बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए

 
बासी दीपावली मनाना हमारे इस ब्लॉग की परंपरा रही है। देर से आने वाले यात्री दौड़ते हुए आते हैं और अगले स्टेशन पर गाड़ी पकड़ते हैं। लेकिन हमारे लिए सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही दौड़ते हुए आएँ मगर आते ज़रूर हैं और सबके मन में गाड़ी को पकड़ने की चिंता ज़रूर रहती है। और हम उनके साथ ही मनाते हैँ दीवाली का जश्न। इस बार भी यात्री आ रहे हैं और हमारा बासी दीपावली मनाने का इंतज़ाम होता जा रहा है। वैसे भी कार्तिक पूर्णिमा तक तो दीपावली का त्यौहार चलता ही है। अभी तो छठ पर्व सामने है, उसके बाद देव प्रबोधिनी एकादशी उसके बाद कार्तिक पूर्णिमा। सब एक के बाद एक आने हैं। तो आइए आज की बासी दीपावली मनाते हैं नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ।


उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

नुसरत मेहदी
 

ज़मीं के साथ हम दिल के वही रिश्ते तलाशेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
रिवायत की मुंडेरों पर दीयों की जगमगाहट में
नए इमकान ढूँढ़ेगे, नए सपने तलाशेंगे
हुनर से और तख़य्युल से इसी मिट्टी में कूज़ागर
नई तख़लीक़ ढूँढ़ेगे, नए कूज़े तलाशेंगे
बड़े-बूढ़े अंधेरों में यहां क़न्दील आंखों से
नए किरदार ढूँढ़ेगे, नए चेहरे तलाशेंगे
चराग़-ए-जुस्तुजू लेकर हमारे संत और सूफ़ी
नए दरवेश ढूँढ़ेगे, नए विरसे तलाशेंगे
ये तहज़ीबें यही क़दरें असासा हैं इन्ही में हम
नए मज़मून ढूँढ़ेगे, नए क़िस्से तलाशेंगे
वतन की फ़िक्र रौशन है, इन्हीं जज़्बों में हम नुसरत
नई तामीर ढूँढ़ेगे, नए नक़्शे तलाशेंगे


वाह क्या कमाल की तकनीक का उपयोग किया गया है पूरी ग़ज़ल में। मिसरा सानी एक ही पैटर्न पर नए अर्थों और शब्दों के साथ सामने आ रहा है। रदीफ़ और क़ाफ़िये की ध्वनि के साथ मिसरा सानी का पैटर्न भी दोहराया जाना, यह अनूठा प्रयोग है। मतले में कमाल तरीक़े से गिरह बाँधी गई है। ज़मीं के साथ रिश्ते तलाश करने की कोशिश में हम मिट्टी के दियों तक ही पहुँचते हैं। अगला ही शेर जैसे हमें परंपराओं की पुरानी हवेली में ले जाता है जहाँ हम नम आँखें लिए सपने तलाशने लगते हैं। साहित्य को परिभाषित करता हुआ अगला शेर जहाँ हुनर और तख़य्युल दोनों के संतुलन की बात कही गई है। सच में केवल हुनर से ही सब कुछ नहीं होता। उफ़ अगले शेर में आया हुए कन्दील आँखों का प्रयोग... ग़ज़ब। जैसे कई सारे चेहरे उभर कर सामने आ गए हों। संतों और सूफ़ियों की तलाश को शब्द प्रदान करता अगला शेर पूरी परंपरा को उजागर कर देता है। और अगले ही शेर में तहज़ीबों के रास्ते नए मज़मून नए क़िस्सों की तलाश। वाह क्या बात है। मकते के शेर में देश के प्रति अपनी चिंता को नई तामीर और नए नक़्शों के द्वारा बहुत ही सुंदर तरीक़े से व्यक्त किया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह। 
 
 


डॉ. मुस्तफ़ा माहिर


तेरी आंखों में अपनी आंख के सपने तलाशेंगे।
जो जाएं मन्ज़िलों तक हम वही रस्ते तलाशेंगे।
भले वो कर रहे हैं वायदा सूरज उगाने का,
'उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।'
जो ख़ाने हो गए ख़ाली उन्हें भरना ज़रूरी है,
पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे।
ज़माने से कहो दिल की निगाहें काम आएंगी,
ज़माना पूछता है हम उन्हें कैसे तलाशेंगे।
मैं वो हूँ जो सभी के होंट पर धरता था मुस्कानें
तलाशेंगे मुझे तो दर्द के मारे तलाशेंगे।
ज़रा भी मैल हो दिल में तो वो मिल ही नहीं सकता,
खुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे।
ये सोहबत का है जादू इस तरह जाने नहीं वाला,
तुम्हारी गुफ़्तगू में सब मेरे जुमले तलाशेंगे।
गुले नरगिस निगाहे आम से तो बच गया माहिर
मगर ये तय है इक दिन हम-से दीवाने तलाशेंगे।


