मंगलवार, 29 मार्च 2016

होली का रंग वैसे तो पंचमी तक चलता है किन्‍तु हमारे यहां शीतला सप्‍तमी तक होली का त्‍योहार चलता है। आइये मनाते हैं आज बासी होली।

त्‍योहारों को लेकर भारत में कुछ बातें बहुत अच्‍छी हैं। जैसे पहली बात तो यह कि कोई भी त्‍योहार एक दिन का नहीं होता है। हर त्‍योहार मानो एक पूरा सप्‍ताह या उससे भी अधिक समय लेकर आता है। जैसे होली को ही ले लीजिये। यह पूरे फागुन माह का त्‍योहार तो है ही लेकिन फागुन के बाद भी सप्‍तमी तक चलता है। शीतला सप्‍तमी के दिन महिलाएं जाकर जिस जगह पर होलिका का दहन होता है उस स्‍थान पर धधक रही अग्नि पर पानी डाल कर उसे शांत करती हैं। आप कहेंगे कि भला सात दिन तक भी कोई आग दहकेगी। तो मित्रों मैंने अपने बचपन में स्‍वयं देखा है कि सात आठ दिन तक होली में आग बनी रहती थी। अंदर ही अंदर राख में दबी हुई। शीतला सप्‍तमी को महिलाएं कलश में पानी ले जाती थीं और उसे ठंडा कर देती थीं। कहा जाता है कि शीतला सप्‍तमी से ही गर्मी का प्रारंभ होता है। इसीलिये इस दिन ठंडा खाया जाता है। ठंडा का मतलब यह कि गर्मियां आ गईं हैं अब अपने खाने पीने की आदतें बदल ली जाएं। भारत के सारे त्‍योहार मौसम पर आधारित हैं। कोई भी त्‍योहार मौसम से अछूता नहीं है। और एक अच्‍छी बात यह है कि हर चार महीने पर एक त्‍योहार ऐसा ज़रूर है जिससे बेटियां लौट कर मायके आ सकें। रक्षा बंधन है फिर दीपावली के बाद की भाई दूज, फिर संक्रांति और होली के बाद की भाई दूज। होली के बाद की भाई दूज शायद देश के कई हिस्‍सों में नहीं होती हो लेकिन हमारे यहां होती है। और एक बात मजे की यह है कि सारे त्‍योहारों के बाद में एक बासी त्‍योहार भी होता है। बासी होली, बासी दीपावली और बासी ईद भी। 
 हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे
आप सोच रहे होंगे कि इतनी लम्‍बी भूमिका क्‍यों। असल में यह भूमिका बासी होली की भूमिका है। हम आज बासी होली मनाने जा रहे हैं। जैसा कि मैंने कहा था कि द्विजेन्‍द्र जी की एक और ग़ज़ल है जो आज आ रही है। होली के स्‍थाई ग़ज़लकार श्री तिलकराज कपूर के जोड़ीदार श्री नीरज गोस्‍वामी ने उनकी अनुपस्थिति को बहुत ज्‍यादा अन्‍यथा लिया सो अपने जोड़ीदार को पुन: प्रसन्‍न करने हेतु श्री तिलकराज जी ने होली की छुट्टी में बैठ कर ग़ज़ल लिखी और भेजी है। श्री पवनेंद्र पवन नगरोटा बगवाँ ज़िला कांगड़ा के रहने वाले हैं तथा द्विजेंद्र जी के मित्र हैं। तरही में पहली बार आ रहे हैं। तो आज इन तीनों के साथ हम मना रहे हैं बासी या बूढ़ी होली। 
 श्री तिलक राज कपूर
वक्त के सितम से हैं, बन्द कोठरी, जैसे
कल जहॉं ने पूजा था, हमको रौशनी, जैसे।
चाहतों के मेले में, मृग बने भटकते हैं
खोजते हैं कस्तूरी, नाभि में छुपी जैसे।
रेत के घरौंदों से, ख़्वाब में बने रिश्ते
सुब्ह इक लहर जैसी, साथ ले गयी जैसे।
आपका चले आना, ख़्वाब है, हक़ीक़त है
क्यूँ लगे इनायत ये, आज दिल्लगी, जैसे।
हुस्न यूँ दिखा ठहरा, आपकी जवानी पर
थम गया हर इक लम्हा, थम गयी घड़ी जैसे।
वादियों में उठता है, सुब्ह  का हसीं सूरज
टेसुओं से श्रंगारित कोई रूपसी जैसे।
धूप को विदा कहते, सामने दिखा मंज़र
आ गयी है जीवन में, सांझ सुरमई, जैसे।
क्या हसीन मंज़र है, सामने निगाहों के
छा गया हर इक शै पर रंग फागुनी जैसे।
झुरमुटों से बॉंसों के, फागुनी हवा गुजरी,
हौले हौले बजती हो बॉंसुरी कोई जैसे।
सबसे पहले तो मतले की बात की जाए। क्‍या तुलना है एक तरफ बंद कोठरी और दूसरी तरफ रौशनी। विरोधाभास का बहुत अच्‍छा चित्र । आपका चले आना ख्‍वाब है शेर में विश्‍वास नहीं होना तथा इससे पार की स्थिति का बखूबी चित्रण किया गया है। हुस्‍न यूँ दिखा ठहरा आपकी जवानी पर में घड़ी और लम्‍हों दोनों का एक साथ ठहर जाना बहुत ही सुंदर प्रयोग है। क्‍या हसीन मंज़र है सामने निगाहों के में हर इक शै पर फागुन का रंग कमाल का चढ़ा है। और सबसे सुंदर है गिरह का शेर क्‍या कमाल की गिरह लगाई है। बांस और बांसुरी दोनों ही एक दूसरे का प्रतीक हैं। वाह वाह वाह क्‍या कमाल की बासी ग़ज़ल है। अति सुंदर।
  द्विजेन्द्र द्विज
नज़्म (प्यार में ...)
गूँजती है कानों में एक रागिनी जैसे
'हौले-हौले बजती है बाँसुरी कोई जैसे’
दिल  में यूँ उमड़ते हैं  सात सुर उमंगों के
तन-बदन भिगोती है उनकी नग़मगी जैसे
हर तरफ़ थिरकती हैं, तितलियाँ  ख़यालों की
ज़ेह्नो-दिल महकते हैं बनके चम्पई जैसे
आँखें पढ़ ही लेती हैं अर्ज़ियाँ ख़मोशी की
बिन कहे पहुँचती है   बात अनकही जैसे
ज़ेह्न के जज़ीरों से यूँ ख़याल  आते हैं 
खिड़कियों से कमरों में धूप-चाँदनी जैसे
गुफ़्तगू चराग़ों की हौसला बढ़ाती है
लगता है अमावस की शब हो चांदनी जैसे
उम्र बीत जाती है जैसे कोई सपना हो,
यूँ ही बातों-बातों में साँझ ढल गई जैसे.
द्विज जी ने होली की ग़ज़ल भी खूब कही थी और यह ग़ज़ल भरी प्रेम की चाशनी में पगी हुई है। मतले में ही सुंदर गिरह बांध कर ग़ज़ल को उठाया है। और उसके बाद जो शेर एक दम खींच लेता है वह है खयालों की तितलियों का थिरकना और उनके थिरकने से ज़ेह्नो दिल का चम्‍पई हो जाना। वाह वाह प्रेम को कितने सुंदर चित्रों से सजाया गया है। और उसके ठीक बाद ही खामोशी की अर्जियों का बिन कहे पहुंच जाना। प्रेम को कितने नाज़ुक शब्‍दों से अभिव्‍यक्‍त किया है। उम्र बीत जाती है जैसे कोई सपना हो और उसकी तुल्‍ना सांझ के ढल जाने के साथ करके ग़ज़ल को अंत में उदासी का टच दे दिया है। बहुत खूब वाह वाह वाह।
 पवनेंद्र पवन
श्री पवनेंद्र पवन नगरोटा बगवाँ ज़िला कांगड़ा के रहने वाले हैं तथा द्विजेंद्र जी के मित्र हैं। 
राम बुद्ध नानक के बोल भी अली जैसे
सुर गिटार वीणा के ज्यूँ हैं बाँसुरी जैसे
फाख्ता का चूज़ा जो बाज से उड़ा ऊँचा
मच गयी इसी पे अम्बर में खलबली जैसे
आत्मा मिलेगी परमात्मा से ही आखिर
इक खुली गली से मिलती है तंग गली जैसे
इक सुखद तपिश का एहसास दे छुअन तेरी
सर्दियों की लगती है धुप गुनगुनी जैसे
वक्त ने भगाया है साथ यूं हमें अपने
दौड़ता है गाड़ी के साथ इक कुली जैसे
पाप दिल में हो तो वरदान शाप बनता है
जो न जल थी सकती वो होलिका जली जैसे
पवन जी ने मतले में ही सौहार्द का जो रंग घोला है उसके सामने सारे रंग फीके हैं। राम बुद्ध नानक और अली सब एक ही बात कह कर गए हैं। बहुत सुंदर मतला। फाख्‍ता के चूजे के बाज से ऊंचा उड़ने पर अम्‍बर पर मची खलबली के कितने व्‍यापक अर्थ हैं। यही तो होती है कवि की दृष्टि जो अंदर तक उतरती है। खुली गली और बंद गली का प्रयोग भी अंदर तक झकझोर देता है। कमाल का बिम्‍ब। ग़ज़ब।  प्रेम का एक और सुंदर चित्र छुअन की तपिश से सर्दियों की धूप के गुनगुने होने का है । बहुत ही सुंदर तरीके से उस एहसास को शब्‍द दिये हैं। और अंत में होलिका के वरदान का श्राप हो जाना भी खूब है। बहुत सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।
तो मित्रों यह है बासी होली। यदि और भी किसी को बासी होली खेलना हो तो आ जाए क्‍योंकि अभी भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के अपनी ग़ज़ल लेकर आने वाले हैं। तो आज की ग़ज़लों पर दाद दीजिये और इंतजा़र कीजिये भभ्‍भड़ कवि का। 

