शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

प्रथम विश्‍व ब्‍लागिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन की सफलता की सभी को बधाई सभी कवियों को प्रमाण पत्र भेजे जा चुके हैं केवल संजय पटेल और वीना जी को छोड़ कर उनके ई पते उपलब्‍ध नहीं थे

संजय बेंगाणी हम तालियाँ पीट रहें है.

काकेश इस सफल सम्मेलन के लिये बधाइयाँ ...खूब तालियाँ बजायें हमने भी.. अब दीपावली वाले सम्मेलन में मिलते हैं फिर.

कंचन सिंह चौहान समीर जी हमने तो सोच रखा था कि नही बजाएंगे तालियाँ, क्यों भला ज़रूरी है क्या कि आप हमारी कविता से खुश हों तो हम भी खुश हों, लेकिन रोक नही पा रहे खुद को, तड़ तड़ तड़ तड़, आवाज़ें सुनाई दे रही हैं न। वाक़ई बहुत अच्छी रचना।
एक पागल सी चिड़िया कैसे एक घर बसाने का पागलपन करती है, और कुछ न कर के भी बहुत कुछ कर जाती है, वाह आपकी कल्पना को बधाई।
मीनाक्षी जी की पंक्तियाँ-
बड़ी बड़ी बातें नही चाहिए , जीवन उलझाने के लिए
छोटी-छोटी बातें ही चाहिए , प्रेम भाव लाने के लिए !
प्रेम व्यवसाय में उतरने वालों के लिये, छोटा लेकिन अचूक नुस्खा। फिर तालियाँ।
वीना जी की कविता
निकले चंदा रात मुस्कराए
झूम-झूम इठलाती है
तारों से आंचल भरकर
फिर दुल्हन सी शरमाती है
की कौन सी पंक्ति चुनी जाये हम समझ नही पा रहे, पूरी कविता ही एक अद्भूत भावुक कल्पना का नमूना।
तड़ तड़ तड़ तड़
सुनीता जी के तो क्या कहने ही है, और जोगलिखी ने भी हम श्रोताओं कौ खुश किया
अरविंद जी क्या बात है
चान्दनी ये तो जानती होगी
रोशनी चान्द से हुई होगी .
वाह वाह
बुरे बख्तों मे साथ छोड गयी
बेवफाओं के घर पली होगी.
बहुत खूब
आगे आगे चान्दनी ,पीछे पीछे चान्द
सीधे आंगन तक घुसे सभी छतों को फान्द.
भई वाह! तालियाँ तो आप हमारी सुन ही रहे होंगे।
और अब अंत में संचालक महोदय हमारे माननीय गुरू जी। क्या बात है! क्या बात है! इसीलिये कहा जाता है कि गुरू तो फिर गुरू ही होता है।
चांदनी बुला रही है सांझ से मुंडेर पर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर
ना ना तालियाँ नही बज रहीं, हम तो बस मगन हो कर सुन रहे हैं, ताली बजाने की सुध किसे है?
दूर कोई गा रहा है रस भीगा गीत रे
आ गया है लौट कर किसी के मन का मीत रे
कह रही है चांदनी के तू भी अब न देर कर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर
क्या बात है, जल्दी में बनाई तो ऐसी बनी कहीं बैठ कर ना दी होती तो हम सब को मंच से भागना ही पड़ जाता!
सच ही कहा
विश्‍व का पहला ब्‍लागीय शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन सफल रहा है
बधाई! बधाई!

sunita (shanoo) सुबीर जी मै तो सोच भी नही सकती थी नेट पर इतनी खूबसूरती से सम्मेलन हो रहा है...किस किस की तारीफ़ करूं सभी कवि एक से बढ़ कर एक हैं...आप सभी को सफ़ल कवि सम्मेलन की बहुत-बहुत बधाई...हम भी आते है दीपावली पर दीपमाला को साथ लेकर...
बहुत-बहुत शुक्रिया...आप सभी का...और हमारे गुरूदेव का..
सुनीता(शानू)

जोगलिखी संजय पटेल की सुबीर भाई...
काव्य पाठ तो हो गया पेमेंट ड्राफ़्ट से भेजेंगे या सीधे अकाउंट में जमा कर वाएंगे.मज़ाक कर रहा हूँ.आपने अपने ब्लॉग में शुमार कर लिया..साधुवाद.
संचालक : सभी को बधाई और ये भी कि सभी को प्रशस्‍ति पत्र भेजे जा चुके हैं बस संजय पटेल और वीना जी का ई पता उपलब्‍ध नहीं होने के कारण नहीं भेजे गये हैं । अगर हो सके तो अपने प्रशस्‍ति पत्रों को अपने ब्‍लाग पर स्‍थान दें । दीवाली पर हम आडियो कवि सम्‍मेलन करवाऐं तो कैसा रहेगा अपने विचार जरूर दें । और वो किस प्रकार हो सकता हैं वो भी बताएं ।

और सुनीता जी और संजय जी तथा अरविंद चतुर्वेदी की इन सुंदर कविताओं के साथ समापन होता है विश्‍व के पहले ब्‍लागीय शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन का

संचालक : विश्‍व का पहला ब्‍लागीय शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन सफल रहा है श्रोता भी ख़ूब आए और कवि भी कवियित्रिओं ने कवियों को पछाड़ दिया है अंत में प्रस्‍तुत हैं सुनीता शानू और संजय पटेल

sunita (shanoo) गुरूदेव आप बुलायें हम न आयें...लिजिये पेश है एक तुरंत बनाया गीत...
जब पहली बार किसी ने इजहार किया था मुझसे,
तब रोक न पाई खुद को प्यार किया था उसने...
चुप रहकर ही खाई थी, वो प्यार भरी कसमें,
आँखो ही आँखो में जब इकरार किया था हमने...
गंगा-जमुना सा पावन बंधन बांधा था हमने,
देवो नें जब श्लोक पढें, मेघ लगे बरसने...
जन्म-जन्म का गठ-बंधन टूट न पाये पल में,
छोड़ न देना साथ पिया,रहना मेरी नजर में...

संचालक : तालियां तालियां एक सुदर कविता के लिये और अब आ रहे हैं जोग लिखी के संजय पटेल

जोगलिखी संजय पटेल की 

चाँद सुहाता है
बुलाता है
गीत गाता है
पगले...
क्यों बीत जाता है
पूरा का पूरा क्यों
रोज़ नहीं आता है
करता है कुछ और
कुछ और बताता है
मौन रहता है तू
फ़िर भी कितना कुछ कह जाता है
पर ये तो बता दे
प्रेम से तेरा क्या नाता है
सच का
या
छल का
बता दे देख
नहीं तो तेरा एक और प्रेमी
रूठ जाता है

संचालक : और अब एक कवि जो बहुत देर से अपनी बारी की प्रतिक्षा कर रहे हैं पर कुछ देर से उनका नंबर आ रहा है । आ रहे हैं चांदनी के दोहे लेकर श्री अरविंद चतुर्वेदी जी जोरदार तालियां बजाएं इनके लिये

अरविन्द चतुर्वेदी Arvind Chaturvedi पहले एक गज़ल के कुछ् शेर :
चान्दनी ये तो जानती होगी
रोशनी चान्द से हुई होगी .
चलो सूरज को जगायें फिर से
इन अन्धेरों में कुछ कमी होगी
आंख में इंतिहा नमी की थी
बादलों से उधार ली होगी
दोस्तों ने उसे दिये धोखे
बात दौलत की ही रही होगी
बुरे बख्तों मे साथ छोड गयी
बेवफाओं के घर पली होगी.

.....और अब कुछ चान्दनी के दोहे ..
आगे आगे चान्दनी ,पीछे पीछे चान्द
सीधे आंगन तक घुसे सभी छतों को फान्द.
हाथ उठाकर ,रेंग कर बच्चा करता मांग
फुदके फुदके चान्दनी, हाथ ना आवे चान्द.
ठंडी ठंडी चान्दनी, चान्दी चान्दी रेत
लद गये दिन आसाढ के, सावन के संकेत्
कहते हैं कि शरद पूर्णिमा पर रात में चान्द से अमृत गिरता है. ख़ीर बनायें, रात को खुले में रखें, और सुबह खायें. आनन्द ही आनन्द....

कवियों की चकल्‍लस :

कंचन सिंह चौहान अरे गुरू जी बड़े दिन बाद प्रशंसा मिली! शुक्रिया!

Udan Tashtari तालियाँ...तालियाँ----मीनाक्षी जी और कंचन जी के लिये.
दोनों ही हमारी बारी में इन तालियों को याद रखें कृप्या. यह भी उधार का स्वरुप होती हैं. :)
वैसे न भी बजायें तो आप दोनों ने इतना बेहतरीन प्रस्तुत किया है कि हमें तो बजाना ही था.

अरविन्द चतुर्वेदी Arvind Chaturvedi समीर भाई की तालियों पर मेरी भी तालियां.
वैसे चिडिया के गीत पर तो ढेरों तालियां बनती ही हैं.
बहुत ही आनन्द आया. बधाई

मीनाक्षी अरे यह तो सचमुच का काव्य सम्मेलन है बस यहां तालियों की आवाज़ सुनने के लिए आँखें बन्द करनी पड़ेगीं.
कंचन को अगर अरविन्द जी चिडिया कह रहे है तो ज़रूर वे छोटी गुड़िया ही होगी... राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?
यह पंक्ति दिल मे उतर गई. शुभकामनाएँ
सबको मेरा धन्यवाद !

अरविन्द चतुर्वेदी Arvind Chaturvedi मेरी क्या मजाल कि एक कवियित्री को चिडिया कहू?
आपने शायद 'मिस' कर दिया,समीर भाई ने 'पागल चिडिया" शीर्षक से कविता सुनायी थी.
मै उसी चिडिया का जिक्र कर रहा था.

मीनाक्षी :) :) :) :) (अपनी गलती पर मुस्कराने के अलावा कोई चारा नहीं)

sunita (shanoo) वाह गुरुदेव :)
हम देखें जहाँ-जँहा,
आप मिलते वहाँ-वहाँ
हमे भी बुलाईये न आज आप संचालक है मंच पर और शिष्य को ही भूल गये...बहुत समय से हम सुबीर भाई का ब्लोग देख ही नही पाये...आज सब्सक्राईब कर ही लिया है...बैठे-बिठायें कवि सम्मेलन का लुत्फ़ उठायेंगे...:)
सुनीता(शानू)

संचालक : भई बहुत ही सुंदर कविता के साथ आज के कवि सम्‍मेलन का समापन हुआ है । अलस भोर तक हमने इस कवि सम्‍मेलन को चलाया है और अब हम इस आशा के साथ विदा ले रहे हैं कि जल्‍द ही दीपावली पर एक काव्‍य महोत्‍सव का आयोजन करेंगें आशा है सभी तब तक दीपावली पर अपनी कविता तैयार कर लेंगें ।

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2007

और माड़साब अपनी कविता पढ़ने के बाद मंच की बागडोर दे रहे हैं समीर लाल जी को जो आगे के कवि सम्‍मेलन का संचालन करेंगें

Udan Tashtari अवश्य ले ली जायेगी बागड़ोर संचालन की. विश्वास व्यक्त करने का आभार. और संचालन संभालने के साथ ही आमंत्रित हैं माड़साब अपने काव्‍य पाठ के लिये
माड़साब :  आज ही जल्‍दी में कविता लिखी है चांद या चांदनी का जिक्र ज़रूरी था इसलिये नई ही लिखनी पड़ी है अभी मीटर पे कसी नहीं गई है उधर एक कवि सम्‍मेलन में भी जाना है सो जल्‍दी में दे रहे हैं । आगे समीर जी संभालेंगें इस कवि सम्‍मेलन की डोर बल्कि संभाल चुके भी हैं

चांदनी बुला रही है सांझ से मुंडेर पर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर

दूर कोई गा रहा है रस भीगा गीत रे
ओ गया है लौट कर किसी के मन का मीत रे
कह रही है चांदनी के तू भी अब न देर कर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर

घुल गई हवा में आज मदमाती  गंध है
इठला के चल रही ये कैसे मंद मंद है 
चल चल के, थम थम के, पग को फेर फेरकर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर 

पुरवा के हाथों से आया संदेशा है
मद माती रजनी में सजनी ने न्यौता है
भेजा है पीपल के पात पर उकेर कर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर

पात पर लिखा है बैरी चाँद मुंह चिढ़ाता है
पुरवा का झौंका भी छेड़ छेड ज़ाता है
हर कोई सता रहा है आज मोहे घेर कर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर

मदमाती पूनम की चूनर महकाई है
साजन को सजनी की याद फिर दिलाई है
रात की रानी ने अपनी खुशबुएं बिखेर कर 

चांदनी बुला रही है सांझ से मुंडेर पर
प्रेम से मनुहार भरे स्वर में टेर टेर कर

धन्‍यवाद आपकी तालियों के लिये ।

दिल थाम के बैठिये अब बारी आ रही है सब की प्‍यारी शरारती उड़न तश्‍तरी की ब्‍लागिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन में जिस कवि का सबको इंतेज़ार था वो आ रहे हैं तालियों से स्‍वागत कीजिये समीर लाल का

संचालक : जैसे खाने के साथ चटनी की तलब हमेशा ही बनी रहती है वैसे ही ब्‍लाग हों और हमारी नटखट उड़न तश्‍तरी न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता दो लाइन के साथ उनको बुलाता हूं

कविता के इस आंगन में अपनी कविताएं तुम पटको

चमगादड़ की क्‍या मेहमानी हम लटके तुम भी लटको

आइये समीर लाल जी स्‍वागत है आपका

Udan Tashtari वाह वाह देर से आये मगर आनन्द आ गया. अब हमारी बारी. तो पहले यह सुनें-क्या एक ही सुनाना है या जब तक माईक वापस न छीन लिया जाये, याने जैसा आम तौर पर होता है :) ???
यह एक जीवन दर्शन पर आधारित रचना पर ध्यान चाहूँगा-ताली हर मुक्तक के बीच में, अंत में और शुरु में-कहीं भी बजाई जा सकती है. कोई नियम में बंधा न महसूस करे.
वो इक पागल सी चिड़िया
घने घनघोर जंगल में, बहारें खिलखिलाती हैं
लहर की देख चंचलता, नदी भी मुस्कराती है
वहीं कुछ दूर पेड़ों की पनाहों में सिमट करके
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
कभी वो डाल पर बैठे, कभी वो उड़ भी जाती है
जुटा लाई है कुछ तिनके, उन्हीं से घर बनाती है
शाम ढलने को आई है, जरा आराम भी कर ले
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
अभी कुछ रोज बीते हैं, मिला इक और साथी है
नीड़ में अब बहारें हैं, चहकती बात आती है
लाई है चोंच में भरके, उन्हें अब कुछ खिलाने को
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
बड़े नाजों से पाला है, उन्हें उड़ना सिखाती है
बचाना खुद को कैसे है, यही वो गुर बताती है
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
संचालक : भई बहुत बढि़या समीर जी हम भी जानते हैं कि कौन सी चिडि़या की बात आप कर रहे हैं ( भाभी को नहीं बताएंगें वादा रहा )

Udan Tashtari  सारथी जी और अनूप जी दोनों ने ही बेहतरीन कविता पढ़ीं हैं दोनों ही बहुत बेहतरीन.  चलने दिजिये इस कवि सम्मेलन को जोरों में.
संचालक : आपसे पहले बीना जी और मीनाक्षी तथा कंचन भी पढ़ चुकी हैं ।

