बुधवार, 29 दिसंबर 2021

आइए आज मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं ग़ज़ल से हट कर काव्य की अन्य विधाओं में लिखी गई रचनाओं के साथ, आज इन रचनाओं को लेकर आ रहे हैं राकेश खण्डेलवाल जी, पी. सी. गोदियाल परचेत जी और रेखा भाटिया जी।

इस बार का जो मिसरा है वह बहुत लचीला है। मतलब यह कि उसमें जो रुक्न हैं उनको अदल-बदल के आप अलग तरह के क़ाफ़िये पर अलग मिसरा बना सकते ​हैं। मिसरा है यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम, अब इसको आप चाहें तो यह भी कर सकते हैं 'गुलाबी है मौसम यहाँ सर्दियों का' या फिर 'है मौसम गुलाबी यहाँ सर्दियों का' या ''यहाँ सर्दियों का है मौसम गुलाबी। इस बहर की विशेषता यह होती है कि इसमें इस प्रकार के प्रयोग किए जा सकते हैं। हमारे मिसरे में पहला और दूसरा रुक्न एक दूसरे के साथ जुड़े हैं क्योंकि 'सर्दियों' शब्द पहले रुक्न में शुरू होकर दूसरे रुक्न तक फैला है। यदि चारों रुक्न् स्वतंत्र हों तब तो हम और भी उलट पलट कर सकते हैं।

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

आइए आज मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं ग़ज़ल से हट कर काव्य की अन्य विधाओं में लिखी गई रचनाओं के साथ, आज इन रचनाओं को लेकर आ रहे हैं राकेश खण्डेलवाल जी, पी. सी. गोदियाल परचेत जी और रेखा भाटिया जी।

रेखा भाटिया
प्यासी थी धरती और प्यासा अम्बर
पीली धूप में, पीली धरती पीला अम्बर
हमदम,हमसफ़र ऋतु की सखी पत्तियाँ
करें काम दिन-रात ,न गम ,न लें दम
कैलिफ़ोर्निया का दिल नमी को रोता
देख समर्पण पत्तियों का ऋतु फ़िदा है
चुराकर रंग धूप से ओढ़ाया पत्तियों को
लाल, पीली, नारंगी ख़ुशगवार पत्तियाँ
मचल छोड़ दरख्तों को चलीं फ़िज़ाओं में
एक सपना है आँखों में हवा में घुलता
बिछ जाती हैं राहों में करने शीत का स्वागत
हवा की सिरहन के साथ महकती सुगंध
आगे सरकता वक्त थोड़ा पीछे चल देता
थक कर दिन शामल ,सिकुड़ने लगते
ऊबकर रातें हो जाती कुंहासी लम्बी
शबनम मचल छम से चुरा रहीं पल-पल
शरमा सिकुड़ी आ बैठी ऋतु की पलकों में
देख पुरवाई थम गई है बादलों के संग
फ़िज़ाओं का मिज़ाज़ बदलने लगा अब
उनकी मस्ती का आलम नोकझोंक करती
साथ आ गया सर्दी का मौसम झमाझम
बरसने लगा ख़ुशगवार सावन सर्दी में
सांता आएगा तोहफ़े लेकर उत्तर ध्रुव से
क्रिसमस का दिन है जगजग घर आँगन
कैलिफ़ोर्निया का आदम अति ख़ुश है
सदियों का मौसम है गुलाबी, जश्न मनाते
उल्लास में नए साल को न्यौता है भेजा

 रेखा जी बहुत अच्छी कवयित्री हैं तथा दीपावली के मुशायरे से वे हमारे साथ जुड़ गई हैं। इस बार भी उन्होंने कैलिफ़ोर्निया की सर्दी के बहाने सर्दी की रुत का पूरा का पूरा चित्र खींच दिया है। बहुत से बिम्ब इस कविता में बनते- मिटते हैं। सर्दियों के साथ पीली नारंगी झड़ रही पत्तियों का बिम्ब हमेशा से जुड़ा र हा है। हमारे यहाँ चिनार के पत्ते झड़ते हैँ तो वहाँ अमेरिका कैनेडा में मेपल के पत्ते। वह भी झड़ने से पहले चिनार की ही तरह रंग बलते हैं।दिन के सिकुड़ कर छोटे हो जाने और रात के ऊबकर लंबे हो जाने का प्रयोग भी बहुत सुुंदर है, मौसम का पूरा सजीव दृश्य उपस्थित हो जाता है। और सर्दी के मौसम में साथ आता है क्रिसमस का त्यौहार जिसमें उत्तर ध्रुव से सांता आता है ख़ुशियाँ लेकर, उपहार लेकर। हर मौसम किसी न किसी त्यौहार से जुड़ा होता है ऐसे में त्यौहार की बात करते ही उस मौसम की संपूर्णता का एहसास होता है। बहुत ही सुंदर कविता कैलिफोर्निया की सर्दी के बहाने लिखी गई है। वाह, वाह, वाह।

पी. सी. गोदियाल 'परचेत'
रात चूड़ियों भरा हाथ होगा सिरहाने हमदम,
सुबह चाय पिलाऐंगे हम तुमको गरमा गरम,
शहर छोड के कर दो, तुम रुख इस तरफ का,
यहां पहाड़ों में सर्दियों का गुलाबी है मौसम।

घर का छज्जा, वादियों के नजारे और तुम हम,
स्वच्छ परिवेश, गुनगुनी धूप सुकून देगी नरम,
पल-पल बदलता हुआ मौसम दूर पर्वतों पर,
हिम मखमली सी गिरती दरख्तों पे झमझम।

बैठ मैखाने मिलकर बांटेंगे हर खुशी, हर गम,
सूर्यास्त पर जब सांझ ढलेगी मद्धम-मद्धम,
और सहा जाता नहीं विरह का दर्द-ए-पैहम,
'परचेत' आ जाओ, सर्दियों का गुलाबी है मौसम।

परचेत जी बीच बीच में हमारे मुशायरे में शिरकत करने आते रहते हैं। इस बार भी वे एक अलग तरह की रचना लेकर आए हैं। नज़्म शैली में लिखी गई इस रचना में मुसलसल सर्दियों के मौसम का ही ज़िक्र है और उसके बहाने अलग-अलग दृश्य बनाए गए हैं इस मौसम के। सिरहाने पर किसी का चूड़ियों भरा हाथ अगर हो तो मौसम अपने आप ही बदलने लगता है। और सुबह चाय की गरमा गरम चुस्कियों से ही तो पता चलता है कि सर्दी का मौसम चल रहा है। उस पर रचनाकार आमंत्रित कर रहा है पहाड़ों पर कि आ जाओ यहाँ गुलाबी मौसम है सर्दियों का। घर के छज्जे  से दूर वादियों का नज़ारा देखने का आमंत्रण है, जहाँ दूर पर्वतों पर खड़े दरख़्तों पर गिरती हुई सफ़ेद बर्फ के कारण मौसम बलता रहता है। गुनगुनी धूप में बैठ कर इस मौसम का आनंद लेना ही चाहिए। और सर्दियों का एक और ठिकाना मयखाना, जहाँ जाकर हर ख़ुशी, हर ग़म बाँटा जाता है। जब शाम ढलने लगेगी तो यहाँ ही जाकर विरह का दर्द काटा जाएगा। बहुत ही सुंदर रचना, वाह, वाह, वाह।

राकेश खंडेलवाल

लिखे गीत हमने अभी तक निरंतर
चलें आज कोई ग़ज़ल भी कहें हम
मिला है ये संदेश आकर पढ़ें कुछ
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

ये चिट्ठी मिली जोग सीहोर वाली
सजी एक महफ़िल में मसनद लगी हैं
जहां अश्विनी हैं, तो सौरभ ने आकर
सूनाते नकुल को, दो गज़लें पढ़ी हैं
कोई जाए नुसरत को लाये बुलाकर
प्रतीक्षा में इस्मत की रजनी खड़ी है
तो गुरप्रीत दें, दाद पर और दादें
ग़ज़ल पर ग़ज़ल की खिली फुलझड़ी है

ज़रा थाम लें दिल को शोहरा करम सब
ग़ज़ल अब पढ़ेंगे जो मंसूर हाशम
सही ! सर्दियों का गुलाबी है मौसम