मंगलवार, 22 मार्च 2016

होली है भई होली है रंगों वाली होली है सात रंग लेकर आए हैं तरही वाली होली में।

मित्रों कहा जाता है कि सात आसमान हैं, सात समंदर हैं, सात महाद्वीप हैं सात सुर हैं और सात ही रंग हैं। जी हां होली तो वैसे भी रंगों का ही त्‍योहार है तो आज होली पर हम भी सात रंग ही लेकर आए हैं। सात रचनाकारों के सात रंग। यह भी एक संयोग ही है कि यह सात रचनाकार आज होली पर सात रंग की ग़ज़लें लेकर आए हैं। आज की ग़ज़लें आपकी होली को मुकम्‍मल कर देंगी। यह काव्‍य रस की पिचकारियां हैं जो तन पर एक बूँद नहीं डालतीं लेकिन मन को पूरा का पूरा सराबोर कर देती हैं रंग में। इनमें सारे रंग हैं। इस बार की हमारी होली एक और मामले में भी विशिष्‍ट है कि इसमें सारा भारत समाया हुआ है। इस ब्‍लॉग की विशेषता यह है कि यह सबका ब्‍लॉग है। यह एक संयुक्‍त परिवार के जैसा है। जहां सब दौड़े चले आते हैं। आते हैं और त्‍योहार मना लेते हैं। इस बार भी कुछ लोगों ने अंतिम समय पर दौड़ कर गाड़ी पकड़ी है। तो आइये मनाते हैं सात रंगों की सात ग़ज़लों के साथ होली । 
 हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे
नुसरत मेहदी जी
छा रही है तन मन पर बेख़ुदी कोई जैसे 
रुत हुई है  रंगों की बावरी कोई जैसे
 फागुनी हवाओं की मदभरी ये सरगोशी
"हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे"
 क़ुर्बतों के मौसम में लम्स वो मोहब्बत का
हो गई बयां पल में अनकही कोई जैसे
 लिख रहा है फिर कोई दास्तान उल्फ़त की
फिर खुली कहीं दिल की डायरी कोई जैसे
 ख़्वाहिशों की कश्ती फिर ढूंढने चली मंज़िल
और उफ़ान पर आई फिर नदी कोई जैसे
 हाथ हाथ में डाले बे ख़बर हैं दीवाने
तोड़कर रिवाजों की हथकड़ी कोई जैसे
 आज जश्न होली का यूँ मनाएं हम नुसरत
ग़म न पास आएगा अब कभी कोई जैसे
वाह वाह वाह, क्‍या कमाल की ग़ज़ल है। होली का पूरा वातावरण निर्मित करती है यह ग़ज़ल। काफिये में नुसरत जी ने 'ई' की एक शब्‍द पीछे वाली मात्रा को पकड़ लिया है। मतला ही मानो होलीमय होकर लिखा गया है। लेकिन जो कमाल गिरह लगाने में किया गया है वह तो लाजवाब है। फागुनी हवाओं की मदभरी ये सरगोशी। कमाल कमाल। अगले ही शेर में मोहब्‍बत का लम्‍स बाकमाल आया है। स्‍तब्‍ध कर देता हुआ। दास्‍तान उल्‍फ़त की लिखने के लिये दिल की डायरी का खुल जाना भी एक अनूठा ही प्रयोग है। कश्‍ती का निकलना और नदी का उफनना वाह क्‍या बिमब है। और उस पर मकते का शेर भी एक बार फिर से होलीमय होकर ही लिखा गया है। सच में होली मनाने के लिये आवश्‍यक है कि हम बस यह सोच लें कि अब कभी कोई भी ग़म नहीं आएगा। यही जीवन की सच्‍चाई है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्‍या बात है, वाह वाह वाह।
शार्दुला नोगजा जी
आपका लगे नाता, हमसे हो कोई जैसे
कौन वरना घुलता है, दूध में दही जैसे
रंग से तेरे जालिम, अंग यूँ महकते हैं
गुनगुनाने लगती है, ओस छू कली जैसे
 होलिका की आँचों से, बचपनों में गर्मी थी
पर्व बिन हुई ठंडी, शहरी ज़िन्दगी जैसे
 गीत माँ यूँ गाती हैं, नीपते हुए आंगन
कर रही हों बच्चे की, दाई माँ लोई जैसे
 बेटियाँ हैं या कोई, रूह हैं ये खरगोशी
नर्म-नर्म बाहें हैं, गाल हैं रुई जैसे
 याद तेरे जाने की, यकबयक चली आए
रात डर के उठ जाए, लाडली सोई जैसे
 डूबते उतरते हैं, यों कमल सरोवर में
जिन्दगी के सागर में, ढूँढे मन खुशी जैसे
राधिका हैं कान्हा मन, युद्ध के नगाड़ों में
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे
 श्याम श्याम रटती हैं, बावरी हुई गलियाँ
रेणु रेणु गोकुल की, बिरहिनी सखी जैसे
दही, सोचा नहीं था कि इस काफिये का भी इतना खूबसूरती के साथ उपयोग किया जाएगा। एक बिल्‍कुल नये प्रयोग ने मतले को खूब बना दिया है। और उसके बाद के शेर में रंगों से अंगों का महकना, वाह। कविता रंगों से रंगती नहीं है, महकाती है। सचमुच मां के लिये उसका घर उसका बच्‍चा ही तो होता है और आंगन को लीपना बच्‍चे को लोई करना ही होता है उसके लिये। बेटियों को लेकर बहुत ही सुंदर शेर कहा है। गाल हैं रुई जैसे। रुई भी काफिया बिल्‍कुल अलग से निकल कर आया है। महाभारत के युद्ध में खडे़ हुए कृष्‍ण के मन में राधिका का होना और वह भी हौले हौले बजती हुई बांसुरी के समान होना, वाह वाह क्‍या कमाल का प्रयोग किया गया है, कमाल की गिरह। और उसके बाद अंतिम शेर भी उसी प्रकार से कृष्‍ण के प्रेम में बावरी गोपियों की मनोदशा का चित्रण है। वाह वाह वाह क्‍या सुंदर ग़ज़ल । खूब।