Udan Tashtari वाह वीना जी..बधाई...वाह मीनाक्षी  जी..बधाई...आप दोनों ने ही शरद पूर्णिमा के कवि सम्‍मेलन को सार्थक कर दिया है तालियाँ...तालियाँ----मीनाक्षी जी और कंचन और वीना जी के लिये.
दोनों ही हमारी बारी में इन तालियों को याद रखें कृप्या. यह भी उधार का स्वरुप होती हैं. :)
वैसे न भी बजायें तो आप दोनों ने इतना बेहतरीन प्रस्तुत किया है कि हमें तो बजाना ही था.
कंचन जी का दूसरा दौर भी हो गया और हमारा अभी नम्बर आना बाकी है. क्या करें-
अक्सर देर कर देता हूँ मैं.(मुनीर नियाजी)

 संचालक : जारी है ब्‍लागिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन देते रहिये अपनी कविताएं और उनको देखते रहिये कवि सम्‍मेलन में । रात 9 बजे माड़साब संचालन खत्‍म करके सचमुच के कवि सम्‍मेलन में चले जाऐंगें उसके बाद संचालन संभलेंगें समीर लाल जो अपने ब्‍लाग पर कविताओं को प्रका‍शित करके कवि सम्‍मेलन को रात्रि तक चलाऐंगें ।

ब्‍लागीय शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन अब कवियित्री सममेलन होता जा रहा है अब आ रहीं हैं वीना जी और दूसरे दौर में कंचन जी भी

संचालक :  एक नई कवियित्री वीना जी अपनी बहुत सुंदर कविता के साथ आ रहीं हैं तालियों के साथ स्‍वागत करें
वीना मेरी भी एक कविता पेश है---
निकले चंदा रात मुस्कराए
झूम-झूम इठलाती है
तारों से आंचल भरकर
फिर दुल्हन सी शरमाती है
दूध सी उजली, निर्मल, कोमल
चांदनी रात मन भाती है
चम-चम करते रेत के हीरे
किरणों के हार पहनाती है
झिलमिल चांदनी चमके इत-उत
मन में उल्लास जगाए है
चांद की शीतलता भी अब
मन में आग लगाए है
बचपन की वो चंचलता
जा पहुंची अल्हड़ यौवन में
चंदा-चांदनी लुक-छुप खेलें
हर घर के कोने-आंगन में
रेगिस्तान की तपती भूमि
शीतलता पाती है अब
रेत का आभास जिसे था
चमक-चमक जाती है अब
तपते रेगिस्तान को रात ने
फिर से शीतल बनाया है
रेत को भी चंद्र किरण ने
चांदी सा चमकाया है
नदियों के धारे मुस्काए
चम-चम चमके तारों से
धवल चांदनी फैली इत-उत
शोभित है मनुहारों से
गंगा के आंचल पर चमके
ब्रह्मांड का गगन मंडल
शीतल, धवल चांदनी में अब
दूध सा श्वेत लगे है जल
बच्चा मांगे मां से अपनी
चंद्र खिलौना ला दो ना
हाथ बढ़ाकर उसे बुलाता
चंदा मामा आओ ना
जहां-जहां जाता है चंदा
वहीं चांदनी जाती है
एक पल को साथ न छूटे
यही चांदनी चाहती है
एक रात मिली अरमानों की
अगले क्षण भय जुदाई का
धीरे-धीरे छुपता है चंदा
साथ मिला हरजाई का
धीरे-धीरे घटता चंद्रमा
द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी को
निशा कालिमा डस जाएगी
प्रेमी-प्रियतम चंदा को

संचालक : और दूसरे दौर में पुन: स्‍वागत करें कंचन जी का

कंचन सिंह चौहान गुरू जी एक और कविता याद आ गई, जाते जाते। असल में हम खालिस रूमानी कविता मुद्दतों में एक या दो बार ही लिख पाये होगे उन दो-तीन कविताओ में से एक कविता आपके लिये लाई हूँ, जिसे मैने १९९४ लिखा था,उस उम्र में जब किशोरावास्था जाने की तैयारी कर रही थी। कविता इस तरह है-
देख रहे हैं ऐसा सपना जो सच होगा कभी नही,
हम जाने को कहते हैं और वो कहते हैं अभी नही!
ढूढ़ रही हैं उनकी आँखें भरी भीड़ में मुझको ही,
और हमरी आँखें देखें निर्निमेष सी उनको ही,
और अचानक ही हम दोनो एक दूजे से मिलते है,
आँखें सब कुछ कह जाती है , मगर ज़बानें खुली नही।
दूर कहीं सूरज ढलता हो, छत पर हम दो, बस हम दो,
एक टक वो देखें हो मुझको और मेरी नज़रें उनको,
दिल की धड़कन हम दोनो की तेज़ ही होती जाती है,
कहे हृदय अब नयन झुका लो, मगर निगाहें झुकी नही।

कवि सम्‍मेलन जारी हैं भेजते रहें कविताएं ब्‍लागिया कवि सम्‍मेलन में ।

और अब ब्‍लगिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन के मंच पर आ रहीं हैं दो कवियित्रियां कंचन चौहन और मीनाक्षी जी तालियों से स्‍वागत करें इन दोनों का

संचालक : आज का ब्‍लागिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन सफल रहा है और अब दो कवियित्रियां भी आ रहीं हैं काव्‍य पाठ के लिये सबसे पहले आमंत्रित हैं मीनाक्षी

मीनाक्षी अपने को कवि या कवयित्री कहने में संकोच होता है, शायद उस लक्ष्य तक पहुँचने मे समय है फिर भी कलम और मेरा नाता बहुत पुराना है ---
एक अघोषित भाव –
अग्नि का एक कण चाहिए , ज्ञान की ज्योति जलाने के लिए
स्वाति नक्षत्र की एक बूँद चाहिए, प्रेम की प्यास मिटाने के लिए
हिमालय का इक खण्ड चाहिए, घृणा की आग बुझाने के लिए
ममता भरा हाथ चाहिए , करुणा का भाव जगाने के लिए
बड़ी बड़ी बातें नही चाहिए , जीवन उलझाने के लिए
छोटी-छोटी बातें ही चाहिए , प्रेम भाव लाने के लिए !

 

संचालक :तालियां मीनाक्षी की कविता केलिये ( कवियित्रियों के लिये तो श्रोताओं से कहना भी नहीं पड़ता के ताली बजाओ )

और अब आ रहीं हैं कंचन सिंह चौहान इनके लिये चार पंक्तियां जिसको देखो वो मीत हो जाए , सारा आलम पुनीत हो जाए, तुमको लय छंद की ज़रूरत क्‍या, जो भी गा दो वो गीत हो जाए  आ रहीं हैं कंचन

कंचन सिंह चौहान अरे गुरू जी बिना किसी तैयारी के ही कवि सम्मेलन में बुला लिया, शिष्या का पहला पर्फार्मेंस है ये तो ध्यान दिया होता....स्मृति के आधार पर लिख रही हूँ...... चूँकि आज महारास की रात है तो, बात कृष्ण की ही करती हूँ
स्वर्ण नगरिया तेरी द्वारिका, कोने-कोने सुख समृद्धि,
फिर भी कभी कभी स्मृतियाँ, गोकुल तक ले जाती है क्या?
दूध दही से पूरित तो है, रत्न जड़ित ये स्वर्ण कटोरे,
भाँति भाँति के व्यंजन ले कर दास खड़े दोनो कर जोड़े,
लेकिन वो माटी की हाँड़ी, वो मईया का दही बिलोना,
फिर से माखन आज चुराऊँ ये इच्छा हो जाती है क्या?
बाहों में है सत्यभाम और सुखद प्रणय है रुक्मिणि के संग,
एक नही त्रय शतक नारियाँ, स्वर्ग अप्सरा से जिनके रंग।
लेकिन वो निश्चल सी ग्वालिन, प्रथम प्रेम की वो अनुभुति,
राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?
संचालक: जोरदार तालियां बजाइये कंचन के लिये और कवि सम्‍मेलन जारी है भेजते रहिये अपनी कविताएं और बनाए रहिये सिलसिले को ।

ब्‍लागिया शरद पूर्णिमा कवि सम्‍मेलन में श्री रमेश हठीला के बाद कविता पढ़ने आ रहे हैं श्री अनूप भार्गव और श्री संजीव सारथी । श्रोताओं से अनुरोध है कि जोरदार तालियों से दोनों का स्‍वागत करें

सजीव सारथीवाह सुबीर जी बहुत बढ़िया महफ़िल जमाई है आपने एक शेर मैं भी अर्ज़ कर दूँ -
चुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
चुपके से रात हो गयी दिन के उजालों में,
वो चाँद बन कर आ गए , मेरे ख्यालों में.
और एक क्षणिका भी -
चाँद को देखे रोज,
लाखों चकोरी ऑंखें,
इसीलिए कुदरत ने लगाया,
है गोरे मुखड़े पे चाँद के
एक नज़र का टीका -
काला

संचालक : और अब आ रहे हैं वरिष्‍ठ कवि श्री अनूप भार्गव जी जोरदार तालियों से स्‍वागत करें

अनूप भार्गव अब जब आप नें आमंत्रित कर ही दिया है तो एक गज़लनुमा कविता पर गौर फ़रमायें जो आप से सीखना शुरु करने से पहले लिखी थी । बहर , वज़्न आदि सब गलत होंगे लेकिन क्यों कि यह सब से पहला गज़ल का प्रयास था , इसलिये मुझे प्रिय है । एक बार पहले भी टिप्पणी में लिखने की कोशिश की थी लेकिन शायद आप नें देखी नहीं ।
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परिधि के उस पार देखो
इक नया विस्तार देखो ।
तूलिकायें हाथ में हैं
चित्र का आकार देखो ।
रूढियां, सीमा नहीं हैं
इक नया संसार देखो
यूं न थक के हार मानो
जिन्दगी उपहार देखो ।
उंगलियाँ जब भी उठाओ
स्वयं का व्यवहार देखो
मंजिलें जब खोखली हों
तुम नया आधार देखो ।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो ।

श्रोता की टिप्‍पणी

आलोक वाह, कविता का जवाब कविता से।

संचालक : कविताएं देते रहिये हम दूसरा दौर भी चलाऐंगें अत: जो दे चुके हैं वे दूसरे दौर के लिये भी कविताएं दें ।

आज महारास की है शरद पूर्णिमा। चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥ शरद पूर्णिमा पर आयोजित इस कवि सम्‍मेलन में टिप्‍पणियों के माध्‍यम से काव्‍य पाठ करें । प्रारंभ कर रहें हैं श्री रमेश हठीला अपनी कविता और कुछ मुक्‍तकों से ।

आज शरद पूर्णिमा है और ये दिन हम कवियों के लिये खास दिन होता है आज कविता की बातें होती हैं और कवि सम्‍मेलन होते हैं पहले जयपुर में एक भव्‍य आयोजन गीत चांदनी  भी आज के दिन होता था जाने आज कल होता है या नहीं । मैंने बताया था कि मेरे मि्त्र श्री रमेश हठीला जी का काव्‍य संग्रह बंजारे गीत प्रकाशित हो गया है । मधुर कंठ से गीत गाने वाले श्री हठीला गीत भी भावप्रवण ही लिखते हैं । तो आज इस ब्‍लाग पर शरद पूर्णिमा के अवसर पर एक कवि सम्‍मेलन का आयोजन किया जा रहा है जिसका प्रारंभ मैं श्री हठीला की सद्य प्रकाशित बंजारे गीत से कुछ मुक्‍तक और एक सुंदर गीत जो सभी चांदनी पर हैं के साथ कर रहा हूं आप सब भी शरदोत्‍सव पर अपनी कविताएं इस कवि सम्‍मेलन में टिप्‍पणियों के माध्‍यम से प्रस्‍तुत करें ताकि ये आज का हमारा ब्‍लागिया कवि सम्‍मेलन सफल हो सके । घोषित कवि हैं उड़नतश्‍तरी, कंचन चौहान, बी नागरानी देवी, अनूप भार्गव, अभिनव शुक्‍ला,  और अघोष्ति कवि वे सभी हैं जो आज काव्‍य पाठ करना चाहते हैं । संचालन तो जाहिर सी बात है कि माड़साब ही कर रहे हैं जो टिप्‍पणियां दिन भर में मिलेंगीं वे पोस्‍ट के रूप में प्रस्‍तुत की जाएंगीं । तो प्रस्‍तुत है पहले कवि श्री रमेश हठीला अपने गीत ओर मुक्‍तकों के साथ ।

आज महारास की है शरद पूर्णिमा।
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥

कृष्ण के पा अधर वेणू होगी मुखर।
चांद को देख व्याकुल है सिंधू लहर।
पग थिरकने लगे मौन जुन्हाई के।
फड़ फड़ाने लगे पंख पुरवाई के।
नीला-नीला गगन और धवल चन्द्रमा॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥

हैं सजल आज वसुधा के पुलकित नयन।
झूमेंगें नाचेगें राधिका के चरण।
जाने क्यों हो गई यामिनी बावरी।
जादू करने लगी मदभरी बांसुरी।
पलकें बोझिल हुईं देख वो भंगिमा॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥ 

धार अमृत की फिर हो गये ओस कण।
कसमसाने लगा आज वातावरण।
करने को मन मुदित आ गई है शरद।
अब विगत हो गये बरखा के क्षण सुखद् ।
बांहों में भर रहा धरती को असामां॥
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥

आया मधुमास तो मौन मुखरित हुआ।
चूड़ी पेंजन कंगनवा से गुंजित हुआ।
मेहंदी चढ़ कर हथेली दहकने लगी।
सांसें पी का परस पा बहकने लगी।
नैन बोझिल हुए मुख पे थी लालिमा॥
पूर्णिमा, पूर्णिमा, पूर्णिमा, पूर्णिमा॥

आज महारास की है शरद पूर्णिमा।
चांद को देख कर छुप गई कालिमा॥

मुक्‍तक

1

अम्बर के अंगना खिली शुभ्र धवल चांदनी।
झिलमिल झिलमिल करती चुस्त चपल चाँदनी।
चम्पतिया चंदा का आलिगंन करने को।
देहरी लाज की उलाँघकरती पहल चाँदनी॥

2

इठलाती बलखाती मुस्काती चाँदनी।
अंबर की चौसर पर बिछ जाती चाँदनी।
चुगल खोर चंदा की मटमैली पाती पर।
प्यार का पयाम नित्य लिखवाती चाँदनी॥

3

ओढ़े हुए चूनरिया तार तार चाँदनी।
चुपके चुपके चंदा से करती प्यार चाँदनी।
मुस्काते, सकुचाते, शरमाते, इठलाते।
खुद को चन्द्र दर्पण में रही निहार चाँदनी॥

4

चन्द्र कश्ती छोटी सी यात्री है चाँदनी।
नील नदी के तट पर उतरी है चाँदनी ।
कलियों पे शबनम को मुस्काता देखकर।
मोती के दानों सी बिखरी है चाँदनी॥

5

धरती के अंगना में उतरी है चाँदनी।
चोटी कजरी टप्पा ठुमरी है चाँदनी।
कलियों को शबनम पर मुस्काता देखकर।
यहाँ वहाँ मोती सी बिखरी है चाँदनी॥

बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

मेरे कानों में चुपके से सदाएं आ के देती हैं, ख़बर उनकी मुझे हरदम हवाएं आके देती हैं, तड़प के गिरती हैं बारिश की बूंदें मेरे आंगन में, संदेशा उनके रोने का घटाएं आके देती हैं

