शनिवार, 14 नवंबर 2015

एक होती है बासी दीपावली जो कि दीपावली होने के बाद भी मनाई जाती है, हमारे ब्‍लॉग पर भी यह परंपरा रही है कि हम सारे त्‍यौहारों का बासी संस्‍करण भी मनाते हैं । तो आइये आज लावण्‍या शाह जी और तिलक राज कपूर जी के साथ मनाते हैं बासी दीपावली।

इस दीपावली पर बाज़ार में रौनक कुछ कम दिखाई दी। कारण यह कि हमारे यहां सब कुछ कृषि आधारित होता है और पिछली फसल इस प्रकार से चौपट हुई है कि किसान के पास कुछ भी हाथ में नहीं है। उसी का असर बाजारों में भी देखने को मिला है। दीपावली के एक दिन पहले जो गहमा गहमी बाजार में देखने को मिलती थी वह इस बार नहीं थी। मगर फिर भी परंपरा है तो त्‍यौहार तो मनाया ही जाता है। असल में हमने स्‍वयं ही अपने हाथों से अपने त्‍यौहारों को, अपने पर्वों को,अपने घर में होने वाले कार्यक्रमों शादी विवाह के आयोजनों को इतना खर्चीला कर दिया है कि अब उसका निर्वाह करना मुश्किल होता जा रहा है। फिर पंरपरा के पालन के नाम पर हम करते हैं और उस चक्‍कर में कई बार क़र्जे में डूब जाते हैं। इस समस्‍या का कोई न कोई हल निकालना ही होगा। कु छ ऐसा कि त्‍यौहारों के आगमन की सूचना मन में दहशत पैदा नहीं करे कि अरे खर्च आ गया सिर पर।

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आइये आज तरही के क्रम को कुछ और आगे बढ़ाते हैं। आज हम बासी दीपावली का आयोजन कर रहे हैं दो गुणी रचनाकारों के साथ। तिलक जी के बारे में तो मैंने पूर्व में ही घोषणा की थी कि वह सारे मिसरों पर ग़ज़ल लेकर आएंगे और वैसा ही हुआ है। लावण्‍या जी ने दो सुंदर से मुक्‍तक भेजे हैं। तो आइये इन दोनों गुणी रचनाकारों के रचनाओं का आनंद लेते हैं।

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लावण्या दीपक शाह जी

deepawali (16) 
बाग़ों में गुल खिलेंगे, इक बार मुस्कुरा दो
झरने से बह उठेंगे, इक बार मुस्कुरा दो
हो चांद चौदहवीं का, पूनम की रात हो तुम 
अँधियारे सब छँटेंगे, इक बार मुस्कुरा दो

चांदी की हों ये रातें,  इक बार मुस्कुरा दो 
हों रौशनी की बातें, इक बार मुस्कुरा दो
कलियां हैं अधखिली सी, खिल जाएंगी वो पल में  
खुश्‍बू की हों बरातें,  इक बार मुस्कुरा दो

वाह वाह वाह क्‍या सुंदर मुक्‍तक रचे हैं। अपने प्रिय के एक बार मुस्‍कुराने को लेकर कितने सारे बिम्‍ब रच दिये हैं। सचमुच हम जिसे प्रेम करते हैं, उसकी एक मुस्‍कुराहट हमारे लिये कितने मायने रखती है यह शब्‍दों में नहीं व्‍यक्‍त किया जा सकता । हमारे लिये फूलों का खिलना, झरनों का बहना, रौशनी सब कुछ उसकी मुस्‍कुराहट में ही निहित होता है। मुस्‍कुराहट बहुत कुछ कह जाती है बहुत कुछ कर जाती है । बहुत  ही सुंदर मुक्‍तक। वाह वाह वाह।

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TILAK RAJ KAPORR JI

श्री तिलक राज कपूर

deepawali (16)