हैं पंकज तो पंकज ,सुबीरी-गिरीशी
ग़ज़ल कहना उनके लिए खेल होता
सुलभ कह रहा है दिया हम भी बालें
तो सज्जन कहें-हाँ अगर तेल होता
पवन बह के बोले, चरणजीत सुन लो
ये फ़न वाकई न हंसी खेल होता
अगर त्यागी मेरा नहीं साथ देते
ग़ज़ल से हमारा नहीं मेल होता

अभी आते नीरज कलामे सुखन ले
अभी माइक को थामे बैठे हैं गौतम
भला सर्दियों का गुलाबी है मौसम

सुधा ने कहा एक मिसरा उला तो
कहें आके रेखाजी मिसरा-ए-सानी
कहीं कुछ कमी शेष रहने न पाए
यही देखते हैं खड़े संजय दानी
सुलभ है तिलक के लिए शायरी यूं
कि अंशआर की है नदी सी रवानी
हमें एक मिसरा भी कहने में आई
मुसीबत, कि याद आ गई अपनी नानी

तो तरही हुज़ूर आपको हो मुबारक
हमारे लिए भेज दें बीस चमचम
हमारा तो बस नाश्ते का ही मौसम

राकेश जी हर तरही में एक रचना ऐसी अवश्य लिखते हैं जिसमें सभी रचनाकारों का नाम आ जाता है। और नाम भी इस सुंदरता के साथ लिए जाते हैं कि वे रचना का ही हिस्सा लगते हैं। इस प्रकार की रचनाओं से मुशायरे के प्रति रचनाकारों का जु़ड़ाव और बढ़ जाता है। अब इस रचना की प्रशंसा में क्या कहा जाए, कितनी ख़ूबसूरती के साथ सारे मोतियों को इस माला में पिरोया है राकेश जी ने। सभी रचनाकार आ गए हैं इसमें। कई ऐसे भी रचनाकार आ गए हैं (नीरज जी) जो इन दिनों लिख ही नहीं रहे हैं। शायद इस माला में मोती की तरह आ जाने के प्रभाव में वे फिर से लिखना प्रारंभ कर दें। क्योंकि इस रचना में तो नीरज कलामे सुख़न लेकर आ ही रहे हैं। बहुत कमाल करते हैं राकेश जी इस प्रकार की रचनाओं में। और हाँ उस पर अंत में जो इनकी मासूम सी इच्छा व्यक्त की गई है केवल बीस चमचम की वह तो एकदम ही जानलेवा है। भिजवाते हैं उनको यह सामग्री जल्द ही। बहुत ही सुंदर रचना, वाह, वाह, वाह।

तीनों रचनाकारों ने अपनी अलग तरह की रचनाओं से मुशायरे को एकदम नया रंग प्रदान कर दिया है। आप भी इन रचनाओं का आनंद लीजिए दाद दीजिए। मिलते हैं अगले अंक में।

सोमवार, 27 दिसंबर 2021

आइये आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं तीन रचनाकारों कंचन सिंह चौहान, नकुल गौतम और आशीष 'रोशन' के साथ।

सोचा तो यह था कि ठंड का तरही मुशायरा क्रिसमस पर समापन कर दिया जाएगा, लेकिन रचनाओं के आने का सिलसिला जारी है और उधर ठंड भी जारी है, तो तरही का आयोजन भी जारी है। कोई भी मंच असल में उसके लेखकों का ही तो होता है, लेखकों से ही यह साहित्य संसार बना है, इसलिए लेखकों का फ़ैसला ही अंतिम फ़ैसला होना चाहिए। तो हम इस मुशायरे को जारी रखे हुए हैं। पिछले अंक में मैंने कुछ बातें की थीं, जिन पर आप लोगों की राय जानने की इच्छा थी, हो सके तो इस अंक में अपनी प्रतिक्रिया दीजिएगा।
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
आइये आज तरही मुशायरा आगे बढ़ाते हैं तीन रचनाकारों कंचन सिंह चौहान, नकुल गौतम और आशीष 'रोशन' के साथ। कंचन के लिए सर्दियों का मौसम बहुत संघर्ष का होता है, सर्दियों का मौसम कंचन के लिए गुलाबी नहीं होता कविताओं की तरह। इसीलिए कंचन को निर्धारित तरही के मिसरे से छूट देते हुए, सर्दी के मौसम पर जो ग़ज़ल कंचन ने कही है उसे शामिल किया जा रहा है।

कंचन सिंह चौहान
लैला, मीरा, हीर, सोहनी से हट कर हैं मेरे काम,
दीवानों का नाम लिखो तो आगे लिखना मेरा नाम।

उखड़ी साँसे, डूबी नब्ज़ें, गुमहोशी से ठंडी देह,
तुम होते तो कुछ सिंक जाती सर्दी की ये ठंडी शाम।
सुना तुम्हारे यहाँ दिसम्बर उजला-उजला रहता है,
मेरे ठिठुरे कोहरे को क्या भेज सकोगे थोड़ी घाम ?

जब भी आना, ले कर आना सीने में सुलगा कोयला,
ठंडी आहें गले लगें तो मिले गुनगुना सा आराम।
अँगड़ाई ले कर आँगन में पसर गयी है उजली धूप,
सर्द हवा तू दुष्ट सहेली, लेने दे, दो पल आराम

नदी किनारे बाड़ लगा कर, बँसवारी की हरियल सी
छोटी सी इक क़ब्र बनाना, जिस पर लिखना मेरा नाम

कंचन की रचनाएँ हमेशा एक सन्नाटे में डूबी होती हैं। एक उदास से सन्नाटे में। जो लोग कंचन से मिल चुके हैं वे जानते हैं असल में कंचन ऐसी नहीं है, वह हँसती, खिलखिलाती ज़िंदगी से भरी हुई है। लेकिन रचनाओं में एकदम दूसरा रूप कंचन का सामने आता है। इस ग़ज़ल के मतले में वही उदासी अलग रूप रख कर सामने आई है। अगले ही शेर में हिज्र का एकदम नया रूप, किसी के होने से सर्दी की शामों का सिंक जाना,, वाह क्या कमाल का बिम्ब रचा है। और फिर किसी के उजले-उजले दिसम्बर से अपने ठिठुरे कोहरे के लिए घाम मँगवाना, क्या ग़ज़ब प्रतीक है, प्रेम का एकदम नया रूप। यह सिलसिला अगले शेर में भी जारी है, जहाँ किसी के सीने में सुलगते कोयले से गुनगुना आराम पाने की ख़्वाहिश कमाल तरीक़े से सामने आई है। उजली धूप और सर्द हवा के द्वंद्व को अगले शेर में बहुत सुंदरता से लिया गया है। अंतिम शेर पीड़ा का चरम है, यहाँ पलायन नहीं है बल्कि प्रेम में मिटने की चाह है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।

 नकुल गौतम
जमी घास पर दोपहर तक है शबनम
कोई कर गया आँच सूरज की मद्धम
हरी पत्तियाँ क्यों मनाएँगी मातम
ये गिरने से पहले सुनायेंगी सरगम

है जादू पहाड़ों की ताज़ा हवा का
कि मीलों चलें फिर भी घुटता नहीं दम
कभी धूप आये कभी छाये कोहरा
ये मौसम कहीं ख़ुश्क है तो कहीं नम

जो बादल अभी सुस्त से दिख रहे हैं
ये सब जनवरी में दिखाएंगे दम खम
बहाना मिले आप मिलने जो आएं
मेरी आजकल चाय होती है कुछ कम

निकलते नहीं दिन ढले आप बाहर
सो छत पर नहीं दिख रहे शाम को हम
हिमाचल में हूँ इस बरस इत्तफाकन
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

अभी वक़्त है बर्फ़ गिरने में थोड़ा
यहाँ जल्द होगा सफेदी का परचम

नकुल गौतम के यहाँ प्रकृति का बहुत अद्भुत चित्रण होता है। ऐसा चित्रण इससे पहले गौतम राजऋषि की ग़ज़लों में देखा है। मतले में ही सूरज की आँच को मद्धम कर जाने वाली बात बहुत सुंदर है। हरी पत्तियों का शेर ग़ज़ब की समारात्मकता लिए हुए है। पहाड़ों की ताज़ा हवा के बारे में बहुत अच्छे से अगले शेर में बात कही गई है। बादलों के सुस्त होने और जनवरी में दमखम दिखाने की बात बहुत ही सुंदर है, हमारे यहाँ इसे मावठे की वर्षा कहते हैं। और प्रेम का प्रयोग चाय के माध्यम से बहुत सुंदरता से हुआ है। प्रेम जब प्रतीकों पर सवार होकर आता है, तो उसकी सुंदरता कई गुना बढ़ जाती है। किसी के घर से नहीं निकलने से हमारा भी  छत पर नहीं निकलना, आने वाली पीढ़ियाँ इस प्रेम से मोहताज रहेंगी हमेशा। हिमाचल वाले शेर में इत्तफाकन शब्द क्या कमाल तरीक़े से आया है। और उतनी ही सुंदर गिरह। और अंतिम शेर में बर्फ़ गिरने की प्रतीक्षा तथा सफ़ेदी का परचम लहराने का प्रयोग बहुत सुंदर है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।