आजकल क्‍लास में उपस्थिति कुछ कम चल रही है ऐसा लगता है कि माड़साब को अब कोई दूसरा काम देखना पड़ेगा। एक मित्र ने सलाह भी दी है कि अब आप ग़ज़ल को छोड़कर कम्‍प्‍यूटर हार्डवेयर की क्‍लास चालू कर दों। अगर धंधे की ये ही हालत रही तो फिर उस पर भी सोचना पड़ेगा । कल की क्‍लास में केवल दो ही छात्र आए थे अब दो से क्‍या होता है उतने में तो घर में ही नहीं पड़ता । हार्डवेयर की क्‍लास शुरू करने के बारे में माड़साब सोच रहे तो हैं पर अब बुढ़ापे में धंधा बदलने में डर भी लग रहा है।

चलिये कल जहां पर छोड़ा था वहीं से करते हैं आज आगे शुरू । कल हम त्रिकल तक पहुचे थे और आज उससे आगे की बात करते हैं ।

चौकल :-  चौकल का मतलब उस तरह का रुक्‍न जिसमें कि चार मात्राएं होती हों । उसके पांच प्रकार होते हैं ।

1: चार लघु मात्राएं और चारों ही अपने आप में स्‍वतंत्र हों । फएलतु में ऐसा ही है और चारों ही मात्राएं अपने आप में स्‍वतंत्र हैं । इसके उदाहरण शायरी में कम ही आते हैं क्‍योंकि चारो मात्राएं अगर एक के बाद एक लघु आएंगी तो उच्‍चारण में समस्‍या आ जाएगी ।

2: एक गुरू और फिर दो लघु मात्राएं फाएलु । अब इसमें दो तरह से हो सकता है चार लघु मात्राएं भी हो सकती हैं मगर उनमें से पहली दो आपस में संयुक्‍त होकर एक दीर्घ बना रही हों और आगे की दो स्‍वतंत्र हों जैसे तुम न तुम्‍हारी याद  में तुम न तु  को अगर देखें तो उसमें दो लघु तुम  मिल कर एक दीर्घ बना रहे हैं और फिर  न  ओर तु  दोनों ही स्‍वतंत्र हैं । या फिर ये भी हो सकता है कि पहला दीर्घ हो और बाद में दो स्‍वतंत्र लघु आ रहे हों । जैसे काम न हुआ  में काम न   को देखें यहां  का  एक दीर्घ है और  म  ओर   ये दोनों ही स्‍वतंत्र हैं । मगर चाहे हम  तुम न तु  कहें या  काम न  कहें दोनों ही सूरत में वज्‍़न तो वही रहेगा फाएलु ।

3: दो लघु पहले फिर एक दीर्घ फएलुन।  अब इसमें भी दो प्रकार से हो सकता है पहला तो ये कि शुरू के दो स्‍वतंत्र लघु हो और फिर बाद में दो लघु ऐसे आ रहे हों जो कि आपस में संयुक्‍त होकर एक दीर्घ बना रहें हों । जैसे न सनम  को अगर देखें तो इसमें भी बात वही है कि वैसे तो चारों ही लघु हैं पर पहले दो  न  और   ये दोनों ही स्‍वतंत्र हैं और बाद के  नम  मिलकर दीर्घ हो गए हैं अत: वज्‍़न वही है फएलुन ।  दूसरा ये भी हो सकता है कि दो लघु हों और फिर एक दीर्घ आ गया हो जैसे न सुना  अब इसमें शुरू के दो   और सु  ये दोनों तो स्‍वतंत्र हैं पर बाद में ना दीर्घ है पर वज्‍़न वही है फएलुन ।

4: एक लघु एक गुरू और फिर ऐ लघु फऊलु । अब इसमें भी दो प्रकार से हो सकता है पहला तो वही कि आप के पास चारों ही मात्राएं लघु हों पर उनमें से बीच की दो मात्राएं मिल कर दीर्घ हो रही हों  । जैसे  न तुम न हम  में न तुम न  को देखें वैसे तो चारों ही लघु हैं पर बीच की दो  तुम  जो हैं वो मिलकर दीर्घ हो रही हैं जबकि दोनों तरफ की   न  जो हैं वो स्‍वतंत्र हैं । दूसरा तरीका ये भी हो सकता हैं कि बीच में एक सचमुच की दीर्घ ही हो जैसे मिला न  में मि लघु है फिर ला  दीर्घ आ गया है और फिर   एक बार फिर लघु है दोनों ही हालत में वज्‍़न वही है फऊलु ।

5:  दा गुरू मात्राएं फालुन ।  इसमें कई तरीके हो सकते हैं पहला तो ये कि चारों ही लघु हो पर दो दो लघु मिल कर दो दीर्घ में बदल रहे हों जैसे हम तुम में वैसे तो चार लघु मात्राएं हैं पर हम मिलकर एक दीर्घ बना रहा है और तुम मिलकर एक दीर्घ बना रहा है । दूसरा ये कि शुरू में एक दीर्घ हो फिर दो लघु ऐसे हों जो मिलकर एक दीर्घ बन रहे हों  जैसे ला हम  को देखें यहां पर पहला ला तो सीधा दीर्घ ही है और बाद में हम जो है वो वैसे तो दो लघु हैं पर मिलकर एक दीर्घ बना रहे हैं अत: वज्‍़न वही है फालुन ।  तीसरा ये भी हो सकता है कि पहले दो लघु हों जो मिलकर एक दीर्घ बना रहे हों और फिर एक दीर्घ आ रहा हों जैसे हमला  में शुरू के दो और   जो हैं वो वैसे तो लघु हैं पर मिलकर एक दीर्घ बना रहे हैं । बाद में जो ला  हैं वो ता दीर्घ ही है अत: वज्‍़न वही रहा फालुन । चौथ ये भी हो सकता है कि दोनों सचुमुच के ही दीर्घ हों जैसे जाना  में जा  और ना  दोनों ही दीर्घ हैं और वज्‍़न वही है फालुन ।

आज के लिये इतना ही कल हम आगे चलेंगें और पंचकल की बात करेंगें । उडनतश्‍तरी का भारत आगमन हो रहा है ये जान कर प्रसन्‍नता हुई अगर पूर्व में पता होता तो हम कवि सम्‍मेलन को कुछ बाद में रख लेते खैर कार्यक्रम तो होते ही रहते हैं और आशा है हम उड़नतश्‍तरी को किसी न किसी कार्यक्रम में ज़रूर बुलाएंगें ।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2007

पहले गंभीर चिन्‍तन मनन कीजिये, तब कलम को उठाकर सृजन कीजिये, ओस की बूंद से प्‍यास बुझती नहीं, सागरों को उठा आचमन कीजिये

पहली ही पंक्ति मैं जैसे साहित्‍य का पूरा का पूरा ज्ञान समा गया है । पहले गंभीर चिंतन मनन कीजिये फिर कलम को उठाकर सृजन की‍जिये। यश कमाने की हो कामना जो तुम्‍हें जिंदगी को जलाकर हवन कीजिये।

काफी दिनों से कक्षा बंद थी और आज जब उड़न तश्‍तरी ने कहा कि कक्षा क्‍यों बंद है तो आज पुन: शुरू की जा रही है । दरअस्‍ल में कुछ समस्‍याएं आ जाती हैं और उनके कारण ही कभी कभी काम बंद हो जाता है । उधर अभी ये हो गया है कि हमारे विद्युत मंडल ने पुन: कटौती प्रारंभ कर दी है जो समय ब्‍लाग पर भटकने का तय था वो मंडल की भेंट चढ़ गया है । अब तीन घंटे की कटौती के बाद समय ही नहीं होता कि काम किया जाए सो कुछ काम कम हो रहा है । फिर भी प्रयास करूंगा कि कक्षाएं जारी रहें आगे भगवान...... उफ़ क्षमा करें विद्युत मंडल की मर्जी ।

आज हम वार्णिक गुणों की बात करते हैं ।

हिंदी में जैसे नगण, सगण, जगण, भगण, रगण, तगण, यगण, मगण होते हैं वहीं सब कुछ उर्दू में भी चलता है ।

रुक्‍न मात्रा का योग हिंदी में क्रम वार्णिक गुण
फ़इल 3 1 1 1 लाम लाम लाम नगण
फ़एलुन 4 1 1 2 लाम लाम गाफ सगण
फऊलु 4 1 2 1 लाम गाफ लाम जगण
फाएलु 4 2 1 1 गाफ लाम लाम भगण
फाएलुन 5 2 1 2 गाम लाफ गाम रगण
मफऊलु 5 2 2 1 गाफ गाफ लाम तगण
फऊलुन 5 1 2 2  लाम गाफ गाफ यगण
मफऊलुन 6 2 2 2 गाफ गाफ गाफ  मगण

 

अब इनके ही आधार पर हम रुक्‍न बनाते हैं । जैसे ऊपर कुछ रुक्‍न हैं जिनकी मात्राएं क्रमश: तीन चार पांच तथा छ: हैं । केवल हो क्‍या रहा हैं कि दीर्घ ( गाफ) और लघु ( गाम) के स्‍थानों में परिवर्तन होने के कारण ही ये सारा खेल हो रहा है । एक मात्रा को कल कहा जाता है और मात्राओं का विन्‍यास ही मात्रिक गुण कहलाता है ।

दोकल: दो हर्फी रुक्‍न को दो कल भी कहा जात है और ये दो प्रकार के ही होते हैं । 1 एक गुरू मात्रा जैसे फा या फे । और या कि दो लघु मात्राऐं जैसे अब कब आदि । उर्दू में फा और अब दोंनो का ही बज्‍़न समान है और ये दोनों ही दो हर्फी हैं ।

2 दूसरा वो जब दो लघु मात्राएं तो हों पर दोनों ही स्‍वतंत्र हो  अब या कब  की तरह मिल कर दीर्घ न बन रहीं हों । मैं न मिलूंगी  में विन्‍यास है 2 1 1 2 2   बीच में जो  न और मि  हैं वो दोनों हांलकि दो लघु हैं पर मिलकर संयुक्‍त नहीं हो रहे हैं अत: इनको अलग अलग ही गिना जाएगा ।

त्रिकल : तीन हर्फी रुक्‍न को त्रिकल कहा जाता है । ये तीन प्रकार के हो सकते हैं ।

1  तीन लघु मात्राएं जैसे फइल  और अगर उदाहरण देख्‍ना चाहें तो काम न हुआ  में  म न हु  का जो विन्‍यास है वह यही है

2   एक गुरू और दो लघु मात्राएं फाअ  और उदाहरण आम, काम, जाम, बंद,   आदि। हम एक गुरू की जगह पर दो लघु भी ले सकते हैं बशर्ते वे संयुक्‍त हो रहे हों जैसे बंद में  ब  ओर आधा   दोंनों मिल कर एक दीर्घ बन रहे हैं । अब एक महत्‍वपूर्ण बात देखें । ऊपर फइल में क्‍यों उसको एक अलग विन्‍यास दिया गया है केवल इसलिये क्‍योंकि वहां पर  काम न हुआ  में  म  स्‍वतंत्र है किसी के साथ संयुक्‍त हो नहीं सकता । फिर   एक अलग ही अक्षर है और हुआ का हु स्‍वतंत्र है ।  

3  एक लघु और फिर एक गुरू मात्रा फऊ  उदाहरण कभी, नहीं, मिला, समर, किधर, आद‍ि । एक गुरू मात्रा की जगह दो लघु भी हो सकती हैं पर वे संयुक्‍त होनी चाहिये । जैसे हमने किधर  को भी लिया है क्‍योंकि कि लघु हो रहा है और दो लघु   और   मिल कर एक दीर्घ बना रहे हैं ।  महत्‍वपूर्ण बात ये हैं कि वज्‍़न गिनते समय ये ध्‍यान रखना चाहिये कि कौन से दो लघु मिलकर एक दीर्घ हो रहे हैं और कौन से नहीं हो रहे हैं । वज्‍़न लेते समय यही महत्‍वपूर्ण होता है कि आप ठीक से अनुमान लगा सकें कि कहां पर लघु और लघु पास पास तो हैं पर उनको आप एक दीर्घ में इसलिये नहीं गिन सकते कि वे स्‍वतंत्र हैं । और कहां पर दो लघु पास पास हैं और दीर्घ मात्रा में परिवर्तित भी हो रहे हैं । 

ध्‍यान रखें कि अक्षर और मात्राओं में फर्क होता है हम आम तौर पर ये समझते हैं कि जो अक्षर हैं वहीं मात्राएं हैं । मगर ये नहीं होता अक्षर और मात्राएं अलग अलग बात हैं । कल हम बात करेंगें चौकल, पंचकल, ष्‍टकल और सप्‍तक की ।

एक खुश्‍खबरी है माड़साब के प्रकाशन की तीसरी पुस्‍तक 'बंजारे गीत'  लेखक श्री रमेश हठीला प्रकाशित होकर आ गई है । माड़साब पिछले कुछ दिनों से उसी में व्‍यस्‍त थे । कारण ये है  कि परफेक्‍शन की खब्‍त के चलते माड़साब खुद ही टाइप करते हैं डिजाइन करते हैं मुखप्रष्‍ठ बनाते हैं और प्रकाशक भी खुद ही हैं । शिवना प्रकाशन की तीसरी पुस्‍तक हैं इससे पहले गुलमोहर के तलें और झील का पानी दो पुस्‍तके माड़साब के प्रकाशन से आ चुकी हैं । अब 17 नवंबर को एक विशाल कवि सम्‍मेलन में उसका विमोचन होगा । कवि सममेलन में ओम व्‍यास, माणिक वर्मा, सांड नरसिंहपुरी, अशोक भाटी, पवन जैन, मोनिका हठीला, दिनेश याज्ञिक, संतोष इंकलाबी, आदि आ रहें हैं । और संभवत: केंद्रीय मंत्री श्री सुरेश पचौरी विमोचन करेंगें। आप सब कवि सम्‍मेलन में सादर आमंत्रित हैं ।