माना है रात गहरी, इक बार मुस्करा दो
लौट आयेगी खुशी भी, इक बार मुस्करा दो

दीपक न तेल बाती, मन जायेगी दिवाली
धनिया से बोले होरी, इक बार मुस्करा दो।

हर सू सियाह मन्ज़र, भाई के हाथ खन्ज़र
वातावरण है भारी, इक बार मुस्करा दो।

बोझिल बहुत है माना, तन्हा समय बिताना
इक याद आ बसेगी, इक बार मुस्करा दो।

इस लोकतंत्र में है इक झूठ सच पे भारी
राहत जरा मिलेगी, इक बार मुस्करा दो।

माँ लक्ष्मी कृपा का वरदान आज दे दो
दर पर है इक सवाली, इक बार मुस्करा दो।

अंधियार रात का ये, सूरज सा खिल उठेगा
मावस चमक उठेगी, इक बार मुस्करा दो।

वाह वाह वाह । क्‍या बात है। धनिया और होरी का दर्द किस प्रकार से गूँथा है शेर में । कमाल । एक और प्रयोग तिलक जी ने किया है जो इस प्रकार की बहरों में खूब किया जाता है। वह ये कि मिसरा उला में आधा मिसरा भी अपने से अगले आधे मिसरे के साथ काफियाबंदी करे, तुक मिलाए। जैसे मन्‍ज़र और खन्‍ज़र, माना और बिताना के प्रयोग मिलक जी ने किये हैं। यह चूँकि गाई जाने वाली बहर है इसलिए इस प्रकार के प्रयोग बहुत प्रभाव छोड़ते हैं तरन्‍नुम में ग़ज़ल पढ़ते समय।

deepawali (16)

मुड़ कर न कल तलाशो, इक बार मुस्करा दो
बीता हुआ भुला दो, इक बार मुस्करा दो।

सीने में जल रहा है, इक आस-दीप कब से
तुम साथ तो निबाहो, इक बार मुस्करा दो।

ये शह्र अजनबी है, मिलता है दोस्त बनकर
कुछ दोस्ती बढ़ाओ, इक बार मुस्करा दो।

रोने से दम परों का, कमज़ोर हो रहा है
छूना है आस्मां तो, इक बार मुस्करा दो।

निर्भय से निर्भया का, इक युद्ध चल रहा है
तुम मुस्करा सको तो, इक बार मुस्करा दो।

कैसा समय का फेरा, तम छा रहा घनेरा,
मिल कर ये तम हरा लो, इक बार मुस्करा दो।

अंधियार से लड़ाई लड़ते थके हैं दीपक
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्करा दो।

रोने से दम परों का कमज़ोर हो रहा है, वाह मिसरे को किस अलग प्रकार से बांधा है। मुस्‍कुराने की ताकत का एहसास कराता हुआ शेर। और निर्भय से निर्भया का युद्ध भी बहुत कमाल है। ये शह्र अजनबी है मिलता है दोस्‍त बनकर में दोस्‍ती बढ़ाने के लिये मुस्‍कुराने की बात जो कही है वह बहुत सुंदर बन पड़ी है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। कमाल कमाल।

deepawali (16)

तम के हटा के परदे, इक बार मुस्करा दो
दिन याद कर सुहाने, इक बार मुस्करा दो।

खेतों में सख़्त मिट्टी दरकी हुई है फिर भी
कहते हैं आप मुझसे इक बार मुस्करा दो।

बिखरा था नीड़ सारा, तुम ने इसे सॅंवारा,
भरने को चाँदनी से, इक बार मुस्करा दो।

दिन की थकान लेकर, जब आईने को देखा
दिल ने मुझे कहा ये, इक बार मुस्करा दो।

पूरी हुई प्रतीक्षा, अब मान लो मुनव्वल
देखो न कनखियों से, इक बार मुस्करा दो।

जीवन की हर घड़ी में, कोई खुशी तलाशो
दिल में वही बसा के, इक बार मुस्करा दो।

मावस का दीप उत्सव, बेताब हो रहा है
तारीकियां मिटाने, इक बार मुस्करा दो।

पूरी हुई प्रतीक्षा अब मान लो मुनव्‍वल में मान और उसके बाद मुनव्‍वल कमाल की कारीगरी से बांधे हैं। वाह । और उसके बाद का मिसरा तो जानलेवा ही है। जीवन की हर घड़ी में कोई खुशी तलाशो दिल में वही बसा के इक बार मुस्‍कुरा दो। वाह क्‍या सकारात्‍मक सोच है। यही सोच यदि हम सब के मन में बस जाए तो जीवन में इतनी कठिनाई ही न हो। वाह वाह ।

deepawali (16)