मुस्तफ़ा ने मतले के साथ ही जो आग़ाज़ किया है, उससे ही ग़ज़ल की परवाज़ का पता चल जा रहा है। किसी की आँखों में अपने सपने तलाश लेना, प्रेम को इससे सुंदर तरीक़े से और क्या व्यक्त किया जा सकता है। अगले ही शेर में गिरह को गहरे राजनैतिक कटाक्ष के साथ बाँधा है। सूरज उगाने का वादा करने वाले अंततः मिट्टी के दीपक ही तलाशते हैं। एक बिलकुल नए तरह से बाँधी गई गिरह। पुराने आईने फिर से नए चेहरे तलाशेंगे, किसी उस्ताद के अंदाज़ में कहा गया मिसरा है ये। ग़ज़ब। और दिल की निगाहों वाले शेर में उस्तादों वाला अंदाज़ और ऊँचाई पर गया है। मैं वो हूँ जो, यह शेर कितनी सुंदरता के साथ बात कर रहा है, अपने होने की बात करता हुआ शेर। ख़ुदा को अब फ़क़त इस दौर में बच्चे तलाशेंगे, ग़ज़ब कहन। मिसरा सानी और ऊला के बीच क्या ग़ज़ब तारतम्य। और प्रेम के रस में डूबा अगला शेर और उस शेर में सोहबत का जादू... वाह वाह वाह क्या कमाल। मकते का शेर एक बार फिर कमाल बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। एक-एक शेर बोलता हुआ है। वाह वाह वाह। 


मन्सूर अली हाश्मी 


"उजालो के लिये मिट्टी के.... कब दीये तलाशेंगे?" को प्रश्न वाचक बनाया तो निम्न रुप सामने आया है।

दिए जो कैकयी माँ को, निभा लें वो वचन पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है क्या ख़तरात 'रेखा पार करने' का समझ लें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है शुर्पनखा अगर आहत तो उसको प्यार दें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यह शबरी फल लिये बैठी है इसको तार लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है स्वर्णिम मृग या मृगतृष्णा ये पहले जान तो लें हम
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
विभीषण कौन है यह जान लें पहचान लें पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
वफ़ादारी ए लक्ष्मण को समझ तो लें ज़रा पहले
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
तपस्या को समझना है तो पहले तू भरत बन जा
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
हनुमानी इरादा कर ले, गर लंका जलानी है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
है मुंह में राम जो तेरे, बगल में भी उन्हीं को रख
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
दशानन अपने मन में बैठा उसको मार ले पहले
उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
अभी 'अग्निपरीक्षा' की घड़ी भी आने वाली है
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


एक बिलकुल नए ही तरीक़े का प्रयोग है ये। रामायण को आधार बना कर मिसरा ऊला में प्रश्न और मिसरा सानी में तरही मिसरे के साथ उसका उत्तर। कैकयी के वचन, लक्ष्मण रेखा को पार करने के ख़तरे, शूर्पनखा का आहत होना, शबरी के बेर, सोने का मृग, विभिषण का संत्रास, लक्ष्मण की निष्ठा, लंका जलाने के लिए हनुमान का इरादा, दशानन और अग्नि परीक्षा। ऐसा लगता है जैसे रामचरित मानस का लघु रूप पढ़ रहे हैं हम। हर बात को तरही मिसरे के साथ जोड़ देना। बहुत ही कमाल, वाह वाह वाह। 


आज की बासी दीपावली नुसरत मेहदी जी, डॉ. मुस्तफ़ा माहिर और मन्सूर अली हाशमी जी के साथ मनाइए। दाद देते रहिए और प्रतीक्षा कीजिए बासी दीपावली के अगले अंकों की। अभी राकेश खंडेलवाल जी के कुछ और सुंदर गीत आने हैं, और हाँ भभ्भड़ कवि भौंचक्के भी शायद इस बार आ ही जाएँ। 

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। आज राकेश खण्डेलवाल जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, नीरज गोस्वामी जी और सौरभ पाण्डेय जी के साथ मनाते हैं दीपावली का यह त्यौहार।



आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। इस बार दीपावली में जब बाज़ार जाएँ, तो इस बार देखें अपने आसपास कि क्या सुंदर परिकल्पना है इस त्यौहार की, कि समाज के हर वर्ग, हर प्रकार के व्यवसायी, हर प्रकार के श्रमिक, हर किसी के लिए यह त्यौहार कुछ न कुछ लाया है। यदि और ग़ौर से देखेंगे तो पाएँगे कि सड़क के किनारे बैठ कर खील-बताशे बेचने वाली बूढ़ी सुखिया देवी से लेकर, जगमगाती ज्वैलरी शॉप में बैठे स्वर्णकार तक, सब मिलकर एक प्रकाश स्तंभ को रच रहे हैं। इस प्रकाश स्तंभ में अलग-अलग स्तरों पर सब अपने-अपने दीपक लिए खड़े हैं। सब एक-दूसरे से जुड़े हैं, इस प्रकार कि उस जुड़ाव का जोड़ दिखाई ही नहीं देता। प्रकाश द्वारा लगाया गया जोड़ आत्मा के स्तर पर होता है, इसलिए वो दिख भी नहीं सकता। भारतीय संस्कृति द्वारा समाज के हर व्यक्ति के सहयोग से बनाए गए इस प्रकाश स्तंभ का नाम ही होता है दीपावली। दीपावली का समग्र अर्थ है परिजन, नातेदार, रिश्तेदार, परिचित, मित्र, पड़ोसी.. वे सब जिनसे मिलकर हम ‘मैं’ से ‘हम’ हो जाते हैं। प्रकाश का अर्थ ही है ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर बढ़ना। दीपावली हमारे जीवन में आकर हमें ‘मैं’ से ‘हम’ हो जाने का ही पाठ पढ़ाती है। आइए इस दीपावली को ‘मैं’ से ‘हम’ और ‘हम’ से ‘हम सब’ की ओर बढ़ें... बढ़ते रहें... बढ़ते ही रहें। 



उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे




राकेश खण्डेलवाल


चले ये सोच कर भारत, वहाँ छुट्टी मना लेंगे
पुरानी याद जो छूटी हैं गलियों में उठा लेंगे

वहाँ पर पाँव रखते ही नयन के स्वप्न सब टूटे
जो कल परसों की छवियाँ थी सभी इतिहास में खोई
कहीं दिखता न पअपनापन उमड़ती बेरुख़ी हर सू
नई इक सभ्यता के तरजुमे में हर ख़ुशी खोई
वो होली हो दिवाली हो, कहें हैप्पी मना लेंगे
मिलेंगे वहात्सेप्प संदेश तो आगे बढ़ा देंगे

कहीं भी गाँव क़सबे में, न परचूनी दुकानों पर
खिलौने खाँड़ वाले साथ बचपन के, नहीं दिखते
न पूए हैं मलाई के, न ताजा ही इमारती हैं
जिधर देखा मिठाई के चिने डिब्बे ही बस सजते
यहाँ जो मिल रहा उसको वहीं फ्रिज से उठा लेंगे
चलें मन हम ये दीवाली जा अपने घर मना लेंगे

हमारे पास हैं मूरत महा लक्ष्मी गजानन की
घिसेंगे सिल पे हम चंदन, सज़ा कर फूल अक्षत भी
बना लेंगे वहीं पूरी कचौड़ी और हम गुझिया
बुला कर इष्ट मित्रों को मनेगी अपनी दिवाली
पुरानी रीतियाँ को हम पुनः अपनी निभा लेंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
पुराने बाक्स से लेकर उन्हें फिर से जला लेंगे


आज की दीपावली के लिए इससे अच्छा और क्या गीत हो सकता है। प्रवास में बसे हुए गीतकार को जब अपना देश याद आता है तो अपने आप ही गीत बन पड़ता है। पहले ही बंद में सोशल मीडिया के कारण त्यौहारों का जो हाल है उस पर विदेश में बैठा हुआ कवि भावुक होकर अपनों को याद कर रहा है। दूसरे बंद में एक बार फिर स्मृतियों के गलियारे में भटकते हुए वही बातें याद आ रही हैं। वो मिठाई की दुकानें जो बचपन की यादों में बसी हुई हैं पर अब जो कहीं नहीं हैं, वह सारी दुकानें कवि को याद आ रही हैँ। और अंतिम बंद में वहीं विदेश में ही प्रवास के दौरान कवि मन अपनी दीवाली को मनाने का तरीके तलाश कर अपने आप को दिलासा दे रहा है। बहुत अच्छा गीत वाह वाह वाह। 


तिलक राज कपूर

सभी परिवार में, हिस्‍से अगर, अपने तलाशेंगे
नहीं दिन दूर, जब तन्‍हाई में, रिश्‍ते तलाशेंगे।
हम अपने अनुभवों की खुश्‍बुएँ भर दें किताबों में
इन्‍हीं में दृश्‍य अनदेखे, कई बच्‍चे तलाशेंगे।
समय के साथ सीखा है गरल पी कर भी जी लेना
हमारे बाद कैसे आप हम जैसे तलाशेंगे।
इन्‍हीं गलियों से होकर, रोज ही, गुजरा हूँ मैं, लेकिन
मुझे अब से, दरीचे और दर, इनके तलाशेंगे।
कभी फुर्सत मिलेगी तो चलो हम साथ बैठेंगे
बिताये थे जो मिलकर फिर वही लम्हे तलाशेंगे।।
यहाँ हर पल नये संबंध बनते और मिटते हैं
हमेशा के लिये संबंध हम कैसे तलाशेंगे।
चले आओ, अंधेरी कोठरी, यादों भरी खोलें
“उजालों के लिये मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे”।