गौतम राजरिशी
छू लिया जो उसने तो सनसनी उठी जैसे
धुन गिटार की नस-नस में अभी-अभी जैसे
 पागलों सा हँस पड़ता हूँ मैं यक-ब-यक यूँ ही
करती रहती है उसकी याद  गुदगुदी जैसे
 जैसे-तैसे गुज़रा दिन, रात की न पूछो कुछ
शाम से ही आ धमकी, सुब्ह तक रही जैसे
 तुम चले गये हो तो वुसअतें सिमट आयीं
ये बदन समन्दर था अब हुआ नदी जैसे
 फुसफुसा के कुछ कहना वो किसी का कानों में
"हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे"
 सुब्ह-सुब्ह को उसका ख़्वाब इस क़दर आया
केतली से उट्ठी हो ख़ुश्बू चाय की जैसे
 डोलते कलेंडर की ऐ ! उदास तारीख़ों
रौनकें मेरे कमरे की हैं तुम से ही जैसे
 राख़ है, धुआँ है, इक स्वाद है कसैला सा
इश्क़ ये तेरा है सिगरेट अधफुकी जैसे
 धूप, चाँदनी, बारिश और ये हवा मद्धम
करते उसकी फ़ुरकत पर लेप मरहमी जैसे
गौतम हमारे इस परिवार का एक होनहार बिरवा है। गौतम के बिम्‍ब और उसके शब्‍द ग़ज़लों की शब्‍दावली को बदलने में लगे हैं। मतला ही एकदम झन्‍नाटे से गुज़रता है। चौंकाता हुआ कि अरे ! यह क्‍या हुआ। ग़ज़ब। जैसे तैसे गुज़रा दिन में रात का शाम से ही आ धमकना, यह गौतम के ही बस की बात है। ग़ज़ब का टुकड़ा है। और बदन का समन्‍दर से वापस नदी हो जाना, क्‍या उदास शेर है। दो शब्‍द गौतम के पेटेंट हैं ग़ज़लों में चाय और सिगरेट तथा इस ग़ज़ल में भी दोनों शब्‍दों का बहुत ही खूबसूरत उपयोग किया है। सिगरेट वाला शेर गौतम के बाकी सिगरेट वालों पर भारी है। लेकिन जिस शेर ने मोह लिया है वह है डोलते कलेंडर की उदास तारीखों वाला शेर। बहुत ही सुंदर तरीके से रिश्‍ता स्‍थापित किया है। खूब। गौतम को यह कमाल खूब आता है कि एक शेर में शुद्ध मिलन और दूसरे में ही विरह । वाह वाह वाह, खूबसूरत ग़ज़ल। खूब ।
 
नीरज गोस्‍वामी जी
जब उठीं वो पलकें तो, धूप सी खिली जैसे 
बह रही है आंखों से, नूर की नदी जैसे


श्याम को बुलाती है, लोकलाज तज राधा
फागुनी बयारों से, बावरी हुई जैसे


गीत वो सुनाती है, तोतली जबाँ में यूँ
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे


वस्ल में बदन महके, इस तरह तेरा जानम
मोगरे के फूलों से, डाल हो लदी जैसे


है नहीं मुकम्‍मल कुछ, शै हर इक अधूरी सी
आपके बिना सबमें, आपकी कमी जैसे


रोशनी का झरना सा, फूटता है झर झर झर
मोतियों की बारिश है, आपकी हँसी जैसे


दुश्‍मनों पे डालो तुम, रंग प्रेम के "नीरज" 
यूँ मिलो कि बरसों की, हो ये दोस्‍ती जैसे

वाह इस प्रकार की ग़ज़लें कहना नीरज जी का ही रंग है। जीवन के संदर्भों से भरी हुई ग़ज़ल। श्‍याम को बुलाना और राधा का बावरी होना यह होली का स्‍थाई भाव है और इस स्‍थाई भाव का बहुत खूबी से प्रयोग किया है शेर में। अगले शेर में गिरह को बांधने के लिये प्रेमिका के स्‍थान पर बेटी का प्रयोग किया है। यह अपने आप में एक कमाल है। नन्‍हीं सी बेटी जब तोतली जबां में गीत सुनाती है तो वह भी बांसुरी जैसा ही होता है। वाह क्‍या बात है। वस्‍ल में बदन का महकना और उसमें नीरज जी के पसंदीदा फूलों का आना बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। मोगरे की डाली पर नीरज जी का पेटेंट है। और उस पर होली के रंगों से दुश्‍मनी के मैल को साफ कर देने का भाव लिये मकते का शेर भी खूब है। नीरज जी के भी कुछ भाव हैं जो केवल और केवल उनकी ही ग़ज़लों में मिलते हैं । एक स्‍थाई भाव है सकारात्‍मकता। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल खूब, वाह वाह वाह ।
द्विजेन्द्र द्विज जी
सबसे पहले तो यह सूचना कि द्विजेन्‍द्र जी की एक और भी रचना है जो बासी होली में लगाई जाएगी।
सबसे यूँ  मुख़ातिब है एक बेरुख़ी जैसे
चुप्पियाँ    सुनाती है बेहिसी कोई जैसे
 नींद से जगाती है रोज़ हड़बड़ी जैसे
बस गई हो  सीने में एक बेकली जैसे
 रंग जब उलझते हैं मतलबों की साज़िश में
शहर ओढ़   लेता  हैं  रंग कत्थई जैसे
 वो जो एक पर्बत है वो भी टूट सकता है
उसमें भी तो रहती है कुछ न कुछ नमी जैसे
 आइने की पत्थर से दोस्ती नहीं होती
ढो रहे हों दोनों ही एक बेबसी जैसे
 ऐसे फेंक देते हैं लोग अपने ईमाँ को
साँप उतार देता है अपनी केंचुली जैसे
यह सफ़ेद अँधेरा है या सियाह उजाला है
रोशनी अब आँखों को साथ ले गई जैसे
 उसमें मेरे सपने थे, उसमें मेरा बचपन था
आज भी बुलाती है मुझको वो गली जैसे
 यह वजूद रहता है अश्कों  के समन्दर में
फिर भी ज़िन्दा रहती है कोई तिश्नगी जैसे
ख़ुद के रू-ब-रू मैंने ख़ुद को जब भी पाया है
घूरता-सा दिखता है अजनबी कोई जैसे
 यूँ भी लोग जीते हैं मर भी जो नहीं सकते
उनका साँस लेना ही 'द्विज’ हो लाज़िमी जैसे
सबसे पहले तो बात मतले की और हुस्‍ने मतला की। दोनों ही कमाल हैं। दोनों मतलों में बहुत सुंदर काफियों का भी उपयोग किया गया है। खूब। पहले ही शेर में कत्‍थई रंग को खूब बिम्‍ब के रूप लिया है। कविता की भाषा में शेर कहा है। लेकिन पर्बत के अंदर नमी और उसका टूटना, कमाल है द्विज भाई । ग़ज़ब ही कहा है यह तो। आईने की पत्‍थर से दोस्‍ती में बेबसी शब्‍द को अंत में अनूठे जोड़ से लगाया है। और उसके बाद सफेद अंधेरा और सियाह उजाले में रोशनी का आंखों को ले जाना। बहुत ही खूब । उसमें मेरा सपने थे उसमें मेरा बचपन था। ठिठका दिया इस शेर ने तो। उँगली पकड़ कर ले गया स्‍मृतियों में। वाह । एक और ग़ज़ब का प्रयोग है खुद के रू ब रू खुद के आने का। और उस पर भी अजनबी होना । वाह क्‍या प्रयोग किया है। अंतिम शेर में एक और अलग काफिया, जीवन के फलसफे को शेर। वाह वाह वाह । क्‍या सुंदर ग़ज़ल है । बहुत खूब।
  मन्सूर अली हाश्मी जी रतलामी
हौले-हौले  बजती हो, बाँसुरी कोई जैसे
तार छिड़ गये मन के, मिल गई ख़ुशी जैसे.
 रंग की फुहारें है, चुलबुले इशारे हैं
तन से पहले ही मन ने, होली खेल ली जैसे.
 दौश पर हवाओं के, ख़ुश्बूओं की आमद है
इन्तेज़ार की घड़ियां, ख़त्म हो रही जैसे.
 देश प्रेमी हो गर तुम 'जय' का सुर अलापोगे
इक नई परिभाषा अब तो बन गई जैसे.
 अब नये कन्हैया हैं, धुन भी कुछ निराली है
कैसा सुर ये निकला है, रोई बाँसुरी जैसे.
 अब तो भक्त किरपा से, जन ही बन रहे 'भगवन'
आश्वासनों की यां, बह रही नदी जैसे.
धर्म - आस्थाओं के, मूल्य घटते-बढ़ते है
'हाश्मी' थे कल तक जो, अब 'श्री-श्री'  जैसे.
मंसूर भाई व्‍यंग्‍य की ग़ज़लें कहते हैं और खूब कहते हैं। होली पर उनका इंतज़ार इसलिये सबको रहता है। रंग की फुहारें हैं, चुलबुले इशारे हैं में तन से पहले ही मन द्वारा होली खेल लिये जाने की बात बहुत खूब है। सच है होली में रंग तन पर नहीं मन पर ही डाले जाते हैं। देशप्रेमी हो गर तुम जय का सुर में बहुत ही करारा व्‍यंग्‍य कसा है मंसूर जी ने । कवि वही होता है जो इशारे में अपनी बात कह देता है। इतने सलीके के साथ कि बस अश अश हो जाए। नए 'कन्‍हैया' के रूप में पलट कर दूसरे पक्ष पर भी सटीक व्‍यंग्‍य कसा है मंसूर जी ने। यही तो साहित्‍यकार की विशेषता होती है कि वह किसी का नहीं होता और सबका होता है। भकत किरपा से जन का भगवन हो जाना हो या फिर हाशमी का श्री श्री हो जाना हो अपने समय पर बहुत ही गहरा कटाक्ष किया है दोनों शेरों में। पैना और सटीक। बहुत ही सुंदर खूब वाह वाह वाह।  
  अभिनव शुक्ल
उम्र यूँ कटी, हो धुन, अनसुनी कोई जैसे,
लिख के फिर मिटा दी हो शायरी कोई जैसे।
उनके साथ अब अपने ताल्लुकात ऐसे हैं,
दुश्मनों से रखता हो दोस्ती कोई जैसे।
उसने मुझको देखा फिर, देखती रही मुझको,
गिन रही हो फंदों को सांवरी कोई जैसे।
याद उनकी गलियों से इस तरह गुज़रती है,
हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे।
भूख से बिलख सोया, लाल, माँ निरखती है,
कोहीनूर पढ़ता हो जौहरी कोई जैसे।
इस तरह हमें सुनना, फिर मिलें, मिलें न मिलें,
गीत हो पपीहे का आखिरी कोई जैसे।
अभिनव और नुसरत जी दोनो ने ही एक प्रकार से ग़ज़ल कही है,  एक शब्‍द पीछे की ई को काफिया बना कर। बहुत ही रूमानी मतला है जिस रूमान में विरह शामिल हो उसका तो वैसे भी कहना ही क्‍या। अनसुनी धुनें हम सबके पास होती हैं। और हम सब उनके सुने जाने की प्रतीक्षा करते हैं। एक कमाल का शेर इस ग़ज़ल में है उसने मुझको देखा फिर देखती रही मुझको। इसमें बहुत ही सुंदर प्रयोग है, देखते रहने का भी और फंदों को गिनने का भी। बहुत ही सुंदर। और उसी प्रकार से गिरह का मिसरा भी बहुत ही अच्‍छे लगाया है। याद का उनकी गलियों से गुज़रना और बांसुरी बजना, बहुत ही सुंदर। मां से बड़ा जौहरी और कौन होता है भला और हर मां के लिये उसका लाल कोहीनूर ही होता है। और आखिरी का शेर वाह, मिसरा ऊला ही अंदर तक गहरे उतरता जाता है। बहुत ही डूब कर लिखा है। क्‍या कमाल की ग़ज़ल कही है, खूब वाह वाह वाह।
आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। आपके जीवन में रंग और उमंग बने रहें। होली के बाद भी बासी होली होती है सो हम मिलेंगे बासी होली में कुछ और रचनाकारों के साथ।