किसने तुम्हें कहा था, इक बार मुस्करा दो
हर कोई अब कहेगा, इक बार मुस्करा दो।

घूँघट उठा के उसने, देखा जो मुस्करा के
दिल बार-बार बोला, इक बार मुस्करा दो।

पल भर है चांद ठहरा, बदली में जा छुपेगा
फिर कुछ नहीं दिखेगा, इक बार मुस्करा दो।

मौसम बदल रहा है, ठिठुरा करेंगी रातें
चंदा कहे शरद् का, इक बार मुस्करा दो।

मावस में चांदनी का दिखना नहीं है मुमकिन
लेकिन हमें दिखेगा, इक बार मुस्करा दो।

तुमको उदास पाकर, दीपक उदास सारे
हर दीप जल उठेगा, इक बार मुस्करा दो।

मावस की रात काली, हो जाएगी दिवाली
मिट जायेगा अंधेरा, इक बार मुस्करा दो।

अय हय, क्‍या मतला है, सुभान अल्‍लाह । किसने तुम्‍हें कहा था के बाद हर कोई अब कहेगा। क्‍या शिकायत है । क्‍या नफ़ासत के साथ शिकायत हो रही है। यही तो ग़ज़ल है । और उसके ठीक बाद का ही शेर घूँघट का उठना और दिल का बार बार कहना । वाह क्‍या बात है। तुमको उदास पाकर दीपक उदास सारे में प्रिय की उदासी से दीपों की उदासी को कमाल का जोड़ा है।

तिलक जी की ग़ज़लों में एक महत्‍त्‍वपूर्ण बात जो है वह यह है कि किसी भी ग़ज़ल में इता दोष उन्‍होंने नहीं बनने दिया है। क्‍योंकि जब मात्राओं पर काफिये होते हैं तो इता दोष बनना बहुत कॉमन होता है। उसके लिये आवश्‍यक होता है कि आप मतले के दोनों मिसरों में जो क‍ाफिये ले रहे हों उनमें से कोई एक काफिया, मात्रा हटाने के बाद निरर्थक हो जाए, कोई मुकम्‍मल शब्‍द न हो। पहली ग़ज़ल में उन्‍होंने 'गहरी' और 'भी' को लिया। दोनों ही 'ई' की मात्रा हटाने के बाद निरर्थक हो रहे हैं 'गहर' और 'भ' । दूसरी ग़ज़ल में 'तलाशो' तथा 'दो' को लिया। तलाशो में से 'ओ' की मात्रा हटाने पर 'तलाश' बचता है जो एक शब्‍द है लेकिन 'दो' में से 'ओ' हटाने पर 'द' बचता है जो कोई शब्‍द नहीं है। तीसरी ग़ज़ल में 'परदे' और 'सुहाने' दोनों में से 'ए' की मात्रा हटाने पर 'परद' और 'सुहान' जैसे निरर्थक शब्‍द बचते हैं। और चौथी ग़ज़ल में मतले में लिये गए 'था' और 'कहेगा' में से 'आ' की मात्रा हटाने पर 'थ' और 'कहेग' बचते हैं, जो कोई शब्‍द नहीं है। यह सावधानी बहुत अच्‍छी बरती है तिलक जी ने। बस एक उदाहरण के साथ बात समाप्‍त कि यदि आपने मतले के मिसरा उला में 'खुशी' और मिसरा सानी में 'बैठी' को काफिये के शब्‍द बनाया है तो ई की मात्रा हटाने पर खुश और बैठ जैसे मुकम्‍मल शब्‍द बचेंगे जिनमें 'श' और 'ठ' के कारण तुकांत नहीं हो रही है। इसलिए इता बन जाएगा।

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चलिए तो आनंद लीजिए लावण्‍या जी के मुक्‍तकों का और तिलक जी की ग़ज़लों का । और देते रहिए दाद। दीपावली की एक बार फिर से शुभ कामनाऍ। 

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बुधवार, 11 नवंबर 2015

शुभ दीपावली शुभ दीपावली सबको दीपावली की मंगल कामनाऍ । आज दीवावली का त्‍यौहार मनाइये श्री गिरीश पंकज और श्री पी. सी. गोदियाल 'परचेत' के साथ।

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समय का पहिया हर पल चलता रहता है । और उस चलने के क्रम में बीते जाते हैं क्षण, दिन सदियां। हम पुराने होते जाते हैं एक बार फिर से नया होने के लिए। कई दीपावलियां आती हैं और जाती हैं। हम हर बार उसी उत्‍साह के साथ त्‍यौहारों को मनाते हैं। और फिर कुछ दिनों तक उदास रहते हैं। पर्व बीत जाने के बाद एक प्रकार का सन्‍नाटा बस जाता है मन में । खैर यह तो बाद की बातें हैं। आज तो हमको त्‍यौहार मनाना है। आज तो दीपावली है। आज की रात अंधकार और दीपक के समर की रात है। और इस प्रतीक की रात है कि अंधकार कितना ही घना हो उसे प्रकाश से हारना ही पड़ता है। यही अंधकार की नियति है। तो आप सब को दीपावली की मंगल कामनाऍ आप सबके जीवन में सुख आए, शांति हो और समृद्धि हो। शुभ दीपावली ।