मतले के साथ ही जैसे हमारे ख़राब होते समय पर जैसे हम सब की पीड़ा को व्यक्त कर दिया गया है। सच में हिस्से और अपने में से हमें कुछ एक ही मिलना है। ओर अनुभव की ख़ुशबुओं से किताबों को आने वाली पीढ़ी के लिए महका देने की भावना तो एकदम कमाल है। और कमाल के शेर में जो बात कही गई है कि गरल पीने वालों को कल बस तलाशती ही रह जाएगी यह दुनिया। वाह। गलियों दरीचों वाला शेर तो जैसे कलेजे को चीर कर अंदर उतरता चला गया है। यह मुशायरे का हासिल है। हमेशा मिटने और बनने वाले दौर में स्थाई की तलाश करना सच में बेमानी है। और अंत में गिरह का शेर भी एकदम कमाल है। लेकिन जो शेर मैं अपने साथ लिए जा रहा हूँ वह तो वही है मुझे अब से दरीचे और दर इनके तलाशेंगे। वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल।


गिरीश पंकज

अंधेरा भाग जाएगा हमी रस्ते तलाशेंगे
"उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे"
बुरे लोगों की है बस्ती मगर विश्वास है हमको
मिलेंगे लोग अच्छे हम अगर अच्छे तलाशेंगे
चलो चलते चलो इक दिन ज़माना साथ आएगा
अभी जो दूर हैं हमको वही अपने तलाशेंगे
बना दें राह उजली हम चले जिस पे नई दुनिया
हमारे बाद वो रस्ते नये बच्चे तलाशेंगे
जो हैं खुद्दार वो भूखे मरेंगे झुक नहीं सकते
कभी दरबार में जाकर नहीं टुकड़े तलाशेंगे
अगर टूटेगा इक सपना नया फिर से गढ़ा जाए
हमारा हौसला है नित नये सपने तलाशेंगे
अंधेरा दूर करने एक दीया ही बहुत पंकज
 मगर हर हाथ में दीपक लिये बंदे तलाशेंगे

मतले में ही बहुत सुंदर तरीक़े से अत्यंत सकारात्मक गिरह बाँधी है। गिरीश जी पिछले दिनों अस्वस्थ रहे उसके बाद भी सबसे पहली ग़ज़ल हमेशा की तरह उनकी ही प्राप्त हुई। अगले ही शेर में सकारात्मकता अपनी चरम पर है अच्छे लोगों की तलाश करेंगे तो अच्छे ही मिलेंगे, जीवन का इससे अच्छा मंत्र और क्या हो सकता है। पूरी ग़ज़ल सकारात्मकता से भरी हुई हे अपने से बाद में आने वाली पीढ़ी के लिए उजालों को  छोड़ना वाह क्या सोच है। जो हैं खुद्दार वाला शेर मुझे स्तब्ध कर गया। किसी मामले में अनिर्णय की स्थिति में था, लेकिन इस शेर ने जैसे मुझे निर्णय का हौसला प्रदान कर दिया। शुक्रिया इस शेर के लिए। आगे के दोनों शेर जैसे हौसलों के शेर हैं। जीवन के संघर्ष में हमेशा लड़ते रहने का हौसला देते हुए। वाह वाह वाह क्या सुंदर ग़ज़ल है। गिरीश जी के पूर्ण स्वस्थ होने की हम सब की तरफ़ से मंगल कामनाएँ। 


नीरज गोस्वामी

बिना दस्तक जो खुल जाएँ वो दरवाज़े तलाशेंगे
जो रिश्तों को हैं गर्माते वो दस्ताने तलाशेंगे
वो जो कुछ बीच था अपने न जाने क्यों कहाँ छूटा
चलो वादा करें दोनों उसे फिर से तलाशेंगे
समाये तू अगर मुझमें समा मैं तुझ में गर जाऊँ
बता दुनिया में हम को लोग फिर कैसे तलाशेंगे
हज़ारों फूल कलियाँ तितलियाँ देखो हैं गुलशन में
मगर कुछ सरफिरे केवल यहाँ कांटे तलाशेंगे
अंधेरों को मिटाने में रहा नाकाम जब सूरज
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यही खूबी हमारे दुश्मनों की हमको भाती है
हमेशा हार कर भी वार के मौके तलाशेंगे
समझना तब हकीकत में ये दुनिया जीत ली तूने
कि तेरे बाद जब घर में तुझे बच्चे तलाशेंगे 

