गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

तरही मुशायरे की शुरूआत ने अलग ही रंग जमाया है और अब आज सुनिये तीन और धमाके श्री निर्मल सिद्धू, श्री संजय दानी और श्री विनोद कुमार पांडेय को

तरही को लेकर पोस्‍ट एडवांस में ही लगानी पड़ रही हैं क्‍योंकि इधर तो दीपावली के त्‍यौहार की व्‍यस्‍तता है और उधर कव‍ि सम्‍मेलनों का जोर  । 29 और 30 को लगातार दो रातों को जागना है । पहले लग रहा था कि सीहोर के 30 के कार्यक्रम के चलते 29 का दतिया का कार्यक्रम छोड़ दूं लेकिन फिर राहत भाई की वो बात याद आई जो उन्‍होंने कानपुर में कही थी कि आजकल के लड़के तीन रातों तक लगातार कवि सम्‍मेलन में जाग कर ही थक जाते हैं मुझे देखो मैं तीस सालों से रातों को जाग रहा हूं । बस बात भा गई और दतिया जाने का मन बना लिया । एक अलग बात ये है कि वहां पर श्रंगार के गीत पढ़ने के लिये मुझे बुलवाया जा रहा है । मैंने कहा भी कि भई मैं तो ओज की बात करता हूं लेकिन वो नहीं माने । खैर जो कुछ है उसे ही समेट कर पढ़ने जा रहा हूं । वहां जाने के पीछे एक और कारण है और वो है उस भूमि पर जाना जहां पर तंत्र शास्‍त्र की दश महाविद्याओं में से एक मां बगुलामुखी ( पीताम्‍बरा )  का सिद्ध शक्ति पीठ है । उस भूमि पर जाकर काव्‍य पाठ करना अपने आप में विशिष्‍ट हैं । क्‍योंकि ऐसा माना जाता है कि मां बगुलामुखी वैदिक सरस्‍वती का ही रूप हैं । आप भी दर्शन कीजिये मां पीताम्‍बरा के ।

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दतिया में बगुलामुखी शक्ति पीठ में विराजमान मां पीताम्‍बरा

कानपुर के कवि सम्‍मेलन के वीडियो तथा तस्‍वीरें भेजने का भार कुल मिलाकर रवि के मज़बूत ( …….? ) कंधों पर है । एक मजेदार किस्‍सा है उसे कभी विस्‍तार से कंचन की जुबानी सुनियेगा कि किस प्रकार मुझे ट्रेन पकड़वाने निकले रवि और कंचन एन कानपुर शहर के बीच में आकर स्‍टेशन का रास्‍ता भूल गये । उसे बाद घड़ी की सुइयां चल रहीं थीं ट्रेन का टाइम हो रहा था और रवि को स्‍टेशन नहीं मिल रहा था । विस्‍तार से किस्‍सा सुनाने की जिम्‍मेदारी कंचन पर ।

जलते रहें, दीपक सदा, क़ाइम रहे, ये रोश्‍ानी

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तो चलिये आज के तीनों शाइरों से उनकी ग़ज़लें सुनते हैं । आज तीन शाइर श्री निर्मल सिद्धू, श्री संजय दानी और श्री विनोद कुमार पांडेय अपनी रचनाएं लेकर आ रहे हैं । हर बार तीन शाइरों को लेने के पीछे कारण ये है कि दीपावली के दिन तक मुशायरे का समापन हो जाये ।

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निर्मल सिद्धू

निर्मल जी का नाम तरही के लिये नया नहीं है । वे नियमित रूप से तरही में आते रहते हैं और उम्‍दा ग़ज़लें सुनाते रहते हैं । टोरेंटों कनाडा में  निवासरत हैं तथा मेरी जानकारी में वे फिलहाल अपना कोई ब्‍लाग नहीं चलाते हैं लेकिन उनकी रचनाएं सभी अंतरजालीय पत्रिकाओं में छपती हैं और खूब सराहना पाती हैं । 

सारा शहर दुल्हन बना ख़ुशियाँ उतारें आरती
चन्दा नहीं फिर भी लगे पुर-क़ैफ़ बिखरी चाँदनी
आओ कि हम देखें ज़रा क्या धूम मचती कू-ब-कू
आतिश चले लड़ियाँ सजें छंटने लगी सब तीरगी
ऐसा लगे हर सू ख़ुदाई नूर है फैला हुआ
मख़्मूर सब तन-मन हुआ खिलने लगी मन की कली

मिलते रहें दिल-दिल से तो चमका करे हर ज़िन्दगी
जलते रहें दीपक सदा क़ायम रहे ये रौशनी
मन का दिया रौशन हो जब जाते बिसर दुनिया के ग़म
बचता न कुछ भी शेष फिर बचती फ़कत दीवानगी
पैग़ाम देता है यही, त्योहार ये इक बार फिर
हम दोस्ती में डूब जायें भूल कर सब दुश्मनी
हमदम बनें, मिल कर चलें, सपने बुनें, नग़्मे लिखें
जीवन डगर पे रोज़ हम छेड़ें नई इक रागिनी
माना चमन में हर तरफ़ माहौल है बिगड़ा हुआ
फिर भी ख़ुदा पे रख यक़ीं दिखलायेगा जादूगरी
बाहों में बाहें डाल कर, दुख-दर्द सारे भूल कर
परिवार संग निर्मल मेरे तू युं मना दीपावली