सोमवार, 22 अक्तूबर 2007

भंतेलाल जी भटियारे : एक वरिष्‍ठ पत्रकार के जीवन वृत्‍त का गीदड़ावलोकन

मित्रों हमने भंतेलाल वरिष्ठ पत्रकार तो लिख दिया, पर हमें स्वयं को पता नहीं कि भंतेलाल के बीच ये वरिष्ठ कब और कैसे आ गया, पर चूंकि सब कहते हैं तो हमें भी कहना पड़ेगा। भंते और हमारे परिवार का काफी गहरा रिश्ता रहा है, और वो रिश्ता भी एसे, कि कक्षा छ: में वे हमारे साथ पढ़े, और बाद में हमारे सभी छोटे भाईयों का उन्होने कक्षा छ: में ही साथ दिया, हमारे सबसे छोटे भाई को छठी से सातवीं में बिदा करने के बाद उन्होने पढ़ाई से भी विदा ले ली, जाहिर सी बात थी हमारे बच्चों का साथ देने के लिए काफी ज्यादा रूकना पड़ता। हाँ तो हमारे प्यारे ''भंतेलाल छठी में छ: बार फेल'' को अंतत: मूंगफली का ठेला लगाना पड़ा, पार्ट टाइम में समाचार पत्रा बांटने का कार्य भी प्ररंभ कर दिया। एक दिन अचानक भंतेलाल हमारे पास आए और बोले ''दद्दा हम पत्रकार बनने का सोच रहे है'' हमारा आश्चर्य सारी सीमाऐं तोड़ गया हमने कहा ''भंते हमने अपनी पूरी पीढ़ी को तुम्हारे साथ कक्षा छ: में समय गुजारते अपनी इन्ही आंखों से देखा है, और वहाँ से सीधे मूंगफली के ठेले पर स्थानांतरित होते देखा हैं, हमारे साथ मजाक मत करों'' । भंते कुछ सीरियस हो गये बोले ''दद्दा ये तुमसे किसने कह दिया कि पत्रकार बनने के लिए पढ़ा लिखा होना आवश्यक है, आवश्यकता होती है केवल समाचार पत्रों से जुड़े रहने की, तो वो तो हम कई सालों से जुड़े हैं'' अब पुन: हमारे आश्चर्य चकित होने की बारी थी हमने पूछा ''भंते तुम समाचार पत्रों से जुड़े हो हमे पता ही नहीं था  भला बताओ तो कैसे और कब से जुड़े हो ? ''भंतेलाल इस तरह मुस्‍कुराए मानो पोखरन के तीसरे विस्फोट का रहस्य खोलने जा रहे हों, बोले ''दद्दा हम दस सालों से पेपर बांटने का कार्य कर  रहे हैं, और पेपर में बांधकर ही तो हम मूँगफलियाँ बेचते हैं, तो जुड़े के नहीं हम पेपर से? हमे पत्रकारिता के बारे में सभी कुछ पता है।'' ''हमारा आश्चर्य अभी भी भंतेलाल की पत्रकार वाली मूर्ती को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था, अत: हमने पुन: पूछा ''पर भंते तुम्हारे इतने मनमोहक व्यक्तित्व का साक्षात अवलोकन करने के पश्चात तुम्हें पत्रकार बनाएगा कौन सा समाचार पत्रा ? ''भंते आज मुस्कुराहटों का कुछ अतिरिक्त कोटा लेकर आए थे, हल्की मुस्कुराहट के साथ बोले ''एक समाचार पत्र है जो हमें अपना संवाददाता नियुक्त कर रहा हैं ''शाम की बंदूक'' हमने विस्मय से कहा ''बड़ा हिंसक नाम है, क्या संपादक सीधे चंबल के बीहड़ों से चला आ रहा है, और इस समाचार पत्र को खरीदेगा कौन ? हमने तो आज तक इसमें मूंगफली तक नहीं खाई''। भंते भगवान बुध्द की तरह मंद मंद मुस्कुरा रहे थे बोले ''दद्दा हमें तो शक हो रहा है, कि तुम सचमुच पढ़े लिखे हो भी या नहीं, अरे शहर में पचास सरकारी दफ्तर हैं, पचास प्रतियाँ तो वहाँ बँट जाऐंगी, और भगवान की दया से हमारे शहर में नेताओं की भी कमी नहीं है, अब उन्हें न्यूज छपवानी है तो पेपर तो लेना ही पड़ेगा, और फिर तुम्हारे जैसे मित्र भी तो हैं जो हमें मना नहीं करेंगे'' हमारी उत्सुकता फिर भी शांत नहीं हुई थी अत: पुन: पूछा ''भंते तुम तो अब भी हिंदी के मामले में अ-इमली का, म-टमाटर का, और क-खरगोश का हो, तुम्हारा हस्तलेख विश्व का कोई भी व्यक्ति नहीं पहचान सकता है, कि किस भाषा में लिखा गया है, तुम्हारी हस्तलिखी देखने में ऐसी लगती है, कि या तो ये मोहन जोदड़ो या हड़प्पा की खुदाई में निकले शिलालेख हैं, या फिर कोई स्याही में भीगा चींटा शराब पीकर कागज पर चल दिया हो, इतनी सारी विशेषताओं के बाद तुम समाचार किस तरह बनाओगे?'' भंते हिकारत से हमारी तरफ देखते हुये बोले ''पत्रकार को समाचार नहीं बनाने पड़ते, जिसे छपवाना होता है वो खुद अपना समाचार टाईप करवा कर लाता है, हमें तो बस भेजना होता है''। हमने सोचा अब भंते से और अधिक बहस करना फिजूल है, कर लेने दो प्रयास, आखिर को पत्रकार बनना इतना आसान काम भी नहीं है। खैर साहब काफी दिन गुजर गए और हम ये भी भूल गए कि भंते ने पत्रकार बनने का ऐतिहासिक निर्णय लिया था, हम यही सोचते थे कि भंतेलाल पत्रकारिता से पुन: मूंगफली के ठेले पर आ गए होंगे। अचानक एक दिन हमने समाचार पत्र खोला तो यूं लगा मानो समाचार पत्र में से किसी हाथ ने निकल कर हमें जबरदस्त घूंसा मार दिया है। समाचार पत्र में भंते की फुल वीभत्स मुस्कुराहट युक्त फोटो छपी थी, साथ में लिखा था ''कल फलाने मंत्री श्री भंतेलाल वरिष्ठ पत्रकार को पत्रकारिता पुरूस्कार से सम्मानित करेंगे। उस दिन से ही हम अपनी किस्मत को कोस रहे हैं, काश हम भी कक्षा छठवीं में छ: बार फेल हो गए होते तो आज हम भी वरिष्ठ होते।

( नोट : ये केवल एक व्‍यंग्‍य लेख है यदि आप भी पत्रकार हैं और भंतेलाल जी से आपके कुछ गुण मिलते हैं तो उसमें हमारी कोई ग़लती नहीं है )

शनिवार, 20 अक्तूबर 2007

ओह क्‍या आपने फिल्‍म सावरिया का ये अद्भुत गीत सुना है : ओह रे छबीला नशीला सावन बीता जाए सुन ओ जमीला हठीला ऐसे तन को जलाए के ओ ओ ओ ओ

हालंकि मैं नए गाने नहीं के बराबर ही सुनता हूं पर जाने कैसे ये गीत मेरे सुनने मे आ गया और फिर मेरी इच्‍छा हुई कि इसको आप के साथ बांटा जाए । हालंकि मैने सावरिया के पूरे गीत सुने हैं और सच कहूं तो काफी समय के बाद किसी नई फिल्‍म के पूरे गीत सुने हैं । सारे गीतों के बारे में फिर कभी बात करूंगा पर आज तो इसी गीत की बात करते हैं । संगीत मोंटी  का है गीत समीर का और आवाज़ है अल्‍का याज्ञिक  की । मुझे इस गीत को सुन कर ही अचानक मीनाकुमारी या गीता बाली की याद आ गई जो सावन में भीगते हुए सहेलियों के साथ बाग में गाना गा रहीं हैं । गीत का संगीत भी अद्भुत है ढोल की जो थाप लगी है और साथ्‍ा में सितार की तान ने समां बांध दिया है ।

चलिये पहले आपको गीत के बारे में बता दूं

छैल छबीला, रंग रंगीला, बदन कटीला, होंठ रसीला

रूप सजीला, यार हठीला, तंग पजामा, कुर्ता ढीला

छबीला, रंगीला,  कटीला, रसीला, सजीला, हठीला, पजामा, है ढीला

( इसके बाद एक कोरस है जो हालंकि सुनने में कुछ कुछ होता है  के कबसे आए है तेरे, की घ्‍वनि देता है )

ओह रे छबीला, नशीला सावन बीता जाए

ओह रे छबीला, नशीला सावन बीता जाए

सुन ओ जमीला हठीला ऐसे तन को जलाए

के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, ओ ओ हो हो

अंग सजीला देखो, रंग रंगीला देखो, अंग सजीला देखो, रंग रंगीला देखो,

बिजुरी मुझ पे गिराए

के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, ओ ओ हो हो

( इसके बाद सितार का एक सुंदर सा टुकड़ा लगा है )

अंतरा

तू न जाने, न न न, तू तू तू तू,  तू न जाने, न न न, तू तू तू तू,

तू न जाने, तू न जाने है ये प्‍यार क्‍या

अरे बेक़दर तुझे नाख़बर, अरे बेक़दर तुझे नाख़बर

हाल दर्दे दिल का

दोनों जहान ले, चाहे तो जान ले

रब का है वास्‍ता, कहना तू मान ले

आ ओ

ओह रे छबीला, नशीला सावन बीता जाए

सुन ओ शकीला हठीला ऐसे तन को जलाए

के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, ओ ओ हो हो

( यहां शहनाई जैसा एक सुंदर पीस है ।)

आजा आजा आ आ आ आजा आजा

आजा आजा ए.................. आजा आजा

आजा आजा अब तो आजा रस्‍ता मोड़ के

तुझे है क़सम अरे बेरहम

अरे तुझे है क़सम अरे बेरहम कर न सितम ऐसे

पहलू से छूट के बिखरूं मैं टूट के

बेदर्द बालमा न जा यूं रूठ के

ओह रे छबीला, नशीला सावन बीता जाए

ओह रे छबीला, नशीला सावन बीता जाए

सुन ओ रमीला हठीला ऐसे तन को जलाए

के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, के ओ ओ ओ ओ, ओ ओ हो हो

छैल छबीला, रंग रंगीला, बदन कटीला, होंठ रसीला

रूप सजीला, यार हठीला, तंग पजामा, कुर्ता ढीला

छबीला, रंगीला,  कटीला, रसीला, सजीला, हठीला, पजामा, है ढीला

कितना सादा कितना अकेला

इस गाने को सुनें और उस ढोल को सुनें जो  ओह रे  पर बजता है ओह क्‍या बात है । इस गाने को यहां http://www.savefile.com/files/1135016 से लेकर पूरा सुन सकते हैं आप । धन्‍यवाद संजय लीला भंसाली बरसों बाद फिल्‍मी संगीत में भारतीय संगीत की आत्‍मा को जगाने के लिये । सुनें ज़रूर ये गीत और आपको भी ऐसा लगेगा कि परदे पर तो शायद आशा पारेख या साधना ही इस गीत को गाएंगीं ।

सुन ओ रमीला हठीला सावन बीता जाए

तो उड़न तश्‍तरी के पोस्‍ट में तो ब्‍लागवाणी का पूरा पेज ही भर जाएगा, वहां पर तो टिप्‍पणियां ऐसे आती हैं जैसे कभी सचिन के बल्‍ले से रन आते थे ।

टिप्‍पणियां ही वो आधार होती हैं जो हमको फिर फिर पोस्‍ट लिखने पर मजबूर करती हैं । शराबी फिल्‍म का एक डायलाग है 'मूंछें हों तो नत्‍थू लाल जी जैसी हों नहीं तो हों ही नहीं ' वैसे ही मैं ये कह सकता हूं कि भई टिप्‍पणियां हों तो उड़नतश्‍तरी के ब्‍लाग पर होने वाली हों नहीं तो हों ही न । अब उसके लिये भी एक पुरानी बात याद आती है कहीं पढ़ा था कि आदमी का व्‍यवहार एक रबर की गेंद की तरह ही होता हैं आप जितनी ज़ोर के साथ इसको दीवार पर मारते हैं ये उतनी ही जोर से आपके पास वापस आती है । उड़नतश्‍तरी के साथ भी यही है । दरअस्‍ल में उड़नतश्‍तरी की टिप्‍प्‍णियां आपको हर कहीं मिल जाएंगें । मै नहीं जानता कि समीर जी ने अपने ब्‍लाग को नाम उड़नतश्‍तरी पूर्व से सोच कर रखा था या यूं ही रखा गया था मगर आज की बात करें तो ये बात सच है कि उनका ब्‍लाग सचमुच उड़नतश्‍तरी की तरह ही है । उड़ते उड़ते सारे ब्‍लागों पर उड़नतश्‍तरी की उपस्थिति दर्ज होती है । और यही कारण है कि फिर बाकी सब भी उनकी पोस्‍ट पर अपनी टिप्‍पणियां दर्ज करते हैं । हालंकि एक बात और है वो ये है कि उड़नतश्‍तरी की पोस्टिंग सबसे मासूम होती हैं '' कत्‍ल भी करते हैं और हाथ में खंजर भी नहीं '' ( शेर को थोड़ा बदल दिया है ) । मैं एक बात बताना चाहूंगा ब्‍लाग तो मैं लिखता हूं पर मेरे ब्‍लाग पर आने वाली टिप्‍पणियों को पढ़ कर मेरे यहां काम करने वाले लड़के भी उड़नतश्‍तरी पर फिदा हैं । अभी जब पोडाकास्‍ट पर उड़नतश्‍तरी का साक्षात्‍कार आ रहा था तो सब बैठ कर सुन रहे थे । तो ब्‍लाग वाणी ने एक अच्‍छा काम किया है कि टिप्‍पणियों को भी दिखाना प्रारंभ कर दिया है अब मुझे चिंता होने लगी है कि जिस दिन उड़नतश्‍तरी की पोस्‍ट लगेगी उस दिन क्‍या होगा । ब्‍लागवाणी का पूरा पेज ही उससे भर जाएगा । आखिर को तीस चालीस टिप्‍पणियां तो आम बात हैं । समीर जी ने जैसा कहा है कि अगर ड्राप डाउन की व्‍यवस्‍था भी हो जाए तो सोने पर सुहागा हो जाएगा । कहीं जाने की ज़ुरूरत ही नहीं पड़ेगी वहीं पर सब कुछ पढ़ लिया जाएगा । रवि रतलामी जी ने विंडो लाइव रायटर के बारे में बता कर काफी आसानी पहले ही कर दी थी अब ब्‍लाग वाणी ने काम को और भी आसान कर दिया है । आभार धन्‍यवाद और सभीको नई व्‍यवस्‍था पर बधाई ।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2007

रश्‍क आता है तेरी किस्‍मत पे क्‍या तेरे हाथ को लकीर मिली, और सब नेमतें तो हासिल थीं अब पड़ोसन भी बेनज़ीर मिली

बहुत पहले ये शेर कहीं सुना था मगर आज ये शे'र जनाब मनमोहन सिंह के लिये बिल्‍कुल फिट हो रहा है । और जब किस्‍मत की बात चल रही हो तो फिर उनसे बेहतर किस्‍मत किसकी हो सकती है । और अब इस किस्‍मत में और ज्‍यादा चार चांद लगने जा रहे हैं क्‍योंकि उनकी पड़ोसन आज बेनजीर बनने जा रही हैं ।

चलिये अपन तो इस कम्‍बख्‍़त सियासत को छोड़कर अपने काम पर वापस लौटते हैं । अभिनव ने कुछ दिनों की छ़ट्टी ली है और इधर कंचन ने एक फुल हुलगदागदा ग़ज़ल दी है । ऐसी ग़ज़ल जिसमें न तो काफिया पता चल रहा है न कुछ और । पेश है

गली के मोड़ तलक जा के लौट आऊँगा,
तुम्हे छिपा के निगाहों में लौट आऊँगा।
दिखाई दोगे जहाँ तक तुम्हें मै देखूँगा,
छिपोगे आँख से तो चुप से लौट आऊँगा।
तुम्हारी याद अलग है तुम्हारी बातों से,
तुम्हें ये बात बताऊँगा लौट आऊँगा।
यही पे छोड़ गए थे मुझे अकेला वो,
यहीं पे बोल गए थे कि लौट आऊँगा।
चला गया वो मुझे अलविदा बिना बोले,
सुनाई देता है लेकिन कि लौट आऊँगा।