आशीष 'रोशन'
पहाड़ों की चोटी पे बर्फीले परचम,
हवा रोकने को ये चोगे की रेशम,
वो महफ़िल पुरानी रहेगी अगरचे,
नये होंगे फाहे, नयी होगी सरगम,

अभी इश्क़ ने रब का दर्ज़ा दिया है,
थे कुछ रोज़ पहले ये दोनों भी आदम,
कई दिन लड़ाई खुदा से चलेगी,
जुदाई का तेरी हुआ है ये आलम,
हवा को है चूमा लबो से जो तुमने,

"यहां सर्दियों का गुलाबी है मौसम"
ठहर जाओ कुछ देर तुम भी यहीं पर
रुकी जैसे सर्दी में फूलों पे शबनम,
भला क्यों मुहब्बत पे इल्जाम आये,
बंधा है जो किस्मत के धागे में संगम,

तेरी याद तन्हा मुझे कर रही हैं,
नहीं खोलना था ये कॉलेज का अल्बम,
ये गर्मी से बारिश का तर्के तअल्लुक,
लगे सर्दियां बस हैं गर्मी का मातम,

बहुत जोर से आज हंसना हुआ है,
मैं इतना हंसा की हुई आंख भी नम,
पहाड़ो से हैं हम, शराबी नहीं हैं,
पियाला मुहब्बत का भर के पियें हम।

न पिज़्ज़ा कभी मैंने महँगा सुना है,
सुना है कि मण्डी में महँगे हैं शलगम।।

आशीष का हमारी तरही में यह प्रथम प्रयास है, और बहुत शानदार प्रयास है यह। मतले में ही बर्फ़ीले परचम तथा चोगे की रेशम जैसे प्रयोग बहुत सुंदर बने हैं। अभी इश्क़ ने रब का दर्जा दिया है में मिसरा सानी बहुत सुंदरता के साथ सामने आता है। और फिर हिज्र में ख़ुदा से लड़ाई चलने वाला शेर बहुत अच्छा बना है। किसी ने हवा को लबों से चूम लिया और गुलाबी मौसम हो गया, बहुत ही सुंदर गिरह। किसी से रुकने का मनुहार जैसे शबनम रुकती है, बहुत ही सुंदर बिम्ब है यह। और कॉलेज की अल्बम खोलने वाला शेर तो एकदम कलेजे में धँसने वाला शेर है। गर्मी और बारिश का सर्दियों से जो रिश्ता जोड़ा है तथा उसमें सर्दियों को गर्मी का मातम बताया है, वह बहुत नई बात है। बहुत ज़ोर से हँसने पर अंदर की पीड़ा का बाहर आ जाना और उसके कारण आँखों का नम हो जाना बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। पहाड़ों सा होना और पियाला प्रेम का पीना बहुत अच्छे से व्यक्त हुआ है। और अंतिम शेर में पिज्जा तथा शलगम की तुलना बहुत सुंदर से की है। बहुत सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।

आज तो तीनों शायरों ने मिलकर सर्दियों के कई सारे चित्र खींच दिए हैं। ऐसा लग रहा है कि यह ग़ज़लें नहीं हैं बल्कि तस्वीरें हैं मौसम की। तो आप भी इन शानदार ग़ज़लों पर दाद दीजिए और प्रतीक्षा कीजिए अगेल अंक की।

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आइये आज तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं तीन रचनाकारों राकेश खण्डेलवाल जी, सुलभ जायसवाल और गुरप्रीत सिंह के साथ।

दोस्तो इस बार मुशायरा बहुत अच्छी ग़ज़लों का समावेश किए हुए है। इस बार की बहर गाने में बहुत अच्छी ग़ज़ल है। कभी सोचा था कि इस ग़ज़ल पर प्रयोग करूँगा कि सारे रुक्न अपने आप में स्वतंत्र हों, मतलब हर रुक्न पूरा हो रहा हो, ऐसा न हो कि किसी रुक्न में आधा शब्द हो और बाकी आधा दूसरे रुक्न में जा रहा हो। जैसे आज गुरप्रीत सिंह का एक मिसरा है 'निकलते, निकलते, बचा था, मेरा दम' इसमें चारों रुक्न एकदम पूर्ण हैं और एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। कभी यह भी सोचा था कि इसके साथ ही एकदम शुद्ध मात्राओं वाली ग़ज़ल भी कहूँगा, मतलब जिसमें कहीं किसी मात्रा को गिरा कर न पढ़ना पड़े, सारी मात्राएँ अपने असली वज़्न पर ही हों। लेकिन यह दोनों काम ज़रा मुश्किल हैं, और ऐसा करने पर कहन पर पकड़ छूट जाती है। ऊपर वाले मिसरे में बाकी सब मात्राएँ तो शुद्ध हैं बस आख़िरी रुक्न में मेरा का मे गिराना पड़ रहा है। एक ज़रा मुश्किल काम तो है कि ऐसी ग़ज़ल कहना जिसमें सारी मात्राएँ भी शुद्ध हों और रुक्न भी स्वतंत्र और शुद्ध हों। कभी कोशिश की जाएगी इस तरह का प्रयोग करने की। जैसे-
न जाने, कहाँ से, कहाँ तक, चलेंगे
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
आइये आज तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं तीन रचनाकारों राकेश खण्डेलवाल जी,  सुलभ जायसवाल और गुरप्रीत सिंह के साथ।
गुरप्रीत सिंह
मुझे दिल का दौरा न पड़ जाए बेगम।
न आया करो सामने मेरे इकदम।
उठाया था जब मैंने घूंघट तुम्हारा,
निकलते निकलते बचा था मेरा दम।

हुई जब से शादी तो मूषक भए हैं,
कभी दोस्तो हम भी होते थे सिंघम।
मैं पीता हूं बेगम की ज़हरी नज़र से,
तू होगा शराबी, मगर मुझ से कम-कम।

गुलाबों की बोतल खुले है रोज़ाना,
''यहां सर्दियों का गुलाबी है मौसम।"
वो मुझको समझती है बस एक जोकर
जो मेरी निगाहों में है दिल की बेगम।
गुरप्रीत सिंह ने इस बार हजल पर हाथ आजमाने की कोशिश की है और बहुत अच्छे से की है। मतले में ही एकदम भयंकर किस्म की चेतावनी दी गई है, अब यह चेतावनी भयंकर रूप के कारण है या किसी और कारण से, यह समझना होगा। मगर अगले ही शेर में बात साफ हो गई कि घूँघट उठाने पर दम निकलते निकलते ही बचा था। दुनिया का सबसे बड़ा सच अगले शेर में है जो दुनिया के हर पुरुष की सिंघम से मूषक तक की यात्रा का चित्रण है। अगले शेर में एक बार फिर विस्मयादिबोध है कि यह जो ज़हरी नज़र है यह असल में क्या है, जिसके सामने दुनिया का हर शराबी कमज़ोर साबित हो रहा है। गुलाबों की बोतल खुलने से मौसम गुलाबी हो जाना भी एकदम कमाल है। और अंतिम शेर में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सच चित्रित किया गया है जिसमें हम सब की कहानी को शब्द दिए गए हैं। बहुत ही सुंदर वाह, वाह, वाह।
सुलभ जायसवाल
कभी दूर हमसे न जाना ओ हमदम
तुम्हीं से है हिम्मत तुम्हीं से है दमख़म
तुम्हारी ही बातें तुम्हारे फ़साने
तुम्हारे बिना कब कहाँ रह सके हम

खिली धूप में भी है कनकन हवाएँ
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
निकल कर रजाई से उपवन में देखा
सुबह पत्तियों पर चमकती हैं शबनम

दिनों बाद निकला है सूरज यहां पर
वगरना पहाड़ों पे पसरा था मातम
लगे ना कोई लॉकडाउन अचानक
सफर आख़री हो न लाचार बेदम