कल पांच शायरों ने होली का रंग जमाया तो आज चार शायर आ रहे हैं उस सिलसिले को आगे बढ़ाने।

सबसे पहले यह ज़रूरी काम
मैं अत्‍यंत कड़े शब्‍दों में Nusrat Mehdi को लेकर भोपाल के शायर मंज़र भोपाली द्वारा कही गई बात तथा अभद्र भाषा की निंदा करता हूँ। विचारधारा की टकराहट में यदि हम भाषा का संयम नहीं रख पा रहे हैं तो फिर हम साहित्‍यकार कहलाने के योग्‍य नहीं हैं। जब हम विचार शून्‍य स्थिति में आ जाते हैं तभी हम गालियों तथा अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। हमारी भाषा यह बताती है कि हमारे पास अब तर्क नहीं बचे हैं, हम अपने विचारों के पक्ष में तथा अपने सामने वाले के विचारों के प्रतिपक्ष में कुछ भी कह नहीं पा रहे हैं। चिंता का विषय तब होता है जब समाज को दिशा दिखाने वाला साहित्‍य समाज इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करने लगता है। चूँकि विचारधाराओं की टकराहट में भाषा का संयम, समाज साहित्‍यकारों से ही सीखता है इसलिये साहित्‍यकारों के लिये और भी आवश्‍यक होता है कि वे क्रांतिक समय में सचेत रहें। यह सावधानी उस समय और अधिक रखनी होती है जब आप किसी महिला को लेकर कोई टिप्‍पणी कर रहे हों। मंज़र भोपाली ने जो कुछ भी कहा वह घोर निंदनीय है। नुसरत मेहदी को लेकर जिन गंदे शब्‍दों का उपयोग भोपाल के एक सार्वजनिक साहित्यिक (?) मंच पर मंज़र भोपाली ने किया वह अक्षम्‍य है। नुसरत मेहदी हमारे समय की एक महत्‍त्‍वपूर्ण लेखिका हैं। उनकी ग़ज़लों में उनके लेखन में स्‍त्री की स्‍वतंत्रता तथा उसके प्रतिरोध मुखर होकर सामने आते हैं। ''आप शायद भूल बैठे हैं यहां मैं भी तो हूँ'' जैसी ग़ज़लों से पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देने का काम उन्‍होंने किया है। एक बात जो मैंने देखी है साहित्‍य की दुनिया में वह यह कि पुरुष लेखक यह मानने को तैयार ही नहीं है कि स्‍त्री भी लिख सकती है। सुभद्र कुमारी चौहान से लेकर परवीन शाकिर तक हमेशा पुरुष लेखक इस बात की चर्चा में लगे रहते हैं कि यह लेखिका किससे लिखवाती है। वह यह मानने को ही तैयार नहीं रहते कि कोई स्‍त्री स्‍वयं भी लिख सकती है। जब कोई सूत्र नहीं मिलता तो चरित्र हनन तो एक सीधा उपाय है ही। मेरा मानना है कि इस मामले के सारे ठोस सबूत उपलब्‍ध हैं, ऐसे में Nusrat Mehdi जी को कानून का सहारा लेना चाहिये और अंत तक इस लड़ाई को लड़ना चाहिये। यही सबसे ठीक उत्‍तर होगा।

आइये इस ज़रूरी काम के बाद हम आगे बढ़ते हैं आज के मुशायरे की ओर। आज हम होली के त्‍योहार को आगे बढ़ा रहे हैं। चार गुणी शायरों के साथ। तीन हमारे चिर परिचित हैं और चौथे हमारे चिर परिचित के सुपुत्र हैं। आज जो चार शायर आ रहे हैं वे हैं धर्मेंद्र कुमार सिंह, दिगंबर नासवा, सौरभ पाण्‍डेय और अंशुल तिवारी। इनमें अंशुल तिवारी मुकेश तिवारी जी के सुपुत्र हैं जिनकी ग़ज़ल आपने कल सुनी। इनका पहला कदम है सो स्‍वागत कीजिये मन से। 

हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे

 
सौरभ पाण्डेय
आ गये अचानक ही छम-से वो खुशी जैसे
यों लगा मुझे पल भर, रुक गयी घड़ी जैसे !

याद है मुझे उनका बादलों-सा बिछ जाना
गेसुओं में  उलझें हम चाँद फागुनी जैसे

भोर के धुँधलके में अनमने पड़े हैं हम
जग रहे इशारे हैं राग भैरवी जैसे

दे रहे हैं होठों से वो नरम-नरम अहसास
गर्म चाय के कप की चुस्कियाँ भली जैसे

वो यहीं कहीं हैं क्या.. घुल रही है सरगम-सी..
’हौले-हौले बजती  हो,  बाँसुरी  कोई  जैसे !!’