नीरज जी का अपना ही अलग अंदाज़ होता है वे जिस प्रकार कहते हैं उसका कोई मुकाबला नहीं है। मतले में ही अंदाज़ लग जाता है कि क्या कमाल की ग़ज़ल कही जाने वाली है। मतला पूरी तरह से नीरज जी के रंग में रँगा हुआ है।क्या ख़्याल है। अगले ही शेर में वो जो कुछ बीच में था उसके छूटने और फिर से तलाशने की बात बहुत कमाल है। एक दूसरे में समा जाने की कल्पना बहुत ही कमाल है। सच में इसके बाद एक-दूसरे को तलाशने की बात सुंदर है कौन तलाश सकता है ।और नकारात्मकता पर गहरा व्यंग्य कसता हुआ शेर जिसमें कुछ सिरफिरों द्वारा केवल कांटे तलाश किए जाने की बात कही गई है। अंधरों को मिटाने में नाकाम रहे सूरज की गिरह जैसे हमारे समय पर एक गहरा राजनैतिक व्यंग्य है।  और दुश्मनों की प्रशंसा में कहा गया शेर नीरज जी के ही बस की बात है। क्या सलीक़े से दुश्मनों को लपेटा है। और अंतिम शेर एक बार फिर आँखें भिगो देता है, जैसे तिलक जी के शेर ने किया था वही इस शेर ने किया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 


सौरभ पाण्डेय

सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे
इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे 
अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अब भी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे
किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
हृदय में भाव था उसने निछावर कर दिया खुद को
मगर सोचो कि उसके नाम अब कितने तलाशेंगे ?
चिनकती धूप से बचते रहे थे आजतक, वो ही-
पता है कल कभी जुगनू, कभी तारे तलाशेंगे
मुबारक़ हो उन्हें दिलकश पतंगों की उड़ानें पर
इधर हम घूमते ’सौरभ’ बचे कुनबे तलाशेंगे 

मतले में ही जीवन की छूटी हुई डोर के सिरों को पकड़ कर यादों के गलियारे में भटकने का बहुत ही सुंदर प्रयोग है। और अगले ही शेर में बहुत ही कमाल के जोड़ के साथ गिरह बाँधी गई है। एक गहरा राजनैतिक व्यंग्य है इस शेर में । बहुत ही कमाल निर्वाह हुआ है तरही मिसरे का। और अगला शेर एक बार फिर से राजनैतिक कटाक्ष से भरा हुआ है। लेकिन अगले शेर में प्रेम के उस पड़ाव का बहुत सुंदर ​चित्रण है जिस पड़ाव में आकर प्रेम छीजने लगता है। परदे चादर और तकिये का प्रयोग ग़ज़ब है। अगला शेर देश प्रेम को समर्पित शेर है। और कुर्बानी की बात को बहुत अच्छे से महिमा प्रदान करता है। चिलकती धूप से बचने वालों को जुगनू और तारे तलाश करना वाह सुंदर प्रयोग। मकते का शेर भी बहुत सुंदर है। सच में यहाँ दो प्रकार के लोग होते हैं एक वो जो उड़ते हैं और दूसरे वो जो ज़मीन से जुड़ रहते हैं। शायर दूसरे प्रकार का होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 




आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ। आज राकेश खण्डेलवाल जी, तिलक राज कपूर जी, गिरीश पंकज जी, नीरज गोस्वामी जी और सौरभ पाण्डेय जी के साथ मनाते हैं दीपावली का यह त्यौहार। आप सब स्वस्थ रहें, सुखी रहें और परिवार के साथ इसी प्रकार त्यौहारों पर आनंद करते रहें।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी के साथ मनाते हैं रूप चतुर्दशी।


