बुधवार, 27 मई 2009

कुछ तो बता ही देगी, इस शहर की खामोशी : श्री समीर लाल समीर की ग़ज़ल के साथ तरही मुशायरे का समापन ।

श्री समीर लाल जी :  तो अब तालियों के साथ स्‍वागत कीजिये समीर लाल जी का जो आ रहे हैं अपनी एन मौके की पांच मिनटि में लिखी ग़ज़ल के साथ । समीर लाल जी के बारे में जितना जानता हूं उससे ये कह सकता हूं कि वे बरसों हास्‍य में अपना समय व्‍यर्थ करते रहे जबकि उनके अंदर तो एक गहन संवेदनशील रचनाकार छिपा है । एक ऐसा रचनाकार जो ऐसी चीजों को पकड़ता है जो आम कवि नहीं पकड़ पाता । मेरी मां लुटेरी थी जैसी अद्भुत रचना लिखने वाले समीर जी को अब हास्‍य केवल गद्य में लिखना चाहिये क्‍योंकि पद्य में वे बहुत अच्‍छी संवेदनशील कविताएं लिख रहे हैं और लिख सकते हैं । इनका काव्‍य संग्रह बिखरे मोती ऐसी ही संवेदनशील कविताओं का संग्रह है  । तो आनंद लीजिये श्री समीर जी की ग़ज़ल का ।

उड़नतशतरी : सब लिख रहे हैं तो ५ मिनट में प्रथम भाव,,,,,पक्का बहर में तो हो नहीं सकते, अब आप बोलोगे कि कैसे ठीक हो..पुराना अनुपस्थित रहने का रिकार्ड यूँ ही थोड़े है :
मरता है वो ही जाने, जहर की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

खुद ही देख लेना ओ! साहिल के सितारों
कितनी खतरनाक है ये लहर की खामोशी

तर्रनुम में कहना जो गज़ल लिख चले हो
खुद ही पता लगेगी, वो बहर की खामोशी

अंजाम-ए-हादसा तो आवाज़ ही ले उड़ा है
कुछ तो बता ही देगी, इस शहर की खामोशी

दी है ये खबर किसने, आपस में लड़ रहे हैं
यूँ बदजुबां न होगी उस कहर की खामोशी.

और अंत में ये फोटो वट सावित्री की पूजा के लिये हमारी माताजी और पत्‍नी जी ने नया तरीका अपनाया । हमारे द्वारा बनाये गये बरगद के बोन्‍साई की ही पूजा की । सही है 45 डिग्री तापमान में बरगद के पेड़ को ढूंढने कहां जायें । ये पेड़ 25 साल पुराना है ।

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सोमवार, 25 मई 2009

आज आप समझेंगे, इस नज़र की खामोशी : कंचन चौहान, काट लूँगा उम्र-भर मैं रह-गुज़र की खामोशी : दिगम्‍बर नासवा, थरथराते होंठों पर ये सिसकती खामोशी : मीनाक्षी धनवंतरी

सबसे पहले तो ये कि मेरे विचार में कुछ ब्‍लाग ऐसे हैं जो कि इंटरनेट एक्‍सप्‍लोरर पर नहीं खुल पा रहे हैं शायद उनमें मेरा ब्‍लाग भी शामिल है । सो यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा हो तो एक काम करें कि इस ब्‍लाग को या तो मोजिला  पर खोलें या फिर गूगल क्रोम पर । क्‍योंकि जो ब्‍लाग इंटरनेट एक्‍सप्‍लोरर पर नहीं खुल पा रहे हैं वे इन दोनों पर खुल रहे हैं ।

एक और अच्‍छी खबर है वो ये कि परम श्रद्धेय कुमार गंधर्व साहब के सुपुत्र श्री मुकुल शिवपुत्र जी के बारे में जो कुछ मैंने लिखा था कि वे फक्‍क्‍ड़ अवस्‍था में घूम रहे हैं तो वैसा होने के पीछे वही कारण था जो अक्‍सर कलाकारों में आ जाता है कि वे अचानक ही मोहभंग वाली स्थिति में आ जाते हैं और उनको ऐसा हो ही जाता है । वो कहते हैं ना जिंदगी को जो समझा जिंदगी पे रोता है तो वैसा ही कुछ कलाकारों के साथ भी हो जाता है । एक और शेर है जिंदगी को क़रीब से देखो इसका चेहरा तुम्‍हें रुला देगा  ।  बस वही बात कलाकारों के साथ भी हो जाती है वे जिंदगी को इतना करीब से देख लेते हैं कि उनको जिंदगी से मोह खत्‍म हो जाता है । कबीर का फक्‍कड़पन हो या सूफी संतों का फक्‍कड़पन उसमें एक प्रकार का जिंदगी पर हंसने का भाव होता है । खैर अच्‍छी खबर ये है कि मध्‍यप्रदेश के संस्‍कृति मंत्री श्री लक्ष्‍मीकांत शर्मा  ने एक बहुत अच्‍छा काम किया है । वैसे श्री शर्मा एक अत्‍यंत साहित्‍य अनुरागी प्राणी हैं । वे कवि सम्‍मेलन में स्‍वयं मंच से नीचे श्रोताओं में बैठ कर पूरा कवि सम्‍मेलन सुनते हैं । खैर तो श्री शर्मा ने श्री शिवपुत्र को भोपाल में रहने पर राजी कर लिया है और अब संस्‍कृति विभाग भोपाल के संस्‍कृति भवन में ही एक खयाल गायकी का प्रशिक्षण केन्‍द्र आज से प्रारंभ करने जा रहा है जहां पर श्री मुकुल शिवपुत्र नयी प्रतिभाओं को खयाल गायकी सिखाएंगें । आज शाम सात बजे उस केन्‍द्र का उद्घाटन है ।

चलिये आज बात करते हैं अंतिम दौर के शायरों की जिनमें दो शायराएं भी हैं ।

कंचन चौहान  ग़ज़ल की पाठशाला की सबसे पुरानी सदस्‍य हैं कहें तो पिछले दो सालों से कक्षा में हैं । इनकी एक और विशेषता ये है कि ये खूब मन लगाकर पढ़ती तो हैं लेकिन होमवर्क करने का नाम जान पर बनती है । जितना मैं जानता हूं उससे तो ये ही पता चलता है कि ये पूरे ब्‍लाग जगत की सबसे चहेती कवियित्री हैं हां ये अलग बात है कि अपने ब्‍लाग पर कविता कम करती हैं चटर पटर बातें ज्‍यादा करती हैं । तो सुनिये इनकी ग़ज़ल ।

कंचन चौहान - तरही मुशायरा शुरू भी हो गया और हम वादा फिर नही पूरा कर पाये। मगर तरही मुशायरा में तकीतई और चीरफाड़ ना होने का फायदा उठा कर, कल रात के २ बजे जो सामने आया, वो भेज रही हूँ, इस डर से कि हर बार गोल करने से कहीं गुरुकुल से मुझे ही ना गोल कर दिया जाये। मीटर पर नही बैठाया है, बस लय में आ रहा था, लिखती चली गई।

