चुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
चुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
वो चाँद बन कर आ गए , मेरे ख्यालों में.
और एक क्षणिका भी -
चाँद को देखे रोज,
लाखों चकोरी ऑंखें,
इसीलिए कुदरत ने लगाया,
है गोरे मुखड़े पे चाँद के
एक नज़र का टीका -
काला
संचालक : और अब आ रहे हैं वरिष्ठ कवि श्री अनूप भार्गव जी जोरदार तालियों से स्वागत करें
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परिधि के उस पार देखो
इक नया विस्तार देखो ।
तूलिकायें हाथ में हैं
चित्र का आकार देखो ।
रूढियां, सीमा नहीं हैं
इक नया संसार देखो
यूं न थक के हार मानो
जिन्दगी उपहार देखो ।
उंगलियाँ जब भी उठाओ
स्वयं का व्यवहार देखो
मंजिलें जब खोखली हों
तुम नया आधार देखो ।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो ।
श्रोता की टिप्पणी
संचालक : कविताएं देते रहिये हम दूसरा दौर भी चलाऐंगें अत: जो दे चुके हैं वे दूसरे दौर के लिये भी कविताएं दें ।
अपने को कवि या कवयित्री कहने में संकोच होता है, शायद उस लक्ष्य तक पहुँचने मे समय है फिर भी कलम और मेरा नाता बहुत पुराना है ---
जवाब देंहटाएंएक अघोषित भाव –
अग्नि का एक कण चाहिए , ज्ञान की ज्योति जलाने के लिए
स्वाति नक्षत्र की एक बूँद चाहिए, प्रेम की प्यास मिटाने के लिए
हिमालय का इक खण्ड चाहिए, घृणा की आग बुझाने के लिए
ममता भरा हाथ चाहिए , करुणा का भाव जगाने के लिए
बड़ी बड़ी बातें नही चाहिए , जीवन उलझाने के लिए
छोटी-छोटी बातें ही चाहिए , प्रेम भाव लाने के लिए !
अरे गुरू जी बिना किसी तैयारी के ही कवि सम्मेलन में बुला लिया, शिष्या का पहला पर्फार्मेंस है ये तो ध्यान दिया होता....स्मृति के आधार पर लिख रही हूँ...... चूँकि आज महारास की रात है तो, बात कृष्ण की ही करती हूँ
जवाब देंहटाएंस्वर्ण नगरिया तेरी द्वारिका, कोने-कोने सुख समृद्धि,
फिर भी कभी कभी स्मृतियाँ, गोकुल तक ले जाती है क्या?
दूध दही से पूरित तो है, रत्न जड़ित ये स्वर्ण कटोरे,
भाँति भाँति के व्यंजन ले कर दास खड़े दोनो कर जोड़े,
लेकिन वो माटी की हाँड़ी, वो मईया का दही बिलोना,
फिर से माखन आज चुराऊँ ये इच्छा हो जाती है क्या?
बाहों में है सत्यभाम और सुखद प्रणय है रुक्मिणि के संग,
एक नही त्रय शतक नारियाँ, स्वर्ग अप्सरा से जिनके रंग।
लेकिन वो निश्चल सी ग्वालिन, प्रथम प्रेम की वो अनुभुति,
राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?
गुरू जी एक और कविता याद आ गई, जाते जाते। असल में हम खालिस रूमानी कविता मुद्दतों में एक या दो बार ही लिख पाये होगे उन दो-तीन कविताओ में से एक कविता आपके लिये लाई हूँ, जिसे मैने १९९४ लिखा था,उस उम्र में जब किशोरावास्था जाने की तैयारी कर रही थी। कविता इस तरह है-
जवाब देंहटाएंदेख रहे हैं ऐसा सपना जो सच होगा कभी नही,
हम जाने को कहते हैं और वो कहते हैं अभी नही!
ढूढ़ रही हैं उनकी आँखें भरी भीड़ में मुझको ही,
और हमरी आँखें देखें निर्निमेष सी उनको ही,
और अचानक ही हम दोनो एक दूजे से मिलते है,
आँखें सब कुछ कह जाती है , मगर ज़बानें खुली नही।
दूर कहीं सूरज ढलता हो, छत पर हम दो, बस हम दो,
एक टक वो देखें हो मुझको और मेरी नज़रें उनको,
दिल की धड़कन हम दोनो की तेज़ ही होती जाती है,
कहे हृदय अब नयन झुका लो, मगर निगाहें झुकी नही।
दोनों ही बहुत बेहतरीन. हम पहली पोस्ट पर अपनी पहली कविता रख आये हैं. चलने दिजिये इस कवि सम्मेलन को जोरों में.
जवाब देंहटाएंवाह वाह, सभी रचनाएँ सुंदर हैं।
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