मार्च के महीने में  गुलमुहर-पलाशों  के
अंग अदबदाये हैं  कनखिया हँसी जैसे

हम न हों मगर दर पर, साँझ-दीप रखना तुम
राबिता रहे अपना मौत-ज़िन्दग़ी जैसे

आ गये अचानक ही छम से वो खुशी जैसे, वाह क्‍या कमाल की तुलना है। खुशी जैसे । वाह। मतले को लेकर जो उलझन थी लोगों की कि दोनों मिसरों में जैसे कैसे आएगा तो देखिये ऐसे आएगा। बादलों से बिछ जाना, उफफ क्‍या कर डाला महोदय। इस प्रयोग पर वारी वारी। भोर के धुंधलके में अनमने कमाल कमाल। कहां से लाते हैं यह प्रयोग। मार्च के महीने में अदबदाना, सौरभ जी आपकी ग़ज़लों की प्रतीक्षा ही रहती है किसी न किसी देशी शब्‍द का प्रयोग सुनने के लिये। और यह अदबदाना, मार डाला। गिरह का शेर भी बहुत खूब बन पड़ा है। बहुत ही कमाल की ग़ज़ल है । वाह वाह वाह। अति सुंदर।


धर्मेन्द्र कुमार सिंह

थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे

चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे

राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे

जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे

मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे

ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं
पेड़ सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे

एक बार फिर से वही बात कि जिन लोगों को मतले में जैसे का प्रयोग दोनों मिसरों में करने में कठिनाई आ रही थी वह ये देखें। ग़ज़ब प्रयोग किया है। कमाल का शेर है अगला । सावन में दूध की नदी बहने का प्रयोग मेरे विचार में पहली बार किया गया है। क्‍या ही कमाल का प्रयोग है । मेरी तो आंखों के सामने घूम भी गया। गिरह के शेर में मिसरा उला बहुत ही नफ़ासत के साथ बुना गया है। बहुत नाज़ुक और बहुत सुंदर। और हां हम तो भूल ही जाते हैं कि शायर तो इंजीनियर भी है तो लीजिये भौतिकी का एक कमाल कमाल प्रयोग। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह।
 

दिगंबर नासवा

रात के अँधेरे में, धूप हो खिली जैसे
यूँ लगे है कान्हा ने, रास हो रची जैसे

ज़ुल्फ़ की घटा ओढ़े, चाँद जैसे मुखड़े पर
बादलों के पहरे में, सोई चांदनी जैसे

सिलसिला है यादों का, या धमक है क़दमों की
होले-होले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

चूड़ियों की खन-खन में, पायलों की रुन-झुन में
घर के छोटे आँगन में, जिंदगी बसी जैसे

यूँ तेरा अचानक ही, घर मेरे चला आना
दिल के इस मोहल्ले में आ गयी ख़ुशी जैसे

दुश्मनी भुला के सब, दिल से दिल मिलाते हैं
बैर सब मिटाने को, होली है बनी जैसे

बहुत ही कमाल के मतले के बाद का शेर उफ उफ बना है। क्‍या क्‍या कमाल के बिम्‍ब एक ही शेर में उतार लिये गये हैं। चांद चांदनी बादल जुल्‍फ नींद। किसी ने सच ही कहा है सच्‍ची कविता वह होती है जो आंखों के सामने तस्‍वीर खींच दे। और चूडि़यों की खन खन तथा पायलों की रुन झुन में घर में घूमती जिंदगी का शेर तो मानो एक पूरा का पूरा दृश्‍य है। आंखें बंद कीजिये और इस दृश्‍य का मज़ा लीजिये। गिरह भी बहुत ही सुंदर तरीके से लगाई गई है। यूँ तेरा अचानक ही घर मेरे चले आना, इस अचानक से जो खुशी मिलती है उसको बहुत खूब लिया है शेर में। वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।
 

अंशुल तिवारी
मुकेश कुमार तिवारी के सुपुत्र अंशुल तिवारी, मैकेनिकल इंजिनियर है और मान ट्रक्स एण्ड बसेस (इ) प्रा. लि., पुणे(महाराष्ट्र) में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं...

इश्क लेके आया है ताजगी नई जैसे
धुन कोई नई सी है दिल में बज रही जैसे

जिंदगी में सब कुछ है, अब नहीं कमी कोई
स्‍वप्‍न से भरी आंखें आज शबनमी जैसे

मन की सूनी गलियों में अब सुरों का है मौसम
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे

मीठी धूप फैली है दिल में, घर में, आँगन में
घर में है उतर आई चाँद की परी जैसे

तुमको पाके जाना है जिंदगी का ये मतलब
तुम तलक ही जाते हैं रास्‍ते सभी जैसे

यह हमारी ग़ज़ल का सबसे युवा स्‍वर है तो ज़ाहिर है इस युवा स्‍वर के बिम्‍ब भी नई पीढ़ी के होंगे। लेकिन अंशुल ने दो समयों में संतुलन साधा है और सुंदरता के साथ साधा है। मतला बहुत ही अच्‍छे से गढ़ा है। इस उम्र में दिल में धुन बजना बहुत सी स्‍वाभाविक सी बात है। बात गिरह के शेर की, मेरे विचार में यह इस मिसर पर लगाई गई सबसे अच्‍छी गिरहों में से एक है। एक पूरा चित्र सुरों का मौसम बहुत ही खूब है। मीठी धूप में प्रेम का बहुत खूबसूरत मंज़र सामने आया है। और उतना ही सुंदर प्रेम है अंतिम शेर में भी जब सारे रास्‍ते एक ही दिशा में जाने लगें । वाह वाह वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।


तो मित्रों यह हैं आज के रचनाकारों की ग़ज़लें । चारों ने बहुत ही कमाल की ग़ज़लें कही हैं। बहुत कमाल। होली का मूड बना दिया है। तो आप भी आनंद लीजिये और खुल कर दाद दीजिये इन रचनाकारों को। कल होली के दिन हम मिलते हैं कुछ और रचनाकारों के साथ। होली है।
 

सोमवार, 21 मार्च 2016

आइये होली के त्‍योहार का स्‍वागत करते हैं रंग बिरंगी ग़ज़लों से। होली है जी होली है रंग बिरंगी होली है।

मित्रो समय का एक और चक्र पूरा हो चुका है। होली का एक और त्‍योहार सामने आ गया है। होली जिसका नाम सुनते ही बचपन में हमारे अंग अंग में पलाश खिल जाते थे। खूब धमाचौकड़ी, खूब हंगामा और खूब धमाल का नाम होता था होली। उमर बढ़ती गई और हम बड़े होते गए। कभी आपने सोचा है कि इस बड़े होने की प्रक्रिया में हमने कितना कुछ खोया है। वह जीवन जो कि चिंता और फिकर से मुक्‍त होता था। जब हमें इस बात का बिल्‍कुल नहीं सोचना पड़ता था कि कल क्‍या होगा। जब हर आने वाला दिन हमें डराता नहीं था। तब कितनी उमंगे होती थीं। और आज स्थिति यह है कि हमने अपने बच्‍चों से भी वह उमंगें छीन ली हैं। उनको भी हमने एक अंधी दौड़ में शामिल कर दिया है। पैसा कमाने की अंधी दौड़ में। एक ऐसी दौड़ जिसका कोई अंत नहीं है। जिसमें आस पास देखने की सख्‍त मनाही है। यदि आस पास पलाश फूल रहे हैं, सरसों चटक रही है, महुआ गमक रहे हैं तो उनका बिल्‍कुल नहीं देखा जाए। यह सारी चीज़ें अवरोध हैं पैसा कमाने की उस दौड़ में। काहे की होली, किस बात की होली। हाइजीन का ध्‍यान रखो। बीमार पड़ जाओगे। रंगों से त्‍वचा खराब हो जाएगी। कुल मिलाकर यह कि जिंदगी को मत जिओ, दौड़ते रहो। जीवन भर पैसा कमाओ और उसके बाद एक दिन निकल लो, सारा पैसा अपने पीछे छोड़ कर। कोई पूछे कि पैसा क्‍यों कमाया जा रहा है तो कहेंगे कि जीवन अच्‍छे से जीने के लिये। फिर पूछो कि जीवन जी कब रहे हो तो कहेंगे कमा लें फिर जीएंगे। पता यह चलता है कि जी ही नहीं पाए और जाने की घड़ी भी सामने आ गई। तो मित्रों आप ऐसा मत करिये। देखिये कि वन में पलाश खिल उठे हैं। चारों ओर होली का उल्‍लास बरस रहा है ऐसे में दो चार दिन छोड़ भी दीजिये सारी चिंताएं और मन में उमंग जगा कर बच्‍चे बन जाइये। आज के दौर के बच्‍चे नहीं, हमारे दौर के बच्‍चे। 