हूं बहुत ही उम्‍दा शेर इस बार भी  निकाले हैं और अपने मन की कहूं तो खुदा की जादूगरी दिखलाने वाला शेर मन को भा गया । हालांकि सारे शेर जबरदस्‍त हैं मगर इस शेर की तो बात ही कुछ और है ।

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विनोद कुमार पांडेय

पिछले कुछ समय से विनोद जी भी मुशायरे में नियमित आ रहे हैं । और अपनी बहुत अच्‍छी ग़ज़लों से लुभा रहे है । मेरी जानकारी के अनुसार वे नुक्‍कड़ नाम के एक सामुहिक ब्‍लाग के सदस्‍य हैं तथा स्‍वयं का मुस्‍कुराते पल ब्‍लाग है, उनकी रचनाएं भी कई अंतरजालीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं ।

मत पूछ मेरे हाल को बेहाल सी है जिंदगी

मैं बन गया हूँ,आजकल अपने शहर में अजनबी

जो वाहवाही कर रहे थे, आज हमसे हैं खफा

एक बार सच क्या कह दिया, ऐसी मची है,खलबली

वो दौर थी,जब दोस्ती में जान भी कुर्बान थी

अब जान लेने की नई तरकीब भी है दोस्ती

हम तो वफ़ा करते रहे, सब भूल कर उसके करम

था क्या पता हमको कभी भारी पड़ेगी दिल्लगी

चट्टान को भी चीर कर जिसने बनाया रास्ता

क्या हो गया है आज क्यों, सूखी पड़ी है वो नदी

ठगने लगे हैं लोग अब इंसानियत के नाम पर

भगवान भी हैरान है,क्या चीज़ है यह आदमी

कल रात ही एक और ने भी हार मानी भूख से

पाए गये आँसू ज़मीं पे रो पड़ा था चाँद भी

आनंदमय हो दीप का,त्यौहार पूरे देश को

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी

हूं बहुत अच्‍छे शेर निकाले गये हैं । चट्टान को भी चीर कर जिसने बनाया रास्‍ता में कई कई अर्थ छिपे हैं और कई कई अर्थ बहुत ही आनंद दायक हैं । उधर भगवान की हैरानियत वाला शेर भी बहुत प्रभावशाली है । वाह वाह वाह ।

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डॉ. संजय दानी

संजय दानी जी संभवत: मुशायरे में प्रथम बार ही आ रहे हैं । आप एक कान नाक गला सर्जन हैं ,छत्तीसगढ के दुर्ग शहर में 20 सालों से प्रेक्टिस कर रहे हैं । पिछले 10 सालों से ग़ज़लों की दुनिया में अपनी भागीदारी दर्ज़ करा रहे हैं, दो किताबें ( मेरी ग़ज़ल -मेरी हमशक्ल {2007 में} और खुदा खैर करे {2009} छप चुकी हैं। 3री किताब चश्मे-बद्दूर प्रेस में है। आप अपना ब्‍लाग ग़ज़ल के नाम चलाते हैं ।

जलते रहें दीपक सदा क़ाइम रहे ये रौशनी,
दिल के मुहल्ले में बुझा दो अब चराग़े दुश्मनी।
इस मुल्क की ख़ातिर सिपाही मर रहे हैं इक तरफ़,
दूजी तरफ़ ज़ुल्मी सियासत है दलाली में फ़ंसी।
मैं इश्क़ के जंगल में बैठा हूं अकेला सदियों से,
पर हुस्न के चौपाल में महफ़िल हवस की है सजी।

तेरी मुहब्बत में मुझे दरवेशी का कासा मिला,
उस कासे के रुख़सार पर लिख दी गई आवारगी।
दिल एक हरजाई नदी में डूब कर नासाज़ है,
तन की ख़ुमारी मिट गई पर सर की इज़्ज़त ना बची।
परदेश से तुम लौट आना ज़ल्द मां कहती है ये,
पर मेरी तहज़ीबे शिकम की, पैसों से है दोस्ती।
कश्ती मुहब्बत की मेरी मजबूत थी, जिसकी वफ़ा,
को देख कर तेरी नदी की बेवफ़ाई डर गई।
जबसे चराग़ों की ज़मानत मेरे हक़ में आई हैं,
तब से हवाओं की अदालत में खड़ी है बेबसी।
अब रिश्तेदारी तौल कर दानी निभाये जाते हैं,
बाज़ारे दिल ने शहर में ना जाने कितनी है गली।

इसे कहते हैं आते ही महफिल को लूट लेना । जबसे चरागों की जमानत मेरे हक़ में आई है में उस्‍तादाना रंग दिखाई दे रहा है । संजय जी ने शब्‍दों को दोनों रुक्‍नों में विस्‍तार देने के प्रयोग किये हैं । इस प्रकार के प्रयोगों से पढ़ते समय काफी सावधानी रखनी पड़ती है । मैं इश्‍क के जंगल में वाला मिसरा इसी प्रकार का मिसरा है । बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

चलिये अब तीनों शाइरों की शानदार ग़ज़लों का आनंद लीजिये और मुझे इजाज़त दीजिये । हो सकता है अब तरही का अगला अंक कुछ विलम्‍ब  से आये । अगले अंक में मिलते हैं तीन और शाइरों के साथ ( इंशाअल्‍लाह ) ।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