भारतीय संस्कृति में यह जो परिवार शब्द है, यह व्यापक अर्थों वाला शब्द है, इसे एकरेखीय नहीं कहा जा सकता। यह जब विस्तार में जाता है तो वहाँ तक पहुँचता है जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात आ जाती है। परिवार का यही विस्तार भारतीय संस्कृति को बाकी सारी सभ्यताओं, सारी संस्कृतियों से अलग करता है। यहाँ परिवार का अर्थ केवल रक्त संबंधों के कारण जुड़े हुए इन्सान नहीं होते, यहाँ वे सब जो भावनात्मक स्तर पर एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं, वे भी परिवार का हिस्सा होते हैं। बहुत दिन नहीं हुए, जब हमारे यहाँ एक पूरा मोहल्ला, एक परिवार होता था। आज भी होता है, छोटे क़स्बों में, गाँवों में। और गहरे उतरेंगे तो पाएँगे कि अभी भी कहीं-कहीं कुछ गाँव या छोटे क़स्बे ऐसे मिल जाएँगे, जो पहले की ही तरह एक परिवार के रूप में जी रहे हैं। हम जितने एकाकी और जितने आत्मकेन्द्रित होते चले जाएँगे, हमारी समस्याएँ, हमारी पीड़ाएँ, हमारे कष्ट, उतने ही बढ़ते जाएँगे। मतलब यह कि हमारे जीवन में अंधकार उतना ही बढ़ता चला जाएगा। चेतना के स्तर पर हम इतने निरीह होते जाएँगे कि हमें सूझेगा भी नहीं कि अंधकार का क्या किया जाए ? तब वे सब जो हमारा परिवार हैं, उनकी ज़रूरत हमें शिद्दत से महसूस होगी। अंधकार हमेशा आत्मकेन्द्रित होता है और प्रकाश हमेशा विस्तार पाने के प्रयास में लगा रहता है, हर उस कोने में पहुँचने के प्रयास में जहाँ अभी भी अँधेरा है। प्रकाश के लिए सचमुच ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ ही परिवार होता है। हम अपनी समस्याओं का अंधेरा लिए जब अपने परिवार के पास लौटते हैं, तो हम देखते हैं कि हमारे उस परिवार का हर सदस्य विश्वास के तेल में भीगी हुई प्रेम की बाती से प्रकाशित दीपक लिए हमारे पास आकर खड़ा हो गया है, हम अपने अंदर उस प्रकाश की उजास को महसूस करते हैं।

उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे


राकेश खण्डेलवाल

कभी संध्या में जलते हैं किसी की याद के दीपक
कभी विरहा में जलते हैं किसी के नाम के दीपक
कभी राहों के खंडहर में कभी इक भग्न मंदिर में
कोई आकर जला जाता किशन के राम के दीपक
मगर जो राज राहों पर घिरे बादल अँधेरे के
कोई भी रख नहीं पाता उजाले को कोई दीपक
चलो निश्चित करें हम आज, गहरा तम मिटा देंगे
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

जले हैं कुमकमे अनगिन कहीं बुर्जों मूँडेरो पर
उधारी रोशनी लेकर, जली जो कर्ज ले ले कर
कहीं से बल्ब आए हैं कहीं से ऊर्जा आई
चुकाई क़ीमतें जितनी बहुत ज्यादा हैं दुखदाई
किसे मालूम लड़ पाएँ ये कितनी देर तक तम से
टिके बैसाखियों पर बोझ ये कितना उठा लेंगे
चलें लौटें जड़ों की ओर, हमें विश्वास है जिन पर
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

बहत्तर वर्ष बीते हैं मनाते यूं ही दीवाली
न खीलें हैं बताशे हैं रही फिर जेब भी खाली
कहानी फिर सूनी वो ही, कि कल आ जाएगी लक्ष्मी
बसन्ती दूज फिर होगी सुनहरे रंग की नवमी
सजेगा रूप चौदस को, त्रयोदश लाए आभूषण
खनकते पायलों - कंगन के सपने कितने पालेंगे
चलें बस लौट घर अपने, वहीँ बीतेंगे अपने दिन
उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीपक जला लेंगे 


राकेश जी के गीत हर वर्ष दीपावली के उत्सव में चार चाँद लगा देते हैं। और सबसे अच्छी बात यह है कि उनके एक से भी अधिक गीत प्राप्त होते हैं, जो लगातार हमारे पूरे दीपोत्सव में हमारे साथ रहते हैं। इस बार की गीत बहुत प्रेमिल भावों से भरा हुआ है। किसी की यादों के दीपक जो जीवन में सदैव जलते रहते हैं, जीवन के अँधेरों को उनसे ही रौशनी मिलती है। जले हैं कुमकुमे में हम सब के जीवन का एक कड़वा सत्य सामने आया है। उधारी रौशनी के रूप में एक नया प्रयोग करते हुए मानों हमें चेताया गया है और कहा गया है कि जड़ों की तरफ़ लौटने में ही भलाई है। अंतिम बंद बहुत भावुक कर देने वाला है। लौटना एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सब चाहते हैं, किन्तु यह प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हो पाती। सब चाहते हैं कि खनकते पायलों और कंगनों के पास लौटें। बहुत ही सुंदर गीत है । वाह वाह वाह।