कभी घूम के आओ लद्दाख तिब्बत
वहाँ भी है दुनिया जहाँ राह दुर्गम 
दूर नहीं जाने की बात कहता मतला बहुत अच्छा है, जब हम प्रेम में होते हैं तो सचमुच हमारा शक्ति केन्द्र वही होता है। अगले ही शेर में प्रेम की सचाई है कि जब हम प्रेम में होते हैं तो हमारे पास बस उसी के फ़साने उसी की बातें होती हैं। अगले शेर में कनकन हवाओं का प्रयोग बहुत सुंदर बना है। हमारे यहाँ लोक में कनकन हवाओं की बात होती है, लोक के शब्दों के प्रयोग से रचनाएँ सुंदर हो जाती हैं। रजाई से निकल कर शबनम को देखने का शेर अच्छा है। पहाड़ों पर सूरज निकलने एकदम मौसम बदल जाने का प्रयोग बहुत सुंदर है, सच में पहाड़ों पर सूरज निकलने से बहुत कुछ बदल जाता है। कोराना के लॉकडाउन का चित्रण करता अगला शेर अच्छा बना है, उम्मीद है कि यह दुआ क़बूल होगी। और अंत में लद्दाख के बहाने बड़ी बात कही गई है कि जहाँ रास्ते दुर्गम होते हैैं, वहाँ भी ज़िंदगी होती है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।
राकेश खंडेलवाल
सजाई है तुमने ग़ज़ल की ये महफ़िल
यहां सर्दियों का गुलाबी है मौसम
यहां ताकते रह गए खिड़कियों से
कहाँ सर्दिया का गुलाबी है मौसम ?


नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की
नहीं भाव फिसलें अधर की गली में
कहें कैसे गज़लें ? तुम्ही अब बताओ
घुले शब्द सब, चाय की केतली में
सुबह तीन प्याली से की थी शुरू फिर
दुपहरी तलक काफियों के ही मग हैं
अभी शाम को घर पे पहुंचेंगे तब तक
तबीयत रहेगी उलझ बेकली में

यहां तो हवाएं हो चालीस मीली
मचाती है दिन में ओ रातों में उधम
कहाँ है बताओ गुलाबी वो मौसम


चुभे तीर बन कर ये बर्फीले झोंके
गए छुट्टियों पर हैं सूरज के घोड़े
नहीं धूप उठती सुबह सात दस तक
इधर चार बजते , समेटें निगोड़े
बरफ से भी ठंडी हैं बाहर फ़िजये
 इकल करके देखें वो हिम्मत नहीं है
जुटाए जो साधन लड़े सर्दियों से
सभी के सभी हैं लगें हमको थोड़े

गया पारा तलघर समाधि लगाने
तो लौटेगा बन करके बासंत-ए-आज़म
नहीं है गुलाबी ज़रा भी ये मौसम


ठिठुर कँपकँपाती हुई उंगलियां अब
न कागज़ ही छूती, न छूती कलम ही
यही हाल कल था, यही आज भी है
है संभव रहेगा यही हाल कल भी
गये दिन सभी गांव में कंबलों के
छुपीं रात जाकर लिहाफ़ों के कोटर
खड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशायें
हँसे धुंध, बाहों में नभ को समोती

अभी तो शुरू भी नहीं हो सका है
अभी तीन हफ्ते में छेड़ेगा सरगम
तो नीला, सफेदी लिए होगा मौसम

राकेश जी के गीत मौसम का पूरा चित्र खींचते हैं। वे अमेरिका में रहते हैं, इसलिए गुलाबी सर्दियों की तलाश की बात उनके गीत में इसीलिए आई है क्योंकि वहाँ सर्दियाँ ऐसी गुलाबी नहीं होती हैं। पूरा दिन व्यस्तता में बीतता है, जहाँ कॉफी के प्याले पर प्याले पिए जाते हों अपने आप को गरम रखने के लिए, जहाँ चालीस मील प्रति घंटे की रफ़्तार से सर्द हवाएँ चल रही हों, वहाँ सच में गुलाबी सर्दियाँ कैसे होंगी। अगले ही बंद में सूरज के घोड़ों के छुट्टी पर होने का प्रयोग है। सात बजे तक धूप के सो कर नहीं उठने का प्रयोग अनूठा है। पारा तलघर में समाधि लगाने गया हो तो कैसे भला गुलाबी सर्दियों की बात की जा सकती है। रात लिहाफ़ों के कोटर में जाकर छुपी है और कोहरे का कोट पहन कर दिशाएँ खड़ी हैं, बहुत ही सुंदर प्रयोग हैं ये। और उस पर धुंध का बाहों में नभ को समोना बहुत ही सुंदर है सारा दृश्य चित्र। बहुत ही सुंदर गीत है, वाह, वाह, वाह।
आज भी तीनों रचनाकारों ने एकदम सर्दी को बुला ही लिया है। तीनों रचनाओं ने पूरे दृश्य मौसम के खींच दिए हैं। ऐसा लग रहा है जैसे हम बर्फ़ से लदे हुए पहाड़ों पर मुशायरा कर रहे हैं। आप दाद दीजिए तीनों रचनाकारों को और प्रतीक्षा कीजिए अगले अंक की।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

आइए आज दो बहुत ही उम्दा शायरों धर्मेन्द्र कुमार सिंह और दिगम्बर नासवा के साथ इस तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं ।

तरही का आगाज़ बहुत अच्छे से हुआ है। और कमाल की बात यह है कि लगता है कि तरही का इंतज़ार सर्दी भी कर रही थी, इधर हमारा मुशायरा प्रारंभ हुआ और उधर सर्दियों ने भी अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। मौसम एकदम से बदल गया है। दो दिन पहले तक जो मौसम मेहरबान था, वह अब एकदम ठंड के चाबुक ले कर आ गया है। वैसे भी पिछले कुछ सालों से यही हो रहा है कि अचानक ही एकदम ठंड का मौसम आ जाता है। ख़ैर इस बार पहली बार हम इस मौसम के स्वागत में मुशायरा आयोजित कर रहे हैं। और यह मुशायरा भी आप सब के उत्साह के कारण बहुत अच्छा होने वाला है।
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
आइए आज दो बहुत ही उम्दा शायरों धर्मेन्द्र कुमार सिंह और दिगम्बर नासवा के साथ इस तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं ।
 धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम

ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम
मतले का मिसरा सानी एकदम कमाल है, विरोधाभास को इस प्रकार मिसरे में उपयोग करना, वाह और उस पर क्या सोच है। प्यार को लेकर कहा गया शेर बहुत सुंदर है, सच में समंदर भी उस प्यास को कभी नहीं भर सकता जो प्यास प्यार की होती है। और उस पर बुद्ध से गौतम बन जाने वाला अगला शेर। क्या कमाल का मिसरा सानी बनाया है, बहुत ही ज़बरदस्त मिसरा है। कुहासे को लब से छू लेने की बात करने वाला शेर भी एकदम कमाल है, और उस के साथ गिरह भी बहुत सुंदर बाँधी गई है। अंतिम शेर बहुत मासूमियत के साथ कहा गया है। कितनी छोटी सी इच्छा है दिल की। बहुत ही कमाल । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह, वाह, वाह।

दिगम्बर नासवा
पहाड़ों ने थामा है सर्दी का परचम
फ़िज़ाओं में कोहरे की बजती है सरगम
डिनर सुरमई अब्र पर बुक है अपना
परिंदों के पर पे चलें बैठ के हम

वहीं चाँदनी सो रही मस्त हो के
जहाँ बर्फ़ की है रज़ाई मुलायम
हवा सर्द मौसम के नश्तर हों जैसे
खिली धूप जैसे के जाड़ों की मरहम

चिनारों पे फ़ुर्क़त के लम्हे मिलेंगे
सुलगते हैं यादों की सिगड़ी में तुम-हम
चहकने लगे कुछ रिबन आसमानी
हरी पत्तियों पर गिरी यूँ ही शबनम