जलते रहें, दीपक सदा, क़ाइम रहे, ये रोशनी । चलिये आज से शुरू करते हैं शुभ-दीपावली तरही मुशायरा, हर रोज़ तीन तीन शायरों के साथ हम मुशायरे को आगे बढ़ायेंगे ।

दीपावली का त्‍यौहार भी सामने आ गया है । और इस बार तो तरहीं को लेकर काफी सारी रचनाएं मिली हैं । दीपावली को लेकर भारतीय जनमानस में एक विचित्र प्रकार का उत्‍साह और उमंग देखने को मिलता है । इस बार की तरही में काफी अच्‍छी रचनाएं मिली हैं । चूंकि 25 अक्‍टूबर अंतिम तिथि थी इस बार तरही को प्राप्‍त करने की अत: अब तरही को प्रारंभ करना ही चाहिये ।

इस बीच कवि सम्‍मेलनों की व्‍यस्‍ततता भी बनी हुई है । 23 को आई आई टी कानपुर के कार्यक्रम अं‍तराग्नि ( IIT KANPUR ANTRAGNI 2010) में काव्‍य पाठ और संचालन करने की एक अलग ही अनुभूति हुई । वे सब जो आने वाले कल को हमारा स्‍थान लेंगें उनके बीच में कविता पढ़ना बहुत अच्‍छा लगा । पहले तो ये लगा था कि न जाने ये लोग कविता सुनेंगें भी या नहीं लेकिन जिस प्रकार से जिस उत्‍साह से उन बच्‍चों ने कविता सुनी वो देख कर आनंद आ गया । कुल मिलाकर हम पांच ही कवियों की टीम थी डॉ राहत इन्‍दौरी, श्रीमती कीर्ती काले, श्री गुरू सक्‍सेना, श्री पवन जैन और पंकज सुबीर । और पांचों के हिस्‍से में था तीन घंटे का समय । क्‍योंकि अगला कार्यक्रम उसी मंच पर शुरू होना था । लेकिन बच्‍चों ने वन्‍स मोर कर कर के तीन घंटे को चार घंटे का करवा लिया और बड़ी मुश्किल से कार्यक्रम को समापन किया । कविता अपनी जगह तलाश लेती है । डॉ राहत इन्‍दौरी साहब की ग़ज़लों पर आने वाले कल के इंजीनियर जिस प्रकार से झूम रहे थे उसे देख कर लगा कि चिंता की कोई बात नहीं है, कविता का भविष्‍य सुरक्षित है । उस कार्यक्रम के बाद फिर अगले दिन सुब्‍ह रविकांत के घर पर एक छोटी सी काव्‍य गोष्‍ठी हुई जिसमें कंचन, रवि सहित स्‍थानीय कवियों ने भाग लिया । 

शुक्रवार 29 अक्‍टूबर को मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति विभाग के तीन दिवसीय महोत्‍सव में जो कि पीताम्‍बरा पीठ दतिया में हो रहा है उसमें काव्‍य पाठ के लिये जाना है  वहां श्री विष्‍णु सक्‍सेना, श्री अरुण जैमिनी आदि हैं, हालांकि यहां जाने को लेकर कुछ संशय है सीहोर के कार्यक्रम के कारण । दतिया मां बगुलामुखी का एक जागृत पीठ है ।  तीस अक्‍टूबर को सीहोर मेरे ही शहर में कवि सम्‍मेलन है जिसमें डॉ कुमार विश्‍वास, श्रीमती सरिता शर्मा, धमचक मुल्‍तानी, श्री पवन जैन, शशिकांत शशि, व्‍यंजना शुक्‍ला, मोनिका हठीला, अशोक चौबे, सुरेंद्र सुकुमार तथा पंकज सुबीर का काव्‍य पाठ होना है । आप सब भी सादर आमंत्रित हैं ।

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जलते रहें, दीपक सदा, क़ाइम रहे, ये रोशनी

तिलक जी ने एक और सलाह दी थी कि यदि हर रुक्‍न अपने आप में सम्‍पूर्ण हो तो और आनंद आएगा । मजे की बात ये है कि अधिकांश ग़ज़लों में शायरों ने यही किया है । रुक्‍न सम्‍पूर्ण का मतलब जैसा मिसरा ए तरह में है (जलते रहें 2212 ) रुक्‍न का कोई शब्‍द टूट कर अगले रुक्‍न में नहीं जा रहा है ।

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शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

आज की पहली ग़ज़ल शाहिद मिर्जा जी की है । और इसमें खास बात ये है कि इसमें केवल मतले ही मतले हैं । ये नये प्रकार का प्रयोग है । तथा दूसरी ग़ज़ल में भी यही प्रयोग किया गया है । तो मुझे लगा कि हमारी गंगा जमुनी संस्‍कृति को देखते हुए दीपावली के मुशायरे का आगाज़ शाहिद मिर्जा जी से ही करवाया जाए ।

बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियां क्यों फ़ासले, क्यों बन गई दीवार सी

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी
ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छांव है, अब तीरगी, अब रोशनी
मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी
महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
मज़िल है क्या, रस्ता है क्या, सीखा है जो मुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी
समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की.