जान ले के जायेगी, ये कहर की खामोशी,
कब खुदारा टूटेगी, उस नज़र की खामोशी।

आँख भीग कर सारे भेद खोल जाती है,
हम छिपा न पाते हैं, दिल जिगर की खामोशी।

पैर के निशाँ बेशक, ले गई लहर लेकिन,
मन में अब भी बैठी है, रेत पर की खामोशी।

रोज आप आते हैं, रोज सोचते हैं हम,
आज आप समझेंगे, इस नज़र की खामोशी।

आपके मिजाजों से, और गर्म लगती है,
कितनी जानलेवा है, दोपहर की खामोशी

पा के शोर करता है, है अजब ये सागर भी,
दे के कुछ नही कहती, है लहर की खामोशी

कंचन आपको लय छंद की जरूरत क्‍या है जो भी गा दो वो गीत हो जाये ।

दिगम्‍बर नासवा दिगम्‍बर नासवा की छंदमुक्‍त कविताओं का मैं जबरदस्‍त प्रशंसक हूं । विशेषकर प्रेम की कविताओं में वे जो बिम्‍ब लाते हैं वे अनोखे होते हैं । जहां तक ग़जल की बात है तो अभी बहुत लम्‍बा सफर तय करना है । किन्‍तु ये अच्‍छी बात है कि वे लिख रहे हैं और अब बहुत आत्‍म विश्‍वास के साथ लिख रहे हैं । और जो सबसे अच्‍छी बात है वो ये है कि उनके पास भाव हैं । जिसके पास भाव हैं उसे व्‍याकरण तो सिखाया जा सकता है लेकिन जिसके पास केवल व्‍याकरण हो उसे भाव कौन सिखायेगा । तो लीजिये ग़ज़ल

नफरतों से देखती तेरी नज़र की खामोशी

मार ना दे फिर मुझे तन्हा सफ़र की खामोशी

धूप की गठरी सरों पर बूँद भर पानी नहीं

कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

चाहता हूँ खोलना दिल की किताबें बारहा

बोलने देती नहीं है उम्रभर की खामोशी

तू मेरी तन्हाई में चुपके से आ जाना कभी

में कहाँ सह पाऊंगा खूने-जिगर की खामोशी

तू जो मेरे साथ कर दे अपनी यादों के चिराग

काट लूँगा उम्र-भर मैं रह-गुज़र की खामोशी

शाम होते ही बुझा देता हूँ मैं घर के चिराग

जुगनुओं से महकती है मेरे घर की खामोशी

मीनाक्षी धनवंतरी जी  आप ग़ज़ल की कक्षाओं की सबसे पुरानी स्‍टूडेंट हैं लेकिन कुछ दिनों से गायब थीं और इस मुशायरे के लिये अचानक ही प्रकट हुईं हैं । बीच में माड़साब ने काफी अनुपस्‍थिति लगाई है रजिस्‍टर में । मीनाक्षी जी ने ई की मात्रा को काफिया बनाकर एक कविता निकाली है ।  बहुत दिनों बाद आयीं हैं अत: आज काफिया गलत पकड़ने पर कोई सजा नहीं । सुनिये ग़ज़ल  ।

मेरे बेजुबाँ लफ़्ज़ों पर हँसती सी खामोशी
कहती मुझे, तोड़ तू भी अपनी खामोशी
खुश्क आँखों में ठहर गई वीरान सी खामोशी
थरथराते होंठों पर ये सिसकती  खामोशी
सूरज की मार से सहमी दिशाओं की खामोशी
तपते रेगिस्तान में ये  जलाती  खामोशी
कहती मुझे, तोड़ तू भी अपनी खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

तो चलिये आनंद लीजिये इन ग़ज़लों का और मुझे आज्ञा दीजिये । अगली कक्षा में मिलते हैं कुछ नयी जानकारियों के साथ ।


 

शनिवार, 23 मई 2009

जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी : अभिनव शुक्‍ला, काफिया समझ ना आये ना बहर की खामोशी : प्रकाश अर्श

पता नहीं क्‍या हो रहा है कि इन दिनों मेरा ब्‍लाग कई बार पेरशानी कर रहा है खुलते खुलते ही अचानक नहीं खोला जा सकता का पेज आ जाता है और डुम से बंद हो जात है । ऐसा केवल मेरे ब्‍लाग पर ही नहीं हो रहा है बल्कि कई सारे ब्‍लागों पर हो रहा है । किन्‍तु ये भी सही है कि ऐसा इंटरनेट एक्‍सप्‍लोरर पर ही हो रहा है गूगल क्रोम पर तो ठीक आ रहा है ब्‍लाग । उसी के कारण ये हुआ कि एक पोस्‍ट को लगा कर हटाना पड़ा और फिर दूसरे दिन फिर से लगाना पड़ा । तो अब यदि ये ब्‍लाग नहीं खुल पाये तो गूगल क्रोम में या फिर मोजिला में खोल कर देखें ।

तरही को लेकर जो मैंने कहा कि मैं अब इसके स्‍थान पर कुछ और करना चाहता हूं तो उसके पीछे भी कई कारण हैं जैसा कि मैंने पिछली पोस्‍ट में बताया था कि जनाब रामपाल अर्शी जो कि एक बड़े शायर हुए हैं उनकी एक ग़ज़ल का बहुत ही सुंदर मकता है कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी, न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये । आप देखें तो दोनों मिसरों में ग़ज़ब का तारतम्‍य है । बरसों पहले इसी मकते के मिसरा सानी को किसी तरही मुशायरे में दिया गया और तब के एक युवा शायर ने उस पर गिरह कुछ इस प्रकार बांधी उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये ।  शेर अच्‍छा है किन्‍तु आप बहुत गौर से देखें तो दोनों मिसरों में कोई तारतम्‍य नहीं है । चूंकि जिंदगी की शाम हो जाने का सीधा अर्थ होता है मौत हो जाना । अत: रामपाल अर्शी साहब का शेर मुकम्‍म्‍ल था क्‍योंकि वहां पहले मिसरे में कफ़न था और दूसरे में मौत थी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । किन्‍तु बशीर बद्र साहब ने जो उपयोग किया है उसे जिंदगी की शाम के स्‍थान पर सफर में शाम की तरह किया है । अर्थात हम कह रहे हैं कि अपनी यादों के उजाले हमारे साथ रहने दो जाने कहां सफर में शाम हो जाये । ये तो ठीक है । किन्‍तु जिंदगी की शाम के साथ कहीं कोई तारतम्‍य नहीं हैं । किन्‍तु आज रामपाल अर्शी को कोई नहीं जानता सब ये ही जानते हैं कि ये शेर बशीर बद्र साहब का ही है । इसी प्रकार का एक दिलचस्‍प वाक़या श्री आलोक श्रीवास्‍तव जी का भी है वो कभी विस्‍तार से बताऊंगा ।

आज बात करते हैं हम तीन युवा तुर्कों की । आज की ग़ज़लों में आपको बहर के दोष दिखाई दे सकते हैं । लेकिन चूंकि ये सीधा प्रसारण है इसलिये ऐसा ही होगा ।

सबसे पहले लेते हैं ग़ज़ल की पाठशाला के सबसे होनहार छात्र अभिनव शुक्‍ला को । किसी कारण से इन दिनों बहुत व्‍यस्‍त हैं तथा ब्‍लागिंग से भी दूर ही हैं । अभिनव बहुत अच्‍छे कवि हैं और गाते भी बहुत अच्‍छा हैं उनकी आवाज़ में कुछ कविताएं सुनने का मौका मुझे पिछले दिनों मिला । चलिये पहले तो सुनते हैं उनकी ग़ज़ल । ग़ज़ल पूरी तरह से बहर में भी है और कहन में भी है ।

रहगुज़र की खामोशी हमसफ़र की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,

हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,

और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,

हम करीब होकर भी दूर दूर रहते हैं,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर,
साथ सिर्फ़ कुछ के है उस डगर की खामोशी.