अब आप ही तय करें कि क्‍या सज़ा दी जाए इस ग़ज़ल पर ।

चलिये आज कुछ बातें की जाएं ग़ज़ल के मात्रा निकालने के तरीके की । जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि आधी मात्रा को शुमार नहीं किया जाता है और उसे अपने से पहले की या बाद की मात्रा में मिला दिया जाता है । अब इस पर भी कुछ बातें आ रहीं हैं कि ये कैसे तय किया जाएगा कि आगे के अक्षर में मिलाना है या फिर पीछे के अक्षर में । एक बात जो हमेशा याद रखें क‍ि ये जो ग़ज़ल की दुनिया है ये ध्‍वनियों को खेल है यहां पर सब कुछ ध्‍वनियों पर ही चलता है । इसलिये अगर आपको ये तय करना है कि कोई आधी मात्रा को कहां पर मिलना है तो उसके लिये आप उसको उच्‍चारित करके देखें कि वो किस प्रकार के उच्‍चारण में हैं । अब जैसे हम कहीं पर सख्‍़ती  शब्‍द का प्रयोग कर रहे हैं तो उसमें क्‍या होगा । सख्‍़ती  का उच्‍चारण देखें सख्‍़ ती या  सख्‍़ा और ती  । तो इस में साफ हो रहा है कि आधा ख तो है वो अपने से पीछे के में मिल रहा है और दोनों मिलकर एक दीर्घ में बदल रहे हैं । अब बाद के ती  को तो आप चाहे जैसे ले सकते हैं चाहे तो उसे गिरा कर लघु कर लें या दीर्घ कर लें । मगर सख्‍़ से तो एक दीर्घ बन रहा है ये तय है । अगर शुद्ध वज्‍़न की बात करें तो सख्‍़ाती  को वज्‍़न है दीर्घ-दीर्घ 22 । मगर बात यदि तुम्‍हारी  की हो रही है तो आधे   को कहां जाना है ये उच्‍चारण ही तय करेगा । जब हम आधे म को बोलते हैं तो किस प्रकार की ध्‍वनि आती है । तु म्‍हा री अर्थात तु  के बाद विश्राम आ रहा है और म्‍ तथा हा  को एक  साथ बोला जा रहा है इससे तय है कि आधा म जाएगा हा के साथ । अर्थात आधा म अपने से आगे के हा में मिल रहा है । इसी प्रकार जब हम कहते हैं जिन्‍दगी  तो उसका उच्‍चारण कुद इस प्रकार आता है जिन्‍ द गी यानि कि जिन फिर   और फिर गी ।  बात साफ है कि आधा न जो हैं वो पीछे की जि  में लिकर उसको दीर्घ बना रहा है ।

उदाहरण देखें शे'र है हस्‍ती अपनी हुबाब की सी है

हस त अप नी  हुबाब की सी है
फा ए ला तुन मु फा ए लुन फालुन
अब यहां पर क्‍या हुआ कि हस्‍ती में जो आधा स है वो ह में मिल गया है क्‍योंकि उच्‍चारण में हम हस  और ती  को इसी प्रकार पढ़ते हैं । चलिये आज के लिये इतना ही । हां तरकश पर उड़नतश्‍तरी का इंटरव्‍यू सुना अच्‍छा लगा । बस एक बात जो समझ नहीं आई वो ये थी कि इंटरव्‍यू लेने वाली बालिका इतना हंस क्‍यों रही थी ।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

उल्‍टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया, देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया, शेख़ जो है मस्जि़द में, नंगा रात को था मैखाने में, ज़ुब्‍बा, खि़र्का, कुर्ता, टोपी, मस्‍ती में इनआम किया

मयखाने का और शराब का ग़ज़ल से जाने क्‍या रिश्‍ता है समझ में ही नहीं आता हर बार घूम कर बात वहां पर पहुंच ही जाती है । अब जैसे इसी ग़ज़ल में मीर साहब ने शेख जी की हालत ही पतली कर दी है । खैर चलिये आज बात करते हैं कुछ होमवर्क की और उसी के बहाने ये देखने का काम करते हैं कि ग़ज़ल की बहर निकालने में कहां पर ग़लती होती है । जैसे अभिनव ने ही निकाली है बहर मेरे द्वारा दी गई कल की ग़ज़ल की

गली के मोड़ तलक जाके लौट आऊंगा

अभिनव ने निकाली है

१२१२ - १२१२ - १२१२ - २२
ललालला ललालला ललालला लाला

ग़लती कहां पर हुई है देखिये ज़रा

ग-1, ली-2, के-1, मो-2 (सही निकाला है )

ड़-1, त-1, लक-2, जा-2 ( ग़लत हो गया )

के-1, लौ-2, ट-1, आ-2 ( सही निकाला है )

ऊं-2, गा-2 (सही निकाला है)

तकतीई देखें

ग ली क मो ड त लक जा क लौ ट आ ऊं गा
मुफाएलुन फएलातुन मुफाएलुन फालुन

अब इसमें देखें कि किस तरह से वज्‍़न निकाला गया है तकतीई करके । अब देखें कि अभिनव ने कहां पर ग़लती की है ।

मैं बादलों की तरह छा के लौट आऊँगा,

म बा द लों कि त रह छा क लौ ट आ ऊं गा
मुफाएलुन फएलातुन मुफाएलुन फालुन

( माड़साब ने पास कर दिया मिसरा उला)

जुगनुओं सा टिमटिमा के लौट आऊँगा,

जुग नु ओं स टिम टिमा के लौ ट आ ऊं गा
फा ए लातु फाएलातु फाएलातुन फा

( मिसरा सानी में नाक कट के धरा गई माड़साब की )

ग़लती के पीछे कारण क्‍या है । जुगनुओं में जुग नु ओं 212 है और हमारी ग़ज़ल तो शुरू ही हो रही है लघु से तो जुगनू से तो शुरू ही ही नहीं सकती जिसमे दीर्घ पहले है ।
रुका हुआ हूँ मगर सोच कर ये आया था,

रु का हु आ हु म गर सो च के य आ या था
मु फा ए लुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( माड़साब को थोड़ी राहत मिली )

तुम्हारी एक झलक पा के लौट आऊँगा,

तु म्‍हा रि ए क झ लक पा के लौ ट आ ऊं गा
मु फा ए लुन फ ए  ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( माड़साब खुश हुए )


मुझे यकीन था तुमने भुला दिया होगा

मु झे य की न ह तुम ने भु ला दि या हो गा
मु फा ए लुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( माड़साब ने छड़ी भी नीचे रख्‍ा दी, उड़न तश्‍तरी के काम आएगी)


मैं अपनी याद ही दिला के लौट आऊँगा

मे अप नि या द दि ला के हि लौ ट आ ऊं गा
मु फा ए लुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( बच्‍चा सही कर रहा है, उड़न तश्‍तरी अपनी बारी आने का सोच के घबराहट में खिसकती निक्‍कर संभाल रही है )

फिर अकेला हूँ वहाँ ख्वाब देखते थे जहाँ

फिर अ के ला  हु व हां ख्‍वा ब दे ख ते थे ज हां
फा ए ला तुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फ ए लुन

( गर्रा गया और हूल गदा गद बहर फैंक मारी )

फिर  दीर्घ है और हमारी ग़ज़ल तो लघु से प्रारंभ हुई है ।

पुराना गीत कोई गा के लौट आऊँगा

पु रा न गी त कु ई गा क लौ ट आ ऊं गा
मु फा ए लुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( चलो गाड़ी तो पटरी पर आई )


ज़रा सी इससे मेरे दिल को तसल्ली होगी

ज़ रा सि इस स म रे दिल क त सल्‍ ली हो गी
मु फा ए लुन फ ए ला तुन फ ए ला तुन फा लुन

( गई भैंस पानी में )

गली के मोड़ तलक जा के लौट आऊँगा

ग ली क मो ड त लक जा क लौ ट आ ऊं गा
मु फा ए लुन फ ए ला तुन मु फा ए लुन फा लुन

( ये तो माड़साब का ही था )

अब बात करें उड़न तश्‍तरी की हाय हाय मैं सदके जांवां क्‍या तो ग़ज़ल हेड़ी है और क्‍या सुर लगाया है । अल्‍ला क़सम ऐसी ग़ज़ल अगर चचा ग़ालिब देख लें तो ग़ज़ल लिखना छोड़ कर पान की दुकान लगा लें ।

गली के मोड़ तलक जाके लौट जायेंगे
हवा का रुख पलट जाये लौट जायेंगे
( मिसरा सानी माड़साब के सिर के ऊपर से हीट गया)

फिज़ा में आज महक आती है फूलों वाली
अदा की शोख झलक पाके लौट जायेंगे

( मिसरा उला को डेंगू हो रहा है और चिकनगुनिया के भी लक्‍खन हैं )

नशे में डूब बहक ना जाऊँ पी के हाला
सुरा का जाम छलकवा के लौट जायेंगे

( मिसरा उला की कुछ मात्राएं चूहे रात में कतर गए अब उसमें उड़न तश्‍तरी क्‍या करे)

नयी ये सोच बदल मैं कैसे बता पाता
सुरों में गीत गजल गाके लौट जायेंगे

(मिसरा उला फुल हूल गदा गद है )

मचाने शोर धरम का ही नाम आता है
खुदा के नाम भजन गाके लौट जायेंगे

( उफ्फ आखिरकार एक शे'र सही हीटा, हेड़ हेड़ के निकाला तब एक हीटा, चलो हीटा तो सही )

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

कितने पिये हैं दर्द के आंसू बताऊं क्‍या, ये दास्‍ताने ग़म भी किसी को सुनाऊं क्‍या, दीवानगी में कट गए मौसम बहार के, अब पतझरों के ख़ौफ से दामन बचाऊं क्‍या

कई सारे मेल मिल रहे हैं और उनमें सब में अलग अलग बातें आ रही हें जैसे किसी ने कहा है कि उनको बहर की किताब के बारे में जानकारी चाहिये कि वो कहां से मिल सकती है मेरा ये कहना है कि कुछ दिन सब्र कर लें किताब तो तैयार हो ही रहा है और ये होगी ' चिट्ठा किताब बहरों की '' इस किताब में टिप्‍पणियां भी होंगी और बातें भी । बी नागरानी देवी जी का अंग्रेजी में मेल मिला है शायद उनके पास इंडिक साफ्टवेयर नहीं हैं । उनकी ही एक ग़ज़ल जो कही पढ़ी थी वो ही आज के पोस्‍ट में शीर्षक में लगाई है ।

पहले तो रवि रतलामी जी का आभार व्‍यक्‍त कर दूं कि उन्‍होने जो विंडो लाइव रायटर के बारे में जानकारी दी वो बड़ी काम की निकली । मेरा काम इतना आसान हो गया हे कि में बता भी नहीं सकता । विशेषकर जहां मैं रहता हूं वहां तो बिजली की ये हालत है कि अब आई अब गई । अभिनव ने पूरी कविता सुनने की फरमाइश की थी तो ब्‍लाग पर पूरी लगा दी है पर हां ग़ज़ल नहीं है वीर रस की कविता है ।

छात्र धीरे धीरे सीख रहे हैं अच्‍छा लग रहा है । चलिये आज कुछ बात करते हैं रुक्‍नों की । हम दरअस्‍ल में जिन अक्षरों को मिला कर एक विश्राम तक जाते हैं वही रुक्‍न होते हैं । विश्राम मतलब जहां पर जाकर आप थोड़ा ठहरते हैं और फिर वहां से आगे बोलना प्रारंभ करते हैं । ये जो विश्राम होता है वहीं होता है आपका रुक्‍न । ज्‍़यादा तर तो चार मात्राओं के रुक्‍न ही चलते हैं । और उनका कांबिनेशन कुछ इतने प्राकर का हो सकता है ।

1222 लघु-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ मुफाईलुन ललालाला

2122 दीर्घ-लघु-दीर्घ-दीर्घ फाएलातुन लाललाला

1212 लघु-दीर्घ-लघु-दीर्घ मुफाएलुन ललालला

2212 दीर्घ-दीर्घ-लघु-दीर्घ मुस्‍तफएलुन लालालला

2112 दीर्घ-लघु-लघु-दीर्घ मुफतएलुन लाललला

1221 लघु-दीर्घ-दीर्घ-लघु मुफाईलु ललालाल

2221 दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ-लघु मुफतएलातु लालालाल

2121 दीर्घ-लघु-दीर्घ-लघु फाएलातु लाललाल

2222 दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ मुफतएलातुन लालालाला

1122 लघु-लघु-दीर्घ-दीर्घ फएलातुन लललाला

हालंकि कांबिनेशन तो और भी हो सकते हैं पर वो ध्‍वनि में ऊपर के किसी के समान ही होंगें इसलिये उनको अलग से नहीं लिया जा सकता । ये कुछ कांबिनेशन मैं दे रहा हूं प्राथमिक रूप से कवल इसलिये ताकि आपको ग़लती से बचा सकूं हालंकि ये केवल शुरूआत है । रुक्‍नों के कांबिनेशन तो बहुत सारे हैं पर ये आम हैं जो हर ग़ज़ल में अमूमन होते ही हैं । ये जा फाएलातनु वग्‍ौरह है ये तो चूकि फारसी से बहरें आईं थीं अत- वहीं के हैं आप अपना कुछ भी कर सकत हैं । मसलन दनदनादन फाएलातुन या दनादनदन मुफाईलुन जैसा कुछ भी जो आप गा सकें ।

पहले तो आप ये ही करें कि रुक्‍न निकाल लें फिर उसको क़ाग़ज़ पर सबसे ऊपर लिख लें और उसके बाद ग़ज़ल लिखें ऐ शे'र लिखें और उसको ऊपर लिखे रुक्‍नों से मिलाएं फिर आगे बढ़ें । ग़ज़ल कार के बारे में कहा जाता है कि वो बातों में ही मतला तलाश लेता है और फिर उस पर ग़जल लिख देता हैं  । कहा ये भी जाता है कि मतला ऊपर से उतरता है । मैंने भी ऐसा मेहसूस किया है पिछले संडे को जब मैं अपने मित्र रमेश हठीला को छोड़ने उनके घर जा रहा था तो वे मना कर रहे थे पर मैने कहा नहीं चलता हूं गली के मोड़ तलक जा के लौट आऊंगा ।  बाद में मैंने सोचा अरे ये तो मिसरा हो गया गली के मौड़ तलक जाके लौट आऊंगा  हालंकि अभी बात मिसरे तक ही अटकी है आप लोग चाहें तो इस पर आज़माइश करके पूरी ग़ज़ल कह सकते हैं । मिसरा अच्‍छा है ।

वैसे एक बात मुझे बताइये कि मैं तो शादी शुदा हूं पर मेरे पास जो शादियां करवाने वाली कंपनियों के मेल और आफर आ रहे हैं उनका क्‍या करूं । सोमवार को मिलते हैं आशा है आप गली के मोड़ तलक जाके लौट आएंगें  पर कुछ काम करेंगें ।

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2007

आज मुझे बिल्‍कुल एहसास नहीं हुआ कि मेरे मित्र के बिना ही मैं अपना जन्‍म दिन मना रहा हूं । वे मित्र जिन्‍होंने फरवरी में आत्‍महत्‍या कर ली थी ।

आज जब सुब्‍ह आफिस आया तो मन उदास था और वो इसलिये कि अपने मित्र मोहन राय के बिना आज का जन्‍म दिन मुझे बहुत सूना लग रहा था । मोहन राय जिनको मैं प्‍यार से चच्‍चा कहता था । वे भी कवि थे उनके दो काव्‍य संग्रह गुलमोहर के तले और झील का पानी प्रकाशित हो चुके थे । अच्‍छे खासे इंसान थे बैंक में मैनेजर थे । और मेरे बहुत अजी़ज दोस्‍त थे । मगर जाने क्‍या हुआ साइटिका के दर्द से ही हार गए और एक रात जब दर्द हद से गुज़र गया तो पंखे से लटक कर जान दे दी । मैं आज उदास इसलिये था कि मेरे जन्‍म दिन पर सबसे पहला फोन उन्‍हीं का आता था '' हां भैया जी जन्‍मदिन मुबारक हो ,खूब छाए हुए हो आजकल '' और उसके बाद आफिस में एक बड़ी सी माला और मिठाई का डब्‍बा लेकर आने वाले भी वे पहले होते थे । घूम घूम कर मेरे सारे छात्रों को बताते कि आज तुम्‍हारे सर का जन्‍मदिन है । और फिर शाम को कविता का आयोजन रखते । मगर आज वो नहीं थे ।