न जाड़ों में ठंडी, न गर्मी गरम हो
ख़ुदा मान जाए तो बदले ये सिस्टम
शटर दिन का खुलने पे दिखने लगा है
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम 
बहुत ही सुंदर मतले के साथ ग़ज़ल शुरू हो रही हैसर्दी का परचम तथा कोहरे की सरगम का प्रयोग बहुत ही शानदार है। अगले शेर में कल्पना की उड़ान अब्र पर डिनर करने के लिए परिंदों के पर पे बैठ कर जा रही है, बहुत ख़ूब। बर्फ़ की रज़ाई में चाँदनी का सोना, क्या ही कमाल प्रयोग किया गया है। मौसम में नश्तर पर धूप का मरहम, एकदम नयी बात, धूप को पहली बार मरहम लगाते देखा। चिनारों का ज़िक्र न हो तो सर्दी का मौसम ही कैसा, उस पर यादों की सिगड़ी तो एकदम सुंदर है। इस ग़ज़ल में प्रतीकों का कमाल बहुत अच्छे से किया गया है, जैसे रिबन आसमानी बहुत सुंदरता से आया है। और अगले शेर में ख़ुदा से सिस्टम बदल देने की मासूम गुज़ारिश। अंतिम शेर में गिरह भी बहुत सुंदर तरीक़े से बाँधी गई है। दिन का शटर खुलना एकदम कमाल है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह, वाह।
आज के दोनों शायरों ने एकदम तरही को जाड़ों के मौसम के रंग प्रदान कर दिए हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़लें कही हैं दोनों ने। बिलकुल नए प्रयोग किए हैैं दोनों ने अपनी ग़ज़लों में। सर्दियों के मौसम की सुंदरता लिए हैं दोनों ग़ज़लें। तो आप भी दाद दीजिए और प्रतीक्षा कीजिए अगले अंक की।

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

आइए आज से प्रारंभ करते हैं जाड़ों का तरही मुशायरा, आज सुनते हैं राकेश खंडेलवाल जी और मन्सूर अली हाशमी जी से उनकी रचनाएँ।

इस बार पहली बार हम ठंड के मौसम पर तरही मुशायरा आयोजित कर रहे हैं। इससे पहले हमने गर्मी, बरसात, वसंत सब पर तरही मुशायरा आयोजित किया। जाड़ों का मौसम हमसे इसलिए छूटता रहा क्योंकि दीपावली का तरही मुशायरा आयोजित करने के बाद एकदम कुछ आलस आ जाता है। और फिर होली तक यह आलस बना ही रहता है। लेकिन इस बार सोचा कि अपने इस पसंदीदा मौसम को क्यों छोड़ा जाए। बस एक मिसरा बना और भूमिका बन गई तरही मुशायरे की।अच्छा लगा यह देख कर कि आप सब ने इस बार बहुत उत्साह के साथ इस मुशायरे में अपनी ग़ज़लें भेजी हैं। बल्कि ऐसा लग रहा है कि यह उत्साह दीपावली के मुशायरे के उत्साह से भी कहीं अधिक है। ब्लॉग पर यह आयोजन करते हुए अब तो पन्द्रह बरस हो रहे हैं, लेकिन आपके उत्साह के कारण हर मुशायरा एकदम नया सा लगता है। आपका प्रेम और दुलार जो इस मुशायरे को मिलता है, वही पूँजी है जीवन की।

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

आइए आज से प्रारंभ करते हैं जाड़ों का तरही मुशायरा। आज दो रचनाकार अपनी रचनाएँ लेकर आ रहे हैं। यह रचनाकार हर तरही में एक से अधिक रचनाएँ भेज कर हमारे मुशायरे को समृद्ध करते हैं। आज सुनते हैं राकेश खंडेलवाल जी और मन्सूर अली हाशमी जी से उनकी रचनाएँ।

राकेश खंडेलवाल

मिला है निमंत्रण, ग़ज़ल इक कहें आ
“यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम”
तो मन ये कहे अब चलें हम वहीं पर
जहां सर्दियों का गुलाबी हो मौसम


तो फिर जाग उट्ठी है मन में अचानक
वो सोंधी महक बाज़री रोटियों की
खुली धूप में गोठ इतवार वाली
उड़द दाल की चूरमा बाटियों की
कटोरी भरा गाजरी गर्म हलवा
इमारती वे ताज़ा गरम चाशनी में
समोसे, कचौड़ी, तली मूँगफलियाँ
महकती हुई वादियों, घाटियों की
मगर फिर हक़ीक़त मिटा देती सपना
औ ख़्वाबों का फिर टूट जाता है परचम


चली आइ है सामने बचपनों की
वे कोहरे में डूबी हुई कच्ची राहें
ठिठुरती हुई स्वेटरों मफ़लरों में
दो सूखे अधर मिचमिचाती निगाहें
भरी जेब चिलग़ोज़े और किशमिशों से
थे सात आठ काजू या बादाम संग में
इसी के सहारे सुबह से दुपहर तक
रही मौन ठंडी सिकुड़ती कराहें
अभी गर्म कमरे में पाँवे पसारे
यही यादें हमको किए जाती बेदम


कहीं खो गई तापने की अंगीठी
जो पत्थर के लकड़ी के कोयले जलाती
कहाँ खोई है साँझ चौपाल वाली
जहां पीढ़ियाँ थी चिलम गुड़गुड़ाती
बताना अभी हैं क्या आलाव जलते
अभी चंग पर गए जाती क्या लहरी
अभी गूंजती है वे सारंगियाँ क्या
जो दरवेशिया थीं कथाएं सुनाती  
यहां ऊहापोहों  के उमड़े कुहासे
मनाते है उन गर्म लम्हों का मातम

यह गीत नहीं है बल्कि जैसे पूरा एक चित्र है मौसम का। इस चित्र में बाजरे की रोटी के साथ में इतवार की गोठ मनाती हुई मंडली किसी कोने के दिखाई दे रही है तो गाजर का हलवा, कचौरियाँ, इमरती जैसे व्यंजन पहले ही बंद में किसी कोने में रखे हुए हमको दिखाई दे रहे हैं। बचपन में स्वेटर तथा मफलरों से अपने आप को बचाता हुआ बचपन गलियों में घूम रहा है जेब में किशमिशें और चिलगौज़े भर कर। देर रात तक तापने की अंगीठी में सुलगते हुए पत्थर के कोयले और साँझ की चौपाल पर गुड़गुड़ाती हुई चिलमें, जलते हुए आलाव पर दरवेशों के किस्से। सचमुच ऐसा लग रहा है कि यह गीत नहीं बल्कि एक पूरा का पूरा चित्र है, जो हमें अपने बचपन की गलियों में ले जा रहा है। बहुत ही सुंदर गीत वाह वाह वाह।

मन्सूर अली हाश्मी

यहां पड़ रही है जगह पहले ही कम
कहीं मन में बसने न आ जाये बालम
अजी खाइये अब ग़िज़ाए मुरग़्ग़न'
'यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम'

न पंखे की हाजत न ए.सी. की झंझट
खपत कम तो आयेगा बिजली का बिल कम
गरम पानी से गर नहाना हुआ तो
'गटर गैस', चूल्हे को कर लेंगे बाहम

कभी फूल झरते थे बातों से उनकी
हर इक जुमले पर अब निकलते है बलग़म
कभी 'लेडी-फिंगर' थे, नाज़ुक बदन था
है कद्दू की मानिंद अब भारी-भरकम

वो फूलों की रानी बहारो की मलका
रहे हम तो माली वह कहलाती 'मेडम'
हुए 'शेख़'* समझो न कमज़ोर हमको
बहुत 'हाश्मी' में अभी तो है दमख़म

* शेख़ =बुज़ुर्ग

मन्सूर अली हाशमी जी की हज़लें सुन कर किस के मन में गुदगुदी नहीं होती है। इस बार ठिठुरते हुए मौसम में उनकी यह ग़ज़ल हँसी की गर्मी पैदा कर रही है। वन बीएचके में बालम के आन बसने की चिंता कवि को मतले में दुखी किए हुए है। अगले ही शेर में बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। कवि को भी जेब की चिंता होती है, तभी तो वह ठंड के मौसम में ख़ुश है कि एसी बंद हो जाएँगे तो बिजली का बिल कम हो जाएगा। ठंड के मौसम में फूल की जगह बलग़म का चित्रण कवि की चिंता को दर्शा रहा है। हर लेडी फिंगर को अंतत: कद्दू होना है, इस चिंरंतन सत्य को बहुत अच्छे से बाँधा गया है। मकते के शेर में हमारे बुज़ुर्ग शायर अपने दमख़म को लेकर कितने आश्वस्त हैं, यह देखकर अच्छा लगा । बहुत सुंदर हज़ल, वाह वाह वाह।