एक शेर मुझे खास पसंद आया है और क्‍या कहूंगा मैं वाला । इसका मिसरा सानी बहुत मासूम है  ।

चलिये अब बात करते हैं प्रकाश अर्श की । प्रकाश का नाम इन दिनों नये रचनाकारों में तेजी से सामने आ रहा है । प्रकाश एक भावुक और कम बोलने वाले इंसान है । और मेरे विचार में ग़ज़ल की पाठशाला के एकमात्र छात्र हैं जिनसे मैं रूबरू भी मिल चुका हूं । । तो सुनिये ग़ज़ल ।

 

कौन घर ले आया है दर बदर की खामोशी

कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी .

साथ उसका पाने को हम चले थे कांटो पे
वो समझ सका भी ना हम सफ़र की खामोशी ..

खुश है दूसरो का घर वो जला के लो कैसे
कल बताएगा वही अपने घर की खामोशी ...

अब समझ गया हूँ मैं जिस्म लूटती है क्यूँ
आबरू बचाए कैसे यूँ शह्र की खामोशी ...

लाफ हम भी तो रक्खे है ज़ुबां पे अपनी पर
आज सुन रहा हूँ दीवारों दर की खामोशी...

अर्श ये ग़ज़ल कैसे पूरी होगी क्‍या जाने
काफिया समझ ना आये ना बहर की खामोशी ...

तो आनंद लीजिये इन दोनों का और अगले अंक में मिलिये दो शायराओं और एक शायर से ।

गुरुवार, 21 मई 2009

चीरती-सी जाती है अब ये घर की खामोशी : गौतम राजरिशी, कह रही थी कल मुझसे रहगुजर की खामोशी : वीनस केसरी

बशीर बद्र जी का मशहूर शेर 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये' ये शेर वास्‍तव में उन्‍होंने तरही में लिखा था । और मूल मिसरे न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये पर गिरह बांधी थी । मगर आज इस शेर को बशीर बद्र के नाम से ही जाना जाता है । मुझे भी पिछले कुछ दिनों से लग रहा है कि ये ठीक नहीं है । किसी भी शायर की जमीन पर काम करना । इसलिये आगे से हम तरही के स्‍थान पर समस्‍या पूर्ती का काम प्रारंभ करेंगें । इसको कविता की वर्क शाप भी  कहा जाता है । मिसरा किसी शायर का नहीं होगा । बस यूं ही हवा में से एक वाक्‍य पकड़ कर उसको मिसरा बना लेंगें और उस पर काम करेंगें । वैसे नीरज जी के पास भी एक दिलचस्‍प प्रयोग है जो शीघ्र ही वे अपने ब्‍लाग पर लगाने वाले हैं । वो एक बिल्‍कुल ही अलग तरह का प्रयोग है । यदि वो लोकप्रिय होता है तो हम उस पर भी काम कर सकते हैं ।

चलिये आज हम दो शायरों को लेते हैं तरही मुशायरे में । ये दोनों ही शायर उर्जावान हैं और बहुत अच्‍छा लिख रहे हैं । जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि तरही में जस का तस प्रस्‍तुत करने का रिवाज है सो ये ग़ज़लें अपने मूल रूप में प्रस्‍तुत हैं ।

गौतम राजरिशी

गौतम के बारे में मेरा ये मानना है कि वो एक भावुक मगर प्रेक्टिकल इन्‍सान है । ये एक नई परिभाषा है । वैसे होता ये है कि जो भावुक होता है वो प्रेक्टिकल नहीं होता । लेकिन गौतम ने एक नई प्रजाति मानव की ईजाद की है जो भावुक होने के साथ प्रेक्टिकल भी है । चूंकि कई जगहों पर व्‍यक्तित्‍व विकास और सकारात्‍मक सोच को लेकर व्‍यख्‍यान देने जाता हूं इसलिये लोगों पर नजर रखना एक आदत सी है । गौतम के बारे में जितना जाना है वो ये कि गौतम संवेदनशील इंसान है जो दिल से सोच कर दिमाग से अमल करता है । दरअसल में मानव की दो प्रकार की प्रजातियां होती हैं एक वो जो दिल से सोचती हैं ये भावुक प्रजाति होती है । दूसरी वो जो दिमाग से सोचती है ये यथार्थवादी प्रजाति होती है । पहली प्रजाति अब लुप्‍तप्राय है किन्‍तु गौतम ने उसी प्रजाति में दूसरी प्रजाति का डीएनए मिलाकर एक नयी प्रजाति बनाई है जो दिल से सोचती है तथा दिमागं से स्‍वीकृति लेकर अमल करती है । मोबाइल पर जितना जाना है उससे ये तो कह सकता हूं कि गौतम के जो भी मित्र होंगें वे बहुत खुशकिस्‍मत होंगें कि उनको बहुत अच्‍छा मित्र मिला है । ये ग़ज़ल गौतम ने उस माहौल में रची है जहां बारूद और धुंआ है । शायद इसीलिये कहते हैं कि प्रेम हर स्‍थान पर अपनी जगह तलाश लेता है ।

                                                       और ये रही ग़ज़ल

बस गयी रगों में दीवारो-दर की खामोशी

चीरती-सी जाती है अब ये घर की खामोशी

सुब्‍ह के निबटने पर और शाम ढ़लने तक

कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

चल रही थी जब मेरे घर के जलने की तफ़्तीश

देखने के काबिल थी इस नगर की खामोशी

काट ली हैं तुम ने तो टहनियाँ सभी लेकिन

सुन सको जो कहती है क्या शजर की खामोशी

छोड़ दे ये चुप्पी, ये रूठना जरा अब तो

हो गयी है परबत-सी बित्‍ते भर की खामोशी

देखना वो उन का चुपचाप दूर से हम को

दिल में शोर करती है उस नजर की खामोशी

जब से दोस्तों के उतरे नकाब चेहरे से

क्यूं लगी है भाने अब दर-ब-दर की खामोशी

पड़ गयी है आदत अब साथ तेरे चलने की

बिन तेरे कटे कैसे ये सफर की खामोशी

              

और अब दूसरे शायर की बात करें

वीनस केसरी 

वीनस को मैंने जितना जाना है उससे ये कह सकता हूं कि एक फिल्‍म आई थी जुदाई जिसमें कि परेश रावल के सर पर प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह हुआ करता था । क्‍योंकि परेश के पास काफी प्रश्‍न होते थे । मुझे यदि वीनस से मिलना हो तो मैं सबसे पहले एक प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह वीनस पर भी लगा दूं । बात हंसी की नहीं है लेकिन सच यही है कि प्रश्‍न होना आदमी के जिन्‍दा होने का सुबूत होता है । हमने प्रश्‍न ही तो बंद कर दिये हैं । हम नेताओं से नहीं पूछते कि ऐसा क्‍यों । हम अपने बच्‍चों से नहीं पूछते कि कल कहां थे । हम अफसरों से नहीं पूछते कि सड़कें और नहरें कहां गईं हैं । हम अपने चुने हुए जनप्रतिनिधियों से नहीं पूछते कि महोंदय जो वादे आपने किये थे उनका क्‍या । हम पत्रकारों से नहीं पूछते कि महोदय ये जो कल शहर का एक गुंडा जिला बदर हुआ है उसका समाचार पेपरों में क्‍यों नहीं छपा । हम किसी से कुछ नहीं पूछते, जबकि हकीकत ये है कि प्रश्‍नों से इन सबको डर लगता है । क्‍योंकि उनके पास उत्‍तर नहीं हैं । जिस दिन हम प्रश्‍न पूछना फिर से प्रारंभ कर देंगें उस दिन बदलाव आयेगा । खैर वीनस एक अच्‍छा हस्‍ताक्षर है । ये भी अमिताभ की तरह छोरा गंगा किनारे वाला है । इलाहाबाद निवास है । और पुस्‍तकों के बीच रहते हैं । उत्‍सुकता बहुत है वीनस में और शायद इसी कारण निराश भी जल्‍दी होते हैं । बहर की कक्षा को प्रारंभ करने के लिये माड़साब को सबसे जियादह मेल वीनस के ही मिलते हैं । और ये भी कि वीनस की ग़ज़लों में बहर के दोष लगभग नहीं के बराबर होते हैं ।