सुब्‍ह जब आफिस आया तो सबसे पहले ब्‍लाग देखा तो वे सारी‍ टिप्‍पणियां मिलीं जो पूर्व की पोस्टिंग में डाल चुका हूं । फिर अचानक फोन की घंटी बजी मुझे बताया गया कि किन्‍हीं अभिनव का फोन है मेरा इस नाम का कोई स्‍थानीय परिचित तो नहीं है अत: समझ गया कि कौन अभिनव है। मैं अभिभूत हो गया अभिनव से बात करके मुझे लगा कि वो बात सही है कि ईश्‍वर एक दरवाज़ा बंद करता है तो दो खोल देता है । अमेरिका से आए अभिनव के फोन ने  मोहन राय जी के दुख को कम कर दिया और मुझे सामान्‍य कर दिया ।  फिर टिप्‍पणियां भी दिन भर मिलती रहीं । और वो टिप्‍पणी जो मुझे कंचन के ग्रीटिंग पर मिली वो यूं थी

मेरे ब्लॉग पर जब आपने अपने मित्र और जन्म दिवस की चर्चा एक साथ की थी तभी से आपके जन्मदिन की प्रतीक्षा कर रही थी, आपके वो मित्र जो सबसे पहले आपको शुभकामनाएं देते थे, मुझे पता है आज वो आपको बहुत याद आ रहे होंगे, कोई व्यक्ति किसी का स्थानापन्न हो जाता तो व्यक्ति और वस्तु में अंतर ही क्या रह जाता.... परंतु समझियेगा कि उन्ही की प्रेरणा से मैं आपको शुभकामनाएं दे रही हूँ, मैं कई बार अपने को इसी तरह खुश कर लेती हूँ।
मेरी छोटी सी लेकिन सच्ची शुभकामनाएं स्वीकार कीजिये। जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक़

कंचन

संजय बेंगाणी हम शायद बधाई देने से चुक गये. कृपया स्वीकार करें

दीपक श्रीवास्तव मेरी तरफ़ से भी बधाई हो

Manish देर से ही सही पर जन्मदिन की ढ़ेर सारी बधाई ! बहुत अच्छी तरह आपने सब से एपने ज्ञान को बाँटा है। लगे रहें।

Raviratlami
मेरी भी हार्दिक बधाईयाँ स्वाकारें.

कंचन सिंह चौहान गुरू जी आज सच में गाड़ी पंक्चर हो गई थी और आप तो जानते ही हैं कि हम कार्यालय में ही कक्षा attand कर पाते हैं , तो थोड़ी देर हो गई लेकिन स्वीकार कर लीजिये मेरी शुभकामनाएं
वो बड़ी सी शख्सियत है, मेरी छोटी सी दुआ,
वो है खुद में नूर और मैं एक पतली सी शुआ।
ऐ खुदा उनको न हो मालूम पर देना असर,
दूर रखना चश्म-ए-बद से, छू न पाए बद्दुआ।
अभी बस ताज़ा ताज़ा लिखा गुरू जी, अपनी तरफ से बहरें भी गिन ली हैं और दुआ भी मन से की है।
जनमदिन मुबारक

Udan Tashtari हमारे प्रिय माड़साब को जन्म दिन की बहुत सारी बधाईयाँ.
कोई और होता तो हम भी कविता सौगात में देते मगर आपका क्या-लगे छड़ी चलाने तो डर के मारे सिर्फ गद्य में बधाई भर दे रहे हैं, इस में बहर और काफिये का कोई लफड़ा नहीं है.
अनेकों शुभकामनायें. आप यूँ ही ज्ञान बांटते रहें, यही कामना है. यू ट्यूब पर भी आपको सुन कर आनन्द आ गया.
केक खिलाईये

राकेश खंडेलवाल ज्ञान के यूँ खज़ाने लुटाते रहें
सीखने सब यहाँ रोज आते रहें
ये जनमदिन मुबारक रहे साल भर
हर सुबह हम यही गुनगुनाते रहें
आप गज़लों की डोरी संभाले रहें
और हम गीत आकर सुनाते रहें
आपके पंथ में रोज दीपावली
के हज़ारों दिये जगमगाते रहें
शुभकामनायें

Neeraj Rohilla हम भी किलास में आये थे इसीलिये उपस्थित कह कर जा रहे हैं, होमवर्क करके अगली बार फ़िर हाजिरी लगायेंगे ।
हमारे प्यारे मास्साब को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें, एक कविता लिखी थी कक्षा १२ में जन्मदिन पर वो आपको समर्पित है ।
कल तसस्वुर में तुम याद आये,
आज जन्मदिन की सौगात लाते,
सोचा क्या दूँ तुमको मैं उपहार,
लिख कर लाया हूँ शब्द दो-चार,
शब्द भावनाओं के मोती हैं कोमल,
सरिता के समान स्वच्छ निर्मल
उत्साह और उमंग की नाव में सवार,
दोनों हाथों से थाम जीवन की पतवार,
करो तुम जीवन की मुश्किल सब पार,
जन्मदिन की शुभकामनायें बार-बार ।
अब छडी न घुमा दीजियेगा, बता रहे हैं कक्षा १२ में लिखी थी :-)

अभिनव ग़ज़लों की खुशबू से जग महकाते उस्ताद जी,
जन्मदिवस की आपको बहुत मुबारकबाद जी,
अभी अभी यू ट्यूब पर देखे हमने वीडियो,
अद्भुत सुंदर वाह वाह स्वीकारिए दाद जी,

धन्‍यवाद आप सभी को आप ने मेरे मित्र का दुख मुझे महसूस नहीं होने दिया । और जन्‍म दिन को उल्‍लास से भर दिया । विशेषकर अभिनव तुमको धन्‍यवाद तुमने मुझे मेरे उस विश्‍वास पर फिर कायम कर दिया कि दुनिया में सारे रिश्‍ते पैसे के आस पास ही नहीं होते और भी कुछ रिश्‍ते होते हैं जो पैसों की सीमा से कहीं परे होते हैं । आप सभी का आभार मेरे पास सचमुच में आज शब्‍द नहीं हैं इसलिये उधार के शब्‍दों से काम चला रहा हूं

अहसान मेरे दिल पे तुम्‍हारा है दोस्‍तों

ये दिल तुम्‍हारे प्‍यार का मारा है दोस्‍तों

आभार सभी को प्‍यार भरी शुभकामनाओं के लिये, जीवन में शुभकामनाओं से ज्‍़यादा बड़ी चीज़ कुछ भी नहीं है, न पैसा न जायदाद न और कुछ, खुशनसीब हैं वे लोग जिनको दोस्‍तों की शुभकामनाएं और माता पिता का आशिर्वाद मिलता है

मित्रो इस बार का जन्‍म दिन मेरे लिये वैसे भी खास है क्‍योंकि इस बार आप सब की दोस्‍ती का साथ मिला है मुझे जब अपने ज्ञान को बांटने का काम शुरू किया था तब पता नहीं था कि कितने नए दोस्‍तों से जुड़ने जा रहा हूं मैं । सच कहूं तो ग़ज़ल ने मुझ पर सबसे बड़ा उपकार तो यही किया है कि आप सब से जोड़ने का माध्‍यम दिया है । मैं हमेशा से ही कुछ अलग करना चाहता हूं । और इसी प्रयास में यहां तक पहुचा हूं । मंच के कवि सम्‍मेलनों में कविता की जो दुर्दशा है उसके कारण मैं मंच पर असहज महसूस करता हूं अपने आप को । हां अभी तीन और चार नवम्‍बर को दो कवि सम्‍मेलनों की स्‍वीकृति केवल इसलिये दी है कि दोनों खास हैं । एक तो वृद्धाश्रम में करवाया जा रहा हैं और दूसरा किसी गंभीर रोगियो के परीक्षण स्‍थल पर ।  मेरे लिये वृद्धश्रम का कवि सम्‍मेलन ज्‍यादा खास है ।

नीरज रोहिला जी  ने लिखा है

कल तसस्वुर में तुम याद आये,
आज जन्मदिन की सौगात लाते,
सोचा क्या दूँ तुमको मैं उपहार,
लिख कर लाया हूँ शब्द दो-चार,
शब्द भावनाओं के मोती हैं कोमल,
सरिता के समान स्वच्छ निर्मल
उत्साह और उमंग की नाव में सवार,
दोनों हाथों से थाम जीवन की पतवार,
करो तुम जीवन की मुश्किल सब पार,
जन्मदिन की शुभकामनायें बार-बार ।

राकेश खंडेलवाल जी ने कहा

ज्ञान के यूँ खज़ाने लुटाते रहें
सीखने सब यहाँ रोज आते रहें
ये जनमदिन मुबारक रहे साल भर
हर सुबह हम यही गुनगुनाते रहें
आप गज़लों की डोरी संभाले रहें
और हम गीत आकर सुनाते रहें
आपके पंथ में रोज दीपावली
के हज़ारों दिये जगमगाते रहें

उड़न तश्‍तरी

हमारे प्रिय माड़साब को जन्म दिन की बहुत सारी बधाईयाँ.
कोई और होता तो हम भी कविता सौगात में देते मगर आपका क्या-लगे छड़ी चलाने तो डर के मारे सिर्फ गद्य में बधाई भर दे रहे हैं, इस में बहर और काफिये का कोई लफड़ा नहीं है.
अनेकों शुभकामनायें. आप यूँ ही ज्ञान बांटते रहें, यही कामना है. यू ट्यूब पर भी आपको सुन कर आनन्द आ गया.
केक खिलाईये. ( मुझे मालूम था केक कोई मांगेगा तो वो उड़नतश्‍तरी ही मांगेगी)

अभिनव ने कहा

ग़ज़लों की खुशबू से जग महकाते उस्ताद जी,
जन्मदिवस की आपको बहुत मुबारकबाद जी,
अभी अभी यू ट्यूब पर देखे हमने वीडियो,
अद्भुत सुंदर वाह वाह स्वीकारिए दाद जी,

मैं अभिभूत हूं आप सब की शुभकामनाओं पर ( अमिताभ बचचन को तो आज केवल प्रचार के लिये शुभकामनाएं मिलेंगीं पर मुझे तो ह्रदय की गहराइयों से मिलीं हैं । )

आज एक बहुत भावुक पोस्टिंग लगाऊंगा दोपहर बाद ।

नागरानी जी ने अभिनव द्वारा निकाली गई बहर के बारे में पूछा है और उड़नतयतरी ने अपनी एक ग़ज़ल भेजी है । आज तो जन्‍मदिन की छ़ुट्टी है कल हम इन सब पर बातें करेंगें। सभी को पुन: आभार ।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2007

एक ख़ुश्‍बू टहलती रही रात भर, ज़ुल्‍फ खुलकर मचलती रही रात भर

कुछ बातें क्‍यों अच्‍छी लगती हैं उनके बारे में कहा नहीं जा सकता है । जैसे ग़ुलज़ार साहब का लिखा हुआ एक गीत है ' हमने देखी है उन आंखों की महकती ख़ुश्‍बू हाथ से छू के इसे रिश्‍तों का इल्‍ज़ाम न दो' अब इस गीत को हम कितना पसंद करते हैं पर देखें तो आंखों की महकती ख़ुश्‍बू जैसा दुश्‍कर प्रतीक है इसमें । मेरी छोटी बहन और कवियित्री मोनिका हठीला की एक ग़ज़ल है जो मुझे बहुत पसंद है वो ये है जो मैंने ऊपर शीर्षक में लगाई है । खैर माड़साब कल नाराज़ हो गए थे क्‍योंकि क्‍लास में बच्‍चे आ ही नहीं रहे थे । फिर किसी ने बताया कि श्राद्ध चल रहे हैं और बच्‍चे माल उड़ाने में लगे हैं इसलिये मैं भी चुप हो गया ।

चलिये आज कुछ आगे की बात की जाए आज हम बात करते हैं बिंदी की । ऐसा कैसे हो जाता है कि हम कभी तो किसी को बिंदी मानते ही नहीं हैं और कहीं पर मानना पड़ता है । जैसे कहां में हां पर लगी अं की बिंदी गिनी नहीं जाएगी और उसका वज्‍़न कहा  ही गिना जाएगा । मगर ज्रिदगी में जिं पर लगी बिंदी बाकायदा गिनी जाएगी । बात ध्‍वनी की ही है । अगर हम गौर से सुनें तो पाएंगें कि जिंदगी में जो आधा न आ रहा है उसका हम खेंच कर पढ़ते हैं । जिन्‍दगी चूंकि वज्‍़न आ रहा है इसलिये इसे नकारा नहीं जा सकता है । मगर कहां में हां पर की बिंदी वज्‍़न के बगैर है इसलिये उसको हम नगण्‍य मान लेते हैं । यहीं पर हमको जिंदगी का एक फलसफा भी मिलता है और वो ये कि हम चाहते हैं कि किसी भी क्षेत्र में भले ही कितना पक्ष्‍पात हो रहा हो पर हमें नगण्‍य न माना जाए तो हमें अपना वज्‍़न इतना बढ़ाना ही पड़ेगा कि हमे नगण्‍य माना ही न जा सके ।

चलिये अब बात करते हैं इस बिंदी की जो वास्‍तव में कई बार कन्‍फ्यूज़ कर देती है । उदाहरण के लिये दो लाइनें देखें

1 वो हंस रही है

2 वो हंस उड़ रहा है

अब दोनों में वहीं शब्‍द है हंस  मगर वज्‍़न को देखें तो पहले में है दीर्घ मगर दूसरे में है दीर्घ-लघु  ऐसा इसलिये कि दूसरे में बिंदी को आपको नाक से स्‍वर देना ही होगा ( अगर आपको ज़ुकाम नहीं हो रहा हो अगर हो भी रहा हो जब भी आप हन्‍स को हस्‍स तो बोलेंगें ही ) और इसी कारण से हंस रहा है वो  में वज्‍़न लेते समय उसको हस रहा है वो  ही मानेंगें बिंदी को नगण्‍य मान लेते हैं । 

और जब हम तकतीई करते हैं तो उसी के अनुसार करते हैं जैसे

कुछ तो पहलू में है खलिश देखो

की तकतीई होगी

 

कुछ त पहलू म है ख़लिश देखो
फाएलातुन मुफाएलुन फालुन
     

मतलब मैं  को पूरा गिरा कर उसको केवल   ही में गिना जा रहा हे ।

बांस, गेंद, गूंगा, सांस, में, हैं  इस तरह के शब्‍दों में अं की बिंदी को खा जाते हैं और केवल बास, गेद, सास, मे है  ही कहते हैं । मगर रंग, दंग, अंबर, ज़ुंबिश  में ऐसा नहीं होगा । और वो इसलिये क्‍योंकि आपको नाक से टोन डालनी पड़ रही है सलमा आगा टाइप की ( ये बात अलग है कि अगर आपको ज़ुकाम हो रहा हो तो आप रंग  को रग्‍ग  पढ़ेंगें पर होगा तो वही ना ) । इसी के कारण आसमां, दुकां, मकां, ज़मीं, क़ुरां जैसे शब्‍द बने हैं  । आपको यदि 121 चाहिये तो दुकान लिखिये और अगर केवल 12 चाहिये तो ज़मीं  से काम चलाइये बिंदी को गोली मारिये ।

ऊपर जो मैंने टेबल बनाई है वास्‍तव में तकतीई करने के लिये ऐसी ही टेब्‍ल बनाई जाती है आप भी जब काम करें  तो  एसा ही करें ।