चलिये तो आज हम होली के इस त्‍योहार को प्रारंभ करते हैं। जैसा कि आपको विदित है कि हम होली के दिन हंगामा भी करते हैं। सो सारा हंगामा होली के दिवस ही होगा। बाकी के दिन हम रचनाएं सुनेंगे । तो आज तरही का प्रारंभ करते हैं। आज हम पांच रचनाकारों के साथ तरही का शुभारंभ कर रहे हैं।

हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे





राकेश खंडेलवाल जी
बादलो के टुकड़े आ होंठ पर ठहरते हैं
किसलयो से जैसे कुछ तुहिन कण फिसलते हैं
उंगलियां हवाओं की छू रही हैं गालों को
चांदनी के साये आ नैन में उतारते हैं
बात एक मीठी सी कान में घुली जैसे
हौले हौले बजती  हो बांसुरी कहीं जैसे

टेसुओं  के रंगों में भोर लेती अंगड़ाई
चुटकियाँ गुलालों की प्राची की अरुणाई
सरसों के फूलों का गदराता अल्हड़पन
चंगों की थापों पर फागों की शहनाई
आती हैं पनघट से कळसियां भरी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

उठती खलिहानों से पके धान की खुशबू
मस्ती में भर यौवन आता है नभ को छू
गलियों में धाराएं रंग की उमंगों की..
होता है मन बैठे ठाले ही बेकाबू
बूटों की फली भुनी मुख में घुली ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

लहराती खेतों में बासंती हो  चूनर
पांवों को थिरकाता सहसा ही आ घूमर
नथनी के मोती से बतीयाते बतियाते
चुपके से गालों को चूमता हुआ झूमर
याद पी के चुम्बन की होंठ पर उगी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

वाह वाह वाह क्‍या कमाल का गीत है। उंगलियां हवाओं की छू रही हैं गालों को और उसके बाद चांदनी के सायों का नैन में उतरना। वाह ऐसा लगता है पूरा दृश्‍य चित्र बना दिया है लेखनी से। टेसुओं के रंगों में भोर लेती अंगड़ाई, वाह क्‍या कमाल का बिम्‍ब है । और पनघट से आती हुई भरी हुई कलसियों की तो बात ही क्‍या है, ग़ज़ब। याद पी के चुंबन की में जो होंठ पर उगने का प्रयोग है वह बहुत ही खूब है। वाह क्‍या कमाल किया है। प्रकृति और प्रेम को एकाकार करते हुए बहुत ही सुंदर रचना लिखी है राकेश जी ने। वाह वाह वाह।


सुलभ जायसवाल
हारते हैं हम बाज़ी, जीतती हुयी जैसे
हाथ में अजी साहब, मोम की छड़ी जैसे

आरजूएं चौखट पर, रात गीत गाती है
मीठा मीठा तीखा कुछ, दर्दे आशिकी जैसे

नाम उनका चादर पर लिख के हम बिछाते हैं
रात कटती है अपनी,  रात  मखमली जैसे 

कश्ती के मुसाफिर की, ख़्वाहिशें हजारों हैं 
दरिया से समंदर तक, चाल दुश्मनी जैसे

रात टूटे मन से और, भोर में जुड़े मन से
हौले हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे

गर्म  गर्म जिस्मों पर, लेप है फरिश्तों का 
उजला उजला जैसा कुछ, रात चांदनी जैसे

ये करार कैसा है, ये करार कैसा है
उम्र भर करो इज्ज़त, रोज़ भुखमरी जैसे  

भांग कूट के लाये, गीत झूम के गाये 
भोजपुरिया होली में है 'सुलभ' सखी जैसे
सुलभ ने मतले में ही मोम की छड़ी का प्रयोग बहत ही अच्‍छा किया है। मुहावरों को इस प्रकार से कविता में उपयोग करना बहुत प्रभावकारी होता है। नाम उनका चादर पर लिखने का प्रयोग भी बहुत अच्‍छा है। किसी का नाम चादर पर लिखने से रात मखमली हो जाए यह तो संभव ही है। चांदनी को फरिश्‍तों का लेप बताने का विचार भी अच्‍छा है। अच्‍छी ग़ज़ल है । खूब ।


निर्मला कपिला जी
देखिये मुहब्बत ने ज़िन्दगी छ्ली जैसे
लुट गया चमन गुल की लुट गयी हंसी जैसे

अक्स हर  जगह उसका ही नजर मुझे आया
हर घडी  तसव्‍वुर  मे  घूमता  वही  जैसे

कोई तो जफा से खुश और कोई वफा में दुखी
सोचिये वफा को भी  बद्दुआ मिली जैसे

वो चमन में आए हैं, जश्‍न सा हर इक सू है 
झूम  झूम  नाचे  हर  फूल  हर कली  जैसे

खुश हुयी धरा देखी  रौशनी   लगा उसको
चांदनी उसी के लिये मुस्कुरा रही जैसे

बन्दिशे  इबारत में शायरी बड़ी मुश्किल
काफिये  रदीफों  से आज मै  लड़ी जैसे

उम्र भर सहे हैं गम दर्द मुश्किलें इतनी
हो न हो किसी की है  बद्दुआ लगी जैसे

पाप जब किये थे तब कुछ नहीं था सोचा पर 
आखिरी समय निर्मल आँख हो खुली जैसे
अक्‍स हर जगह उसका ही नज़र मुझे आया हर घड़ी तसव्‍वुर में घूमता वही जैसे, सचमुच प्रेम में यही तो होता है किसी चेहरा हर दम आंखों के सामने रहता है । बस वो ही वो दिखाई देता है। वाह। वो चमन में आए हैं में चमन के जश्‍न का बहुत सुंदर माहौल गढ़ा है । किसी के चमन में आने से पूरा का पूरा माहौल आपके लिये बदल जाता है। और यह बदलाव आप ही महसूस कर सकते हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।



डॉ. संजय दानी

यारो मेरी महबूबा पास आ रही जैसे,
हुक्म मरने का मिलने वाला है अभी जैसे।

कृष्‍ण राधा का रिश्ता मुझको अच्छा लगता पर,
मेरी हमनशीं की सीरत है रुकमणी जैसे।

प्यार करता हूं पर ख़ामोशी मेरा गहना है,
करती है वो लेकिन व्‍यवहार बावरी जैसे ।

दिल पहाड़ों सा है मजबूत पीने के ख़ातिर,
पर खड़ी है बेलन लेकर वो पार्वती जैसे।

दारू के नशे में उनके कदम उठे कुछ यूं,
हौले हौले बजती है बांसुरी कोई जैसे ।

दानी भांग का सेवन करके गाय बन जाता ,
वो मचाती हुल्ल्ड़ ख़ूंख़ार शेरनी जैसे ।
संजय जी ने एक काम यह किया है कि मिसरे को दो खंडों में नहीं तोड़ा है और एक ही मिसरे के रूप में लिखा है। सबसे पहले तो गिरह के शेर की ही बात की जाए। सचमुच हौले हौले बांसुरी बजने को शराब के नशे में चलते हुए शराबी के कदमों से मिलाना जिगर की बात है। यह ऑब्‍जर्वेशन का ही काम है। कृष्‍ण और राधा के प्रेम में रुक्‍मणी को सब भूल जाते हैं लेकिन संजय जी ने रुक्‍मणी को याद रखा। बहुत ही अच्‍छा। वाह वाह वाह।


मुकेश कुमार तिवारी
जिन्दगी में लगती है कुछ न कुछ कमी जैसे
है कोई अधूरापन  साथ हर घड़ी जैसे