चलिये सुनिये ग़ज़ल

देख लबकुशाई हैरां है मेरे घर की खामोशी
रंग लायेगी मेरे मोतबर के खामोशी

कह रही थी कल मुझसे रहगुजर की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

खुश खफा मोहब्बत गम नाज़ नखरे अपनापन
कितने हुनर समेटे है हमसफ़र की खामोशी

इन निगाहों को पढ़ कर कुछ तो समझे होंगे वो
टूटती नहीं क्यों उनकी नजर के खामोशी

तो आनंद लीजिये ग़ज़लों का ।

सोमवार, 18 मई 2009

बधाई हो बधाई जनमदिन की तुमको । रविकांत के जन्‍मदिन पर रविकांत की ही ग़जल के साथ प्रारंभ करते हैं तरही मुशायरा ।

इस बार के तरही मुशायरे को लेकर बार बार दिक्‍कत आ रही थी । पहली बार तो मिसरा ही बदलना पड़ा । और बाद में भी जो मिसरा दिया गया उसे लेकर भी कुछ उलझन में सब रहे और उसी कारण से उतनी सारी प्रविष्टियां नहीं मिल पाईं । इस बार का जो मिसरा था वो था । कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी, मध्‍यप्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव तथा बहुत अच्‍छी शायरा नुसरत मेहदी जी की ग़ज़ल में से ये मिसरा लिया गया था । बहरे हजज मुसमन अशतर में है ये मिसरा जिसका कि वजन होता है 212-1222-212-1222, ये एक गाई जाने वाली बहर है जो कि बहुत सुंदर धुन पर गाई जाती है । तरही में कई सारे प्रयेग किये गये हैं । किन्‍तु आज हम केवल रविकांत की ही बात कर रहे हैं क्‍योंकि आज यानि 18 मई को रविकांत का जन्‍मदिन है । कुछ दिनों पहले ही उनकी शादी हुई है तथा पत्‍नी के साथ वे अपना पहला जन्‍मदिन आज मनाने जा रहे हैं । रविकांत पांडेय बहुत अच्‍छे शायर हैं लेकिन शादी के बाद से कुछ सुस्‍त हो रहे हैं खैर उसमें भी चिंता की कोई बात नहीं सभी होते हैं । तो आज सबसे पहले तो पूरे ब्‍लाग जगत की ओर से उनको जन्‍मदिन की शुभकामनाएं । जो लोग सीधे ही मोबाइल से देना चाहें तो वे 09889245656 पर दे सकते हैं ।

खैर तो तरही मुशायरे की जो नियम हमने बना रखा है कि जैसा जो भी भेजेगा उसे बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया जायेगा । उसमें किसी प्रकार से भी बहर या कहन का सुधार पाठशाला में नहीं किया जायेगा । कठिन बहर थी इसलिये ये तो तय है कि दोष तो होंगें ही । लेकिन उन दोषों के साथ ही देने का आनंद ये है कि इससे लिखने वाले के विचार जस के तस सामने आ जाते हैं । तो पहले बर्थडे ब्‍वाय से मिलें ।

                                                      Ravi-RPG

चित्र में दाहिनी और उनके एक मित्र हैं जिनका जन्‍मदिन 16 मई को होता है किन्‍तु दोनों मिलकर 18 को ही अपना जन्‍मदिन मनाते हैं । तो सारे ब्‍लाग जगत की ओर से रविकांत और उनके मित्र को जन्‍मदिन की बधाई । और हम सब की ओर से ये केक

                                                                   cake

 

क्या बताऊं फैली है किस कदर की खामोशी
काटती है रह-रह कर आज घर की खामोशी

खो गईं कहां वो किलकारियां सवेरे की
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी

साथ-साथ चलकर भी दूरिया न मिट पाईं
पीर की बनी पोथी हमसफ़र की खामोशी

प्रातकाल चकवा-चकई मिले नदी तट पर
आंख से लगी बहने रात भर की खामोशी

दुश्मनों को मेरे घर का दिया पता किसने
साफ कह रही मेरे मित्रवर की खामोशी

प्यार, वार, धोखा, गुस्सा, करम, सितम, शोखी
कितने गुल खिलाती है इक नज़र की खामोशी

झूठ है कि मुश्किल थोड़ी भी राह पनघट की
है कठिन अगर कुछ तो उस डगर की खामोशी

खा गई सभी रिश्ते सभ्यता नये युग की
चीख-चीख कहती चौपाल पर की खामोशी

याद की बही गंगा आज देख ली जबसे
मेरे मन-भगीरथ ने तन-सगर की खामोशी

खाक में मिलेगी ये जिंदगी इमारत सी
रात-दिन बताती है खंडहर की खामोशी

चलिये आनंद लीजिये रविकांत की इस ग़ज़ल का और बधाइयां दीजिये रवि को जन्‍मदिन की आखिर को ये रवि का पहला शादीशुदा जन्‍मदिन है । ( मेरे ज्ञान के अनुसार) ।

शुक्रवार, 15 मई 2009

भाषा लोक से आती है, जन से आती है और उसी को क्रमश: शब्‍दकोषों में, व्‍याकरणों में स्‍थान मिल जाता है । तो कौन तय करेगा कि क्‍या ठीक है, लोक या व्‍याकरणाचार्य ?

मठों से और मठाधीशों से मुझे हमेशा से ही एक चिड़ सी रही है । रवायतों और परम्‍पराओं की दुहाई देने वालों से मेरी कभी नहीं निभती । मुझे हमेशा से ही ये लगता है कि जो कुछ भी बदले जाने योग्‍य है उसे बदला ही जाना चाहिये और जो कुछ बदले जाने योग्‍य नहीं है उसको नहीं बदला जाना चाहिये । वे सभी रवायतें और परम्‍पराएं जो कि समय के साथ असहज होती जा रही हैं और अपना आधार खोती जा रही हैं उनको बदला ही जाना चाहिये । किन्‍तु मठ और मठाधीशों की दुकाने तो उन परम्‍पराओं के कारण ही चलती हैं । अगर उनको ही बदल दिया गया तो ये दुकानें कैसे चलेंगी । एक सच सुनकर शायद कई लोगों को मुझ पर क्रोध आये और कई लोग हो सकता है मेरे बारे में मान्‍यता बदल लें लेकिन सच यहीं है कि मैं मंदिरों में नहीं जाता । ये भी सच है कि ईश्‍वर में अटूट आस्‍था है और उसको महसूस किया है लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मंदिर और कुछ नहीं है बस एक दुकान है और दुकानदार वहां का पंडा या पुजारी है । मैं हमेशा से ऐसा नहीं था लेकिन पिछले कुछ सालों से ऐसा हो गया हूं ।