अनूप जी भारत यात्रा के बाद कक्षा में वपस आ गए हैं अभिनव सदाबहार रूप से काम कर रहे हैं ( भाभी की डांट पड़ रही है वो बात अलग है ) । उड़न तश्‍तरी कुछ फ्यूज हुई थी फार्म में आने में टाइम लगेगा और कंचन जी तो वैसी ही हैं कभी भी आती हैं और ता  कर के चली जाती हैं ।

कल मास्‍साब का जन्‍म दिन है माड़साब और अमिताभ बच्‍चन एक ही दिन पैदा हुए हैं । माड़साब की इच्‍छा है कि सभी छात्र काव्‍यमय चार पंक्तियों का उपहार दें । चार पंक्तियां अर्थात मतला और ऐ शे'र ।

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007

इश्‍वर जगजीत सिंह को शीघ्र स्‍वस्‍थ करे, उन्‍होंने ग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की है

ख़बर पढ़ी है कि ग़ज़ल गायकी के बादशाह जगजीत सिंह को पक्षाघात हुआ है ।ख़बर सचमुच ही मेरे लिये कष्‍ट देने वाली है । जगजीत सिंह जी ने ही तो मुझे ग़ज़ल की दुनिया से जोड़ा है वरना तो कम्‍प्‍यूटर हार्डवेयर जैसी सूखी दुनिया और ग़ज़ल । ग़ुलज़ार साहब के सीरियल में गा़लिब साहब की ग़ज़लों को जब पहली बार जगजीत जी के मुंह से सुना तो चमत्‍कृत रह गया था मैं । जाने क्‍या था उस आवाज़ में कि मैं बरबस ही ग़ज़ल की ओर खिंच गया । विशेषकर एक ग़ज़ल की ध्‍वनियां तो मुझे पागल ही कर देती हैं । अगर आपने भी ग़ालिब सीरीयल की गज़ल़ें सुनी हों तो ध्‍यान दें उस ग़ज़ल पर ' कब से हूं क्‍या बताऊं जहाने ख़राब में । उसके बाद जगजीत जी के सारे एलबम खरीदना मेरे लिये एक धर्म सा हो गया है कहकशां के दोनों भाग भी अद्भुत हैं । आज जब मैंने समाचारों में पढ़ा कि उनको पक्षाघात हुआ हे तो ईश्‍वर से यही प्रार्थना की कि उनको शीघ्र स्‍वस्‍थ करे अगर उनकी आवाज़ न होती तो आज शायद कविता से मेरा कोई रिश्‍ता ही नहीं होता । जगजीत साहब की आवाज़ को मैं हिंदुस्‍तान के आदमी की आवाज़ मानता हूं वैसे मैं कब्‍बन मिर्जा जिन्‍होने रजिया सुल्‍तान के दो गीत ' आइ ज़ंजीर की झनकार और मेरा नसीब है ' गाए हैं उनकी आवाज़ को भी हिन्‍दुस्‍तान के आदमी की आवाज1 मानता हूं । जगजीत जी स्‍वस्‍थ हों और फिर से ग़ज़ल गायकी की दुनिया में शीघ्र लौटें यही प्रार्थना हे ।

इन दिनों छात्रों की कम संख्‍या के कारण मैंने क्‍लास कुछ कम कर दी हें हां कुछ छात्र सीधे आ रहे हैं मेल पर उनको वहीं ट्यूशन दे रहा हूं जिनमें अभिनव जैसे होनहार छात्र हैं । मुझे ऐसा लग रहा है कि ग़ज़ल की मुश्किल दुनिया के कारण छात्र अब घबरा रहे हैं । और फिर जब ग़लत को भी शे'र कहा जाए तो फिर क्‍या फायदा है सही लिखने में इतनी मेहनत करने का । दाद मिलनी है तो वो तो वैसे भी मिल ही जाएगी ।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

हम ले के अपना माल जो मेले में आ गए, सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए, बस्‍ती के क़त्‍ले आम पर निकली न आह थी, ख़ुद पर लगी जो चोट तो दरिया बहा गए

बहुत सीधी सादी सी ग़ज़ल है और अगर कहा जाए कि इसमें बड़ी ही नफासत के साथ बात कही जा रही है । हस्‍ती साहब की ग़ज़ल है और जैसा कि मैंने पिछली क्‍लास में लिखा था कि आप भी उन गज़लों पर जोर लगाएं जो आपके हाथ में आ जाती हैं और विशेष कर उच्‍चारण के साथ ही तकतीई करें कई बार हम बड़ी और छोटी मात्रा पकड़ने में भूल कर जाते हैं और फिर किसी भी जगह पर मात खा जाते हैं । जैसे ऊपर की ही बात कही जाए तो साफ नज़र आ रहा है कि ग़ज़ल 2212-2212-2212-12 के वज्‍़न  पर है । मगर याद रखें ये गज़लों कि तिलस्‍मी दुनिया है यहां पर जो होता है वो दिखता नहीं है और जो दिख्‍ता है वो होता नहीं है । ये ग़ज़ल मुझे सबसे होनहार छात्र अभिनव ने भेजी है और अभिनव ने भी 2212 2212 2212 12 की ही मात्रा निकाल के भेजी है पर वहीं चूक हो गई मैंने कहा है कि एक शे'र से ग़ज़ल की बहर का पता नहीं चलता है आने वाले शे'रों को देखने पर ही पता चलता है कि शाइर ने क्‍या बहर ली है आगे हमें ये देखना पड़ेगा कि जो गुरू यहां पर है उसके जगह पर आगे अगर उसी स्‍थान पर लघु आ रहा है तो साफ है शाइर ने उसे गिराया हुआ है। जैसे अगर अभिनव अगर देख लेते कि दूसरा रुक्‍न जो उन्‍होंने निकाला है 2212 मुस्‍तफएलुन वो दूसरे मिसरे में सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए में पकड़ आ रहा है जहां लिखा है न दा र दु मतलब 1211 मुफाएलु  और यही सही वज्‍़न है । पढ़ते समय यदि आप ध्‍यान दें तो अपना माल जो  में ना और जो  पर मिसरा उला में वज़न नहीं दिया जा रहा हे अत: वो दोनों ही लघु हैं ।

मगर एक बात तो अच्‍छी है और वो ये कि अभिनव ने प्रयास बहुत अच्‍छा किया और लगभग लगभग मुकाम पर पहुच ही गए थे । जब मैं सिखाड़ी था तब मैंने ( कान पकड़ते हुए ) शहरयार साहब की एक ग़ज़ल में दोष निकाल कर अपने गुरू को दिखाया तो उन्‍होने कहा देखों ये बात सही है कि तुम अपने ढंग से मात्रा गिन रहे हो पर ध्‍यान रखो कि शहरयार जैसे शाइर को क्‍या वो दोष नहीं दिखा होगा जो तुमको दखि रहा है । तब उनहोंने कहा था कि पूरी ग़ज़ल पढ़ कर बहर का पता लगता है । जैसे ग़ालिब की गज़ल है दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्‍या है, आखिर इस दर्द की दवा क्‍या है  अगर इसको तख्‍ती करेंगें तो हैरान हो जाऐंगें कि क्‍या गा़लिब जी भी । मगर वास्‍तव में तो ये एक खूबसूरती से निभाई गई ग़ज़ल है जिसकी मात्रा गिनने में दिमाग के टांके टूट जाते हैं । और जब पता लगता हे कि गा़लिब साहब ने किस खूबसूरती से निर्वाह किया है तो एक ही बात निकलती हे वाह वाह। हां ये बात भी है कि कई बड़े नाम वालों को ही बहर का ज्ञान नहीं है और ऐसे में उनकी ग़ज़लों में दोष पकड़ा सकते हैं । मगर गा़लिब या हस्‍ती या शहरयार साहब जैसे लोग तो बहरों की चलती फिरती पाठशाला थे  या हैं ।

अब इस पर काम करें बस्‍ती के कत्‍ले आम पे निकली न आह थी

लालालला ललालल लालालला लला

2212     1211    2212   12

बस्‍ 2 ती 21 कत्‍ 2

मुस्‍तफएलुन

121  प 1

मुफाएलु

निक 2 ली 212

मुस्‍तफएलुन

1 थी 2

फलुन

खुद को लगी जो चोट तो दरिया बहा गए

खुद 2 को 21 गी 2

मुस्‍तफएलुन

1 चो 211

मुफाएलु

दरि 2 या 21 हा 2

मुस्‍तफएलुन

गए

फलुन  

वैसे अभिनव ने कुछ काम अच्‍छा किया है जैसे  एक ग़ज़ल की बहर निकालना

बशीर बद्रः (लालालला लालालला लालालला लालालला)
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं
देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमा री आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

कुछ अपना लिखना

ये दुनिया नीर की बदली है तो नीरज गुरूजी हैं,
हमें सिखला रहे लेखन सुलभ धीरज गुरूजी हैं,
नवोदित मंच का सम्मान खुद इससे बढ़ा होगा,
बहुत शुभकामनाएँ आपको पंकज गुरूजी हैं,

इन शेरों की तख्तीः
बहरः
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
ललालाला ललालाला ललालाला ललालाला
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
------
ये दुनिया नी - र की बदली - है तो नीरज - गुरूजी हैं,
हमें सिखला - रहे लेखन - सुलभ धीरज - गुरूजी हैं,
नवोदित मं - च का सम्मा - न खुद इससे - बढ़ा होगा,
बहुत शुभका- मनाएँ आ - पको पंकज - गुरूजी हैं,

बस यही बात है जो आखिर में बहर की नब्‍ज पकड़वा देगी ।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

मैं आपके लेख से बिल्‍कुल असहमत हूं संजय कुमार जी और मैं विकास का समर्थन करता हूं और पूरे मन से करता हूं

संजय कुमार जी ने जब वीसाफ्ट पर लिखा कि भाषा को उगालदान मत बनाइये तो मैं कुछ उलझन में था और सोच रहा था कि संभवत: आइआइटी के छात्र अंग्रेज मिश्रित हिंदी लिख रहे होंगें तभी संजय जी ने इतनी कठोर टिप्‍पणी की है । मगर मैं जब वहां http://iitbkivaani.wordpress.com/ गया तो मुझे वहां कुछ कविताएं मिलीं जो प्रारंभिक दौर की कविताएं कहीं जा सकती हैं । पर हिंदी को लेकर कुछ भी विवादास्‍पद नहीं मिला किसी प्रथम वर्ष के छात्र ने कविता लिखी है

अमराई की छाँव सी
सपनों के गाँव सा ,
जैसे हो सीप में मोती
समंदर में नाव सा ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
खुशबु हो जिसमें फैली
सोंधी सी माटी की
छाँव हो जिसपर पसरी
अरहर की टाटी सी ,
ऐसे उपवन के जैसा
गीत गाना चाहता हूँ ,
निर्झर के नाद सा
वन के संवाद सा
खामोशी जिसमें गूंजे
ऐसे आह्लाद का
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
नदिया के तट पर खड़े
बूढ़े से पेड़ का
बच्चो की सी सरलता
हँसते अधेर का ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
वो मीठी धुप देखो
पत्तों से छानकर
ज्यों रेशमी ताना बाना
बुनता है कोई बुनकर ,
ऐसा ही बुना हुआ
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ .
– हर्षवर्धन
प्रथम वर्ष
छात्रावास-२
मैं पूरे पूरे मन से हर्ष को दुआ देता हूं कि ईश्‍वर तुमको बहुत आगे ले जाए क्‍योंकि तुम्‍हारी उम्र में मैं तो ये भी नहीं लिख पाता था । तुमने अरहर की टाटी, जैसे प्रतीक इस्‍तेमाल कर दिल खुश कर दिया है मेरा ।
कविता तो आलोक की भी अच्‍छी है

नही मैं सरगम संध्या की
ना ही िनशा का साया हूँ ,
मैं एक सवेरा इस युग का
धरती की धुन्धिल काया पर
किरणे मधुर फैलाता हूँ ;
नहीं पिटारी जादू की
ना ही कोई माया हूँ ,
मैं एक सपेरा इस युग का
सर्पों का भी मन बहलाने
चंचल बीन बजाता हूँ ;
नहीं मैं कोई कल्पना कोरी
ना ही किसी का छाया हूँ ,
मैं एक चितेरा इस युग का
पकड़ तुलिका इन हाथों में
रंगों को बिखराता हूँ ;
नहीं फरिस्ता इस दुनिया का
ना ही कुछ कहने आया हूँ ,
मैं एक लुटेरा इस युग का
लूट तुम्हारे भावों को
कविता नया बनाता हूँ ।
– आलोक कुमार
मुझे तो इसमें उगालदाल जैसी कोई बात नहीं लगती है । मैं एक बात कहना चाहता हूं कि नए पत्‍ते जब निकलते हैं तो ज्‍यादा देखभाल मांगते है । मगर ये वो हैं जिनको हमारे झरने के बाद हमारी जगह लेना है ।
जैसे इस कविता को ही देखें

सागर की अपनी विशिष्टता है
वह अनंत है, अगाध है, अथाह है
जिसमें होता असीम उर्जा का अविरत प्रवाह है .
लेकिन मैं उस नन्ही छोटी लहर को
जीवन के अधिक समीप पाता हूँ ,
वह नन्ही लहर ,जो दूर किसी छोर से जन्म पाती है
और उसी पल से नन्हें संघर्ष की कथा शुरू हो जाती है
संघर्ष यही है ‘अस्तित्व का संघर्ष ‘
सागर की प्रचंड शक्तियाँ जैसे उसके दमन को प्रतिबद्ध है.
किन्तु उस नन्ही की शांत प्रतिबद्धता न होती शब्दबद्ध है .
वह निःशक्त, जीवन की उस दौड़ मैं सबसे पीछे ,
फिर भी भारी हुई , उत्साह से, उमंग से ,
वह पहुँचेगी देर ही सही, किनारे तक .
इसी श्रम से वह बढती गयी ,
कभी ओझल हुई, कभी प्रकट हुई ,
आह! वह नन्ही लहर ,
किन क्रूर हाथों ने लिखा था उसका भाग्य
किन्तु प्रचंडता का वह दौड़ पार कर अंततः
उसने किनारे का पहला सुखद स्पर्श पाया
सब चिंताओं को पीछे छोड़ सफ़ेद फेन के साथ
मेरे पैरों को धोया
और बालू के कणों को मेरे शरीर पर संचित कर
स्नेह का एक नया संबंध भी जोडा ,
निश्चिंत, निष्क्रिय;
मुझसे जीवन का मूक संवाद कर रही थी
विश्राम के उन पहले क्षणों में वह
किन्तु विधि के विधान में विश्राम शब्द अपरिभाषित है .
और क्रूर लहरों की एक श्रंखला ने अपने घोष से
भयावह कम्पन्न किया
और अंत के उन क्षणों में उसने फिर संघर्ष करने का
आश्वासन दिया ,
और अंत के उन कठिन क्षणों में
जल्द मिलने का स्वर किया ,
और बालू के उस ऋण से मुक्त होने के लिए मैं
आज भी इन्तजार कर रहा हूँ.
नीरज शारदा
प्रथम वर्ष
छात्रावास-३
इसमें भी बात वही है कि टटकापन है क्‍योंकि अभी विचारों में भारीपन नहीं है पर चितेरापन तो है ना हमको शून्‍य होने से बचाएंगीं ये आवाजें । जान लें कि उर्दू के साथ भी यही हुआ इतनी क्लिष्‍ट और पंरपरावादी हो गई कि आज आम आदमी ही उससे कट गया और शाइर भी हिंदी में लिखने लगे ।
संजय जी आपने ये आईआईटी वाले भी कविता करने के लिए हिन्दी को चुनते हैं इससे भाषा की कोई सेवा नहीं हो रही है। इससे तो अच्छा यह है कि वे भूल ही जाएं कि हिन्दी भी कोई भाषा होती है. वे अपना साहित्य भी अंग्रेजी में ही लिखें. जिस भाषा में वे लिख-पढ़ रहे हैं उसी भाषा में साहित्य भी लिखें तो वे ज्यादा अच्छे तरीके से अंग्रेजी की सेवा कर सकेंगे. ऐसी हिन्दी सेवा से तो हिन्दी को छोड़ देना हिन्दी पर ज्यादा उपकार होगा.
क्‍यों लिखा मैं नहीं जानता ऐसी हिंदी से आपका क्‍या तात्‍पर्य है । क्‍या आपने ब्‍लागों की हिंदी नहीं देखी ये तो उससे लाख गुना अच्‍छी है ।
आपने ये जो लिखा है क्यों नहीं आईआईटी वाले यह अभियान चलाते कि हम अपनी पढ़ाई लिखाई सब कुछ हिन्दी में करेंगे। ये भी मेरी समझ से परे है जो संभव नहीं है वो कैसे होगा । मैं कठोर बातें केवल इसलिये लिख रहा हूं कि मैं नहीं चाहता कि इन बच्‍चों का उत्‍साह कम हो कविता में जिस तरह की हिंदी ये लिख रहे हैं वह उत्‍तम है कहीं से कम नहीं है । और फिर आप ये क्‍यों भूल जाते हैं कि साहित्‍य ही किसी को भाषा से जोड़ता है । क्षमा करें अगर कुछ बुरा लगा हो और आइआइटी के छात्रों मैं आपको एक बड़ा भाई होने के नाते आशिर्वाद देता हूं और यही कहता हूं कि आप ने जो प्रयास किया है वह मुझे छू गया है ।
आपकी उम्र में मैंने जो कविता लिखी थी वो क्‍या थी जानते हैं
एक पेड़ बेचारा पेड़
बारिश में भीगता पेड़
गर्मी में सूखता पेड़