वाह वाह वाह क्‍या मतले निकाले हैं । ठहरा है कब वक्‍त एक सा और मायूसियों की आंधियां में तो बस आनंद लिया जा सकता है । आगाज़ ये है तो आगे क्‍या होगा । तो इस सुनहरे आगाज़ पर तालियां बजाइये ।

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के. द. लियो 'Ktheleo' ( ले. कर्नल कुश शर्मा )

के द लियो ( ले. कर्नल कुश शर्मा) शायद यही नाम है इस गुमनाम शायर का । गुमनाम इसलिये कि आज तलक चित्र भी देखने को नहीं मिला है । सच है कई लोग गुमनाम रह कर ही काम करना चाहते हैं । इन्‍होंने भी केवल तीन मतले ही भेजे हैं ।    

जीवन रहे, रोशन सदा, बढती रहे, ज़िंदादिली

तुमने कहा, मैंने सुना, बहने लगी, ये ज़िन्दगी

सपने सजें,खिलते रहें, गुलशन बने, वीरान भी

खिडकी खुले, सूरत दिखे, होती रहे, दीपावली

सबके लबों, पर है दुआ, फैले न फिर, से तीरगी  

जलते रहें, दीपक सदा, काइम रहे, ये रोशनी,

हूं कम लिखा है लेकिन अच्‍छा लिखा है । शुद्ध रुक्‍नों और सम्‍पूर्ण रुक्‍नों का बहुत ही अच्‍छा प्रयोग किया गया है । अंतिम मतला अयोध्‍या मसले के व्‍यपाक परिप्रेक्ष्‍यों को अंतर्निहित किये है । वाह वाह वाह ।

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प्रकाश पाखी

इनकी ग़ज़ल भी इसलिये खास है कि इन्‍होंने अलग अलग विषयों को बहुत ही अच्‍छे तरीके से बांधा है आपनी ग़ज़ल में । और कुछ शेर बहुत अच्‍छे निकाले हैं ।

दीपावली

जलते रहें दीपक सदा काईम रहे ये रोशनी

रजनी से गहरी निस्बतों में सुब्‍ह की हो ताजगी

भोपाल का न्याय

अब खद्दरें खामोश हैं,अब मरघटों सा मौन है

इक कत्ल है इन्साफ का, और लाश है भोपाल की

नौकरशाही

दफ्तर गया, चप्पल घिसे,  अब तो कबीरा मान जा

अफसर करे ना काम, ज्यूँ अजगर करे ना चाकरी

अयोध्या निर्णय

सेंकीं  सियासत ने सदा जिस आग पर हैं रोटियां

सब मिल बुझा दें जो इसे, हो देश में दीपावली

आर्थिक संकट,खेल और भारत

तूफ़ान में अविचल रहा, दिल्ली में ये अव्वल रहा

अब मेरे हिन्दुस्तान की तू देख पाखी बानगी

वाह वाह वाह बहुत ही शानदार शेर निकाले हैं । विशेष कर भोपाल गैस कांड पर तो अनोखा शेर है ( गैस कांड का प्रतयक्षदर्शी हूं मैं ) । ये अच्‍छी बात है कि अयोध्‍या मामले पर सकारात्‍मक नज़रिया आज की ग़ज़लों में आ रहा है । बस यही तो वो है जिसकी ज़रूरत है । बहुत अच्‍छी ग़ज़ल ।

और चलते चलते कानपुर के कवि सम्‍मेलन का एक समाचार ( वीडियो तथा फोटो तो रवि के रहमो करम पर हैं । )

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बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

ईता को लेकर काफी दिलचस्‍प बहस हुई है । इधर तरही को लेकर तीन चार ग़ज़लें आ भी गईं हैं । कुछ लोगों को इस बार बाकायदा क़ानूनी नोटिस भेजा जा रहा है ।

जन्‍मदिन को लेकर जिस प्रकार सबकी शुभकामनाएं मिलीं उसने मन को स्‍वस्‍थ कर दिया । लगा कि कितने लोग तो हैं जो साथ खड़े हैं । सुबह जब आफिस पहुंचा तो बच्‍चों ने पूरा आफिस सजा रखा था । सो दिन की शुरूआत ही छोटे से आयोजन के साथ हुई । फिर दिन भर बजता रहा ' कितने दिन आंखें तरसेंगीं' ( मेरे मोबाइल की रिंग टोन ) और काल पे काल आते रहे । जन्‍मदिन की शुभकामनाएं आदमी को एक साल और संघर्ष करने की ताक़त प्रदान कर देती हैं । आदमी मुसीबतों से नहीं घबराता, वास्‍तव में तो वो मुसीबत के समय अकेला पड़ जाने से घबराता है । और दोस्‍तों का प्‍यार उसे ये दिलासा देता है कि वो अकेला नहीं है । खैर दिन भर फोन सुनने सुनाने में बीता और देर रात तक एक सुंदर सा केक और गुलदस्‍ता मिला । पता चला कि दिल्‍ली से आया है । भेजने वाले का नाम देखा तो लिखा था सीमा गुप्‍ता । छोटी बहन द्वारा भेजे गये बहुत सुंदर गुलदस्‍ते ने मन को गुलाबों सा ही खिला दिया । और देर रात घर पहुंच कर जो छोटा सा आयोजन हुआ उसमें परी और पंखुरी ने उस केक को काटा ।