दर से तेरे लौटा हूँ खाली हाथ वापस मैं
मन्नतों मुरादों में कुछ कमी रही जैसे

लफ्ज जज्ब होते हैं देख के तेरा आलम
लग गई हो होंठों पर चुप्पी सी कोई जैसे

रात दिन यूँ आती है खुश्‍बू कोई दामन से 
दे गया वो चुपके से  झप्पी जादू की जैसे

मन पे रंग छाए हैं, आ गई है फिर होली 
फिर निगोड़े फागुन की तुरही बज गई जैसे

पायलों की छुन छुन छुन गूँजती है सूने में
हौले हौले बजती हो बाँसुरी कोई जैसे
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है मु‍केश जी ने। मतले में किसी के बिना जो अधूरापन होता है उसको बहुत ही अच्‍छे तरीके से चित्रित किया है। रात दिन यूँ आती है खुश्‍बू कोई दामन  से में बहुत अच्‍छे से खुश्‍बू के कारण को बताया है। मन पे रंगों का छाना और उसके बाद फागुन की तुरही का बज उठना। फागुन तो मानो आ ही गया है। और उस पर गिरह भी सुंदर लगी है। बहुत ही सुंदर वाह वाह वाह।
 
मित्रों तो यह हैं आज की रचनाएं। जो होली का माहौल बना रही हैं। इस माहौल को बनाए रखने के लिये आप सबका खुल कर दाद देना परम आवश्‍यक है। तो देते रहिये दाद और आनंद बनाए रखिये।

बुधवार, 16 मार्च 2016

होली अब बस एक ही सप्‍ताह दूर है तो आपका उत्‍साह बढ़ाने के लिये यह पोस्‍ट ।

मित्रों कई लोगों की ग़ज़लें मिल चुकी हैं और कई की आने की सूचना है। होली में अब बस एक ही सप्‍ताह रह गया है इसलिये आशा है कि इस सप्‍ताह ही सारी रचनाएं प्राप्‍त हो जाऍंगी। चूँकि त्‍योहार के मुशायरे में हमारे पास समय कम रहता है इसलिये कोशिश कीजिये कि सप्‍ताहांत तक आपकी रचनाएं मिल जाएं। मुझे मालूम है कि सबकी व्‍यस्‍तताएं हैं किन्‍तु व्‍यस्‍तताओं के बीच में समय निकालना ही पड़ता है।

हौले हौले बजती हो बांसुरी कोई जैसे

यह मिसरा इस बार दिया गया है । जैसा कि द्विजेन्‍द्र भाई ने पिछली पोस्‍ट में बताया था कि इस पर एक ग़ज़ल अहमद हुसैन मुहम्‍मद हुसैन बंधुओं द्वारा गाई गई है ' दो जवां दिलों का ग़म दूरियां समझती हैं'  इस ग़ज़ल को श्री दानिश अलीगढ़ी ने लिखा है। बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है यह । आप इसको यहां https://www.youtube.com/watch?v=o7eNtz4INL0 पर जाकर सुन सकते हैं। 'बाम से उतरती है जब हसीन दोशीज़ा, जिस्‍म की नज़ाकत को सीढि़यां समझती हैं'' जब इस ग़ज़ल को कल गुनगुना रहा था तो अचानक याद आया कि अरे ! इस धुन पर तो एक गीत भी है 'परबतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है'' । ख़य्याम साहब की धुन पर सुमन कल्‍याणपुर और रफी साहब द्वारा गाया गया फिल्‍म शगुन का गीत। क्‍या कमाल का गीत है यह। सुन लो जो जादू सा छा जाए। 'दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से' 'ठहरे ठहरे पानी में गीत थरथराते हैं'' किसने लिखी हैं यह कमाल की पंक्तियां ? और कौन लिख सकता है साहिर लुधियानवी के अलावा। 'अब किसी नज़ारे की दिल को आरजू क्‍यूँ हो' । वाह साहिर साहब कमाल कमाल। अरे हां याद आया इसी बहर पर एक कमाल की ग़ज़ल ग़ालिब साहब की भी तो लिखी हुई है । जिसे बहुत से गायकों ने गाया है लेकिन जिस अंदाज़ में बेगम अख्‍़तर जी ने गाया उसका तो कोई तोड़ ही नहीं है। https://www.youtube.com/watch?v=mblW0p4Nk0c ''जिक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना'' वाह क्‍या तो लिखा है और क्‍या गाया है। 'बन गया रक़ीब आखिर था जो राज़दां अपना''।  मित्रों इतनी मेहनत की आपके लिए और अब भी क्‍या आपको प्रेरणा नहीं प्राप्‍त हुई ग़ज़ल लिखने की ।

आइये अब हम चलते हैं बहर की गहराई में। यह बहर जैसा कि आपको बताया गया है बहरे हजज़ मुस‍मन अशतर है। हजज़ के बारे में तो आप जानते ही हैं लेकिन नये लोगों की जानकारी के लिये एक बार फिर से बता दिया जाए कि हजज़ का स्‍थाई रुक्‍न 1222 होता है मुफाईलुन । जब मिसरे में कुछ चार रुक्‍न आ रहे हों तो उसे मुसमन कहा जाता है। तो चूँकि स्‍थाई रुक्‍न 1222 है और चार हैं इसलिये हज़ज मुसमन तो हुआ। लेकिन दो रुक्‍नों में 1222 की मात्रा से कुछ छेड़छाड़ की गई है। पहले और तीसरे रुक्‍न में । इसलिये यह सालिम बहर न रहकर मुज़ाहिफ बहर हो गई है, मतलब जिहाफ द्वारा नए रुक्‍न बनाना ।  मात्रओं के साथ जो बदलाव किया गया है उसे 'शतर' कहा जाता है और इस प्रकार से पैदा हुए रुक्‍न को 'अशतर' कहा जाता है। आइये सबसे पहले मुफाईलुन का विन्‍यास समझें  । यह एक सात हर्फी रुक्‍न है  12+2+2  यह हुआ मुफा-ई-लुन । जुज़ तीन उपयोग में लाये गए वतद्-सबब-सबब। वतद जुज़  मतलब त्रिमात्रिक विन्‍यास जिसमें पहली और दूसरी गतिशील हों तीसरी मात्रा दूसरी की छांव में हो ( उदाहरण कहां, मगर आदि)। सबब जुज़  मतलब द्विमात्रिक विन्‍यास जिसमें पहली गतिशील हो और दूसरी उसकी छांव में हो (उदाहरण अब, जब आदि) । तो मुफाईलुन को पहले और तीसरे रुक्‍न में जो बदला गया है उसमें यह किया गया है कि पहली मात्रा 'मु' को गिरा दिया गया ( खर्रम) और दूसरा यह कि 'ई' में  पांचवी मात्रा  जो स्थिर थी उसको गिरा कर 'ई' को दीर्घ से लघु कर दिया ( कब्‍ज़) । (मु) फा (ई) ए लुन। इस प्रकार से दो प्रकार के बदलाब हुए 'खर्रम' और 'कब्‍ज़' इन दोनों के कॉम्बिनेशन को कहा जाता है 'शतर' और इनसे उत्‍पन्‍न हुए रुक्‍न को अशतर कहा जाता है । तो इस प्रकार से उत्‍पनन हुआ नाम 'बहरे हजज मुसमन अशतर' ।

तो आइये चलते चलते रफी साहब की आवाज़ में सुनें इसी बहर पर यह ग़ज़ल

 

तो मित्रों इतनी मेहनत के बाद तो आपको कुछ उत्‍साह आया होगा कि चलो अगला इतनी मेहनत कर रहा है तो अपन भी एक ग़ज़ल लिख ही देते हैं। लिखिये और भेजिये ।

रविवार, 13 मार्च 2016

मिसरा दिये हुए काफी दिन हो गये और अब जाना जाए कि कुछ काम शुरू भी हुआ है या नहीं ।

मित्रों इस बार का मिसरा कुछ अलग तरह का है। और इस बार के मिसरे पर होली के मूड के अलावा और भी कुछ सोचा जा सकता है। इसलिये ही इस बार का मिसरा बनाया था। मगर अभी तक यह लगता है कि काम किसी ने भी शुरू नहीं किया है। यहां तक कि कुछ वरिष्‍ठ जनों ने तो यह कह कर पल्‍ला झाड़ने की कोशिश की है कि हम से न होगा। यदि वरिष्‍ठ ऐसा कह रहे हैं तो फिर बाकियों से तो उम्‍मीद ही क्‍या की जा सकती है। मित्रों सृजन एक ऐसा कार्य है जिसमें आपको बस अनवरत लगा रहना होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने हिसाब से ही सृजन करें। चूँकि लेखक और रचनाकार विशिष्‍ट होता है, उसे समाज में लेखक होने के कारण विशिष्‍ट स्‍थान भी मिलता है इसलिये उसका भी दायित्‍व होता है कि वह भी अपने कार्य के प्रति ईमानदार बना रहे। यह ईमानदारी ही उसको आगे रखती है।