आज का ये इन्‍ट्रोडक्‍शन क्‍यों ? दरअसल में उसके पीछे भी एक कारण है । भाषा को लेकर बड़ा द्वंद चलता है । और विशेषकर हिंदी बेल्‍ट में तो भाषा को लेकर काफी उठापटक रहती है । और ये उठापटक है भाषा के शब्‍दों और उनके उपयोग को लेकर । चूंकि कई सारे शब्‍द इधर उधर के हैं अत: ये हंगामा हमेशा रहता है कि ये शब्‍द तो इस प्रकार उच्‍चारित होता है । दुष्‍यंत को सारी उम्र रवायतों के हिमायतियों से सामना करना पड़ा, बाद में दुष्‍यंत की शायरी ने वो किया जो तथाकथित परम्‍परावादी जीवन भर नहीं कर पाये । एक शेर को बार बार मैं कोट करता हूं सतपाल जी ने बताया कि ये शेर अदम गोंडवी जी का है ।

ग़ज़ल को ले चलो अब गांव  के    दिलकश नज़ारों में

मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

( अदबी इदारा : साहित्यिक संस्‍था )

मुझे नहीं लगता के आगे कुछ कहने की ज़रूरत है । खैर तो बात ये कि कौन तय करेगा कि क्‍या ठीक है और किस आधार पर । यदि व्‍याकरणाचार्यों की सुनें तो दुष्‍यंत एक निम्‍न स्‍तर का शायर है और यदि लोक की सुनें, जन की सुनें तो दुष्‍यंत हिंदी का सबसे बड़ा शायर है । तो किसकी बात को सही माना जाये परम्‍परवादियों की, या उस जन की जो परम्‍पराओं से छुटकारा चाहती है । हिंदी में एक वाक्‍य है ' अब तो वहां जाकर के ही देखेंगें ' , या एक और वाक्‍य है ' पास आकर के देखो' । अब हम उदाहरण लेते हैं वाक्‍य 'पास आकर के देखो' का इसमें से 'के' को हटा दें तो वाक्‍य बनता है ' पास आकर देखो'  । अब कई बार उच्‍चारण करें दो वाक्‍यों का ।

पास आकर देखो

पास आकर के देखो

क्‍या दोनों वाक्‍यों की ध्‍वनियों में कोई परिवर्तन नहीं लग रहा है । दरअसल में ये विशुद्ध हिंदी की ध्‍वनियां हैं । हिंदी जो मेरे विचार में विश्‍व की सर्वश्रेष्‍ठ भाषा है । हिंदी विश्‍व की सबसे वैज्ञानिक भाषा है । इसलिये कोई दूसरी भाषा का हिमायती ( भाषा का नाम लेना आवश्‍यक नहीं है ) यदि इन दोनों वाक्‍यों को पढ़ेगा तो उसे दूसरे वाक्‍य में जो के शब्‍द आ रहा है वो अतिरिक्‍त लगेगा । किन्‍तु हिंदी का जानकार जब पढ़ेगा तो उसे पता होगा कि दूसरे वाक्‍य में जो के आ रहा है वो भाषा के लालित्‍य, भाषा के सौंदर्य का एक प्रयोग है जो कि केवल हिंदी में ही होता है । अब ये जो के  है ये क्‍या कर रहा है इसको जानें । दरअसल में ये जो के  है ये कोई अतिरिक्‍त नहीं है ये तो एक प्रयोग हैं । यदि आप पहले वाक्‍य को देखेंगें तो उसमें प्रेम नहीं है, मनुहार नहीं है, बल्कि एक प्रकार का रूखापन है । या यूं कह सकते हैं कि उसमें एक प्रकार की धमकी जैसी दिखाई दे रही है । दूसरे में जो के  आया है उसने वाक्‍य का सौंदर्य बढ़ा दिया है । अब उसने उस वाक्‍य में सब कुछ भर दिया है, सौंदर्य भी, लालित्‍य भी, मनुहार भी और बहुत कुछ । लेकिन भाषा का लालित्‍य विश्‍व की केवल एक ही भाषा में होता है हिंदी में । इसलिये यदि भाषा के लालित्‍य का समझना है तो हिंदी में सोचना होगा । इस के  को ग़ज़लों में अवांछित माना गया है और बिना इसके प्रयोग को देखे इसको भर्ती  का शब्‍द बता दिया जाता है ।

भाषा लोक से जन्‍म लेती है । लोग जो कुछ बोलते हैं वही भाषा होती है । और भाषा के शब्‍द भाषा के नियम सब लोक से आते हैं । एक भाषा के नियम दूसरी पर भी चलते हों ये नहीं हो सकता । जैसे उर्दू में हिंदी के ब्राह्मण को बिरहमन  कर दिया गया है हिंदी के पृथ्‍वी  को पिरथवी  कर दिया गया । उसको लेकर हिंदी ने कभी आपत्‍ती नहीं उठाई के ये तो ग़लत उच्‍चारण है । तो फिर जब हिंदी में उर्दू के शह्र को शहर किया गया तो उस पर भी आपत्‍ती नहीं होनी चाहिये । दरअसल में लोग किसी शब्‍द को जब दूसरी भाषा से लेते हैं तो वे उसका उच्‍चारण भी कुछ परिवर्तित हो जाता है । और जब एक भाषा के शब्‍द दूसरी में जाते हैं तो उच्‍चारण बदल ही जाता है । ऐसे में यदि मूल भाषा के व्‍याकरणाचार्य आपत्‍ती उठायें कि नहीं ये तो ग़लत उच्‍चारण है तो भी जन या लोक उस उच्‍चारण को बदलते नहीं हैं । क्‍योंकि ये बचपन से जुबान, तालू, दांत और दिमाग में होता है कि किस अक्षर को कैसे कहना है । यदि आप ध्‍यान से सुनें तो सब  टीवी के धारावाहिक गनवाले दुल्‍‍हनिया ले जायेंगें  में एक लड़की जो टाइगर  की प्रेमिका बनी है वो को   उच्‍चारित करती है । क्‍योंकि बचपन से उसे ये ही अभ्‍यास में हैं । जैसे उर्दू में ज़ात  में   पर नुक्‍ता लगता है हिंदी में वो  जात होती है । ( जात न पूछो साधु की ) ।  हमने अंग्रेजों को इसलिये नहीं भारत से भगाया कि वे ट,ठ,ड,ढ  को ठीक प्रकार से उच्‍चारण नहीं कर पाते थे । उनको भगाने के पीछे दूसरे कारण थे । वे नहीं कर पाते थे क्‍योंकि उनका मुंह की आंतरिक संरचना तथा जुबान इन शब्‍दों पर ठीक प्रकार से कार्य नहीं करती थी । मैंने पूर्व में एक बार बताया है कि दो हजार साल पहले खाड़ी के देशों के लोग   को  ह  बोलते थे । इसी उच्‍चारण की गड़बड़ी से जन्‍मा है नाम हिंदू  तथा हिंदुस्‍तान । क्‍योंकि सिंधू नदी से हमारी पहचान थी और उसी सिंधू को हिंदू  कहकर पुकारा जाता था । अरब की उन्‍हीं बंजारा जातियों के वंशज आज भी राजस्‍थान में हैं जो लोहापीटा बंजारे हैं ये भी आज तक सबेरे को हबेरे  कहते हैं अर्थात वही   को । यही जब यूनान पहुंचा तो वहां इसे   मिला अर्थात  ह  को   उच्‍चारण वहां होता था  । तो ये ही सिंधु जो कि अरब में हिंदू हुआ वहीं यूनान में का उच्‍चारण होने के कारण इंदू हुआ जिससे फिर बना इंडिया । ( आचार्य रामधारी सिंह दिनकर स्‍मृति स्‍मारिका 2008 में उस पर मेरा एक विस्‍्तृत आलेख है मिलें तो पढें ) ।