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जलते रहें, दीपक सदा, क़ाइम रहे, ये रोशनी

कुछ लोग कह रहे हैं कि कुछ  मुश्किल मिसरा है इस बार का साथ ही बहर भी थोड़ी मुश्किल है । नुसरत दी ने ग़ज़ल तो भेज दी है साथ में एक मजेदार मेल भी किया है । पढ़ कर आनंद आ गया । निर्मला दी की ग़ज़ल का पहला ड्राफ्ट आ गया है । कुछ और भी आ गई हैं सो लग रहा है कि मिसरा उतनी मुश्किल नहीं है । तिस पर ये कि काफिया तो बहुत ही सरल हो गया है । केवल मतले में ईता को देखना है और उसके बाद सरपट गाड़ी दौडा़ना है । और हां एक अं की बिंदी का भी ध्‍यान रखना है कि वो कहीं किसी काफिये में आ न जाए । और हां ये भी ध्‍यान रखना है कि कामिल का रुक्‍न न आ जाए  । जैसे यदि आपने लिख दिया  नहीं हो कहीं तो क्‍या हुआ,  नहीं  में दो सेपरेट लघु हैं ।   और  हीं  ( गिर कर लघु) इसलिये ये कामिल का रुक्‍न हो गया । बस इसकी भी सावधानी रखनी है कि कहीं ये न हो जाये । तो तीन सावधानी हो गईं पहली ईता दूसरी अं  और तीसरी  कामिल । यदि आप तीनों को बचा कर लिखेंगे तो दीपावली की व्‍यस्‍तता में मेरा कुछ काम कम हो जाएगा । जल्‍दी जल्‍दी लिखिये । जो लोग पिछली बार नहीं आये थे उनको बाकायदा क़ानूनी नोटिस दिया जा रहा है । कामिल और रजज का अंतर नीचे के दो उदाहरणों से स्‍पष्‍ट होगा जो दोनों ही जनाब बशीर बद्र साहब की दो मशहूर ग़ज़लें हैं । आप दोनों को गुनगुना कर देखें, दोनों की धुन एक सी है । यहां पर धुन पर लिखने वाले मात खा जाते हैं, तकतीई करने वाले जीत जाते हैं  ।

 बहरे कामिल पर ग़ज़ल : यूं ही बेसबब न फिरा करो ( अहमद हुसैन मुहम्‍मद हुसैन ने भी गाया है )

बहरे रजज पर ग़ज़ल : सोचा नहीं अच्‍छा बुरा ( जगजीत जी चित्रा जी ने भी गाया है )

ईता को लेकर पिछली पोस्‍ट पर जबरदस्‍त बहस हुई । आब और गुलाब ने सबको उलझा दिया । उस पर बात करने से पहले चलिये आज ईता की कुछ और बात करते हैं । उससे भी पहले चलिये बात करते हैं शब्‍दों की । शब्‍दों के कई प्रकार होते हैं और इन प्रकारों से ही बनते हैं ईता दोष । जैसा की हमने पहले भी देखा है कि उर्दू में मात्राओं को भी हर्फ माना जाता है । देवनागरी में मात्राएं अक्षर का ही हिस्‍सा होती हैं । उससे अलग नहीं की जा सकती हैं । इसी आधार पर उर्दू में ईता का दोष बनता है । खैर पहले बात शब्‍दों की ।

मूल शब्‍द -  वह शब्‍द जो मूल रूप में होता है तथा जो किसी शब्‍द के किसी मात्रा या किसी दूसरे शब्‍द के साथ संयुक्‍त होने से नहीं बना है उसे मूल शब्‍द कहते हैं । इनको हम अंग्रेजी में मदर वर्ड या मातृ शब्‍द कह सकते हैं । ये अक्षरों तथा मात्राओं के संयोजन से बनते हैं । तथा शुद्ध रूप में होते हैं । कम, चल, उठ, पढ़, गुल, जैसे कई कई शब्‍द हैं जो मातृ शब्‍द हैं । ये वे शब्‍द हैं जो कि नये शब्‍दों को जन्‍म देते हैं । जब हमने पिछले पोस्‍ट में ईता की बात की थी तो दरअसल में जो एक मिसरे में विशुद्ध शब्‍द रखने को कहा था वो ये ही शब्‍द है । इनको प्राथमिक शब्‍द भी कह सकते हैं । कई बार हम केवल प्राथमिक शब्‍दों को ही मतले में काफिया बनाते हैं जैसे  चल रहे हैं  और जल रहे हैं ।  यहां पर चल और जल दोनों ही प्राथमिक शब्‍द हैं और   अक्षर की ध्‍वनि हमारा काफिया है तथा रहे हैं रदीफ ।