हौले हौल बजती हो बांसुरी कोई जैसे

holi-11

इस बार के मिसरे पर कोई गीत मुझे याद नहीं आ रहा है । हां एक धुन ज़रूर याद आ रही है । जो बहुत पहले गैर फिल्‍मी गीत के रूप में सुनी थी । तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्‍या निभाओगे। इस धुन पर गुनगुना कर इस मिसरे पर लिखा जा सकता है। गुनगुनाने पर समझ में आ जाएगा कि यह धुन और हमारे मिसरे की धुन एक जैसी ही है। इस बहर पर बहुत पहले किसी सज्‍ज्‍न ने मेरी काफी बहस हुई थी। वो कहानी फिर कभी।

होली को लेकर एक बात तो तय है कि होली एक ऐसा त्‍योहार है जिसमें बहुत कुछ बाहर से करने की आवश्‍यकता नहीं होती है। इसमें जो कुछ भी करना होता है वह अपने अंदर ही करना होता है। जैसे दीपावली में ईद में बाहर बहुत तामझाम करना होता है तब जाकर आपको त्‍योहार जैसा लगता है लेकिन होली में कुछ नहीं है बस अपने अंदर एक उमंग पैदा करो और होली का माहौल बन जाता है। होली तो उमड़ने वाला त्‍योहार है। उमड़ गया तो घुमड़ भी जाएगा। अब आप सोचें कि बिना उमड़े ही घुमड़ जाए तो वह तो संभव नहीं है।

इस बार जान बूझ कर मिसरा केवल त्‍योहार केन्द्रित नहीं दिया है। इस बार प्रेम है। वह प्रेम जो हम सबके अंदर होता है। वह प्रेम जो सृजन की मूल अवश्‍यकता है। यदि आपने प्रेम नहीं किया तो आप सृजन कर ही नहीं सकते हैं। तो इस बार की होली प्रेम के नाम से। और होली पर तो बुरा न मानो होली है कह कर घर से खींच लेने का रिवाज़ है तो खींच लाइये उन लोगों को घर से बाहर जिनकी ग़ज़लों की किताब के तीन तीन संस्‍करण छप चुके हैं और जो फिर भी ग़ज़ल लिखने के नाम पर कह रहे हैं कि 'इस बार तो हमसे न होगा' ।

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तो मित्रों उन लोगों को आभार जिन्‍होंने ग़ज़लें भेज दी हैं। उन लोगों को प्रोत्‍साहन जो लिख रहे हैं। और जो हथियार डाल रहे हैं उनके लिये क्‍या आप जानते हैं। तो भेजिये जल्‍दी अपनी ग़ज़लें।

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

तो यह है होली का मिसरा जिस पर आपको ग़ज़लें कहनी हैं ''हौले-हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे''

होली में अब बस कुछ ही दिन रह गए हैं। और जैसी की परंपरा रही है कि हम कम से कम होली पर तो मुशायरा करते ही हैं। असल में नवंबर 2015 से माइक्रोसाफ्ट ने ब्‍लॉग राइटर की समाप्‍ती की घोषणा कर दी। औ अपना तो सारा काम ही ब्‍लॉग राइटर पर होता था। अब जब ब्‍लॉग राइटर सामप्‍त हुआ तो सबसे बड़ा संकट यह आ गया कि पिछले आठ नौ सालों से जिसकी आदत पड़ी हुई है उसके बिना क्‍या होगा। समस्‍या यह भी कि वह जो सारी डिज़ायनिंग तथा कारीगरी की जाती थी वह तो ब्‍लॉग राइटर के सहयोग से होती थी तो अब क्‍या होगा। फिर इधर पता चला कि एक ओपन राइटर करके कोई साफ्टवयेर आया है। लेकिन उसको भी तब उपयोग किया तो वह भी उतना फ्रेंडली नहीं लगा। इस चक्‍कर में यह हुआ कि दीपावली के मुशायरे के बाद से कोई भी मुशायरा नहीं हो पाया। जो आदत सी पड़ी थी ब्‍लॉग राइटर पर काम करने की उसके चलते कुछ भी नहीं हो पा रहा था। कंपनियों में और प्रकृति में यही अंतर है, प्रकृति जानती है कि आपको किन चीजों की आदत है इसलिये वह कुछ भी नहीं बदलती है। कंपनियां बिना यह जाने कि उन चीज़ों की आदत पड़ चुकी है चीजों को या तो बदल देती हैं या बंद कर देती हैं। जैसे एक बार लाइफबाय की सुगंध बदलने पर मेरे साथ बचपन में हुआ था, उसके बाद फिर जीवन में कोई भी साबुन अच्‍छा नहीं लगा।
खैर अब जो भी हो बात तो यही है कि ब्‍लॉग राइटर तो समाप्‍त हो चुका है और उसके साथ ही ब्‍लॉग राइटिंग के वो सुहाने दिन भी अब शायद जो चुके हैं। याद है आपको ब्‍लॉग वाणी की, जो ब्‍लॉगों की धड़कन हुआ करती थी। 2010 में उसके बंद होने के साथ ही ब्‍लॉग जगत पर पहला आघात लगा था। उसके साथ ही आगमन हुआ था फेसबुक का। खैर उसके बाद भी ब्‍लॉगिंग चलती रही। मुझे लगता है कि हमें कुछ सालों बाद एक बार फिर से ब्‍लॉगिंग की संतुलित दुनिया में ही लौटना होगा। क्‍योंकि यह दुनिया आपकी है जबकि फेसबुक की दुनिया एक अराजक दुनिया है जहां पर आप कुछ भी मन की बात कह नहीं सकते । यदि कह दी तो फिर परिणाम भी आपको ही भुगतने पड़ते हैं।
खैर चलिये छोडि़ये सब बातों को और अब होली के तरही मुशायरे की बात करते हैं। होली पर इस बार ऐसी इच्‍छा है कि कुछ अच्‍छी ग़ज़लें भी सामने आएं, ऐसा न हो कि होली की हुड़दंग के चक्‍कर में ग़ज़ल पीछे रह जाए। तो इस बार का मिसरा कुछ ऐसा सोचा है जो कि कुछ साफ्ट हो। जिससे कुछ सुंदर शेर निकल कर सामने आएं।
''हौले-हौले बजती हो, बांसुरी कोई जैसे''
वज़न है 212-1222-212-1222
फाएलुन-मुफाईलुन-फाएलुन-मुफाईलुन
बहर है ''बहरे हजज मुसम्‍मन अश्‍तर''
इसमें 'कोई' को काफिया रखना है मतलब ये कि जो 'ई' की मात्रा है उसे काफिया रखना है और 'जैसे' को रदीफ बनाना है।
तो यह है होली का मिसरा जिस पर आपको ग़ज़लें कहनी हैं।ब्‍लॉगों का सुहाना समय बीत चुका है मगर हम सब चाहें तो उसको मिलकर वापस ला सकते हैं। और यह आयोजन इसी दिशा में एक कदम होता है। तो आइये हम सब मिलकर एक और आयोजन करते हैं।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

होली का त्‍योहार सामने है और अब होली को लेकर कुछ आयोजन किया जाए ऐसा मन है

मित्रों बहुत दिनों बाद ब्‍लॉग पर हलचल हो रही है, बहुत दिनों बाद हो रही है तो उसका भी एक कारण है, असल में हुआ यह था कि जब से ब्‍लॉगिंग शुरू की थी तबसे सारा काम विंडोज़ लाइव राइटर पर ही किया करता था। बहुत सुविधाजनक होता है उस पर काम करना। लेकिन अब पिछले साल से हुआ यह कि ब्‍लॉग राइटर को माइक्रोसाफ्ट ने समाप्‍त घोषित कर दिया और उसकी सेवाऍं भी बंद कर दीं। मेरे जैसे लोग जो कि लाइव राइटर पर पिछले नौ साल से काम कर रहे थे उनके लिये ब्‍लॉग राइटिंग अब मुश्किल का काम हो गई। और उसी के कारण हुआ यह कि पिछले दीपावली के मुशायरे के बाद से कोई भी पोस्‍ट नहीं लग पाई है। नवंबर 2015 में लाइव राइटर की सेवाएं बंद कर दी गईं ।

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