आज शरद पूर्णिमा है और ये दिन हम कवियों के लिये खास दिन होता है आज कविता की बातें होती हैं और कवि सम्मेलन होते हैं पहले जयपुर में एक भव्य आयोजन गीत चांदनी भी आज के दिन होता था जाने आज कल होता है या नहीं । मैंने बताया था कि मेरे मि्त्र श्री रमेश हठीला जी का काव्य संग्रह बंजारे गीत प्रकाशित हो गया है । मधुर कंठ से गीत गाने वाले श्री हठीला गीत भी भावप्रवण ही लिखते हैं । तो आज इस ब्लाग पर शरद पूर्णिमा के अवसर पर एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है जिसका प्रारंभ मैं श्री हठीला की सद्य प्रकाशित बंजारे गीत से कुछ मुक्तक और एक सुंदर गीत जो सभी चांदनी पर हैं के साथ कर रहा हूं आप सब भी शरदोत्सव पर अपनी कविताएं इस कवि सम्मेलन में टिप्पणियों के माध्यम से प्रस्तुत करें ताकि ये आज का हमारा ब्लागिया कवि सम्मेलन सफल हो सके । घोषित कवि हैं उड़नतश्तरी, कंचन चौहान, बी नागरानी देवी, अनूप भार्गव, अभिनव शुक्ला, और अघोष्ति कवि वे सभी हैं जो आज काव्य पाठ करना चाहते हैं । संचालन तो जाहिर सी बात है कि माड़साब ही कर रहे हैं जो टिप्पणियां दिन भर में मिलेंगीं वे पोस्ट के रूप में प्रस्तुत की जाएंगीं । तो प्रस्तुत है पहले कवि श्री रमेश हठीला अपने गीत ओर मुक्तकों के साथ ।
आज महारास की है शरद पूर्णिमा।
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥
कृष्ण के पा अधर वेणू होगी मुखर।
चांद को देख व्याकुल है सिंधू लहर।
पग थिरकने लगे मौन जुन्हाई के।
फड़ फड़ाने लगे पंख पुरवाई के।
नीला-नीला गगन और धवल चन्द्रमा॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥
हैं सजल आज वसुधा के पुलकित नयन।
झूमेंगें नाचेगें राधिका के चरण।
जाने क्यों हो गई यामिनी बावरी।
जादू करने लगी मदभरी बांसुरी।
पलकें बोझिल हुईं देख वो भंगिमा॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥
धार अमृत की फिर हो गये ओस कण।
कसमसाने लगा आज वातावरण।
करने को मन मुदित आ गई है शरद।
अब विगत हो गये बरखा के क्षण सुखद् ।
बांहों में भर रहा धरती को असामां॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥
आया मधुमास तो मौन मुखरित हुआ।
चूड़ी पेंजन कंगनवा से गुंजित हुआ।
मेहंदी चढ़ कर हथेली दहकने लगी।
सांसें पी का परस पा बहकने लगी।
नैन बोझिल हुए मुख पे थी लालिमा॥
पूर्णिमा, पूर्णिमा, पूर्णिमा, पूर्णिमा॥
आज महारास की है शरद पूर्णिमा।
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥
मुक्तक
1
अम्बर के अंगना खिली शुभ्र धवल चांदनी।
झिलमिल झिलमिल करती चुस्त चपल चाँदनी।
चम्पतिया चंदा का आलिगंन करने को।
देहरी लाज की उलाँघकरती पहल चाँदनी॥
2
इठलाती बलखाती मुस्काती चाँदनी।
अंबर की चौसर पर बिछ जाती चाँदनी।
चुगल खोर चंदा की मटमैली पाती पर।
प्यार का पयाम नित्य लिखवाती चाँदनी॥
3
ओढ़े हुए चूनरिया तार तार चाँदनी।
चुपके चुपके चंदा से करती प्यार चाँदनी।
मुस्काते, सकुचाते, शरमाते, इठलाते।
खुद को चन्द्र दर्पण में रही निहार चाँदनी॥
4
चन्द्र कश्ती छोटी सी यात्री है चाँदनी।
नील नदी के तट पर उतरी है चाँदनी ।
कलियों पे शबनम को मुस्काता देखकर।
मोती के दानों सी बिखरी है चाँदनी॥
5
धरती के अंगना में उतरी है चाँदनी।
चोटी कजरी टप्पा ठुमरी है चाँदनी।
कलियों को शबनम पर मुस्काता देखकर।
यहाँ वहाँ मोती सी बिखरी है चाँदनी॥
अब जब आप नें आमंत्रित कर ही दिया है तो एक गज़लनुमा कविता पर गौर फ़रमायें जो आप से सीखना शुरु करने से पहले लिखी थी । बहर , वज़्न आदि सब गलत होंगे लेकिन क्यों कि यह सब से पहला गज़ल का प्रयास था , इसलिये मुझे प्रिय है । एक बार पहले भी टिप्पणी में लिखने की कोशिश की थी लेकिन शायद आप नें देखी नहीं ।
जवाब देंहटाएं---
परिधि के उस पार देखो
इक नया विस्तार देखो ।
तूलिकायें हाथ में हैं
चित्र का आकार देखो ।
रूढियां, सीमा नहीं हैं
इक नया संसार देखो
यूं न थक के हार मानो
जिन्दगी उपहार देखो ।
उंगलियाँ जब भी उठाओ
स्वयं का व्यवहार देखो
मंजिलें जब खोखली हों
तुम नया आधार देखो ।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो ।
---
वाह, कविता का जवाब कविता से।
जवाब देंहटाएंआलोक
वाह सुबीर जी बहुत बढ़िया महफ़िल जमाई है आपने एक शेर मैं भी अर्ज़ कर दूँ -
जवाब देंहटाएंचुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
चुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
वो चाँद बन कर आ गए , मेरे ख्यालों में.