आइये आज दो रचनाकारों के साथ मनाते हैं दीपावली का यह त्‍यौहार । श्री गिरीश पंकज और श्री पी. सी. गोदियाल 'परचेत' के साथ। महत्‍त्‍वपूर्ण बात यह है कि श्री गिरीश पंकज ने सभी काफियों पर अपनी ग़ज़लें भेजी हैं । मतलब कई ग़ज़लें । यह दीपावली का बोनस है। आइये आनंद लेते हैं।

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पी. सी.  गोदियाल 'परचेत '

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ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुरा दो।

इन रिक्त, दीपकों को, कुछ प्रीत की सुरा दो,
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुंरा दो।

जज्बाती क्‍यों सभी के, मंसूबे लग रहे है,
मायूसियों के तम में, सब डूबे लग रहे है, 
घी त्याग का ज़रा सा, हर दीप में गिरा दो,
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुदरा दो।

बांधे कलम सभी को, कुछ प्रेम-पातियों में,
जज्बा सा है झलकता, मिटने का बातियों  में,  
बलिदानी गुण ज़रा सा, परवानो से चुरा दो,
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुरा दो।

परवानों को अमंगल, कोई खटक न पाये,
दिल दीपकों का देखो हरगिज चटक न पाये, 
इस अंधकार को अब, उजियार से हरा दो,
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुंरा दो।

इन रिक्त, दीपकों को, कुछ प्रीत की सुरा दो,
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्कुंरा दो।

बहुत ही सुंदर गीत है । त्‍याग के घी से दीपक को जलाने की बात कह कर बहुत ही अच्‍छा प्रयोग किया है। सचमुच दीपक तो एक प्रतीक ही होता है, वास्‍तव में तो हमें अपने अंदर के प्रकाश को ही जगाना होता है और यह प्रकाश त्‍याग और समर्पण के ईंधन से ही आता है।  पूरा का पूरा गीत उजाले की लड़ाई का सिपाही है। दीपक के जलने का और उसके जज्‍बे में परवाने के आकर सुर मिलाने का जो संदेश है वह गीत को बहुत अच्‍छे स्‍वर दे रहा है। अंधकार को उजियारे से हराने का भाव लिये यह गीत बहुत ही अच्‍छे तरीके से दीपावली के भावों को व्‍यक्‍त कर रहा है । बहुत ही सुंदर । वाह वाह वाह ।

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गिरीश पंकज 

deepawali (16)

हो जाएगा सवेरा, इक बार मुस्करा दो
मिट जाएगा अँधेरा , इक बार मुस्करा दो

कब तक बंधे रहेंगे हम लोग दायरे में,
तोड़ो चलो ये घेरा, इक बार मुस्करा दो

जो कुछ कमाया तुमने,  इक दिन न साथ होगा
मेरा न वो तुम्‍‍हारा, इक बार मुस्करा दो

सांसो की डोर जाने, कब टूट जाए सोचो
उजड़ेगा ये बसेरा, इक बार मुस्करा दो

जो कल ग़रीब थे अब,  दौलत से खेलते हैं
तक़दीर का है फेरा, इक बार मुस्करा दो

यूं ही न बैठो पंकज , मंज़िल है दूर थोड़ी
देखो, उसी ने टेरा, इक बार मुस्करा दो

deepawali (16)

दीपक उदास देखो, इक बार मुस्करा दो
ये जल उठेंगे तुम जो, इक बार मुस्करा दो

खुशिया जो बांटते हैं  धरती के हैं मसीहा
यह बात थोड़ी समझो, इक बार मुस्करा दो
 

बस एक बात मानो, हो जाएगा उजाला
हौले से लब ये खोलो,  इक बार मुस्करा दो

दीपों से जगमगा दो, भागेगा ख़ुद  अँधेरा
गर ये नसीब ना हो, इक बार मुस्करा दो

हँसने से आदमी का, बढ़ता है खून पंकज
अब और कुछ न सोचो, इक बार मुस्करा दो

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दिल की कली खिलेगी, इक बार मुस्करा दो
फिर ज़िंदगी हँसेगी, इक बार मुस्करा दो