मूल शब्‍द के साथ मात्राओं का संयुक्‍त होना - क्रिया के हिसाब से हम मूल शब्‍दों के साथ मात्राओं को संयुक्‍त कर देते हैं । जैसे कम और ई  मिलकर बने कमी जैसे उठ तथा आ  मिलकर बने उठा,  जैसे पढ़ तथा ओ  मिलकर बना पढ़ो,  और जैसे  चल तथा ए  मिलकर बना चले । ये अब मूल शब्‍द नहीं हैं तथा ये मा‍त्रा का प्रयोग करके बनाये गये द्वितीयक शब्‍द हैं । ईता का दोष इनमें से किसी भी समान मात्रा वाले काफियों को मतले में दोनों मिसरों में उपयोग करने पर आ जाएगा । जैसे आपने पहले मिसरे में कहा पढ़ो तो सही और चलो तो सही,  तो ईता आ जाएगा, क्‍योंकि तो सही  रदीफ में चलो और पढ़ो  की  ओ की मात्रा भी मिल कर रदीफ को  ओ तो सही  कर रही है । क्‍योंकि की मात्रा को हटा कर देखा जाएगा कि अब काफियाबंदी हो रही है या नहीं । चूंकि चल और पढ़ में तुक नहीं है सो ईता आ जायेगा । लेकिन यदि आपने कहा चलो तो सही  और  मिलो तो सही  तो ईता नहीं आयेगा क्‍योंकि की मात्रा हटने के बाद  चल और मिल  बच रहे हैं जिनमें  ल  अक्षर काफिया बंदी कर रहा है । आप पूछेंगे कि  ल  क्‍यों रदीफ में शामिल नहीं हो रहा तो महोदय  अक्षर प्राथमिक शब्‍दों  चल और मिल  का हिस्‍सा है जो उनके साथ ही रहेगा ।  हां चलो और मिलो को मतले में काफिया बनाने पर आप ये ज़ुरूर बंध जाएंगे कि अब आगे आपको खिलो, टलो, आद‍ि ही लेने हैं क्‍योंकि अब आपकी काफियाबंदी  ल  अक्षर से हो रही है और आपका रदीफ  ओ तो सही हो गया है, अगर आपने मतले में खिलो, चलो  लेकर नीचे किसी शेर में  कहो तो सही कर दिया तो भयानक ईता-ए-जली हो जाएगी( बड़ी ईता) ।

अब आपको ये समझ में आ गया होगा कि ईता का दोष केवल मतले में क्‍यों देखा जाता है, क्‍योंकि मतला आपके काफिये तथा रदीफ को निर्धारित करने वाला वो शेर होता है जिसमें आप अपने आने वाले शेरों के लिये नियम तय कर देते हैं । अब आप पूछेंगे कि यदि मतले में हमने कुछ यूं कहा शायरी है सच मानो  तथा जिंदगी है सच मानो  तो ईता दोष आया कि नहीं । नहीं आयेगा, इसलिये नहीं आयेगा कि  मतले में काफिया का  निर्धारण करने वाले शब्‍द  शाइरी तथा जिंदगी  हैं । तथा जब मात्रा   को हटा कर रदीफ का हिस्‍सा बनाया जाएगा तो ये भी देखा जाएगा कि किसी शब्‍द में ऐसा तो नहीं हो रहा है कि मात्रा के हटने पर शब्‍द निरर्थक हो रहा है । यदि ऐसा हो रहा है तो फिर मात्रा नहीं हटेगी तथा वो ही काफिये की ध्‍वनि होगी । जैसे यहां पर जिंदगी में  ई  की मात्रा हटाने पर जिंदग  बच रहा है जो किसी काम का नहीं है निरर्थक है, इसलिये जिंदगी की ई नहीं हटाया जा सकता । इस हालत में   रदीफ के पाले में न जाकर काफिया ही बनी रहेगी । लेकिन आपने कहा  शाइरी है सच मानो  तथा  आशिक़ी है सच मानो तो गड़ बड़ हो गई ।  ई  की मात्रा पाला बदल कर जाएगी क्‍योंकि उसको मजबूती से पकड़ने वाला मूल शब्‍द नहीं है ( मैं तो भूल चली काफिये का देश, रदीफ का घर प्‍यारा लगे)। अब   बचे हुए  शाइर  तथा  आशिक़ की तुक मिला कर देखी जाएगी आप खुद ही मिला कर देख लें । क्‍या आप किसी मतले में  शाइर तो नहीं  तथा  आशिक़ तो नहीं  लिख सकते हैं ?  नहीं ना, क्‍योंकि शाइर और आशिक़  समान तुक वाले शब्‍द नहीं है। तो आ गई न छोटी ईता ( ईता ए खफी ) ।

चलिये आज के लिये इतना ही । अगले अंक में हम आगे वाले शब्‍दों की बात करेंगे । अभी तीन प्रकार के शब्‍द और बचे हैं । जब आगे के शब्‍दों पर आएंगे तब हम आब और गुलाब का मसला हल करेंगे ।

चलिये तो आज फिर बताइये कि आदरणीय गुलजार साहब की ग़ज़ल  शाम से आंख में नमी सी है, आज फिर आपकी कमी सी है में ईता आ रहा है या नहीं । हां तो क्‍यों और नहीं तो क्‍यों नहीं । इसी ग़ज़ल का एक शेर है वक्‍़त रहता नहीं कहीं टिककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

और ये कि एक और मशहूर शेर है मुहब्‍बतों का सलीक़ा सिखा दिया मैंने, तेरे बग़ैर भी जीकर दिखा दिया मैंने  इसमें ईता आया कि नहीं ?  इसमेंआगे के शेर का एक मिसरा सानी है ग़ज़ल के नाम पे क्‍या क्‍या सुना दिया मैंने ।  इसमें ईता आया कि नहीं । हां तो क्‍यों और नहीं तो क्‍यों नहीं । आया तो कौन सा आया खफी या जली ।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