और एक क्षणिका भी -
चाँद को देखे रोज,
लाखों चकोरी ऑंखें,
इसीलिए कुदरत ने लगाया,
है गोरे मुखड़े पे चाँद के
एक नज़र का टीका -
काला
मेरी भी एक कविता पेश है---
जवाब देंहटाएंनिकले चंदा रात मुस्कराए
झूम-झूम इठलाती है
तारों से आंचल भरकर
फिर दुल्हन सी शरमाती है
दूध सी उजली, निर्मल, कोमल
चांदनी रात मन भाती है
चम-चम करते रेत के हीरे
किरणों के हार पहनाती है
झिलमिल चांदनी चमके इत-उत
मन में उल्लास जगाए है
चांद की शीतलता भी अब
मन में आग लगाए है
बचपन की वो चंचलता
जा पहुंची अल्हड़ यौवन में
चंदा-चांदनी लुक-छुप खेलें
हर घर के कोने-आंगन में
रेगिस्तान की तपती भूमि
शीतलता पाती है अब
रेत का आभास जिसे था
चमक-चमक जाती है अब
तपते रेगिस्तान को रात ने
फिर से शीतल बनाया है
रेत को भी चंद्र किरण ने
चांदी सा चमकाया है
नदियों के धारे मुस्काए
चम-चम चमके तारों से
धवल चांदनी फैली इत-उत
शोभित है मनुहारों से
गंगा के आंचल पर चमके
ब्रह्मांड का गगन मंडल
शीतल, धवल चांदनी में अब
दूध सा श्वेत लगे है जल
बच्चा मांगे मां से अपनी
चंद्र खिलौना ला दो ना
हाथ बढ़ाकर उसे बुलाता
चंदा मामा आओ ना
जहां-जहां जाता है चंदा
वहीं चांदनी जाती है
एक पल को साथ न छूटे
यही चांदनी चाहती है
एक रात मिली अरमानों की
अगले क्षण भय जुदाई का
धीरे-धीरे छुपता है चंदा
साथ मिला हरजाई का
धीरे-धीरे घटता चंद्रमा
द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी को
निशा कालिमा डस जाएगी
प्रेमी-प्रियतम चंदा को
वाह वाह देर से आये मगर आनन्द आ गया. अब हमारी बारी. तो पहले यह सुनें-क्या एक ही सुनाना है या जब तक माईक वापस न छीन लिया जाये, याने जैसा आम तौर पर होता है :) ???
जवाब देंहटाएंयह एक जीवन दर्शन पर आधारित रचना पर ध्यान चाहूँगा-ताली हर मुक्तक के बीच में, अंत में और शुरु में-कहीं भी बजाई जा सकती है. कोई नियम में बंधा न महसूस करे.