जब भी दिखा अँधेरा दीपक जला दिया है
फिर से शमा जलेगी, इक बार मुस्करा दो

हिम्मत न हारना तू , माना बिगड़ गयी है
यह बात फिर बनेगी, इक बार मुस्करा दो

ठहरा है वक़्त क्योंके हम भी ठहर गए हैं
ताज़ा हवा  बहेगी, इक बार मुस्करा दो

लक्ष्मी भले हो रूठी, पर पूजना तू दिल से
आकर वही कहेगी, इक बार मुस्करा दो

पतझर से जो लड़ेगा, जीतेगा ज़िंदगी में
पावस चमक उठेगी, इक बार मुस्करा दो

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दुनिया नयी बसाने,  इक बार मुस्करा दो
बिगड़ी चलो बनाने, इक बार मुस्करा दो

रहता नहीं जहाँ में, सदियों तलक अँधेरा
तारीकियां मिटाने, इक बार मुस्करा दो

मनहूसियत अँधेरा, मुस्कान है उजाला
करना न अब बहाने, इक बार मुस्करा दो

भूलो पुरानी बातें, जो दिल दुखा रही हैं
छेड़ो नए तराने,  इक बार मुस्करा दो

हमसे अँधेरे पंकज, अब हार मानते हैं
फिर शम्मा तुम जलाने, इक बार मुस्करा दो

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उफ क्‍या ग़ज़लें कही हैं। गिरीश पंकज जी ने । एक साथ चारों मिसरों पर ग़ज़लें कह दी है। जो कुछ कमाया तुमने,  इक दिन न साथ होगा में दर्शन का बहुत ही सुंदर तरीके से उपयोग किया गया है। दुनिया और इसकी वस्‍तुओं के फानी होने को बहुत ही अच्‍छे ढंग से कहा है । वाह।  हँसने से आदमी का, बढ़ता है खून पंकज में विज्ञान का प्रयोग किया है और हँसने मुस्‍कुराने की बात को क्‍या खूब बल दिया है। हँसने से खून बढ़ता है सचमुच । पतझर से जो लड़ेगा, जीतेगा ज़िंदगी में हौसलों का शेर है जो खूब अच्‍छे से बांधा गया है। वाह वाह वाह। चौथी ग़ज़ल में मनहूसियत अँधेरा, मुस्कान है उजाला में क्‍या बात कही है वाह ऐसा लगता है मानो मिसरे के अंदर की बात को पकड़ लिया है। बहुत ही सुंदर हैं चारों ग़ज़लें । क्‍या बात क्‍या बात। वाह वाह वाह।

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आप सब को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं । दीपावली शुभ हो मंगलमय हो । आनंद करें । खूब खुश रहें। रचते रहें। और सबके साथ रहें। जय हो।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

आज रूप चतुर्दशी है रूप का दिवस। आइये आज तीन रचनाकारों श्री अश्विनी रमेश, डॉ. सजंय दानी और डॉ. सुधा ओम ढींगरा के साथ बढ़ते हैं तरही मुशायरे में ।

 

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मित्रों आज रूप की चतुर्दशी है । दीपावली वैसे तो एक दिन का त्‍यौहार है लेकिन यह पांच दिन का हो जाता है । धनतेरस से लेकर भाई दूज तक । बिहार और उत्‍तरप्रदेश के कुछ इलाकों में यह छठ पर्व तक होता है। मालवा अंचल में यह देव प्रबोधिनी एकादशी तक चलता है तो कहीं कहीं कार्तिक पूर्णिमा तक होता है। शायद इसीलिए इसको महापर्व कहा जाता है। धन तेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पडवा, भाई दूज, छठ, देव प्रबोधिनी एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा जैसे त्‍यौहार इस महापर्व में शामिल होते हैं। इस त्‍यौहार की बात ही कुछ और होती है। आइये आज रूप चतुर्दशी को हम तीन रचनाकारों श्री अश्विनी रमेश, डॉ. सजंय दानी और डॉ. सुधा ओम ढींगरा के साथ बढ़ते हैं तरही मुशायरे में।

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ashwini ramesh ji

अश्विनी रमेश

deepawali (16)

तम को दिखा दो जलवा, इक बार मुस्‍कुरा दो 
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो

ये रात की उदासी कटती नहीं अजब है
हो जाएगा सवेरा, इक बार मुस्कुरा दो

ज़ुल्फ़ें अगर उठा दो, हो जाएगा उजाला  
चेहरा दमक पड़ेगा, इक बार मुस्कुरा दो

ये रात का अँधेरा, फैला हुआ घनेरा 
फिर चाँद खिल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो

दीपावली के दीपों, हो क्‍या किसी से कम तुम
सूरज चमक उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो

सब तोड़ फैंक डालो, दीवारें नफ़रतों की 
फिर प्यार ही पलेगा, इक बार मुस्कुरा दो

आज़ाद इस चमन की, कुछ ऐसी हो फ़ज़ा अब
हो प्यार का बसेरा, इक बार मुस्कुरा दो

इस बार का मिसरा सकारात्‍मक सोच से भरा हुआ है इसलिए सारी ग़ज़लें सकारात्‍मक सोच के साथ ही आ रही हैं। सब तोड़ फैंक डालो दीवारें नफ़रतों की में बहुत ही सकरात्‍मक संदेश दिया गया है। सचमुच आज इसी की आवश्‍यकता है कि हम सारी दीवारें तोड डालें और दिल से दिल के बीच राहें पैदा करें। उसके बाद सचमुच प्‍यार ही प्‍यार होगा और कुछ हो भी नहीं सकता । दीपावली के दीपों की सूरज से तुलना का प्रयोग भी खूब बन पड़ा है। ये रात की उदासी कटती नहीं अजब है में मुस्‍कुराने से सबेरा होने का प्रयोग भी अच्‍छा बना है। दीपाली की सकारात्‍मक भावों को लिये हुए यह ग़ज़ल बहुत खूब बनी है। वाह वाह वाह।

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डॉ. संजय दानी

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बादल अभी छँटेगा, इक बार मुस्कुरा दो,
फिर चांद खिल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो।

होती है तुमको चिढ़ गर, क्‍‍यों शांत है मुहल्ला,
हो जाएगा बखेड़ा, इक बार मुस्कुरा दो।

पतवार से ही कश्ती, हरदम हो क्यूं चलाते,
दरिया ही राह देगा, इक बार मुस्कुरा दो।

तुम जुगनुओं की गलियों से आयी हो तो बेशक,
मिट जाएगा अंधेरा, इक बार  मुस्कुरा दो।

हर अश्‍क सिर्फ रोने के वास्‍ते नहीं है,
आंसू भी हंस पड़ेगा, इक बार मुस्कुरा दो।

गो इश्क़ सिर्फ कांटों पर चलने का है आदी,
अब फूल भी बिछेगा, इक बार मुस्कुरा दो।

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पहले तो खूब आनंद के शेर की बात । होती है तुमको चिढ़ गर क्‍यों शांत मुहल्‍ला है हो जाएगा बखेड़ा इक बार मुस्‍कुरा दो। एकदम नास्‍टेल्जिक कर दिया इस शेर ने । सचमुच वे क्‍या दिन थे जब किसी के मुस्‍कुराने भर से पूरा मोहल्‍ला अशांत हो जाता था। कयास लगते थे कि यह मुस्‍कुराहट किसके लिये है। दावे होते थे, झगड़े होते थे। और भी पता नहीं क्‍या क्‍या होता था। बहुत सटीक चित्रण। पतवार से ही कश्‍ती चलाने की जगह मुस्‍कुराहट से दरिया पार करने की बात बहुत गूढ़ार्थ लिए हुए है। हम चाहें तो एक मुस्‍कुराहट कई काम कर जाती है। जुगनुओं की गली वाला शेर भी खूब बना है। सुंदर ग़ज़ल , वाह वाह वाह।

Dr. Sudha Dhingra

सुधा ओम ढींगरा

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नयनों में भर उजाला, इक बार मुस्करा दो,
तुम सुब्‍ह का हो तारा,  इक बार मुस्करा दो।

