

    मैं तो सच में हैरान हूँ...कोई कैसे इतना प्रतिभावान हो सकता है...पंकज जी की प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक हूँ...बस. कृतग्य हूँ इश्वर के प्रति जिसने हमें उनके सानिध्य में आने का मौका दिया.

    नीरज

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  16. नीरज गोस्वामी जी की टिप्पणी से मैं २००% सहमत हूँ.. १०० शेर कहना और वो भी एक से बढ़ कर एक. मेरे जैसा तो इस गज़ल पर टिप्पणी लिखने के लायक भी नहीं है. गुरूजी को शत शत प्रणाम.

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  17. जय हो.........श्री श्री 103 भ.क.भौं जी की,
    शतक जड़ा है, धुआंधार बल्लेबाजी..............वाह क्या कहने
    पढ़ते जाओ और शेर ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे.....
    जितना पढो उतना मज़ा, हर शेर बब्बर शेर है, एक बब्बर शेर उठा रहा हूँ......आँखें बंद करके, ताकि और नाराज़ ना हों कि हम क्यों नहीं,

    "चमन में कौन है आया कि जिसके स्‍वागत में
    कुहुक रहीं ये मगन हो के कोकिलाएँ हैं"
    श्री श्री १०३ जी का ये शेर उन्ही को समर्पित.........
    तरही का समापन इससे खूबसूरत क्या हो सकता था.........

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  18. गुरु जी इस अदभुत और नायब ग़ज़ल में हर रंग भरा है| बहुत कुछ सिखा गई है यह ग़ज़ल|
    शत शत नमन आपको|

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  19. Abhi mauka mila to chaar ashaar aur padh liye...

    ye kucch aisa hi hai jab ham bachpan me Gazar ke halwe se bhari katori ko pure ghar me ghum ghum kar der tak khaate rahte the.

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  20. Idhar ham safar me hain aur ye lambi jordaar shaandar mushayra bhi apne poore ufaan par hain.

    JAI HO !!

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  21. भाई,
    आप के शे'रों पर तो लिखने की हिम्मत नहीं थी, सोचा की आप से फ़ोन पर बात कर लूं ,
    फ़ोन किया तो आप कवि सम्मलेन में थे.
    मेरे भाव, शब्द और संवेदनाएं तो सब साथ छोड़ गईं, कहने लगीं इतने बढ़िया पर क्या लिखेंगी सही कहा उन्होंने -- अति उत्तम ..
    कोहेनूर हीरा एक ही है..
    आप जैसा प्रतिभावान रचनाकार युगों में एक होता है.
    सुधा ओम ढींगरा

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  22. ये नहीं कहूंगी कि अवाक हूँ क्योंकि भाकभौं १०३ शेरों के साथ उतरेंगे सभा में ये तो पता था, पर ये ज़रूर कि हृदय अति प्रसन्न हुआ जा रहा है इनको पढ़ के. बहुत ही मुश्किल काम दे दिया आपने हमें सुबीर भैया... इतने रत्नों की चकाचौंध...फ़िर ये कि कोहीनूर ढूंढिए.

    ये ख़्वाब ख़्वाब ...
    लिखा है साफ़...
    सहर है दूर अभी और ....
    ग्लोबल सी मूर्खताएं...
    बिगड़ रहे हैं जो बच्चे...
    मैं जिस्म हूँ...
    उठा के सर को ...
    तुम्हारी याद ये.... :)
    ना जाने धूप ...
    अभी भी सोने की सीता ...
    बुढापा आया तो...
    ना जाने कितने ही सिद्धार्थ ...

    "शोक वाटिकाएं" का प्रयोग बहुत बहुत अच्छा लगा.
    ये मिसरा "सफ़र हुआ भी शुरू..." बहुत सुन्दर!

    और ये जिसे अधूरा लिखा ही नहीं जा रहा:
    वो जिनका कृष्ण कभी लौट कर नहीं आया
    तमाम उम्र भटकतीं वो राधिकाएं हैं -----अति सुन्दर!

    हरी से होने लगी स्याह ये धरती कैसे
    हवा में, जल में घुली कैसी कालिमाएं हैं --- सार्थक, सशक्त !

    ख़तम हुई है कहाँ अब भी जंगे आज़ादी
    अभी भी कैद में लोगों की चेतनाएं हैं --- बहुत खूबसूरत , बहुत सही!