आज के दोनों रचनाकारों ने बहुत अच्छे से मुशायरे का आगाज़ किया है। कल से ही हमारे यहाँ जाड़ा शुरू हुआ है और आज ही इन दोनों रचनाकारों ने अपनी रचनाओं से मामला गर्म कर दिया है। तो आप भी दाद दीजिए दोनों रचनाकारों को और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का।

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन, अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान तथा शिवना प्रकाशन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा-कविता सम्मान घोषित

प्रेस विज्ञप्ति सादर प्रकाशनार्थ
ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन, अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान तथा शिवना प्रकाशन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा-कविता सम्मान घोषित
तेजेंद्र शर्मा, रणेंद्र, उमेश पंत, लक्ष्मी शर्मा, इरशाद ख़ान सिकंदर तथा मोतीलाल आलमचंद्र को सम्मान
सीहोर (​1 दिसंबर)
ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन अमेरिका ने अपने प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान तथा शिवना प्रकाशन ने अपने कथा-कविता सम्मान घोषित कर दिए हैं। ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन सम्मानों की चयन समिति के संयोजक पंकज सुबीर ने बताया कि 'ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन लाइफ़ टाइम एचीवमेंट सम्मान' हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार इंग्लैंड में रहने वाले श्री तेजेन्द्र शर्मा को प्रदान किए जाने का निर्णय लिया गया है, सम्मान के तहत इक्यावन हज़ार रुपये सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। वहीं 'ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान' उपन्यास विधा में वरिष्ठ साहित्यकार श्री रणेंद्र को राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनके उपन्यास 'गूँगी रुलाई का कोरस' हेतु तथा कथेतर विधा में श्री उमेश पंत को सार्थक प्रकाशन से प्रकाशित उनके यात्रा संस्मरण 'दूर, दुर्गम, दुरुस्त' हेतु प्रदान किए जाएँगे, दोनो सम्मानित रचनाकारों को इकतीस हज़ार रुपये की सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। शिवना प्रकाशन के सम्मानों की चयन समिति के संयोजक श्री नीरज गोस्वामी ने बताया कि 'अंतर्राष्ट्रीय शिवना कथा सम्मान' हिन्दी की चर्चित लेखिका लक्ष्मी शर्मा को शिवना प्रकाशन से प्रकाशित उनके उपन्यास 'स्वर्ग का अंतिम उतार' के लिए, 'अंतर्राष्ट्रीय शिवना कविता सम्मान' महत्त्वपूर्ण शायर इरशाद ख़ान सिकंदर को राजपाल एण्ड संस से प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह 'आँसुओं का तर्जुमा' के लिए प्रदान किया जाएगा दोनो सम्मानित रचनाकारों को इकतीस हज़ार रुपये की सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। 'शिवना अंतर्राष्ट्रीय कृति सम्मान' शिवना प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'साँची दानं' के लिए श्री मोतीलाल आलमचन्द्र को प्रदान किया जाएगा, सम्मान के तहत ग्यारह हज़ार रुपये सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन अमेरिका तथा शिवना प्रकाशन द्वारा हर वर्ष साहित्य सम्मान प्रदान किए जाते हैं। ढींगरा फ़ैमिली फ़ाउण्डेशन अमेरिका का यह पाँचवा सम्मान है। हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार, कवयित्री, संपादक डॉ. सुधा ओम ढींगरा तथा उनके पति डॉ. ओम ढींगरा द्वारा स्थापित इस फ़ाउण्डेशन के यह सम्मान इससे पूर्व उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, उषाकिरण खान, महेश कटारे, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, डॉ. कमल किशोर गोयनका, मुकेश वर्मा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनिल प्रभा कुमार तथा प्रो. हरिशंकर आदेश को प्रदान किया जा चुका है। जबकि शिवना सम्मान का यह दूसरा वर्ष है, इससे पूर्व गीताश्री, वसंत सकरगाए, प्रज्ञा, रश्मि भारद्वाज, गरिमा संजय दुबे तथा ज्योति जैन को प्रदान किया जा चुका है।
आकाश माथुर
मीडिया प्रभारी
​7000373096
शहरयार अमजद ख़ान
शिवना प्रकाशन
मोबाइल 9806162184
दूरभाष 07562405545

शनिवार, 20 नवंबर 2021

जाड़ों के मौसम पर मुशायरे के लिए मिसरा

दीपावली का मुशायरा बहुत अच्छा रहा, सभी ने जिस प्रकार बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया उससे बहुत उत्साह बढ़ा है। ऐसा लगा जैसे हमारा वही पुराना समय लौट कर आ गया, जब हम इसी प्रकार ब्लॉग पर मिलते थे और इसी प्रकार ग़ज़लें कहते कहाते थे। हम कई बार कहे हैं कि वह समय तो बीत गया, होता असल में यह है कि हम स्वयं ही उस समय से बाहर निकल कर आ जाते हैं और उस समय में फिर लौटने के हमारे पास समय ही नहीं होता है। ऐसा लगता है कि जैसे वह समय किसी दूसरे जीवन की बात हो। लेकिन हम कभी भी उन बातों को अपने जीवन में दोहरा सकते हैं, और उनके साथ एक बार फिर चल सकते हैं। जैसे अभी हमारे दीपावली के मुशायरे में कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम लगभग पन्द्रह साल पूर्व जिस उत्साह के साथ मुशायरे में जुड़ते थे, वैसे ही उत्साह के साथ अब भी जुड़ रहे हैं। हाँ यह बात अलग है कि कुछ लोग जो पहले आते थे, उनकी अनुप​​स्थिति अब महसूस होती है, किन्तु यह भी तो है कि कई नए मुसाफ़िर भी जुड़ गए हैं हमसे, जो नए जु़ड़ रहे हैं, उनमें नएपन का उत्साह है। असल में सफ़र का मतलब ही यही होता है कि कुछ छूटेंगे, कुछ जुड़ेंगे। यह तो रेल यात्रा है, जिसमें हर स्टेशन पर कोई उतर जाता है, कोई चढ़ जाता है। कई तो ऐसे भी साथी हैं, जो सदा के लिए ही हमसे बिछड़ गए, जैसे महावीर जी, प्राण जी। मगर बात वही है कि यह तो सफ़र का स्वभाव ही होता है, यहाँ हर किसी को अपना स्टेशन आने पर उतर ही जाना पड़ता है। मगर सफ़र कभी नहीं रुकता। सफ़र मस्ट गो ऑन।

इस बार इच्छा हुई थी कि हमने चूँकि बरसात पर, गर्मी पर, वसंत सब पर मुशायरा आयोजित किया। दीवाली, ईद, राखी, होली, पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी पर मुशायरा किया, लेकिन जाड़ों के मौसम और क्रिसमस पर कभी आयोजन नहीं किया। तो इस बार सोचा है कि सर्दियों पर मुशायरा किया जाए। सर्दियों के साथ उसमें क्रिसमस पर भी शेर हों, बीतते बरस की बात हो।

तो इस मुशायरे के लिए जो मिसरा सोचा है, वह है

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

122-122-122-122

बह्र हम सब की बहुत जानी पहचानी बह्र है फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन जिस पर बहुत लोकप्रिय गीत है –मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए। और रामचरित मानस में शिव की वंदना –नमामी शमीशान निर्वाण रूपं  । बह्रे मुतक़ारिब मुसमन सालिम। इसमें रदीफ़ नहीं है, मतलब ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल है जिसमें रदीफ़ नहीं है केवल क़ाफ़िया की ही बंदिश है। और क़ाफ़िया है “मौसम”। आप सोच रहे होंगे कि यह तो मुश्किल क़ाफ़िया है। नहीं बिल्कुल नहीं है, इसमें आप 2 के वज़्न का, 22 के वज़्न का और 122 के वज़्न का क़ाफ़िया ले सकते हैं। जैसे दो के वज़्न पर - दम थम ख़म छम ग़म कम हम नम आप ले सकते हैं। 22 के वज़्न पर आप ले सकते हैं-महरम बरहम बे-दम सरगम हम-दम रुस्तम मातम आदम आलम रेशम ताहम दम-ख़म परचम शबनम हमदम। और 122 के वज़्न पर - मोहर्रम मुजस्सम छमा-छम ले सकते हैं आप। इसके अलावा भी कई क़ाफ़िये हैं इसमें।