शो मस्‍ट गो आन-

शायद आज पहली बार किसी अंग्रेजी के वाक्‍य को ब्‍लाग पोस्‍ट का शीर्षक बनाया है  । वो इसलिये कि इससे अच्‍छा कोई वाक्‍य मिल ही नहीं रहा था अपने आप को अभिव्‍यक्‍त करने के लिये । अज्ञेय ने कभी कहा था कि दुख आदमी को मांजता है, सो मैं भी ये कह सकता हूं कि इन दिनों मेरा मांजा जाना चल रहा है । आप सब लोगों की दुआएं मेल से और फोन से मिल रही हैं । जब इतने लोग किसी एक के लिये अच्‍छा सोच रहे हों तो ईश्‍वर को भी पिघलना तो पड़ता ही है । कितने नाम गिनाऊं जिन सबके संदेश मिल रहे हैं । कठिन समय ने ये तो बता ही दिया कि मैं अकेला नहीं हूं कई लोग मेरे साथ हैं । इतना नेह इतनी आत्‍मीयता, मन भर भर आ रहा है । ये सारे अनुभव अविस्‍मरणीय हैं । मुश्किलें तो अभी भी वैसी ही सामने हैं लेकिन उनसे जूझने की ऊर्जा आप सब के नेह ने दी है । और उसीके चलते सब के बाद भी ये कहने की हिम्‍मत कर पा रहा हूं कि शो मस्‍ट गो आन । और आप सब के लिये ये गीत

पिछले लगभग पन्‍द्रह बीस दिनों से एक ख़ामाशी सी हो रही है । त्‍यौहारों का समय सामने है और ऐसे में ख़मोशी का होना ठीक नहीं है । बस यही सोच कर अब कुछ फिर शुरू करने की बात दिमाग़ में आई और आज से ही दीपावली के तरही मुशायरे का आगाज़ करने की सोची । आगा़ज का मतलब ये कि कम से कम दीपावली के तरही मुशायरे का मिसरा ए तरह तो दे दिया जाये। जब सोचने बैठा तो सोच में एक बहर शिकायत करती हुई आ गई कि मेरा क्‍या क़सूर है जो मुझे आज तक कभी भी तरही में उपयोग नहीं किया गया । मुझे लगा बात तो सही है इसको अभी तक कभी उपयोग में तो नहीं लाया गया है । जबकि कायदे में तो ये ठीक पहली ही बहर है । ठीक पहली का मतलब ये कि सूची में ये सबसे पहली ही बहर है । आपने ठीक पहचाना ये बहरे रजज है ।

बहरे रजज़ के बारे में आपको ये तो पता ही होगा कि इसका स्‍थाई रुक्‍न 2212 है अर्थात मुस्‍तफएलुन । वहीं बहरे कामिल का स्‍थाई है 11212 अर्थात मुतफाएलुन  । सुनने में भले ही दोनों एक ही ध्‍वनि दे रहे हों लेकिन दोनों में अंतर है । अंतर ये है कि बहरे रजज़ के रुक्‍न में पहली मात्रा दीर्घ है जबकि कामिल में पहली मात्रा दीर्घ न होकर दो स्‍वतंत्र लघु हैं ।  ये फर्क ध्‍वनि में तो बहुत नहीं दिखाई देता लेकिन तकतीई में साफ दिखता है । तो इस बहर पर काम करते समय यही ध्‍यान रखना होता है ।

दीपावली के तरही मुशायरे के लिये बहरे रजज़ मुसमन सालिम  को चुना है । अर्थात 2212-2212-2212-2212 मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन । कुछ मित्रों का कहना है कि चूंकि ये बहर गाई जाने वाली बहरों में शामिल नहीं है इसलिये इस पर नये लोगों को लिखने में परेशानी आ सकती है । लेकिन मेरा कहना है कि नये लोग अब हैं कहां अब तो सब पुराने हो चुके हैं । तो अब तो मुश्किल काम होने ही चाहिये ।

जलते रहें,   दीपक सदा,    क़ाइम रहे,    ये रौशनी

मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन-मुस्‍तफएलुन

मुस्‍ (2)

तफ (2)

ए (1)

लुन (2)

जल

ते

हें

दी

पक

दा

क़ा

इम

हे

ये

रौ

नी

क़ाफिया - ई की मात्रा ( अजनबी, जिंदगी, चांदनी, आदमी ) रदीफ़ – अनुपस्थित ( गैर मुरद्दफ) 