अग्रज कवि श्री नीरज गोस्‍वामी जी neerajgoswami की दो ग़ज़लें मुझे बहुत आनंद देती हैं जिनमें मुंबइया भाषा का प्रयोग हुआ । आनंद क्‍यों ? क्‍योंकि इनमें जन की भाषा का प्रयोग है, लोक की भाषा का प्रयोग है । क्‍या वो जन इतना बुरा है कि उसकी भाषा में साहित्‍य ही न रचा जाये । क्‍या साहित्‍य केवल चंद एलीट या अदबी लोगों के लिये ही है । नहीं तुलसीदास ने जब संस्‍कृत को छोड़कर भाखा ( जन भाषा) में मानस की रचना की तो संस्‍कृत वालों ने खूब हंसी उड़ाई, किन्‍तु आज समय ने बताया कि तुलसी कहां हैं और दूसरे कवि कहां हैं । मुझे पसंद आती हैं श्री द्विजेंद्र द्विज जी   images[11] की ग़ज़लें क्‍योंकि वो आम आदमी की भाषा में बात करती हैं जैसे

इन्‍हीं हाथों ने बेशक विश्‍व का इतिहास लिक्‍खा है

इन्‍हीं   पर   चंद   हाथों   ने   मगर   संत्रास   लिक्‍खा है

या

जाने कितने ही उजालों का दहन होता है

लोग   कहते   हैं   यहां   रोज हवन  होता है

या फिर श्री आलोक श्रीवास्‍तव जी  की BK-032  ग़ज़लें जो बिना किसी ताम झाम के केवल जन की बात करती हैं ।

घर में झीने झीने रिश्‍ते मैंने रोज उधड़ते देखे

चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्‍मा

इस शेर पर हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह जी ने 125200972513272_m कहा कि तुरपाई शब्‍द संभवत: काव्‍य में पहली बार प्रयोग किया गया है और इतनी सुंदर जगह प्रयोग किया गया है ।

मैं स्‍वयं पैदाइशी विद्रोही हूं, मेरा मानना है परम्‍पराएं कुछ नहीं होतीं, जो जन तय करता है वही परम्‍परा होती है ।

अंत में सबसे क्षमा चाहता हूं । मुझे लगा कि ये कहना आज जरूरी है सो कहा । तुलसी से लेकर दुष्‍यंत तक हमारे पास उदाहरण हैं कि जिसने विद्रोह किया रवायतों से परम्‍पराओं से वही अमर हुआ और कालजयी हुआ तो फिर भी हम कुछ सीखते क्‍यों नहीं ।

खैर काफी लम्‍बा हो गया है सो विराम देता हूं । मिलिये आज मेरी दोनों बिटियाओं परी और पंखुरी  से ।

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मंगलवार, 12 मई 2009

सुनो छोटी सी प्रीति की लम्‍बी कहानी, निम्‍न मध्‍यम वर्गीय श्रमिक की बेटी के आइ ए एस बनने की गाथा ।

प्रीति मध्‍यप्रदेश के सीहोर जिले से बनने वाली पहली आइएएस अधिकारी होगी । 92 वीं रैंक के साथ उसका सिलेक्‍शन हुआ है । मगर सबसे महत्‍वपूर्ण है उसके आइएएस बनने की कहानी एक साधारण या बल्कि कहें कि निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार से निकली ये लड़की आइएएस में चयनित हो गई है । अनारक्षित वर्ग से निकली ये लड़की संघर्ष और हौसलों की एक अनोखी कहानी है ।

सोमवार का दिन एक गहरे अवसाद के साथ प्रारंभ हुआ मेरे लिये । और उस अवसाद का कारण था किसी जगह पर की गई मेरे बारे में एक बहुत ही अशालीन और दुखी कर देने वाली  टिप्‍पणी को पढ़कर । यूं तो पिछले कई दिनों से मुझे लग रहा था कि मुझे लेकर कई लोग असहज नहीं हैं । एक दो जगहों पर अप्रत्‍यक्ष रूप से मुझे नीचा दिखाने का प्रयास किया गया । किन्‍तु सोमवार को तो बस । ब्‍लागिंग समाप्‍त करने की पोस्‍ट अंतिम  लिख रहा था कि बिजली चली गई । अधूरी पोस्‍ट रह गई और उसी बीच आ गया गौतम का फोन जिसने अवसाद का हटा दिया । और फिर कुछ ही देर बाद आया श्री आलोक श्रीवास्‍तव जी का फोन । काफी लम्‍बे समय तक उनसे बात हुई । और कई बातें उन्‍होंने ऐसी कहीं कि अवसाद लगभग घुल गया ।

चलिये वो सब बातें छोड़ें जो बीत गई वो बात गई । आज तरही होना था लेकिन आज आपको प्रीति मैथिल की कहानी सुनाने की इच्‍छा है । प्रीति जो मेरे जिले की पहली आईएएस बनने जा रही है । कहानी सुनाना इसलिये जरूरी है कि उसकी कहानी में वो सब कुछ है जो एक विजेता की कहानी में होता है । प्रीति के पिता स्‍थानीय शुगर फैक्‍ट्री में श्रमिक थे । लगभग दस साल पहले अच्‍छी चलती हुई ये फैक्‍ट्री राजनैतिक महात्‍वाकांक्षा की भेंट चढ़ी और बंद कर दी गई । उसीके साथ हजारों लोगों के भविष्‍य पर भी ताला लग गया । कई आत्‍महत्‍याएं हुईं बहुत कुछ हुआ और एक आंदोलन भी प्रारंभ हुआ जो आज तक भूख हड़ताल के रूप में चल रहा है शायद ये इंतिहास की सबसे लम्‍बी हड़ताल है जो दस सालों से सीहोर के कलेक्‍ट्रेट के सामने चल रही है । जब मिल बंद हुई तो प्रीति का परिवार भी सड़क पर आ गया । और प्रारंभ हुआ संघर्ष का दौर । तब प्रीति 13 साल की थी और परिवार का संघर्ष उसने आंखों से देखा । पिता ने एक छोटे से जमीन के टुकड़े  पर किसानी प्रारंभ की  और परिवार को पाला । जमीन का टुकड़ा जो स्‍वयं का भी नहीं था और इतना भी नहीं था कि उससे एक परिवार का पालन हो । शुगर मिल के बंद होने में कलेक्‍टरों की भूमिका को देख कर सब आक्रोशित थे और यही आक्रोश था प्रीति के मन में भी । उसने घर की भीषण तंग स्थिति में भी निर्णय लिया कि मैं आईएएस बनूंगी । गरीब परिवार, पिछड़ा इलाका और अनारक्षित वर्ग की एक साधारण सी लड़की ने वो सोचा जो उन परिस्थितियों में कोई भी नहीं सोचता । मगर कहते हैं ने उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से होती है । और उस छोटी सी गुडि़या ने वो सच कर दिखाया । पिछले दिनों आइएएस में उसका 92 वी रैंक के साथ चयन हुआ है । जब मैं इलेक्‍ट्रानिक मीडिया के लिये उसके घर साक्षात्‍कार के लिये पहुंचा तो उसका घर देख कर मुझे लगा कि हां होते हैं लाल भी गुदड़ी में । मेरा सलाम प्रीति को ।