सोचा यह है कि दिसंबर के दूसरे सप्ताह से यह मुशायरा प्रारंभ किया जाएगा और क्रिसमस तक इसका आयोजन किया जाएगा। तब तक हो सकता है कई ऐसे लोग भी ग़जल़ कह दें, जो पिछले कई मुशायरों से लापता हैं। तो मिलते हैं जाड़ों के मुशायरे में, गुलाबी ग़ज़लों के साथ।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।

दीपावली का यह तरही मुशायरा आज समापन पर है। इस बार जिस प्रकार उत्साह के साथ सभी ने भाग लिया, उसके चलते इस बार यह सोचा है कि हमने सारे अवसरों पर सारी ऋतुओं पर मुशायरा किया है किन्तु जाड़े के मौसम पर कोई मुशायरा नहीं किया, तो इस बार विचार बन रहा है कि ऐसा किया जाए। जल्द ही उसका खुलासा किया जाएगा। मगर इस बार तरही मुशायरा बहुत आनंदमय रहा। ऐसा लगा जैसे ब्लॉगिंग का वही पुराना समय लौट कर आ गया है। सोशल मीडिया के बाक़ी प्लेटफार्म अब ऊब पैदा करने लगे हैं, लगता है ब्लॉगिंग का समय फिर लौटने को है।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज शो स्टॉपर के रूप में श्री नीरज गोस्वामी जी एक मुसलसल ग़ज़ल के रूप में अपनी आत्मकथा लेकर आ रहे हैं।
नीरज गोस्वामी

भला कैसे जलें फ़िक्रो-अदब के, ज्ञान के दीपक
जहाँ भावों का सन्नाटा, वहाँ सारे बुझे दीपक
कभी हम भी ग़ज़ल कहते थे "डाली मोगरे की" में
गवाही दे रही पुस्तक, कभी जलता था ये दीपक

हकीमों से ज़रा पूछो, इलाज इसका कोई ढूँढ़ो
दवा कोई मिले ऐसी, ग़ज़ल का जल उठे दीपक
हमारी लेखनी को रास आया है नहीं जयपुर
खपोली में रहे जब तक सदा जलते रहे दीपक

तसव्वुर की नहीं बाती, न इनमें तेल चिन्तन का
गुज़िश्ता कुछ बरस से यूँ ही बस ख़ाली पड़े दीपक
गिरह का शेर भी हमसे न इस मिसरे पे बन पाया
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"

ग़ज़ल की बात मत करिए कोई भी अब तो "नीरज" से
गज़ल के, नज़्म के, अशआर के सब बुझ गए दीपक
इतनी अच्छी आत्मस्वीकृति और कौन कर सकता है इनके अलावा। पूरी ग़ज़ल एक ही बात पर केन्द्रित है, ग़ज़ल न कह पाने पर। हर शेर ग़ज़ल के बहाने जैसे शायर की ही बात कर रहा है। अब इसे आप चाहें तो हजल भी कह सकते हैं। हालाँकि हजल होने से यह ग़ज़ल अपने आप को बचाए हुए है। एक निराश शायर की आत्मकथा अवश्य कह सकते हैं आप इसको। वह शायर जो इन दिनों शायरी छोड़ कर ग़ज़ल की किताबों की समीक्षा के कार्य में लगा हुआ है। किसी ने कहा है -बहुत ज़्यादा पढ़ना आपके लिखने को प्रभावित करता है, विशेषकर ग़ज़ल के मामले में। क्योंकि आप सोचने लगते हैं कि इतने अच्छे शेर तो कहे जा चुके हैं, अब मैं क्यों लिखूँ। मगर हमें यह सोचना होगा कि जो अच्छा लिखा जा चुका वह हो चुका है, हमें वह लिखना है, जो होने वाला है।
तो नीरज जी की इस ग़ज़ल पर दाद दीजिए। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि एक जाड़े के मौसम पर भी मुशायरा करने का विचार बन रहा है। हम गर्मी पर बरसात पर पहले कर चुके हैं, तो क्यों न जाड़े पर किया जाए मुशायरा, जिसमें क्रिसमस भी शामिल हो, जो हमसे अभी तक छूटा हुआ है। चलिये तो मिलते हैं अगले अंक में।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं

मित्रो इस बार का तरही मुशायरा बहुत सफल रहा है, सभी रचनाकारों ने बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया इसमें। और अभी भी मुशायरा चल ही रहा है। शायद एक दो अंक और भी आएँगे इस मुशायरे के क्योंकि कई लोग अभी भी दौड़ते हुए ट्रेन को पकड़ रहे हैं। अच्छा लगता है यह रचनाधर्मिता का उत्साह देख कर, क्योंकि यह उत्साह ही उस अवसाद से हमको बाहर निकालता है, जिस अवसाद से हम सब पिछले दो साल से जूझ रहे हैं।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आज तरही मुशायरे में भभ्भड़ कवि भौंचक्के अपनी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं। हमेशा की ही तरह भभ्भड़ कवि की ग़ज़ल दीपावली पर चलाई जाने वाली लड़ की तरह लम्बी है। इस ग़ज़ल के बारे में मैं और तो कुछ नहीं कह सकता बस यह कह सकता हूँ कि अब जैसी भी है आपको यह ग़ज़ल तो झेलनी ही पड़ेगी। तो आइये सुनते हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के से उनकी यह ग़ज़ल।
भभ्भड़ कवि भौंचक्के
पिता की आँख के तारे, थे माँ के लाड़ले दीपक
सुना है रात सरहद पर कई फिर बुझ गये दीपक
किसी के लम्स की चिंगारियों से आँच पाई तो
सरापा ख़्वा​हिशों के यक-ब-यक हैं जल उठे दीपक

हमारे देश का राजा, हज़ारों आफ़ताबों सा
किसे तेरी ज़रूरत अब यहाँ, सुन बे अबे दीपक
लरजता जिस्म वो जैसे, नदी का घाट हो कोई
और उस पर हम लबों से रात भर रक्खा किये दीपक

अमावस है घनी, होती रहे, परवाह क्या उसकी
हमारे साथ हैं काजल भरे दो साँवले दीपक
अँधेरा ओढ़ कर बैठे रहो चुपचाप सब यूँ ही
व्यवस्था को पसंद आते नहीं जलते हुए दीपक

बरस बीते कई अब तो किसी का हाथ छूटे पर
अभी तक जल रहे मन में उसी की याद के दीपक
नई दुल्हन की दो रतनार आँखें ये बताती हैं
पिया रँगरेज़ के संग कर रहे हैं रतजगे दीपक

न गांधी हैं, न ईसा अब, मगर उनके विचार अब भी
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक"
कहेंगे वस्ल उसको ही, बहुत बेचैन होकर जब   
मिला लें लौ से लौ अपनी, तेरे दीपक, मेरे दीपक

समझना इश्क़ में हो तुम, अगर होने लगे ऐसा
किसी को देखते ही दिल की देहरी पर जले दीपक
दिखा जब से कोई सूरज, हुए सूरजमुखी तब से
उसी के साथ चलते हैं नयन के बावरे दीपक

"सुबीर" इनसे ही क़ायम है भरम दुनिया के होने का
नहीं, शम्स-ओ-क़मर, तारे नहीं, ये सिरफिरे दीपक
तो जैसा मैंने पहले ही कहा था कि आपको इस अठहत्तर किलोमीटर लम्बी ग़ज़ल को झेलना तो पड़ेगा ही। नाक बंद कर इस कड़वे घूँट को पी जाइये। और हाँ अगला अंक शायद समापन का अंक होगा जिसमें नीरज गोस्वामी जी शो स्टॉपर बन कर आएँगे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करने। तो मिलते हैं अगले अंक में।




सोमवार, 8 नवंबर 2021

आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।

 
बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। बासी दीपावली उन मेहमानों के लिए भी मनाई जाती है, जो किसी कारण समय पर नहीं आ पाते हैं और दीपावली के बाद पहुँचते हैं। और यहाँ तो हम उनके लिए भी दीपावली मनाते हैं, जो अपनी रचनाधर्मिता की ऊर्जा से एक से अधिक रचनाएँ भेजते हैं। आदरणीय राकेश जी की रचनाएँ हमारी बासी दीपावली का एक प्रमुख आकर्षण रहती हैं। साथ ही इस बार युवा ग़ज़लकार गुरप्रीत सिंह ने भी दो ग़ज़लें भेजी थीं, एक दीवाली के पूर्व हम सुन चुके हैं दूसरी आज सुनते हैं। और नकुल गौतम ने ट्रेन पकड़ने में देर कर दी इसलिए वे दीपावली के बाद आ रहे हैं। बासी दीपावली का उद्देश्य होता है अपने जीवन में दीपावली को कुछ दिनों तक और बचा कर रखना।
उजाले के मुहाफ़िज़ हैं तिमिर से लड़ रहे दीपक
आइये आज बासी दीपावली मनाते हैं नकुल गौतम, राकेश खण्डेलवाल जी और गुरप्रीत सिंह जम्मू के साथ।
 