दिगम्बर नासवा


पटाखों की नई किस्मों को फिर बच्चे तलाशेंगे
डरेंगी बिल्लियाँ कुत्ते नए कोने तलाशेंगे
ये माना “मात का पूजन” करेंगे घर के सब मिल कर
कृपा होगी उसी पर माँ को जो दिल से तलाशेंगे
प्रदूषण खूब होगा “फेसबुक”, “ट्विटर” पे, “इन्स्टा” पर
बहाने फोड़ने के बम्ब सभी मिल के तलाशेंगे
तरीके रोज़-मर्रा ज़िन्दगी के सब विदेशी हैं
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दिये तलाशेंगे
सफल हैं शोद्ध उनके, हैं वही स्टार्ट-अप सक्सेस
जो “ईको-फ्रेंडली” होने के कुछ मौके तलाशेंगे
हरी वर्दी पहन कर वादियों में सज के सब सैनिक
नज़र आती सभी चीज़ों में घर-वाले तलाशेंगे
विदेशों में दीवाली की महक मिल जाएगी उनको
कमाई से परे हट कर जो कुछ रिश्ते तलाशेंगे 


मतले में ही दीपावली का एकदम सटीक चित्र खींच दिया है। यह भी सच है कि इन दिनों प्रदूषण का असल रूप तो सोशल मीडिया पर ही दिखाई दे रहा है। उस प्रदूषण को अपने तरीके से उजागर करता हुआ शेर। उसके तुरंत बाद बहुत ही सुंदर तरीके से गिरह का शेर है। सच में हमारी ज़िंदगी में आजकल कुछ भी अपना नहीं है। मिट्टी के दीये ही शायद हमें अपनी जड़ों की तरफ़ लौटा सकें। हरी वर्दी में सजे हुए सैनिकों का हर किसी में अपने घर वालों को तलाश करना बहुत ही मार्मिक है। अंदर तक छू जाता है यह शेर। घर से दूर होने पर ही पता चलता है कि घर क्या होता है। अंतिम शेर दूर देश में बसे हुए लोगों के लिए एक सबक की तरह है। सच में जीवन का नाम ही होता है कुछ नए रिश्ते तलाश लेना। जहाँ नए रिश्ते मिल जाएँ वहीं तो दीपावली मन जाती है। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

मन्सूर अली हाश्मी

पते और नाम हम तो देश भक्तों के तलाशेंगे
अभी तक चल रहे सिक्के हैं जो खोटे तलाशेंगे
उसे पाताल से ले कहकशाओं तक तलाशा है
हुए हैं ख़ुद ही गुम अब तो ख़ुदा कैसे तलाशेंगे।
न निकला नोटबंदी से न जीएसटी से हल कोई
धरोहर बेचकर अब तो नये रस्ते तलाशेंगे!
जो पहली थी उसे तो हमने पत्नी ही बना डाला
इलेक्शन अबकि जीते तो नई पी. ए. तलाशेंगे।
तरक़्क़ी की चमक भी तीरगी को न मिटा पाई
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।
सियासत भी तिजारत है क्रय-विक्रय भी मजबूरी
जो ख़ुद के बिक गये तो फिर नये घोड़े तलाशेंगे।
लिबासे आदमिय्यत रेज़ा:- रेज़ा: हो रहा देखो
बरहना हो लिये तो फिर नये कपड़े तलाशेंगे!
यहां बहरो की बस्ती है अबोलों की ज़रुरत है
ख़ला को पुर जो करना है तो फिर गूंगे तलाशेंगे!
बुरा शौचालयों का हो हुए हम दीद से महरुम
अलस्सुबह कभी ढेले उछाले थे, तलाशेंगे
जो सरकर्दा जुनूँ, बेताब यां दारो रसन भी है
यक़ीनन एक दूजे को ये शिद्दत से तलाशेंगे।
है हक़ गोई मुसलसिल और जुर्मे इश्क़ भी पैहम
तुम्हें भी 'हाशमी' दारो रसन फिर से तलाशेंगे।


एक ही ग़ज़ल में कई रंग दिखा देना हाशमी जी की पहचान है। यह पूरी ग़ज़ल व्यंग्य के तीखे तेवर लिए हुई है। मतले में ही किए गए प्रयोग खोटे सिक्के ने गहरा व्यंग्य कसा है। और अगले ही शेर में एक अनंत तलाश की थकन को अच्छे से व्यक्त किया गया है। नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब देश का सब कुछ बेचा ही जा रहा है, बहुत अच्छा शेर। पत्नी और पीए वाला शेर तो अंदर तक गुदगुदा जाता है। यह हमारे समय की कड़वी सच्चाई भी है। गिरह का शेर सुंदर बन पड़ा है। तरक्की की चमक सच में किसी भी अंधेरे का कुछ भी नहीं कर पाती। लिबासे आदमियत में बरहना होने के बाद फिर से नए कपड़े तलाशने की बात बहुत अच्छे से कही गई है। और गूँगों की तलाश वाला शेर बहुत सारे अर्थ लिए है। अंतिम शेर और उसके बाद मकता दोनों जैसे मन को छू गए। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