जब श्रमिकों की ओर से एक मंडल मुझसे लिने आया कि वे प्रीति का सम्‍मान करना चाह रहे हैं और मैं उस कार्यक्रम का संचालन करूं तो सबसे पहले तो अपनी कसम याद आई कि गैर साहित्यिक कार्यक्रमों का संचालन नहीं करना । खैर जब पता चला कि भवन निर्माण का  काम करने वाले मजदूर ये सम्‍मान चौराहे पर कर रहे हैं तो बिना कुछ सोचे हां कर दी । कार्यक्रम सुबह आठ बजे था जब मजदूर काम की तलाश में चौराहे पर आते हैं । फूलों का वर्षा के बीच प्रीति का सम्‍मान किया गया । कार्यक्रम के बाद मैं एक तरफ जाकर श्री रमेश हठीला के साथ खड़ा हो गया । चैनल वाले प्रीति का इंटरव्‍यू करने लगे  । प्रीति से मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था । अचानक वो मुझे ढूंढते हुए आई और बोली ' मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूं आपकी सारी कहानियां मैंने पढ़ी हैं '' । प्रीति की उस एक वाक्‍य ने सोमवार की सुबह का सारा अवसाद धो दिया । और मैं फिर ये तैयार हो गया । संन्‍यास का इरादा फिलहाल कैंसिल धन्‍यवाद गौतम, धन्‍यवाद आलोक जी , धन्‍यवाद प्रीति ।  ये कहानी इस उम्‍मीद के साथ कि इसको अपने बच्‍चों को जरूर पढ़ायें ।

और अब देखें कार्यक्रम के फोटो जो मेरे अग्रज छायाकार श्री राजेंद्र शर्मा जी ने लिये हैं ।

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पुष्‍प वर्षा से प्रीत‍ि का सम्‍मान और दूसरे चित्र में चौराहे पर सम्‍मान समारोह का संचालन

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मजदूर महिला द्वारा पुष्‍प हार प्रदान और प्रीति को सम्‍मान पत्र प्रदान किया जा रहा है

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श्री रमेश हठीला जी भावुक हो गये कंधे पर हाथ रख कर और कल और आज एक साथ

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'मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूं'' और दूसरे चित्र में मोटर साइकल पर जाती कल की कलेक्‍टर।

और अंत में इस अवसर पर हठीला जी का एक छंद जो उन्‍होंने दिया और मैंने पढ़ा ।

एक नया इतिहास रच दिया जिसने इस सीहोर का

आओ हम सम्‍मान करें अब अपने उस सिरमोर का

नई उमंगें नई दिशा दीं जिसने हैं तरुणाई को

आह्लादित कर दिया आज फिर गूंगी सी शहनाई को

वंदन है अभिनंदन है इस नई नवेली भोर का

आओ हम सम्‍मान करें अब अपने उस सिरमोर का

शुक्रवार, 8 मई 2009

कुमार गंधर्व के सुपुत्र मुकुल शिवपुत्र भोपाल की सड़कों पर भीख मांग रहे हैं ।

मुझे नहीं पता कि ऐसा क्‍यों हो रहा है किन्‍तु जैसा पता चला है वो तो यही  है कि शास्‍त्रीय संगीत के शीर्ष पुरुष कुमार गंधर्व साहब के सुपुत्र मुकुल शिवपुत्र जो कि स्‍वयं भी एक सुप्रसिद्ध गायक हैं इन दिनों भोपाल की सड़कों पर दो दो रुपये के लिये भीख मांग रहे हैं । समाचार एकबारगी तो दहला देने वाला है और हमारे समाज की सच्‍चाई को सामने लाने वाला है । हम जो कुमार गंधर्व साहब और मुकुल शिवपुत्र के गायन की प्रशंसा करते नहीं अघाते हम उसी समाज के हैं जिसमें मुकुल शिवपुत्र को भीख मांगना पड़ रही है ।

यद्यपि समाचार को लेकर अभी पुष्टि नहीं है किन्‍तु जब एक बड़ा समाचार पत्र समाचार को अपने मुखपृष्‍ठ की लीड स्‍टोरी बना कर छाप रहा है तो कुछ न कुछ तो अवश्‍य ही होगा । स्‍थानीय दैनिक भास्‍कर ने जो मुखपृष्‍ठ पर लीड स्‍टोरी लगाई है उसका शीर्षक है सड़कों पर भीख मांग रहा कुमार गंधर्व का बेटा । समाचार के अनुसार मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल के शास्‍त्री नगर का सांई बाबा मंदिर तथा जवाहर चौक की देशी शराब की दुकान ही इन दिनों मुकुल शिवपुत्र का स्‍थायी निवास है । वे मटमैली हो चुकी नीले सफेद चैक की हाफ शर्ट तथा नीले रंग की पैंट और चप्‍पल डाले मंदिर के बाहर पड़े रहते हैं तथा हर आने जाने वाले से सिर्फ दो रुपये मांगते हैं और जैसे ही जेब में दस बीस रुपये हो जाते हैं वे देशी शराब की दुकान का रुख कर लेते हैं । 1956 में जन्‍मे मुकुल शिवपुत्र को उनके पिता ने बचपन में ही शास्‍त्रीय संगीत में पारंगत कर दिया था । ध्रुपद धमार तथा कर्नाटक संगीत के विशेषज्ञ के रूप में मुकुल शिवपुत्र को जाना जाता है । खयाल गायकी में अपना मुकाम बनाने वाले शिवपुत्र को जब पत्रकारों ने भोजन कराने का प्रस्‍ताव दिया तो उन्‍होंने कहा कि नहीं मुझे नहीं खाना है कुछ भी मुझे तो सोना है मुझे कहीं सुला दो । उल्‍लेखनीय है कि इन्‍हीं मुकुल की गायकी को इंटरनेट पर कई वेब साइट एक परफारमेंस के 15 डालर के हिसाब से बेच रही हैं ये दावा करके कि ये पूरा पैसा कलाकार को दिया जायेगा ।

आज की पोस्‍ट इतनी ही, बहुत बड़ी बड़ी और आदर्शवादी बातें करने का मन नहीं है । मन दुखी है बस ।

मंगलवार, 5 मई 2009

जिस दिन मेरा था अभिनंदन, तुलसीदास सर कूट रहे थे, कालीदास करते थे क्रंदन, जिस दिन मेरा था अभिनंदन ।