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2007

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं, अभी मस्जि़द के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं , ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डाला

ये सच है नफ़रतों की आग़ ने सब कुछ जला डाला
मगर उम्‍मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं
राना साहब ने ग़ज़ल को लेकर एक सबसे अच्‍छा काम किया है और वो ये है कि उन्‍होंने ग़ज़ल को आम आदमी के समझ में आ जान वाली शै: बना दिया है । और वास्‍तव में आज जो गज़ल़ की लोकप्रियता है वो इसी के चलते है । अन्‍यथा तो हम जानते हैं कि साहित्‍य का क्‍या हाल है इन दिनों ।
ख़ैर कुछ ग़ज़लें कहीं पढ़ते हुए अच्‍छी मिल जाती हैं तो आपके साथ बांट लेता हूं । कभी कभी गुस्‍सा भी आता है जब छात्र अनपस्थित होते हैं तो ।
चलिये अब कुछ आगे चला जाए हम बहर की बात शुरू कर रहे हैं और एक क्‍लास उस पर हो भी चुकी है । ये माना जाए कि अभी हम मात्रा का संतुलन ही साधना सीख रहे हैं । और ये जानना चाह रहे हैं कि किस प्रकार से मात्रा गिनी जती है । ग़ज़ल का सबसे मुश्किल काम ये ही है कि आप मात्रा की गणना ठीक प्रकार से कर पाएं ।
शेर के टुकड़ों को वज़न की तराज़ू पर तौलने को तकतीई कहा जाता है ये मैं पहले भी बता चुका हूं । आइये अब इसी बारे में तफ़सील से बात की जाए । दरअसल में तकतीई करना ही वो गुण है जो किसी की म़ुकम्‍मल शाइर बनता है और तकतीई करना मतलब रोज़ और अभ्‍यास के साथ करना ये ही आपको पूर्ण बनाता है । जो इस घोड़े को काबू कर लेता है ग़ज़ल का संसार उसकी मुट्ठी में होता है । तो देखा जाए तो शे'र के टुकड़ों को बहर की तराज़ू पर तौलने की प्रक्रिया ही तकतीई है । हालंकि पहले की कक्षाओं में हम तकतीई करना काफी देख चुके हैं मकर फिर भी उदाहरण के लिये हम एक बार और देखें और वो इसलिये क‍ि अब आप ख़ुद भी ये करना सीखें कम अ स कम अपने रुक्‍न तो निकालना सीख ही लें ।
अब जैसे आप से कहा जाए कि ऊपर के राना जी के शे'र की तकतीई करो तो आपको सबसे पहले तो उसके कम से कम दो शे'र चाहिये वो इसलिये कि कभी कभी केवल एक ही शे'र से बहर का ठीक अनुमान नहीं लगता है । अगर आप बिल्‍कुल ठीक बहर निकालना चाहते हैं तो तकतीई के लिये कम अ स कम दो शे'र लें । ऐसा इसलिये कि यहां पर लघु का दीर्घ और दीर्घ का लघु होता रहता है अब आप को कभी कभी धोखा हो सकता है इसलिये दो शे'र की तकतीई करके शंका को दूर कर लें ।
गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
इसकी तकतीई करें
गले मिलने क आपस में दुआयें रो ज़ आती हैं
मतलब बात साफ है कि पूरे शे'र में एक ही तरह रुक्‍न हैं शे'र में एक ही रुक्‍न मुफाईलुन या 1222 आ रहा है । तकतीई करते समय हम गिरे हुए दीर्घ को लघु उच्‍चारण ही लिखते हैं जैसे ऊपर क आपस में लिखते समय को को लिखा गया है ।
आगे देखें
अभी मस्जि़द क दर वाज़े प मायें रो ज़ आती हैं
1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
मु फा ई लुन मु फा ई लुन मु फा ई लुन मु फा ई लुन
अब यहां पर क्‍या हुआ है कि मस और जि़द दोनों को तोड़ कर अलग कर दिया गया है । पे मायें को प मायें लिखा है क्‍योंकि वज्‍़न वही कह रहा है ।
आप इस को लेकर मश्‍क करें अभ्‍यास करें क्‍योंकि मैं चाहता हूं कि आप कौ भी ये कला आए ताकि आप भी बड़े नाम वाले शाइरों को कह सकें कि जनाब ये आपका शे'र तो मीटर से बाहर जा रहा है । और इसके लिये तकतीई करना सबसे अच्‍छा काम है करते रहो जो शेर मिले उसे कस डालो तख्‍ती पर और करडालो उसका पोस्‍टमार्टम डरो नहीं । क्‍योंकि जो डर गया वो ...........। मैंने भी यही किया जो शे'र हाथ में आता उसको कस देता और निकाल लेता उसका वज्‍़न ।कभी ग़लत होता कभी सही और फिर धीरे धीरे ठीक होता गया । आप को आज ये अतिरिक्‍त कक्षा कल की तैयारी के लिये दे रहा हूं ।
एक ख़ुश्‍ख़बरी है दो अक्‍टूबर को शहर की संस्‍था नवोदित कला मंच ने मास्‍साब को साहित्‍य विद् सम्‍मान प्रदान किया है । सभी छात्रों को इस अवसर पर नुक्‍ती बांटी जा रही है जाते समय भैन जी से लेते हुए जाएं । और उड़नतश्‍तरी का ध्‍यान रखें पन्‍द्रह अगस्‍त पर जब नुक्‍ती बांटी जा रही थी तो दूसरी बार फ्राक पहन कर आकर ले गया था ।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2007

फिर सूना हुआ मंज़र मेरा वो मेरा सनम दिलबर मेरा, दिल तोड़ गया मुझे छोड़ गया, वो पिछले महीने की छब्बिस को

सुना है ऐसे में पहले भी बुझ गए हैं चरा्ग़ दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात
ग़ज़ल को लेकर कई बातें की जातीं हैं एक सबसे दुर्भाग्‍यपूर्ण बात जो मुझे सबसे ज्‍यादा सुनने मिलती है वो ये है कि ग़ज़ल तो मुसलमानों की चीज़ है । बताइये साहित्‍य भी किसी एक क़ौम या ज़ात को हो सकता है वो तो समूची मानवता के लिये होता है । जब मेरे दोस्‍त मुझसे कहते हैं कि तुम कहां ये गज़ल के चक्‍क्‍र में पड़ गए तो दुख होता है मुझे । खैर चलिये आज एक महत्‍वपूर्ण अध्‍याय प्रारंभ करना है और वो है मात्राओं का । गज़ल में अगर मात्रा निकालना आ गया तो फि़र समझो काफी काम हो गया है ।
मैंने पहले भी कहा है कि ग़ज़ल में मात्राओं से मिलकर बनते हैं रुक्‍न रुक्‍न से मिलकर बनते हैं मिसरे मिसरों से मिलकर बनता है शे'र और शे'रों से मिलकर बनती है हमारी नाज़ुक सी ग़ज़ल । तो मिल मिलाकर खेल अक्षरों और शब्‍दों का ही है । ध्‍यान दें मात्रा, मात्रा से रुक्‍न, रुक्‍न से मिसरे, मिसरों से शे'र और शे'रों से ग़ज़ल । अब इसमें अगर पूर्णता लानी है तो समझ लें कि आपको उस जगह पर शुद्धत लानी होगी जहां से ग़ज़ल की शुरुअत होती है । अर्थात मात्राओं से । मात्रा लघु या दीर्घ जो भी हो उसको उसी क्रम में आना है ।
उर्दू में काव्‍य के व्‍याकरण को अरूज़ कहा जाता है जिस तरह से हिंदी में पिंगल शास्‍त्र है । हालंकि हिंदी के कई सारे छंदों को उर्दू में भी अलग नाम से इस्‍तेमाल किया जाता है । जैसे बहरे रमल और हिंदी के हरिगीतिका छंद में काफी साम्‍य मिलता है । हिंदी का पिंगल जो कि वास्‍तव में संस्‍कृत का पिंगल है वो दुनिया का सबसे पुराना काव्‍य व्‍याकरण माना जाता है । किंतु उसमें मात्राओं की गणना आदि की इतनी अधिक दुश्‍वारियां हैं कि उसके कारण काफी कठिन होता है छंद लिखना । अरबी व्‍याकरण जो अरूज़ के नाम से उर्दू में ग़ज़ल के लिये लिया गया वो वास्‍तव में यूनानी अरूज़ से काफी प्रभावित है । क्‍योंकि ख़लील बिन अहमद जिन्‍होंने अरबी अरूज़ को जन्‍म दिया लगभग आठवीं सदी में वे यूनानी ज़ुबानके जानकार थे ।
इसी उर्दू पिंगल को अरूज़ कहा जाता है और इसके जानने वाले को अरूज़ी कहा जाता है । हालंकि उर्दू ग़ज़ल में बारे में मैं पहले भी कह चुका हूं कि ये तो वास्‍तव में घ्‍वनियों को ही खेल है । इसलिये कई लोग जिनको अरूज़ के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं है वे केवल रिदम या लय पर ही ग़ज़ल लिख लेते हैं और अक्‍सर पूरी तरह से बहर में ही लिख्‍ते हैं । ऐसा इसलिये क्‍योंकि ग़ज़ल में तो ध्‍वनियां ही हैं । अगर आप ताल पकड़ पाओ तो सब हो जाएगा । फिर भी बहर का ज्ञान होना इसलिये ज़रूरी है कि कई बार छोटी छोटी मात्राएं रिदम में आ जाती हैं मगर वास्‍तव में वैसा होता नहीं है । कई बार हम गा कर पढ़ देते हैं और आलाप में मात्राएं पी जाते हैं । इससे भी दोष ढंक जाता है पर रहता तो है ।
रिदम पर लिखने के साथ उसको तोलना भी ज़रूरी है और ये तोल ही वज्‍़न कहलाती है । शे'र को बहर की तराज़ू में तौलना यानि कि उसका वज्‍़न करना है इसीको तक़तीई करना भी कहते हैं इसको आप सीधी भाषा में तख्‍ती करना भी कह सकते हैं । मतलब अपने शे'रों को बहर के तराज़ू पर एक एक कर के कसना और फिर उनमें दोष निकालना । ध्‍यान दें दोष दो प्रकार का होता है एक तो व्‍याकरण को दोष और दूसरा विचारों का दोष । व्‍याकरण का दोष तो अरूज के ज्ञान से चला जाता हे पर विचारों के लिये तो वही बात है करत करत अभ्‍यास .....।
फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन
धुँआ ही धुँआ है भरा अंजुमन में,
लगी आग कैसी हमारे चमन में,
सबूतों के ज़रिए पता लग रहा है,
वहाँ कौन शामिल था लंका दहन में,
दिलों में गुलों में नदी के पुलों में,
नहीं चैन से है कोई अब वतन में,
भला कैसे पूरा करें काम 'मुन्ना',
नहीं आ रहा है कोई भाव मन में,
अभिनव ने होमवर्क अच्‍छा किया है केवल दूसरे शे'र के मिसरा उला में दूसरे रुक्‍न में समस्‍या है । उसको देख कर ठीक करें ।
अभी हम काफिया की बात कर रहे थे पिछले दिनों । कल जावेद अख्‍तर का एक गीत सुन रहा था और जैसे ही काफिया सुना उछल पड़ा, बस ये उछल पड़ना ही तो शायर की सफलता है । श्रोता आपके साथ जब गज़ल में बहता है तो वो एक ही बात की प्रतिक्षा करता है कि देख्‍ों कैसे निभाया जा रह है काफिया और जैसे ही कोई अद्भुत काफियाबंदी मिलती है वो उछल पड़ता हे जैसे में उछल पड़ा ।मैं वाह वाह कर रहा था और कार में बैठे मेरे स्‍टूडेंट्स सोच रहे थे कि सर को इस गाने में ऐसा क्‍या खास मिल गया । चलिये आप भी सुनें कि क्‍या खास था दरअस्‍ल में ये आम सा खास था
दिल में मेरे है दर्दे डिस्‍को दर्दे डिस्‍को दर्दे डिस्‍को
वो हसीना वो नीलम परी
कर गई कैसी जादूगरी
नींद इन आंखों से छीन ली है
दिल में बैचैनियां हैं भरीं
मैं बेचारा हूं आवारा बोलो
समझाऊं मैं ये अब किस किसको
ये तो मुखड़ा था अब मैं हैरान हो गया कि डिस्‍को के साथ जावेद साहब क्‍या काफिया लगाते है ।
अंतरा आया
लम्‍हा लम्‍हा अरमानों की फरमाइश थी
लम्‍हा लम्‍हा ज़ुर्रत की आज़माइश थी ( वाह वाह)
अब्रे क़रम घिर घिर के मुझपे बरसा था
अब्रे क़रम बरसा तो तब मैं तरसा था
फिर सूना हुआ मंज़र मेरा
वो मेरा सनम दिलबर मेरा
दिल तोड़ गया, मुझे छोड़ गया
वो पिछले महीने की छब्बिस को
दिल में मेरे है दर्दे डिस्‍को दर्दे डिस्‍को दर्दे डिस्‍को
जावेद साहब ने जैसे ही घुमाव के साथ लिखा पिछले महीने की छब्बिस को तो अहा हा आनंद आ गया ये आनंद ही तो है जो हम तलाश करते हैं कविता में ।
खैर अनूप जी ने उड़न तशतरी को उठाने की जगह किसी भरे हुए ट्रक को उठाना ज्‍यादा आसान कहा है । उस पर उड़न तश्‍तरी को नया वाला चश्‍मिश फोटो डाकू जब्‍बर सिंह छाप क्‍या बात है ।

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