अभिनव शुक्ल

हमेशा पोंगा पण्डे और कठमुल्ले तलाशेंगे,
सियासतदान हैं! ये सारे हथकण्डे तलाशेंगे
अहा! मासूमियत है, भोलापन है, क्या क़यामत है,
करेला बोएंगे, फल खेत में मीठे तलाशेंगे
हमें पहले अंधेरों से तो बातें चार करने दो,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यहीं अब फोन पर बन्दूक लेकर खेल खेलेंगे,
गुब्बारे बेचने वाले को क्या बच्चे तलाशेंगे
हमारी अपनी सच्चाई, तुम्हारी अपनी सच्चाई,
हमें झूठे तलाशेंगे, तुम्हें सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही हमारे समय की धर्म आधारित राजनीति को बहुत तीखे स्वर में व्यंग्य का शिकार बनाया है। और उसके बाद का ही शेर बहुत ही सुंदर प्रयोग के कारण अलग प्रभाव पैदा कर रहा है। मिसरा ऊला तो बोलता हुआ बन गया है। गिरह के शेर में बहुत ख़ूबसूरती के साथ तरही मिसरे में आए शब्द "फिर" का निर्वाह किया गया है। दिल ख़ुश कर दिया। मिसरा ऊला में आए शब्द "पहले" ने बहुत अच्छे से गिरह को सार्थक कर दिया है। और अगले शेर में एक और भावकु बात कह दी है। सच में अब किसी खेल-खिलौने वाले को कोई बच्चा नहीं तलाशता है। अब कोई खेल-खिलौने वाला आता भी नहीं है। अंतिम शेर में सच्चाई की बात को बहुत अलग तरीके से बात को कहा गया है, लेकिन कमाल का शेर बन पड़ा है वो। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।


अंशुल तिवारी

भरी हो रौशनी जिनमें, वही किस्से तलाशेंगे,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
बड़ी सड़कों के आगे जो गली में है बनी टपरी,
वहीं पर जा कभी खोये हुए रिश्ते तलाशेंगे
हुआ अर्सा के ख़ुद को रख चुके थे, एक कोने में,
है दीवाली तो आओ अपने ही हिस्से तलाशेंगे
बज़ाहिर रौशनी-ओ-रौनकें दुनिया में फैली हैं,
उजाला दिल में हो ऐसे दीये सच्चे तलाशेंगे
बड़ी कड़वाहटें हैं अब मिठाई में दुकानों की,
ज़रूरत है के घर में अब 'पुए' मीठे तलाशेंगे
कभी घर आओ मुँह मीठा करो, ये ज़हर थूको तो,
कभी तो बैठ सँग-सँग, दिन वही बीते तलाशेंगे
ज़माने को भरे दिखते हैं पर अंदर से ख़ाली हैं,
समय है तो, कहाँ हम रह गए रीते? तलाशेंगे
है मुश्किल काम पर इतना यकीं है, हो ही जाएगा,
इरादे ग़र सभी मिलकर, यहाँ सच्चे तलाशेंगे


मतले में ही गिरह को बहुत सुंदर तरीक़े से बाँधा गया है। सच में हम उन्हीं क़िस्सों को तो तलाशते हैं, जो रौशनी से भरे होते हैं। हुआ अर्सा के खुद को शेर में अपने ही हिस्सों की तलाश बहुत ही कमाल है। अगले शेर में जिन सच्चे दीपकों की बात की गई है, वे दीपक आज की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। इन दीपकों का ही प्रकाश असल होता है। मिठाई की दुकानों में रसायनों की कड़वाहट के बीच घर में बने हुए गुड़ के मीठे पुओं में जीवन का रस तलाशना ही जीवन का असल आनंद है। ज़माने भर को दिखते हैं भरे, बहुत ही भावुक कर देने वाला शेर है। बहुत सी कहानियाँ याद दिला देता है। कहानियाँ, जो बीत गईं हमको रीत करते हुए। यह शेर देर तक मन के अंदर गूँजता रहता है। अंतिम शेर भी बहुत सुंदर है। सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ शेर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, वाह वाह वाह। 


आज मुशायरे में आदरणीय राकेश खंड़लवाल जी, दिगम्बर नासवा, मंसूर अली हाशमी, अभिनव शुक्ल और अंशुल तिवारी ने ख़ूब रंग जमा दिया है। आज रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली है, आज के दिन रूप और सौंदर्य का दिन होता है। आप सब दाद देते रहिए और इंतज़ार कीजिए अगले अंक का। 


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