शिक्षा का तेल, बाती है ज्ञान की जो इसमें,
दीपक सदा जलेगा, इक बार मुस्करा दो।

भूलो फरेब,  धोखे, षडयंत्र सज्‍जनों के, 
रस्‍ता नया खुलेगा, इक बार मुस्करा दो।

अपनों से जो मिला है, माना है गहरा लेकिन
यह घाव भी भरेगा, इक बार मुस्करा दो।

धोखे की राजनीति, अतृप्‍त कामनाएं,
इतिहास सब कहेगा, इक बार मुस्करा दो।

ये चांद तारे सूरज  देंगे सदा गवाही 
गहरा तमस हटेगा, इक बार मुस्करा दो।

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शिक्षा का तेल और ज्ञान की बाती का प्रयोग बहुत सुंदर है और उसमें भी दीपक के सदा जलने की बात बहुत खूब है । सच है जिस दीपक में शिक्षा का तेल और ज्ञान की बाती हो वो भला कभी बुझ सकता है। कभी नहीं। बहुत ही सुंदर शेर।फरेब धोखे और षडयंत्र सज्‍जनों के भूलने वाला शेर बहुत सी दिशाओं में इंगित कर रहा है लेकिन उसके बाद भी वही बात की भूल कर सब मुस्‍कुरा दो तो नया रास्‍ता खुल जाएगा। और वैसी ही बात अपनों से मिले घाव में कही गई है कि हर घाव भर जाता है। और अंत में शेर कह रहा है कि यदि आपने अपनी मुस्‍कुराहट से अंधेरा हटा दिया तो उजालों के प्रतीक सूरज चांद तारे सब आपकी गवाही देंगे। बहुत ही अच्‍छे जीवन दर्शन से भरी हुई ग़ज़ल । वाह वाह वाह।

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तो यह आज के तीनों रचनाकारों की ग़ज़लें हैं खूब कही हैं तीनों ने। आनंद लीजिए और दाद देते रहिये इसलिए कि अब घटते हुए ब्‍लॉगिंग परिवार को आपकी दाद ही बचा सकती है। उन लोगों पर ज्‍यादा दाद देने का दंड है जो इस बार शामिल नहीं हो रहे हैं। तो मिलते हैं अगले अंक में।

सोमवार, 9 नवंबर 2015

आइये मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं आज श्री धर्मेंद्र कुमार सिंह, श्री सौरभ पाण्डेय और श्री सुलभ जायसवाल के साथ ।

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दीपावली का इन्‍तज़ार पहले साल भर होता था। क्‍योंकि दीपावली पर ही हम बच्‍चों को नए कपड़े मिलते थे और घर में पकवान बनते थे । अब तो खैर साल भर शॉपिंग होती रहती है और पकवान बनने का भी कुछ तय नहीं, कभी भी बन जाते हैं। इसलिए आज के बच्‍चों को दीपावली को लेकर उत्‍साह नहीं रहता है। मुझे याद है कि कपड़े की दुकान वाला खुद एक ठेले पर कपड़े लाद कर हमारी कॉलोनी में आ जाता था और उसके बाद घर घर में जाकर अपनी दुकान फैलाता था। अब वही कपड़े वाला ऑनलाइन शॉपिंग के माध्‍यम से एक बार फिर से घरों में आ गया है। लेकिन अब उसके आने का कोई समय नहीं है, वह चाहे जब आ जाता है। खैर यह तो परंपरा है कि हर समय के अपने कुछ तरीके होते हैं और समय उन तरीकों के हिसाब से ही चलता है। पिछली पोस्‍ट पर जो फेसबुक और ब्‍लॉगिंग की तुलना की थी वह भी शायद इसी परिप्रेक्ष्‍य में थी ।

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आइये आज तरही मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हैं। आज हम तीन रचनाकारों के साथ इस क्रम को आगे बढ़ा रहे हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह, सौरभ पाण्‍डेय और सुलभ जायसवाल के साथ। तीनों ही बहुत गुणी रचनाकार हैं और तरही में नियमित रूप से आते रहते हैं। आज धन तेरस के साथ दीपावली शुरू हो रही है और आज हम भी तीन रचनाकारों के साथ धन तेरस मना रहे हैं।

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श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह

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दौड़ेगा रवि का घोड़ा, इक बार मुस्कुरा दो
जल्दी से हो सवेरा, इक बार मुस्कुरा दो

बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो

बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो

लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो

होंठों की आँच में यूँ, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो

ऐसा नहीं है कि प्रभाव छोड़ने के लिए बड़ी बड़ी रचनाएं ही लिखी जानी चाहिए। छोटी ग़ज़लें भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। बल्कि उसका इम्‍पैक्‍ट कहीं ज्‍यादा होता है। जैसे यही गज़ल है जिसमें मतले और मकते को हटा कर कुल तीन ही शेर हैं लेकिन तीन भी सचमुच के शेर हैं। पहले बात उस मिसरे की जो खन्‍न से मन में उतर गया । असल में एक ही शब्‍द कभी कभी रचना का पूरा रंग बदल देता है 'लाखों दिये सजे हैं मन के महानगर में' में जो महानगर आया है उसने मिसरे में जादू जगा दिया है। मन का गांव सुना है मन का शहर सुना है किन्‍तु मन का महानगर पहली बार सुना और लुभा गया यह महानगर। उतनी ही सुंदरता के साथ मकते का शेर भी कहा गया है। हो जाएगा तुम्‍हारा इक बार मुस्‍कुरा दो। वाह वाह वाह क्‍या बात है।

deepawali

saurabh ji

श्री सौरभ पाण्डेय

deepawali (16)

रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो

पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो

आपत्तियों के रुत की है कुछ अजीब फितरत
समझो अगर इशारा, इक बार मुस्कुरा दो

मालूम है तुम्हें भी कितना कठिन समय है
फिर भी तुम्हारा कहना, ’इक बार मुस्कुरा दो’ !

पत्थर के इस शहर में जो धुंध इस कदर है
’मिट जायेगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो’

निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समन्दर
बहका रहा किनारा, इक बार मुस्कुरा दो

अभिव्यक्ति ज़िन्दग़ी की - दीपक तथा अँधेरा !
अब जी उठे उजाला, इक बार मुस्कुरा दो

स्वीकार हो निवेदन, अनुरोध कर रहा है 
ये रोम-रोम सारा.. इक बार मुस्कुरा दो

सौरभ जी की रचनाओं में शब्‍द आ आकर चौंकाते हैं। जैसे मतले में ही जो बेतहाशा शब्‍द मिसरा सानी में आया है वह अद्भुत है। उस शब्‍द ने मानो वह सब कुछ कह दिया है जो शायर कहना चाह रहा था। और अगले ही शेर में बादलों का 'फाहा-फाहा' घुलना, ग़ज़ब है। यह जो फाहा फाहा है यह बहुत ही कमाल का बिम्‍ब रच रहा है, यूँ लग रहा है जैसे आंखों के सामने ही बादल घुले जा रहे हैं। और मालूम है तुम्‍हें भी कितना कठिन समय है में एक अजीब सी उदासी भरी है । यह उदासी अंदर तक उतर जाती है। इसमें कठिन समय का प्रयोग बहुत अच्‍छा हुआ है, । निर्द्वंद्व सो रहा है आगोश में समंदर में मिसरा सानी एकदम सधे तरीके से रचा गया है। बहुत ही कमान की गजल है आखिरी शेर में रोम रोम को पुलकित कर देती है। वाह वाह वाह ।

deepawali

sulabh jaiswal

श्री सुलभ जायसवाल

deepawali (16)

तुम ही हो नैनतारा, इक बार मुस्कुरा दो
तुम ही से है उजाला, इक बार मुस्कुरा दो।

नैया बढ़ेगी आगे, मिल जाएगा किनारा
जीवन नया मिलेगा, इक बार मुस्कुरा दो।

कुछ मुझको है कमाना, कुछ तुमको है जुटाना
बाकी भरेंगे दाता, इक बार मुस्कुरा दो।

पैरो में रच महावर तुम पहनो पीली साड़ी
माथे पे रख के अँचरा, इक बार मुस्कुरा दो।

माँ है पिता है भैया भाभी से घर भरा है
समझो यही है मयका, इक बार मुस्कुरा दो।

दीये की लौ जली है, कंदील भी सजी है
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो।

सुलभ ने कमाल का काम किया है। घर में रच दिया है पूरी ग़ज़ल को । मां पिता भाई भाभी और पत्‍नी को और घर को केन्‍द्र में रख कर खूब ग़ज़ल कही है। कुछ मुझको है कमाना, कुछ तुमको है जुटाना, वाह भारतीय गृहस्‍थी का एक सुदंर चित्रण। कमाना और जुटाना यह दो ही तो होते हैं। यदि इन दोनों में सामंज्‍स्‍य हो जाए तो फिर तो जीवन स्‍वर्ग बन ही जाएगा। पैरों में रच महावर और पीली साडी़ पहनने वाले शेर में माथे पर जो अंचरा रखा गया है वह सादगी और भोलेपन से दिल में उतर गया है। और परिवार का शेर मां हैं पिता है भैया भाभी से घर भरा है में पत्‍नी को अपने ससुराल को ही मायका मान लेने की जो सलाह है वह भी मन को भा गई। सुलभ ने बहुत ही अलग प्रकार की ग़ज़ल कही है। वाह वाह वाह। कमाल की ग़ज़ल ।

deepawali

तो आज की तीनों ग़ज़लों का आनंद लीजिए और दाद देते रहिए । मिलते हैं अगले अंक में।

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