काफिये को लेकर ध्‍यान दें कि उसमें अं की बिंदी नहीं हो । अर्थात नहीं, कहीं, ज़मीं  आदि नहीं लेने हैं । केवल और केवल ई की मात्रा को ही लेना है । एक ध्‍यान देना है कि मतले में ईता का दोष आ सकता है सो उसका ध्‍यान रखें । अर्थात मतले के दोनों काफियों में से कोई एक काफिया ऐसा हो जिसमें  ई  की मात्रा को हटाने के बाद शब्‍द अर्थहीन हो जाता हो । जैसे रौशनी  में से   की मात्रा हटाने के बाद रौशन  बचता है वो अपने आप में एक शब्‍द है जो अर्थहीन नहीं है । यदि आप रोशनी को एक काफिया बनाते हैं मतले में तो दूसरा काफिया आपको ऐसा रखना होगा जिसमें   की मात्रा हटाने के बाद शब्‍द अर्थहीन हो जाए   जैसे अजनबी । अजनबी में से ई को हटाने पर अजनब बचता है जो कोई अर्थ नहीं रखता । यहां पर  ई  हर्फे रवी है । ऐसा माना जाता है कि जो अतिरिक्‍त मात्रा है जो कि हर्फे रवी बन रही है उसको हटा कर ध्‍वनि  देखी जाती है कि अब काफिया क्‍या बच रहा है । यदि हर्फे रवी हटने के बाद काफिया अर्थहीन हो जाये तो उसका मतलब ये है कि हर्फे रवी अलग से जोड़ी गयी मात्रा न होकर उस शब्‍द का अभिन्‍न अंग है जिसको हटाया नहीं जा सकता है । तथा उस शब्‍द की पूरी ध्‍वनि ही लेनी है । ये छोटी ईता  ( ईता-ए-ख़फी) है । बड़ी ईता ( ईता-ए-जली) वो है जिसमें दोष साफ दिख जाता है जैसे दानिशमंद और दौलतमंद  को यदि मतले में काफिया बनाते हैं तो जो मंद है वो हटने के बाद दौलत और दानिश शब्‍द बच रहे हैं जो दोनों ही अर्थवान हैं । और चूंकि ये साफ दिख रहा है इसलिये इसे ईता-ए-जली बड़ा दोष कहते हैं । रौशनी  और  आदमी  ( रौशन+ई=रौशनी, आदम+ई=आदमी)  का दोष साफ दीख नहीं रहा है इसलिये उसे छोटी ईता ईता-ए-ख़फी कहते हैं । ( हालांकि कुछ लोग आदमी  की ई हटाने पर बचे आदम को अर्थहीन मान कर उसे उपयोग कर लेते हैं । )  ध्‍यान रखें कि ईता का ध्‍यान केवल और केवल मतले में ही रखना होता है तथा मतले में भी  किसी एक मिसरे में काफिया ( दोनों में नहीं) ऐसा हो जिसमें हर्फे रवी हटने के बाद शब्‍द बेकार( बिना अर्थ का) हो जा रहा हो। उस्‍ताद ने एक बार बहुत पहले ईता की व्‍याख्‍या की थी जो कुछ इस प्रकार थी उनका कहना था कि यदि हर्फे रवी मुख्‍य शब्‍द का बहुत अभिन्‍न अंग ( दो जिस्‍म एक जान) नहीं है तो वो रदीफ का हिस्‍सा बन जाएगा और उस स्थिति में काफिये का संतुलन गड़बड़ा जाएगा । ( वैसे उस्‍ताद का कहना था कि गैर मुरद्दफ स्थिति में ईता पर ध्‍यान देने की ज़रूरत नहीं होती, और इस बार का हमारा मिसरा गैर मुरद्दफ ही है ) ।

पूर्व में मैंने काफी बार ये कहा है कि ईता का दोष लिपि से होता है इसलिये देवनागरी में ये नहीं होता, लेकिन उर्दू लिपि में साफ दिखता है । इसीलिये देवनागरी में या हिंदी में ग़ज़ल कहने वालों को इससे मुक्‍त रखा गया है । लेकिन एक बार गौतम ने बहुत पते की बात कही कि यदि हम किसी विधा पर काम कर रहे हैं तो उसके पूरे नियमों का पालन करें । बस यही सोच कर आज ईता को लेकर ये बातें कहीं । चलिये अब एक प्रश्‍न का उत्‍तर दीजिये क्‍या किसी मतले में गुलाब और आब  ये दोनों काफिये लिये जा सकते हैं । यदि हां तो क्‍यों और नहीं तो क्‍यों ।

तिलक जी ने एक बहुमूल्‍य सुझाव दिया था कि सब लोग पूरी ग़ज़ल में एक शेर ऐसा निकालें जिसमें मात्राएं शुद्ध रूप में हों । शुद्ध रूप का अर्थ कि कोई दीर्घ गिरा कर लघु नहीं की गई हो । जैसा इस बार के मिसरा ए तरह में भी किया गया है । वहां सारी मात्राएं शुद्ध रूप में हैं । और उस शुद्ध शेर को मतले के ठीक बाद लगाना चाहिये । जिससे बहर का ठीक अनुमान लग सके । तो तिलक जी का सुझाव सर माथे पर तथा सभी लोग इसका ध्‍यान में रखें कि ग़ज़ल में एक शुद्ध शेर हो जिसमें सभी मात्राएं अपने शुद्ध रूप में ही हों ।

तरही की ग़ज़लें हर हाल में 20 अक्‍टूबर तक भेज दें ताकि हम जल्‍दी से मुशायरा प्रारंभ कर दीपावली को समापन कर सकें ।

और उदाहरण तो आप ही लोगों को बताने हैं कि इस बहर पर कौन से गीत या ग़ज़लें प्रसिद्ध हैं । हां एक प्रश्‍न ज़ुरूर पूछना हैं मुझे और वो ये कि क्‍या बशीर बद्र साहब की मशहूर ग़ज़ल कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो  क्‍या हमारी इसी बहर पर है अथवा नहीं । हां तो कैसे नहीं तो क्‍यों  ।

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