नकुल गौतम

कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक
किसी ज़िद्दी से आशिक़ की तरह शब भर जले दीपक
मुखालिफ़ हैं बुराई के सभी घर-घर डटे दीपक
"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"

है मिट्टी ही मगर गुज़री है कूज़ागर के हाथों से
कोई मूरत हुई तेरी तो कुछ से बन गए दीपक
न अंधेरे में शिद्दत है न परवाने जुनूनी हैं
भला किसके लिये अब इन हवाओं से लड़े दीपक

है दीवाली बहाना शहर से बच्चों के आने का
सजा रक्खे हैं नानी ने कई छोटे-बड़े दीपक
हुई मुद्दत कि शब भर घी पिलाती थी इन्हें अम्मा
लगें बीमार अब झालर की रौनक से दबे दीपक

किसी शाइर के मन में रात-दिन पकते ख़यालों से
किसी को रौशनी देंगे ये भट्ठी में पके दीपक
भरे बाज़ार थे हर सू फिरंगी लालटेनों से
दिलेरी से पुराने चौक पर मुस्तैद थे दीपक

मतला ही बहुत सुंदर तरीक़े से प्रारंभ कर रहा है ग़ज़ल को।उस पर मिसरा सानी तो एकदम कमाल है, विशेष कर किसी ज़िद्दी आशिक़ की तरह शब भर जलने की बात। अगले ही शेर में हुस्ने मतला के रूप में गिरह का शेर भी आ गया है, बहुत सुंदर तरीक़े से गिरह बाँधी है। मिट्टी और कूज़ागर के मिलन का शेर बहुत सुंदर बना है, एकदम नए तरीक़े का शेर। और अंधेरे, परवानों तथा हवाओं का शेर तो बीते दिनों की याद दिला देता है। रात भर दीपकों को घी पिलाती अम्मा का बिम्ब तो बचपन के गलियारों में ले गया हाथ पकड़ कर। बहुत सुंदर। और जब हर तरफ़ केवल आयातित झालरों और कंदीलों का उजाला ही मिल रहा हो तो ऐसे में माटी के दीपक सच में पुराने चौक पर ही मिलेंगे। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

 
राकेश खण्डेलवाल जी

कहें श्री कृष्ण गीता में, करोड़ों सूर्य मैं ही हूँ
पराजय का तमस भी मैं, विजय का तूर्य मैं ही हूँ
सृजक हूँ मैं, संहारक मैं, मैं पालक हूँ सकल जग का
बिना इंगित के मेरे तो, कोई पत्ता नहीं हिलता
जनम का भी, मरण का भी अकेला एक कारण हूँ
अकल्पित मैं, अजन्मा मैं, स्वयं अपना उदाहरण हूँ

तमस् मेरी ही परछाई, प्रकाशित एक मैं दीपक
उजालों का मुहाफ़िज़ मैं, तिमिर से जो लड़े दीपक


सुबह की कोई अंगड़ाई, थकावट साँझ की भारी
चषक धन्वन्तरि का मैं, जो बढ़ती, मैं महामारी
मैं कारण भी, अकारण भी, कोई आए कोई जाए
किसी के नयन भीगे हों, सदा ही कोई मुसकाए
रहा हर शोक पल भर ही तो फिर है किसलिए रोना
हुआ कब वक्त है संचित, जो पाता है उसे खोना

हुआ हर पल शुरू मुझसे, खतम होना है मुझ ही पर
उजालों के मुहाफ़िज़ है़ तिमिर से लड़ रहे दीपक


अंधेरा बन घिरा मैं ही, उजाला बन मिटाता हूँ
तिमिर से ज्योति के पथ तक डगर मैं ही सिखाता हूँ
कसौटी सत्य की मैं हूँ, भरम की मैं बनी छाया
कहाँ क्या रूप है मेरा कोई कब जान यह पाता
दिवाली मैं, दशहरा मैं, मैं ही हूँ राम, मैं बाली
मैं ही सम्पूर्ण ज्योतिर्मय, मैं ही हूँ शून्य सा ख़ाली

उजाला पांडवों का मैं, अंधेरा रूप हैं कौरव
उजाले का मुहाफ़िज मैं, निरंतर जो जले, दीपक।
कहीं अगर कोई कह रहा हो कि एक पूरी किताब को एक गीत में ढालना असंभव है, तो उसे यह गीत पढ़वाया जाए कि किसी प्रकार गीता को एक गीत में ढाल दिया है आदरणीय राकेश जी ने।  गीता-गीत, अरे वाह यह तो कमाल का नाम रखा गया है। पहले ही बंद में कृष्ण द्वारा कहा गया सारा दर्शन समा गया है। सृजक, संहारक, पालक से लेकर अंतिम कारण की बात कितने सुंदर तरीक़े से कही गई है। उसके बाद अगले बंद में धन्वन्तकि का चषक और महामारी तक सब कुछ और फिर पाने से लेकर खोने तक का सब कुछ एक ही कारण से होता है। अंतिम बंद तो बहुत सुंदर बना है गीत का, दीवाली से दशहरा और राम से लेकर बाली तक सब कुछ उसी ज्योतिर्मय में समा रहा है। बहुत ही सुंदर गीत, वाह, वाह, वाह।


गुरप्रीत सिंह जम्मू

अंधेरा काटते दीपक, उजाला बांटते दीपक
युगों से धर्म ये अपना निभाते आ रहे दीपक
बुझाना चाहता है जो, उसे भी रौशनी ही दें
न जाने कौन सी मिट्टी के आख़िर हैं बने दीपक

फकत उम्मीद के ही दम पे रौशन हैं कोई जीवन
ख़ुदाया बुझने मत देना किसी की आस के दीपक
तख़ल्लुस उनका 'जैतोई' था, खुद उम्दा गजलगो थे
कि पंजाबी ग़ज़ल के इक बड़े उस्ताद थे 'दीपक'

कई रंगों कई किस्मों की इन में लौ समाई है
कि मैंने देखे हैं 'जम्मू' बड़े ही पास से दीपक
अंधेरा काटते दीपक, उजाला बाँटते दीपक के साथ जो मिसरा सानी आया है मतले में वह कमाल का है, सच में कितने ही युगों से अपना धर्म निभाते आ रहे हैं ये दीपक। अगले ही शेर में एक बड़े ही सुंदर विरोधाभास को विषय बनाया है, कि जो दीपकों को बुझाना चाह रहा है, उसे भी दीपक रौशनी ही दे रहे हैं, यही तो विशेषता होती है दीपकों की। अगले शेर में जो प्रार्थना है, वह सचमुच हम सबके मन की ही कामना है, किसी की आस का दीपक कभी नहीं बुझने पाए यही तो हम सभी चाहते हैं। लेकिन पंजाबी के बड़े शायर दीपक जैतोई जी को जिस प्रकार शेर में पिरो कर अपनी भावांजलि दी है इस  युवा शायर ने, वह एकदम कमाल ही किया है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह, वाह ,वाह।
बहुत सुंदर रही है इस बार की बासी दीपावली। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा था कि बासी दीपावली का काम होता है, उत्सव के बाद आए हुए सूनेपन को कम करना, और उत्सव के बाद के अवसाद से हमको बचाना। हर उत्सव के बाद मन एकदम अवसाद में चला जाता है, क्योंकि एकदम से बहुत कुछ होकर समाप्त हो चुका होता है। तीनों रचनाकारों ने दीपावली के दीपकों के प्रकाश को बनाए रखा है। आपका काम है कि दाद देते रहें इन रचनाकारों को। और हाँ अगर सब कुछ ठीक रहा तो भभ्भड़ कवि भौंचक्के आ सकते हैं तरही का समापन करने के लिए। क्योंकि इस बार जिस उत्साह से सभी रचनाकारों ने तरही में हिस्सा लिया उससे भभ्भड़ कवि भौंचक्के का उत्साह भी बढ़ गया है। मिलते हैं भभ्भड़ कवि से अगले अंक में।

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