    बसी है यादों में अब तक जो सांवली लड़की
    उसी के नाम मेरी सारी सर्जनाएं हैं --- उफ्फफ्फ्फ़!
    गिरह के शेर को कहने का अंदाज़ बहुत ही बढ़िया...इसे कहते है महारत!
    सुबीर भैया इतने सारे सुन्दरतम शेर एक साथ प्रेषित करके आपने रचनाकार पे और पाठकों पे, दोनों पे बड़ा अन्याय किया है ...सीरीयसली :) मुझे तो छुट्टी लेनी पड़ी दफ़्तर से आपकी ये ग़ज़ल पढ़ने के लिए :) ...सादर सस्नेह...शार्दुला दी

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  23. बाप रेssss...इतने सारे काफ़िये थे इस ग़ज़ल के लिये??? उफ़्फ़्फ़्फ़...

    श्री श्री १०३ भभ्भड़ जी की जय हो। पढ़ते रहेंगे इस ग़ज़ल को आ-आकर।

    वो बुलेट वाली तस्वीर मेरी फ़ेवरिट रही है।

    और हाँ इस साँवली लड़की का जिक्र कई बार आ चुका है पहले भी भौंचके जी की रचनाओं में...चाहे सलोने से बादल के रूप में...कुछेक कहानियों में...और अब यहाँ भी।

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  24. गुरु जी प्रणाम,

    इलाहाबाद में भी हिन्दी पखवाडा उसी शानो शौकत (?) से मनाया जा रहा है जैसे देश के सभी हिस्सों में मनाया जा रहा होगा (???)

    भाभ्भड जी की गजल में १०३ शेर होंगें यह तो बहत पहले से पता था, मुशायरा शुरू होने पर जब भ्भ्भड जी की ओर से सूचना दी गई थी की उनके पार ५५ से अधिक काफिये हो चुके हैं तो ही मैंने शंका व्यक्त की थी कहीं ऐसा न हो हर काफिये पर एक शेर लिख दिया जाय :)

    मगर ५५ को १०३ करना और ऐसे ऐसे हिंदी काफिये खोजना जिनका प्रयोग करने के ख्याल से अच्छे अच्छों को पसीना आ जाए, बाप रे बाप

    पहली बार ऐसा हुआ की किसी गज़ल को पढ़ने के लिए प्रिंट आउट लेना पड़ा

    कई कई बार पढ़ कर भी जब फिर से पढ़ा तो उतना ही आश्चर्य हुआ जितना पहली बार हुआ था

    अभी कमेन्ट लिखते समय भी प्रिंट आउट हाथ में लेना पढ़ रहा है

    काफिया प्रयोग की अद्भुत मिसाल है यह गज़ल
    कोकिलाएं, नीहारिकाएँ, जनाकसुताएं, वर्तिकाएँ, प्रदीपिकाएं आदि काफिये ने चौका ही दिया की अरे ये भी हो सकता है,,, वाह

    कुछ शेर को छोड़ कर बाकी सब बहुत पसंद आये, क्योकि जो शेर बहुत पसंद की श्रेणी में नहीं रख सका हूँ वो पसंद या नपसंद से बहुत ऊपर के शेर हैं

    एक छोटी सी इल्तिजा है की भ्भ्भड जी की जिस फोटो का विमोचन किया गया है वो तो बहुत पहले देख चुके है कोई नई फोटो विमोचित करें|

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  25. खूबसूरत ग़ज़ल, रश्क आता है आपकी शायरी पर.

    #फलक पे झूम रही सांवली घटाओं को,
    पिह्नाके सब्ज़ परी का लिबास 'भभ्भड़जी',
    सजा-सजा के हसीं काफियों के ज़ेवर से,
    किसी सलोनी की ख़ातिर ही खींच लाए है.

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  26. आता हूँ पढता हूँ चला जाता हूँ !भभ्भड़ जी के नाम की खोज तो कर चुका था ! बहुत सारी बातें हुई थी गुरु जी से इस एतिहासिक ग़ज़ल के बारे में इसे एतिहासिक ही कहूँगा इस पुरे ब्लॉग जगत के लिए ! मगर कुछ कह नहीं पता था आज भी कुछ भी कह पाने की हालत में नहीं हूँ ! गुरु देव बहुत परेशान हैं मन बहुत बेचैन इस वजह से ! क्या कहूँ सब अच्छा हो जाये बस यही चाहता हूँ और ऊपर वाले से प्रार्थना !
    ग़ज़ल के बारे में फिर से कहने आऊंगा !

    अर्श

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  27. आचार्य जी, आशा है आप प्रसन्न होंगे.

    शिखा को छू के, झुलस के शलभ ने ये जाना... शिखा को छू के, झुलस के सुलभ ने ये जाना... जब मैंने ये शेर पढ़ा था तो आश्चर्य, ख़ुशी, डर और चेतावनी जैसा कुछ अहसास हुआ था. मैं थोड़ी देर तक ठिठक कर रह गया था. हज़ार मील दूर से कोई मुझे सावधान कर रहा है.
    क्या गज़ब इत्तेफाक था ये.... शायद इसे ही टेलीपैथी (Telepathy) कहते हैं.

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