पिछली पीढ़ी के संभवत: जबलपुर के किसी कवि की ये कविता है किसकी है ये तो याद नहीं आ रहा है किन्‍तु मेरी पसंदीदा पंक्तियां हैं ये । जब भी कहीं पर कोई मेरा सम्‍मान करने की बात करता है तो ये पंक्तियां याद आ जाती हैं । गये रविवार को हमारा भी अभिनंदन हुआ । सांसद तथा प्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री श्री कैलाश जोशी  और हमारे क्षेत्र के विधायक श्री रमेश सक्‍सेना जी जो अपनी मूंछों की स्‍टाइल के लिये पूरी विधानसभा में चर्चित हैं । के हाथों हमारा अभिनंदन हुआ अब हम तो ये नहीं कहेंगें कि तुलसीदास सर कूट रहे थे कालीदास करते थे क्रंदन । खैर अवसर था परशुराम जयंति का और चूंकि हम भी ब्राह्मण हैं सो साहित्यिक उपलब्धियों के लिये हमारा सम्‍मान किया गया । अपने आदरणीय अग्रजों श्रद्धेय श्री प्रकाश व्‍यास जी तथा श्रद्धेय मदन मोहन जी शर्मा जी का आदेश टालना असंभव हो गया अत: सम्‍मान लेना ही पड़ा और अपने शहर में सम्‍मान नहीं लेने की कसम आखिर टूट ही गई । खैर अच्‍छा लगा और इसलिये और अच्‍छा लगा कि मंच पर मेरे बड़े भाई श्री अजय पुरोहित जो कि श्रीमदभागवत पर प्रवचन देते हैं ( वैसे मूलत: वे कम्‍प्‍यूटर इंजीनियर हैं ) विशिष्‍ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे । साथ ही प्रदेश के एक और बड़े भागवत प्रवचनकार श्री प्रभु नागर भी उपस्थित थे । अच्‍छा लगता है न कि मंच पर दोनों भाई उपस्थित हों । एक का सम्‍मान हो रहा हो और दूसरा सम्‍मान करने वाले अतिथियों में हो । आपको बता दूं कि हम दो ही भाई हैं बहन नहीं हैं । शहर के मुख्‍य सभा स्‍थल पर हजारों की भीड़ के सामने सम्‍मान प्रदान किया गया । सम्‍मान नहीं लेने की कसम टूटने का मलाल नहीं रहा । कार्यक्रम की चित्रमय झांकी आपके लिये प्रस्‍तुत हैं ।

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ये हैं मध्‍यप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री तथा सांसद श्री कैलाश जी जोशी पीछे जो हाथ बांधे खड़े हैं वे मेरे अग्रज हैं ।

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ये हैं हमारे क्षेत्र के विधायक श्री रमेश सक्‍सेना जी ( मूंछों वाले ) ।

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श्री कैलाश जी जोशी शाल प्रदान कर रहे हैं और ठीक पीछे मेरे अग्रज खड़े हैं ।

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सांसद श्री कैलाश जोशी जी तथा विधायक श्री रमेश सक्‍सेना जी सम्‍मान प्रदान कर रहे हैं ।

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एक समूह चित्र जिसमें बांये से हैं श्री मदन मोहन जी शर्मा, श्री प्रभु जी नागर, श्री अजय पुरोहित, एक कोई महंत हैं, फिर भागवत प्रवचनकार पंडित प्रदीप मिश्रा जिनका भी सम्‍मान हुआ था, फिर ग़ज़ल प्रवचनकार पंकज सुबीर, सांसद कैलाश जोशी, माइक लिये हैं श्री प्रकाश व्‍यास जी , फिर विधायक श्री रमेश सक्‍सेना और अंत में खड़े हैं पूर्व विधायक श्री मदन लाल त्‍यागी ।

तो चलिये फोटो देखिये और मुझे इजाजत दीजिये । हां तरही के लिये जिन लोगों ने ग़ज़ल नहीं दी है  वे कृपा करके शीघ्र भेज दें क्‍योंकि हम अगले सप्‍ताह में उस आयोजन को करने जा रहे हैं ।

एक ओपीनियन पोल में आप सबकी आवश्‍यकता है कुछ लोग मेरे पीछे लगें हैं कि मुझे हेयर ट्रांस्‍प्‍लांट करवाना चाहिये मेरा स्‍वयं का स्‍पष्‍ट मत है कि मुझे ज़रूरत नहीं है, मेरे इस मत के पक्ष में भी कई सारे लोग हैं । किन्‍तु ट्रांस्‍प्‍लांट का समर्थन करने वाले कुछ लोगों में मेरी पत्‍नी भी शामिल है । अत: आप बतायें कि आप क्‍या कहते हैं । मेरे जन्‍म दिन की ये तस्‍वीर देख कर पत्‍नी कहती है कि बस बाल की ही कमी है वरना तो तुम अभी तक स्‍मार्ट लगते हो ( 'अभी तक' पर गौर करें ) । इस चित्र में हम दोनों नजर आ रहे हैं ।

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शुक्रवार, 1 मई 2009

राकेश खण्‍डेलवाल जी का एक गीत 'गीत बन कर के होठों से झर जायें हम' जो कहीं कहीं पर ग़ज़ल का आनंद भी देता है ।

राकेश खण्‍डेलवाल जी के गीतों में एक अलग ही बात है उनमें वो सब कुछ है जो गीतों के स्‍वर्ण काल की याद दिलाता है वो समय जब दादा नीरज जी, सोम दादा, बालकवि बैरागी जी जैसे गीतकार हिंदी कवि सम्‍मेलन के मंचों पर अपनी आवाज़ और अपनी लेखनी का जादू बिखेरते थे । यद्यपि ये तीनों ही हिंदी के पुरोधा कवि आज भी यदा कदा मंचों पर दिखाई देते हैं किन्‍तु बात वही है कि वर्षाकाल में कोयल मौन साध लेती है क्‍योंकि तब मेंढकों के टर्रोने का समय होता है । राकेश खण्‍डेलवाल जी के गीतों में एक सुगंध है जो कुछ इस प्रकार से उठती है जैसे ग्रीष्‍म की तपती हुई धरती पर वर्षा की प्रथम बूंद गिरने पर सौंधी सी सुवास उठती है । राकेश जी के गीतों में अनोखे शब्‍द चित्र होते हैं । तो आप भी आनंद लीजिये राकेश जी के इस गीत का ।

                                                      गीत बन कर के होठों से झर जायें हम

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भाव हैं, शब्द का पर्श पा जायें हम

गीत बन कर के होठों से झर जायें हम

तेरे हाथों की मेंहदी बनें ना बनें

बन अलक्तक पगों में संवर जायें हम

 

रोशनी की किरन, जिसने देखी नहीं

कुछ अधूरे अंधेरों की परछाईयाँ

राह भूले नहीं, आये जब लौट कर

एक दीपक जला कर के धर जायें हम

 

शाख पर झूलने की नसीहत तो दी

पर हवा छीन मुस्कान को ले गई

हम न जूड़े में तेरे अगर सज सके

खुश्बुओं से तेरा पंथ भर जायें हम

 

रात थी चुक गई बीनते बीनते

धज्जियाँ फट बिखरते हुए स्वप्न की

और दिन की कुपित रोशनी ने कहा

अब भटकना नहीं, अपने घर जायें हम

 

तूने हर मोड़ पर हमको रुसवा किया

हर उठे प्रश्न पर मौन रख रह गई

फिर भी इतना तो बतला दे ए ज़िन्दगी

अब तुझे छोड़ कर के किधर जायें हम

 

लफ़्ज़ हम, गीत से जो परे रह गये

और अक्षर न गज़लों ने थामा जिन्हें

फिर भी होठों ने तेरे अगर छू लिया

फ़र्क क्या फिर जियें चाहे मर जायें हम

आनंद लीजिये राकेश जी के इस गीत का । पिछले सप्‍ताह भर व्‍यस्‍तता रही जो अभी भी है । कुछ रिश्‍ते खून के रिश्‍तों से भी बढ़कर होते हैं । ऐसे ही एक बालक का विवाह 29 अप्रैल  को था । सोनू यूं तो मेरे कम्‍प्‍यूटर प्रशिक्षण संस्‍थान में मुख्‍य प्रशिक्षक है किन्‍तु मेरे लिये वो मेरे छोटे भाई के समान ही है । अत: उसके विवाह को लेकर पिछले सप्‍ताह भर व्‍यस्‍त था और अभी भी हूं किन्‍तु आज यहां पर केवल हाजिरी लगाने आया हूं ।

                                                                    मिलिये सोनू से

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