वो इक पागल सी चिड़िया
घने घनघोर जंगल में, बहारें खिलखिलाती हैं
लहर की देख चंचलता, नदी भी मुस्कराती है
वहीं कुछ दूर पेड़ों की पनाहों में सिमट करके
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
कभी वो डाल पर बैठे, कभी वो उड़ भी जाती है
जुटा लाई है कुछ तिनके, उन्हीं से घर बनाती है
शाम ढलने को आई है, जरा आराम भी कर ले
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
अभी कुछ रोज बीते हैं, मिला इक और साथी है
नीड़ में अब बहारें हैं, चहकती बात आती है
लाई है चोंच में भरके, उन्हें अब कुछ खिलाने को
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
बड़े नाजों से पाला है, उन्हें उड़ना सिखाती है
बचाना खुद को कैसे है, यही वो गुर बताती है
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
--समीर लाल 'समीर'
पहले एक गज़ल के कुछ् शेर :
जवाब देंहटाएंचान्दनी ये तो जानती होगी
रोशनी चान्द से हुई होगी .
चलो सूरज को जगायें फिर से
इन अन्धेरों में कुछ कमी होगी
आंख में इंतिहा नमी की थी
बादलों से उधार ली होगी
दोस्तों ने उसे दिये धोखे
बात दौलत की ही रही होगी
बुरे बख्तों मे साथ छोड गयी
बेवफाओं के घर पली होगी.
.....और अब कुछ चान्दनी के दोहे ..
आगे आगे चान्दनी ,पीछे पीछे चान्द
सीधे आंगन तक घुसे सभी छतों को फान्द.
हाथ उठाकर ,रेंग कर बच्चा करता मांग
फुदके फुदके चान्दनी, हाथ ना आवे चान्द.
ठंडी ठंडी चान्दनी, चान्दी चान्दी रेत
लद गये दिन आसाढ के, सावन के संकेत्
कहते हैं कि शरद पूर्णिमा पर रात में चान्द से अमृत गिरता है. ख़ीर बनायें, रात को खुले में रखें, और सुबह खायें. आनन्द ही आनन्द....
प्रणाम सर,
जवाब देंहटाएंहठीला जी का गीत अत्यंत मनोरम है। मैं कवि सम्मेलन में भी लेट पहुँचा हूँ। अपनी कविता प्रेषित कर रहा हूँ।
गांधीजी के अंतिम शब्दों पर हुए विवाद के चलते कुछ भाव मन में आए थे तथा प्रतिक्रिया स्वरूप इस तुकबंदी का सृजन हुआ।
बड़े बड़े सब लोग जो भारत आते हैं,
सबसे पहले राजघाट पर जाते हैं,
विश्व पुरुष के आशीषों से तरते हैं,
पुष्प चढ़ाते और नमन वे करते हैं,
शब्द अंत के जनमानस पर अंकित हैं,
राजघाट के शिला लेख पर टंकित हैं,
राम राम, हे राम राम, हे राम राम,
गांधीजी के अंतिम शब्दों को प्रणाम्,
पर सोचो यदि कुछ ऐसा हो जाता जो,
और कोई ही शब्द जो बाहर आता तो,
वही शिला का लेख बना बैठा होता,
अपने भाग्य की रेखा पर ऐंठा होता,
हमने सोचा चलो 'ओपिनियन पोल' करें,
नए विचारों की मदिरा का घोल करें,
"शब्द भला क्या श्रीमुख से बाहर होते,
गांधीजी जी की जगह आप नाहर होते?"
प्रश्न किया हमनें आलोकित जन जन से,
उत्तर सबने दिया बड़े अपनेपन से,
उत्तर विविध विविध भांति के प्राप्त हुए,
कहने को कुछ नहीं है भाव समाप्त हुए,
कोई बोला यदि उस जगह मैं होता,
सबसे पहले मम्मी मम्मी कर रोता,
सच्ची सच्ची बात बताएँ तो भइया,
अपने मुख से बाहर आता हाय दइया,
गांधीजी की सिचुएशन के जैसे में,
ऊप्पस निकलता मेरे मुख से ऐसे में,
अपने साथ यदि कुछ ऐसा हो जाता,
मुख से उड़ कर उड़िबाबा बाहर आता,
कोई बोला मैं कहता कि मार डाला,
किसी नें कहा मैं कहता अरे साला,
जितने मुख उतनी बातों का घोटाला,
दुनिया सचमुच में है इक गड़बड़झाला,
गांधी जी की मृत्यु के इतने वर्ष बाद,
उनके अंतिम शब्दों पर छिड़ता विवाद,
और बहुत से शब्द उन्होंने बोले थे,
राज़ सत्य और मानवता के खोले थे,
हरिजन और अहिंसा को पहचानो रे,
गांधीजी के आदर्शों को जानो रे,
पहले के शब्दों का समझो सार सार,
फिर जाना अंतिम शब्दों के आर पार,
मत केवल परपंचों का अभियान करो,
हैं विवाद कुछ सच्चे उनका ध्यान करो।